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तुलनात्मक विवेचन
"भगवंत मजो सु तजो परमाद,
समाधि के संग में रंग रहो। अहो चेतन त्याग पराइ सुबुद्धि,
गहो निज शुद्ध ज्यों सुक्ख लहो । विषया रस के हित बूड़त हो,
भव सागर में कछु शुद्धि गहो । तुम ज्ञायक हो षट द्रव्यन के,
तिन सों हित जानि के आप कहो।" श्री विनयप्रभ उपाध्याय (१५वीं शतो विक्रम) ने 'सीमन्धरस्वामीस्तवनम्'मे लिखा है कि दोपोके कारण यह जीव भव-समुद्रमे डब रहा है, उसे तारनेमे स्वामी सीमन्धर ही समर्थ है, "मोह मर बहुल-जल पूर संपूरिए,
विषय-घण-कम्म-वराजि संराजिए। भव जलहि मजिक निबडंत जंतू-कए,
___ सामि सीमंधरो पोजिम सोहए।" जैन और वैष्णव दोनो ही कवियोने भगवानको उनके विरद' का स्मरण दिलाया है। भगवानका 'विरद' भक्तोको संसारसे तारनेका है, चाहे वे दोपोंसे युक्त हों अथवा उन्मुक्त । सूरदासने एक पदमे लिखा है कि-हे भगवन ! मै तो दोषोसे भरा हआ है, यदि आप अपने विरद' का स्मरण करेंगे, तभी मेरा काम बनेगा. अन्यथा नहीं।
"सूरदास विनती कह विनवै, दोषनि देह मरी।
अपनो बिरद सम्हारहगे तो यामें सब निवरी ॥" द्यानतरायने भी भगवान नेमीश्वरके तारन-तरनके 'बिरद' को स्वीकार किया है । वे संसारके पाप जलानेमे विख्यात है,
"सकल मवि-अध-दहन वारिद, बिरद तारन-तरन ।
इन्द्र चन्द्र फनिन्द ध्यावे, पाय सुख दुख हरन ॥" १. भगवतीदास, 'भैया', शत अष्टोत्तरी, १०२वाँ संवया, ब्रह्मविलास, पृ० ३१ । २. विनयप्रम उपाध्याय, सोमन्धरस्वामीस्तवनम् , तीसरा पद्य, Ancient Jain Hymns, Charlotte Krause edited, Scindia
Oriental Institute Ujjain, 1952, P. 121. ३ सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, १३०वा पद, पृ० ४३ । ४. द्यानतपदसंग्रह, पहला पद, पृ०१।