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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
"संति जिणवर संति जिणवर सकल सुखकर, पंचम चके सर पवर संतिकरणं सवि दुरिय दुखहर । अवर सवे तिथेसरु चउद्दसरस बावन गणधर ॥१॥"
२२. कवि हरिचन्द (वि० सं० की १६वीं शतीका प्रथम पाद)
जैनोमे तीन हरिचन्द हुए है। एक तो संस्कृतके प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने 'धर्मशर्माभ्युदय' नामके प्रसिद्ध काव्यकी रचना की थी। दूसरे भट्टारक हरिचन्द थे, जिनके गद्य-बन्धका उल्लेख बाणभट्टने किया है। उन्होंने चरक-टीका भी लिखी थी। प्रस्तुत कवि हरिचन्द, इन दोनोंसे पृथक् थे। उनकी रचनाओंमे प्राचीन हिन्दीका विकसित रूप पाया जाता है। उनकी एक रचना, वि० सं० १६२० के लिखे हुए गुटकेमे मिली है। इससे सिद्ध है कि उसका निर्माण वि० सं० १६२० के पूर्व ही हुआ होगा। कवि हरिचन्द अग्रवाल वंशमे उत्पन्न हुए थे। __ उनकी रची हुई दो कृतियां उपलब्ध है, 'अनस्तमितव्रतसन्धि' और 'पंचकल्याणक' । दोनोंकी हो भाषामे प्राकृत और अपभ्रंशके शब्दोंका बाहुल्य है। फिर भी उनकी भाषाका मूल रूप, प्राचीन हिन्दीका विकसित रूप ही कहा जा सकता है। अनस्तमितव्रतसन्धि
यह काव्य १६ सन्धियोंमें पूर्ण हुआ है। पद्धणिया छन्दका प्रयोग किया गया है। प्रत्येक सन्धिके अन्तमे एक घत्ता है। इस काव्यका विषय रात्रि-भोजनके निषेधसे सम्बन्धित है। शैली इतनी मनोहर है कि निषेधको रूक्षता रंचमात्र भी आभासित नहीं होती। कविने इस काव्यको रचना भक्ति-भावसे की है, ऐसा उसने स्वयं ही लिखा है,
__ "भत्तिए जिणु पणवेवि, पयडिउ पद्धणिया छंदेण"
१. पं० भगवद्दत्तके अनुसार भट्टार हरिचन्द्र, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके भाई या निकट सम्बन्धी थे। राजशेखरने लिखा है कि उज्जैनीमें काव्यकार परीक्षामें हरिचन्द्र
और चन्द्रगुप्त दोनों परीक्षित हुए थे। देखिए, पं० नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, संशोधित साहित्यमाला,
बम्बई, अक्टूबर १९५६, पृ० ३०८।। २. उनकी 'अनस्तमितव्रतसन्धि' रचना, जयपुरके श्री दि. जैन बड़ा मन्दिरके
गुटका नं० १७१ में अंकित है। यह गुटका वि० सं० १६२०, पौष सुदी २ का लिखा हुआ है।