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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि प्रविष्ट हुई है। इसे सम्यग्दृष्टि जीव जान सकते है, मिथ्यादृष्टि नहीं । ऐसी जिनवाणो संसारमें सदा जयवन्त हो,
"वासु हृदै-द्रह सौं निकली, सरिता सम है श्रुत-सिन्धु समानी ॥ यातें अनंत नयातम लच्छन, सत्य स्वरूप सिधंत बखानी।
वुद्ध लखै न लखै दुरखुद्ध, सदा जग माहि जगै जिनबानी ॥" बनारसी विलास ___ यह बनारसीदासकी फुटकर रचनाओंका संग्रह है। आगरेके दीवान जगजीवनने वि० सं० १७०१ चैत्र सुदी २ को उनकी बिखरी रचनाओंको एक स्थानपर संकलित कर दिया था। और उस संकलनका नाम रखा था 'बनारसी विलास। __ 'बनारसी विलास' में बनारसीदासको ५० रचनाएं संगृहीत की गयी हैं। उनमें 'कर्मप्रकृतिविधान' नामको अन्तिम कृति भी है, जो फागुन सुदी ७ वि० सं० १७०० को समाप्त हुई थी। 'सूक्त मुक्तावली' संस्कृतके सिन्दूर प्रकरणका पद्यानुवाद है। इसमें कुछ पद्य बनारसीदासके मित्र कुँअरपालके रचे हुए है।''ज्ञान-वावनी' पीताम्बर नामके किसी कविकी रचना है। उसमे बनारसीदासका गुण-कीर्तन किया गया है। अवशिष्ट रचनाओमे 'जिनसहस्रनाम', 'शिवमन्दिर', 'शिवपचीसी', 'भवसिन्धु चतुर्दशी', 'शारदाष्टक', 'नवदुर्गा विधान', 'अष्टप्रकारोजिनपूजा', 'दसबोल', 'अजितनाथके छन्द', 'शान्तिनाथ स्तुति', 'साधु वन्दना' और फुटकर पद्य पंचपरमेष्ठी और देवियोंकी भक्तिसे सम्बन्धित हैं । 'ध्यान बत्तीसी', 'अध्यातम फाग', 'अध्यातम गीत', 'अध्यात्म पदपंक्ति' और 'परमार्थ हिंडोलना', आत्मा, ब्रह्म अथवा सिद्धकी वन्दनामें रची गयी कृतियां हैं। ___ उपर्युक्त ५० रचनाओंमें केवल चारके निर्माणका काल दिया है । 'ज्ञानबावनो' वि० सं० १६८६ में, "जिनसहस्रनाम' वि० सं० १६९० में, 'सूक्त मुक्तावली' वि० सं० १६९१ में और 'कर्मप्रकृति विधान' वि० सं० १७०० में रची गयी थी। बची हुई कृतियोंका रचनाकाल 'अर्द्धकथानक से विदित हो जाता है।
'बनारसी विलास' की फुटकर रचनाएँ उत्तम काव्यकी निदर्शन हैं। उनमे भक्ति और आध्यात्मिकता तो है ही, भावोन्मेष भी कम नहीं है। इसके साथ-साथ
१. बनारसी विलास, जयपुर, पृ० २४१ । २. इसमें ४ पछ है, जिनमें २१ तक तो बनारसीदासका नाम है, और उसके बाद ५६,६४, ६७, ७, ८० और ८२, छह पदोंमें 'कोरा' या कुंभरपालका ।