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हिन्दीके आदिकालमें जैन भक्तिपरक कृतियाँ
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"वाजिय संख असंख नादि काहल दुदु दुडिया, घोड़े चड़इ सल्लारसार राउत सींगड़िया । तउ देवालउ जोत्रि वेगि धाधरि खु झमकइ,
सम विसम नवि गणइ कोई नवि वारिउ थक्कइ ॥" जिनप्रभसूरि ( १४वीं शताब्दी वि० सं०) खरतरगच्छीय जिनसिंहसूरिके शिष्य थे। उन्होंने 'पद्मावतीदेवो चौपई की रचना की थी। यह कृति अहमदाबादसे प्रकाशित 'भैरव पद्मावती कल्प' में छप चुकी है। यह देवी पद्मावतीकी भक्तिसे सम्बन्धित है। एक पद्य इस प्रकार है,
"श्रीजिन शासणु अवधाकरि, झायहु सिरि पउमावइ देवि।
मविय लोय आणंद परि, दुल्हउ सावयजम्म लहेवि ॥" चौदहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध कवि रल्हने 'जिणदत्त चौपई को रचना वि० सं० १३५४ में की थी। इसकी एक हस्तलिखित प्रति जयपुरके पाटौदीके मन्दिरमें मौजूद है। इसमे पांच-सौ पचपन पद्य है। इसमें जिनदत्तसे सम्बन्धित भक्तिपरक भाव प्रकट किये गये है। काव्यत्वको दृष्टिसे भी कृति महत्त्वपूर्ण है। इसी शताब्दीके कवि धेल्हने 'चउवीसी गीत'की रचना वि० सं० १३७१ मे की। यह एक सरस रचना है। इसमें चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति की गयी है।
इसी शताब्दीमें आनन्दतिलकने 'महाणदिदेउ' नामकी रचनाका निर्माण किया । इसकी एक हस्तलिखित प्रति आमेर-शास्त्र भण्डार जयपुरमें मौजूद है। अब तो उसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणो पत्रिकामे हो चुका है। इसमें लगभग ४४ पद्य है । यह काव्य आध्यात्मिक भक्तिका निदर्शन है। गुरु महिमाके दो पद्य देखिए,
"गुरु जिणवरु गुरु सिद्ध सिउ, गुरु रयणत्तय सारु ।
सो दरिसावइ अप्प परु आणंदा मवजल पावइ पारु ॥३६॥ सिक्ख सुणइ सदगुरु भणइ परमाणंद सहाउ । परम जोति तसु उल्हसई आणंदा कीजइ णिम्मलु भाउ ॥२९॥"