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________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि अशोका मुदेका विवेका विधानी । जगज्जन्तुमिन्ना विचित्रावसानी ॥ समस्तावलोका निरस्ता निदानी । नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी ॥" अर्द्धकथानक अर्द्धकथानककी रचना वि० सं० १६९८ में हुई थी। इसमे बनारसीदासके जीवनके ५५ वर्षकी 'आत्म-कथा' है। यह नाम स्वयं बनारसीदासका दिया हुआ है। उन्होंने अपनी १०० वर्षकी आयु मानकर, ५५ वर्षोंको आधी आयुमे शामिल किया, और इसका नाम 'मर्द्धकथानक' रखा। किन्तु इस रचनाके दो वर्ष उपरान ही उनका स्वर्गवास हो गया। अतः 'बनारसी-पद्धति' में आगेका जीवन होगा, एक अनुमान-मात्र है। ___ इस कथानकमें ६७५ दोहे-चौपाइयां है। उनमें बनारसीदासके जीवनको मर्मस्पर्शी घटनाओके साय-साथ तत्कालीन भारतको सामाजिक अवस्थाका भी यथार्थ परिचय अंकित है। आजसे ३०० वर्ष पहलेके साधारण भारतीय जीवनका दृश्य ज्योंका-त्यों उपस्थित किया गया है। ___ यह एक सफल आत्म-कथा है। इसमें जो कुछ कहा गया है, संक्षेपमे और निष्पक्षताके साथ। बनारमीदास चतुर्वेदोने लिखा है, "अपनेको तटस्थ रखकर अपने सत्कर्मों तथा दुष्कर्मोपर दृष्टि डालना, उनको विवेककी तराजूपर बावन तोले पाव रत्ती तौलना, सचमुच एक महान् कलापूर्ण कार्य है।" डॉ० माताप्रसाद गुप्तका कथन है, "कभी-कभी यह देखा जाता है कि आत्म-कथा लिखनेवाले अपने चरित्रके कालिमापूर्ण अंशोंपर एक आवरण-सा डाल देते है - यदि उन्हें सर्वथा बहिष्कृत नहीं करते - किन्तु यह दोष प्रस्तुत लेखकमे बिलकुल नही है।" पं. नाथूराम प्रेमीने भी लिखा है, "इसमे कविने अपने गुणोंके साथ-साथ दोषोका भी उद्घाटन किया है, और सर्वत्र ही सचाईसे काम लिया है।" १. शारदाष्टक, पद्य ७, ६, बनारसी विलास, पृ० १६६-१६७ । २. अर्द्धकथानक, पद्य ६७०, पृ० ७४ | ३. वही, पद्य ६६३, पृ० ७३ । ४. अर्द्धकथा, डॉ० माताप्रसाद गुप्त-दारा सम्पादित, हिन्दी साहित्य परिषद् , प्रयाग विश्वविद्यालय, भूमिका, पृष्ठ १५।। ५. बनारसीदास चतुर्वेदी, 'हिन्दीका प्रथम प्रात्मचरित', अनेकान्त, वर्ष ६, किरण १, पृष्ठ २१। ६. वही, पृष्ठ २४ । ७. अर्द्धकथा, प्रयाग, भूमिका, पृष्ठ १४ । ८. अर्द्धकथानक, बम्बई, भूमिका, पृष्ठ २२ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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