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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
वितरण भी वे कामधेनुके समान ही किया करते थे। वे क्षमावान्, ज्ञानवान्
और विवेकवान् थे। ऐसे उत्तमकोटिके विद्वान्के पास रहकर खुशालचन्दने शिक्षा प्राप्त की थो। शिक्षा-ग्रहणके उपरान्त ही वे जहानाबादमे आकर जयसिंहपुरा नामके मुहल्ले में रहने लगे थे। दिल्लीका ही नाम जहांनाबाद था। उस समय वहाँ सेठ सुखानन्दजी शाह बहुत प्रसिद्ध थे। उनके घरमे रहनेवाले गोकुलचन्द नामके ज्ञानी पुरुषकी प्रेरणासे ही श्री खुशालचन्दने 'हरिवंश पुराण'का पद्यानुवाद किया था। कविकी अधिकांश रचनाएं जयसिंहपुरामें रहकर ही बनीं । कभीकभी सागानेर भी आते रहते थे। उनकी जाति खण्डेलवाल थी।
खुशालचन्दने 'हरिवंशपुराण' (वि० सं० १७८०), 'उत्तरपुराण' ( वि०सं० १७९९), 'धन्यकुमारचरित्र', 'यशोधरचरित्र' (वि० सं० १७८१), 'जम्बूचरित्र', 'सद्भाषितावली'-( वि० सं० १७७३ ), 'व्रतकथाकोश' (वि० सं० १७८७ ), 'पद्मपुराण' (वि० सं० १७८३ ), पद और चौबीसी पाठका निर्माण किया था। इनमे पुराण और चरित्र अनूदित रचनाएँ है ।
पद
___ इनके रचे हुए पद जयपुरके ठोलियोके मन्दिरके गुटका नं० १२४ और जयपुरके ही बधीचन्दजीके मन्दिरके पदसंग्रह ४९२ में अंकित है। ठोलियोके मन्दिरका एक पद अत्यधिक सरस है। उसमें भक्त उलाहना देते हुए भगवान्से कहता है कि आपने अनेक अधमोंको तार दिया फिर मेरी बेर ढील क्यो करी है। आप मेरे गुण और अवगुणोंपर ध्यान मत दीजिए, अपने विरदको ओर निहारिए,
"तुम प्रभु अधम अनेक उधारै । ढील कहा हम बारो जी ॥ तारन तरन विरद सुन आयो और न तारण हारो। तुम बिन जनम मरण दुख पायौ । कमन आवै पारो जी । मो गुण अवगुण प्रति मत जावो । अपणी ओर निहारो। अंजन से पल मैं ही सुधारे और कहा अधिकारो जी॥ मैं विनती करहुं त्रिभुवन पति मेरो कारिज सारो।
चंद खुस्याल सरन चरनन को सो भवपार उतारो जी ॥" १. देव इन्द्र कोरति भये जु मूलस्यंघ भट्टारक को पदस्थ जाको सोहितु है। पूजारु प्रतिष्ठा करवाई अविसमकार मोहनी सुमूरति लखेतै मोहितु है ॥ जाही के सुगच्छ मांहि पण्डित श्रीय जु दास बानी कामधेनु तै सुज्ञान दोहिइतु है। खिमावान म्यानवान पण्डित विवेकवान राति घोष आगम विचार टोहिइतु है ।२. बही. पृ० २५६।