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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
जैन भक्तिके विशाल स्तम्भ : प्रबन्ध काव्य
हिन्दीके जैन कवियोने अनेक महाकाव्योका निर्माण किया है। उनमे जिनेन्द्र अथवा उनके भक्तोंकी भक्ति ही मुख्य है। जैन अपभ्रंशके महाकाव्योंसे प्रभावित होते हुए भी हिन्दीके जैन भक्ति-काव्योंमे कुछ अपनी विशेषताएँ भी है। अपभ्रंशके महाकाव्य स्पष्ट रूपसे दो भागोमे विभक्त किये जा सकते है । स्वयम्भूका 'पउमचरिउ', पुष्पदन्तका 'महापुराण', वीर कविका 'जम्बूस्वामीचरिउ' और हरिभद्रका 'णेमिणाहचरिउ' पौराणिक शैलीमे तथा धनपाल धक्कड़की 'भविसयत्त कहा', पुष्पदन्तका 'णायकुमारचरिउ' और नयनन्दिका 'सुदंसणचरिउ' रोमाचक शैलीमे लिखे गये है । यद्यपि रोमांचक शैलीके महाकाव्योंका भी मूलस्वर भक्तिपरक ही है, किन्तु उनमे युद्ध और प्रेमका अभिनिवेश भी गौण नहीं है ।
हिन्दीके जैन महाकाव्योंमे पौराणिक और रोमांचक शैलीका समन्वय हुआ है। सधारुका 'प्रद्युम्नचरित्र', ईश्वरसूरिका 'ललितांगचरित', ब्रह्मरायमल्लका 'सुदर्शनरास', कवि परिमल्लका 'श्रीपालचरित्त', मालकविका 'भोजप्रबन्ध', लालचन्द लब्धोदयका 'पद्मिनीचरित', रामचन्द्रका 'सीताचरित' और भूधरदासका 'पार्श्वपुराण' ऐसे ही महाकाव्य है । इनमे 'पद्मिनीचरित' की जायसीके 'पद्मावत' से और 'सोताचरित' की तुलसीके 'रामचरितमानस' से तुलना की जा सकती है। अवशिष्ट महाकाव्योंमे भी कथाके साथ भक्तिका स्वर ही प्रबल है।
जैन महाकाव्योंकी दूसरी विशेषता है बीच-बीचमे मुक्तक स्तुतियोकी रचना। यदि महाकाव्य तीर्थकरके जीवन-चरितसे सम्बद्ध होता है, तो पंचकल्याणकोंके अवसरपर स्तुतियोंका निर्माण होता ही है। अपभ्रंशकी अपेक्षा हिन्दीके महाकाव्योंमें इन स्तुतियोंकी रचना अधिक हुई है । भूधरदासके 'पार्श्वपुराण' में दस स्तुतियां हैं । ठीक प्रसंगपर निबद्ध होनेके कारण उनका सहज सौन्दर्य कथार्की रोचकताका सहारा पाकर और भी बढ़ जाता है।
तीसरी विशेषता है इन महाकाव्योंका अन्तिम अध्याय, जिसमें नायकके केवलज्ञान प्राप्त करनेका भावपूर्ण विवेचन होता है। यहां नायकको आत्माके परमात्मरूप होनेकी बात कही जाती है। इसीको जीवात्माका परमात्माके साथ तादात्म्य होना कहते हैं । उस समय अन्तः और बाह्य आनन्दकी सृष्टिको पर्याप्त अवसर मिलता है । अर्थात् कविको भावुकता मुखर हो उठती है। उस समय कविके मुखसे जो कुछ निकलता है, वह आत्माके परमात्मरूपकी उपासना