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हिन्दी जैन भक्ति-काग्य और कवि
मिथ्या दुकड़
यह ब्रह्म जिनदासकी एक सफल कृति है। उसमे सादृश्यगत सौन्दर्य है। कविने एक स्थानपर लिखा है, जैसे दिनकरके निकलते ही कमल खिल जाते है, ठीक वैसे ही आदि जिनेश्वरके दर्शनोंसे भव्यों के मन विकसित हो जाते है। जैसे दिनकरसे अन्धकार फट जाता है, वैसे ही भगवान् मोहको विदीर्ण कर देते है।
भक्त युग-युगसे भगवान्के दरवाजेपर जाते रहे है, और वहां उन्होने नि:संकोच होकर अपने पापोको कहा है। उन्हें विश्वास था कि दयालु भगवान् अवश्यमेव क्षमा प्रदान करेंगे। जैन भक्त भी, त्रिभुवनके नाथ भगवान् जिनेन्द्रके पास गया है,
"हूँ विनती करूंहवें आपणीय । तूं त्रिभुवन स्वामी सुणि धणीय ॥ जे पाप करया ते कहूँ अनुस ।
ते मिथ्या दुकढ़ होउ नमंझ ॥२॥" भगवान्के अनन्त गुणोंका वर्णन करते हुए, उनकी वन्दना करना, एक पुराना रिवाज है । यहां भी ऐसा ही एक दोहा है,
"जिनवर स्वामी मुगति हिं गामी सिद्धि नयर मंडणो। भव बंधण खीणो समर सलीणो, ब्रह्म जिनदास पाय वंदणो ॥१॥"
(अन्तिम) यशोधरचरित्र ___ इसमें भक्त यशोधरका चरित्र वर्णित है। संस्कृत ग्रन्थोंका सहारा लिया गया है। भाषामें प्रसादगुण है। प्रारम्भमे ही कविने मुनिसुव्रतनाथ ( २०वें तीर्थकर ), शारदादेवी, गौतम गणधर और गुरु सकलकोत्तिको प्रणाम किया है
"मुनिसुव्रत जिन मुनिसुव्रत जी नतद्वं ते सार।
तीर्थकर जे वीसमुं वांछित बहु दान दातार ॥ १. आदि जिणेसर भुवि परमेमर सयाल दुक्ख विणासणो ।
भुवि कमल दिणेसर मोह तिमिर हर तत्त्व पदारथ भासणो॥
मिथ्या दुकड, पहला पद्य, आमेरशास्त्रभण्डारकी प्रति । २. इस काव्यकी प्रतिलिपि, पण्डित रूपचन्दीके पढनेके लिए, संवत् १८२६ में करवायी
गयी थी। प्रशस्तिसंग्रह, पृ० २४८, जयपुर, १९५० ई० ।