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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि छन्दोंका निर्माण हुआ है। कहा जाता है कि यह प्रतिमा अतिशयपूर्ण थी । उसकी भक्तिसे पाप तो दूर भागते ही थे, पुण्य-जन्य वैभव भी उपलब्ध होते थे। किन्तु भक्तिमे विभोर कवि वैभव तो चाहता ही नही, मोक्ष भी नहीं चाहता, उसे तो भव-भवमे अपने प्रभुके दर्शनोको ही प्यास है,
"तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोरा जी।
राज रिधि मांगउ नहीं, मवि भवि दरसन तोरा जी ॥१३॥" भगवान्के दर्शन कर भक्तका हर्षित हो जाना स्वाभाविक है। चकोर जैसे चन्द्रके दर्शन कर प्रसन्न होता है, वैसे ही भक्त भगवान्को देखकर आह्लादित हो जाता है । राज्योंके वैभवसे ऊपर उठना आसान नहीं है, किन्तु जो प्रभुके दर्शनोंको ही भव-भवमें चाहता है, उसके लिए यह कठिन भी नहीं है। कविताकी इन दो पंक्तियोमे ही भक्ति-रस जीवन्त-सा हो उठा है। ___कविका कथन है कि इस विश्वमे प्रभुके अतिरिक्त और कोई निःस्वार्थ भावसे सहायता करनेवाला नही है। विश्वके सभी प्राणी, यहाँतक कि माता, पिता और वनिता भी स्वार्थके साथी है। इस कथनका तात्पर्य है कि प्रत्येक प्राणी भगवान् जिनेन्द्रका ही सहारा ले, अन्यका आश्रय व्यर्थ है,
"मात पिता वनिता भाई, स्वारथि सवइ संगाई जी।
तुम्ह सम प्रभु कोई नहीं, इहरत परति सहाई जी ॥१४॥" वैराटपुरके तेरहवें जिननायक श्री विमलप्रभुका गुणगान करते हुए कविने लिखा है, वे प्रभु सकल ऋद्धि-सिद्धियोके देनेवाले है। उनकी भक्ति करनेसे मोक्ष तो स्वतः ही उपलब्ध हो जाता है। वे भगवान् चतुर्विध संघका मंगल करते है, और समूचे पापोको जड़से उखाड़ फेंकनेमें समर्थ हैं। मुनि जयलाल वन्दना करते है कि हे भगवन् ! आप अपना शुभ-दर्शन मुझे सदा प्रदान करें। इससे भक्तका जीवन कृतार्थ हो सकेगा,
"वैराटिपुर श्री विमल जिनवर सयल रिधि सिधि दायगो। इमि थुणिउ भत्तिहि नियइ सत्तिहि, तेरमउ जिणनायगो ॥ श्री सयल संघह करण मंगल, दुरिय पाप निकंदणो । श्री जयलाल मुणिंद जंपइ, देहि नाण सुदंसणो ॥१७-१८॥"
२५. भट्टारक जयकीति ( विक्रमकी १६वीं शताब्दीका उत्तरार्ध)
भट्टारक जयकोत्तिको मुनि श्री जयकीत्ति भी कहते है। उनकी रचना 'भवदेव चरित्र', जिस गुटकेमे निबद्ध है, वह विक्रम सं० १६६१, वैशाख सुदी १२