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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ६१ ब्रह्मजिनदासने उन भगवान् के गुणोंको सद्गुरुके प्रसादसे जाना था । भगवान्के गुणोंपर रीझकर ही उन्होंने भव-भवमें भगवान्‌की सेवाकी याचना की ।' कथाकोष संग्रह ' ર इस कोषमे छह कृतियाँ संकलित है : 'दशलक्षणव्रतकथा, 'निर्दोष सप्तमीव्रतकथा', 'चांदणषष्टिव्रतकथा', 'आकाशपंचमीव्रतकथा', 'मोक्षसप्तमी व्रतकथा' और 'पंचपरमेष्ठीगुणवर्णन' । 'पंचपरमेष्ठी गुणवर्णन' एक मुक्तक काव्य है। उसका प्रत्येक छन्द, एक पृथक् भावको सहेजकर चला है । उसमे गीतिपरता है, भाव-विभोरता और लय भी । यह पंचपरमेष्ठियोंको भक्तिसे सम्बन्धित एक उत्तम काव्य है । इस काव्यके सुनने और समझने मात्रसे ही, जीवके सभी मनोवांछित कार्य पूरे हो जाते है, और वह शिवपुरमे पहुँच जाता है । किन्तु सुनते और समझते समय उसका मन निर्मल होना चाहिए । धनपालरा इसमे धनपालके चरित्रका वर्णन है । धनपाल भगवान् जिनेन्द्रका भक्त था । स्थान-स्थानपर उसकी भक्तिका उल्लेख हुआ है । कविका विश्वास है कि चौबीस तीर्थंकर और स्वामिनी शारदाको प्रणाम करनेसे मनोवांछित फल उपलब्ध होते हैं ।" १. षट् कर्म स्वामी थापी पाए, धर्माधर्म वीचार तो, मुगति रमणी प्रगट की यो ए, त्रिभुवन जयजयकार तो । तेह गुण मे जाणो या ए, सदगुरु तणां पमावतो, भवि भवि स्वामी सेवसुं ए, लागु सह गुरु पाय तो । वही अन्तिम प्रशस्ति, पंक्ति ११-१४ । २. आमेरशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति । ३. पढ़े गुणे जे साभले, मनि घरी निरमल भाउ । मन वंछित फलरूवणा, पावे शिवपुर ठाउ ॥ पंचपरमेष्ठी गुणवर्णन, अन्तिम पाठ, दूसरा पद्य, आनंरशास्त्र भण्डारखाली प्रति । ४. इस रासकी प्रतिलिपि, पाण्डे रूपचन्दके अध्ययनार्थ, वि० स० १८०८ श्रावण सुदी १, रविवारको करवायी गयी थी । श्रमेरशास्त्र भण्डारकी हस्तलिखित प्रति । ५. वीर जिनवर नमुं ते सार, तीर्थंकर चौबीसमो । छित फल बहु दान दातार, सारद सामिण वीनवुं ॥ धनपालरास, मंगलाचरण ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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