________________
जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
३५१
"ॐसम को मंत्र जु नाहीं, पंच परम पद याके मांही। ॐ मन्त्र जु भगवत रूपा, ॐ श्रुति संमृति को भूपा ॥ ॐकार स्वरूप निरंजन, ॐकार सकल श्रुति रंजन ।
ॐकार निधान अनूपम, ॐकार प्रधान जगूपम ॥" जिनेन्द्रका दास आवागमनके चक्करसे बच जाता है। ऐसे अनन्त दास भवसमुद्रसे पार हो जाते है,
"इक भव धरि वह तो मैं मिलिहै, तेरो दास न जग में रुलिहै । तेरे दास अनंत जु उघरे,
तोकौं पाय बहुत जन उबरे ॥" साधु 'निरमोही' होकर, अर्थात् संसार त्याग कर, जिनेन्द्रका ही भजन करते हैं । जिनेन्द्र अनुभूति रूप है । उनका स्वभाव शुद्ध होता है और प्रभाव अमित कविने इस भक्ति-भावनाको त्रोटक छंदमै अभिव्यक्त किया है,
"जे साधु अतन्द्रा वसहिं जु कन्द्रा, मत जिन चन्द्रा दिढ जु धरैं । ते जपहिं जु तो ही है निरमोही, छांडि सवोही ध्यान करें । द है अनुभूती रूप विभूती नाहिं प्रसूती क्वापि धरै। अतिरिक्त विमावो शुद्ध स्वमावो अमित प्रभावो काल हरै ॥"
भगवान्की भक्ति करनेसे अनेक गुण उत्पन्न होते हैं। यह गुण जननी और शिवजननी दोनों ही है । गुणमाता भक्ति ही सुरमाता भी है,
"तुम्हरी भक्ति जु नाथ जी उपजावै गुन धोक । तातें गुन जननी इहै शिव जननी विनु शोक ॥ गुनमाता सुरमात है तेरी भक्ति दयाल
और न सुरमाता प्रभू इह मार्षे सुरसाल ॥" सन्त कवियोंकी भांति पं० दौलतरामने लिखा है कि केवल मूड मुंडानेसे कुछ नहीं होता है, आतमरामकी सेवा करनेसे ज्ञान उत्पन्न होता है । आतमरामकी सेवा केवल भगवान्की कृपासे ही प्राप्त हो सकती है,
"मुंड मुंडाये कहा, तस्व नहिं पा जौ लौं। मुढनि को उपदेस सुनै मुक्ति जु नहिं तोलौं । मलमूत्रादि मत्यो जु देह कबहूं नहिं शुद्धा। शुद्धो आतमराम ज्ञान को मूल प्रबुद्धा ॥