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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काम्य और कवि जब लगि हंस शरीर महि, तब लगु कीजह मोगु । राज तजहिं मिक्षा भमहि, हउं भूला सब लोगु ॥" सीता : "शुक-नासिक मृग-हग पिक-बइनी, जानुकि वचन लवह सुखि रहनी अपना पिय पइ अमृत जानी, अवर पुरुष रवि-दुग्ध समानी ॥ पिय चितवनि चितु रहइ अनन्दा, पिय गुन सरत बढ़त जस कंदा । प्रीतम प्रेम रहइ मनपरी, तिनि बालिमु संगु नाहिं दूरी । सुख चाहइ ते बावरी, परपति संग रति मानि । जिउ कपि शीत विथा मरह, तापत गुंजा आनि ॥ तृष्णा तो न बुझाइ, जलु जब खारी पीजिये। मिरगु मरइ धपि धाइ, जल धोखह थलि रेतकह ॥" मनकरहा रास ___ यह एक रूपक-काव्य है। इसमे मनको 'करहा' बनाया गया है । करहा ऊंटको कहते है । सबसे पहले मुनि रामसिंहने अपने 'पाहुड दोहा' मे मनके साथ करहाकी उपमा दो है । मुनिजी राजस्थानी थे, अतः उनके द्वारा दी गयी इस उपमामे मौलिकता और स्वाभाविकता है। पं० भगवतोदास पजाबी थे। उन्होंने अवश्य ही 'मनकरहा' 'पाहुड दोहा से लिया होगा, किन्तु केवल एक शब्द ले लेनेसे कोई रचना 'बासी' नहीं हो जाती। 'मनकरहा रास' एक सरस और मौलिक कृति है। उसमें २५ पद्य हैं। वहां संसाररूपी रेगिस्तानमें मनरूपी करहाके भ्रमणकी कहानी कही गयी है। जोगीरास ___ इसमे ३८ पद्य है । उनमे बताया गया है कि यह जीव इन्द्रिय सुखके कारण संसारमें भटक रहा है। उसे चाहिए कि अपने मनको स्थिर कर, अपने ही आन्तरिक घरमें विराजमान चिदानन्दरूपी शिवनायकका भजन करे । ऐसा करनेसे वह भव-समुन्द्रसे पार हो जायेगा "पेखहु हो तुम पेखहु माई, जोगी जगमहि सोई । घट-घट-अन्तरि वसइ चिदानन्दु, अलख न लखिए कोई । भव-वन-मूल रह्यौ भ्रमिरावलु, सिवपुर-सुध विसराई परम प्रतीन्द्रिय शिव-सुख-तजि करि, विषयनि रहिउ लुभाई। अनंत चतुष्टय-गुण-गण राजहिं तिन्हकी हडं बलिहारी। मनिभरि ध्यानु जयहु शिवनायक, जिउं उतरहु भवपारी ॥"
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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