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________________ तुलनात्मक विवेचन और ब्रह्मको एक माना है । आठ कर्मोके क्षयसे शुद्ध आत्माकी उपलब्धिको सिद्धि कहते हैं, और ऐसी सिद्धि करनेवाले सिद्ध कहलाते है' । वे अमूर्तिक, अव्यक्त, ज्ञानयुक्त और शाश्वत सुखके धारणकर्ता होते हैं । उनमें सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मता, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध नामके आठ गुण माने गये है। कबीरका 'निर्गुण ब्रह्म' अमूर्तिक और अव्यक्तको दृष्टिसे तो 'सिद्ध' के समान ही हैं, किन्तु उसमे गुणोंका ऐसा सयुक्तिक विभाजन नहीं किया गया है । उसमे ऐसा भावोन्मेष भी उपलब्ध नहीं होता । कबीरने जिस आत्माका निरूपण किया है, वह विश्वव्यापी ब्रह्मका एक अंश-भर है, जबकि जैन कवियों की 'आत्मा' कर्ममलको धोकर स्वयं ब्रह्म बन जाती है, वह किसी अन्यका अंश नहीं है । इस भाँति कबीरका ब्रह्म एक है, जब कि जैनोंके अनेक, किन्तु स्वरूपगत समानता होनेके कारण उनमे भी एकत्वकी कल्पना की जा सकती है । कबीरने जिस ब्रह्मकी उपासना की है, उसपर उपनिषदों, सिद्धों, योगियों, सहजवादियों और इस्लामिक एकेश्वरवादियोंका प्रभाव पड़ा है | आचार्य क्षितिमोहन सेनकी दृष्टिमे कबीरदासने अपनी आध्यात्मिक क्षुधा और विश्वप्रासी आकांक्षाको तृप्त करनेके लिए ही ऐसा किया है। जैनों का ब्रह्म तो आध्यात्मिकताका साक्षात् प्रतीक ही है । उसपर किसी अन्यका प्रभाव नहीं है । वह अपनी ही पूर्व परम्पराका पोषण करता है । भावुकता के क्षेत्र में भी यह ही बात है। कबीरका ज्ञानी ब्रह्म सूफ़ियोंके प्रभावसे प्रेम और भक्तिका विषय बन सका, जब कि जैनोंके सिद्ध सदियों पूर्वसे भक्ति के आलम्बन और प्रेमके आकर्षण - केन्द्र बने चले आ रहे थे । आचार्य कुन्दकुन्द ( वि० सं० पहली शती ) ने सबसे पहले प्राकृत भाषामें 'सिद्धभक्ति' लिखी, आचार्य पूज्यपाद और सोमदेवने उसीको संस्कृत में प्रशस्त किया । 'सिद्धभक्ति से ४५९ १. आचार्यं पूज्यपाद, सिद्धभक्तिः, पहला श्लोक, दशभक्तिः, शोलापुर, १६२१ ई०, पृ० २७ । २. संमत्त णाण दंसण वीरिय सुहुमं तहेव अवगहणं । अगुरुलहुमण्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, सिद्धभक्तिः, दशभक्तिः, शोलापुर, पृ० ६६ । ३. परमात्मप्रकाश, Introduction, डॉ० ए० एन० उपाध्ये लिखित, पृ० ३४-३५ | ४. "कबीरकी आध्यात्मिक क्षुधा और आकांक्षा विश्वग्रासी है, इसीलिए उन्होंने हिन्दू, मुसलमान, सूफी, वैष्णव, योगी प्रभृति सब साधनाओंको जोरसे पकड़ रखा है।" आचार्य क्षितिमोहन सेन, कबीरका योग, कल्याण, योगांक, १० २६६ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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