Book Title: Bharat Bahubali Mahakavyam
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishwa Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपायकृशलादिनि भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् YHMANY अनुवादक मूनि दूलहराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुण्यकुशलगणिविरचितं भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् आशीर्वचन आचार्य तुलसी प्रस्तुति मुनि नथमल मुनि नमिल प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबंध संपादक श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन विभाग जैन विश्व भारती, लाडनूं २५०० वां निर्वाण दिवस विक्रम संवत् २०३१ सन् १९७४ पृष्ठ ५४० मूल्य ३०/ मुद्रक : एस. नारायण एण्ड संस ( प्रिंटिंग प्र ेस ) ७११७/१८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली- ६. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE PUNYAKUSHALAGANI'S BHARAT BAHUBALI MAHAKĀVYAM Translated by Mani Dulaharaj Publisher Jain Vishwa Bharati Ladnup (Rajasthan) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .17th. Century Jain Epic Edited and translated on the basis of rare manuscript. First edition-1974. On the holy occassion of 25th. Centinary of Lord Mahavira. Printers : S. Narayan & Sons (Printing Press) 7117/18, Pahari Dhiraj Delhi-6 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी उपलक्ष में Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मघव-कालू-तुलसी-इति आचार्यत्रयीचरणेषु, यैरस्य महाकाव्यस्य अस्तित्वरक्षायै पटुप्रयत्नो व्यधायि । Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'भरतबाहुबलिमहाकाव्यं' श्री पुण्यकुशलगणि द्वारा रचित महाकाव्य है। इसकी पंजिकायुक्त एक खण्डित प्रति तेरापन्थी शासन संग्रहालय में है । एक प्रति आगरा में विजयधर्मसूरि ज्ञान मन्दिर में है, जिसमें पंजिका नहीं है । प्रस्तुत- सम्पादन दोनों प्रतियों के आधार पर हुआ है । खण्डित श्लोकों की पूर्ति मुनि श्री नथमल जी ने की है। इसका हिन्दी अनुवाद अत्यन्त परिश्रम के साथ मुनि श्री दुलहराज जी ने किया है । अद्यावधि अप्रकाशित इस काव्य को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्वभारती, लाडनूं को प्राप्त हो रहा है, यह हर्ष का विषय है। ___ आशा है प्रथम बार प्रकाशित इस काव्यकृति का विद्वान् स्वागत करेंगे। दिल्ली .. कार्तिक कृष्णा १५, . श्रीचन्द्र रामपुरिया निदेशक पागम एवं साहित्य प्रकाशन २०३१ .. (२५०० वा महावीर निर्वाण दिवस) Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचनम् भरतबाहुबलिमहाकाव्यमत्यन्तमस्ति दुर्लभम् । अस्माकं संघे जयाचार्यसमयादेतत् प्राप्तमस्ति । मघवगणिनः प्रवचनसमयेऽस्य वाचनमकुर्वन । तदानीं तेषां गभीरया गिरा वातावरणं प्रकम्पितमिवाऽजायत। जयाचार्यसमये हस्तलिखितादर्शानामन्वेषणं भृशं जातम् । क्वाऽपि काव्यस्यास्य प्रतिहस्तगता नाभूत् । केनापि मुनिना सङ्घाद् बहिर्गच्छता नीता तत्प्रतिः । तस्याः पत्रद्वयं मघवगणिनः पुस्तके स्थितमासीत् । तदाधारेण अन्वेषणं कृतम् । कालूगणिनः समये तस्याः साम्प्रतमुपलब्धानि पत्राणि लब्धानि । मयाऽपि तस्य काव्यस्य गवेषणा कृता। छोगमलजीचोपडाभिधेन तेरापंथिमहासभामंत्रिणा अन्विष्टमिदं प्रतिलिपिश्च कारिता। तां दृष्ट्वा मम मनसि महान् तोषो जातः । प्रतिलिपिकरणाय मम तत्परताऽभूत् । प्रयत्नपूर्वकं तां पूरयित्वा प्रतिलिपिः कृता मुनिनथमलेन । मन्त्रिमुनेरपि महान् रस आसीत् अस्मिन् काव्ये । पाठ्यक्रमप्येतत् नियोजितम् । अस्मिन् निर्वाणशताब्दीसमये जनविश्वभारतीसंस्थानप्रकाशनाधिकारिणा श्रीचंद्रेण प्रकाशनार्थं याचितमिदं काव्यम् । आगमप्रकाशनेन सार्द्ध अस्यापि प्रकाशनं कृतम्। : . हिन्दी अनुवादस्य अपेक्षा मुनिदुलहराजेन पूरिता । अनुवादोऽपि सम्यक् कृतः । अस्य सम्पादने मुनिनथमलस्य योगः, अनुवादे मुनिदुलहराजस्य योगः। मुनिदुलहराजः अध्यवसायपरायणो विद्यते । स कार्य तत्कालं निष्पन्नं कुरुते । श्रीचन्द्रस्य तृतीयो योगः । प्रकाशनमपि आकर्षकमस्ति । एतत् काव्यं जनताहस्ते समागतमिति मम मनसि महान् हर्षः, विदुषां समक्ष प्रस्तुतमस्तीति हृष्याम्यतितराम् । अस्मिन् पुण्ये भगवतो महावीरस्य पञ्चविंशतितमे निर्वाणशताब्दीसमयेऽस्य प्रस्तुतीकरणं सर्वथा महत्वमञ्चति । २५०० वीरनिर्वाणदिवसे, इन्द्रप्रस्थे। आचार्य तुलसी Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति विधा की दृष्टि से काव्य दो प्रकार के माने जाते हैं-प्रेक्ष्य और श्रव्य। जो रंगमंच पर अभिनीत होते हैं वे 'प्रेक्ष्य' और जो सुने या पढ़े जाते हैं वे 'श्रव्य' काव्य होते हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने प्रेक्ष्य काव्य के दो भेद किए हैं—पाठ्य और गेय । नाटक, प्रकरण आदि पाठ्य और रासक आदि गेय काव्य होते हैं। शैली के आधार पर श्रव्य काव्य के तीन प्रकार होते हैं-गद्य, पद्य और चम्पू । विषय-वस्तु की योजना की दष्टि से पद्य काव्य दो प्रकार का होता है-प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य । प्रबंध काव्य महाकाव्य और खण्डकाव्य-इन दो भागों में विभक्त होता है। खण्डकाव्य में जीवन के विविध रूप चित्रित नहीं होते, उसके किसी अंगविशेष का ही चित्रण होता है । वह चित्रण अपने आप में पूर्ण होता है। महाकाव्य में जीवन का सर्वांगीण चित्रण होता है। उसका नायक किसी प्रख्यात राजवंश में उत्पन्न और धीरोदात्त होना चाहिए । उसकी रचना छंदोबद्ध होनी चाहिए। छन्द का प्रयोग प्रतिपाद्य-विषय के अनुकूल तथा सर्ग का अन्तिम श्लोक भिन्न छन्द का होना चाहिए। उसके सर्ग आठ से अधिक होने चाहिएं। प्रारंभ में मंगलाचरण का होना आवश्यक है। उसमें शृंगार, वीर और शान्त- इनमें से कोई एक रस प्रधान और शेष रस गौण होने चाहिएं । उसका नाम कथावस्तु या चरितनायक के नाम पर होना चाहिए। .. प्रस्तुत रचना का नाम 'भरतबाहुबलिमहाकाव्यं' है। पंजिकाकार ने इसे महाकाव्य बतलाया है। महाकाव्य के उक्त मानदण्डों के आधार पर इसे विशुद्ध महाकाव्य या खण्डकाव्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता। इसमें जीवन का सर्वांगीण चित्रण नहीं है । इसमें मुख्यतः भरत और बाहुबली के जीवन का एक पक्षयुद्ध का प्रसंग वर्णित है । प्रारंभ में मंगलाचरण नहीं है। इसका प्रारंभ इस श्लोक से होता है अथार्षमिर्भारतभूभुजां बलाद्, हृतातपत्रः स्वपुरीमुपागतः। विमृश्य दूतं प्रजिघाय वाग्मिनं, ततौजसे तक्षशिलामहीभुजे ॥ (१११) उक्त दृष्टिकोण से इसे महाकाव्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता। १. साहित्य दर्पण ६।३२६: खण्डकाव्यं भवेत् काव्यस्यैकदेशानुसारि च । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ - इसमें अठारह सर्ग हैं। सर्ग के अन्तिम श्लोक का छन्द उसके मुख्य छन्द से भिन्न है । इसमें वीर रस प्रधान और शेष रस गौण हैं। इन लक्षणों से इसे खण्डकाव्य की कोटि में भी नहीं रखा जा सकता । इन दोनों लक्षणों की समन्विति के कारण इसे कोई तीसरी संज्ञा दी जा सकती है। इसमें एक प्रयोजन की सिद्धि के लिए रचना का प्रबन्ध है इस दृष्टि से इसे विशुद्ध अर्थ में एकार्थ काव्य या काव्य कहना चाहिए। . भाषा की दृष्टि से ___ काव्य-सौष्ठव के पद-लालित्य और अर्थ की रमणीयता-ये दो प्राथमिक अंग हैं । प्रस्तुत काव्य यद्यपि रीतिबद्ध है फिर भी उसमें काव्य सम्बन्धी रूढियों की जकडन नहीं है। इसमें कवि ने अपने स्वाभाविक प्रतिभा का उपयोग किया है। फलतः इसमें स्वाभाविकता और कलात्मकता-दोनों एक साथ परिलक्षित होते हैं। इसमें भाषा की जटिलता नहीं है। ललित पदावलि में सरलता से गुंफित अर्थ पाठक के मन को मोह लेता है । पद-लालित्य और स्वाभाविक शब्दरचना की दृष्टि से निदर्शन के रूप में ये श्लोक प्रस्तुत किए जा सकते हैं पुरा चर ! भ्रातरमन्तरेण, शशक न स्थातुमहं मुहूर्तम् । ममाऽधुनोपोष्यत एव दृष्ट्या, व्यस्तितो मे दिवसाःप्रयान्ति ॥ (२०१३) सा प्रीतिरङ्गीक्रियते मया नो, जायेत यस्यां किल विप्रयोगः। जिजीविवावां यदि विप्रयुक्तौ, प्रीतिर्न रीतिहि विभावनीया ॥ (२०१४) आडम्बरो हि बालानां, विस्मापयति मानसम् । मादृशां वीरधुर्याणां, भुजविस्फूर्तयः पुनः॥ (३।२६) देव ! चन्द्रति यशो भवदीयं, सांप्रतं क्षितिभुजामितरेषाम् । तारकन्ति च यशांसि कृतित्वं, तत्तवैव न हि यत्र कलङ्कः ॥.(६।४७) प्रस्तुत काव्य की भाषा जैसे गरिमापूर्ण है वैसे ही इसमें अर्थ-गौरव भी है ! कवि ने कुछ प्रसंगों में बहुत ही मार्मिक व्यंजना की है। भरत ने बाहुबली से कहलाया भवतात् तटिनीश्वरोन्तरा, विषमोऽस्तु क्षितिमृच्चयोन्तरा। सरिदस्तु जलाधिकान्तरा, पिशुनो माऽस्तु किलान्तरावयोः । (४।१५) कहीं कहीं विस्तार के कारण अर्थ की श्लथता भी आई है । जैसेप्रणयस्तटिनीश्वरादिकः, पतितैरन्तरयं न हीयते । पिशुनेन विहीयते क्षणादधिकः सिन्धुवराद्धि मत्सरी ॥ (४।१६) इस श्लोक में कोई नया अर्थ प्रतिपादित नहीं है, केवल पूर्वोक्त श्लोक (४।१५) की व्याख्या या विस्तार-मात्र है। पूर्व श्लोक में जो अर्थ का चमत्कार है वह इसमें Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ रथ हो जाता है । वह स्वयं काव्य न होकर उक्त श्लोक का स्पष्टीकरण मात्र है । गुणात्मक पक्ष I काव्य-शास्त्रियों ने काव्य के अनेक गुणों की संकल्पना की है । उसमें मुख्य गुण तीन हैं— माधुर्य, प्रसाद और ओज । आचार्य भामह ने केवल ये ही तीन गुण प्रतिपादित किए हैं। माधुर्य और प्रसाद गुणवाली रचना में प्रायः समासान्त पदों का प्रयोग नहीं किया जाता । ओज गुणवाली रचना में समास - बहुल पद प्रयुक्त किए जाते हैं । प्रस्तुत काव्य में प्रसाद और माधुर्य — दोनों गुणों की प्रधानता है । कहीं कहीं ओज गुण भी परिलक्षित होता है । निम्न निर्दिष्ट श्लोकों में माधुर्य टपकता है अयि बाहुबले ! कलहाय बलं भवतोऽभवदायतिचारु किमु ? प्रजिघांसुरसि त्वमपि स्वगुरुं, यदि तद्गुरुशासनकृत् क इह ॥ कलहं तमवेहि हलाहलकं यमिता यमिनोप्ययमा नियमात् । भवती जगती जगतोशसुतं नयते नरकं तवलं कल हैः ॥ अयि ! साधय साधय साधुपदं, भज शांतरसं तरसा सरसम् । ऋषभध्वजवंशनभस्तरणे!, तरणाय मनः किल धावतु ते ॥ ( १७७७४) भरतमुनि और दंडी आदि ने काव्य के दस गुण माने हैं, उनमें पहला गुण श्लेष है । प्रस्तुत काव्य का पांचवां सर्ग श्लेष गुण प्रधान है । वृत्त्यात्मकता या शैली की दृष्टि से प्रस्तुत रचना वैदर्भी और पाञ्चाली शैली की है । कहीं कहीं गौड़ी शैली का भी प्रयोग हुआ है' । रसात्मकता प्रायः यह कहा जाता है कि जैन काव्य शान्तरस प्रधान होते हैं, किन्तु यह यथार्थ नहीं है । जैन कवियों ने काव्य की रसात्मकता को प्रधानता दी है और उन्होंने कवित्व की दृष्टि से यथासंभव उसका निर्वाह किया है । शान्तरस उनकी साधना के १. काव्यालंकार २1१-२। २. (क) साहित्य दर्पण 81२, ३ : (१७७६६) ( १७७७० ) माधुर्यव्यञ्जकैवर्ण, रचना ललितात्मका । अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते ॥ (ख) काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, १।२।१३ : माधुर्यसुकुमारोपपन्ना पांचाली । ३. साहित्य दर्पण, ६४: समासबहुला गौडी । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकूल हो सकता है किन्तु साधना और कवित्व का अनुबंध नहीं है । प्रस्तुत काव्य में कवि ने शान्तरस की तुलना में शृंगार रस का अधिक और वीर रस का उससे भी अधिक अवतरण किया है। अलंकार अलंकार के विषय में काव्यशास्त्री एकमत नहीं हैं। कुछ आचार्य अलंकार को महाकाव्य का अनिवार्य तत्त्व मानते हैं और कुछ इसे अनिवार्य तत्व-नहीं मानते । प्रस्तुत रचना में कवि ने शब्दालंकार और अर्थालंकार-दोनों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है । उपमा और उत्प्रेक्षा आदि की अपेक्षा 'अर्थान्तरन्यास' अधिक मात्रा में है। उनके कारण प्रस्तुत काव्य नीतिकाव्य जैसा प्रतीत होता है । जैसे ० क्रमं न लुपंति हि.सत्तमाः क्वचित् (१।१४) . . ० सकण्टका एव हि दुर्गमा द्रुमाः (१।१६) ० कोपः प्रणामान्त इहोत्तमानामनुत्तमाना. जननावधिहि (२०६०) . ० ह्ममृतं तिष्ठति नागभीरके (४।१६) . इस प्रकार के नीति वाक्यों का संकलन परिशिष्ट संख्यांक २ में है। कवि ने कहीं कहीं बहुत थोड़े में गम्भीर सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। शरीर और मन के सम्बन्ध के बारे में अनेक धारणाए रही हैं। कुछ विद्वान् दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध को स्वीकर करते हैं तो कुछ उस स्वीकृति को विशेष महत्व नहीं देते । वर्तमान के मनोवैज्ञानिक उन दोनों में परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध समझते हैं। कवि ने शरीर को मन के अधीन मानकर शरीर और मन के सम्बन्ध की प्रतिपत्ति की है । रणभूमि में बाणों की वर्षा हो रही है । योद्धाओं का युद्धोत्साह चरम उत्कर्ष पर है । वे परस्पर एक दूसरे पर प्रहार कर रहे हैं । कुछ योद्धाओं का सिर कट गया है, फिर भी उनका युद्धोत्साह शान्त नहीं हुआ है । उनके धड़ लड रहे हैं । इसका कारण कवि ने यह बताया है कि शरीर अभिप्राय के पीछे-पीछे चलता है केषांचिल्लूनमौलीनां, युद्धोत्साहाद् धनुभृताम् । कबन्धा अप्ययुध्यन्त, ह्यभिप्रायानुगं वपुः ॥ (१५।२०) कथावस्तु प्रस्तुत काव्य की कथावस्तु बहुत छोटी है। यदि इसका कथा-भाग बड़ा होता तो यह और अधिक सरस हो जाता। चक्रवर्ती भरत देश-विजय के बाद राजधानी में प्रवेश करता है और उसका चक्र आयुधशाला में प्रवेश नहीं करता । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ . इसका हेतु समझकर वह बाहुवली के पास अपना दूत भेजता है । काव्य का आरंम इसी प्रसंग से होता है । दूत बाहुबली को भरत का संदेश देता है और बाहुबली का सन्देश भरत के पास लाता है । दोनों भाई रणभूमी में मिलते हैं और वे द्वादशवर्षीय युद्ध लड़ते हैं । युद्ध की समाप्ति पर बाहुबली भगवान् ऋषभ के पथ का अनुगमन कर मुनि बन जाते हैं और भरत चक्रवर्ती शासक । अन्त में भरत भी अनासक्ति का परिपाक होने पर आदर्शगृह में बैठे-बैठे केवली बन जाते हैं। काव्य समाप्त हो जाता है। इस संक्षिप्त कथावस्तु को कवि ने खूब सझाया और संवारा है। वर्णन की लम्बाई से काव्य को प्रलंब किया है, किन्तु इस लम्बाई में सरसता का भंग नहीं हुआ है। यह कवि की अपनी विशेषता है । दूत की वाग्मिता और नीतिमत्ता का प्रदर्शन कवि ने विस्तार से किया है और कहीं-कहीं वह बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है । भरत का बाहुबली के प्रति प्रगाढ़ प्रेम था। दूत ने देखा जब तक इस प्रेम की प्रगाढता में छिद्र नहीं होगा तब तक राज्य-कर्तव्य का प्रकाश प्रगट नहीं होगा। दूत ने बड़े विलक्षण चातुर्य के साथ उसमें छेद डालने का प्रयत्न किया और वह अपने मनोरथ में सफल भी हो गया। इस प्रसंग के कुछ अंश प्रस्तुत हैं नपतेः स्वजनाश्च बान्धवा, बहवो नोचित एषु संस्तवः। अवमन्वत एव संस्तुता, यदधीशं जरिणं यथाऽजराः (४१५५) प्रणयस्य वशंवदो नृपः, स्वजनं दुर्नयिन विवर्धयेत् । निवसन्नपि विग्रहान्तरे, विकृतो व्याधिरलं गुणाय किम् ? (४५७) नृपतिर्न सखेति वाक्यतः, सचिवाद्या अपि बिभ्यति ध्र वम् । पृथुलज्मलदुग्रतेजसो, दवधूमध्वजतो गजा इव ॥ (४।५८) छन्द .. प्रस्तुत काव्य में वर्ण्य-विषय के अनुसार कवि ने छन्दों का प्रयोग किया है। इसके अठारह सर्ग और पन्द्रह सौ पैंतीस श्लोक हैं। इनके मुख्य छन्दों का क्रम इस प्रकार है----- ___ श्लोक छन्द EC * १०७ वंशस्थविल उपजाति अनुष्टुप् वियोगिनी द्रुतविलंबित स्वागता ७६ ८१ . ७५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GE श्लोक छन्द » ८३ रथोद्धता ७५ ७७ ७५ उपजाति उपजाति उपजाति अनुष्टुप् उपजाति वंशस्थविल . उपजाति अनुष्टुप् स्वागता प्रहर्षिणी उपजाति ७९ १३१ ३ . वर्ण्य-विषय के अनुसार सर्ग के अन्तर्गत मुख्य छन्दों के अतिरिक्त अन्य छन्दों का भी प्रयोग किया गया है। जैसे-रणभूमि में जब देवता बाहुबली को सम्बोधित करते हैं उस समय 'त्रोटक छन्द' का प्रयोग कर कवि ने संबोधन को लयबद्धता प्रदान की है नप ! संहर संहर कोपमिमं, तव येन पथा चरितश्च पिता। सर तां सरणि हि पितुः पदवीं; न जहत्यनधास्तनयाः क्वचन ॥ (१७१७१) धरिणी हरिणीनयना नयते, वशतां यदि भूप ! भवन्तमलम् । विधुरो विधिरेष तदा भविता, गुरुमाननरूप इहाक्षयतः॥ (१७७२) मुनिरेष बभूव महाव्रत मृत्, समरं परिहाय समं च रुषा। सुहृदोऽसुहृदः सदृशान् गणयन्, सदयं हृदयं विरचय्य चिरम् ॥ (१७७६) इसी प्रकार सातवें सर्ग के ७६ से ८२ तक के श्लोक वसंततिलका छन्द में, आठवें सर्ग का ७४ वां श्लोक मालिनी छन्द में, तेरहवें सर्ग के ५६ से ६३ श्लोक शिखरिणी छन्द में और ६४ से ६७ श्लोक शार्द लविक्रीडित छन्द में तथा अठारहवें सर्ग के ७६, ८०, ८१ श्लोक त्रोटक छन्द में तथा ८२ वां श्लोक शार्दूलविक्रीडित छन्द में है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गों के अन्तिम श्लोकों के छन्द इस प्रकार हैं१. मालिनी १०. मालिनी २. वसंततिलका ११. मन्दाक्रान्ता ३. वसंततिलका .. १२. सग्धरा ४. हरिणी १३. शार्दूलविक्रीडित ५. पुष्पिताग्रा १४. मालिनी ६. शार्दूलविक्रीडित १५. वसंततिलका ७. हरिणी १६. स्रग्धरा ८. वसंततिलका १७. शार्दूलविक्रीडित ९. शिखरिणी . १८. वसंततिलका रचनाकार और रचनाकाल प्रस्तुत काव्य के कर्ता प्रचलित परम्परा से मुक्त विचार वाले प्रतीत होते हैं। उन्होंने काव्य के आरंभ में नमस्कार और अन्त में प्रशस्ति की परंपरा का निर्वाह नहीं किया है । उन्होंने प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक में 'पुण्योदय' शब्द का प्रयोग किया है । यह कवि के नाम का सूचक है। कवि ने 'पुण्यकुशल' नाम का स्पष्ट प्रयोग कहीं भी नहीं किया है। किन्तु पंजिका में कवि का नाम 'पुण्यकुशल' मिलता है । पंजिकायुक्त प्रति में प्रत्येक सर्ग के अन्त में पूर्ति की पंक्तियां लिखी हुई है। उनसे ज्ञात होता है कि 'पुण्यकुशलगणि' तपागच्छ के विजयसेनसूरी के प्रशिष्य और और पंडित सोमकुशलगणि के शिष्य थे। उन्होंने प्रस्तुत काव्य विजयसेनसूरि के शासन काल में लिखा था। विजयसेनसूरी का अस्तित्व काल विक्रम की सतरहवीं शंताब्दी है। कनककुशलगणि पुण्यकुशलगणि के गुरुभाई थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे। उनका रचना-काल वि० सं० १६४१ से प्रारम्भ होता है और वि० १६६७ तक उनकी लिखी रचनाएं प्राप्त होती हैं। प्रस्तुत काव्य की रचना का निश्चित समय ज्ञात नहीं है । इतना निश्चित है कि इसकी रचना सतरहवीं शताब्दी के मध्य में हुई है। आगरा के 'विजयधर्मसूरी ज्ञानमन्दिर' में प्रस्तुत काव्य की एक प्रति प्राप्त है। उसका लिपिकाल वि० सं० १६५६ है। इससे रचनाकाल की सीमा वि० १६५६ से पूर्व निश्चिंत होती है। पंजिका यह प्रस्तुत काव्य का व्याख्या ग्रंथ है। 'पञ्जिका पद-भञ्जिका'--इस वाक्य के अनुसार पञ्जिका में केवल पदों का संक्षिप्त अर्थ होता है । इसमें प्रत्येक सर्ग की पंजिका के अन्त में एक-एक श्लोक लिखा हुआ मिलता है। उसमें पंजिकाकार का नाम नहीं है : १. देखें--संघीय प्रतिपरिचय । २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६, पृष्ठ २६१, २६२ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० प्रथम सर्ग की पंजिका के अंत में निम्न श्लोक है-- 'इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मे, श्रीनाभिक्षितिराजसूनुतनयश्लोकप्रथा पंजिका । नैपुण्यव्यवसायिपुण्यकुशलस्यास्यारविदोद्गता, सवृतोल्लसदक्षरार्थकथिनी विश्वावदास्तां चिरम् ॥' इसके तृतीय चरण का 'आस्यारविन्दोद्गता'-यह वाक्य यदि शुद्ध है तो यह पंजिका 'पुण्यकुशलगणि' की ही कृति होनी चाहिए। किन्तु 'नैपुण्यव्यवसायि' और 'आस्यारविन्दोद्गता'-ये दोनों वाक्य श्लाघासूचक है। कवि अपने स्वयं के लिए श्लाघासूचक वाक्यों का प्रयोग कैसे कर सकता है ? इस तर्क के आधार पर यदि पंजिका को अन्यकर्तृक माना जाए तो 'आस्यारविन्दोद्गता' के स्थान पर 'आस्यारविन्दोद्गतः' पाठ होना चाहिए । यह 'सवृत्त' का विशेषण होकर ही यथार्थ अर्थ दे सकता है, अन्यथा नही । पंजिकाकार सोमकुशलगणि का शिष्य हैं, यह ऊपर उद्धृत श्लोक से स्पष्ट है। कनककुशलगणि ने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी—यह पहले बताया जा चुका है। संभव है उन्होंने या उनके किसी गुरु-भाई ने पंजिका का निर्माण किया है। काव्य की प्रति-प्राप्ति का इतिहास.. तेरापंथ के पंचम आचार्य श्री मघवागणि के शासनकाल में तेरापंथ संघ में प्रस्तुत काव्य की पंजिकायुक्त एक हस्तलिखित प्रति थी। मघवागणि संस्कृत के प्रवर विद्वान् थे। वे परिषद् में प्रस्तुत काव्य . का वाचन करते थे। अतः यह बहुत लोकप्रिय हो गया। एक साधु संघ से अलग हुआ। वह प्रस्तुत काव्य की प्रति को अपने साथ ले गया। पता चलने पर उसकी खोज की गई तो उसके ४३ पत्र मिले, शेष कहीं खो गए। पूज्य प्रवर कालूगणी ने उस काव्य की खोज की। पर कहीं कोई प्रति नहीं मिली। मघवागणी का आकर्षण कालूगणी में संक्रान्त था और कालूगणी का आकर्षण आचार्य तुलसीगणी में संक्रान्त था। आचार्य तुलसी ने भी इसकी खोज चालू रखी । तेरापंथी महासभा के मंत्री, विद्वान् श्रावक स्व० श्री छोगमल जी चोपड़ा ने एक दिन सूचना दी कि प्रस्तुत काव्य की एक प्रति आगरा के 'विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमन्दिर' नामक जैन पुस्तकालय में प्राप्त है। इस सूचना से एक संतोष का अनुभव हुआ। चोपड़ाजी ने उस पुस्तकालय की प्रति से एक प्रतिलिपि करवाई। वह बहुत अशुद्ध थी, इसलिए दूसरी बार उसकी प्रतिलिपि करवाई। वह भी बहुत अशुद्ध थी। आचार्यश्री ने उसका संशोधन कर एक प्रति तैयार करने का मुझे आदेश दिया। यह वि० सं० २००२ की बात है। उस समय हमारा मर्यादा-महोत्सवकालीन माघमासिय प्रवास सरदारशहर में था। मैंने हमारे संघ की प्रति और आगरा के Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RoaraRaनवनिमयरMARAanaaantमिति नमानसावरलेमावाmaANU RDER शविरथिनामीबिमक्षिावामानामा विषयावरादगालरा 12लनुदिन सदरमियरहिदaragtarai तादियालया-सादादयविविषयात हिवारसविल7साक्षमावविहीनतमसमरवीनारसिम्यानका प्रयासमा सिनोमनप्राशना नियनिरीक्षणात विलक्षzaनीतिनिnिgroreशिलादिनरातनका ति ARE कारदिक रएसोनाक्रवाररिरिजाहलानावास्वपुरानुपाnaifaपतंत्रनिभायवामिळतात. यादि । AAERIATRESEAR काला हाताशतताराहावावि नायुमानिव विस्मयाकारमातरंगतपदिमायाखाना लालमनाया तव हे याला कालावविना कनाडोवालाना जलवालिदितानाहरलाकारानाupaiकारणादितिवादि का दलित मनस्वितावालाक्यालाकन्सविविघाशकशाशी खातिपुंजपारसलंकवाक्षागदिमायांशा नमन महीनधारवाभानिततानानांत्रनिगलयामानहा शविरासयारवालाकानकिता कविहरताविव मरमन । या दूर वनांतारावर्यागानिसहनुवादाविहार मारिवासिताकवद्याताना मादाकटामि शकलिंगासंदर्दशन गवायारावारित्रिकया। निद्धिदायकतव्यनितिशासगंभूलाममभिता माया निजात Fanालांनिविश्वासासिवितादादुराधनियुबड्याविहूसार निधायसुदेवादानिय युदंददामानव तसा यातयामनि मदनानुन मन त चिनजारा पन कालमा मिरज यानिवदयारामतीत माया जाधवदा निदादर कागदारिन क दिवसायामाधानजाविशन-क्षरत यायला विसरले. ययामधनिबमदार झीयम्यतित सडून क्वजित जायद इसलिदानावरतीसहपाद ऊर्वमा मरानयाहिधारवकाकिलाम कोजाना किवि-1 कासिताप्रपामा लालमातानिरहननेडा राइनास सरस की कामादिशाविनामजतरिक विकला मोर निरजरपाजावानीवनसावाशारारिराज्याज कविताराआशानिशियाननिदारिताला कामाशानडईरानाक्षातक्षित सीविमितवादापम्पमाला ये विवीताशापनाकलियामश्वता कामाला बुरा आदान सबसमस्यामानिनिमाबिले का विवातिगोवामनीतामहर्षवस्तारवर तिमलियन या गली ने लिजा कस विकासविता शिक्षा निवि-म विकासमा सिजालिम गधानिमशव। HIतिविननानिमीपर्यती:देश माननमाया र मममीकि रवि किलिनि:सालाना न दंडई १६जा जी जिबिलिशमुना Prernatividoes पंजिकायुक्त प्रति का प्रथम पत्र Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मामारणाहकाoisaransiमाजलभरालकशmaamaasuma सिरपतिला मराजनगडaninraneसरामaaine RERD निरजरंबwिARATTIMREHEIभिनायाभकरमिनलालसरसवतार विनटमकास्क सकल कमिसकशामराजनगरमत्मसाक्षermirmifinainaraininानीSimanaएतत्सम रिमनप्नीमानकर जिससाककनमडुमविनीत इतस्पantennatabetmanarasaanाक्यतामाटामा दलतमत्तानारपतीशाarataपिलायनमा गामासरतागमन सुनकनिका का AachaKaaaawarससवय म्याच विविविदिता मावलमत्काशिनाटसहनशानार्थयबासनजानिदानवकमान बाके वासनविकिको यस सात दिदिपियनजिकमकान पर जिला बागानस्तोतया मंशासन शाहाखपरास्वनिविधातहियानान याद्वाविंशासादिनीपाल सहस्सारस्पकिंक: अनिका प्राय जानापियार निधनप्रकाराम जानकाना लानं माहातणलारणे इशापनेसहसामोदिवां वोजलिपटा सदा सिवात सर्वदेवणानाकारशिवम्यागिना ६ परमानव वनका यी वाविक ऊन्द जानकार NASI धागास्यासनानीसिवानाविया परीनानिकगीर्वाण दिनात मरणादाविरमाला लगाव मात गोलान या ना ARTyवरणानिध्यतंचकवमिनास्त्रोधादरूनी शिवानवा अस्पसूर्ययशष्टमसनरत पिसन माना। यी व किकर मन्पतिवारियां बंबकमपिकिंकरी मान्पपिबहावाबारा सत्यसपनजाबालाजन याद यह इनन विद्यापश वरताराकापासहितनपि एकएवमहा तिना सौराहासष्टमानिधत्यसमस्या करणार ना लावगमस्यालावयास्पदबावषारहितार्थ महावाली कथानमाहितविति। नामिबिट चरनन म पनि पुरमयमयति माया सा रतनम तिमविगिराकाहायावदन्निीिनाम्या रातादिद्याधरायला निलावागतमस्यधारा राजिनामा मामान विवातिनावगाव अण्णारावासाचावासनिःस्वशाधववदनानिलिमाबादचामिबिहाव करनाsala जाभीमान मनरत्यक निगमावावर नानिल विरयाहा आवाचारमाना राशि वातदिरियावादसवबाहर्षयातलबानraiनिस्किनिधिला मनिकनाना नरनिरागमनाज नावानापवान कापडितागवायकदमादनकाबला-9मानाबालवीरा आणविविध विROPERTE विमला कायमलिनविदा लिकिं. विविध भिवध्यात्मभिवदनिबादकसविस्कारमानारच शरिणाबाविरंबडकारले नियमान सिकिकरनवानकिमाधादाचरमिरवयीयबीरियापमानामधAHAKलेपलासरतावाददायर भएपनि Taburमविगदम्पन हुन नाकाकारली 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तेनापिमहीफलावदाफाशस्यपरिहायनिस्तुपावनपुरीदी शनिता स्विनीक्षिणा कितीभरामास्यसदैवपानिमी सीमास्यन्शुिदिनात्यी सनिलिदीवमुदायहरतः सनितिकवविलाससमृदावनूतसमिनिवस्तनिस्म) रिसरागंजममीक्षितकरण सवैपमानसरसीजनविक विनोकाकान्नास्तितिवादिनी शाडू-राजासिवितषिमाइतोहलायचुनः सकपीन्यलोकतर कचिन्मृगी। यूथ्मययदृच्छयासीयविस्फारस्यसंखममागसपिकनिकमिन्यतयताकपाशीषणविषय पुणश्वनी २२ विकस्व राम्तीजमुखीपरिस्फुरदाविसारनेवादयिनव।। तस्यबाराङ्गनामस्तमराजिनीवनावरङ्गमाति सरसीमुदतवनः श्रमविदेतस्पविरुष्णदालनासक्त भिनमारिणीजले नवयतानेगरैः समीरले कर्मनाभी विहिसनमा कचित इफुन के कीजिनीनयानरमुष्यसायंतनकारिखमम् नवविद्यामलतानिरश्चित दिनपिटीवाचममा पुनर५ जनादवलंबाफनेस-या विमेततत्सविक्षितंच चुजाशुगार परिपीयकंपिनासकण्टकारवदिमाशुमार सुजझ्योन्यूनिततरूहावनि नितान्यकिहस्तितिराहततितमाक्दतमईजना निस्य सीतारतचिन साकमरातिको दिनैः१५ सुधारसस्वाइफलानिनोसंटेशकरानवापानिधिमक्यमुष्टिनिहितमस्कन्धनिपातितान्यचविलोकयन्वेकि मसाध्यमुस्दै दतितकम्तस्थल जन्म मौक्तिकै रिदपियाकासिहारमादा तटायजीन्यासमिचौजसीहितावितस्तन्वातरदान्तिसालय भई इतीपिदोर्ट एकदलीवनकालात नि! शिकस्वधनरतङ्गरमाविरीधनावकदीटैिटरलेशमधुमिदं विक्रमैः शरैरनानिमुखमनोनिमाधिदिमनन्यविकनैः सुमावति स्कन्धमिवपश्यनी। महीजसायोनासकोविस्मियः सलील मुत्सादागिरिगजेन्श्वनामहावनेनातनस्तानःकरैगजरिवानी कहाश्त्यनेकमावतटानीकरुदृष्टिगोचरम ० महायने नि:श्रीदृशैताम अपेमिनमाविवक्षिणायदीय दीर्दकपविश्याहता मदीततःसागरमाश्ययन्निहि अमुष्णनामापिवनूवशालकदाविधिनानिनिःशनि कियमारसायनन मियानतःपनी परंनतस्यास्लिमहीननिस्विनिगराजवयंधेकपूर्व राजस्यदायादमवेत्यनीत पमध्यानमित्येन्यजगादनागरावारसास दिस्वरुपगीयतेसवान २५ अमुष्य सैन्यारीतरजः निहि नानासकालमादिता सर्कपमारातिमनोप्यरूनिशविरेनदीनामापति किला स्वतात जन्मोत्स वाणिचिनः स्वयं सुमेरूगमितीनवनामा मदीमुशाशनको राजी नया वयं दैवपश्तियामहे जगवयीयस्यचकीर्तिमानकादिमान्यजसेशिरमा विकास मुनि श्री नथमलजी द्वारा लिखित प्रति का प्रथम पत्र Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगरानी टीका प्रतिलिपि का रिकार निराशसमीनोपज कि लकी सरदार सदर साऽति सुगम से मग अनुमन्यते विमानब्द अगरानगर में गो के पदानि याविषयान्तनिष्कन दिदानीमनिविकाचिन्न प्रतिपा पारा 2 को विरामीमा म दिन परमार्याय नविन एकतः दोजीदिने एस्स्विस्ति : विमान बुकम रीमा क्रमिवामा एक मान का अतगण आदि वर्तमान आचार्य य में है. मुनि श्री नथमलजी द्वारा लिखित प्रति का अंतिम पत्र २८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ . भंडारगत प्रति की प्रतिलिपि—दोनों के आधार पर प्रस्तुत काव्य का संपादन किया। हमारे संघ की प्रति में जितना अंश है उसके संपादन में मुझे विशेष कठिनाई नहीं हुई। किन्तु प्रतिलिपि के संपादन में मुझे पर्याप्त श्रम करना पड़ा। उसमें कहीं वर्ण और कहीं चरण के चरण त्रुटित थे। किसी दूसरी प्रति से पूर्ण पाठ प्राप्त होने की संभावना नहीं थी। इसलिए अपूर्ण चरणों तथा अप्राप्त अक्षरों को मैंने पूर्ण किया । वि० सं० २००६ में हम आगरा गए तब 'विजयधर्मसूरि ज्ञानमन्दिर' की प्रति को देखा । उसकी लिपि दुर्बोध और पाठ खंडित थे। फिर भी वह प्रस्तुत काव्य की सुरक्षा का एक मात्र आधार बनी। संघीय प्रति-परिचय ___ यह प्रति अधूरी है । इसके ४३ पत्र उपलब्ध हैं। उनमें दस से पन्द्रह तक के पत्र नहीं हैं। नौंवे पत्र के अन्त में दूसरे सर्ग के. ६३ वें श्लोक का प्रथम चरण मात्र आया है और १६वा पत्र तीसरे. सर्ग के अंतिम श्लोक के तीसरे चरण से प्रारम्भ होता है। ४३ वें पत्र का अन्तिम पद है-'प्राणैरपि निज प्रभु' (११।७८ का प्रथम चरण)। प्रत्येक पत्र की ग्यारह पंक्तियों में बड़े अक्षरों में मूल श्लोक लिखे गए है और ऊपर-नीचे तथा दोनों पाश्वों में बारीक अक्षरों में पंजिका लिखी गई है। इस प्रकार ग्यारहवें सर्ग के ७८ वें श्लोक तक की पंजिका प्राप्त है। आगे के पत्र अनुपलब्ध हैं । प्रत्येक सर्ग के अन्त. में-- - 'इति श्रीतपागच्छाधिराजश्रीविजयसेनसूरीश्वरराज्ये पं० श्रीसोमकुशलगणिशिष्यपुण्यकुशलगणिविरचिते भरतबाहुबलिमहाकाव्ये' लिखा हुआ है। - मेरे द्वारा संपादित व लिखित प्रति के २८ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र के एक-एक पार्श्व में बीस-बीस पंक्तियां हैं। यह प्रति वि० सवत् २००२ में लिखी गई । आगरा ग्रंथागारं की प्रति के अवलोकन के बाद संपादन का इतिहास, वि० सं० २००६ में फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन लूनकरणसर में मेरी हस्तलिखित प्रति के अंत में, मैंने लिखा-। वह इस प्रकार है इदं काव्यं प्राक् पञ्चमाचार्यप्रवरश्रीमघवगणिनः समये तेरापंथशासने अविकलमासीत् । तत्समथे केनचित् साधुना गणाद् बहिनिर्गच्छता पुस्तकमेकं सार्ध नीतम् । तस्मिन्निदं काव्यमपि गतम्। पञ्चमाचार्यवयः परिषदि वाचितमिदम् । अस्य जाता तेन महती प्रसिद्धिः। पुनरन्विष्टं तदा तत्प्रतेः कानिचित् पत्राणि लब्धानि, न तु पूर्णा प्रतिः । कालूगणिनामपीदं प्रति पूर्णोनुरागो व्यभात् । किन्तु न जातोपलब्धिः। श्रीतुलसीरामाचार्या अपि अन्वेषयन् । बहुवर्ष यावन्नमिलितम् । वि० २००२ वर्षे आगरा (यू० पी०) नगरे विजयधर्मलक्ष्मीज्ञानमन्दिरनाम्नि जैन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकालये श्रीजैनश्वेताम्बरतेरापंथीमहासभामन्त्रिणा छोगमलचोपडाभिधेन एका प्रतिर्लब्धा, प्रतिलिपिश्च कारिता । सा अत्यशुद्धिगर्भा, तेन द्विः प्रतिलिपिः कारिता। साप्यशुद्धिबहुला। तत्रत्या मूलप्रतिरपि त्रुटितपाठा दुर्बोधाक्षरासीत्, ततोऽपि लिविका प्रतिलिपिर्बहुविकृति नीता । सरदारशहरे सा प्रतिः सुलभाऽभूत् तदा पूज्यपादः संशोधनपूर्वकमेवैतल्लिप्यर्थमहमादेशिषि । अहं यथासंभवं प्रतियुगलं अनुसन्धाय व्यलेखिषमिमां प्रतिम् । पुनश्च आगरानगरे पूज्यानां पदार्पणसमये मूलप्रति वीक्ष्य संशोधिता। बहुषु श्लोकेषु न्यूनपदानि न्यूनवर्णानि च यथासंभवं पूरितानि। क्वचित् तत्प्रतिगतः पाठभेदोऽपि लिखितः। परमाराध्यपरमपूज्यपरमोपकारिप्रवरपरमश्रद्धाभिवन्दनीयमहर्षि महितपरमपुरुषोत्तमपूज्यार्यवर्याणामनुग्रहमुपपश्यन् मुनिनथमलः प्रतिमिमां लिपिकृतवान् द्विसहस्राब्दे द्वय त्तरे । पूरकञ्च लिखितं २००६ फाल्गुनमासे पूर्णिमायां होलीदिने लूणकर्णसरे । स्वस्तिःअनुवाद प्रस्तुत काव्य का हिन्दी अनुवाद मुनि दुलहराजजी ने किया है। अनुवाद के कार्य को कठिन भी नहीं कहा जा सकता तो सरल भी नही कहा जा सकता। उसमें अपना कुछ जोड़ना नहीं होता इसलिए वह कठिन कार्य नहीं है। किन्तु दूसरे के चिन्तन को स्वगत बनाकर अपनी भाषा में प्रस्तुत करना होता है इसलिए वह सरल कार्य भी नहीं है । अनुवादक ने काव्य को अपनी भाषा का परिधान देकर भी उसकी मौलिकता को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है और उस प्रयत्न में उन्हें सफलता भी मिली है । अनुवाद की भाषा स्पष्ट; सरल और सरस है । वाक्यों की जटिलता प्रायः नहीं है। कहीं-कहीं कुछ वाक्य लम्बे और जटिल हो गए हैं और कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति की श्लथता भी है। फिर भी कुल मिलाकर यह बहुत सुन्दर बन पड़ा है। अब तक जैन संस्कृत काव्यों के अनुवाद हिन्दी भाषा में बहुत कम हुए हैं। उनकी संस्कृत टीकाएं भी प्रायः नहीं हुई हैं। इसलिए विद्यार्थी वर्ग उनके अध्ययन से वंचित रहा है। साधारण पाठक के लिए भी वे सुलभ नहीं हैं । इस स्थिति में यह प्रयत्न दिशासूचक है। यदि इस प्रकार के प्रयत्न का सातत्य रहे तो जैन काव्यों के विषय में विद्वानों की धारणाएं स्पष्ट हो सकती हैं। __ भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के अवसर पर इस अनूदित काव्य का प्रस्तुतीकरण उनके चरणों में विनम्र श्रद्धाञ्जलि ओर सहृदय जनता के लिए सरस उपहार होगा। २५०० वां निर्वाण दिवस .. मुनि नथमल दिल्ली Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ . स्वकथ्य वि० सं० २००५ तक तेरापंथ धर्मशासन में विद्यार्थी साधु-साध्वियों के लिए कोई पाठ्यक्रम निर्धारित नहीं था । अनेक साधु संस्कृत के पारगामी विद्वान् थे और वे अपने सहयोगी श्रमणों की संस्कृत का अध्ययन करवाते थे। संस्कृत व्याकरण का निर्माण भी हो चुका था। संस्कृत में धाराप्रवाह बोलने वाले साधु-साध्वियों का एक दल प्रकाश में आ चुका था। कुछेक आशुकवि भी थे। अध्ययन-अध्यापन का क्रम यह था कि सबसे पहले विद्यार्थी साधु-साध्वी कालुकौमुदी (व्याकरण की प्रक्रिया) कंठस्थ करते । फिर अभिधानचिन्तामणि कोष कंठस्थ कर वाक्य रचना का अभ्यास करते हुए आगे बढ़ते जाते । इस क्रम में अनेक साधु-साध्वियों ने प्रवेश किया और कई विद्वान् बनकर बाहर आए। . . मैं २००५ में दीक्षित हुना । वि० सं० २००६ में पाठयक्रम बना । दसों साधुसाध्वियों में इस पाठ्यक्रम से अध्ययन करने की प्रेरणा जागी। मैं भी उसी क्रम में अध्ययन करने लगा। प्रतिवर्ष परीक्षाओं का क्रम चलता रहा। दो वर्ष तक मैंने भी परीक्षाएं दीं। तत्पश्चात् मेरे पर परीक्षाओं के समायोजन का उत्तरदायित्व आया। मैं लगभग बीस बर्षो तक इस कार्य में संलग्न रहा। अनेक साधु-साध्वी इस क्रम से अध्ययन कर पारंगत हुए। इस पाठ्यक्रम में हमने अन्यान्य जैन काव्यों के साथ 'भरतबाहुबलिमहाकाव्य' को भी रखा। रघुवंश, शिशुपालवध आदि काव्य भी पाठ्यक्रम में थे। इनके पठनपाठन से यह अनुभव हुआ कि 'भरतबाहुबलिमहाकाव्य' एक सरस और सुन्दर काव्य है। इसका शब्दचयन भी विद्यार्थियों के लिए बहुत ज्ञानवर्धक है, आदि-आदि। किन्तु इसके हिन्दी रूपान्तर की बात उस समय नहीं सोची। वि० सं २०२८ में गंगानगर के प्रोफेसर श्री सत्यव्रतजी जैन काव्यों पर महाप्रबन्ध लिख रहे थे। उन्हें इस काव्य की जानकारी मिली और वे गंगाशहर आ गए। उस वर्ष-का मर्यादा-महोत्सव वहीं था। उन्होंने काव्य का अवलोकन किया। रात-दिन उसके विश्लेषण में लगे रहे और अन्त में उन्होंने कहा-'यदि मुझे यह काव्य नहीं मिलता तो मेरे महाप्रबंध में एक कमी रह जाती। मैंने जितने भी काव्य अपने महाप्रबंध के लिए चुने हैं, उनमें यह काव्य अनेक दृष्टियों से उत्तम है।' प्रोफेसर सत्यव्रतजी ने वह महाप्रबंध हमें दिखाया । उन्हें उस पर पी. एच.डी. की उपाधि भी मिल गई। • उसके पश्चात् इस महाकाव्य के अनुवाद की बात हमने सोची और महामनीषी मुनिश्री नथमलजी ने मुझे इसकी प्रेरणा दी। मन में इस काव्य के प्रति अनुराग तो Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ था ही, वह और अधिक घनीभूत हो गया और एक मास पश्चात् ही (वि०सं० २०२८ फा० शु१०) डूंगरगढ़ में मैंने काव्य का अनुवाद प्रारंभ कर दिया । __ अनुवाद का कार्य कुछ कठिन अवश्य लगा किन्तु मुनिश्री के मार्ग-दर्शन से वह सरल होता गया और लगभग पांच महीनों में (आषाढ़ शुक्ला १५) चूरु में उस कार्य को सम्पन्न कर सका। हमारे लाडनूं भंडार में इस काव्य की पंजिका युक्त एक अपूर्ण प्रति भी थी। उसका भी मुझे सहारा मिला। कहीं-कहीं मेरा अनुवाद पंजिका में दिए हुए अर्थ से दूर चला गया है। ऐसा मुझे अर्थ के सामंजस्य के कारण करना पड़ा है । पञ्जिका में स्वीकृत पाठ और हमारे द्वारा स्वीकृत पाठ में भी कहीं-कहीं अन्तर है। इस प्रकार कार्य का एक चरण सम्पन्न हो गया। अनुवाद का निरीक्षण करने के लिए मैंने मुनिश्री से प्रार्थना की । उस प्रार्थना को बहुमान देकर आपने अपने अतिव्यस्त कार्यक्रम में इसे स्थान दिया और लगभग छह महीनों में यह कार्य भी सम्पन्न हो गया। कार्य का यह दूसरा चरणं भी पूरा हो गया। मूनि राजेन्द्रकुमार जी ने सारे काव्य की अनुवाद सहित प्रतिलिपि करने में मुझे बहुत सहयोग दिया और वह कार्य भी ठीक समय पर सम्पन्न हुआ। फिर आचार्यश्री ने यह फरमाया कि पञ्जिका की जो अधूरी प्रति हमारे पास है, उसको भी महाकाव्य के परिशिष्ट के रूप में दे देनी चाहिए। पञ्जिका की प्रति काफी प्राचीन है । अतः उसके अक्षर भी पढ़ पाना हरेक के लिए सम्भव नहीं है। मैंने तब उसकी शुद्ध प्रतिलिपि तैयार की। उसमें मुझे दो महीने लगे। इस महाकाव्य की मूलप्रति और पञ्जिका की प्रति के विषय में मुनिश्री द्वारा लिखित 'प्रस्तुति' में पर्याप्त विवरण प्रस्तुत किया जा चुका है। सहयोगानुभूति वामन शरीरयष्टि से विराट् व्यक्तित्व के पारावार. का अवगाहन करने वाले आचार्यश्री तुलसी इस कार्य के मूक प्रेरक रहे हैं। जब कभी प्रसंग आता तब आप इस काव्य-ग्रन्थ की मुक्त प्रशंसा करते और व्याख्यान में जनसमूह के मध्य इस का वाचन कर स्वयं आनंद का अनुभव करते हुए श्रोताओं को भी आनन्द लहरियों में थिरकते देखते । विद्या-विकास के लिए किए गए आपके अनगिन प्रयास तेरापंथ धर्मशासन के कीर्तिस्तम्भ बने हैं, जिनके आलोक में सैकड़ों मुमुक्षु ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में आगे बढ़ रहे हैं । मैं भी उसी पथ का एक बौना पथिक हूँ जो टकराता-संभलता चल रहा हूं। सब कुछ जिसका हो, जो सर्वेसर्वा हो उसके प्रति आभाराभिव्यक्ति व्यवहार मात्र हो सकती है। 'आचार्य पंद' एक व्यवहार का ही Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ द्योतक है, अतः मैं उस पद पर आसीन आचार्य श्री का आभारी हूं, जिन्होंने रत्नत्रयी की साधना में जुटे रहने का मुझे साहस दिया और कार्यरत रहने का मन्त्र फूका । मुनिश्री नथमलजी इस कार्य के प्रत्यक्ष प्रेरक रहे हैं । उन्होंने एक नहीं, अनेक बार कहा-तुम इसका हिन्दी में अनुवाद कर लो। यह प्रेरणा वर्षों से मेरे अवचेतन मन में काम करती रही । काल का परिपाक हुआ। भावना बलवती हुई और कार्य की सम्पन्नता भी सहज-सरल ढंग से हो गई। तीसरे दशक के उत्तरार्द्ध में दीक्षित होने के कारण मैं मुनिश्री के पास एक शिशु विद्यार्थी की भांति नहीं पढ़-लिख सका । कई बार इसका मुझे खेद भी हुआ। फिर भी मैं आपके निकट में रहकर कुछ पढ़-लिख सका, इसका मुझे सन्तोष है। मनिश्री ने मेरी मनीषा को मांजने-संवारने के उपक्रम किए और समय-समय पर विभिन्न कार्यों में संलग्न कर मेरी कमियों की ओर ध्यान न देते हुए मुझे सतत प्रेरित करते रहे । फलस्वरूप श्रुतान की ओर मेरी गति होती गई । 'व्यक्ति केवल पुस्तकों से ही नहीं पढ़ता, वह कार्य में संलग्न होकर भी पढ़ता लिखता है'-इसकी अनुभूति मुझे कराकर कार्य के प्रति मेरे दायित्व को आपने उजागर किया। निष्काम योगी और महामनीषी मुनि श्रोनथमलजी के प्रति मैं सर्वात्मना कृतज्ञता ज्ञापित कर उनकी विशाल ज्ञानराशि से एक और बिन्दु को पाने का प्रयास करू', यही मेरे लिए श्रेयस्कर है। मैं मुनि राजेन्द्रकुमारजी को भी नहीं भूल सकता । यदि मैं कहं कि इस कार्य का सारा श्रेय. उनको ही मिलना चाहिए तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। अस्वस्थता के बावजूद भी उन्होंने इस काव्य के सारे प्रूफ देख, मुझे आवश्यक सूचनाएं दी और मेरे प्रमाद के कारण यत्र-तत्र कुछ त्रुटियां रह गईं थीं उनकी ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया। तीनों परिशिष्ट उन्हीं के द्वारा तैयार किए गए हैं। इस अन्तराल में मैंने देखा कि उनकी बुद्धि गहराई में जाने लगी है और वे संस्कृत के मूलभूत रहस्यों को समझने में सक्षम होते जा रहे हैं। इस कार्य से उनकी बुद्धि का भी विकास हुआ है, इसकी मुझे परम प्रसन्नता है । मैं चाहता हूँ कि वे इसी गति से आगे बढते रहें। अन्त में मैं सेवाभावी मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी के प्रति विनम्र आभार प्रगट करता हूँ। उन्होंने प्रत्यक्षतः मधुर ताडना और परोक्षतः उत्साहवर्द्धक वचन कहकर मेरे इस कार्य की सराहना की है। उनका पितृतुल्य संरक्षण और मातृतुल्य. वात्सल्य मेरे लिए मूल्यवान् है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सुदर्शनजी और श्रीचन्दजी 'कमल' की आलोचना-प्रत्यालोचना ने मेरी प्रेरणा को गति दी है। मुनिश्री चम्पालालजी (लाडनू) ने मेरे शारीरिक श्रम को यथावकाश कम करने के लिए अपनी सेवाएं देकर मुझे इस कार्य में सहयोग दिया है। • इन सबके प्रति मैं प्रणतभाव से अपना आभार व्यक्त करता हूँ। हमारे संघ के वयोवृद्ध संस्कृतज्ञ स्व० मुनिश्री कानमलजी स्वामी ने जब चूरू में (वि० २०२६) यह जाना कि यह काव्य प्रकाश में आ रहा है तो वे बहुत प्रसन्न हुए थे । इस महाकाव्य के दसों श्लोक उनके कंठस्थ थे । उन्होंने वे. पंद्य मुझे सुनाए। काश ! आज वे होते । वीर निर्वाण की पचीसवीं शताब्दी के इस पावन अवसर पर भगवान् महावीर के चरणों में नत होकर, उनके ही पूर्वज तीर्थंकर ऋषभ के पुत्र भरत और बाहुबली से संबंधित इस महाकाव्य को जन भाषा (हिन्दी) में प्रस्तुत कर अपनी एक लघु श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ। २५०० वां निर्वाण दिवस मुनि दुलहराज नई दिल्ली . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमः १. महाराजभरतनिर्देशेन सुवेगदूतस्य तक्षशिलां प्रति प्रयाणम् । नृपतेरनुमत्या तस्य सभासदने समुपस्थितिः । २. दूतागमनाश्यस्य प्रकटीकरणम् । चक्रवत्तं भरतस्याधिपत्यस्वीकरणाय बाहुबलये निवेदनम् । ३. लघुमुखेन गुरुवार्तां निशम्य बाहुबलेर्मुखस्य कोपजनितो रक्तिमा । आस्थानमण्डपात् दूतस्य निष्कासनम् । तस्य विनीतायां पुनरागमनम् । ४. दुतवार्तां निशम्य भरतस्य क्षुब्धता । सेनाधिपतिपरामर्शेन भरतस्य युद्धौत्सुक्यम् । ५. सेनासज्जीकरणाय भरतस्य निर्देशः । मरु-कुरु-मालवादि- विभिन्नप्रदेशानां भूपतीनां तत्रागमनम् । ६. चतुरङ्गचम्वा सार्द्धं समराय प्रस्थानम् । नगरस्य परिसरे सुन्दरोद्याने प्रथमो विश्रामः । ७. रमणीभिः सह नानाविधक्रीडनम् । ८. बहली प्रदेश प्रति प्रयाणम् । ६. सेनापतिसुषेणस्य कथनेन भरतस्य बहली प्रदेशसी मार्वात सुरसिन्धुत टे स्कन्धावारनिवेशनम् । बहलीप्रदेशस्य रहस्यानि परिज्ञातुं चारपुरुषाणां प्रेषणम् । १०. जाह्नवीयतीरे स्थितस्य काननस्य विलोकनम् । युगादिदेवस्य चैत्यालये नाभेयस्यार्चनम् । निजस्थाने पुनरागमनम् । ११. प्रेषितानां चारपुरुषाणां पुनरागमनम् । रहस्यकथनञ्च । १२. स्वसुभटैः साकं विचारविमर्शनम् । संग्रामाय उत्साहवर्द्धनं सज्जीकरेण च । रणभूमिनिर्धारणाय बाहुबलेर्दूतानां समागमनम् । रणभूम्याश्च निर्धारणम् । १३. बाहुबलेर्युद्धभूमौ समागमनम् । चैत्यालये युगादिदेवस्य स्तवनम् १४. रणभूमौ सेनाद्वयस्य सज्जीभवनम् । मङ्गलपाठकैः साङ्ग्रामिकानां परिचयप्रदानम् । १५. युद्धवर्णनम् । १६. नरसंहारं निरोद्धुं देवानां तत्रागमनं प्रतिबोधप्रदानञ्च । तेषां वचनानुसारेण सोम्ययुद्धपद्धतेर्निधारणम् । तथैव स्वीकरणञ्च । १ २३ ४७ ६६ ८६ १०७ १२७ १४७ १६५ १८५ २०३ २२५ २४३ २६१ २८१ ३०७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ १७. चतुर्धा युद्धस्य निष्पन्नता। बाहुबलेविजयः । निजपराजयेन भरतस्य __रोषः। बाहुबलि प्रति चक्रस्य प्रयोगः। तदपनेतुं बाहुबलेश्चेष्टा । मुष्टिमुद्यम्य भरतं प्रति उद्धावनम् । देवानां सम्बोधनम् । मुनिपदा' . लङ्करणम् । १८. भरतस्य बाहुबलेश्च कैवल्यसम्प्राप्तिः । .. ३४७ ३२५ परिशिष्टानि ३६५ १. श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः २. सुभाषितानि ३. पञ्जिका ४. शुद्धि-पत्रम् Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला सर्ग प्रतिपाद्य भरत द्वारा प्रेषितं सुवेग नामक दूत का बाहुबली के प्रदेश में आगमन। ७६ श्लोक परिमाणछन्द लक्षण वंशस्थ . . 'वदन्ति वंशस्थविलं जतौ जरौ-(एक जगण, एक तगण, एक जगण और एक रगण-11, ऽऽI, II, Is) इसके प्रत्येक चरण में १२ अक्षर होते हैं। उपेन्द्रवज्रा छन्द और इस छंद में यही अन्तर है कि इसके चारों चरणों का ग्यारहवां अक्षर लघु होता है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु छह खंडों पर विजय प्राप्तकर चक्रवर्ती भरत अयोध्या नगरी में आए । उनका छोटा भाई बाहुबली बहली प्रदेश का राजा था। वह अभी उनके अनुशासन में नहीं आ रहा था। अपनी विजय की अपूर्णता को देख महाराज भरत ने बाहुबली के पास सुवेग नामक दूत को भेजा। वह दूत प्रत्यन्त वाग्पटु और निपुण था। उसने अयोध्या से तक्षशिला की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में उसे अनेक प्रकार के अनुभव हए। बहली प्रदेश की जनता, वीर सुभटों और भूमि-संपदा को साक्षात् करता हुया वह तक्षशिला में पहुंचा। उस समय महाराज बाहुबली सभा में बैठे थे। राजाज्ञा से प्रतिहारी ने दूत को बाहुबली के समक्ष उपस्थित किया। महाराज बाहबली की राजसभा, शारीरिक संपदा और संपन्नता को देखकर वह स्तब्ध सा रह • गया। हाथ जोड़कर वह बाहुबली के समक्ष बैठ गया। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः १. अथार्षभिर्भारतभूभुजां बलाद् , हृतातपत्रः स्वपुरीमुपागतः । विमृश्य दूतं प्रजिघाय वाग्मिनं , ततौजसे तक्षशिलामहीभुजे ॥ महाराज भरत भारतवर्ष के राजाओं के छत्र का बलात् हरण कर (छह खंडों को जीतकर) अपनी नगरी अयोध्या में आए। उन्होंने अपने मंत्रियों से परामर्श कर विस्तृत पराक्रम के धनी, तक्षशिला के अधिपति महाराज बाहुबली के पास अपना वाग्पटु दूत' भेजा। २. ततः स दूतो विषयान्तरं रिपो - तो वपुष्मानिव विस्मयं दधौ । रसान्तरं गच्छत एव विस्मयो , ह्यनेकधा भावविलोकनाद् भवेत् ॥ दूत वहां से चलकर शत्रु के देश में आया। जैसे मनुष्य शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों में जाता हुआ आश्चर्य पाता है, वैसे ही वह दूत विषयान्तर-दूसरे देश में आकर आश्चर्यचकित रह गया। क्योंकि एक भूमी से दूसरी भूमी (या एक रस से दूसरे रस) में जाने वाले व्यक्ति.को, अनेक भावों के अवलोकन से, विस्मय होता ही है। ३. प्रतापभृत्स्वामिबलाभिशङ्कित - स्तमोहरस्तीक्षणकरों न तापकृत् । करेण दूरादिति वादिनस्त्विहा - वलोक्य लोकान् स विसिष्मियेऽधिकम् ॥ दूत ने लोगों को दूर से यह कहते हुए सुना—'इस बहली प्रदेश में तीव्र किरणों १. आर्षभिर्भरतः -अभि० ३।३५६ २. दूत का नाम सुवेग था—'सुवेगनामानमितिशेषः'–पञ्जिका पत्र १। ३. विषय के दो अर्थ हैं-(१) देश (विषयस्तूपवर्तनम्-अभि० ४।१३) (२) इन्द्रिय-अर्थ (इन्द्रियार्था विषयाः-अभि० ६।२०) ४. रसान्तर के दो अर्थ हैं- (१) रसा+अन्तर–दूसरी भूमी (जगती मेदिनी रसा अभि० ४३) (२) रस-+अन्तर–दूसरा रस (शृंगार आदि)-अभि० २।२०८,२०६॥ ५. तीक्ष्णकर:-सूर्य । ६. मिङ् ईषद्धसने धातोः णबादि प्रत्ययस्य रूपम् । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वाला सूर्य भी हमारे प्रतापी स्वामी बाहुबली के बल से आशंकित होकर अपनी किरणों से केवल अंधकार का हरण करता है, ताप नहीं फैलाता ।' लोगों की ऐसी बातें सुनकर वह बहुत विस्मित हुआ। ४. शरच्छशाडूद्यतिपुञ्जपाण्डुरं, स धेनुकं वीक्ष्य गवेन्द्रदूरगम । यशा महीभत्तु रिवाङ्गमाश्रितं , ततान नेत्रे विगलत्पयोमहः ॥ दूत ने शरद् ऋतु के चन्द्रमा की कांति-समूह की भांति समुज्ज्वल गायों के समूह को देखा । ग्वाला कहीं दूर खड़ा था। वे गायें ऐसी लग रही थीं. मानो कि महाराज बाहुबली का यश मूर्त हो गया हो। उनसे दूध की धारा झर, रही थी। उन्हें देख दूत की आंखें विस्फारित रह गईं। ५. स सौरभेयी रवलोक्य शङ्कितः, क्वचिच्चरन्तीविविधा वनान्तरे । वपुर्यशोभिः सह जुह्वतां जवाद् , द्विषां चिताधूमततीरिवाऽसिताः ॥ दूत वन के किसी प्रान्त-भाग में चरती हुई काली गायों को देखकर शंकित हो गया है. उसने सोचा-क्या अपने यश के साथ-साथ शरीर को भी शीघ्रता से होम देने वाली,, शत्रुओं की चिता से निकलने वाली यह धूम श्रेणी तो नहीं है ? ६. ककुदमतो वीक्ष्य मदोत्कटान मिथः , क्रुधा कलि' संदधतः स दुर्धरान् । ___गवीश्वरोदीरितभूभृदाज्ञया , निषिद्धयुद्धांश्चकितश्च विस्मितः ॥ उसने दुर्धर और मतवाले बैलों को क्रुद्ध होकर परस्पर लड़ते हुए देखा। किन्तु जब ग्वाले ने यह कहा की लड़ने कि राजाज्ञा नहीं है, तब वे बैल लड़ने से उपरत हो गए । यह देखकर वह दूत चकित और विस्मित रह गया। ७. सगन्धधलीमगसंश्रिताः शिला , निविश्य वासांसि वितन्वतीमहः । चरः सुगन्धीनि युवद्वयोः क्वचिद् , बभार निध्याय मुदं वचोतिगाम् ॥ दूत ने कहीं-कहीं युवक-युवतियों के युगलों को देखा। वे युगल कस्तूरीमृग द्वारा १. धेनुकं-गायों का समूह (धेनूनां (समूहः) धेनुकम्-अभि० ६।५४) २. सौरभेयी-गाय (गौः सौरभेयी-अभि० ४।३३१) पञ्जिका में इसका अर्थ भैस किया है ।। ३. असिता:-श्यामाः । ४. ककुद्मान्-बैल (उक्षाऽनड्वान् ककुद्मान्–अभि० ४।३२३) ५. कलि:-कलह (युद्धं तु संख्यं कलि:-अभि० ३।४६०) ६. गन्धधूलीमृगः–कस्तूरीमृग (कस्तूरी गन्धधूल्यपि-अभि० ३।३०८) ७. युवद्वयी–युव-युवति-युगलानि। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः सेवित शिलाओं पर बैठकर, बार-बार अपने वस्त्रों को सुगंधित कर रहे थे। यह देखकर उसे वचनातीत प्रसन्नता हुई। ८. मुदं ददाताऽनवलोकितेतर - प्रभुः प्रभूताकुरराजिराजिनी । प्रियेव रोमाञ्चवती निजेशितु - wलोकि तेनापि मही फलावहा ॥ दूत ने वहां की पृथ्वी को प्रिया की भांति फलवती देखा। जैसे प्रिया अपने स्वामी को हर्षित करती है, दूसरे पुरुष की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती, अनेक पुत्रपुत्रियों से शोभित और रोमांचवती होती है वैसे ही बाहुबली की वह भूमि अपने स्वामी को हर्षित करने वाली थी। उसने कभी दूसरा शासक नहीं देखा था। वह प्रभूत अंकुरों की श्रेणी से सुशोभित थी ६. नफल्गु सस्य' परिहाय निस्तुषं , खलेषु गेहं चलिताँस्त्वितीरिणः । क्षितीश्वराजाऽस्य सदैव यालिनी , स वीक्ष्य मान् मुमुदे दिनात्यये ॥ सायंकाल के समय दूत ने लोगों को अपने-अपने खेतों से घर आते हुए देखा। वे अपने खलिहानों में निष्तुष धान को ऐसे ही छोड़कर आ रहे थे। वहां कोई रक्षक नहीं था। वे परस्पर यह कह रहे थे कि बाहुबली की आज्ञा ही इस धान की सद। रक्षा करती है । यह सुनकर वह दूत बहुत आनंदित हुआ। १०. . स निर्वृतिक्षेत्र मुदीक्ष्य दूरतः, स निर्वृतिक्षेत्र विलाससंस्पृहः । . बभूव सर्वो हि विशिष्टवस्तुनि , स्मरेत् सरागं जनमोक्षिते क्षणात् ॥ -दूर से बिना बाड़ वाले क्षेत्र-खेतों को देखकर उसके मन में अपनी निर्वस्त्र क्षेत्रकान्ता के साथ क्रीड़ा करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई। यह सच है कि सभी मनुष्य विशिष्ट वस्तु को देखकर क्षण भर में अपने रागी जन की स्मृति करने लग जाते हैं। १. नृफल्गु-आरक्षकजनरहितम् । . २. सस्यं-धान, (धान्यं तु सस्यं-अभि० ४।२३४) ३. खलं-खलिहान (खलधानं पुनः खलम्-अभि ४।३५) ४. दिनात्यये—सन्ध्यासमये । ५. यहाँ क्षेत्र का अर्थ है-खेत (क्षेने तु वप्रः केदार:-अभि० ४।३१) __ निवृतिक्षेत्र अर्थात् बाड़रहित खेत । ६. यहाँ क्षेत्र का अर्थ है-स्त्री (दाराः क्षेत्रं वधूर्भार्या-अभि० ३।१७७) निर्वृतिक्षेत्र अर्थात् निर्वस्त्र कान्ता। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. स वेपमानं सरसीजले विधं विलोक्य कान्तास्त्वितिवादिनीर्मुहुः । शशाङ्क ! राजासि बिभेषि मा प्रभो - बलात् प्रभुर्नः सकृपो व्यलोकत ॥ , भरतबाहुबलि महाकाव्यम् तालाब के जल में चन्द्रमा को कम्पित देखकर स्त्रियां बार-बार यह कह रही थीं'चन्द्र ! तुम राजा हो । हमारे स्वामी बाहुबली के बल को देखकर तुम मत डरो । हमारे स्वामी दयालु हैं, वे बिना अपराध किसी को कष्ट नहीं देते।' दूत ने यह सब देखा । १२. क्वचिन् मृगोयूथमयद् यदृच्छया, स वीक्ष्य विस्फाररवेप्यसंभ्रमम् । गते' कर्णान्तिकमित्यतर्कयत्, कृपार्षभीणां विषयेषु' शाश्वती ॥ दूत ने क्वचित् हरिणियों के समूह को स्वेच्छा से घूमते हुए देखकर सोचा - ये कितनी निर्भयता से घूम रही हैं । धनुष के टंकार को इतने समीप से सुनकर भी ये भयभीत नहीं हो रही हैं, इनकी गति में वेग नहीं आ रहा है। उसने यह तर्क किया कि ऋषभ के पुत्रों के देश में दया शाश्वतरूप से स्थित है । १३. दिकस्वराम्भोजमुखी परिस्फुरद् विसारनेत्रा दयितेव तस्य च । रथाङ्गनामस्तनराजिनी चलत् - तरङ्गनाभिः सरसी मुदेऽभवत् ॥ - एक तलाई ने दूत को कान्ता की भांति प्रमुदित किया। विकसित कमल उसका मुख था। चलती हुई मछलियाँ उसके नेत्र थे । चक्रवाक उसके स्तन और उछलती हुई तरंगें उसकी नाभि थी । १४. श्रमच्छिदे तस्य विरुद्धपुष्पव - ल्लताप्रसक्तैः श्रितसारिणीजलैः । अभूताऽवेगचरैः समीरणः क्रमं न लुंपन्ति हि सत्तमाः क्वचित् ॥ व्यभिचार के कारण पुष्पवती लताओं से प्रसक्त और सारिणी के जल का स्पर्श करने वाला पवन दूत के पथगत श्रम को दूर करने के लिए मन्द मन्द गति से चलने लगा। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष अपने क्रम - परंपरा का कहीं भी लोप नहीं करते । १. अत्रापेः पुनरादानं अतीवसमीपख्यापनार्थम् – पञ्जिका पत्र २ । २. विषय : - देश ( विषयस्तूपवर्तनम् - अभि० ४।१३ ) ३. विसार का अर्थ है--मछली ( विसारः शकली शल्की अभि० ४।४१० ) - परिस्फुरद्विसारनेत्रा — चलन्मीननयना । - अभि० ४।३६६ ) यह 'समीरणः ' का विशेषण है । १ - विरुद्धा प्रसक्तैः – प्रसंगवद्भिः ४. रथाङ्गनाम — चक्रवाक (चक्रवाको रथाङ्गाह्वः ५. विरुद्धपुष्पवल्लताप्रसक्तैः – इसके दो अर्थ हैं। व्यभिचारादिना, पुष्पवती - रजस्वला, एतादृशी लता, तत्र २ - विरुद्धा - विभिः पक्षिभिः रुद्धा व्याप्ता, पुष्पवत् — कुसुमवत् ן** Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः १५. प्रफुल्लकंकेल्लिनवीनपल्लवै - रमुष्य सायंतनवारिदभ्रमम् । वनं क्वचित् श्यामलताभिरञ्चितं , दिनेपि दोषाभ्रममादधे पुनः ॥ विकसित अशोक के नए पत्तों को देखकर दूत के मन में सायंकालीन बादलों का भ्रम उत्पन्न हुआ और कहीं-कहीं वह वन श्यामलता से व्याप्त होने के कारण दिन में भी रात्री का भ्रम पैदा कर रहा था । १६. जनाद् बलं बाहुबले टैः पथि , द्रुमेषु भूभृत्सु च चिन्हितं चरः । भुजाशुगा स्त्रैः परिपीय कंपितः , सकण्टका एव हि दुर्गमा द्रुमाः ॥ प्रत्येक मार्ग में वृक्ष और पर्वत पर बाहुबली के सैनिकों का पराक्रम बाहु, बाण और अस्त्रों द्वारा चिन्हित था। लोगों से उसकी गाथाएं सुनकर दूत कांप उठा । क्योंकि काँटेवाले वृक्ष ही दुर्गम होते हैं । १७. भुजद्वयोन्मूलितभूरुहावलि , निभाल्य कि हस्तिभिराहतेति तम् ? वदन्तमूचे जनतेत्यसौ भट - रभजि नः साकमरातिकांक्षितैः ॥ दोनों भुजाओं द्वारा उखाड़ी हुई वृक्षावलि को देखकर दूत ने पूछा-'क्या इन वृक्षों को हाथियों ने उखाड़ा है ?' यह सुनकर जनसमूह ने कहा-'नहीं, हमारे वीर सुभटों ने शत्रुओं की आकांक्षा के साथ-साथ इस वृक्षावलि को भी उखाड़ फेंका है।' १८. सुधारसस्वादुफलानि नो भटः , करानवापानि विमश्य मुष्टिभिः । हतद्र मस्कन्धनिपातितान्यधो, विलोकय त्वं किमसाध्यमुद्भटैः ? जनता ने कहा-'दूत ! हमारे सुभटों ने जब यह सोचा कि वृक्षों पर लदे अमृत सरीखे मीठे फल ऊंचे हाथ से भी प्राप्त नहीं हो रहे हैं तब उन्होंने वृक्ष के स्कंध पर मुष्टि-प्रहार किया और फल भूमि पर आ गिरे। तुम देखो, ये फल नीचे पड़े हुए हैं। प्रबल पराक्रमी के लिए क्या असाध्य है ? कुछ भी नहीं । १६. हतेभकुम्भस्थलजन्ममौक्तिक - रिह प्रियावक्षसि हारमादधः। भटा यशोन्यासमिवौजसां क्षिता - वितस्तदुत्खातरदान निभालय ॥ दूत ! हमारे वीरों ने हाथियों के कुंभस्थलों को विदारित कर, उसमें से निकले हुए मोतियों से हार बनाकर अपनी प्रियाओं की छाती पर धारण करवाया है, मानो १. आशुगः --बाण (काण्डाशुगप्रदरसायकपत्रवाहाः --- अभि० ३।४४२) २. परिपीय-आकर्ण य । ३. अरातिः -शत्रु (प्रत्यर्थ्यमित्रावभिमात्यराती-अभि० ३।३६३) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् कि वे (मोती) उनके बल से उपाजित यश के प्रतिष्ठापक हों। दूत ! इधर हमारे सुभटों द्वारा उखाड़े हुए, भूमि पर पड़े हुए, हाथियों के दांतों को देखो। २०. इतोपि दोर्दण्डदलीकृतं शिला - तलं निरीक्षस्व घनैरभङ्गुरम् । विरोधिनां वक्ष इवोद्भटर्भट - रभेद्यमच्छेद्यमिदं ह्यविक्रमः ॥ तुम इधर भी देखो। मुद्गरों द्वारा नहीं टूटने वाले ये शिलातल हमारे उद्भट वीरों के भुजादंड से शत्रुओं के वक्ष की भांति चूर-चूर हुए पड़े हैं । निर्बल व्यक्ति के लिए ये शिलातल अभेद्य और अछेद्य हैं। २१. शरैरनावृत्तमुखैमनोतिगे - धनुर्धरैविद्धमनन्यविक्रमः । द्र मावलिस्कन्धमिमं च पश्य नो , महौजसा ह्योजसि कोऽपि विस्मयः ? ' तुम इस वृक्षावलि के स्कंध को देखो। इसे हमारे अत्यन्त पराक्रमी धनुर्धरों ने अनावृत मुखवाले तथा मन से भी अधिक वेगवाले तीरों से वींधा है । महान् पराक्रमी व्यक्यिों की शक्ति के प्रति क्या कोई विस्मय होता है ? नहीं।। २२. सलीलमुत्पाव्य गिरिगजेन्द्रवन् , महाबलैर्नीत इतस्ततः करः। गजरिवानोकह इत्यनेकधा , बलं भटानां कुरु दृष्टिगोचरम् ॥ दूत ! ऐरावत हाथी की भांति महान् पराक्रमी हमारे वीर सुभट अपने हाथों से लीला के साथ पर्वत को उखाड़ कर इधर-उधर ले जाते रहे हैं, जैसे हाथी वृक्षों को उखाड़कर इधर-उधर ले जाते हैं। इस प्रकार हमारे सुभटों के अनेकरूप पराक्रम को तुम देखो। २३. महाभुजैनः प्रभुरीदर्शवृतः, स दुःप्रवर्षो मनसापि वज्रिणा। यदीयदोर्दण्डपविप्रथाहता'; महीभृताः सागरमाश्रयन्ति हि ॥ हमारे स्वामी बाहुबली ऐसे राजाओं से परिवृत हैं कि इन्द्र उन्हें मन से भी पराजित नहीं कर सकता। उनकी भुजारूपी वज्र की धारा से आहत राजा समुद्र में जा आश्रय लेते हैं। यदी २४. अमुष्य नामापि बभूव शूलकृद् , विरोधिनां मूर्धनि निःप्रतिक्रियम्। रसायनं नः प्रणिपाततःप्रभोः, परं न तस्यास्ति महीतलेऽखिले ॥ १. पविः-वज्र (शतकोटि: पविः शम्बो:-अभि० २।६४) २. निःप्रतिक्रियम-प्रतीकाररहितम् । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः दूत ! बाहुबली का नाम भी वैरियों के शिर में अचिकित्स्य शूलरोग पैदा करने वाला है । हमारे उन स्वामी के समक्ष नतमस्तक होने के अतिरिक्त सारे पृथ्वीतल में इस शू लरोग की चिकित्सा के लिए कोई रसायन नहीं है। २५. भुजंगराजं वसुधैकधुर्वहं , भुजस्य दायादमवेक्ष्य नो नपम् । प्रयान्तमित्येत्य जगाद नागराट् , रसा सहस्र रुपगीयते भवान् ॥ दूत ! नागराज ने हमारे स्वामी को भुजंगों के अधिपति (नागजाति के स्वामी), भूमि की धुरा को एकमात्र धारण करने वाले और बाहु के स्पर्द्धक जानकर उनके प्रयाण के समय आकर कहा–'राजन ! मैं हजार रसनाओं से आपका गुणगान करता हूं !' २६. अमुष्य सैन्याश्वखुरोद्धतं रजः, पति द्विजानां सकलङ्कमाधितः । सकंपमारातिमनोप्यहनिशं , वरं नदीनामपि पङ्किलं किल' ॥ यह विश्रुत है कि बाहुबली की सेना के घोड़ों के खुरों से उठे हुए रजकणों ने चन्द्रमा को कलंकित कर दिया, शत्रुओं के मन को रात-दिन कंपित किए रखा और समुद्र को पंकिल कर डाला । २७. स्वतातजन्मोत्सववारिणाचितः, स्वयं सुमेरुर्गमितो न चूर्णताम् । . महेन्द्रमुष्ट्या शतकोट्यऽहीनया , वयं हृदैवं परितर्कयामहे ॥ हम मन में ऐसी वितर्कणा करते हैं कि महाराज बाहुबली की वज्र के समान शक्तिशाली मुट्ठी ने स्वयं सुमेरु पर्वत को चूर्ण नहीं किया क्योंकि वह पर्वत उनके पिता ऋषभ के जन्मोत्सव के जल से अचित था । (अन्यथा मुट्ठी उस पर्वत को चूर्ण कर डालती। २८. जगत्त्रयो यस्य च कीर्तिमल्लिका , दधात्यजन शिरसा विकाशिनीम् । स एक वीरो भुवनत्रये धनु - बित्ति कंदर्प इवाफलं न हि ॥ तीनों लोक जिसकी विकसित कीर्तिरूपी मल्लिका को सदा शिर पर धारण करते हैं, उस त्रिलोकी में एकमात्र वीर बाहुबली कामदेव की भांति अचूक निशाने वाले धनुष को धारण करते हैं। १. दायादमवेक्ष्य~दायादं—स्पर्द्धकं, अवेक्ष्य-विचार्य । २. रसा-जिह्वा। ३. द्विजानां पति-चन्द्रमा को। ४. नदीनां वरं—समुद्र को। ५. किल-सुना जाता है (किलेति श्रूयते-पञ्जिका पत्र ३) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ३०. दूत ! शत्रुओं के बल से ताम्र ( रक्तिम ) बना हुआ बाहुबली का तेज महा प्रताप रूपी अग्नि में तप्त होकर राजाओं के योग से प्रतिपल परिपूर्ण अमल प्रभाराशि से युक्त कनक हो रहा है, जैसे तीव्र अग्नि में तप्त ताम्र पारद के योग से स्वर्ण बन जाता है । १ महाप्रतापानलतापितं द्विषद् - बलैकतास्र च रसेन्द्रयोगतः । अमुष्य तेजः कनकं दिने दिने, भवत्यनू नरमलप्रभामरैः ॥ ३१. भरतबाहुबलि महाकाव्यम् न सांयुगीनों मम कश्चिदाहवे', विचिन्तयत्येवमनिशं त्वसौ । अतः क्षितीशो मनुते समागतं रणं क्षणीकृत्य महाभवतः ॥ 1 हमारे स्वामी सदा यह सोचते हैं कि युद्ध में मेरा सामना करनेवाला कोई भी रणवीर नहीं है । अतः महान् भटों से परिवृत हमारे राजा समागत युद्ध को उत्सव के रूप में स्वीकृत करते हैं । अयं विपक्षांस्तृणवन्नुमन्यते त्वयं विपक्षैरतिरिच्यते गिरेः । अयं धुनीते रिपुसञ्चयं क्षणात् त्वयं न कैश्चित् सुरशैलवद् द्रुतः ॥ 1 • ,, बाहुबली अपने शत्रुओं को तृणवत् अधिक महान् मानते हैं । ये शत्रुओं के ये मेरु पर्वत की भांति किसी से कंपित नहीं होते । ३२ अनेन राज्ञा रजनीमणीयितं तुच्छ मानते हैं । शत्रुगण इन्हें पर्वत से भी समूह को क्षण-भर में कंपित कर देते हैं और तदान्यभूपैः किल तारकायितम् । अतो निदेशस्य नृपैर्न लङ्घ्यते त्वसौ निबेशं न दधाति कस्यचित् ॥ " हमारे राजा चन्द्रमा के समान और दूसरे सभी नृप ताराओं के सदृश हैं । इसलिए कोई भी नृप इनके आदेश का उल्लंघन नहीं करता । किन्तु ये किसी का भी आदेश स्वीकार नहीं करते । १. ताम्र -- रक्तिम | ताम्र - तांबा | २. रसेन्द्रः – रसायाः — भूम्याः, इन्द्रः - स्वामी - राजा । रसेन्द्र – पारद । ३. पाठान्तरं - ऽधिकं विराजत्यमलप्रभाभरम् । ४. सांयुगीन : - युद्ध में निपुण ( सांयुगीनो रणे साधु : - अभि० ३ | ४५७ ) ५. आहव : - युद्ध ( संग्रामाहव • अभि० ३ | ४६० ) ६. क्षणीकृत्य – उत्सवीकृत्य । ७. रजनीमणीयितम् — चन्द्रायितम् । ८. निदेश: — आदेश, आज्ञा ( आज्ञा शिष्टिनिराङ निभ्यो देशो अभि० २ १६१ ). Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ३३. विधेरिवास्मादुहितै हितैः पुनः फलान्यलभ्यन्त कलिक्रमाथिभिः । प्रभुः स एवात्र यतो विशेषतः, फलाफलावाप्तिरनुत्तरा भवेत् ॥ 1 दूत ! युद्धार्थी शत्रु और चरणार्थी मित्र विधाता की भांति हमारे स्वामी बाहुबली से अपना-अपना फल पा जाते हैं । इस संसार में वही प्रभु है जिससे कार्यानुरूप फल और अफल की अनुत्तर प्राप्ति होती है । ३४. स किन्नरो नात्र स नात्र मानवः स कोपि विद्याधरपुङ्गवो न हि । न येन कर्णेषु दधे नृपार्श्वभे यशः शरच्चन्द्रकरातिसुन्दरम् ॥ " ३५. इस लोक में वह कोई किन्नर नहीं है, वह कोई मनुष्य नहीं है और वह कोई विद्याधर पुंगव नहीं है जिसने महाराज बाहुबली के शरद् चन्द्रमा की किरणों से भी अति मनोज्ञ यशोगाथा को अपने कानों से न सुना हो । गिरं जनानामिति मानशालिनीं निशम्य तेनेति हृदा व्यतत । बलं प्रभोर्मे बलिनापि मा वृथा, महीभृति स्यात् करिणीपतेरिव ॥ , जनता की मान से परिपूर्ण वाणी को सुनकर दूत ने मन ही मन यह तर्कणा की कि मेरे पराक्रमी स्वामी महाराज भरत का बल बाहुबली में वृथा न हो जाए, जैसे यूथपति हाथी का बल पर्वत में वृथा हो जाता है । ३६. मदीयभूपाम्बुदतूर्यगजित ध्वनौ प्रवृत्ते शरभीभवन्नयम् । भर्वतोऽसून् किल मोक्ष्यते रणे, न च स्मयं हि प्रथमोभिमानिनाम् ॥ M ११. जब मेरे . स्वामी भरतरूपी मेघ - वाद्य की गर्जारव ध्वनि प्रवृत्त होगी तब अपने वीर सुभटों से परिवृत बाहुबली अष्टापद की भांति उछलता हुआ युद्ध में अपने गंवा देगा किन्तु अभिमान नहीं छोड़ेगा, क्योंकि यह बाहुबली अभिमानियों में प्रथम है । ३७. चरो विचिन्त्येति हृदा गिरा ततो, जगाद चैषां पुरतो न किञ्चन । निशम्य कर्णान्तिकटु प्रियं वचो, वदन्ति वाचा न हि वाग्मिनः क्वचित् ॥ दूत ने अपने मन में इस प्रकार सोचा किन्तु जनता के समक्ष उसने कुछ भी नहीं कहा । जो वापट होते हैं वे कर्णकटु या प्रिय वचनों को सुनकर भी कहीं कुछ नहीं बोलते १. अहितः - शत्रु (वैर्यहितो जिघांसुः - अभि० ३।३ε३) २. हितः - मित्र । ३. कलिक्रमाथिभिः क्लेशांहिसमीहकैः । ४. महीभृति के दो अर्थ हैं— (१) राजा में । ( २ ) पर्वत में । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सार भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ३८. सुगेयकृष्टाभिरुदनकन्धरं , मृगाङ्गनाभिः स विलोकितः क्वचित् । स शालिगोपीभिरपीक्षितः क्वचित् ,सविभ्रम विभ्रमवामदष्टिभिः ।। वह दूत चला जा रहा था। कहीं-कहीं मधुर ज्ञेय से आकृष्ट हरिनियां ऊंची ग्रीवा किए हुए उसे देख रही थीं। कहीं-कहीं चावल के खेतों की रखवाली करनेवाली, कमनीय कटाक्ष दृष्टिवाली स्त्रियों ने उसे विभ्रम के साथ देखा। ३६. स राजधानीभिरनङ्गभूपते - रसस्य पूर्वस्य च केलिसदमभिः । तरङ्गितामोदभरः पुरन्ध्रिभिः , व्यलङ्घत ग्रामपुराण्यनेकशः ॥ कामदेव की राजधानी और शृंगार रस की क्रीडागृह स्वरूप स्त्रियों के पास से गुजरते हुए दूत का आमोद तरंगित हो रहा था। इस प्रकार उसने अनेक गांव और पुर पार किए। ४०. चरः पुरो गन्तुमथहत त्वरां, महीधरोत्साह इवाङ्गवानऽयम् । न हि त्वरन्ते क्वचिदर्थकारिणो , विलम्बनं स्वामिपुरो हिताय नो॥. 'दूत आगे बढ़ने के लिए शीघ्रता करने लगा, मानो कि महाराज भरत का उत्साह "मूर्तिमान हो रहा हो । प्रयोजन की पूर्ति करनेवाले पुरुष क्या त्वरा नहीं करते ? अवश्य करते हैं, क्योंकि विलम्ब करना स्वामी के लिए हितकर नहीं होता। :४१. विलचितावा कतिचिद् दिनैश्चरः , पुरीप्रदेशान् जितनाकविभ्रमान् । सरःसरित्काननसंपदाञ्चिता - नुपेत्य संप्रापयदुत्सवं दृशोः ॥ कई दिनों तक चलते-चलते मार्ग को पार कर दूत तक्षशिला के पासवाले प्रदेशों में आया। वे प्रदेश स्वर्ग की शोभा को जीतनेवाले तथा तालाब; नदी और कानन की संपदा से युक्त थे। उन्हें देखकर दूत की आंखों में उत्सव-सा छा गया। १. शालिगोपीभिः-कलमक्षिकाभिः । २. सविभ्रमं–सविलासं। ३. कमनीय कटाक्ष दृष्टिवाली नारियों ने । ४. पूर्वस्य रसस्य-प्रथमस्य रसस्य-शृगाराख्यस्य रसस्य। ५. केलिसद्मभिः-क्रीडावसतिभिः । ६. पुरन्ध्री-वैसी स्त्री जिसके पुत्र, नौकर आदि हों। (अभि० ३।१७७) पुरंध्रि शब्द से 'ईप' का आगम विकल्प से होता है-पुरंधिशब्दस्य ईपागमो वा (पञ्जिका पत्र ३) यहाँ यह शब्द 'इकारान्त' स्त्रीलिंग में प्रयुक्त है । ७. नाक :-स्वर्ग (भुविस्तविषताविषौ नाक :-अभि०२।१) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ४२. पुरी परीतेयमनेकशो हयै . नंभोंशुमत्सप्ततुरङ्गमाङ्कितम् । स्मयाद् विहस्येति खुरोद्धरं रजः , क्षिपभिरुच्चैश्चलताञ्चितक्रमः ॥ ४३. वनायुदेव्यैः पवनातिपातिभि-स्तिर : क्षिपद्भिस्त्विति वारिधौ रजः । अयं रजोभिर्यदि पूर्यतेऽखिलो , रयस्तदा नः स्खलति क्वचिन्न हि ॥ ४४. खलूरिकाकेलिनिबद्धलालसै':, ससैन्धवैः२ सादि मनोनुगामिभिः । नितान्तमभ्याशवशाल्पितक्लमः, समुच्छलत्केसरकेशराजिभिः ॥ ४५. क्रमं विनीतैरिव नावलचितु, कृतप्रयत्नं परिधारितैर्मुहुः । अखेदमेदस्विबलै महाभुजै - स्तरङ्गितास्तस्य मुदस्ततो हयः॥ -चतुभिः कलापकम् ।। जब वह दूत तक्षशिला में आया तब उसने वहाँ अनेक प्रकार के घोड़े देखे । वे घोड़े चपलता युक्त चरणों से चलते हुए तथा अहंकारवश परिहास करते हुए अपने खुरों से उखड़े हुए रजःकणों को आकाश में यह मानकर उछाल रहे थे कि यह तक्षशिला नगरी अनेक घोड़ों से संयुक्त है, जबकि यह आकाश सूर्य के केवल सात घोड़ों से ही अंकित है। पवन से भी अति तीव्र गति से चलनेवाले 'धनायु देश' के घोड़े समुद्र में रजःकणों को तिरछी फेंक रहे थे । वे मान रहे थे कि यदि यह सारा समुद्र रजःकणों से भर जाए तो उनका वेग कहीं भी स्खलित नहीं होगा। वनायू देश के घोड़ों के साथ-साथ सिन्धु देश के घोड़े भी थे। वे शस्त्राभ्यास की भूमि में क्रीड़ा करने की लालसावाले, घुड़सवार के मनोनुकूल चलनेवाले तथा नितान्त अभ्यास के कारण न्यून श्रमवाले थे। वे गले पर के उछलते हुए केशों से. शोभित हो रहे थे। विनीत शिष्यों की भांति क्रम (चरण-विन्यास) का उल्लंघन न हो, इस दृष्टि से प्रयत्नपूर्वक चलनेवाले, अनायास पुष्ट पराक्रम और महाभुजावाले वे घोड़े दूत के हर्ष को तरंगित कर रहे थे। . ___ १. खलूरिका-शस्त्राभ्यास करने का मैदान-(खुरली तु श्रमो योग्याभ्यासस्तद्भूः खलूरिका अभि० ३।४५२) २. सैन्धव :-सिन्धु देश में उत्पन्न अश्व ।। ३. सादी-घुड़सवार (अश्वारोहे त्वश्ववारः, सादी च तुरगी च सः-अभि० ३।४२५) ४. केसरकेश-अश्व के गलों के केश । ५. अखेदमेदस्विबल:-अनायासपुष्टपराक्रमः (पञ्जिका पत्र ४) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४६. स सिधुरैः सन्निहिताभ्रमुप्रिय - भ्रमै भ्रमभ्रामरवद्धितधः । चलन्नगेन्द्र रिव वारण'च्छलात् , कपोलपालीविगलन्मदाम्बुभिः ॥ . ४७. रदद्वयोचिन्हितवप्रभित्तिभि - निजप्रतिच्छायरुषा पुनः पुनः। निषादिदूरीकृतमानवे पथि , व्रजद्भिरानन्दितलोचनो ययौ । -युग्मम् । वह दूत हाथियों के साथ-साथ चल रहा था। उसकी आँखें आनन्द-विभोर हो रही थीं। वे हाथी समीपस्थ ऐरावत हाथी का भ्रम पैदा कर रहे थे। कुंभस्थल पर मंडराने वाले भ्रमरों के कारण उनका क्रोध बढ़ रहा था। वे ऐसे लग रहे थे मानो कि हाथियों के मिष से वे चलते-फिरते हिमालय पर्वत हों। उनके कपोल के कोने से मद झर रहा था। अपनी प्रतिच्छाया से रुष्ट होकर उन्होंने अपने दोनों दाँतों से दुर्ग की भित्तियों को चिन्हित कर दिया था। महावत मनुष्यों को मार्ग से हटा रहे थे । उस निर्विघ्न मार्ग पर वे हाथी संचरण कर रहे थे। "४८. विरोधिलक्ष्मीकबरीविडम्बिन, जयश्रियः पाणिमिवासि मुद्वहन् । करेण शौर्योल्लसदासुरीकचः, • पदातिवर्गों ददृशेऽमुना पुरः॥.. दूत ने आगे चलकर पैदल सैनिकों को देखा। वे अपने हाथों में विरोधियों की लक्ष्मी की केश-रचना को विडंबित करनेवाली तलवारों को ग्रहण किए हुए थे। मानो कि वे विजयश्री के हाथ को पकड़े हुए हों। पराक्रम से उनकी दाढ़ी-मूंछ के केश उल्लसित हो रहे थे। ४६. अयं रसो वीर इवाङ्गवान् स्वयं , रतीश्वरों वा किमिहागतः पुनः। क्वचिद् धनुर्बाणधरं भटोच्चयं , स वीक्ष्य तत्रैवमतर्कयत्तराम् ॥ नगर के परिसर में कहीं-कहीं धनुर्धारी भटों के समूह को देखकर दूत ने यह १. सिन्धुरः-हाथी (स्तम्बेरमद्विरदसिन्धुरनागदन्तिन:-अभि० ४।२८३) २. अभ्रमप्रियः-ऐरावत हाथी (ऐरावतो हस्तिमल्लः श्वेतगजोऽभ्रमुप्रिय:-अभि० २।६१) ३. वारणः-हाथी (मातङ्गवारण...... अभि० ४।२८३) ४. पाली-कोना (कोटि: पाल्यस्र इत्यपि—अभि० ४७६) ५. निषादी–महावत (हस्त्यारोहे सादियन्तृमहामात्रनिषादिन:-अभि०३।४२६) ६. कबरी—केश-रचना (केशवेषे कबर्यथ–अभि० ३।२३४) ७. असिः-तलवार । ८. आसुरीकचः-दाढी-मूंछ के बाल-(आसुरीकचा:-कूर्चकेशा:-पञ्जिका पत्र ४). अभिधान चिन्तामणि कोश में दाढी का नाम 'मासुरी' है । कवि ने 'आसुरी' का प्रयोग किया है। १. रतीश्वर :-कामदेव। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः विचार किया-क्या वीर रस मूर्त होकर यहाँ आ गया है अथवा कामदेव स्वयं यहाँ उपस्थित हुआ है ?' ५०. नियन्तु'रानेमिविवृत्तिहारिभि' गुरोविनेयैरिव जीर्णपद्धतिम् । अलङ्घयद्भिर्ह दयानुगामिभिः , सदा कुलीन रपि युग्यवाहिभिः ॥ रथैरथाङ्गध्वनिबन्धबन्धुरै - श्चलभिरावासवरैरिवोरुभिः । स कौतुकाकूतविलोलमानसः , प्रहृष्टदृष्टिर्नगरीमवाप सः ॥ युग्मम् । दूत ने रथों को देखा। वे रथ अपने नियन्ता द्वारा डाले हुए प्राचीन पथ का कभी उल्लंघन नहीं करते थे । वे चक्रधारा तक परावृत्ति करने के कारण मनोहर लग रहे थे । वे हृदयानुगामी और सदा कु-पृथ्वी पर लीन रहते थे। वे बैलों द्वारा खींचे जा रहे थे। वे पहियों की होनेवाली सतत ध्वनि से मनोज्ञ लग रहे थे। वे इतने विशाल थे कि मानो वे चलते-फिरते घर हों। कुतूहल के अभिप्राय से चंचलचित्त और प्रमुदित नयनवाला वह दूत उन रथों को देखता हुआ तक्षशिला नगरी में पहुंचा। ५२. चरः पुरः पू:परिखां पयोभृतां , विलोक्य पाथोधिरयं किमागतः। निषेवितुबाहुबलिं बलात् • स्वयं , निजां श्रियं रक्षितुमित्यचिन्तयत् ॥ दूत ने आगे :नगरी की खाई को पानी से भरा हुआ देखकर सोचा-क्या समुद्र बाहुबली की उपासना करने के लिए तथा बलात् अपनी लक्ष्मी की रक्षा करने के लिए यहाँ स्वयं आ गया है ?'.. ५३. चरः सरत्नस्फटिकाश्मभित्तिकं , विलोक्य वप्रं त्विममूहमातनोत् । श्रियं पुरा वीक्षितुमात्मनः क्षिता - वयं किमादर्शव रः प्रकल्पितः ॥ दूत ने रत्न-खचित तथा स्फटिक पत्थरों से निर्मित वप्र को देखकर सोचा-'क्या इस १. नियन्ता-सारथि (नियन्ता प्राजिता..... सारथी-अभि० ३।४२४) २. आनेमि-आचक्रधार,विवृत्तिः–परावृत्तिश्चंक्रमणं, तेन हारिभिः मनोज:--रथैः (पञ्जिकापन ४) ३. जीर्णपद्धतिम्-पुराणमार्गम् । ४. कुलीनः-कु:—पृथ्वी, लीन :-प्रसक्तः—पृथ्वी से लगे रहने वाले। ५. इस श्लोक में रथ और विनेय-शिष्य की तुलना की गई है। विनेयपक्षे-किं कुर्वद्भिः विनेयः गुरोः जीर्णपद्धति-वृद्धपंक्ति अलंघयद्भिः । आनेमि-आमर्याद, विवृत्ति-विशिष्टवर्तनं हरंति-गृण्हन्ति, इत्येवंशीलास्तः । कुलीन–कुलोद्भवः । (पञ्जिका पत्र ४) ६. रथाङ्गध्वनिबन्धबन्धुरैः-चक्रनादबंधमनोजः (पञ्जिका पत्र ४) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् नगरी ने स्वयं की शोभा को देखने के लिए पृथ्वीतल पर इस सुन्दर दर्पण की रचना की है ?' ५४. अथ पुरीद्वारमवाप्य संकुलं, रथद्विपाश्वैः स कथंचिदासदत् । प्रवेशमावेश इवान्तराशयं ततक्षमं योगभृतां स विस्मयः ॥ नगरी के द्वार का मैदान बहुत विस्तीर्ण था फिर भी आने-जानेवाले रथों, हाथियों और अश्वों से वह संकुल हो रहा था । विस्मित दूत ने बड़ी कठिनाई से उसमें प्रवेश पाया, जैसे योगियों के विशाल क्षमा वाले अन्तर् आशय में आवेश बड़ी कठिनाई से प्रवेश पाता है । ५५. पुरोन्तरं प्राप्य तटं ५६. , पयोनिधे - रिवोरुमुक्ताफलरत्नराजितम् । चरो दृशं दातुमभून्न तु क्षमो, गजाश्वसंघट्टभयात् सदेपथुः ॥ दूत नगर के मध्यभाग में आया । वह स्थान समुद्र के तट की भाँति अत्यन्त विशाल और मोतियों तथा रत्नों से सुशोभित था । दूत हाथी और घोड़ों के संघट्टन के भय से प्रकंपित होने के कारण उस स्थान को देख ही नहीं सका । ५७. इहाणश्रेणिभिरद्भुतश्रिया, मनोरमाभिः चतुष्क' मागाद् बहुवस्तुसंचय - प्रपातदुः प्रापधरातलं कृतलोचनोत्सवः । त्वसौ ॥ दूत चौराहे पर आया । वहाँ अनेक प्रकार की वस्तुओं का संचय था । कहीं भी धरातल दिखाई नहीं दे रहा था । वहाँ अद्भुत संपदा से युक्त सुन्दर दूकानों की श्रेणियां थीं । उन्हें देखकर दूत की आंखों में उत्सव -सी उतर आया । सुवर्णकुम्भस्तनशालिनीं स्फुरत् सुवृत्तमुक्ताफलराशिसुस्मिताम् । विशालनेत्रां स्फुटविद्रमाघरां चतुष्कभूवारवधूं स ऐक्षत ॥ , दूत ने चौराहे की भूमी को एक वेश्या के रूप में देखा । वह भूमी स्वर्ण के कलशरूपी स्तनों से मंडित, चमकदार गोल मोतियों की राशि के मिष से हंसने वाली, विशाल नेत्रों वाली ( वस्त्रों की विशाल राशि से युक्त ) तथा स्फुट विद्रुम रूपी अधरों वाली थी । १. सवेपथुः — सकम्पः । २. चतुष्कं—चौराहा (चतुष्पथे तु संस्थानं चतुष्कं – प्रभि० ४।५२.) ३. विशालनेत्रां – पृथुवस्त्रां, पक्षे विशालनयनां – पञ्जिका पत्र ४ । ४. वारवधू - वेश्या (अभि० ३।१६७ ) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ५८. क्वचित्' सरामोऽथ सलक्ष्मणा क्वचित् क्वचित् ससुग्रीवबला सुधामभिः' । अलङ्कृता वीरवरैश्च तस्य पूः, प्रमोदमीक्ष्वाकुपुरीव साऽपुषत् ॥ तक्षशिला नगरी ने ईक्ष्वाकु नगरी अयोध्या की भाँति दूत की प्रसन्नता को पुष्ट किया । वह नगरी कहीं सुन्दरियों से, कहीं धनवानों से, कहीं अच्छे ग्रीवा वालों से तथा अच्छे प्रासाद और वीर सुभटों से अलंकृत थी । ५६. स शंखकुन्देन्दुव लक्ष रोचिषो यशश्चयाकर्तुं रिवोद्भवत्क्षणान् । पुरीविहारानवलोक्य दूरतः सुधामयान् प्रापदतुच्छसंमदम् ॥ , J 1 दूर से ही तक्षशिला नगरी के सफेद कली से पुते हुए प्रासादों को देखकर दूत अत्यन्त आनन्दित हुआ । वे शंख, कुन्द और चन्द्रमा के समान धवल कांति वाले थे । वे ऐसे लग रहे थे मानो कि वे उनके निर्माता के यशः- समूह हों; उत्पद्यमान उत्सव हों । ६०. चलन्मृगाक्षीनवहेमभूषण प्रकामसंघट्टपतिष्णुरेणुभिः । विनिर्मितस्वर्णनगावनिभ्रमं स राजमागं गतवांस्ततः परम् ॥ , उसके बाद वह दूत राजमार्ग पर जा पहुँचा । उसे देखकर दूत को स्वर्णगिरि – मेरु की भूमि का भ्रम हो गया, क्योंकि उस मार्ग पर चलनेवाली सुन्दरियों के नव-निर्मित स्वर्ण आभूषणों के अधिक संघर्षण के कारणं स्वर्ण-रजकण नीचे गिर कर ऐसा भ्रम पैदा कर रहे थे । " ६१. अनेक राजन्यरथाश्ववारणैर्निषिद्धसंचारमिवावतीरुहैः । वनायनं विश्वजने क्षणक्षणप्रदं प्रलीनारिमनोरथं ततः ॥ ६२. क्वचिच्च वैडूर्यमणिप्रभाभरैः कृताम्बुद भ्रान्तिमनोज्ञविभ्रमम् । सपद्मरागांशुभिरपिताशनिभ्रमं सशुद्धस्फटिकाश्मकान्तिभिः ॥ १. इस श्लोक में तक्षशिला नगरी की अयोध्या से तुलना की गई है। कई शब्दों का श्लेष मननीय है । किं विशिष्टा सा पूः - क्वचित् सरामा -सस्त्रीका | अयोध्यापक्षे - सरामचन्द्रा । सलक्ष्मणा — लक्ष्मणाः — धनाढ्‌यास्तैः सह वर्तमाना । अयोध्यापक्षे - ससुमिनातनया | ससुग्रीवबला -- सशोभनशिरोधररूपा । अयोध्यापक्षे — सुग्रीवो — वानरेश्वरस्तस्य बलं - संन्यं, तेन सह वर्तमाना । २. सुधामभि: - इसको स्वतन्त्र मानने से इसका अर्थ होगा सु- श्रेष्ठ, धामभिः - प्रासादों से। और 'वीरवरैः' का विशेषण मानने से इसका अर्थ होगा...सु श्रेष्ठ, धामभिः - तेज से युक्त | ३. वलक्ष:-- सफेद (अवदातगौरशुभ्रवलक्षधवलार्ज ना: - अभि० ६ | २९ ) ४. विहारः - प्रासाद | ५. स्वर्णनगः – मेरुपर्वत । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६३. चलबलाका भ्रमदं सविद्रुमार्जुनांशुभिर्दत्तसुरायुषभ्रमम् । चरो नृपद्वारमवाप वेत्रिभिनिवारितस्वरगमागम क्रमात् ॥ -त्रिभिविशेषकम् । राजमार्ग से चलता हुआ दूत राज-प्रासाद के द्वार पर पहुंचा। अनेक राजाओं के रथों, घोड़ों और हाथियों के कारण उसमें संचरण करना निषिद्ध सा हो रहा था जैसे कि वृक्षों के कारण वनमार्ग संचरण योग्य नहीं रहता। वह द्वार सभी लोगो की आंखों को आनन्दित तथा शत्रुओं की अभिलाषा को क्षीण कर रहा था। वह कहीं-कहीं वैडूर्य और मणियों के किरण-समूहों से बादल की भ्रान्ति पैदा कर रहा था । वह भनोज्ञ और सुन्दर था। वह पद्मराग मणि की किरणों से विद्युत् का भ्रम, विशुद्ध स्फटिक पत्थर की कान्ति से चलती हुई. बलाकाओं (बगुलियों) का भ्रम और प्रवाल के साथ स्वर्ण किरणों के मिश्रण से इन्द्रधनुष का भ्रम पैदा कर रहा था। द्वारपालों ने स्वच्छन्दता पूर्वक उसके भीतर आने-जाने का मार्ग अवरुद्ध कर डाला था। ६४. चरन्तमायान्तमुदीक्ष्य वेत्रिणः , क एष वैदेशिक इत्युदीरयन् । .. चरः प्रभोः कस्य कुतस्त्वमागतः , प्रभोनिदेशात् प्रविविक्षुरत्र नः॥ द्वारपालों ने दूत को आते हुए देखकर सोचा-'यह कौन परदेशी व्यक्ति पा रहा है ?' जब वह पास में आया तब उन्होंने पूछा.—'तुम किस राजा के दूत हो? तुम कहां से आए हो ? हमारे स्वामी बाहुबली की आज्ञा से ही तुम भीतर प्रवेश पा सकते हो।' ६५. अयं बमाणे प्रथमस्य चक्रिणश्चरो भवत्स्वामिनमागतस्ततः। अखण्डषट्खण्डनरेन्द्रमौलिभिनतक्रमः श्रीभरतः प्रशास्ति याम् ॥ दूत ने कहा-'मैं प्रथम चक्रवर्ती महाराज भरत का दूत हूं। आपके स्वामी महाराज बाहुबली के पास आया हूं। मैं उस अयोध्या या कौशल देश से आ रहा हूं जहां के अनुशास्ता महाराज भरत हैं, जिनके चरणों में छह खंडों के राजा नतमस्तक होते हैं । ६६. ततो निबद्धाञ्जलयो नृपं च ते , समेत्य नत्वा स्मवदन्ति वेत्रिणः । चरो युगादेस्तनयस्य चक्रिणो , निवारितो द्वारि विलम्बते' विभो ! ॥ तब वे द्वारसाल महाराज बाहुबली के पास गए और हाथ जोड़, नतमस्तक होकर १. बलाका-बगुली (बलाका विसकण्टिका-अभि० ४।३६९) २. विद्रुमः-प्रवाल । अर्जुनं-स्वर्ण (तपनीयचामीकरचन्द्रभर्माऽजुन-पभि ४।११०) सुरायुधं-इन्द्रधनुष । ३. विलम्बते-प्रतीक्षते (पत्रिका पत्र ५) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः बोले-'प्रभो ! वृषभ के पुत्र चक्रवर्ती भरत के पास से एक दूत आया है । वह द्वार पर निवारित होकर आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रहा है।' ६७. नटीकृतानेकमहीभुजो भ्र वः , ससंज्ञयादेशविधायिवेत्रिभिः । प्रवेशयामास चरं धराधिपो , विवेकवान् न्यायमिवातुलैर्गुणैः ॥ अनेक राजाओं को नचानेवाली भौहों का संकेत पाकर आज्ञाकारी द्वारपालों ने दूत को अन्दर प्रवेश करने दिया, जैसे विवेकी पुरुष असाधारण गुणों से न्याय को प्रवेश कराता है। ६८. विचित्रचित्रं मणिभिः समाचित' , परिज्वलत्काञ्चनभित्तिभूषितम् । ततः प्रविष्टः स नपालयान्तरं , विशिष्टमिन्द्रालयतोऽपि सच्छियः॥ बाहुबली का आदेश पाकर दूत ने राज-प्रासाद के अन्तराल में प्रवेश किया। उसका भीतरी भाग विविध चित्रों से चित्रित, मणियों से खचित, चमकदार स्वर्ण की भित्तियों से विभूषित और वैभव की दृष्टि से इन्द्रालय से भी विशिष्ट था। ६९. चरः सचित्रापितसिंहदर्शनाद् , विल धिताधोरण तीव्रयत्नतः । गजाद विवृत्तान् मदवारिसौरभागतद्विरेफात् क्वचिदप्यशङ्कत ॥ प्रासाद के किसी एक भाग में दूत ने देखा कि एक हाथी चित्रित सिंह के दर्शन से भयभीत होकर पीछे मुड़ गया है। उसने महावत के अंकुश प्रहारों की कोई परवाह नहीं की। उस हाथी के झरते हुए मद की सुगंधी से भौंरे आ रहे थे । दूत उस हाथी से डर गया। ७०. स इन्द्रनीलाश्ममयैकमण्डपं , विलोक्य मेघागममेघविभ्रमम् । गजेन्द्रगर्जारव'नृत्तबहिणं , बभार संभारमयं मुदां ततः ॥ उस दूत ने इन्द्रवील मणियों से निर्मित मंडप को देखा। वह वर्षा ऋतु के मेघ जसा शोभायमान हो रहा था। वहाँ हाथियों की चिंघाड़ को सुनकर (उसे मेघ का गरिव मानकर) मयूर नाचने लगे। उस मंडप को देख दूत अत्यन्त हर्षित हुआ। ७१. ततौजसं सोऽथ सभासदां वरविराजितं तीक्ष्णकरं ग्रहैरिव । शशाङ्कमृक्षरिव वासवं सुरैरिव द्विपेन्द्र कलभरिवानिशम् ॥ १. समाचितं-खचितं । २. आधोरण:-महावत (माधोरणा हस्तिपका गजाजीवेभपालका:-अभि० ३।४२६) ३. गर्जारवः-हाथियों के चिंघाड़ की आवाज (गर्जस्य मारवः अथवा गर्जायाः रवः)। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 상 ७२. ७३, ७४. . ७५. ७६. ७७. दूत ने 1 " · ततायतां द्या'मिव सर्वतः समां सभां सुधर्मामिव संश्रितश्रियम् ॥ घृतकमूर्ति बहुमूततां गतं सरत्नचामीकरभित्तिसंक्रमात् ॥ अपूर्वपूर्वाद्रिमिवांशुमालिनं महामृगेन्द्रासनमप्यधिष्ठितम् । महोभिरुद्दीपित सर्व दिग्मुर्खर्व पुर्दुरालोकमलं च बिभ्रतम् ॥ मिमानमन्तर्न दधानमुच्चकैर्यशो बहिर्यातमिवैकतां गतम् । सुधाब्धि डिण्डीरभरानवस्कर, सितातपत्रच्छलतो नृपोपरि ॥ किमुर्वशीभिः सुहृदा बलद्विषा 'भ्युपास्तुमेनं प्रहिताभिरागतम् । विलासिनीभिर्ददतीभिरित्यमुं वितर्कमुद्वेल्लितचामरोभयम् ।' प्रकाममंसापितहारहारिणं, सनिर्भरं मेरुमिवोन्नतप्रथम् । यशः प्रतापाभिहतेन्दु भास्कराश्रितं स्वकर्णापित कुण्डलच्छलात् ॥ भुजद्वयीशौर्यमिवाक्षिगोचरं चरो महोत्साहमिवाङ्गिनं पुनः । चकार साक्षादिव मानमुन्नतं वसुन्धरेशं वृषभध्वजाङ्गजम् ।। 2 , भरतबाहुबलि महाकाव्यम् " उस मण्डप में विराजमान ऋषभ के पुत्र महाराज बाहुबली को साक्षात् देखा । उनका तेज चारों ओर फैल रहा था । वे श्रेष्ठ सभासदों से वैसे ही शोभित हो रहे थे जैसे सूर्य ग्रहों से, चन्द्रमा नक्षत्रों से, इन्द्र देवताओं से और यूथपति हाथी अपने कलभों (तीस वर्ष की उम्र वाले हाथियों) से शोभित होता है । वे सभा की शोभा से युक्त थे। उनकी सभा सुधर्मा सभा की भाँति चारों ओर से सम और आकाश की भाँति लम्बी-चौड़ी थी । बाहुबली एकरूप अकेले ) थे किन्तु मणियों से खचित स्वर्णमय भित्तियों में प्रतिबिम्बित होने के कारण बहुरूप हो रहे थे । वे महान् सिंहासन पर आसीन थे । वे उस समय ऐसे लग रहे थे मानो कि अपूर्व उदयाचल पर सूर्य आसीन हो । वे अपनी रश्मियों से सभी दिशाओं के आनन को उद्दीपित कर रहे थे । उनका शरीर तेज के कारण दुष्प्रेक्ष्य हो रहा था । ( - सप्तभिः कुलकम् महाराज बाहुबली के शिर पर श्वेत छत्र था । वे ऐसे लग रहे थे मानो कि उस छत्र के मिष से वे यश को धारण कर रहे हैं । वह यश क्षीरसमुद्र के फेनों की तरह १, द्यां - आकाशम् । २. डिण्डीर : - समुद्र का फेन ( डिण्डीरोऽब्धिकफः फेनः – अभि० ४ । १४३ ) । अनवस्करं – विशुद्ध ( निःशोध्यमनवस्करम् — प्रभि० ६ । ७२ ) ३. उर्वशी—अप्सरा (स्वः स्वगिववोऽप्सरस : स्वर्वेश्या उर्वशीमुखाः - श्रमि० २/९७) ४. बलद्विट् – इन्द्र ( बल नामका राक्षस है शत्रु जिसका वह अर्थात् इन्द्र ), ५. उन्नतंप्रथम् — उत्तुंगप्रख्यानं - उन्नत ख्यातिबाले । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः २१ अत्यन्त विशुद्ध (धवल ), अन्दर न समाता हुआ, एकीभूत होकर सारा का सारा बाहर आ गया हो - ऐसा प्रतीत हो रहा था । इन उनके दोनों ओर दो रमणियां चामर डुला रही थीं । उन रमणियों को देखकर मन में यह वितर्कणा उत्पन्न हो रही थी कि क्या महाराज बाहुबली के मित्र इन्द्र उर्वशियों (प्रा) को बाहुबली की उपासना करने के लिए भेजा है ? बाहुबली गले में पहने हुए हार के कारण उन्नत ख्यातिवाले परिपूर्ण मेरु की भांति सुन्दर लग रहे थे। उनके यश और प्रताप से पराजित चन्द्रमा और सूर्य, कानों में पहने हुए कुँडल के मिष से उनका आश्रय ले रहे थे । वे ऐसे लग रहे थे मानो कि बाहु-युगल का शौर्य दृष्टिगोचर हो रहा हो, वीर रस मूर्तिमान् हो रहा हो तथा उन्नत अहंकार साक्षात् हो रहा हो । ७८. स दर्शनात् क्षोणिपतेः प्रकंपितो, ज्वलत्कृशानोरिव तीव्रतेजसः । न लोचनाभ्यामपि यं विलोकितुं क्षमे मयेर्यः स किमित्यतर्कयत् ॥ " तीव्र तेजवाली जलती हुई अग्नि को देखकर जैसे कोई पुरुष प्रकंपित हो जाता है वैसे ही बाहुबली को देखकर दूत प्रकंपित हो गया । उसने सोचा - "जिनको मैं आंखों से भी देख नहीं सकता, उनके सामने मैं कैसे बोलूं ?” ७६. भरत नृपतिचारः सोऽथ संयोज्य पाणी, क्षितिप्तिमवनम्यात्यन्तपुण्योदयाढ्यम् । विधिवदवनिनाथस्याग्रतः सन्निविष्टः, क्वचिदपि हि बिधिज्ञा नैव लुम्पन्ति मार्गम् ॥ महाराज भरत के दूत ने हाथ जोड़कर विपुल पुण्य के उदय से सम्पन्न महाराज बाहुबली को प्रणाम किया । वह उनके सम्मुख विधिवत् बैठ गया । क्योंकि विधि को जानने वाले कहीं भी मार्ग - परंपरा का लोप नहीं करते । - इति भरतदूतागमो नाम प्रथमः सर्गः - १. ईर्य : - वाच्यः । −+− Page #55 --------------------------------------------------------------------------  Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाद्य श्लोक परिमाण छन्द लक्षण दूसरा स महाराज बाहुबली की सभा में भरत के दूत का आगमन और सन्देश - कथन | ६६ उपजाति । यह इन्द्रवज्रा छन्द और उपेन्द्रवज्रा छन्द के मिश्रण से बनता है । इसके कीर्ति, माला, शाला, हंसी आदि १४ भेद हैं । इन्द्रवज्रा - 'स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः ' ( दो तगण, एक जगण, दो गुरु – SSI, SSI, IऽI, ऽऽ) उपेन्द्रवज्रा - 'उपेन्द्रवज्रा प्रथमे लघौ सा' ( गण इन्द्रवज्रा जैसे ही, किन्तु चारों चरणों का प्रथम अक्षर ह्रस्व ) । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु दूत बाहुबली के सामने मौन बैठा था । बाहुबली ने उसके मनोगत भावों को जानकर भरत के साथ बिताये बचपन के कुछ रोचक संस्मरण प्रस्तुत किए। उन्होंने ज्येष्ठ भ्राता भरत के प्रति अपना सहज भ्रातृत्व व्यक्त करते हुए दूत के आगमन का कारण पूछा । दूत ने अपने श्रागमन के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए महाराज भरत के प्रबल पराक्रम और ऐश्वर्य का उल्लेख किया | उनकी सेना के बल पराक्रम का वर्णन करते हुए दूत ने मि और विनमि के पराजय की बात कही। उसने यह भी कहा कि शेष वें भाई महाराज भरत के अनुशासन को मान्यता दे चुके हैं । अब केवल एक आप ही शेष रहे हैं । दूत ने भरत और बाहुबली के ऐश्वर्य और पराक्रम की तुलना करते हुए बाहुबली को भरत के अनुशासन को स्वीकार करने की प्रेरणा दी । यह सुनकर बाहुबली का मुख लाल हो गया । ०० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १. अथान तो बाहुबलेनिविष्टो , विवक्षुरप्याह न किञ्चिदेषः । तेजोभिरेतस्य विधूणितात्मा' , नृपा महोभियविलङ्घनीयाः ॥ बाहुबली के सामने बैठे हुए दूत का चित्त उनके तेज से विभ्रान्त हो गया। वह कुछ कहना चाहता था फिर भी कुछ नहीं कह सका, क्योंकि राजा अपने तेज के द्वारा अलंघनीय होते हैं। २. न किञ्चिदूचानमवेक्ष्य दूत, जगाद राजा विदिताशयार्थः । मुखेन दृष्ट्या च विदन्ति सर्व , विचक्षणाः स्वान्तगतं हि भावम् ॥ विचक्षण व्यक्ति दूसरों के हृदयगत सभी भावों को उनकी आकृति और दृष्टि से जान जाते हैं। बाहुबली ने दूत के सभी अभिप्रायों. को जान लिया । दूत को मौन देखकर वे बोले- . ३. आसीत् तब स्वागतनन्ययोध्यागतस्य चैतावद खण्ड मार्गे। तवागमात् तृप्तमिदं मनो मे , तृषातुरस्येव जलावलोकात् ॥ 'दूत ! तुम अयोध्या से आए हो । समचे मार्ग में तुम्हारा स्वागत हुआ होगा। जिस प्रकार जल को देख कर प्यासा व्यक्ति तृप्त हो जाता है, वैसे ही तुम्हारे आने से मेरा यह मन भी तृप्त हो गया है। ४.. नितान्ततृष्णातुरमस्मदीयं , बन्धुप्रवृत्त्या सुखपाद्य चित्तम् । दूरेस्तु धाराधरवारिधारा , सारङ्ग मानन्दति गजिरेव ॥ दूत ! मेरा मन अपने बंधु (भरत) का वृत्तान्त जानने के लिए नितान्त आतुर रहता १. विघणितात्मा-विभ्रान्तचित्तः । २. बन्धुप्रवृत्त्या-भरतादिवृत्तान्तेन । ३. सारङ्गः-चातक (सारङ्गोनभोम्बुपः-अधि० ४।३६५) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् है। तुम उसको शान्त करो। बादल की जलधारा तो दूर , उसका गरिव भी चातक. को आनन्दित कर देता है। तास्ताः समस्ता इति बाललीलाः' , सोत्कण्ठमातेनुरदोमनो नः । ___ दन्ताबलानामपि दूरगानां , क्रीडाभुवो विन्ध्यगिरेरिवाद्य ॥ जैसे दूर जंगल में विचरण करनेवाले हाथियों को विन्ध्य पर्वत के क्रीडा-स्थल उत्कंठितः करते हैं, वैसे ही आज वे सारी बाल-लीलाएं मेरे मन को उत्कंठित कर रही हैं । ६. यस्यासमऽज्येष्ठतयाहमेव , बन्धुः स बन्धुर्भरतोद्य दृष्टः । ___ त्वदर्शनाद् दूत ! पयोदकालः , शतहूदा दर्शनतो हि वेद्यः ॥ भरत का मैं ही छोटा भाई हूँ। तुम्हें देखकर मैं मानता हूं कि मैंने. भाई भरत को देख लिया। क्योंकि बिजली को देखकर वर्षाकाल जान लिया जाता है।... ७. एनं भुजाभ्यामपसार्य दूरात् , प्रसह्य ताताङ्कमहं निषण्णः। .. __ तातेन ते ज्येष्ठ इति प्रसाद्य, भ्रातायमत्यन्तमहं निषिद्धः ।। एक बार ऐसा हुआ कि मैं अपनी भुजाओं से इस (भाई भरत) को बलात् दूर कर पिता की गोद में जा बैठा। पिता ने 'यह तेरा बड़ा भाई है'-यह बात मनवा कर मुझे वैसा करने से रोका। हठादपास्ता भरतस्य हस्तान् . मयेक्षयष्टी रुदतोस्य कामम् । विधाय खण्डं स्वयमेत्य तातैः , प्रत्यापितं नाववनेरिबास्याः ॥ एक बार मैंने रोते हुए भरत के हाथ से हठात् गन्ने का टुकड़ा छीन लिया। पिताजी स्वयं आए । उसके दो टुकड़े कर हम दोनों भाइयों को एक-एक टुकड़ा दे दिया, मानो कि उन्होंने पृथ्वी के दो भाग कर हमें एक-एक भाग दे दिया हो। ६ गजं विनिर्यनमदवारिधारं , कदाचिदारुह्य चरन् सलीलम् । ज्यायानुपादाय हठादपास्तो , मयाम्बरेस्मान्निपतन् धृतश्च । एक बार झरते हुए मदवाले हाथी पर चढ़कर क्रीडा करने के लिए जाते हुए बड़े भाई. १. बाललीला:-कुमारावस्थाक्रीडाः। २, दन्ताबल :-हाथी (दन्ताबलः करटिकुञरकुम्भिपीलव:-अभि० ४।२८३) . ३. शतहदा-बिजली (प्राकालिको शतहदा-अभि० ४।१७१) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः २७ भरत को मैंने उठाकर सहसा अाकाश में उछाल दिया और नीचे गिरते हुए उसको झेल लिया। , १०. श्रीतातहंसेन' शमंगतेन', विदूरमुक्तास्त्ररुचा पदे स्वे । न्यधायि यो वन्हिरिवोरतेजास्तस्यास्ति कच्चिद्' भरतस्य भद्रम् ॥ मेरे पिताश्री शस्त्रों को दूर छोड़कर मुनि बन गए। उन्होंने अग्नि की तरह विस्तृत तेजवाले भरत को अपने पद पर नियुक्त किया। दूत ! क्या उस भरत के कुशल-क्षेम है ? ११. न्यवेशि तातेन भुजेऽस्य लक्ष्मीः , सत्क्षेत्रभूम्यामिव सस्यराजिः । या शात्रवावग्रहशक्तिनाशात् , सा नीतिवृष्ट्या ववृधेऽधुनास्मात् ॥ पिताश्री ने भरत की भुजाओं पर राज्यलक्ष्मी का भार उसी प्रकार रखा जिस प्रकार उपजाऊ भूमी में धान्य की राशि निविष्ट होती है। राज्य-लक्ष्मी शत्रुरूपी दुर्भिक्ष की शक्ति का नाश कर भरत की नीति रूपी वृष्टि से पोष पाकर बढ़ने लगी। १२. परस्परामावहतोरपीहां , समानसौहार्दयुषोरपीह । अथान्तरे नौ पतितो विदेशः , प्रेमायोर्नक्रमिवान्तरक्ष्णोः ॥ हम दोनों में परस्पर प्रेम और समाम सौहार्द है। परन्तु क्या करें, हम दोनों के बीच विदेश—देशान्तर आ गया है, जिस प्रकार प्रेम से भीगी हुई आंखों के बीच नाक आ जाता है। १३. पुरा चर! भ्रातरमन्तरेण , शशाक न स्थातुमहं मुहूर्तम् । ममाऽधुनोपोष्यत एव दृष्ट्या , व्यस्ततो मे दिवसाः प्रयान्ति ॥ दूत ! पहले मैं भाई के बिना मुहर्त भर भी नहीं रह सकता था। किन्तु आज मेरी आंखें उपवास कर रही हैं-उसे देख नहीं पा रही हैं। इसलिए मेरे ये दिन व्यर्थ बीत रहे हैं। १४. सा प्रोतिरङ्गीक्रियते मया नो , जायेत यस्यां किल विप्रयोगः । जिजीविवा वा यदि विप्रयुक्तौ , प्रीतिर्न रीतिहि विभावनीया ।। १. श्रीतातहंसेन–श्रीवृषभस्वामिसूर्येण । २. शमंगतेन-शान्तिप्राप्तेन । ३. कच्चिद्-कुशलक्षेम (कच्चिदिष्टपरिप्रश्ने-अभि० ६।१७६) ४. जिजीविव–इत्यत्र जीव'प्राणधारणे धातोः णबादि प्रत्ययस्य उत्तमपुरुषस्य द्विवचनम् । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत बाहुबलिमहाकाव्यम् मैं उस प्रीति को स्वीकार नहीं करता जिसमें विरह होता हो । यदि हम वियुक्त होकर भी जी रहे हैं तो इसे प्रोति नहीं रीति ही समझना चाहिए । १५. २८ हृत्क्षेत्रभूम्यां परिवापमेतै' नौं प्रीतिबीजः शतधा विवृद्धम् । अन्योन्यसंपर्क पयोदवृष्ट्या त्ववग्रहों त्रास्ति विदेश एव ॥ 1 हृदयरूपी खेत की खेती में बोए हुए : मेघ की वृष्टि से शतगुणित हुए हैं ( अकाल ) की तरह सामने आ रहा है । १६. हम दोनों के प्रेम-बीज एक दूसरे के सम्पर्करूपी किन्तु आज विदेश ही हमारे बीच अवग्रह - - सूखे १८. , तत् तत् पितुर्लालनमप्यशेषं ता बाललीलाः सह बान्धवैश्च । स्मृत्वा मनो मे स्वयमेव शान्ति, याति द्विपस्येव नगाहृतस्य ॥ - इस प्रकार माता-पिता का सम्पूर्ण लालन-पालन और भाइयों के साथ की हुई बाललीलाओं का स्मरण कर मेरा मन स्वयं उसी प्रकार शान्त हो जाता है जिस प्रकार पर्वत से लाया हुआ हाथी शान्त हो जाता है । १७. श्री तातपादाब्ज रजः पवित्रीकृता जितस्वर्नगरै कलक्ष्म्यः । मनोभिनन्दन्ति पुरीप्रदेशा: कलाधरस्येवर कराइचकोरम् ॥ , दूत ! अयोध्या नगरी के प्रदेश पिताश्री के चरण कमलों की रजों से पवित्र हुए हैं । उन प्रदेशों ने स्वर्ग के नगरों के ऐश्वर्य को भी जीत लिया है। जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणें चकोर को आनन्दित करती हैं, उसी प्रकार वे प्रदेश मेरे मन को आनन्दित करते हैं। न मादृशी क्वापि पुरी जगत्यामिति स्मयाद् या वलयं बिर्भात । कल्याण' साल च्छलत स्त्विदानीं सा तादृगेवास्ति पुरी शिवाढ्या ? || , अयोध्या नगरी अपने चारों ओर के स्वर्ण- प्राकारों के मिष से यह गर्व करती हुई वलय धारण कर रही है कि विश्व में कहीं भी मेरे जैसी सुंदर नगरी नहीं है । दूत ! क्या वह नगरी आज भी उसी रूप में मंगल से परिपूर्ण है ? १. परिवापमेतैः — बीज - संतति को बढ़ाने वाले - ( बीजसंतानमेतैः प्राप्तः – पञ्जिका पत्र ७) २. श्रवग्रहः—सूखा, अकाल (तद्विघ्ने ग्राहग्रहाववात् — अभि० २५० ) ३. कलाधरः - चन्द्रमा ( अभि० २।१६ ) ४. कल्याणं – स्वर्ण (कल्याणं कनकं – अभि० ४।१०६ ) ५. साल:- प्राकार ( प्राकारो वरण: साले - अभि० ४।४६ ) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १६. नितान्तबन्धुप्रणयप्नदीपो निरन्तरस्नेहभराद् बिभत्त । , तेजस्तमोहारि चरिष्णु दिक्षु, मातः परं भूदिह खेदवातः ॥ भाइयों का प्रेम- दीप निरन्तर स्नेह (तैल) राशि से भरा रहता है । उसका प्रकाश तम का नाश करनेवाला और चारों दिशाओं में फैलनेवाला होता है । अब आगे उस प्रेम-दीपको खेद की हवा न लगे - यह मैं चाहता हूं । २०. नीतोहमिन्द्रत्वमहं त्विदानीं तातेन नैतुं विभवाम्ययोध्याम् । सोत्कंठमेतद् हृदयं ममास्ते रथाङ्गनाम्नोरिव ही रजन्याम् ॥ २१. , 3 पिताश्री ने मुझे स्वतन्त्र रूप से राजा बनाया है, इसलिए मैं अयोध्या जा] नहीं सकता । मेरा यह हृदय वहाँ जाने के लिए वैसे ही उत्कंठित है जैसे रात के समय चकवा चकवी से मिलने के लिए उत्कंठित रहता है । fक दूत ! साकूतमिहागतीसि., कि वा मम भ्रातुररिर्बलाढ्यः । शक्तोऽपि दावाग्निररण्यदाहे ; सारथ्य' मीहेत समीरणस्य ॥ दूत ! क्या तुम किसी प्रयोजन से यहां आए हो अथवा मेरे भाई भरत का कोई शत्रु बलशाली हो गया है ? अरण्य को जलाने में समर्थ दावाग्नि भी पवन का सहारा चाहती है । २२. निःशङ्कमा कमरातिभूभृद्हृत्कुंज वास्तव्यमपास्य दूत ! त्वद्भर्तुराविष्कुरु शासनं मे, पुरो नृपाश्चारपुरस्सरा हि ॥ २६ दूत ! शत्रु-राजाओं हृदय - कुंज में वास करने वाले आतंक को दूर कर तुम निःशंक होकर अपने स्वामी भरत की आज्ञा को मेरे आगे प्रगट करो। क्योंकि राजा दूत को ही आगे रखते हैं । २३. इतीरयित्वा बहली क्षितीशः ससंभ्रमं सप्रणयं सनीति । क्षण विशश्राम चरोऽथ भालस्थलीमिलत्पाणिरुवाच भूपम् ॥ १. सारथ्यं – साहाय्यम् । - , इस प्रकार बहली प्रदेश के राजा बाहुबली ने ससंभ्रम, सप्रेम और नीतियुक्त वचन कहकर क्षणभर के लिए विश्राम किया। तब दूत ने जुड़े हुए दोनों हाथों से भारतस्थली का स्पर्श करते हुए कहा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २४. राजन् ! भवन्तं मरताधिराजः , प्रादुर्भवन्नीतिवचोमिषत्ते। ममाननेन क्षितिवल्लमा हि , नीतिप्रियाः प्रीतिपरा न चैवम् ॥ राजन् ! महाराज भरत मेरे मुंह द्वारा प्रगट होकर आपको नीति-वचन कह रहे हैं। क्योंकि राजा नीतिप्रिय होते हैं, आपकी भांति प्रीति-परायण नहीं होते। २५. सा भारती भारतभूमिभतुमाललम्बे नपमौलिभिर्या । ध्रियेत नित्यं नवमल्लिकेव , स्फुरन्तमामोदभरं वहन्ती.॥ राजन् ! भारत की भूमि के स्वामी भरत की उस वाणी को बड़े-बड़े राजा भी सदा आमोद को वहन करने वाली नई मल्लिका की माला की तरह धारण करते हैं । उस वाणी को लेकर मैं यहां आया हूं। २६. वयं चरा स्वामिनिदेशनिघ्ना स्तमोहरास्तापकरा जगत्याम् ।। श्रितानुवृत्तिं न विलङ्घयामः , करा इवोष्णातिबिम्बचारम् ॥ राजन् ! हम दूत हैं। हम स्वामी के आदेश के .अधीन रहते हैं। हम इस जगती में सूर्य की रश्मियों की भांति तम का हरण और ताप करने वाले हैं। हम अपने आश्रयदाता स्वामी की अनुमति का उसी प्रकार उल्लंघन नहीं करते जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य के बिम्ब के मार्ग का अतिक्रमण नहीं करतीं। २७. संदेशहारी निजनायकस्य , नैर्बल्यमाविष्कुरुते पुरस्तात् । प्रथिनां यः सपयोधिवन्हि'समानतां गच्छति संश्रयारिः ॥ . यदि दूत अपने स्वामी की निर्बलता शत्रुओं के समक्ष प्रगट करता है तो वह समुद्र की भग्नि की भांति अपने आधार को नष्ट करने वाला शत्रु होता है। २८. अतस्त्वया श्रीमरतानुजन्मन्! , वचश्चरस्याप्यवधारणीयम् । मलीमसं वारिदवारि मावि , न हि श्रिये किं सरसीवरस्य ? इसलिए भरत के अनुज ! आप दूत के वचनों को ध्यानपूर्वक सुनें । क्या बादल का मलिन पानी मानसरोवर की शोभा के लिए नहीं होता? १. निघ्न:--पराधीन (नाथवान् निघ्नगृह्यको-मभि० ३।२०) २. करा.''चारम्-यथा किरणाः सूर्यमंडलचारं (नातिकामंति)। . ३. पयोधिवन्हिः-वड़वानल। ४. संश्रयारि:--संश्रयस्य–माश्रयस्य, परिः-शदः, संश्रयारि:-पायरी। ५. सरसीवरस्य-मानससरसः-मानसरोवर की। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः २६. शतं सुतानां वृषभध्वजेन , भिन्नेषु देशेष्वथ विन्यवेशि । नामाङ्कतो राजपदेऽभिषिच्य , सतां हि वृत्तं सततं प्रवृत्त्यै ।। राजन् ! महाराज ऋषभ ने अपने सौ पुत्रों का नाम-ग्राहपूर्वक राज्याभिषेक कर उन्हें भिन्न-भिन्न प्रदेशों में स्थापित किया था। क्योंकि महान व्यक्तियों का व्यवहार सतत प्रवृत्ति-परम्परागत इतिहास या सतत आचरणीय बन जाता है । ३०. तदन्तरे कोपि बलातिरिक्तो , भुवस्तलं प्लावयितुं सहिष्णुः । कल्पान्तकालाब्धिरिवोत्तरङ्गः , सौभ्रात्रसीमैव निषिद्धिरस्य ॥ राजन् ! इन भाइयों के बीच ऐसा कोई बलशाली भी है जो अपने पराक्रम से सारी पृथ्वी को आक्रान्त करने में उसी प्रकार समर्थ है जिस प्रकार उत्ताल तरंगों वाला प्रलयकाल का समुद्र प्लावित करने में समर्थ है। किन्तु सौभ्रात्र की सीमा ही ऋषभ के पुत्र-समूह को ऐसा करने से रोके हुए है। . ३१. ज्येष्ठोऽनसंजाततया गुणैश्च , तातेन यः स्वीयपदे न्यवेशि । तस्य प्रतापाब्धिहिरण्यरेताः' , प्रथिपाथांसि तनूकरोति ॥ राजन् ! भरत गुणों से तथा जन्म से ज्येष्ठ हैं इसलिए पिताश्री ने उन्हें अपने पद पर स्थापित किया। उनकी प्रतापरूपी वाडवाग्नि शत्रुरूपी जल को क्षीण कर रही है। ३२. केचिन् नपा मौलिमणीमपास्य , निवेश्य मौलौ गुरुमेतदाज्ञाम् । अप्यूर्ध्वजानुक्रमवर्तमानाः , प्रभोः पुरः प्राङ्गणमाश्रयन्ति । कई राजा अपने मुकुट की मणी को हटाकर उसके स्थान में महाराज भरत की गुरुतर आज्ञा को धारण करते हैं। वे घुटनों के बल स्वामी भरत के सामने प्रांगण पर ही बैठ जाते हैं। ३३. भूपालवक्षस्थललम्बिहार-संघट्टसंघर्षणचूर्णगौरम् । राजाजिरं राजति तस्य कोत्तिशीतांशुरोचिश्छरितश्रियेव ॥ राजाओं के वक्षस्थल पर लम्बायमान हारों के संघट्टन और संघर्षण से प्राप्त चूर्ण से राज-प्रांगण श्वेत हो गया था। मानो कि महाराज भरत की कीर्तिरूपी चन्द्रमा की किरणों की द्युति से वह शोभित हो रहा हो । - १. प्रतापाब्धिहिरण्यरेता:-प्रतापवाडवानलः-प्रतापरूपी वाडवाग्नि। २. कीति....."श्रियेव-यशःशशधरकिरणस्फुरितलक्ष्म्येव (पञ्जिका पत्र ८) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३४. सुतामुपादाय नपाश्च केचित् , प्रणेमुरेनं स्वजनं विधाय। गिरीन्द्रमुख्या इव नीलकण्ठं, प्रभूतभूत्यैकनिबद्धचित्तम् ॥ कई राजे प्रचुर ऐश्वर्य में तल्लीन चित्तवाले महाराज भरत को अपनी कन्याएं सौंपकर, उनको अपना स्वजन बनाकर, प्रणाम करने लगे। जिस प्रकार प्रचुर भस्म में निबद्ध चित्तवाले शंकर को हिमालय आदि महान् पर्वत अपनी पुत्रियों को सौंपकर; उन्हें अपना स्वजन बनाकर, प्रणाम करते हैं। ३५. महामृगेन्द्रासनसन्निविष्टं , नृपः परीतं त्रिदशैरिवेन्द्रम् । स्वयं तमायान्ति नरेन्द्रलक्ष्म्यो , महीध्रकन्या' इव वारिराशिम् ॥ जिस प्रकार इन्द्र देवताओं से घिरे रहते हैं, उसी प्रकार महान् सिंहासन पर बैठे हुए भरत भी राजाओं से घिरे रहते हैं। जैसे नदियां स्वयं ही समुद्र में जा मिलती हैं, वैसे ही राज-लक्ष्मियां स्वयं भरत में आ मिलती हैं। ३६. सर्वेषु भभत्सु विभाति सोय , परोन्नतिरिवामिनन्द्यः । आक्रान्तनिःशेषमहीनिवेशः , प्रोद्दीप्रकल्याणमनोरमश्रीः ॥ जैसे मेरु पर्वत सभी पर्वतों में अभिनन्दनीय और उन्नत होता है वैसे ही महाराज भरत सभी राजाओं में अभिनन्दनीय और उन्नत समृद्धियों से युक्त हैं। उन्होंने समूची पृथ्वी को आक्रान्त किया है और वे प्रदीप्त कल्याण की मनोरम शोभा से युक्त हैं। ३७. वजाहतानां वसुधाधराणां , भवेच्छरण्यः किल वारिराशिः। नैतद्भिया त्रस्तमहीश्वराणां , लोकत्रयेप्यस्ति परः शरण्यः॥ राजन् ! यह सुना जाता है कि वज्र से आहत पर्वतों के लिए समुद्र शरण-स्थल है किन्तु महाराज भरत के भय से त्रस्त राजाओं के लिए तीन लोक में भी कोई दूसरा शरण-स्थल नहीं है । १. उपादाय-प्राभृतीकृत्य । २. भरतपक्षे भूतिः-संपत्तिः, महादेवपक्षे भूतिः-भस्मा ३. महीध्रकन्या:-नदियां । ४. वारिराशि:-समृद्र। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ३८. निस्वान निस्वान'भियास्य नष्टविरोधिभिानशिरे दिगन्ताः । तदीयसौधानविरूढदूर्वांकुरप्रलुब्धरुषितं कुरङ्गः ॥ महाराज भरत के वैरियों ने बाण की ध्वनि के निर्घोष से भयभीत होकर दिशाओं के छोरों की ओर पलायन कर दिया। अब उनके सूने घरों के ऊपर उगे हुए दूर्वा घास के अंकुरों को खाने में आसक्त मृग वहां निवास कर रहे हैं। ३६. विलोक्य यत् सैन्यहयावधूतं , रजो नवाम्भोधरराजिनीलम् । श्यामाननीभूय च राजहंसः' , पलायितं शुद्धपरिच्छदाढ्यः । महाराज भरत की सेना के घोड़ों के खुरों से उठे हुए नए मेघ की भांति नीले रजकण आकाश में व्या त हो गए। अच्छे परिवारों से सम्पन्न बड़े-बड़े राजाओं के मुंह भी उन रजकणों से काले हो गए और वे सब वहां से पलायन कर गए । ४०. अस्य प्रयाणेषु हयक्षुरामोद्धृत रजोभिर्मलिनीकृतानि । अद्रष्टुमर्हाणि मुखानि कैश्चिल्लात्वा गतं क्वापि भुवोन्तराले ॥ महाराज भरत की प्रयाण-वेला में घोड़ों के खुरों से उठे हुए रजकणों से कई राजाओं के मुंह इतने मलिन हो गए कि वे देखने योग्य नहीं रहे। वे अपना काला मुंह लेकर कहीं भूमि में पैठ गए। ४१. अनावृतं पश्यतु मा मुखाब्जमयं पतिर्नः प्रभुतोपपन्नः । इतीव रेणुच्छलतो हरिद्भिः, समाददे नीलपटी समन्तात् ॥ 'हमारा यह ऐश्वर्यशाली स्वामी हमारे मुख-कमल को अनावृत न देखले'-यह सोचकर दिशाओं ने रजकणों के व्याज से अपने मुंह पर काले उत्तरीय का घूघट डाल दिया। १. निस्वान' शब्द बाण की ध्वनि के अर्थ में प्रयुक्त होता है (देखें-प्राप्टे की डिक्शनरी qo833-farata –The whistling sound of an arrow (only निस्वान in this sense) पञ्जिका में निस्वान' का अर्थ 'वाद्य विशेष' किया है : निस्वाननिस्वानभिया-वाद्यविशेषनिर्घोषभीत्या-पत्र ८ । २. निरवान:-निर्घोष। ३. राजहंस' के दो अर्थ हैं-बड़े राजा तथा राजहंस पक्षी। ४. 'शद्धपरिच्छदाढय' के भी दो अर्थ हैं-अच्छे परिवारों से सम्पन्न तथा सफेद पांखों से सम्पन्न । राजा के पक्ष में पहला अर्थ तथा राजहंस के पक्ष में दूसरा अर्थ संगत होगा। ५. हरित्-दिशा (काष्ठाऽशा दिग् हरित् ककुप्-अभि० २।८०) ६. नीलपटी-श्यामोत्तरीयम्-काला उत्तरीय । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४२. मदेन हस्तीव वनप्रदेशो , मृगारिणेवाग्निरिवाशुगेन' । उनिलेनेव पयोधिरामा'च्चक्रेण राजाधिकदुःप्रधर्षः ॥ जिस प्रकार मद से हाथी, सिंह से वन-प्रदेश, पवन से अग्नि और वाडवाग्नि से समुद्र दुर्धर्ष होते हैं , वैसे ही चक्र के कारण महाराज भरत भी अत्यधिक दुर्धर्ष हैं। ४३. यथारुण'स्तीक्ष्णरुचेरिवाने , तथास्य चक्रं पुरतो बभूव । दुरुत्तरारातितमःप्रहारनितान्तदाक्षिण्यतया सतेजः ॥. .. जिस प्रकार सूर्य के आगे-आगे अरुण नाम का सारथि चलता है, उसी प्रकार महाराज भरत के आगे-आगे चक्र चलता है। वह चक्र दुर्धर्ष शत्रु रूपी अन्धकार पर प्रहार करने में अत्यन्त तीक्ष्ण और तेजस्वी है। ४४. राजन् ! भवबंधुबला बुराशिश्चतुर्दिगाप्लावनबद्धकक्षः। . प्रकाममेतत्प्रणिपातसेतुबन्धप्रबन्धेन विगाहनीयः ॥ राजन् ! आपके भाई का सेना रूपी समुद्र चारों दिशाओं को आप्लावित करने के लिए बद्धकक्ष है। उस समुद्र को अत्यन्त प्रणिपात के सेतु-बंध से ही पार किया जा सकता है। ४५. परिस्फुरत्कान्तिसहस्रदीप, तीक्ष्णद्युतबिम्बमिवोल्वणाभम् ।। चक्रं दधानो वसुधाधराणां , स दुःसहः शक्र इवात्तशम्बः ॥ स्फुरित होने वाली अत्यधिक कान्ति से चमकीले और सूर्य के बिम्ब की भांति भीषण आभा वाले चक्र को धारण किए हुए महाराज भरत राजाओं के लिए उसी प्रकार दुःसह होते हैं जिस प्रकार देवताओं के लिए वज्र को धारण करता हुआ इन्द्र । ४६. किमत्र चित्रं क्षितिवल्लभानां , जये सुराणामयमप्यजय्यः । अस्त्येव देवासुरवृन्दवन्धः , सतां प्रभावो हि वचोतिरिक्तः ॥ १.पाशुगेन-पवनेन । २. आभात्-विराजतेस्म । ३. अरुणः-सूर्य का सारथि (अरुणो गरुडाग्रजः-अभि० २।१६) । ४. दुरुत्तराराति..... 'तया-दुरंतशानवांधकारहननात्यंतविद्धत्वेन-पञ्जिका पत्र । ५. बल-सेना (बलं सैन्यमनीकिनी-अभि० ३।४०६) . ६. उल्वणाभम्-भीषणाभम् ।। 9. आत्तशम्बः-प्रात्तः-प्राप्तः, शम्बो वजं, येन सः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्ग: ३५ महाराज भरत राजाओं को जीत ले, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वे देवताओं से भी अजेय हैं । वे देव तथा असुरवृन्द द्वारा वन्दनीय हैं । क्योंकि महान् व्यक्तियों का प्रभाव वचनातीत होता है। ४७. योऽखण्डषट्खण्डधराधराणां , गौरांशुगौरातपवारणानि । हत्यशांसीव नृपः प्रवृत्तः , संवर्तपाथोधिरिवातिरौद्रः॥ जैसे प्रलयकाल का अतिरौद्र समुद्र सब कुछ हरण कर लेता है वैसे ही ये महाराज भरत संपूर्ण छह खण्डों के राजाओं के, चन्द्रमा की भांति उज्ज्वल, छत्रों का हरण करने के लिए प्रवृत्त हैं। मानो कि वे इन राजाओं का यश ही हरण कर लेना चाहते हों। ४८. विद्याधरैराड्यनलय नीयं , गुणैरिवेज्यं सलिलैरिवाब्धिम् । गतस्य वैतादयगिरि नृपस्य , तेजोतिदुःसह्यमभूदिवांशोः॥ गुणों से पूज्य व्यक्ति की भांति और पानी से समुद्र की भांति अनुल्लंघनीय तथा विद्याधरों से संपन्न वैताढ्य गिरि पर जब महाराज भरत गए तब उनका तेज सूर्य की भांति दुःसह्य हो गया। ४६. सेनानिवेशा नपोरिहास्य , पञ्चाश दासन्नधिकोत्सवाढ्याः । तुरङ्गमातङ्गपुरोषसर्गः , कूटानि तन्वन्त इवातनूनि ॥ वहां महाराज भरत के, वर्द्धमान उत्सवों से परिपूर्ण, पचास सेना-निवेश (छावनियां) थे। वहाँ हाथी और घोड़ों की लीदों के बड़े-बड़े ढेर मानो विशाल शिखर का रूप ले रहे थे। . ५०. तातप्रियापत्यतयाप्रतीतौ , यौ पन्नगेन्द्राननलब्धविद्यौ। मौनं श्रिते स्वामिनि भारताईगिरीन्द्रसंप्राप्तमहद्धिराज्यौ ॥ ५१. . एतस्य सेनाधिपति सुषेणं , मार्गे न्यरुद्धामविलङ्घनीयौ। रयं तटिन्या इव सानुमन्तौ , प्रसृत्वरं तौ कटकाभिरामौ ॥ -युग्मम् । १. इज्यं-पूज्यम् । २. पञ्जिकाकार कहते हैं कि चक्रवर्ती ने धरणेन्द्र से अडचालीस हजार विद्याएं प्राप्त की थीं धरणेन्द्रास्यसंप्राप्ताष्टचत्वारिंशत्सहस्रविद्यावभूताम्-पञ्जिका पत्र ६ । ३. भारतार्द्ध ...."राज्यौ-लब्धोत्तरश्रेणिदक्षिण श्रेणिप्रभुत्वौ—पञ्जिका पत्र । ४. नमिविनमिपक्षे-कटकं-सैन्यं, तेन अभिरामो-मनोहरौ। पर्वतपक्षे-कटक:-अद्रिनितंबः, तेन अभिरालो-मनोहरौ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् पूज्य पिता ऋषभ के प्रिय पुत्र के रूप में विश्रुत नमि और विनमि ने धरणेन्द्र के मुख से विद्याएं प्राप्त की थों। जब ऋषभ प्रवजित हुए तब उनको वैताढ्य. गिरि, जो भारतवर्ष को दो भागों में विभाजित करता है, का महधिक राज्य प्राप्त हुआ। अलंघनीय और सेना से सुशोभित उन दोनों ने भरत चक्रवर्ती के आगे बढ़ते हुए सुषेण सेनापति को मार्ग में ही रोक लिया, जैसे नदी के वेग को पर्वत रोक लेते हैं। ५२. वैमानिकैः स्यन्दनसन्निविष्टैरधोमुखैरूर्ध्वमुखैश्च बाणः ।। संपादितोल्कं बहुधा प्रवृत्तः, खगामिभिभू मिचरैनिघर्षात् ॥ ... ५३. तौ द्वादशाब्दी भरतेन साधं , वितेनतुर्द्वन्द्वमनिन्द्यसत्त्वौ'। सुरासुराणामपि चित्रदायि , विन्ध्याचलेनेव गजौ मदान्धौ ॥ . - . -युग्मम् । श्लाघनीय बल वाले नमि और विनमि ने भरत के साथ बारह वर्षों तक युद्ध किया। उस युद्ध में विमान में प्रारूढ आकाशगामी विद्याधरों के बाण नीचे की ओर आ रहे थे और रयों में बैठे हुए भरत चक्रवर्ती के भूमीचर सैनिकों के बाण ऊपर की ओर जा रहे थे। बार-बार फेंके जाने वाले बाणों के संघर्षण से उल्काएं गिर रही थीं। उस समय ऐसा लग रहा था मानो कि दो मदान्ध हाथी विन्ध्य पर्वत से टक्कर ले रहे हों। वह युद्ध देव और असुरों के लिए भी आश्चर्यकारी था। ५४. अभङ्गुरं भारतवर्षनेतुर्दष्ट्वा बलं तौ स्वसुतामदत्ताम् । स्त्रीरत्नलाभान् मुदितः स सार्वभौमोपि ताभ्यामददाच्च राज्यम् ॥ जब उन दोनों ने देखा कि भरत का बल अटूट है तब उन्होंने अपनी पुत्रियां भरत को ब्याहीं । चक्रवर्ती भरत स्त्री-रत्न के लाभ से मुदित हुए और उन दोनों को अपनाअपना राज्य लौटा दिया। ५५. एवं शरच्चन्द्रमरीचिगौरं , पूर्वापराम्भोधिगतान्तमेषः । ___ आदाय वैताढ्यगिरि चचाल , विद्याभृतां श्लोकमिवातितुङ्गम् ॥ इस प्रकार चक्रवर्ती भरत वैताढ्यगिरि पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़े मानो कि विद्याधरों के शरद् ऋतु के चन्दमा की भांति धवल और अत्युन्नत तथा पूर्व से पश्चिम समुद्र पर्यन्त फैले हुए यश को लेकर आगे बढ़ रहे हों। १. बाण इत्यत्न करणे तृतीयाऽन्यत्र कतरि–पञ्जिका पत्र। २. अनिन्द्यसत्त्वी-श्लाघनीयबलौ । . Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः . ३७ ५६. स कन्दरद्वारमवार्यवीर्यः , क्रमादथोद्घाट्य विवेश तत्र । ___ काकिण्यसंख्येयमहःप्रभावतिरोहितध्वान्तभरे पुरस्तात् ॥ अप्रतिहत शक्तिवाले भरत क्रमशः गुफा का द्वार खोल उसमें प्रविष्ट हो गए । वह कन्दरा अधंकार से व्याप्त थी किन्तु चक्रवर्ती के काकिणी रत्न की असंख्य किरणों के प्रभाव से सारा अन्धकार आगे से आगे नष्ट होता गया । ५७. स मल्लिकाकोडविलोललीलर्मन्दाकिनीशीकरिभिः सिषेवे । करीन्द्रकुम्भस्खलनातिमन्दर्मार्गे हतक्लान्तिभरैः समीरैः ।। मल्लिका के पुष्पों की गोद में विलोल लीला करने वाले, गंगा के शीतल जल-कणों से युक्त,गजेन्द्रों के कुंभस्थल से बहने वाले मद के कारण अतिमंद गतिवाले तथा क्लान्ति के समूह को नष्ट करने वाले पवन ने मार्ग में भरत की सेवा की। ५८. स भूभृदुत्कृष्टतरप्रभावो , भूतैः पृथिव्यादिभिरप्यसेवि । औत्कृष्ट्यतः प्राघुणकेषु.सत्सु , स्वीयं हि माहात्म्यमलोपनीयम् ॥ 'महाराज भरत उत्कृष्ट प्रभाव वाले हैं'-यह सोचकर पृथ्वी आदि सभी भूतों ने उनकी उपासना की। क्योंकि उत्कृष्ट अतिथि के होने पर अपने बड़प्पन का लोप नहीं करना चाहिए, उसकी रक्षा करनी चाहिए। ५६. स नौविमानरवतीर्यसिन्धू , तपस्क्रियाराधितसन्निधानः । धुलोकलक्ष्मीमुषि जान्हवीये , सेनानिवेशं विततान तीरे ॥ भरत ने नौका-विमानों द्वारा सिन्धु नदी को पार किया। उन्होंने स्वर्गलोक की शोभा का हरण करने वाले गंगा के तीर पर अपनी सेना का पड़ाव डाला तथा तपस्या और क्रिया द्वारा निधानों की आराधना की। . ६०. विलोक्य तं मन्मथहारिरूपं , पुष्पेषुबाणानविभिन्नतन्वा । बाणान्तपक्षानिव संबभार , गङ्गापि रोमोद्गमलक्षतो द्राक् ॥ भरत का कामदेव जैसा सुन्दर रूप देखकर गंगा रोमांचित होने के बहाने मानो मदन १. काकिणी-चक्रवर्ती का रत्नविशेष । २. पुष्पेषु......"तत्वा-पुष्पेषोः-कामस्य, बाणाग्राणि-शरोपरिभागास्तविभिन्ना-विहता तनुस्तयेति । ० 'तन्वी' इत्यपि पाठः । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् के बाणों के अग्र से भिन्न अपने शरीर द्वारा बाणों के अग्र भाग में रहने वाली पाँखों को धारण कर रही थी। ६१. व्यजीज्ञपद् दूतिमुखेन भूपं , सा स्वर्वधूरेवमनन्यरूपम् । का स्मेरनेत्रा विभवेदलज्जा , कामाभिलाषं स्वमुखेन वक्तुम् ? गंगा देवी ने अपनी दूती के साथ अप्रतिम रूप के धनी महाराज भरत को इस प्रकार (जो आगे कहा जा रहा है) कहलाया। कौन विकस्वरनेत्रा नारी अपने काम (मदन) की अभिलाषा को स्वयं अपने मुख से कहने में निर्लज्ज हो सकती है? ६२. प्रोतिर्भवत्यस्ति तृतो विचारस्तया विधीयेत न मर्त्यमात्रे । .. प्रीतियनू हा नरदेव ! देवी , भवद्वियोगे विधुराधुनेयम् ॥ दूती ने कहा-'नरेन्द्र ! आपके प्रति गंगा देवी का प्रेम है अतः उसने आपके प्रति विचार किया है। यह विचार मनुष्य मात्र के प्रति नहीं है। क्योंकि प्रीति में तर्क नहीं होता । वह देवी इस समय आपके विरह से व्याकुल है। ६३. त्वं मानुषीभोगनिमग्नचित्तः , स्वर्गाङ्गनानां न हि वेत्सि लीलाम् । पीयूषसिन्धोरमृतकसङ्गः , कथं निवेद्यो लवणाब्धिमीनः । दूती ने आगे कहा-'राजन् ! आपका चित्त मंनुष्य सम्बन्धी भोगों में निमग्न है। आप देवांगनाओं की लीलाओं को नहीं जानते । सच है कि लवण समुद्र में निवास करनेवाली मछलियों को क्षीर समुद्र के अमृतमय संग को कैसे बताया जा सकता है ? ६४. स्वरूपलावण्यकलावलेपाच्छक्रेऽपि या दृष्टिमदान्न किञ्चित् । लक्ष्मीरिवास्वे रजनीव चन्द्र , बिभर्ति रागं भवदीहिनी सा॥ जिसने अपने स्वरूप, लावण्य और कला के अहंकार के कारण, दरिद्र के प्रति लक्ष्मी की भांति, इन्द्र पर भी कभी अपनी दृष्टि नहीं डाली, वह देवी गंगा आपको चाहती है और जैसे रात चांद के प्रति अनुरक्त रहती है वैसे ही वह आपके प्रति अनुरक्त है। ६५. मन्दाक्षमन्दाक्षमवेक्ष्य चाहं , तस्या मुखं सानिम निनिमेषम् । . भवन्तमेता सुभगावतंसं , सर्वान्तराकारविदो ह्यभिज्ञाः॥ १. अनूहा-वितर्करहिता। २. सानिमः-सप्राणः। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्ग: 'लज्जा से कुछ मूंदी हुई आंखों वाला तथा सप्राण होते हुए भी निनिमेष उसका मंह देखकर मैं भाग्यशालियों में शिरोमणि आपके पास आई हूँ, क्योंकि अभिज्ञ लोग सब आन्तरिक आकारों को जानने वाले होते हैं। ६६. असंस्तवाद्रिः किल दूतिवाक्यवज्रण भिन्नो विहितान्तरायः । एवं तयो रागवतोर्बभूव , संपृक्तिरन्योन्यरसातिरेकात् ॥ दूती के वाक्य रूपी वज्र से अपरिचय का पर्वत, जो दोनों के बीच विघ्न उपस्थित कर रहा था, टूट गया। इस प्रकार पारस्परिक रस के अतिरेक से, राग से रक्त उन दोनों में सम्पर्क स्थापित हो गया। ६७. विस्मृत्य शुद्धान्त वधूविलासाँस्तत्र क्षितीशोऽब्दसहस्रमस्थात् । नालेः करीरद्रुमविस्मृतिः स्यात् , कि मल्लिकापुष्परसप्रसक्त्या ? महाराज भरत अपने अन्तःपुर की रानियों के विलासों को भूलकर उस नदी तटपर एक हजार वर्ष तक बैठे रहे । क्या भ्रमर मल्लिका पुष्प के रस का आस्वादन करते समय करीर के वृक्ष को नहीं भूल जाता ? ६८. वशीकृतान्तःकरणस्तथापि , न स्थातुमैहिष्ट रथाङ्गपाणिः । सन्तो युगान्तेप्यविलङ्घनीयान् , धर्मार्थकामान् न विलङ्घयन्ति । गंगा देवी ने भरत के चित्त को वश में कर लिया था, फिर भी उन्होंने वहां ठहरना नहीं चाहा । क्योंकि सज्जन पुरुष अलंघनीय धर्म, अर्थ और काम का युगान्त में भी उल्लंघन नहीं करते। ६९. ततश्चचालाधिपतिन पाणामुदीच्यवर्षाद्ध महीमहेन्द्रान् । विजेतुमोजोधिकदुःप्रधर्षान् , दैत्यानिवेन्द्रो रविवत् तमांसि ॥ चक्रवर्ती भरत ओज से अधिक दुर्धर्ष उत्तरीय क्षेत्रार्द्ध के राजाओं को जीतने के लिए आगे बढ़े, जैसे इन्द्र दैत्यों को और सूर्य अन्धकार को जीतने के लिए आगे बढ़ता है। ७०. अनम्रमौलीनपि नम्रमौलीन् , धृतातपत्रानधृतातपत्रान् । विधाय राज्ञः स्वपुरं स आगान्न दोष्मतां चित्रकरं हि किञ्चित् ॥ १. शुद्धान्तः–अन्तःपुर (शुद्धान्तः स्यादन्तःपुरम् -अभि० ३।३९१) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् जो राजा नहीं झुकते थे उनको झुकाकर, जो छत्र धारण करते थे उनको छत्रहीन करके, महाराज भरत अपने नगर को लौट आए। क्योंकि पराक्रमी व्यक्तियों के लिए कुछ भी आश्चर्यकारी नहीं होता। ७१. षट्खण्डखण्डीकृतकाश्यपीन्द्र छत्रः स वर्षायुतषड्भिरेवम् । आयात ऊर्चीकृततोरणाङ्कां , वास्तोष्पति'ामिव राजधानीम् ॥ छह खंडों के राजाओं के छत्रों को खंडित करने वाले महाराज भरत साठ हजार वर्षों तक विजय-प्रयाण कर देवभूमि में इन्द्र की भांति, तोरणों से सज्जित अपनी राजधानी अयोध्या में लौट आए। ७२. . सर्वेपि शक्रप्रमुखा धुलोकादेत्यादधुस्तस्य च तीर्थतोयः । __राज्याभिषेकं सजगत्यधीशाः , पुरातनः कोपि विधिर्न लोप्यः ।। प्राचीन परम्परा के अनुसार देवलोक से इन्द्र आदि प्रमुख देवतागण तथा सभी राजेमहाराजे वहां एकत्रित हुए और तीर्थस्थल के पानी से महाराज भरत का राज्याभिषेक किया। क्योंकि किसी भी प्राचीन विधि का लोप करना उचित नहीं है। ७३. महीशितुर्दादशवर्षमात्र, जातेभिषेकेऽपि न कोऽपि बन्धुः। आयातवानित्थमनेक शङ्काशङ्कुप्रभिन्नं हृदयं बभूव ॥ चक्रवर्ती भरत का राज्याभिषेक हुए बारह वर्ष बीत गए। अब तक भी कोई भी भाई नहीं आया तब उनका हृदय अनेक शंका रूपी भालों से बींध गया। ७४. स एव बन्धुः समये य एता , तदेव सौजन्यमजातदौष्ठ्यम् । स एव राजा न सहेत योत्राहमिन्द्रतां कस्यचिदुद्भटस्य । वही बन्धु है जो समय पर आता है। वही सौजन्य है जिसमें दुष्टता नहीं है। वही राजा है जो किसी वीर की अहमिन्द्रता को सहन नहीं करता। ७५. न बन्धुषु भ्रातृषु नैव ताते , न नात्र संबन्धिषु राज्यकृद्भिः। स्नेहो विधेयो न यशःशितांशौ , तेषां पयोदन्ति यदेतदेव ॥ । १. काश्यपीन्द्र:-काश्यपी–पृथ्वी, तस्या इन्द्रः-स्वामी-राजा। २. वास्तोष्पति:-इन्द्र (सुत्रामवास्तोष्पतिदल्मिशक्रा:-अभि० २।८६). ३. शङ कु:-भाला (शल्यं शंको-अभि० ३४५१) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ द्वितीयः सर्गः राजा को अपने बन्धुओं, भाईयों, पिता और संबंधियों के साथ स्नेह नहीं करना चाहिए क्योंकि ये सब यश रूपी चन्द्रमा को ढकने के लिए बादल का सा कार्य करते हैं । ७६. इसलिए महाराज भरत सोचते हैं— मैं उनके अहंकार रूपी दीपक, जो अहमिन्द्रता के तैल-पूर से भरे हुए हैं और जो पिताश्री के अत्यधिक तेज की दीप्ति से प्रकाशी हैं, को पवित्र भुजा धनुष्य के प्रचंड पवन से बुझा दूँ । ७७. ७८. तद्दर्पदीपं शममानयाम्यहमिन्द्रतातैलभरातिवृद्धम् । श्री ताततेजोधिकदीप्तिदीप्रमकाण्ड' दोः काण्डसमीरणेन ॥ जैसे स्वर्ग का आधिपत्य इन्द्र, ग्रहों का आधिपत्य सूर्य और नदियों का आधिपत्य समुद्र भोगता है वैसे ही मैं भी सारे जगत् का आधिपत्य चाहता हूं । ७६. धिपत्यं त्रिविस्य जिष्णु यथा ग्रहाणां तरणिश्च भुङ्क्ते । यथा नदीनां तटिनीश एकस्तथाहमी हे जगदाधिपत्यम् || इस प्रकार मन में गहरा विचारकर महाराज भरत ने अपने भाईयों के स्नेह रस के अतिरेक का बलपूर्वक शोषण करने के लिए सूर्य की अति तेजस्वी किरणों की तरह अपने दूतों को भेजा है। ८०. ततो विमृश्येति हृदन्तरुच्चैश्चरान् करानर्क इवातिदीप्रान् । सबान्धवस्नेहरसातिरेक, प्रसह्य संशोषयितुं मुमोच ॥ , ते भारती' चारमुखान्निशम्य तां भारतीं यास्य हृदन्तरूढा । चक्रुर्युगादेः शरणं तदैव त्राता सुतानां विधुरे हि तातः ॥ } वे सभी बन्धु द्वेतों के मुंह से भरत की वह वाणी, जो उसके अन्तर् हृदय में व्याप्त थी, सुनकर उसी समय भगवान् ऋषभ की शरण में चले गए । क्योंकि कष्टकाल में पिता 'अपने पुत्रों को त्राण देता है । तदात्मजेभ्यो विहितानतिभ्यः प्रत्यपि पत्र भरतेन राज्यम् । कोपः प्रणामान्त इहोत्तमानामनुत्तमानां जननावहि ॥ 1 १. अकाण्डं -- काण्डं - कुत्सितं ( अभि० ६ । ७८), न काण्डं - अकाण्डं - पवित्रम् । २. जिष्णुः - इन्द्र (विष्णु जिष्णु जनार्दनी - अभि० २।१२८ ) ३. भरतस्य इयम् - भारती, तां भारतीं । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ . . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् भाइयों के पुत्र भरत का आधिपत्य स्वीकार कर नत हो गए। उनको भरत ने छीना हुआ पैतृक राज्य पुनः सौंप दिया। क्योंकि उत्तम व्यक्तियों के क्रोध की अवधि प्रणाम न करने तक और अधम व्यक्तियों के क्रोध की अवधि जीवन पर्यन्त होती है। ८१. अथान्यदा भालनियुक्तपाणिद्वयाम्बुजः शस्त्रनिवास रक्षी। . द्वात्रिंशता भूमिभुजां सहस्र निषेप्यमानं नृपमित्युवाच ॥ अब बत्तीस हजार राजे भरत की सेवा करने लगे। एक बार शस्त्रागार का रक्षक अपने जुड़े हुए दोनों हाथों को भाल पर रखते हुए चक्रवर्ती भरत से बोला ८२. देव ! त्वदस्त्रालयमुग्रतेजो , 'रथाङ्गमायाति न देवसेव्यम् । भीरोमनः शौर्यमिवास्वगेहं' , निधानवद्दानमिवातिदीनम् ।। 'देव ! अत्यन्त तेजस्वी और देव-सेव्य वह चक्र आपके शस्त्रागार में प्रवेश नहीं कर रहा है, जैसे भयभीत मन में शौर्य, दरिद्र के घर में निधान और अतिदीन में दान प्रवेश नहीं करता। ८३. राजेन्द्र ! तं हेतुमहं तु जाने , यन्नो तदायाति न शस्त्रधाम । शुभाशुभं क्षोणिभुजे निवेद्यं , नियोगिभित्मिनरा हि ते स्युः॥ 'राजेन्द्र ! वह चक्र शस्त्रागार में प्रवेश नहीं कर रहा है, इसका हेतु मैं नहीं जानता किन्तु कर्म-सचिवों को चाहिए कि वे शुभ या अशुभ जो कुछ भी हो, राजा को बता दें। क्योंकि वे उसके आत्मीय-जन होते हैं। ८४. आकर्ण्य तां तस्य सरस्वती स , जगाद चित्तोन्नति गर्भवाक्यम् । अखण्डषट्खण्डमहीधरेषु , प्रोच्चैःशिराः कोप्यविलङ घ्यशक्तिः ॥ उसकी बात सुनकर भरत ने दर्पभरी वाणी में कहा-'सम्पूर्ण छह खण्डों के राजाओं में ऐसा कौन अनुल्लंघ्यशक्ति सम्पन्न राजा है, जो ऊंचा शिर किए हुए है ? १. रथाङ्ग-चक्र (रथाङ्ग रथपादोऽरि चक्रं—अभि० ३।४१९) २. अस्वगेहं-दरिद्रगेहं। ३. क्षोणिभुजे–क्षोणि-पृथ्वी भुङ्क्ते इति क्षोणिभुक्-राजा, तस्मैन ४. नियोगी-कर्म-सचिव (सहायक मंत्री) (नियोगी कर्मसचिव:-अभि० ३।३८३) ५. चित्तोन्नतिः-अहंकार (मानश्चित्तोन्नतिः स्मयः-अभि० २।२३१) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ८५. इती रिणं तीरितराज्यभारो, राजानमूचे सचिवोऽथ नत्वा । नरेन्द्र ! सर्व स्वयमेव वेत्सि , विश्वंभरा' हि क्वचिदस्तिवीरा ॥ इस प्रकार पूछे जाने पर, राज्य-भार का पार पाने वाले सचिव ने राजा से निवेदन किया 'नरेन्द्र ! आप स्वयं सब कुछ जानते हैं। क्योंकि इस पृथ्वी पर आज कहीं-कहीं वीर विद्यमान हैं।' ८६. तदा भवान् मंत्रिभिरोदितस्तद् , भवत्समीपं प्रहितोस्मि राजन् ! तवापि तस्यापि हितं वचोऽहं , भाषे चिरं तेऽभिमुखं त्विदानीम् ॥ राजन् ! उस समय भरत के आग्रह पर मंत्रियों ने आपका नाम बताया । इसलिए भरत चक्रवर्ती ने मुझे आपके पास भेजा है। मैं आपके सम्मुख आपके और उनके चिर-हित के लिए कुछ कह रहा हूँ। . ८७. भवाँस्तुलां तस्य रथाङ्गपाणेर्न काञ्चिदारोहति शौर्यसिन्धुः । निम्नोऽतिदीर्घः सरसीवरः किं , पाथोनिर्याति कियन्तमंशम् ॥ आप शौर्य के समुद्र हैं किन्तु चक्रवर्ती भरत की किसी भी तुलना में नहीं आ सकते । क्योंकि अंडा और अतिविशाल तालाब समुद्र के कितने अंश की तुलना में आ सकता है ? १८. भ्राता मदीयोयमिति स्वचित्ते , निश्चिन्ततामावहसे यदत्र । युक्तं न तत् ते क्षितिराट् ! सुखाय , न संस्तवो हि क्षितिवल्लभेषु ॥ आप अपने मन में यह सोचकर निश्चिन्त हैं कि भरत तो मेरा भाई है। राजन् ! किन्तु आपके लिए ऐसा सोचना उचित नहीं है । क्योंकि राजाओं के साथ परिचय करना सुखद नहीं होता। ८६. त्वन्मौलिकालायस'सञ्चयोत्र , कठोरतां गच्छति मार्दवं न । तस्य प्रतापाग्निभरेण भावी , मृदुत्वभाक् चक्रघनाभिघातः ॥ आपके मुकुट का लोह-संचय कठोर हो रहा है, मृदु नहीं । राजन् ! भरत की प्रतापाग्नि के भार और उनके चक्रघन के अभिघात से वह कोमल हो जाएगा। १. विश्वंभरा-पृथ्वी (विश्वा विश्वंभरा धरा-अभि० ४।१) २. रोदित:-उक्तः। ३. कालायसं-लोह (लोहं कालायसं शस्त्रं-अभि० ४।१०३) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६०. भवान् बली यद्यपि सार्वभौमं , विजेतुमभ्युत्सहतेऽवलेपात् । मदोत्कटोऽपि द्विरदाधिराजः , किं दन्तघातैर्व्यथते सुमेरुम्॥ यद्यपि आप बलवान् हैं और अहंकार के वशीभूत होकर चक्रवर्ती को जीतने के लिए उत्सुक हो रहे हैं किन्तु क्या मदोन्मत्त हस्तिराज अपने दन्तावलि के घातों से सुमेरु को व्यथित कर सकता है ? कभी नहीं। ६१. क्व सर्वदेशाधिपतिः स चक्री , त्वमेकदेशाधिपतिन पः क्व ? ... महानपि द्योतयते हि दीपो , गृहं जगद्योतकरोऽत्र भानुः ॥ .. कहां तो सभी देशों के अधिपति वे चक्रवर्ती भरत और कहां आप एक देश के अधिपति राजा ? दीपक कितना भी बड़ा हो, वह एक ही घर को प्रकाशित करता है किन्तु सारे जगत् को उद्योतित करने वाला तो सूर्य ही है। ६२. किं राजराजोपि च यक्षलक्ष्म्याः ,, संसेव्यमानोऽपि निधीश्वरोपि।। श्रीदोपि नो तस्य तुलां करोमि , विश्वेश्वरस्याप्यहमुत्तरेशः ॥ ६३. वितयं चित्तान्तरिति प्रणष्टः , कैलासदुर्ग समुपेत्य दूरम् । वस्वोकसाराधिपति निलीनो , मनस्विभिः स्वं हि.बलं विचार्यम् ॥ -युग्मम् । 'क्या हुआ यदि मैं यक्षों का अधिपति, निधियों का ईश्वर और लक्ष्मी को देने वाला हूँ, फिर भी मैं केवल उत्तर दिशा का.स्वामी मात्र होने के कारण इस विश्वेश्वर भरत की तुलना में नहीं आ सकता'--अन्तर् चित्त में ऐसी तर्कणा कर अलकापुरी का स्वामी कुबेर भाग कर कैलाश दुर्ग में आया और कहीं दूर जाकर छिप गया। क्योंकि मनस्वी व्यक्ति को अपनी शक्ति का विचार करना ही चाहिए। १४. सिंहासनाधं किल वज्रपाणिर्यस्मै प्रबन्धेन दिदासिता हि ।। मर्येष्वम]ष्वपि तस्य वैरी , खपुष्पवन्नव विभावनीयः ॥ जिस भरत चक्रवर्ती को इन्द्र भी मादर के साथ अपना आधा सिंहासन देना चाहता है, उसके मनुष्यों और देवों में भी आकाशकुसुम की भांति कोई भी शत्रु नहीं है। ६५. तत् त्वं विहाय स्मयमप्यशेषं , ज्येष्ठं किल भ्रातरमेहि नन्तुम् । न कापि लज्जा भवतोस्य नत्या , ज्येष्ठो हि बन्धुः पितृवत् प्रसाद्यः ॥ १. वस्वोकसारा-अलकापुरी (अलका वस्वोकसारा-अभि० २।१०५) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः आप अपने सारे अहं को छोड़ कर ज्येष्ठभ्राता भरत को प्रणाम करने जाएँ। उनको नमन करने में,आप को कोई लज्जा नहीं होनी चाहिए। क्योंकि बड़े भाई को पिता की तरह प्रसन्न रखना चाहिए। ६६. एतावदुक्तवति भारतसार्वभौम संदेशहारिणि मुखं नृपतेर्बभार। फुल्लारविन्दसरसां श्रियमुद्यतेशी, पुण्योदयाञ्चितजनाप्यमुदग्रकीतः ॥ चक्रवर्ती भरत के संदेशवाहक के इतना कहने पर प्रचुर कीति के धनी महाराज बाहुबली का मुंह सूर्य के उदित होने पर विकसित कमलवाले सरोवर की शोभा धारण करने लगा अर्थात् लाल हो गया । ऐसा रक्तिम मुंह पुण्योदय वाले लोगों को ही प्राप्त होताहै। - इति दूतवाक्योपन्यासवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः Page #79 --------------------------------------------------------------------------  Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा सर्ग प्रतिपाद्य दूत का बहली देश से अयोध्या की ओर पुनरागमन । श्लोक परिमाण १०७ अनुष्टुप् लक्षण पञ्चमं लघु सर्वत्र, सप्तमं द्विचतुर्थयोः । गुरु षष्ठं च जानीयात्, शेषेष्वनियमो मतः ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु दूत की बातों से महाराज बाहुबली अत्यन्त क्रुद्ध हो गए। उन्होंने भरत की जिष्णुता को चुनौती देते हुए कहा-'हाथी, घोड़े, रथ और सैनिक ये किसी को त्राण नहीं देते। आडम्बर केवल मूर्ख व्यक्तियों को ही विस्मित कर सकता है। मेरे जैसे वीराग्रणियों के लिए तो भुजाओं के प्रकम्पन ही अपेक्षित हैं।' बाहुबली के वचन सुनकर दूत कांप उठा। उसका उत्तरीय और पगड़ी दोनों नीचे गिर पड़े। दूत अपनी जान बचाकर भागा। मार्ग में उसने बाहुबली के सुभटों की वीरतापूर्ण वाणी सुनी। वह अपने स्वामी चक्रवर्ती भरत के देश की सीमा में प्रा पहुँचा। वहां का समूचा वातावरण भय से व्याप्त था । दूत अयोध्या आ पहुंचा । जनता उसकी बात सुनने के लिए एकत्रित हो गई। महाराज भरत आस्थान मंडप में बैठे थे। दूत ने वहां पहुंच कर महाराज भरत के पूछने पर सभी बात बताई। उसने सचोट वाणी में कहा—'आपके छोटे भाई बाहबली आपकी आज्ञा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने मुझे तिरस्कृत कर बाहर निकाल दिया।' महाराज भरत ने दूत को धंयपूर्वक सुना और उसे उपहार देकर बिदा किया। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः दीप्रदन्तद्यतिज्योत्स्नादीप्तोष्ठाधरपल्लवम् । दधानः स्मितमुद्योतमिव पीयूषदीधितिः ॥ दूत की बातें सुनकर ऋषभ-नन्दन बाहुबली विकसित दंतपंक्ति की किरणों के प्रकाश से दीप्त अघरपल्लवों से मुस्कराने लगे, मानो कि चन्द्रमा प्रकाश को धारण कर रहा क्षिपन गुजारुणे नेत्रे , विद्रुमे इव वारिधिः । कोपवीचिचयोंद्रेकात् , स्वदोर्दण्डतटोपरि ॥ बाहुबली ने गुंजा की भाँति लाल आंखों को क्रोध रूपी तरंगमाला के उद्रेक से अपने भूजा-तट पर फेंका , मानो कि समुद्र ने तरंगमाला के वेग से आने तट पर दो विद्रुम फेंके हों। । ३. अमिमान्तमिवान्तस्तु , बहिर्यातुमिवोद्यतम् । धरन् शौर्यककुद्मन्तं , त्रुट्यदङ्गद बन्धनः ॥ बाहुबली शौर्य रूपी वृषभ को धारण कर रहे थे। वह अन्दर न समाता हुअा बाहिर पाने के लिए 'उद्यत हो रहा था। प्रबल शौर्य के कारण भुजाओं पर बंधे हुए बाजूबंध टूट-टूट कर गिर रहे थे। वहन बालातपारक्तसानुस्वर्णाद्रिविभ्रमम् । वपुषा कोपताम्रण , सततौन्नत्यशालिना ॥ बाहुबली का शरीर सतत उन्नत और कोप से रक्त था। उस समय वह बाल-सूर्य की भांति रक्त शिखर वाले मेरु की शोभा को पा रहा था। १. पीयूषदीधितिः--चन्द्रमा। २. अंगदं - बाजूबन्ध (केयूरमंगदं बाहुभूषा... अभि० ३।३२६) । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ... मौनमुद्रामथोन्मुच्य , हृद्घटाभारतीरसम् । व्यक्तीचकार भूजानिवृषभध्वजनन्दनः ॥ ऋषभ-नन्दन महाराज बाहुबली ने मौन भंगकर अपने हृदय रूपी घटा से वाणी रूपी रस बरसाया। त्वया भरतभूभर्तभरती वाग्मिनां वर !। भाष्यलीलारसं नीता , सच्छिष्येण गुरोस्वि ॥ ... हे वाचाल प्रवर दूत ! तुमने महाराज भरत की वाणी का सुन्दर-सरस भाष्य किया है, जैसे कि शिष्य गुरु की वाणी का भाष्य करता है। . . दूत ! त्वत्स्वामिनो धाटयं , वाचालत्वं तवोद्धतम् ।। एतद्वयं ममात्यन्तं , हास्यमास्ये तनोति हि ॥ हे दूत। तुम्हारे स्वामी की धृष्टता और तुम्हारी. उद्धत वाचालता-ये दोनों मेरे मुंह पर अत्यधिक हास्य बिखेर रहे हैं। ऋषभध्वजवंशोयं , बुभूषेऽनेन पूर्वतः । पूर्वकायमेवातः , पश्चात्कर्तास्म्यहं ततः ॥ यह ऋषभ का वंश भरत से सर्वप्रथम शोभित हुआ है इसलिए यह इस वंश का पूर्वकर्ता है और उसके बाद का कर्ता तो मैं हूं। भूभृदाक्रमणे चित्रं , कि युगादेस्तनूरुहाम् । किं पादा अपि नोष्णांशोभूभृदाक्रमणोल्वणाः ? ऋषभ के पुत्रों के लिए भूभद्-राजाओं पर आक्रमण करना कोन सी आश्चर्य की बात है ? क्या सूर्य की किरणों का भूभृद्-पर्वतों पर आक्रमण करना स्पष्ट नहीं है ? १०. षट्खण्डाखण्डलत्वाच्च , दृप्तो मद्विग्रहादृते । मुक्त्वकं सिंहसंरम्भं , वन्तीव द्रुमभङ्गतः ॥ १. भूजानिः-भूः–पृथ्वी, जाया–पत्नी अस्ति यस्य सः भूजानिः-राजा। २. भूभृत्-राजा। ३. भूभृत्-पर्वत । ४. संरम्भ:-भावेश, तीव्रता (आवेशाटोपौ संरम्भे-अभि० ६।१३५) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः मेरे साथ युद्ध किए बिना ही भरत छह खंडों का स्वामी बनकर दप्त हो रहा है। जैसे हाथी सिंह के संरंभ (आवेश, तीव्रता) को छोड़ कर केवल पेड़ को धराशायी कर दृप्त हो जाता है। ११. अद्यप्रभृति मे भ्राता , पूज्योऽयं तातपादवत् । अतः परं विरोधी मे , भ्राता नो तादृशः खलु ॥ आज तक मेरा भाई भरत पिता की भाँति पूज्य था किन्तु आज से वह मेरा विरोधी है। ऐसा व्यक्ति मेरा भाई नहीं हो सकता। १२. सिंहिकासुत मेवैकं , स्तुमस्तं करवजितम् । प्रहाणामीश्वरं योत्र , सहस्रकरमत्ति हि ॥ . हम उस एक राहु की स्तुति करते हैं जो कर (हाथ) से वजित होते हुए भी ग्रहों के स्वामी, सहस्रकर (हजार हाथों-किरणों) वाले सूर्य को भी खा जाता है, ग्रस लेता है। १३. तुष्टः कनीयसां राज्य यमद्यापि भूविभुः । मत्तः सिंहादिव पलं , सेवांमर्थयते वृथा ॥ पृथ्वी का स्वामी भरत अपने छोटे भाइयों के राज्यों को हड़प कर भी आज तक संतुष्ट नहीं हुआ और व्यर्थ ही मेरे से सेवा की याचना कर रहा है, जैसे कोई पुरुष सिंह से मांस की याचना कर रहा हो । १४. अयं ह्य नशतभ्रातृराज्यादानैर्न तृप्तिभाक् । वडवाग्निरिवाम्भोभिर्वसन् रत्नाकरेपि हि ॥ यह भरत निनानवें भाइयों का राज्य लेकर भी तृप्त नहीं हुआ, जैसे समुद्र में रहता हुआ वाडवाग्नि पानी से तृप्त नहीं होता। १५. कीनाश' इव दुष्टाशः , सर्वग्रासी नृपद्विपः । मद्दोर्दण्डाङ्कुशाघातं , विना मार्गे न गत्वरः ॥ भरत रूपी हाथी यमराज की भांति दुष्ट आशयवाला और सब कुछ ग्रसने वाला है। मेरे भुजा रूपी अंकुश के घात के बिना वह मार्ग पर नहीं आएगा, सीधा नहीं होगा। १. सिंहिकासुतः-राहु (तमो राहु सैहिकेयो–अभि० २।३५) २. कीनाश:-यमराज (कीनाशमृत्यू समवतिकालौ-अभि० २०६८) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १६. यद् वा भरतभूपालो, मामनिजित्य पूर्वतः। षट्खण्डी जेतुमुद्यातः , क्लेशायाजनि तस्य तत् ॥ अथवा महाराज भरत मुझे पहले जीते बिना ही छह खंडों को जीतने के लिए चल पड़ा। यह उसका व्यर्थ का प्रायास हुआ। १७. युसद्विद्याधराधिक्यात् , स कि भापयिता मम। महाब्धिर्मीनबाहुल्यात् , किमगस्तेर्भयङ्करः ? .. देवता और विद्याधरों की अधिकता से वह मुझे क्या भय दिखा रहा है ? क्या मछलियों की बहुलता वाला महासमुद्र अगस्त्य ऋषि के लिए कभी भयंकर हुआ है ? . . १८. रत्नानि निधयश्चास्य , रणायातस्य मेऽग्रतः। अन्तरा कि भविष्यन्ति , द्रोः पत्राणीव हस्तिनः॥ जब भरत संग्राम के लिए मेरे सामने आएगा तब रत्न और निधियाँ क्या उसके प्राडे आयेंगी? जैसे जब हाथी वृक्ष को उखाड़ता है, तब पत्ते क्या उसके (वृक्ष के) आडे आते हैं ? १६. जगत्त्रयजनं जेतुमलंभूष्णुर्भवान् भुज !। ____ कातरो भ्रातरं हन्तुं , तं त्वां वीरीकरोम्यहम् ॥ बाहुबली ने भुजाओं को संबोधित कर कहा–'हे भुजायो । तुम तीनों लोक की जनता को जीतने में समर्थ हो, किन्तु उस भाई भरत को मारने के लिए कायर हो। तुम को अब मैं वीर बना रहा हूं।' २०. न कोपि समरे वीरः , प्रतिष्ठाता ममाग्रतः। इत्यूहिनस्तवायातो , भुज ! सांग्रामिकोत्सवः ।। हे भुजागो ! तुम यह सोच रही हो कि युद्ध में तुम्हारे समक्ष कोई भी वीर नहीं टिक पाएगा। तो लो, अब तुम्हारे लिए युद्ध का यह उत्सव आ गया है। २१. रे स्नेह ! मन्मनोगेहनिवासिन्नथ मास्य भूः। अन्तरायी रणे स्नेहो , न हि वैरिजयप्रदः ॥ .. मेरे मन-मन्दिर में रहने वाले स्नेह ! तुम युद्ध में अन्तराय (बाधा) उपस्थित मत Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय : सर्ग: करना । क्योंकि युद्ध में होने वाला स्नेह वैरियों को जीतनेवाला नहीं होता। २२. समन्मुष्टिप्रदीपान्तः, शलभीभविता स्वयम् । तमांसीवान्यभूपाला न स्थास्यन्ति रणान्तरे ॥ , रण में वह भरत मेरी मुष्टि रूपी दीपमाला में पड़कर शलभ की भाँति और दूसरे राजे अन्धकार की भाँति मेरे सामने नहीं टिक पाएंगे । २३. काश्यपी' करमारूढा, कामिनीव विरोधिभिः । कदर्थ्यते हि यत् स्वैरं त्वत्प्रभोस्तत् त्रपाकरम् ॥ , २४. जिस प्रकार विरोधी के हाथ में आई हुई कामिनी की मनचाही कदर्थना होती है, उसी प्रकार विरोधी के हाथ में आई हुई भूमि की भी कदर्थना होती है । यह तुम्हारे स्वामी के लिए लज्जास्पद बात होगी । खण्डविजयात् तेन जिष्णुता यात्ववाप्यत । , अपूर्व जिष्णुतामाप्तुं मत्तस्तामयमीहते ॥ , २६. छह खंडों को जीतकर भरत ने जो विजय प्राप्त की है, वह अब मुझसे 'अ' पूर्वक विजय ( + त्रिजयपराजय ) पाना चाहता है । २५. यथा ते भ्रातरस्तातं जग्मू राज्य कनिस्पृहाः । तथाहं तातमेष्यामि दर्शयित्वा निजं बलम् ॥ 1 जिस प्रकार राज्य के प्रति अनासक्त रहनेवाले निनानवें भाई पिता के पास चले गएमुनि बन गए, वैसे ही मैं भी चला जाऊँगा किन्तु उनकी भाँति सीधा नहीं, अपना पराक्रम दिखाने के बाद जाऊँगा । ५३ 2 परा' भूति' रनेनात्र चतुर्दिग्विजयेऽजिता । पराभूति 'भविश्यस्य मत्तोपि समराङ्गणे ॥ 1 , १. काश्यपी - पृथ्वी ( काश्यपी पर्वताधारा - अभि० ४ | ३ ) २. परा - उत्कृष्टा । ३. भूतिः - लक्ष्मीः । ४. पराभूतिः - पराभवः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् भरत ने चतुर्दिक् विजय में परा-भूति (उत्कृष्ट संपदा) अजित की है। समरांगण में मुझसे भी उसे पराभूति (पराभव) ही प्राप्त होगी। २७. गजाश्वरथपत्तीनां , कोटीषु गणना न मे । कि स्खलेदर्कतूलेषु , पवनः पातितमः ? मेरे लिए हाथी, घोड़े, रथ और सैनिकों की कोई गणना नहीं है। जो पवन वृक्षों . को धराशायी कर देता है, क्या वह अर्क-तूल को उड़ाने में स्खलित हो सकता है ? २८. वाच्यो दूत ! ममाकूतो , भ्रातुरग्रे त्वया पुनः । त्रातारो नैव संग्रामे , गजाश्वरथपत्तयः॥ . दत ! भरत के समक्ष तुम मेरी सारी बातें कहना पौर यह भी बता देना कि संग्राम में हाथी, घोड़े, रथ और सैनिक त्राण नहीं दे सकते। २६. आडम्बरो हि बालानां , विस्मापयति मानसम् । मादृशां वीरधुर्याणां , भुजविस्फूर्तयः पुनः॥, आडंबर केवल बाल व्यक्तियों के मन को ही विस्मित कर सकता है। मेरे जैसे वीराग्रणियों के लिए तो भुजाओं के प्रकम्पन ही अपेक्षित हैं। ३०. मबाहुवायुसञ्चारे , धान्येनेव त्वयैव च।' स्थास्यते सङ्गरे नान्यैस्तुषैरिव खलक्षितौ ॥ जैसे हवा के चलने पर खलिहान की भूमि में केवल धान्य ही रह पाता है, तुष नहीं, वैसे ही रणभूमि में मेरी भुजाओं से उठे वायु के संचार से केवल भरत ही रह पाएगा, दूसरे नहीं। ३१. भ्रातुः संसप्पिदोर्दर्पज्वरिताङ्गस्य दोर्मम । मुष्टिभैषज्यदानेन , चिकित्सां च विधास्यति ॥ मेरे भाई का शरीर प्रसरणशील भुजाओं के दर्ष से ज्वरयुक्त हो गया है। मेरी भुजाएं अपनी मुष्टी रूपी भैषज्य से उसकी चिकित्सा करेंगी। ३२. संश्रितः सकलश्रीभिस्तटिनीभिरिवार्णवः। सस्मयोत्रेव मा भूयास्तद्दायादा हि भूरिशः॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय: सर्ग: जैसे समुद्र नदियों से उसको इनका गर्व न हो, क्योंकि उनके दायाद -- हिस्सा लेनेवाले बहुत हैं । ३३. ३४. ५५ व्याप्त है वैसे ही भरत भी सभी लक्ष्मियों से व्याप्त है । किन्तु ३५. मद से विह्वल बना हुआ बन्दर भूमी पर लटकती हुई वृक्ष की शाखा पर चढ़कर क्या हाथी का तिरस्कार कर सकता है ? आरूढस्तरुशाखाग्रं वनौकाः क्षितिलम्बिनम् । किं गजस्य तिरस्कारं करोति मदविह्वलः ? ३६. " इस पृथ्वी पर जब तक सूर्य और चन्द्र रहेंगे तब तक हम दोनों (भरत, बाहुबली ) उपमान और उपमेय के रूप में उदाहृत रहेंगे' । इसलिए हमें कभी भी मर्यादा का लोप नहीं करना चाहिए । ३७. 1 उपमानोपमेयाभ्यामाचन्द्रार्कं भुवस्तले । युवामुदाहरिष्येथे, तन्न लोप्या स्थितिः क्वचित् ॥ दूत ! तुम शीघ्र ही जाकर भरत से कहो कि मदोन्मत्त हाथी का मद सिंहनाद से दूर हो जाता है । दूत ! त्वं सत्वरं गत्वा कथयेरिति सोदरम् । • मत्तस्य हि गजेन्द्रस्य सैंही वेडा मदापहा ॥ , इत्युदात्ता गिरस्तस्य वैरिहृत्स्फोटनोत्कटाः । नाराचा इव तीक्ष्णाग्राश्चख्नुश्चारहृदान्तरम् ॥ " बाहुबली की उदात्त, वैरियों के हृदय को विदीर्ण करने में उत्कट और बाणों की तरह तीक्ष्ण प्रभाग वाली वाणी ने दूत के हृदय को कुरेद डाला । संनिधायिन्यहं चास्य, निर्जीवा माऽभवंतराम् । इतीवास्य तनुः कम्पं वहतिस्म तदा मुहुः ॥ g. बाहुबली की बातें सुनकर दूत का शरीर यह सोचकर काँप उठा कि ' मैं इस दूत के पास हूं, कहीं निर्जीव न हो जाऊँ ।' १. कोई भी भाई-भाई लड़ेंगे तो यह कहा जाएगा कि ये 'भरत- बाहुबली की भांति लड़ रहे हैं ।' Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ . . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् . ३८. अप्युत्तरीयमस्यांसान्निपपातेति तद्भयात् । एतत्संपर्कतो नाशो , निश्चयाद् भविता मम ॥ दूत की भुजाओं पर रखा हुआ उत्तरीय भी इस भय से नीचे गिर पड़ा कि इसके संपर्क से मेरा नाश निश्चित ही होने वाला है। ३६. उच्चैः पदादयं वीरः , पातयत्येव मां किल। शीर्षादस्य पपाताध , इतीवालकवेष्टनम् ॥ 'यह वीर बाहुबली मुझे निश्चित ही ऊंचे स्थान से नीचे गिरा देगा'- यह सोचकर दत की पगड़ी सिर से नीचे आ गिरी। ४०. . अस्मान निर्वसनानेवं , मा पश्यन्तु सभासदाः । इतीवास्य ह्रिया मग्नं, रोमभिः स्वेदपाथसि ॥ । ... . 'सभासद हमें निर्वस्त्र न देखें'- इस · लज्जा से दूत के रोएं पसीने के पानी में डूब गए। .. ४१. निर्वारिरिव कासारो , निःपत्र इव पादपः । निस्तेजा इव शीतांशुः , स सभ्यैरप्यदृश्यत ॥ सभासदों ने दूत को बिना पानी वाले तालाब, बिना पत्तों वाले वृक्ष और निस्तेज चन्द्रमा की तरह देखा। ४२. आयातः केन मार्गेण , केन यास्यामि वर्मना। ___ इत्यूहिनं त्वमुञ्चस्तं , करे धृत्वा बहिर्जनाः ॥ . 'मैं यहाँ किस मार्ग से आया था और किस मार्ग से जाऊंगा'-इस प्रकार तर्कणा करने वाले दूत को लोगों ने हाथ पकड़ कर बाहर निकाल दिया। ४३. पञ्चास्यादिव सारंगः , सर्पवक्त्रादिवोन्दुरः। आदाय जीवितं सोथ , निर्गतो राजमन्दिरात् ॥ जैसे सिंह के मुंह से निकला हुआ हरिण और सर्प के मुंह से निकला हुआ उंदर अपनी १. अलकवेष्टनम्-पगडी। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ५७ जान बचाकर भाग जाता है, वैसे ही वह दूत भी अपनी जान बचाकर राज-प्रासाद से निकल भागा। . ४४. वीरविग्रहवृत्तान्तमेघागमजलावहा । दूतश्रवणपाथोधितीरसत्वरगामिनी ॥ ४५. लोकानां मुखशैलानात् , पतन्ती विस्तृता पुरः। प्रवृत्तितटिनी साथ , प्रससार भुवस्तले ॥ -युग्मम् । वीरों (भरत-बाहुबली) की युद्ध-चर्चा रूपी वर्षा के जल से पूर्ण, दूत के कान रूपी समुद्र-तट की ओर शीघ्रता से गतिशील, लोगों के मुख रूपी पर्वत-शिखर से गिरकर आगे से आगे बढ़ती हुई वह युद्ध-चर्चा रूपी नदी समूचे भूतल पर फैल गई। ४६. दूतत्वं भरतेशस्य , कृतं बाहुबलेः पुरः। . मम कीत्तिश्चिरं स्थाष्णुरित्यामोदमुवाह सः ॥ दूत यह सोचकर प्रसन्न हुआ कि 'मैंने बाहुबली के समक्ष महाराज भरत का दूतत्व किया है, इसलिए मेरी कीर्ति चिरकाल तक स्थायी रहेगी ।' ४७. अमन्दानन्दमेदस्विमानसः पुरवीथिषु । ' सञ्चरन्निति वीराणां , गिरं शुश्राव दूरतः ॥ अत्यन्त आनन्द से भरे-पूरे मन वाले दूत ने नगरी के मार्गों से बढ़ते हुए दूर से वीरों की ये बातें सुनीं. ४८. वयं वीरा अयं स्वामी , न यावत् प्रस्तुतो रणः। अस्मद्भाग्यरिवाकृष्ट , इदानी स उपस्थितः ।। जब तक युद्ध प्रस्तुत नहीं होता तब तक हम इतना मात्र कहते रहते हैं कि हम वीर हैं और ये हमारे स्वामी हैं। आज युद्ध का अवसर प्रस्तुत हुआ है, मानो कि वह हमारे भाग्य से आकृष्ट होकर आया हो । ४६. कीनाशा नामिव द्रव्यमस्माकमफलं बलम् । इति चिन्तयतामद्य , प्रस्तुतोऽयं रणोत्सवः ॥ १. कीनाश:- कंजूस (कीनाशस्तद्धनः क्षुद्रकदर्यदृढमुष्टयः-अभि० ३।३२) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ .. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'जैसे कृपण व्यक्तियों का धन फलदायी नहीं होता वैसे ही हमारी शक्ति भी (युद्ध के बिना) अफल ही रही'-इस प्रकार चिन्तन करने वालों के समक्ष आज यह रणोत्सव प्रस्तुत हुआ है। ५०. स वीरो यस्य शस्त्राप्रैः , सवणः करणो रणे। स्वर्ण तदेव यद् वन्हौ , विशुद्धं निहतं धनैः ।। वीर वही है, रणांगण में जिसके शरीर में घाव हुए हों। स्वर्ण वही है जो अग्नि में तपकर धन से आहत हो। ५१. अद्यप्रति वो भारो, निरूहे वपुषा च नः । दीयतां तद्भतिर्नस्तत् , तेऽस्त्राणीत्युदतेजयन् ॥ . 'आज तक हमने अपने शरीर से तुम्हारा (अस्त्रों का) भार वहन किया है। तुम हमें उसका मूल्य चुकाओ'—यह सोचकर ने वीर अपने-अपने अस्त्रों को तीक्ष्ण करने लगे। ५२. अयमभ्यधिको हीनः , स्वामिकृत्यकरस्त्वयम् । . विग्रहादेव वीराणां , पत्युर्ज्ञानं भवेदिति ॥ 'यह बहुत हीन है', 'यह केवल स्वामी का कार्य करने वाला है' तथा 'यह वीरों में अग्रणी है'-इसकी जानकारी युद्ध से ही हो सकती है। ५३. यच्छराः करिकुम्भेषु , निपेतुः षट्पदा इव । तैः किञ्चित् स्वस्वामिनोग्रे , दर्यते शौर्यवत्तया ॥ जो बाण हाथी के कुंभस्थल पर भ्रमरों की भाँति गिरते थे, वे अपनी बलवत्ता के कारण स्वामी के समक्ष कुछ दर्प कर रहे हैं। ५४. क्षरतक्षितिजधाराक्त, रूषितं रणरेणुभिः ।। वैरिभिर्यन् मुखं वीक्ष्यं , वीरमानी स एव हि ॥ वही वीरमानी है जिसका मुँह झरती हुई रुधिर की धारा से भीगा हुआ है, जो युद्ध के रजकणों से मटमैला हो गया है और जो शत्रुओं द्वारा देखने योग्य है। १. भूतिः-मूल्य (भृतिः स्याद् निष्क्रयः पण:-अभि० ३।२६) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ५५. ५६. ५७. —युग्मम् । हुए स्वामी के समक्ष वे ही वीर धन्य माने जाते हैं जो हस्तिचर्म से प्रास्तृत, मरे हाथियों के सूंड और कुंभस्थल रूपी उपधानों (तकियों) से सम्पन्न, रक्त-रंजित युद्धभूमी रूपी शय्या में बाणों के मंडप के नीचे, बाणों के पंख -समूह से वीजित शरीर को स्थापित कर सोते हैं । ५८. शुण्डागण्डोपधानां द्विपचर्मास्तराञ्चिते । संपरा महीतल्पे, क्षतजन्माङ्गरागिण || नाराच मण्डपस्याधो, यैर्व पुर्न्यस्य शय्यते । वीजित: पत्र पत्रौधैर्धन्यास्ते स्वामिनः पुरः ॥ ५६. धिगस्तु तं रणे नाथं, यो विहाय गृहं गतः । निमीलिमुखं तस्य पश्येत् कान्ता कथं पुनः ॥ धिक्कार है उसको जो युद्ध में स्वामी को छोड़कर घर भाग जाता है । लज्जा से सिकुड़ा हुआ उसका मुँह उसकी भार्या फिर कैसे देखेगी ६०. , कुलदेव्यो निमित्तज्ञाः, सत्यमस्मान् वदन्त्विति । एतस्मिन् सङ्गरे विघ्नो, न भावी सन्धिलक्षणः ? कुलदेवियां और ज्योतिर्विद् हमें यह सही-सही बताएं कि इस संग्राम में कोई सन्धि रूपी विघ्न तो उपस्थित नहीं होगा ? इतो बाहुबलिवर, इतो भरतभूपतिः । इतो वीरा वयं कर्मसाक्षी' साक्षी भविष्यति ॥ अमीषां कर्मषु क्रोध भरलोहितचक्षुषाम् । भानुरेवास्य विश्वस्य शुभाशुभविलोकिता ॥ ५६ 1 —युग्मम् । इधर वीर बाहुबली, उधर महाराज भरत और इधर हम वीर हैं । सूर्य ही हमारा १. उपधानं - तकिया (उच्छीर्षकमुपाद् धानबहौं – अभि० ३ | ३४७ ) २. संपराय: - युद्ध (अभ्यामर्दः सम्परायः - अभि० ३ | ४६२ ) ३. क्षतजन्मनः – रक्तस्य, अंगरागः - विलेपनं अस्ति यस्मिन् तत् क्षतजन्मांगरागि, तस्मिन् । ४. नाराच: — बाण (नाराच एषणश्च सः - अभि० ३ | ४४३ ) ५. पत्नी - बाण ( पत्नीष्वजिह, मग – अभि० ३।४४२ ) ६. कर्मसाक्षी - सूर्य (हरिदश्वो जगत्कर्मसाक्षी – अभि० २।१२ ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् साक्षी होगा । क्रोध के भार से लाल आंखों वाले इन व्यक्तियों की क्रियाओं में विश्व का शुभ-अशुभ देखने वाला केवल एक सूर्य ही होगा। ६१. इति वीरगिरं शृण्वन् , सिंहनादमिव द्विपः। - शौर्यस्यायतनं बाहुबलेर्देशं चरोऽत्यजत् ॥ हाथी जैसे सिंहनाद को ससंभ्रम सुनता है वैसे ही वीरों की ये बातें सुनता हुआ वह दूत शौर्य के आयतन बाहुबली के देश को छोड़कर चला गया। . ... ६२. धनुर्बाणाञ्चितकरान् , धनुर्वेदानिवाङ्गिनः । पार्वतीयान् महोत्साहानिव मूर्तान् भटानसौ ॥ ६३. दूरलक्षीकृताकाशसञ्चरविहगान् क्वचित् । दग्धस्थाणूपमाकारानपितश्वापदापदः ॥ सर्वतश्चञ्चलाकारान् , द्रुमशाखाधिरोहिणः। नानाफलरसास्वादतत्परान् वानरनिव ॥ ६५. भूपतिर्भरताधीशो , जेतुं तक्षशिलेश्वरम् । . आगन्ता वर्त्मनाऽनेन , रोत्स्यतेऽस्माभिरन्तरा। ६६. कषायैरिव संसारी , नगैरिव नदीरयः। ददर्श बहलीभूपभक्तानित्यभिधायिनः ॥ --पञ्चभिः कुलकम् । दूत ने हाथ में धनुष्य-बाण लिए हुए पार्वतीय सुभटों को देखा, मानो कि धनुर्वेद शरीरधारी हो गया हो । उनमें महान् उत्साह उछल रहा था, मानो कि वह मूर्तिमान् हो गया हो। कई पार्वतीय लोग दूर आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को लक्ष्य कर बाण छोड़ने की तैयारी में थे। कहीं-कहीं जंगली जानवरों को भी भयभीत कर देने वाले, जले हुए लूंठसी काली आकृति वाले मनुष्य मिले । चंचल आकृति वाले कुछ लोग बन्दरों की भाँति वृक्षों की शाखाओं पर चढ़ने और विविध फलों के रसास्वादन में तत्पर थे। वे सोच रहे थे कि भारत के अधिपति महाराज भरत इसी मार्ग से तक्षशिला के राजा बाहुबली को जीतने के लिए आयेंगे । हम उनको बीच में ही रोक देंगे, जैसे कषाय संसारी प्राणी को और पर्वत नदी के वेग को रोक देता है ।' दूत ने इस प्रकार की चर्चा में संलग्न बाहुबली के भक्त पार्वतीय लोगों को देखा। १. अपितश्वापदापद:-अर्पिता श्वापदेभ्यः आपदो यः, ते, तान् । २. अन्तरा (अव्यय)-बीच में (मध्येऽन्तरन्तरेणान्तरेऽन्तरा-अभि० ६।१७४ ।) '. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ६७. भारत्येति प्रवीराणां , समशय्यत तस्य हृत् । किं जयो बहलीशस्य , भावी वा भारतो जयः॥ वीरों की इन बातों ने दूत के हृदय में संशय उत्पन्न कर दिया कि विजय बाहुबली की होगी या भरत चक्रवर्ती की ? ६८. किमूनं भरतस्यापि , षट्खण्डजयकारिणः । नमतोस्यापि का लज्जा , हठो हि बलवत्तरः ॥ ओह ! छह खण्डों के विजेता भरत के क्या कमी थी और बाहुबली यदि नत हो जाता तो कौन सी लज्जा की बात थी? किन्तु अाग्रह बलवान् होता है । ६६. कुक्षिपूर्तिमने सोच्चुलुकाचान्तनीरधेः । । - तथापि वितता कीत्तिर्यतः कीर्तिप्रिया नृपाः ॥ एक चुल्लू में समुद्र को पी जाने वाले अगत्स्य मुनि का वैसा करने पर भी पेट नहीं भरा, तो भी उनकी कीति बहुत फैली। इसीलिए नृप कोतिप्रिय होते हैं । ७०. एकछत्रं मम स्वामी , भुवं कर्तास्ति सांप्रतम् । त्यक्ताय नकवीरत्वमहंकारो हिदुस्त्यजः ॥ मेरे स्वामी भरत अभी विश्व में एकछत्र राज्य स्थापित करना चाहते हैं और ये बाहुबली अकेले वीर होने के स्वाभिमान को छोड़ना नहीं चाहते। अहंकार दुस्त्यज होता है। ७१. अनयोरप्यहंकारवेश्मरत्नकतेजसि । पतङ्गीभवितारोमी ; योद्धारः समराङ्गणे ॥ इस युद्ध में ये सभी योद्धा इन दोनों (भरत-बाहुबली) के अहंकार रूपी दीपक की लौ में शलभ की भांति गिरकर प्राण गंवाने वाले हैं। ७२. एको बाहुबलिर्वीरः , सह्यः केन तरस्विना । आवृतस्त्वीदृशैर्वीरैः , समीरैरिव पावकः ॥ अकेले वीर बाहुबली को कौन पराक्रमी योद्धा सहन करेगा ? इस प्रकार के वीरों से परिवृत होकर वे और अधिक दुर्जेय बन जायेंगे। जैसे-अग्नि भयंकर होती है और Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वह तेज हवा के योग से और अधिक भयंकर हो जाती है। ७३. स्वस्वामिविजयाश्चयं , हृद्यद्याप्यस्य विद्यते । तद् द्रष्टुमिव तच्चेतस्तेषां शौयं विवेश तत् ॥ अभी भी इसके (दूत के) मन में अपने स्वामी भरत की विजय के प्रति आश्चर्य है। मानो कि उसको देखने के लिए उसके चित्त में बाहुबली के सुभटों का शौर्य प्रवेश कर गया। ७४. सोथ स्वस्वामिनो देशं , चैतन्यमिव योगिराट । चकोर इव शीतांशु , क्रमात् प्रापदनातुरः ॥ वह दूत अनातुर रहता हुआ क्रमशः अपने स्वामी के देश को प्राप्त किया, जैसे योगिराज चैतन्य को और चकोर चन्द्रमा को प्राप्त करता है। . ... ७५. भीतं बाहुबलेर्देशाद् , भयमायातमत्र किम् ? बालाबालजरद्वक्त्रवास्तव्यं स व्यतर्कयत् ॥ दूत ने बालक, जवान और बूढ़े-सभी लोगों के चेहरों पर छाये हुए भय को देखकर यह वितर्क किया कि क्या बाहुबली के देश से डरा हुआ भय यहाँ आ पहुंचा? ७६. तैलबिन्दुरिवाम्भस्सु , दीपज्योतिरिवालये। तत्रातङ्ककृदातङ्कः , सर्वत्र व्यानशेतराम् ॥ जैसे पानी में तैल-बिंदु और प्रासाद में दीपक का प्रकाश फैल जाता है, वैसे ही आतंक पैदा करनेवाला भय सर्वत्र फैल गया। ७७. भयाम्भोनिधिरुनः , प्रावर्तत जनोक्तिभिः । तृतीयारकपर्यन्ते , संवर्त इव सङ्गतः ॥ जैसे तीसरे अर के अन्त में प्रलयकालीन सिन्धु उमड़ पड़ता है वैसे ही जनता की चर्चाओं के द्वारा भय के समुद्र में ज्वार आ गया। ७८. दयितेनानुनीताऽपि , प्रिया विप्रियकारिणम्। .. नैच्छद् बाहुबलेस्त्रासोस्तीत्युक्ता साऽमिलद् वरम् ॥ . Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः . पति के द्वारा अनुनय करने पर भी प्रिया ने, अप्रिय करने वाले उसको नहीं चाहा । किन्तु जब उसने कहा कि यहां बाहुबली का त्रास है तो वह तत्काल आकर उसके गले से लिपट गई। ७६. एता बाहुबलिः काचिदिति कान्तोक्तिभापिता । ___ कण्ठं जग्राह कान्तस्य , निम्नीभूतस्तनद्वयम् ॥ पति ने अपनी प्रिया से कहा—'यहां बाहुबली आने वाले हैं।' इतना कहते ही उसने भयभीत होकर अपने पति के कंठ पकड़ लिए-उसको गाढ़ आलिंगन में बांध लिया। इस भय के कारण ही उसके दोनों स्तन नीचे की ओर झुक गए। ८०. काचित् कान्ता प्रियं ग्रामगत्वरं वीक्ष्य सत्वरम् । आलम्ब्याञ्चलमित्यूचे , त्राता मां कोप्युपद्रवे ? एक सुन्दरी ने अपने पति को ग्राम की ओर प्रस्थान करते हुए देखकर जल्दी से उसके अंचल को पकड़ते हुए कहा—'उपद्रव होने पर मुझे कौन बचायेगा ?' ८१. संग्रामायोद्यतं कान्तं , काचिदित्याह कामिनी । नाथ ! त्वद्विरहे नाहमलं स्थातुमपि क्षणम् ॥ कोई सुन्दरी संग्राम के लिए उद्यत अपने पति को देखकर बोली-'नाथ ! आपके बिना मैं एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकती।' ८२. सस्नेह काचिदित्याह , मयि प्रीतिर्न तादृशी । क्षीरकण्ठेपि नोत्कण्ठा , कृतयुद्धोद्यमं प्रियम् ॥ किसी सुन्दरी ने युद्ध के लिए तत्पर पति से प्रेमभरी वाणी में कहा—'नाथ! मेरे प्रति भी आपकी वैसी गहरी प्रीति नहीं है और न बच्चे के प्रति वैसी उत्कंठा है (जैसी मैं युद्ध के प्रति आपकी प्रीति और उत्कंठा देखती हूं।) ८३. चापमासज्य कण्ठेषु , कान्ताकङ्कणलक्ष्मसु । सन्निपत्य भयाद् वीरास्तस्थुरास्थानमण्डपे ॥ प्रिया के कंकणों द्वारा चिन्हित कंठों में धनुष को धारण कर, भय से एकत्रित होकर . वीर सुभट सभाभवन में आ बैठे। १. आस्थानमंडपं—सभा-भवन (आस्थानगृहमिन्द्रकम्-अभि० ४।६३) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ८४. अस्ति तक्षशिलान्तर्वा , बहिनिर्यातवान् स वा। अनुशिष्येति तन्मार्गे , प्रजिध्युहें रिकान्' प्रजाः ॥ 'वह दूत तक्षशिला में ही है या बाहर चला गया है'-इस बात को जानने के लिए प्रजा ने गुप्तचरों को उसी मार्ग से भेजा। ८५.. किं दुर्गस्तस्य किं शैलः , किं वप्रश्च महौजसः ? जन्हुकन्या प्रवाहस्य , यथा न सलिला परम् ॥ .. . उस पराक्रमी बाहुबली के लिए क्या दुर्ग, क्या पर्वत और क्या परकोटा ? उसे कोई नहीं रोक पाएगा। गंगा के प्रवाह से बढ़कर और कोई दूसरा प्रवाह नहीं है ! . ८६. निन्यिरे वल्लवैर्गावो , ग्रामान्तः सति भास्करे। . भयादङ्गीकृतावेगैः , समीरैरिव रेणवः ॥ भयभीत ग्वाले शीघ्र गति से चलकर सूर्य के रहते-रहते गायों को गांव में ले आए, जैसे हवा बालू को उड़ाकर ले जाती है। , ८७. जनास्तत्र भयोभ्रान्ता , रति प्रापुर्न कुत्रचित् । पाथोधाविव पीताब्धिपीततोये तिमिवजाः ॥ उस प्रदेश की भयभ्रान्त जनता को, अगस्त्य ऋषि द्वारा समुद्र का पानी पी जाने पर मछलियों की भांति, कहीं भी आनन्द नहीं मिल रहा था। ८८. सर्वत्रापि खलक्षेत्रभनिवेशाः पदे पदे। सस्यींना अदृश्यन्त , द्विजिह्वा इव सद्गुणैः ॥ वहां चारों ओर फैले हुए खलिहान धान्य रहित थे, जैसे दुर्जन व्यक्ति सद्गुणों से रहित होते हैं। ८६. इति स्वरूपं लोकानामनुत्साहैकमन्दिरम् । वीक्षमाणस्ततो दूतः , साकेतनगरं गतः ॥ १. हेरिक:-गुप्तचर (हेरिको गूढपूरुष:-अभि० ३।३६७) २. जन्हुकन्या-गंगा (त्रिस्रोता जान्हवी-अभि० ४।१४७) .. ३. वल्लवः -ग्वाला (गोपगोसंख्यवल्लवा:-अभि० ३।५५३) . ४. द्विजिह्वः-दुर्जन (द्विजिह्वो मत्सरी खलः-अभि० ३।४४) . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः लोगों का मन अनुत्साह से भर गया । यह देखता हुआ दूत साकेत नगर पहुंच गया। ६०. स साकेतपुरोद्देशानवाप्य स्वर्गजित्वरान् । राजहंस इवाऽनन्दत्तरां मानसविभ्रमान् ॥ वह दूत स्वर्ग को जीतने वाले और मन में विभ्रम पैदा करने वाले अयोध्या पुरी के पास वाले प्रदेशों में आकर आनन्दित हुआ, जैसे राजहंस मानसरोवर के पास जाकर आनन्दित होता है। ६१. भरतेशचरोद्यता , बहलीश्वरसन्निधेः । कि वक्ष्यतीति सोत्कण्ठचित्तैर्लोकैरनुद्रुतम् ॥ 'आज महाराज भरत का दूत बहली प्रदेश के स्वामी बाहुबली के पास से आ रहा है। वह क्या कहेगा-यह उत्कंठा लोगों के मन में उठी और वे उसके पीछे-पीछे चल ६२. बहिर्मुक्तहयस्तम्बरमस्यन्दननीतितः। पदातीयितभूपालसुरकिन्नरसञ्चयम् । ६३. नकरत्नांशुवैचित्र्यकल्पितेन्द्रायुधभ्रमम् ।। सिंहद्वारं विवेशेष , भरतस्य क्षितीशितुः । -युग्मम् । उस दूत ने महाराज भरत के प्रासाद के सिंहद्वार में प्रवेश किया । वह सिंहद्वार घोड़े, हाथी और रथों का प्रवेश निषिद्ध होने के कारण पैदल चलने वाले राजा, देव और किन्नरों के समूह से संकीर्ण था। वह अनेक रत्न-किरणों की विचित्रता से इन्द्र-धनुष्य का भ्रम पैदा कर रहा था। ६४. मृोन्द्रासनमासीनं , शैलशृङ्गमिवोन्नतम् । दुःप्रेक्ष्यं सिंहदच्छौर्यात् , कौशलेन्द्रं ददर्श सः ॥ दूत ने सिंहासन पर बैठे हुए, पर्वत के शिखर की भांति उन्नत, पराक्रम से सिंह की भांति दुष्प्रेक्ष्य कौशल देश के स्वामी भरत को देखा। १५. सार्वभौमस्तमायातं , दूराद् दूतमतिप्रियम् । दशा पीयूषवर्षिण्या , स्नपयामास सन्ततम् ॥ १. अनुद्रुतम्-अनुगतम् । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् चक्रवर्ती भरत ने दूर से आते हुए अपने प्रिय दूत को देखा और अमृत बरसानेवाली अपनी दृष्टि से उसे निरंतर नहलाया। ६६. आयातो भूरिभिर्वत्स ! वासरस्त्वमनातुरः । ... बन्धोर्बाहुबलेः कच्चिद् , भद्रमस्तीति वेदय ॥ 'वत्स ! तुम स्वस्थ हो ? बहुत दिनों से लौटे ? मुझे बताओ-क्या बाहुबली के कुशलक्षेम है-कल्याण है ?' ६७. इति राज्ञा स्वयं पृष्टो , नत्वा सप्रीति सोऽब्रवीत् । __ स्वामिसंभाषिता भृत्या , गच्छन्ति हि परां मुदम् ॥ महाराज भरत के स्वयं यह पूछने पर वह दूत नत होकर प्रेमभरी वाणी में बोला। क्योंकि स्वामी द्वारा प्रिय संबोधन से संबोधित होने पर सेवक परम आनन्दित हो जाते हैं। ६. स्नेहो मयि विधीयेत , तदल्पा अपि वासराः। ___ बभूवुर्भूप ! भूयांस: , क्षणं स्नेहे हि वर्षति ॥ 'राजन् ! आपका मेरे प्रति स्नेह है, इसलिए ये थोड़े से दिन भी अधिक हो गए। क्योंकि स्नेह में क्षण भी वर्ष के बराबर हो जाता है।' ६६. शङ्कमानो यमो यस्मान् , नाकाले हन्ति जीवितम्। नृणां कि पृच्छ्यते तस्य , कुशलं कुशलामधीः !? . 'हे कुशल सूक्ष्म बुद्धिवाले ! यमराज भी जिनसे सशंकित होकर अकाल में प्राणियों का जीवन हरण नहीं करता, उन बाहुबली की आप क्या कुशल-पृच्छा करते हैं ? १००. मानमातङ्गमारूढः , केन प्रभ्रश्यते हठात् । सोयं बाहुबलिर्वीरो , वीरमानी जगत्त्रये ॥ 'वे वीर बाहुबली अपने - आपको तीनों लोकों में परम वीर मानते हैं। वे अहंकार के हस्ती पर आरूढ हैं। उनको अहंकार के हाथी से कौन बलात् उतार सकता है ? १. वर्षति-वर्ष इवाचरति। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः १०१. देव ! तस्य मदोद्धृतरजो नोच्चिक्षिपे मनाक् । ___ मम व्यक्तोक्तिवात्याभिः', पुजीभवदिवाभितः॥ देव ! बाहुबली के मद से प्रकंपित रजें मेरी स्पष्ट उक्तियों के वातूल से किञ्चित् भी ऊपर नहीं उड़ीं, किन्तु चारों ओर पुजीभूत हो गईं। १०२. पयोधिरिव कल्लौलस्तेजोभिरिव भानुमान् । दुःप्रधर्षो भटैरेष , केन जेयो रणाजिरे ॥ जैसे कल्लोलों के द्वारा समुद्र और तेज के द्वारा सूर्य दुष्प्रधर्ष होता है, वैसे ही बाहुबली भी सुभटों द्वारा दुष्प्रधर्ष हैं । संग्राम में उन्हें कौन जीत सकता है ? १०३. कृशानुः शीततां याति , वेगं त्यजति चानिलः । सकम्पः स्यात् सुवर्णादिर्जलवेधूलिरुद्भवेत् ॥ १०४. परं देव ! तव भ्राता , त्वदाज्ञां न दधाति च । नास्य चक्रेन्द्रचक्राद्यातङ्कस्ताटङ्कति श्रुतौ ॥ -युग्मम् । अग्नि शीतल हो जाए, वायु अपना वेग छोड़ दे, मेरु प्रकंपित हो जाए और समुद्र की धूली बाहर निकल आए, फिर भी देव ! आपके भाई आपकी आज्ञा धारण नहीं करेंगे। उनके कानों में चक्रवर्ती और चक्र का आतंक कुंडल का रूप नहीं लेगा। १०५. दूतत्वात् त्वमवध्योसीत्युक्त्वाहं मोचितो बहिः । किंकरैः कुलभोगीव' , तेन दुर्दान्ततेजसा । 'तुम दूत हो, इसलिए अवध्य हो'-ऐसा कहकर दुर्दान्त, तेजस्वी बाहुबली ने मुझे अपने सेवकों द्वारा बाहर निकाल दिया, जैसे कि कोई कुल-सर्प को पकड़ कर बाहर छोड़ देता है। १०६. षट्खण्डाधिपतिरयं तदीयवाचा, क्रुद्धोऽपि प्रसभमुवाच नोग्रवाचम् । अम्भोधिर्जलदजलैः किमुत्तरङ्गः ? शीतांशुः किमवति दाहमुष्णकाले ? १. वात्या-तूफान (वातूलवात्ये वातानां-अभि० ६।५७) २. ताटकति–ताटंक:-कुण्डलम्, तस्य इव आचरति इति ताटंकति । ३. कुलभोगी—कुलसर्प। .. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् छह खण्डों के स्वामी भरत दूत की बातों से अत्यन्त ऋद्ध होने पर भी कुछ नहीं बोले। क्या समुद्र मेघ के पानी से कभी उछलने लगता है ? क्या चन्द्रमा ग्रीष्म ऋतु में भी कभी दाह उत्पन्न करने वाला होता है ? १०७. सत्कृत्य रत्नकनकाभरणप्रदान क्यिावकाशविदुरं विससर्ज दूतम् । पुण्योदयाढ्यहृदयः सदयः क्षितीशो, नो तादृशां हि विनिषेवणमत्र वन्ध्यम् ॥ अपने पुण्य के उदय से परिपूर्ण हृदयवाले और सद्भाग्य के धनी महाराज भरत ने रत्न, कनक, आभूषण आदि देकर वाक्पटु दूत को ससम्मान विसर्जित किया। क्योंकि चक्रवर्ती जैसे महान व्यक्तियों की सेवा कभी निरर्थक नहीं होती। -इति दूतप्रत्यागमो नाम तृतीयः सर्गः १. वाक्यावकाशविदुरं-वाक्यस्य वचनस्य योऽवकाशोऽवगाहनं तत्र विदुरं पंडितं । २. सदयः-सद्--शोभनं अय:-भाग्य--सदय:--सद्भाग्यः (अभि० ६।१५ अयस्तु तच्छुभम् ।) ३. तादृशां-चक्रवर्तिसदृशानाम् । ४. विनिषेवणं—पयुपासनम् । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाद्य श्लोक परिमाण छन्द लक्षण - चौथा सर्ग दूत का भरत के समक्ष प्राकर सारी बात बताना तथा सुषेण सेनापति द्वारा भरत को उत्साहवर्धक वचन कहना । ७६ वियोगिनी । विषमे ससजा गुरुः समे, सभरा लोऽथ गुरुवियोगिनी । इसके पहले और तीसरे चरण में दस-दस अक्षर और दूसरे तथा चौथे चरण में ग्यारह-ग्यारह अक्षर होते हैं । पहले तथा तीसरे चरण में - ( दो सगण, एक जगण तथा एक गुरु – II, II, ISI, 5) दूसरे तथा चौथे चरण में - (एक सगण, एक भगण, एक रगण, एक लघु और एक गुरु — 115, 511, 515, 1, 5 ) । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु दूत की बातें सुन महाराज भरत का मन उद्विग्न हो गया। बचपन के संस्मरण उनकी आंखों के आगे नाचने लगे । उनको बाहुबली का भुजपराक्रम याद आ गया । वे विचारों में मग्न हो गए । अब भाई के साथ युद्ध करने के अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं रहा। युद्ध की बात से वे बौखला उठे। एक ओर अपने चक्रवर्तित्व का अहं तो दूसरी ओर अपने ही बंधु की उद्दण्डता । एक ओर न्याय-नीति तो दूसरी ओर भ्रातृत्व । वे दोनों झूलों के बीच झलने लगे। कभी मन कहता-भाई का घात कर चक्रवर्ती बनने में लाभ ही क्या है ? कभी मन कहता-चाहे कोई हो जो उद्दण्डता करता है, अविनय करता है, अहं रखता है तो उसे दंड मिलना ही चाहिए। इतने में ही सेनापति सुषेण ने आकर महाराज भरत को कर्तव्य के प्रति सजग किया और विविध उक्तियों से यह बात प्रसाधित की कि युद्ध ही राजाओं की श्रेष्ठ मर्यादा है। युद्ध ही संपदाओं का स्थान है। सेनापति की बात सुनकर भरत का मन युद्ध के लिए उत्साहित हो गया। । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः अथ दूतगिरा ज्वलन्नपि क्षितिराजः क्षपितारिविग्रहम् । वचनं प्रणयाञ्चितं दघे, वदनेम्भोद इवाम्बु विद्युता ॥ महाराज भरत दूत की बातें सुनकर जल उठे। फिर भी उन्होंने अपने मुंह से शत्रु के विग्रह को नष्ट करने वाले प्रेमपूर्ण वचन कहे, जैसे विद्युत् से जलता हुआ भी बादल शीतल बूंदें बरसाता है । अहमेव गतो विलोलतां यदमुं प्रजिघाय' बान्धवं ४. , पवनोद्धत इवावनीरुहः । प्रति दौत्याय न हीदृशा मताः ॥ 1 , महाराज. भरत ने मन ही मन सोचा कि इस कार्य में दोष मेरा ही है, क्योंकि पवन से कंपित वृक्ष की तरह चपल होकर स्वयं मैंने ही इस दूत को अपने भाई के पास भेजा था। ऐसे निकटवर्ती प्रिय जनों के पास दूत नहीं भेजे जाते ( वहाँ तो स्वयं मुझे ही जाना चाहिए था ) । वितनोमि यदीह विग्रहं, बलिना सार्धमहं स्वबन्धुना । उपमां जलवासिनस्तिमेरहमेतास्मि तदा जनोक्तिभिः ॥ यदि मैं अपने शक्तिशाली भाई के साथ संग्राम करता हूँ तो जनता मुझे जल में रहने - वाली मछली की उपमा से उपमित करेगी । निहतायन भूभूमिके', दिविषच्छेवलिनीरयेऽपि यः । न हि वेतसवृत्तिमाश्रितः किमहं तस्य पुरोभिमानिनः ॥ - गंगापूरे । , २. निहता १. प्रजिघाय — हिंत् — गतिवृद्ध्योः धातोः णबादिप्रत्ययस्य उत्तमवचनस्य एकवचनम् । निहताः पातिताः अयनभूभृतो मार्गपर्वता याभिरेतादृशा ऊर्मिकाः कल्लोला यत्रासौ, तस्मिन् । ३. दिविष Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् स्वगंगा की वेगवती ऊर्मियाँ मार्ग में आने वाले पर्वतों को भी उखाड़ देती हैं । उसके सामने भी जो बेंत की भांति हिलोरें नहीं खाता, किन्तु अडिग रहता है, उसे स्वाभिमान बाहुबली के समक्ष मेरी गणना ही क्या है ? ५. मैं एक बार अपनी दृढमुष्टि से बाहुबली पर प्रहार किया था । मुझे भय लगा कि कहीं वह मेरे पर भी प्रहार न करदे, इसलिए मैं डरकर पिताश्री के पास चला गया । उसने मुझे पीटना चाहा, किन्तु पिताश्री ने उसे यह कहकर रोक दिया कि 'भरत तेरा बड़ा भाई है ।' , निहताद् दृढमुष्टिना मया सभयोस्मादहमन्तिकं पितुः । गतवान् किल तेऽग्रजस्तुदन्निति तातेन निषिद्ध एष माम् ॥ ७. · श्रुतयापि रणस्य वार्तया मनसोत्साहमऽयं दधौतराम्- । कथमस्य दधाति नाधुना भुजयोरुत्सवमागतो रणः ॥ 1 युद्ध की बात सुनते ही उसका मन उत्साह से भर जाता था। तो अभी जो साक्षात् युद्ध प्रस्तुत हो रहा है, उसको उसकी भुजाएँ उत्सव क्यों नहीं मानेंगी ? " E. कठिनो भटिमाधिकत्वतो', युधि कामोस्य तथा प्रवर्तते । नो तथाऽस्य च राज्यसंग्रहे समरः शौर्यवतां हि वल्लभः ॥ " उत्कट योद्धा होने के कारण इस हठी बाहुबली की जैसी कठोर कामना युद्ध के प्रति है, वैसी राज्य-संग्रह में नहीं है । क्योंकि पराक्रमी के लिए संग्राम प्रिय होता है । ८. यदि तद्बलमस्य दो हमशङ्केपि यतो विशेषतः । युधि नास्य विभुस्तदासितुं पुरतः कोपि विभावसोरिव ॥ " जिससे मैं विशेषरूप से डरता था वही शैशवकालीन बल यदि उसकी दोनों भुजाओं में है तो युद्ध में उसके सामने कोई भी नहीं ठहर सकेगा, जैसे अग्नि के सामने कोई भी नहीं ठहर पाता । बहुधास्य बलं हि शैशवे, वसुवत् स्वर्णकृता परीक्षितम् । परीक्षितमेव पूर्वतो विदुषा वस्त्वनुतापकृद् भवेत् ॥ १. भटिमाधिकत्वतो - वीरतातिशयत्वतः । २. विभावसोरिव - अग्नेरिव । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ चतुर्थः सर्गः मैंने बचपन में अनेक बार उसकी शक्ति को परीक्षा की है, जैसे स्वर्णकार सोने की परीक्षा करता है । क्योंकि विद्वान् मनुष्य के लिए पहले से अपरीक्षित वस्तु अनुताप देने वाली होती है। १०. इतरस्य जये ममेदशो , न विचारः खलु बान्धवस्त्वयम् । जलदो हि कृशानुशान्तये , प्रभविष्णुः शमयेन्न विधुतम् ॥ दूसरों पर विजय प्राप्त करने के लिए मेरे मन में ऐसा विचार नहीं आता। किन्तु यह तो मेरा भाई है, (अतः ऐसा सोचना पड़ रहा है)। मेघ अग्नि को शान्त करने में समर्थ हो सकता है किन्तु वह विद्युत् को शान्त नहीं कर सकता। ११. इतरेऽपि मदीयबान्धवा , यदनापृच्छय ययुस्तमां च माम् । मम तद्विरहस्त्वरुन्तुदः' , करिणोऽशान्तरुचे रिवाङ्कुशः ॥ मेरे दूसरे सभी भाई मुझे बिना पूछे ही चले गए-भगवान के पास प्रवजित हो गए । उनका विरह मेरे लिए मर्मघाती सिद्ध हो रहा है, जैसे मदोन्मत्त हाथी के लिए अंकुश मर्मवेदी होता है। १२. अयमेय समस्तबन्धुषु , स्थितिमा नेस्तमोऽवशिष्यते । समसंहृततारकावलेस्तिमिरारेरिव भार्गवोऽहनि ॥ सभी भाइयों में यह मर्यादावान् बाहुबली हो शेष रहा है, जैसे समस्त तारकों को समेटने वाले सूर्य (अन्धकार के शत्रु) के सामने दिन में केवल शुक्र का तारा शेष रहता है। .. १३. न निधिर्न मणिर्न कुञ्जरो , न च सैन्याधिपतिर्न भूमिराट् । दुरवार्यतमैकबान्धवी', मम तृष्णा न हि येन शाम्यति ।। मेरे पास निधि, मणि, हाथी, सेनापति और राजे--सब कुछ हैं, किन्तु एकमात्र १. अरुंतुद:-मर्मघाती (स्यान्मर्मस्पृगरुन्तुद:-अभि० ३।१६५) २. अशान्तरुचे:-हस्तिपक्षे-मदोन्मत्तस्य, मम पक्षे-अशमिताभिलाषस्य (पंजिका-पत्र १६ ।) ३. स्थितिमान-मर्यादावान्। ४. भार्गव:-शुक्रग्रह (उशना भार्गवः कवि:-अभि०२।३३) ५. यहां 'दुरवार्यतमा' के स्थान पर 'दुर्वार्यतमा' ऐसा होना चाहिए। एकबान्धवी-एक बन्ध सम्बन्धिनी। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ बन्धु बाहुबली सम्बन्धी मेरी इस प्रगाढ़ प्यास को वे शान्त नहीं कर सकते । १४. १५. मैं भी बाहुबली से बहुत दूर रहा और वह भी मेरे से दूर रहा। पिताश्री ने हमें केवल शरीर से ही पृथक् किया है, हृदय से नहीं । भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १६. श्रहमप्यभजं दविष्ठतां, किल तेनापि विदूरतः स्थितम् । वपुषैव पृथक्कृतावुभाविति तातेन हवा च नौ न हि ॥ हम दोनों के बीच समुद्र, विषम पर्वत और जल से परिपूर्ण नदी भले ही हो किन्तु चुगलखोर हमारे बीच कभी न आए । १७. भवतात् तटिनीश्वरोन्तरा, विषमोऽस्तु क्षितिभूच्चयोन्तरा । सरिवस्तु जलाधिकान्तरा, पिशुनो माऽस्तु किलान्तरावयोः ॥ समुद्र आदि के बीच में आ जाने पर परस्पर का प्रेम क्षीण नहीं होता, किन्तु चुगलखोर के बीच में आने पर वह क्षीण हो जाता है । अतः प्र ेम को क्षीण करने की दिशा में चुगलखोर समुद्र से बड़ा है । १८. " प्रणयस्तटिनीश्वरादिकैः पतितैरन्तरयं न हीयते । पिशुनेन विहीयते' क्षणादधिकः सिन्धुवसद्धि मत्सरी ॥ , पचीयत एव संततं वयसा सार्धमिहासुमदेवपुः । हृदयानिलब्धसंभवः, प्रणयः सज्जनयोर्न हि क्वचित् ॥ प्राणियों का शरीर अवस्था के साथ-साथ निरन्तर क्षीण होता जाता है किन्तु सज्जन व्यक्तियों का प्रेम, जो हृदय की भूमि में अंकुरित होता है, कभी क्षीण नहीं होता । द्विजराजनदीयोस्तुलां हरिणौवा दधतोरवर्णदी ।] 1 लभते क इहाऽयशोपि तौ, धरतो नोज्झत एव तो परम् ॥ अवर्णदायी हरिण, वडवानल को धारण करनेवाले चन्द्रमा और समुद्र की तुलना १. विहीयते - न्यूनीक्रियते । २. प्रपचीयते - इत्यन कर्मकर्तृ ' त्वमवसातव्यम् । ३. द्विजराज : - चन्द्रमा । नदीशः - समुद्र । ४. प्रौर्वः - वडवानल ( श्रर्वः संवर्त्तकोऽब्ध्यग्निर्वाडवो - प्रभि ० ४।१६६) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५. चतुर्थः सर्गः कौन कर सकता है ? वे हरिण और वडवानल के कारण अयश को प्राप्त होते हैं, फिर भी उन्हें नहीं छोड़ते । १६. जो व्यक्ति स्वजनों के गुणहीन होने पर भी उन्हें नहीं छोड़ता, वही गम्भीर है । उसमें ही सारी सम्पदाएँ निवास करती हैं । उथले में अमृत नहीं होता । २०. २१. J अगुणानपि नोति स्वकान् स हि गम्भीरिमसंश्रितः पुमान् । निवसन्ति तदत्र संपदो, ह्यमृतं तिष्ठति नागभीरके ॥ जो राजा स्वयं अपने निजी व्यक्ति को मारकर पश्चात्ताप करता है, वह निन्दा को प्राप्त होता है । जो नदी का प्रवाह तटवर्ती वृक्षों को धराशायी कर देता है, क्या वह तट को प्रकाशित नहीं करता ? २२. स्वयमेव निजं निहत्य योऽनुशयीतैति स निन्दनीयताम् । तटशाखिनिपातनाद् रयः सरितः किं न तटं प्रकाशयेत् ? , २३. स विभुः किमिहावनेर्मतः स्वपरौ वेत्ति हिताहितौ न यः ॥ स्वपरानवबोधहेतुतो न हुताशं किल कोपि संस्पृशेत् ॥ , इस भूमंडल पर क्या वह स्वामी के रूप में मान्य हो सकता है जो 'स्व' और 'पर' तथा 'हित' और 'अहित' को नहीं जानता ? अग्नि में 'स्व' और 'पर' का अवबोध नहीं होता, इसलिए उसका कोई भी स्पर्श नहीं करता, नहीं छूता । , तरसैव न केवलं विभोर्मतिमत्ताधिकवृद्धिमश्नुते । तरसोपि मतिः प्रवर्धते, तदुदीर्णोत्र धियैव धोधनः ॥ स्वामी की मतिमत्ता केवल बल से ही अधिक वृद्धि को प्राप्त नहीं होती । बुद्धि शक्ति से बड़ी है । बुद्धि के कारण ही अमात्य 'धीधन' कहलाता है । कुलकेतुरिहोच्यते स यः स्वकुलं रक्षति सर्वथापदः । 1 प्रियबन्धुभि हि यूपोऽधिकशक्तिर्हरिरेक एव यत् ॥ वही पुरुष कुल-केतु (कुल का मुखिया) कहलाता है जो आपदाओं से अपने कुल की सर्वथा रक्षा करता है । हाथी प्रियबन्धु (अपने बन्धुत्रों में प्रिय) होने के कारण यूथपति होता है। सिंह उससे अधिक शक्तिशाली होता है परन्तु प्रियबन्धु नहीं होने के कारण वह अकेला रहता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २४. अविमृश्य करोति यः क्रियां , बहुधा सोऽनुशयीत' तत्फले । युधि धन्वनि नामिते बलात् , किल भग्ने विदधीत कि बली ? जो बिना सोचे-समझे प्रवृत्ति करता है, उसे परिणाम काल में (फल के समय) बहुत बार पश्चात्ताप करना पड़ता है । बलशाली योद्धा का धनुष्य यदि हठपूर्वक तानने पर टूट जाए तो भला वह युद्ध में क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं। २५. अहमेव करोमि दुर्नयं , यदि तहि प्रकरोति को नयम ।। शुचये सुरवाहिनी'जलं , जगतामस्ति तदेव साम्प्रतम् ॥ यदि मैं ही अन्याय कर रहा हूँ तो दूसरा कौन न्याय करेगा? लोगों के लिए गंगा का जल शुद्धि के लिए है। यही उसके लिए उचित है। २६. नृपनीतिलताऽधिरोपिता, जगवावाल पदे मयाद्य सा। बलिबन्धुवधैकपशु ना, कथमुच्छिद्यत एव मूलतः ॥ मैंने जगत् की क्यारी में राजा की नीति रूपी लता का आरोपण किया था। किन्तु आज मैं बलशाली भ्रातृघातक पशु से उसे जड़ से कैसे उखाड़ दूं ? २७. सुलमा हरिणीदृशः श्रियः , खलु राज्यस्थितयोप्यदुर्लभाः । न हि बन्धुरवाप्यते पुनर्विधुरे' तिष्ठति यो वृतीयितुम् ॥ लमाः। इस संसार में सुन्दर स्त्रियाँ और ऐश्वर्य सुलभ है। राज्य की स्थिति भी दुर्लभ नहीं है। किन्तु वैसा भाई मिलना कठिन है जो आपत्-काल में अपने बन्धु को घेरकर बैठ सके। २८. न हि तातकुलं कलक्यते , विशदं बन्धुवधेन सांप्रतम् । . कुरुते निलयं सुधामयं , किल को धूम्रभरेण कश्मलम् ? १. अनुशेते—पश्चात्तपति। २. सुरवाहिनी-गंगा नदी ।। ३. साम्प्रतं-उचितं । ४. आवालं--पौधे के चारों ओर पानी ठहरने के लिए बनाया गया गढा-(स्यादालवालमावाल____ मावाप: स्थानकं च सः-अभि० ४।१६१) ५. विधुरे--कष्टे । ६. वृतीयितुम्--वृतिरिवाचरितुम् । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः मैं भाई का वध कर पिता के पवित्र कुल को कलंकित नहीं करूंगा | कौन व्यक्ति अपने सुधा धवलित घर को धुएं के समूह से मलिन करना चाहेगा ? २६. अजितेऽपि जितेऽपि बान्धवे मम वाच्यं स्फुरतीति भूतले ।! कलिताखिलभूमिभृन्नयो, भरतेशोऽकृत बन्धुविग्रहम् ॥ ; भाई को न जीतने पर या जीत लेने पर भी सारे संसार में मेरी निन्दा होगी कि समस्त राजाओं की नीति को जानने वाले भारत के अधिपति भरत ने भाई के साथ संग्राम किया । ३०. इति वादिन एव भूविभोः, समदोऽभ्येत्य सुषेण सैन्यराट् । करचुम्बित भालपट्टिकः, पुरतः शिष्य इवास्त सद्गुरोः ॥ महाराज भरत इस प्रकार बोल ही रहे थे कि सुप्रसन्न सेनापति सुषेण वहाँ आया और हाथ जोड़कर भरत के सामने बैठ गया जैसे सद्गुरु के आगे शिष्य बैठता है । ३१. मगध' ध्वनि मिश्रमन्मथध्वज नादः प्रथमं निषिद्ध्यताम् । चमराञ्चितवारवर्णिनीकरयुक्कङ्कणसंरवोद्धतः ॥ ३२. ७ महाराज ! पहले आप उस नाद को बंद करायें जो कि मंगल पाठक व्यक्तियों की ध्वनि से मिश्रित होकर बाजे से निकल रहा है और जो चंवर डुलाने वाली वेश्याओं के हाथों के कंकण से उठनेवाली ध्वनि से उद्धत हो रहा है । श्रथ भारतवासव ! श्रुती, गिरि' मे मन्त्ररसैकसद्द्मनि । विनिधेहि गिरिः स्वकन्यके, इव सारस्वततीरसंमुखे ॥ 'भारतेश ! जैसे-पर्वत अपनी कन्याओं ( गंगा-यमुना ) को समुद्र के तीर के अभिमुख भेजता है, वैसे ही मैं मेरी मनन योग्य वाणी आपके कानों के तट पर प्रेषित कर रहा हूँ । आप उस पर कान दें - ध्यान से सुनें ।' रसैकवसतौ । ६. विनिधेहि — स्थापय । १. मगध: - मंगल - पाठक (मांगधो मगधः - अभि० ३।४५६) २. मन्मथध्वज: - बाजा (वाद्यं वादित्र मातोद्यं तूर्य तूरं स्मरध्वजः - अभि० २।२०० ) ३. श्रुती - कर्णौ । ४. गिरि – भारत्याम् (वाणी में) ५. मंत्ररसैकसद्मनि – यह गिरि का विशेषण है । कि विशिष्टायां गिरि-मंत्र .. - आलोचन... Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "७८ .... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३३. त्वयि दिग्विजयोद्यते प्रभो!, विदधे कश्चन् चापचापलम् । विनिवेदयितुं बलं तवेत्ययमारक्षति नः स्वसेविनः॥ “प्रभो ! जब आप दिग्विजय के लिए उद्यत हुए थे तब कुछ राजाओं ने अपना बल आपको ज्ञापित करने के लिए धनुष्य की चपलता की थी। उन्होंने सोचा कि यह चक्रवर्ती हमें “अपना सेवक मान कर हमारी रक्षा करेगा। ३४. प्रतिपक्षवनदुमावलीपरिदाहाय दवायितं तदा। ... भवता पबनायितं मया, तदनुस्थातुमलं न कोप्यभूत् ॥ "प्रभो । शत्रुरूपी वन-वृक्षावली को दहन करने के लिए जब आप दवाग्नि के समान हुए तब मैंने उसको प्रज्वलित करने के लिए पवन का काम किया था। उसके बाद कोई भी शत्रु वहां ठहर नहीं सका। ३५. रिपुवंशकृते तवाग्रतोऽहमभूवं परशु पोत्तम !।। ___ समुवेष्यत एव किं रवेररुणोऽग्ने न भवेत् तमोहते ? "नपोत्तम ! शत्रुओं के वंश को नष्ट करने के लिए आपके आगे मैं परशु बना रहा। • क्या उदीयमान सूर्य के आगे उसका सारथी अरुण अन्धकार नष्ट नहीं करता ? ३६. प्रभवं जितकाशि'शेखरस्तवतेजोभिरहं पदे पदे । तरणेरिव दीप्तिभिशं , ज्वलति ध्वान्तहते धनञ्जयः ॥ 'प्रभो ! मैं आपके तेज के प्रभाव से स्थान-स्थान पर विजयी-शेखर होता रहा है, जैसे सूर्य की रश्मियों से अग्नि अंधकार-हरण के लिए अधिक प्रज्वलित होती है। ३७. विरचय्य भवन्तमुच्चकैः , समरं द्वादशहायनावधिम् । विनमिनमिना सहाऽनमद् , रिपवो हि प्रबला नताः श्रिये ॥ प्रभो ! आपने बारह वर्षों तक नमि और विनमि के साथ घोर संग्राम कर उन्हें नत कर दिया, जीत लिया । देव ! प्रबल शत्रुओं को नमाना राजाओं की शोभा के लिए होता है। १. दवायितं-दव इव आचरितम् । २. पवनायितं-वायुवदाचरितम् । ३. जितकाशी युद्ध में विजयी (जितावहो जितकाशी-अभि० ३।४७०) ४. धनञ्जयः-अग्नि (धनञ्जयो हव्यहविर्हताशन:-अभि० ४।१६३) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७६ 'चतुर्थः सर्गः ३८. विहिते मनसि त्वयायितुं' , स दरीद्वारकपाटसंपुटम् । उदघाटयदुनतेजसा , त्रिदशो' यश्चलयेद् भुवं भ्र वा ॥ देव ! वहां आकर आपने जैसे ही वैताढ्य गिरि की कन्दरा के द्वारों को खोलने का संकल्प किया, वैसे ही उस स्थान का अधिष्ठाता देव, जो अपनी परम तेजस्वी भ्रूभंगिमा से सारे लोक को प्रकंपित कर देता है , उपस्थित हुआ और उसने कन्दरा के द्वार के कपाट खोल डाले। ३६. निचखान तवाभिधाङ्कितान् , विजयस्तम्भभरानहं विभो !। सुरशैवलिनीतटान्तरेष्विव कोलान् भवदीयकोत्तिगोः ॥ प्रभो ! मैंने गंगानदी के तंटों के बीच आपके नामांकित विजयस्तम्भ स्थापित किए। वे आपको कीर्तिरूपी गाय के लिए खूटे का काम कर रहे हैं । ४०. निधयोऽपि तवैव दृश्यतां , गतवन्तः सुकृतरिवाहृताः । सुरसिन्धुमनोरथा इव प्रचितश्रीभरभासुरान्तराः ॥ प्रभो ! उपचित लक्ष्मी के समूह से अन्तराल तक प्रकाशित होनेवाली निधियां तो आपको ही दृष्टिगोचर हुईं । मानो कि वे आपके पुण्यों से खींची हुई आई हों अथवा गंगा के मनोरथ आप तक पहुंचे हों। ४१. इति भारतवर्षपर्षदि , प्रभुतामाप्तवतः प्रभोऽधुना। अभवत् तंव काचिदूनता , धुसदां पत्युरिवाधिकश्रियः ॥ प्रभो ! इस समय आप भरतक्षेत्र की परिषद् में प्रभुता प्राप्त और इन्द्र की भांति अधिक लक्ष्मी वाले हैं । आपके कोई कमी नहीं है। ४२. न सुरो न च किन्नरो नरो, न च विद्याधरकुञ्जरोऽपि न । तव येन निदेशनीरज", शिरसाऽधार्यत नो जगत्त्रये ॥ १. आयितुम्-आगन्तुम् । २. त्रिदश:-देव। ३. निचखान-अध्यारोपयम् । अत्र णबादे: उत्तमपुरुषस्य एकवचनम् । ४. प्रचित.........--प्रचितः-पुष्टः, यः श्रीभरो-लक्ष्म्यातिशयस्तेन भासुरं-दीप्रमन्तरा___ मध्यं एषाम्-ते निधयः । ५. निदेशनीरज-आज्ञाकमलम् । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् प्रभो ! तीनों लोक में ऐसा कोई देव, किन्नर, मनुष्य या विद्याधरेन्द्र नहीं है जिसने आपके आदेशरूपी कमल को शिर पर धारण न किया हो । ४३. तदियं तवका सरस्वती , बलवान् बाहुबलिययोच्यते । - इतराद्रिमहोन्नतत्त्वतः , किमु नीचोत्र सुपर्वपर्वतः ? आपकी यह क्या वाणी है कि आप बाहुबली को बलवान् बता रहे हैं। दूसरे पर्वतों की बहुत ऊंचाई होने पर भी क्या मेरु पर्वत नीचा हो जाता है ?. . ४४. विजितस्तव बान्धवत्वतो , न हि केनापि महीभुजा त्वयम् । कलया किल' सूर्यदत्तयाऽधिकदीप्तिर्भवतीह चन्द्रमाः ॥ बाहबली आपका भाई है, इसलिए इसको किसी राजा ने नहीं जीता । यह विश्रुत है कि सूर्य द्वारा प्रदत्त कला से चन्द्रमा अधिक दीप्तिवाला होता है। ४५ अनुजस्तव बान्धवो बली , यदि सीमन्तकभरेरिव। विभवत्यथ कि न तमु सौ, चतुराशान्तजयी भवानिव ॥ आपका छोटा भाई बाहुबली इन्द्र के छोटे भाई विष्णु की तरह यदि बलशाली है तो क्या वह चारों दिशाओं को जीतने में आपकी भाँति समर्थ नहीं हो जाता ? ४६. प्रथमं भवदत्युपेक्षणाद् , वृषकेतोस्तनयत्वतः पुनः । बलवानिति सर्वथा प्रथाऽभवदस्य स्मयवानयं ततः ॥ प्रभो ! पहली बात यह है कि आपकी अति उपेक्षा होने तथा दूसरे में ऋषभ का पुत्र होने के कारण 'बाहुबली बलवान् है'—सर्वत्र ऐसी प्रसिद्धि हो गई है। इसलिए वह अहंकारी हो गया है। ४७. अयमीश्वर एकमण्डले , भरते त्वं पतिरस्तशात्रवः । बलरिक्तबलातिरिक्तयोरिदमेवास्ति सदन्तरं द्वयोः ॥ बाहुबली एक मंडल का राजा है और समस्त शत्रुओं को अस्त करने वाले आप समूचे १. किल श्रूयते । २. अर्थ की दृष्टि से यहाँ 'स्यमन्तकभृत्' होना चाहिए । 'स्यमन्तक"भगवान विष्णुके हाथ में रही मणि का नाम हैं । (अभि० २।१३७--मणिः स्यमन्तको हस्ते) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ८१ भूमंडल के स्वामी हैं। वह सेना से रिक्त है और आपके पास अतिरिक्त सेना है (वह बल से रिक्त है और आप अतिरिक्त बल वाले हैं) यही तो आप दोनों में स्पष्ट अन्तर है। ४८. अथवार्षभितेजसा भरे , बलवत्ता किमु चित्रकारिणी। जलधेर्लहरीचयोच्चताविषये कोपि न विस्मयो महान् ॥ अथवा ऋषभ के कुल में उत्पन्न व्यक्तियों के तेजस्वी जीवन में बलवत्ता हो तो वह आश्चर्य ही क्या है ? समुद्र की लहरें यदि ऊँची होती हैं तो उसमें कोई महान् विस्मय नहीं होता। विनिवेश्य विनिजे पदे , बलिनं त्वां परिमाव्यं नाभिसः । व्रतमाददिवांस्ततोमवानिह सौभ्रात्रमलूलुपन्न हि॥ नाभि के पुत्र स्वामी ऋषभ ने आपको बलशाली जाना इसलिए अपने पद पर पापको स्थापित कर वे प्रवजित हो गए। इसीलिए आपने बन्धुता का लोप नहीं किया। ५०. प्रणयात् त्वमजूहवस्तरी', निजबन्धुं न स पागतः स्वयम् । ___ न च चारपुरोभिमानवानवुनिन्येऽनुनयो हि नेदृशाम् ॥ प्रेम के कारण ही आपने अपने भाई को बुलाया। वे स्वयं नहीं पाए । वे इतने अभिमानी हैं कि दूत के समक्ष भी उन्होंने अपना अनुनय नहीं दिखाया। ऐसे अहंकारी व्यक्तियों का कैसा विनय ? ५१. प्रणयस्त्वयि नाभिभूपसूजननाकाशदिनेश! यादृशः । न हि तादृश एव बान्धवे , धृतये हि प्रणयो द्विपक्षतः ॥ . हे ऋषभ वंश रूपी आकाश के सूर्य ! आपमें जैसा प्रेम है वैसा प्रेम आपके भाई में नहीं हैं । दोनों ओर से होने वाला प्रेम ही सुख के लिए होता है। ५२. प्रणयामृतवीचिसञ्चयं , स्मयरेणुहूं दयस्थलीभवा । किल कोपसमीरणोत्थिता , कुरुते म्लानिमपङ्किल' क्षणात् ।। १. अजूहवस्तराम्--प्राकारयामासिथ । २. धृतये--सुखाय। ३. म्लानिमपङ्किलं—मालिन्यकर्दमाढ्यम् । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् हृदय से उठे हुए अहंकार के रजःकण कोप रूपी पवन से वीजित होकर प्रेम सुधा के वीचि-संचय को क्षण में ही मलिन कीचड़ से भर देते हैं । ५३. वसुधेयमपीहते पति , न हि बन्धुप्रणयादिविह्वलम् । प्रणयीह मदीहकः कथं , त्वितरत्रेति तदीयतर्कणात् ॥ यह पृथ्वी भी भाई के प्रेम से विह्वल हुए व्यक्ति को स्वामी के रूप में नहीं चाहती। क्योंकि वह यह तर्क उपस्थित करती है कि जो दूसरे बन्धु आदि जनों में अनुरक्त है, वह मेरा प्रणयी कैसे हो सकता है ? ५४. प्रणयो यदुपाधिमत्तया , परिहीयेत दिने दिनेऽधिकम् । अमृताम्बुनिधेरपांभरं , किमु न श्यामयते मषीचय: ? उपाधिमत्ता (छलना) से प्रेम प्रतिदिन क्षीण होता चला जाता है । क्या अमृत के समुद्र क पानी को स्याही का ढेर श्यामल नहीं कर देता ? ५५. नृपतेः स्वजनाश्च बान्धवा , बहवो नोचित एषु संस्तवः । अवमन्वत एव संस्तुता , यदधीशं जरिणं यथाऽजराः॥ राजाओं के स्वजन और बन्धु अनेक होते हैं किन्तु उनके साथ परिचय करना उचित नहीं है । क्योंकि वे परिचित होकर अपने स्वामी की अवमानना करते हैं जैसे युवक बूढ़ों की अवमानना करते हैं । ५६. अपि दुर्नयकारिणं निजं , नृपतिः प्रीतिभरान्न बाधते । प्रणये कलहो न सांप्रतं, वसुधाधीश इवाऽनयच्छलः ॥ दूसरी बात यह है कि निजी व्यक्ति यदि अन्याय भी करता है तो राजा प्रीति की अधिकता के कारण उसे रोक नहीं पाता। क्योंकि प्रेम में कलह उचित नहीं होता जैसे राजा में अनीति या छल उचित नहीं होता। . ५७. प्रणयस्य वशंवदो नृपः , स्वजनं दुर्नयिनं विवर्धयेत । निवसन्नपि विग्रहान्तरे , विकृतो व्याधिरलं गुणाय किम् ? १. ईहक:-वाञ्छकः। २. प्रीतिभरात्-स्नेहातिशयात् । ३. यथा वसुधाधीशे—पार्थिवे अनयः-छद्म न युक्तम्। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ८३ प्रेम के वशीभूत होकर. राजा यदि अन्याय पर चलने वाले अपने निजी व्यक्ति को बढावा देता है तो वह गुण के लिए नहीं होता। जैसे शरीर के भीतर रहता हुआ भी विकृत रोग क्या गुण के लिए हो सकता है ? कभी नहीं। ५८. नपतिर्न सखेति वाक्यतः , सचिवाद्या अपि बिभ्यति ध्रुवम् । पृथुलज्वलदुनतेजसो , दवधूमध्वजतो गजा इव ॥ 'राजा किसी का मित्र नहीं होता'- इस उक्ति के आधार पर सचिव आदि सभी व्यक्ति उससे सदा उसी प्रकार भय खाते हैं जिस प्रकार जंगल में विशाल पैमाने पर प्रदीप्त उग्र तेज वाली दावाग्नि से हाथी भय खाते हैं। ५६. बहवो नृपसंपदथिनो , बहवश्चापि खला भुवस्तले । न हि तेषु महीभुजा स्वयं, प्रविधेयो गतशङ्कसंस्तवः ।। इस संसार में अनेक व्यक्ति राजाओं को संपदा के अभिलाषी हैं और अनेक व्यक्ति दुर्जन हैं । राजा को स्वयं उन व्यक्तियों के साथ निःशंक होकर परिचय नहीं करना चाहिए। ६०. चकते प्रतिपक्षलक्षतो , गजयूथान्न हि केसरीव यः । .. स हि राज्यमखण्डविक्रमः, परिभुझते ह्यभयः श्रियां पदम् ॥ जो राजा लाखों शत्रुओं से भयभीत नहीं होता, वही अखंड पराक्रमी राजा राज्य का उपभोग कर सकता है। जैसे गजयूथ से नहीं डरने वाला केसरी वन-संपदा का उपभोग करता है। क्योंकि अभय ही संपदा का स्थान है। ६१. अबलोऽपि रिपुमहीभुजा , हृदये शङ्कुरिवाभिमन्यताम् । उदयन्नपि कुञ्जराशनाङ्कुरलेशो' न हि कि विहारभित् ॥ राजा को चाहिए कि वह शक्तिहीन शत्रु को भी हृदय में शल्य की भांति माने । प्रासाद में उगता हुआ पीपल के वृक्ष का अंकुर क्या सारे प्रासाद को नष्ट नहीं कर देता? १. दवधूमध्वजः-दावाग्नि । २. चकते-बिभेति । ३. कुञ्जराशन:-पीपल का वृक्ष (पिप्पलोश्वत्थः श्रीवृक्षः कुञ्जराशन:-अभि ० ४।१९७) ४. विहारभित्--प्रासादपातकः । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६२. न पृथग्जनवत् क्षितीश्वरो , दधते दैन्यभराद् दयालुताम् । सदयस्त्वयमित्युदोरणादवजानन्ति जना रयादिमम् ॥ सामान्य व्यक्तियों की भांति राजा दीनता पर दयालुता नहीं दिखाते । क्योंकि 'यह राजा तो दयालु है'.. ऐसा कहकर लोग उसकी शीघ्र ही अवहेलना करने लग जाते हैं । ६३. वसुधाधिपतेर्वचःशरा , उपलीभूय न येरुरीकृताः । मृदुता न हि तेषु सांप्रतं , घनटंकी भवतीह तन्नृपः॥ जिन व्यक्तियों ने पाषाण बनकर राजा के वचन-रूपी बाणों को नहीं झेला, उनके प्रति मृदुता उचित नहीं होती । उनके प्रति राजा घनटंकी-पाषाण को चीरने वाली छेनी की तरह हो जाए। ६४. स्वजनैर्न च बान्धवैर्न वा , न च वाहैः पवनातिपातिभिः । ___विजयेन विशिष्यते नृपो , महसेवात्र मणिमहानपि ॥ राजा अपने स्वजनों, बन्धुओं और वायु-वेग से चलनेवाले घोड़ों से विशिष्ट नहीं होता, किन्तु वह विशिष्ट होता है अपनी विजय से। जैसे लोक में महान् मणि भी अपने तेज से ही विशिष्ट होता है। ६५. विनिहत्य रणाङ्गणागतं , त्वपि बन्धुं जयमर्जयेन्नपः। कलयेद् ग्रहकान्तिसंहृतेः, किमु तेजस्विवरत्व मंशुमान् ॥ समरांगण में आए हुए व्यक्ति को, भले फिर वह अपना भाई भी हो, मारकर राजा को जय अर्जित करनी चाहिए। मैं वितर्क करता हूँ कि ग्रहों की कांति का संहरण करने के कारण ही सूर्य तेजस्विता को प्राप्त होता है। ६६. अनुनीतिमतां वरः क्वचित् , क्वचिदीर्ष्यालुरसौ क्षितीश्वरः । अनुनीतिरपेक्षयाञ्चिता , प्रतिपक्षेषु यदायतो श्रिये ॥ वह राजा कहीं अनुनय करने वालों में श्रेष्ठ तो कहीं ईर्ष्यालु (कोप-युक्त) भी बन १. पृथग्जन:--सामान्य लोग (विवर्णस्तु पृथग्जन:--अभि० ३।५६६)। २. दधते--दधङ धारणे भ्वादि: धातुः । ३. ग्रहकान्तिसंहृतेः-शशांकादिसर्वग्रहतेजःसंहरणात् । ४. किमु इति वितर्के। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः जाता है । शत्रुओं के प्रति किसी अपेक्षा विशेष से परिपूर्ण अनुनीति को बरतना भविष्य में सुख-संपदा के लिए होता है । (यदि प्रतिपक्ष से कुछ ग्राह्य है तो अनुनीति ही युक्त है)। ६७. सरुषा विनिषेधयेद् भ्र वा , स्वजनान दुर्नयकारिणो नृपः । शलभानिव कज्जलध्वजः' , स्फुरदचिःप्रथया विदूरतः ॥ राजा अन्याय पर चलने वाले अपने स्वजनों का रोषपूर्ण भकुटी से निषेध करे । जैसे प्रदीप अपनी स्फुरित अचि की ज्वाला से दूर से ही शलभों का निवारण कर देता है। ६८. अनुनीतिरपि क्षमाभृतां , सविधेरेव समीपगस्य वा। - फलसंपदिव क्षमारुहामुचिता स्वादुरसश्रियाञ्चिता ॥ राजा की अनुनीति भी पास में रहने वालों के लिए या पास में आने वालों के लिए हो फलप्रद होती है । जैसे वृक्षों की स्वादुरस से युक्त फल-संपदा पाप्र आने वाले व्यक्ति को ही प्राप्त होती है। ६९. यवि भक्तिरिहास्ति बान्धवे , समितं त्वा हरितां जयात्तदा। . न कथं स्वयमाययावयं , मिलनौत्सुक्ययुषो हि सज्जनाः ॥ यदि बाहुबली की अपने भाई भरत के प्रति भक्ति है तो जब आप चारों दिशाओं में विजय प्राप्त कर आए थे, तब वे स्वयं आपके पास क्यों नहीं आए ? क्योंकि सज्जन व्यक्ति तो मिलने के लिए उत्सुक होते हैं। ७०. अभिषेकविधौ तव त्वयं , समितासंख्यसुरासुरेश्वरे । कथमागतवान्न सांप्रतं , स्वजनानां समये हि सङ्गमः ॥ देव ! आपके अभिषेक-उत्सव में असंख्य देव, असुर और राजा उपस्थित हुए थे किन्तु वे बाहुबली क्यों नहीं आए ? क्योंकि अवसर पर ही स्वजनों का मिलन उचित होता है। ७१. अथ युत्कृषये प्रबोधितश्चरसंप्रेषणजितारवैः। प्रथमं भरतायमुद्धतो , जलदेनेव कृषीबलः कथम् ? १. कज्जलध्वजः-दीपक (प्रदीप: कज्जलध्वजः)-अभि ० ३।३५०) - २. कृषीबल:-किसान (हली कृषिककार्षको । कृषिबलोऽपि-अभि ० ३।५५४) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् महाराज भरत ! जैसे बादल कृषक को प्रबुद्ध करता है, वैसे ही दूत-संप्रेषण रूप गजित शब्दों से आपने बाहुबली को युद्ध रूपी कृषि के लिए पहले ही क्यों प्रबुद्ध कर डाला है ? ७२. अधुनास्य मनोवनान्तरेऽभिनिवेशाग्निरुदच्छलत्तराम् । तव राष्ट्रपुरद्रुमोच्चयं , परिदग्धुं किल कस्तदन्तरा? .. देव ! आज बाहुबली के मन रूपी वन में आग्रह की अग्नि अत्यधिक प्रदीप्त हो रही है। वह आपके राष्ट्र और नगर रूपी वृक्ष समूह को जलाने के लिए तत्पर है। उसके बीच में कौन आएगा? ७३. .त्यज तत्त्वममदगृहनं , कुरु युद्धाय मनो महीपते!। . कलिरेव महीभुजां स्थितिविजयश्रीवरणाय सत्तमा ॥.. देव ! आप इस प्रकार की वितर्कणा को छोड़ दें। आप युद्ध के लिए मन करें। विजयश्री का वरण करने के लिए युद्ध ही राजाओं की श्रेष्ठ मर्यादा है। ७४. रथपत्तितुरङ्गसिन्धुरक्षुरतालोद्धतरेणुभिस्त्वया।. सविता समयेऽपि नीयतेऽस्तमयं तस्य च का विचारणा ? देव ! रथों, पैदल सैनिकों, घोडों और हाथियों के खुरों से उठे हुए रजःकणों से आप दिन में भी (समय के रहते हुए भी) सूर्य को अस्तंगत कर देते हैं। तो उस बाहुबली के लिए फिर विचार ही क्या है ? ७५. नृपते ! ऽस्य जयः सुवुर्लभो , न विभाव्यो भवता रथाङ्गतः। दनुजारिमणिप्रभावतो , न हि दारिद्रपराभवः किमु ? महाराज ! चक्र से भी इस पर विजय पाना कठिन है, यह आप न सोचें । क्या इन्द्रमणि (चिन्तामणि) के प्रभाव से दारिद्र्य का नाश नही हो जाता? ७६. भवदीययशोध्वगामिनो , भवतात् संचरणं यदृच्छया । जगति प्रतिपक्षपर्वतप्रतिघाताद् हरिदन्तगाहिनः ॥ देव ! आपका यश रूपी पथिक शत्रु रूपी पर्वतों को विध्वस्त कर दिशाओं के अन्त तक १. दनुजारिमणि:-दनुजानां अरि: शत्रुः--इंद्रः, तस्य मणि:-इन्द्र मणि : चिन्तामणिः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः पहुंच चुका है। उसका जगत् में स्वेच्छापूर्वक संचरण हो । ७७. तव पार्थिव ! चक्रमुल्वणं पुरतो भावि यदा तदासितुम् । परिपन्थिगणः कथं विभुः प्रणवो' मन्त्रपुरो हि पापहृत् ॥ " ७८. , राजन् ! जब आपके आगे-आगे प्रदीप्त चक्र ( या सेना ) चलेगा तब शत्रु- समूह उसके सामने कैसे टिक पाएगा ? क्योंकि मंत्र के आगे चलने वाला ओंकार पाप को हरनेवाला होता है । ७६. इति तस्य गिरा रणोत्सव द्विगुणोत्साहविवृद्धमत्सरः । न हि किञ्चिदुवाच चक्रभृत्, श्रितमौनो हि नृपोर्थसिद्धये ॥ सेनापति की बात से भरत के रणोत्सव का उत्साह द्विगुणित हो गया, उनका क्रोध प्रचंड हो उठा । उन्होंने कुछ नहीं कहा। क्योंकि राजा कार्य की निष्पत्ति के लिए मौन ही रहता है । इति नृपतये सेनाधीशोपर्युदीर्य वचोभरं, रणरतिरसोल्लासोद्रेको द्भवत्पुलकाङ्कुरम् । श्रमदसकृत्तुष्टस्तस्मिन् विशिष्य नृपोंप्यसौ, भवति नृपतेर्मान्यः पुण्योदयेन हि सेवकः || ८७ सेनापति सुषेण चक्रवर्ती भरत को सारी बातें बार-बार निवेदित कर विरत हो गया । उसके वे वचन युद्ध-प्र ेम के स्वाद के उल्लास से ओत-प्रोत और रोमाञ्चित करनेवाले थे । महाराज भरत भी अनेक बार उसके कार्य से तुष्ट होकर उसे विशिष्ट किया था, सम्मान दिया था। क्योंकि पुण्य के उदय से ही सेवक राजा (स्वामी) के लिए मान्य होता है । इति उत्साहोद्दीपनो नाम चतुर्थः सर्गः - १. प्रणवः - ओंकार (ओंकारप्रणवौ समौ - अभि ० २।१६४ ।) २. रणोत्सव " - रणोत्सवेन द्विगुणो य उत्साहः - प्रागल्भ्यं तेन विवृद्धो मत्सरो यस्य सः ३. अर्थसिद्धये – कार्यनिष्पत्तये । ४. रणरति रणे – संग्रामे, रतिः - रागस्तस्य रसः स्वादस्तस्योल्लासः - चित्ताभिप्रायविशेषः, तस्योद्रेक — आधिक्यं तेन उद्भवन्त – उत्पद्यमानाः, पुलकाङ्कुराः - यस्माद् असौ, तं । - रोमकंटकाः, Page #121 --------------------------------------------------------------------------  Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाद्य श्लोक परिमाण छन्द लक्षण पांचवां सर्ग भरत की सेना का युद्ध के लिए सज्जित होना । ८१ द्रुतविलंबित। I 'द्रुतविलंबितमाह नभौ भरौ ।' इसमें १२ अक्षर होते हैं । चौथा, सातवां, दशवां और बारहवां अक्षर गुरु होता है । इसका गण इस प्रकार है( एक नगण, दो भगण, और एक रगण - 111, 5 511, 515) । - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु - महाराज भरत ने सेना को सज्जित होने का आदेश दिया और सेनापति से कहा - 'हमें बाहुबली के साथ युद्ध लड़ना है। मालव, मगध, जांगल, कुरु, लाट, कच्छ, सिन्धु और किरात के राजाओं को अपनी-अपनी सेनाओं के साथ यहाँ बुला लो । साथ ही साथ दूसरे राजाओं के पास भी दूतों को भेजो और उन्हें यहाँ बुला लो । विद्याधर भी अपने-अपने विमानों के साथ यहाँ आ जाएँ । सेनापति सुषेण ने अपने निपुण दूतों को चारों ओर भेज दिया । सारे राजे अपनी-अपनी सेनाओं के साथ वहां अयोध्या में आ पहुंचे । महाराज भरत शस्त्रागार में गए और शस्त्रों की विधिवत् पूजा कर अपने प्रासाद से बाहर निकले । उनके आगे-आगे चक्र चल रहा था । उससे उठने वाले स्फुलिंगों से आकाश में स्थित देवांगनाएँ त्रस्त हो रही थीं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः १. नपनियोगमवाप्य बलाधिपः , स चतुरं चतुरङ्गचमविधिम । रचयतिस्म रणाय विनिर्मिताऽहितदलं तदलयनिदेशवान् । भरत के आज्ञाकारी सेनापति सुषेण ने भरत की आज्ञा प्राप्त कर शत्रुओं का दलन करने वाली चतुरंग सेना को युद्ध के लिए कुशलता से सज्जित किया। २. करटिभिनिपतन्मदनिर्भरै-गिरिवरैरिव रेभरवाहिभिः ।। इममुपास्तुमितं किल हेतुतो , नरवरं रवरञ्जितवारिदैः ॥ हाथी किसी हेतु से महाराज भरत की उपासना करने के लिए उपस्थित हुए। उनके कपोलों से मद बह रहा या। वे मेरु पर्वत की भांति स्वर्ण के आभूषणों से अलंकृत थे और मेघों से भी अधिक तेज गर्जारव कर रहे थे। ३. स तुरगविविधर्ममुदेगुणत्रजवर्जवन दयैरिव । अनुहरद्भिरितरगणेयता , सुरहयं रहयन्तमवद्यताम् ॥ . सेनापति विविध प्रकार के अनगिन घोड़ों को देखकर प्रसन्न हुआ। वे घोड़े गुण समूह के आवास, मन की तरह तीव्र गति वाले और अधमता को छोड़ने वाले इन्द्र के घोड़े उच्चैःश्रवा का अनुकरण करने वाले थे। ४. अथ रथेषु रथाङ्गसनाथतां , परिचचार च चारदृगेष सः । अनुहरत्सु ततायतविस्तरैः , कुलवरं लवरञ्जितलोचनम् ॥ गुप्तचर की भांति सूक्ष्म दृष्टिवाले सेनापति सुषेण ने रथसेना का दायित्व संभाला। वे रथ अपनी विशालता, लम्बाई और विस्तार के कारण क्षण भर के लिए नयनों को रंजित करने वाले बड़े बड़े गृहों का अनुकरण कर रहे थे। १. इस सर्ग में प्रयुक्त श्लेष के अर्थों के लिए देखें-परिशिष्ट नम्बर ३ में उल्लिखित पंजिका के पांचवें सर्ग का विवरण । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम .:५. दृशमथाक्षिपदुल्वणसञ्चरन्द्रिपुविपत्तिषु पत्तिषु सैन्यपः । कटकरापितखङ्गधनुष्वसौ , गुरुकलापकलापविराजिषु ॥ तब सेनापति ने शत्रुओं के लिए स्पष्ट आती हुई विपत्ति रूप अपनी सेनाओं पर एक दृष्टि डाली । सेना के सुभटों के हाथों में खड्ग और धनुष थे। वे सेनाएँ विशाल तूणीरों के समूह से शोभित हो रही थीं। ६. इति चमूमवलोक्य चमपतिः , प्रगुणितां गुणितान्तक विग्रहाम् । नृपतिमेवमुवाच तनूभवद्रसमयः समयः शरदस्त्वयम् ॥ सेनापति ने सुसज्जित और बाहुबली के साथ युद्ध करने की इच्छुक सेना को देखकर •महाराज भरत से कहा-'राजन् ! यह शरद ऋतु का समय अल्प. पानी वाला होता है। ७. शरदपति विधातुमनन्तरं , शभवतो भवतो विनिषेवणम । विकचवारिरुहाननशालिनी , विकलहं कलहंसशुचिस्मिता ॥ ‘विकसित वृक्षों के आनन वाली और कलहंसो की भांति विशुद्ध मुस्कान वाली यह शरद्ऋतु पुण्यशाली आपकी प्रेम-भाव से सेवा करने के लिए आ रही है। ८. अरिषु ते महसा सममुग्रता , शरदि नार दिनाधिपधाम किम ? वितनुते च गति तव गाधतः , सुरवहा रवहारिसितच्छदा ॥ शरद् ऋतु के समय वैरियों में आपके तेज के साथ-साथ क्या सूर्य का तेज तीव्र नहीं हो जाता ? तथा तटों पर स्थित हंसों के शब्दों से मनोज्ञ गंगा उस समय अगाध न होने के कारण आपकी गति में सहायक होगी। ६. सुरभिगन्धिविकस्वरमल्लिकावनमहीनमहीन! विराजते । किममुनेति ददत् परितकणं , न विषमा विषमायुधपत्रिणः ॥ हे अखंड भारत के स्वामिन् ! इस ऋतु में सुगन्धित और विकसित मल्लिका के वन शोभित होते हैं । ये पुष्पित वन यह तर्कणा उपस्थित करते हैं कि क्या इन मल्लिका के वनों से कामदेव के वाण विषम नहीं हो जाते ? अवश्य होते हैं। .१०. अहनि चित्तमुपास्यति कामिनां , कमलिनीमलिनीकुलसंश्रिताम् । जलदमुक्ततया निशि निर्मलं , सितरुचं तरुचञ्चिरुचं पुनः ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ६ ३ राजन् ! इस ऋतु में कामी व्यक्तियों का चित्त दिन में भ्रमरों के समूह से सेवित कमलिनी की उपासना करता है और रात में बादलों से मुक्त होने के कारण विशद तथा वृक्षों में व्याप्त किरणों वाले चन्द्रमा की उपासना करता है । ११. जिसने नये धान्य को उत्पन्न किया है उस पानी की शक्ति क्रमशः न्यून होती जा रही है । इसलिए दोनों तटों का अन्तर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो जाता है । इस समय वह पानी नलिनी दलों के कारण मद करता हुआ दूसरों को हर्षित करता है । 1 नृप ! तनूभवति क्रमतोऽधुना, वनबलं नवलम्भितसस्यकम् स्फुट विलोकयमानतटान्तरं प्रमदयन् मदयन्नलिनीदलैः ॥ १२. विलसितं किमिहातुलसंमदर्न वृषभैर्वृषभैरववासितैः । बलचल ककुदेर्व्रजकानने, तव गवेन्द्र ! गवेन्द्रविनोदितैः ॥ हे गवेन्द्र ! इस शरद् ऋतु में आपके ग्वालों द्वारा प्रेरित वृषभ जो अत्यन्त हर्षित तथा शक्ति से चालित ककुदों से युक्त हैं, क्या गोकुल में जाकर क्रीडाएँ नहीं करते ? १३. १४. शरद् ऋतु ने अतिविकस्वर 'काश' नामक घास का चंवर डुलाने वाली तथा अब्जदल का. छत्र करने वाली विशिष्ट संपदा के द्वारा देव सेवित चक्रवर्ती भरत को प्रमुदित किया । अतिविकस्वरकाशपरिस्फुरच्च मरयाऽमरयाचितसेवनम् । नृपमभूमुददब्ज दलात पत्रपरया परयार्तुरपि श्रिया ॥ १५. सममिलेश्वर ! संप्रति दीप्यते, सकलया कलया सितरोचिषः । • पृथुतमप्रथया प्रतिपत्तिथेः, कमलयाऽमलया तव जन्मतः ॥ हे पृथ्वीनाथ ! आपके जन्म से पवित्र हुई लक्ष्मी प्रतिपदा के चन्द्रमा की अत्यन्त प्रख्यात सभी कलाओं के साथ दीप्त हो रही है । किल भवानुररीकृत उल्लसद्द्द्विनयया न ययाऽभ्युदयद्भिया । त्वमिव नैष ऋतुविनिषेव्यते, जनतया नतया कलितोत्सवम् ॥ राजन् ! जिस उल्लसित विनयवाली जनता ने भयभीत होकर आपको स्वीकार नहीं किया उसने आपकी भाँति इस शरद् ऋतु की भी उत्सुकता के साथ पर्युपासना नहीं की । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १६. शरदि पङ्कमरा न भवत्क्षया , मुमुदिरे मुदिरेभ्यविवर्द्धनात् । उपकृतापदि यस्तुदते युधे , विहितसज्जन ! सज्जन एव सः ।। हे युद्ध के लिए सज्जित महाराज ! शरद् ऋतु में मेघ की ध्वनि का विच्छेद होने के कारण पंक-समूह क्षय-रोग से ग्रस्त होकर प्रमुदित नहीं हो रहे हैं । वही सज्जन होता है जो अपने उपकारी की आपदा के समय व्यथित होता है। (पंक का उपकारी मेघ है। शरद् ऋतु में मेघ क्षीण हो जाते हैं । उनके क्षीण होने पर पंक भी क्षीण होने लगता है।) १७. तव सभेव नरेश्वर ! सुन्दरा , तरुणयाऽरुणया सुमनःश्रिया । अधिकदत्तरतिवरसंचरन् , नवनरा वनराजिरराजत ॥ .. हे नरेश्वर ! यहाँ की वनराजि आप की सभा की तरह सुशोभित हो रही है। जैसे आपकी सभा तरुण और देदीप्यमान देवता तथा पंडितों की समृद्धि से सुन्दर है, जिसमें लोगों की अत्यधिक रति है और जिसमें प्रधान तथा तरुण व्यक्तियों का संचरण है वैसे ही वह वनराजि भी तरुण और लाल फूलों की शोभा से युक्त, अधिक आनन्द देने वाली और नए तरुण व्यक्तियों के संचरण से युक्त है। १८. निववृते शिखिभिः सततोच्छलत , कलमरालमरालमतिद्विषन !। इह विलोक्य शरत्समयं घनाघनगमं नगमञ्जुकलस्वनैः ॥ हे वक्र बुद्धिवालों से प्रीति नहीं करने वाले नरेश्वर । जिसमें राजहंस सतत उछल-कूद करते हैं और जिसमें मेघ चले जाते हैं, उस शरद् ऋतु को देखकर, पर्वतों या वृक्षों को मंजुल और प्रिय केका से ध्वनित करने वाले . मयूरों ने मुंह मोड़ लिया। १६. इह भवानिव नित्यविवधिभिः, सुरभिभिः प्रसवैः प्रसवैनवैः । वन विप्रसरत्फलसन्ततिस्तरुतती रुततीववयोगणा ॥ राजन् ! शरद् ऋतु की वृक्षों की श्रेणी आप ही की भाँति है। जैसे आप तरुण पुत्रों से सुशोभित होते हैं वैसे ही यह वृक्ष-श्रेणी नित्य बढ़ने वाले नए सुगन्धित फूलों से शोभित है। इसकी फल-सन्तति सारे वनभूमि में फैल रही है और इस पर बैठे पक्षीगण तीव्र शब्दों से कलरव कर रहे हैं । २०. धनुरनुत्तरधी ! करपञ्जरे , नवसुधा वसुधाधिपचक्षुषाम् । तव भयादिव गोपतिनाहृतं , रचय ताचय ! तापकरं द्विषाम् ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पञ्चमः सर्गः ६५ हे अनुत्तर बुद्धिवाले ! हे लक्ष्मी के संचेता ! आप अपने हाथ में शत्रुओं को तप्त करने वाला धनुष धारण करें। आप सभी राजाओं के नेत्रों के लिए नए अमृत के समान हैं। देव ! आप देखें, इस शरद् ऋतु में आप के भय से देवेन्द्र ने भी अपने इन्द्र-धनुष का संहरण कर लिया है। २१. सपदि पीतनदीरमणोदयाच्छुचितरं चितरङ्ग ! सरिज्जलम् । कलय गढपथं च तव द्विषां , गवि पदं विपदन्तकृतो भियाम ॥ हे संचित रंगवाले राजन् ! अगस्त्य तारा के सद्यः उदित होने के कारण सरिताओं का निर्मल जल तथा विपदाओं का अन्त करने वाले आपके पृथ्वीतल पर उदित होने के कारण शत्रुओं का निर्मल हृदय भय का स्थान बन गया है। २२. कलमगोपवशास्तव चक्रभृच्छुचिरमं चिरमङ्गलकारणम् । परभृतानिभृतस्वरगीतिभिः , किल यशो लयशोभनमुज्जगुः ॥ हे चक्रवर्तिन् ! कलम धान्य की रक्षा करने वाली स्त्रियाँ आपके निर्मल शोभा वाले तथा चिर मंगलकारक यश का लययुक्त सुन्दर गान, कोयल की भाँति निर्मल स्वर . वाली गीतिकाओं के माध्यम से, कर रही हैं। २३. गिर इव क्षितिराज ! तवेक्षवोऽतिमधुरा मधुराशिसितारसात् । व्यपहरन्ति मनांसि सतां मुहू , रसमया समया नगरीभुवः ॥ हे क्षितिराट् ! आप की वाणी इक्षु की तरह मधुर और शर्करा से भी अधिक मीठी है। वह रसमय (शृंगार आदि रसों से युक्त) स्वजन व्यक्तियों के मन को आकृष्ट करने वाली और नागरिक गुणों से युक्त है। २४. प्रसरतीह बने कलमोल्लसत्परिमलोऽरिमलोदयवजित !। श्वसितगन्धवहो भवदाननेप्युपवने पवनेरितवत्तया । हे वैरियों के पापोदय से वजित राजन् ! इस शरद् ऋतु में पानी में कलम से उल्लसित परिमल वाला यह श्वास-वायु पवन से प्रेरित होने के कारण उपवन में और आपके आनन में प्रसार पा रहा है। २५. इति रथाङ्गभूदुत्सवमार्तवं , कलय बन्धुरबन्धुरमालय !! बलिभुवं प्रयियासुरपि क्षणं , सदयितो दयितोरुविपक्षभीः ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् हे मनोज्ञ स्वजन रूपी लक्ष्मी के आलय ! आप ऋतु सम्बन्धी उत्सव की कलना करें। आप चक्रभृत् हैं और बाहुबली के प्रदेश की ओर क्षणभर में प्रस्थान करने के इच्छुक हैं। आप सस्त्रीक हैं और विपक्षियों को गुरुतर भय देने वाले हैं। २६. इति समीरयति ध्वजिनीपती , विनयतो नयतोयधिपारगम् । नपमुपेत्य जगाद स कञ्चुकिक्षितिवरोतिवरोऽत्र तदेति यः॥ सेनापति सुषेण ने महाराज भरत को विनयपूर्वक यह निवेदन किया । इतने में ही अन्तःपुर का श्रष्ठ कंचुकिराज ने न्याय रूपी समुद्र के पारगामी महाराज भरत के पास आकर कहा २७. कुमुदहासवती शरदाश्रिता, क्षितिभुजेति भुजेरितवैरिणा। तव बिति विशिष्य विभूषणं, विधिमतोऽधिमतो दयिताजनः॥ 'राजन ! आप भाग्यशाली हैं। आप द्वारा मान्य आपकी स्त्रियाँ इस विशेष हेतु से अलंकार धारण कर रही हैं कि आपके भुजदंड द्वारा क्षिप्त शत्रु राजा ने कमलिनियों वाली इस शरद् ऋतु का आश्रय ले लिया है। २८. नप ! भवन्तमजः कुसुमस्फुरद्धनुकरोऽनुकरोतु कथञ्चन । रतिरपि त्वदनेकनितम्बिनीनिबहतां वहतां हि पतिव्रता ॥ राजन् ! हाथ में फूलों का धनुष रखने वाला कामदेव आपका अनुकरण (आपकी तुलना) बड़ी कठिनाई से कर पाता है । वह कामदेव आपकी अनेक स्त्रियों के समूह में वास कर रहा है और उसकी पत्नी रति पतिव्रता है, इसलिए वह उसे छोड़कर कहीं नहीं जाती। फलतः रतिसुख आपको ही प्राप्त होता है। . २९. त्वदवरोधजनाद् ऋतुसज्जितात् , क्षितिपराज ! पराजयमश्नुते । त्रिदशराजवधूरपि सांप्रतं , नयनविभ्रमविभ्रमभर्त्सनात् ॥ हे चक्रवर्तिन् ! ऋतु के लिए सज्जित आपके अन्तःपुर की रानियों से इन्द्राणी भी पराजित हो गई है। क्योंकि आपकी रानियों ने उसके कटाक्षों की शोभा को तिरस्कृत कर डाला है। ३० सपदि काचिदधान्मणिनूपुरं , चरणयो रणयोगविचक्षणम् । किमिव बोधयितुं विजयश्रियातिशयितं शयितं मदनं हठात् ॥ राजन् ! किसी कान्ता ने शीघ्रता से अपने पैरों में, शब्द करने में विचक्षण, मणि Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ६७ नूपुरों को धारण किया । मानो कि वह सुप्त और विजयश्री से भी अधिक प्रिय कामदेव को हठात् जागृत करना चाहती हो । ३१. हे भाग्यशालिन् ! किसी कान्ता ने सोने की करधनी पहनी, जिसमें शब्द करने वाले मणियों के घुघुरू लगे हुए थे। उसने उसे अपने पहने हुए नील वस्त्रों से आच्छादित कर दिया फिर भी वह करधनी कामदेव के लिए हितकारी थी, कामवासना को उद्दीप्त करनेवाली थी । परिदधेऽथ रणन्मणिशिञ्जिनीं सुभग ! काचन काञ्चनमेखलाम् । परिहितेन मनोभवभूपतेरपि हितां पिहितां सितवाससा ॥ ३२. करयुगं च कयाचनं कौतुकादबलया बलयाञ्चितमाददे । भवदतुच्छतमप्रणयोदयाद्, रुचिरया चिरयातसनः शुचा ॥ ३३. राजन् ! चिरकालीन मनो-व्यथा से पीड़ित किसी कान्ता में आपके प्रति अत्यन्त स्नेह जाग उठा । उसने कुतूहलवश अपनी रुचि से दोनों हाथों में कंकण पहन लिए । < अधित काचन हारलतां गले, त्वनवमां नवमांसलरोचिषम् । कलमकुम्भततस्तनलम्बिनीं, सुनयना नयनापितकज्जला ॥ राजन् ! कज्जल से आँजी हुई आँखों वाली एक सुनयना सुन्दरी ने अपने गले में हार पहना । वह हार श्रेष्ठ, नवीन और पुष्ट काँतिवाला तथा कलभ के कुंभस्थल की तरह विस्तृत उसके स्तनों तक लम्बा था । ३४, श्रवणयोस्त्वदनुस्फुटमिच्छती विकचवारिजवारिजवागमम् । न्यधित कांचन कुण्डलमुन्मनोभवसुरं वसुरत्नकरम्बितम् ॥ ३५. किसी सुन्दरी ने अपने कानों में कुण्डल धारण किए । स्वर्ण और रत्न के बने हुए वे कुण्डल कामदेव को उद्दीपित करने वाले थे । वह कामिनी आपसे पूर्व विकस्वर कमल वाले पानी के शीघ्र आगमन की इच्छा कर रही है । 1 नृप ! दधेऽथ कथाचन कान्तरुक्नवतरो बत ! रोपितमन्मथः । उपरिनासिकमध्यधरोष्ठकं वरमणी रमणीजनकान्तया ॥ राजन् ! किसी कान्त ने अधर और ओष्ठ तक लटकने वाली मणि को नाक में धारण , Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् किया। वह मणि स्त्रीजन के लिए मनोज्ञ, मन्मथ को आरोपित किए हुए, मनोज्ञ काँतिवाली और नए प्राण वाली थी। ३६. श्रवणपत्रकमौक्तिकराजिना , निचिततारकतारकनायकम् । अनुकरोति मुखेन सुलोचना , शुचितमं चितमङ्गलसज्जना ॥ राजन् ! मंगल सामग्री से पुष्ट एक सुलोचना नारी के कानों में मौक्तिक शोभित हो रहे थे। वह अपने इस शोभायुक्त आनन से, तारकों से व्याप्त विशदतम चन्द्रमा की तुलना कर रही थी। ३७. अतुलमाभरणं तव कज्जलं , कमललोचन ! लोचनयोय॑धात् । ... अय इवेषुमुखेषु भवQहे , मदयिता दयिता जगतः स्मरः ॥ .. हे कमललोचन ! आपकी स्त्रियों ने अपनी आँखों को उनके अतुलनीय आभरण रूप कज्जल से आजा। ऐसा लग रहा था मानो कि जगत् को मदोन्मत्त करने वाले कामदेव ने शिव का द्रोह करने के लिए अपने बाणों के मुखों पर लोह रख दिया हो। ३८. तव विलासवती च निजेऽलिके , नृपविशेष ! विशेषकमाचरत् । रतिपतेरिव भल्लमुदञ्चितं , छविधरं विधरन्तमनू नताम् ॥ . हे नृपतिलक ! आपकी किसी सुन्दरी ने अपने भाल पर तिलक किया। वह तिलक ऐसा लग रहा था मानो कि वह ऊंचा उठा हुआ, कांति-युक्त, अन्यूनता को धारण करता हुआ कामदेव का भाला हो। ३६. व्यधित कापि तवालसलोचना , निशितकुन्तल ! कुन्तलमण्डनम् । विचिकिलाभिनवप्रसवोच्चयैः , सुमनसां मनसां प्रमदप्रदः ॥ हे निशित कुन्तल ! आपकी अलसायी हुई नेत्रों वाली किसी सुन्दरी ने देवताओं के मन को हर्षित करने वाले मालती के नए पुष्प-समूहों से अपना केश-प्रसाधन संपन्न किया। ४०. इति विभूषणभूषितभूघना, हरिवधूरिव धूतसुरालया। मम दृशः सुदृशस्तव पश्यतो , मुदमदुर्दमदुर्घरदुर्लभा ॥ हे राजन् ! अलंकारों से विभूषित शरीरवाली आपकी सुन्दरियों को देखती हुई मेरी आँखें हर्षित हो जाती हैं । ये सुन्दरियां दम से दुर्धर व्यक्तियों (तपस्वियों) के Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः && लिए भी दुर्लभ हैं । ये स्वर्ग को छोड़कर धरती पर आई हुई देवांगनाओं के सदृश हैं । ४१. तव वधूभिरनुत्तरदृष्टिभिस्त्रिजगती जगतीश ! चमत्कृता । अत इहानघरूपतयेरिताः सुकृतिभिः कृतिभिश्च विशिष्य ताः ॥ हे जगदीश ! मनोज्ञ दृष्टिवाली श्रापकी कान्ताओं ने तीनों जगत् को चमत्कृत कर दिया । इसलिए इस संसार में पुण्यवान् और पंडित व्यक्तियों ने उनके पवित्र रूप विशेषता पूर्वक निरूपण किया है । 1 ४२. प्रथितिमान् नलिनीनिचये त्रयोधिपतया पतयालुकरोऽस्तु मा । इति धिया सुदृशोङ्गपिधत्सया, परितः परितः सिचयं न्यधुः ॥ ४३. राजन् ! नलिनी समूह में जो स्वामी के रूप में प्रख्यात है, वह सूर्य हमारे अंगों पर अपने कर (किरणें ) न फैलाए, इस बुद्धि से प्रापकी स्त्रियों ने अपने समूचे शरीर को ढकने की इच्छा से, ऊपर से तथा चारों ओर से, उस पर वस्त्र धारण किया । ४४. रतिरधीश ! कयाचिदभीप्स्यते, सरसिजाननया न नयार्णव ! । किमपि पुष्पचये भवता समं, वनतरोर्नतरोपितसौहृद ! ॥ अधीश ! हें न्याय के समुद्र ! हे प्रणत व्यक्तियों से मंत्री रखनेवाले ! क्या कोई कमलमुखी कान्ता आपके साथ वनवृक्ष के फूलों को चुनने में कोई आनन्द नहीं मानती ? अवश्य मानती है ।.. सुभगराज ! कयाचन कान्तया, नगवरो गवरोद्धतनीडजः । न भवता सह रन्तुमपेक्ष्यते, किमलिनीमलिनीकृतकुड्मलैः ? हे सुभगराज ! आपकी कोई कान्ता भ्रमरी के द्वारा मलिन किए हुए फूलों के गुच्छों से आपके साथ क्रीड़ा करने के लिए क्या अनेक पक्षियों के निवास वृक्षों से युक्त अच्छे पर्वत की बाँछा नहीं करती ? अवश्य करती है । ४५. त्वदवरोधवधूर्ह तमत्सरव्यसनिदेश ! निदेशत एव ते । भटिति वाञ्छति कापि समं त्वया क्रमनमज्जन ! मज्जनमम्भसि ॥ , हे मत्सरी और व्यसनी शत्रुओं के देशों का अपहरण करने वाले ! हे जन- पूजित चरण ! आपके अन्तःपुर की कोई सुन्दरी आपकी आज्ञा से आपके साथ शीघ्र ही पानी में मज्जन करने की इच्छा करती है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४६. किल वधूरधिरोढुमपेक्षते, गजवरं जवरजितगोद्विपम् । चलतरं नृप ! कापि तुरङ्गमं , सितवसुं तव सुन्दर ! वाद्भुतम् ॥ हे राजन् ! आपकी कोई कान्ता वेग से रंजित करने वाले ऐरावत हाथी पर बैठना चाहती है । हे सुन्दर ! आपकी कोई कान्ता श्वेत कांति वाले, वेगवान् तथा अद्भुत घोड़े पर बैठना चाहती है। ४७. ददतमूहमिमं सुधियां पराशुगभुजङ्गम! जङ्गमसद्म किम् । . ___ सपदि काचिदलकुरुते रथं , धृतरथाङ्ग ! रथाङ्गमनोरमम् ॥ हे शत्रु रूपी वायु का भक्षण करनेवाले भुजंगम !, हे चक्र को धारण करनेवाले राजन ! आपकी कोई कान्ता 'क्या ये जंगम घर हैं' पंडितों के मन में इस प्रकार का वितर्क पैदा करने वाले तथा रथ के अवयवों से मनोरम रथ में तत्काल बैठ गई। . ४८. मणिविराजितरशिबिकाकृते , नप ! कयाचन याचनमादधे । ___ स्वयमकारि यदीयमलं त्वयाऽनुनयनं नयनन्दितभूभुजा ॥ हे राजन् ! किसी सुन्दरी ने मणियों से खचित स्वर्ण-शिबिका की याचना की। यह वही सुन्दरी है जिसका पूर्ण-प्रसाधन न्याय-परायण आपं चक्रवर्ती ने स्वयं किया था। ४६. वनभुवो निलयादपि कामिनः , शरदि माधव ! माधवमासि च । __किल कृषन्ति मनोविविधैगुमैविबुधवल्लभ ! वल्लभया समम् ।।. हे माधव ! हे पंडितप्रिय ! शरद्ऋतु में तथा वैशाख मास में कान्ता के साथ रहनेवाले कामी पुरुषों के मन को वनस्थलियां अपने विविध वृक्षों के द्वारा घर से भी अधिक आकर्षित करती हैं। ५०. तव वधूहृदयानि वनान्तरं , शुभरते ! भरतेश्वर ! शासनात् । जिगमिषन्ति किमस्ति यदग्रतो, वृषभनन्दन ! नन्दनकाननम् ॥ हे कल्याण रतिवाले ! हे भरतेश्वर ! हे वृषभ नन्दन ! आपकी स्त्रियों के मन आपकी आज्ञा से वनान्तर जाने के इच्छुक हैं । उन वनान्तरों के समक्ष इन्द्र का नन्दनवन भी कुछ नहीं है। ५१. न भवता सह काननमेष्यते , प्रणतकिन्नर ! किन्नरनायकैः । कृतमनोरति भारतमेदिनीशिखरिशासन ! शासनकारिभिः ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः हे प्रणत-किन्नर ! हे भारतभूमि के इन्द्र ! आपका अनुशासन मानने वाले राजा क्या आपके साथ मन को आनन्दित करने वाले कानन में नहीं जाएंगे? निश्चित ही जाएंगे। ५२. विकचतामरसा तव तत्र किं , गतगभीरिम ! भीरिमजित !। न रतिखेदमपास्तुमलं स्फुरद्घनरसाऽनरसादर ! दीपिका ॥ हे गाम्भीर्य प्राप्त ! हे भयवजित ! हे मनुष्यों को खिन्न न करने वाले नायक ! उस वन की विकसित कमल वाली और जल से हिलोरें लेती हुई दीपिका क्या आपके रतिजनित खेद को दूर करने में समर्थ नहीं है ? ५३. षड़तभरुहसंपदमाश्रिते, समहिता महितां च वियोगिनाम् । फलपलाशसुमाञ्चिनि कामिहद्दितविपल्लवपल्लवराजिनीम् ।। ५४. विधृतवागुरिवागुरिकावलीविगतविप्रियविप्रियभरहे। परभृताः परिमोदयति स्फुटं, स्वरवरा रवरागविवद्धिकाः॥ ५५. विरहिणां ददति प्रतिवासरं , कुसुममार्गणमार्गणपीडनम् । मुदमपीहतदन्यविलासिनां, गलितविप्रियया प्रियया समम् ॥ पटकुटीः परिताड्य निवत्स्यते., नगरतोऽगरतोरुविहङ्गमे । बहिरितो विसरैस्तव योषितां., रुचिरकानन ! काननसत्तमे ॥ -चतुभिः कलापकम्। हे रुचिर कानन ! आपकी रानियाँ नगर से बाहिर श्रेष्ठ कानन में वस्त्र की कुटिया बनाकर उनमें निवास करेंगी। यह वन वृक्षों पर क्रीडा करनेवाले प्रचुर पक्षियों से युक्त, सभी ऋतुषों के योग्य वृक्षों की सम्पदा से सम्पन्न, फले हुए पलाश के कुसुमों से युक्त है । यह वृक्ष-संपदा सभी के लिए हितकर, परन्तु वियोगी युगलों के लिए अहितकर अर्थात् शत्रु के समान है। यह कामी व्यक्तियों के चित्त की विपत्ति के लेश को नष्ट करनेवाले पल्लवों से सुशोभित है। यह वन शिकारियों से रहित है। इसमें अप्रिय घटनाओं से रहित पक्षि-प्रिय वृक्ष हैं। यहां कोयलें राग को बढानेवाले श्रेष्ठ शब्दों से स्फुट बोल रही हैं । यह वन विरही युगलों को प्रतिदिन कामदेव के बाणों से पीडित करता है और अवियोगी युगलों को अपनी निरपराध कान्ताओं के साथ शरद् ऋतु में हर्षित भी करता है। ५७. इति तदुक्तिविधावुररीकृते , महिभृताऽहितावनिबाहना। मुदमवाप्य स कञ्चुकिनायको, विशरणं शरणं निजमाययौ ।। जिसकी भुजा शेषनाग की भांति पृथ्वी को धारण किए हुए है उस महाराज भरत ने Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत बाहुबलि महाकाव्यम् जब अन्तःपुर के नायक की बात स्वीकार कर ली तब वह प्रसन्न होकर अपने अक्षयगृह की ओर चला गया । ܕܙ ५८. इति नृपोऽथ सुषेणमुपादिशत्, बलविरोचन ! रोचनमस्ति चेत् । कलयितुं बहलीशितुराहवं, तव तदाव तदात्वममकान् ॥ तब चक्रवर्ती भरत ने सेनापति सुषेण से कहा - 'हे सेना के सूर्य ! यदि बाहुबली के साथ युद्ध करना रुचिकर है तो तत्काल ही तुम देवताओं को प्रीणित करो । ५६. हे अकुत्सित शब्दवाले ! हे वैरियों पर विजय पाने वाले ! यदि तुम महाराज बाहुबली के समक्ष युद्ध में स्थिति करना चाहो तो चारों प्रकार की सेनाओं से अनुल्लंघ्य होकर शोभित हो जाओ । ६०: वह दूतगिराह्वय सर्वतः, सुगुणमण्डल ! मण्डलनायकान् । तदनु तद्विजयाय समुत्सुकं कृतरमोदय ! मोदय मे मनः ॥ ६१. 1 हे सुगुणमण्डल I तुम चारों ओर दूतों को भेजकर सभी मंडल-नायकों को बुलाओ और हे लक्ष्मी को उदित करने वाले ! बाद में तुम बाहुबली पर विजय पाने के लिए समुत्सुक मेरे मन को प्रसन्न करो । ६२. तदि चतुभिरलङ्घ्यतमो द्विषत्कृतपराजय ! राजयसे बलैः । युधि धराधवबाहुबलेः पुरो, यदि भवान् कुरुतेऽकुरुते ! स्थितिम् ॥ ६३. ६४. ६५. " प्रथमतः परितापितविद्विषं, सबलमालवमालवभूपतिम् । वितरणैश्च वसुद्विपवाजिनां मुदितमागधमागधभूभृतम् ॥ अपरमाहववृत्तभरोच्छ्वसच्छ्रवण कुन्तल कुन्तलवासवम् । अहितवारणवारणबुद्धिमद्, हरिसमारवमारवभूधनम् ॥ विततमङ्गलजङ्गलपार्थिवं पृथुललाटललाटविशेषकम् । प्रणतवत्सल कच्छमहीपत, द्विषददक्षिणदक्षिणनायकम् ॥ अकरुणं कलहे कुरुपुङ्गवं, जवनसैन्धवसैन्धवभूमिपम् । गल दरातिकिरात महीश्वरं, मलयभूधरभूधरमादरात् ॥ इति नृपानितरानपि भूरिशः परमुदारमुदारपराक्रमान् । चरगिरा नयतान्नगरीमिमां नरचितां रचितां सुरभूभुजा ॥ , ,, 2 - पञ्चभिः कुलकम् । हे सेनापति ! सबसे पहले शत्रुओं को परितापित करनेवाले तथा सेना के ऐश्वर्य से Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ૨૦૧ शोभित 'मालव' देश के राजा को और धन, हाथी और घोड़ों का दान देकर मंगलपाठकों को प्रसन्न करने वाले 'मागध' देश के राजा को बुलाओ । संग्राम की बात को सुनकर जिनके कानों के केश उठ खड़े होते हैं, उन 'कुन्तल' देश के राजा को तथा शत्रुरूपी हाथियों को निवारण करने में निपुण सिंह के समान सिंहनाद करने वाले 'मरुधर' देश के राजा को बुलाओ । जिसके मंगल विस्तीर्ण हैं वैसे 'जंगल' देश के राजा को, विस्तीर्ण लाट देश रूपी ललाट पर तिलक के समान शोभित राजा को, नत होने वाले व्यक्तियों के लिए हितकर 'कच्छ' देश के राजा को और वैरियों के लिए वक्र 'दक्षिण' देश के राजा को बुलाओ । संग्राम में निष्करुण 'कुरु' देश के राजा को, शीघ्रगामी घोड़ों के स्वामी 'सिन्धु' देश के राजा को, शत्रुओं का नाश करनेवाले 'किरात' देश के राजा को और 'मलय' देश के राजा को बुलाओ । दूत भेजकर आदरपूर्वक इन सब भूपतियों को तथा और भी बहुत सारे उद्भट वीरों को परम प्रमोद से इन्द्र द्वारा रचित, मनुष्यों से संकुल मेरी इस नगरी अयोध्या में बुलाओ । ६६. हे सेनाधिप ! अपने सिंहनाद से कायरों को कंपित करनेवाले सुभटों के हाथ में तलवार दो अथवा धन दो। हमारे सुभट विपक्षियों के लिए दुःसह हैं और कोई भी व्यक्ति पराक्रम से उन्हें जीत नहीं सकता । वे बलवत्तर हैं । ६७. निजहरिध्वनिकम्पितकातरे, वितर वा तरवारिकरे धनम् । बलप ! पत्तिचयेप्यतिदुःसहे, परबलैरबलैतपराभवैः ॥ ६८. " सतनयास्तनया अपि लक्षशः प्रहरणाहरणाधिकलालसाः । नयनयोर्मम संदधतत्सवं, नरहिता रहिताः किल दूषणैः ॥ हे सेनापते ! मेरे लाखों पुत्र और पौत्र मेरी आंखों में उत्सव उत्पन्न करें । वे शस्त्रों को ग्रहण करने में अत्यन्त आतुर हो रहे हैं । वे लोक-हितकारी तथा दूषणों से रहित हैं । समुपयन्तु विमानविहारिणः, सविजया विजयार्द्ध गिरीश्वराः । किमपि ये वहनन्ति दुरुतरे, विदितसङ्गर ! सङ्गरसागरे ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् हे युद्ध विशारद ! विजयार्द्ध पर्वत के विमान-विहारी विजयी विद्याधर राजा और जो गुरुतर संग्राम रूपी सागर में पोत की तरह काम देते हैं, वे भी आ जाएं। ६६. इति निगद्य शुभं नतिकारिणामविरतं विरतं नपमानमत । पुनरजूहवदेष महीपतीन् , भुजवतो जवतो मनुजैनिजैः ॥ नत रहनेवाले व्यक्तियों का निरन्तर हित करनेवाले महाराजा भरत यह कहकर मौन हो गए। सेनापति सुषेण ने उन्हें प्रणाम किया और अपने आदमियों.को भेजकर उन पराक्रमी राजाओं को शीघ्र ही बुला भेजा। . ५०. सकलराजकमेतमवेत्य स , द्रुततया ततयातरणोत्सवम् । . नरपतेरभिषेणनमूचिवानशुभहारिणि हारिणि वासरे ॥ सारे राजा वहां एकत्रित हो गए। वे महान् रणोत्सव को प्राप्त हो रहे थे । सेनापति सुषेण महाराज भरत के पास गया और अशुभ का नाश करनेवाले मनोज्ञ दिन में शत्रु पर चढ़ाई करने का निवेदन किया। ७१. क्षितिभुजामुपशल्यनिवेशिनां , न नगरी नगरीणवनाञ्चिता। किमियमाशु विरच्यत उन्मदैः , क्षितिपकुञ्जर ! कुञ्जरसंचयैः ।। हे राजश्रेष्ठ ! सीमान्त प्रदेशवासी राजाओं के उन्मत्त हाथियों के समूह से यह नगरी वृक्षों से रहित क्यों नहीं हुई ? ७२. भरतराज ! समग्रगमक्रमादचरमं चर मङ्गलकारणम् । त्वमुपनन्तुमितान्तरशात्रवं , जिनवरं नवरङ्गकरार्चनैः ॥ हे भरतराज ! आप सभी को साथ लेकर मंगलकारी तथा आन्तरिक शत्रुओं को जीतने वाले प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ की, नए राग को उत्पन्न करने वाली पूजाओं से, वन्दना करने के लिए चलें। ७३. मह जिनाधिपति कुसुमैर्नवैः , सुरतरो ! रतरोगपराङ्गमुखम् । ___ तदनु ते समराङ्गणसङ्गतं , सुगुणसंश्रय ! संश्रयते जयः ॥ हे सुगुणों के आधार ! हे कल्पवृक्ष ! आप अब्रह्म के रोग से पराङ्गमुख जिनेश्वर देव ऋषभ की नए कुसुमों से पूजा करें। उसके बाद ही समरांगण में गए हुए आपको विजयश्री प्राप्त होगी। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः १०५ ७४. क्षितिपतिर्बलराजनिवेदितं , वचनमादित मादिततागमम् । शुचिवपुः परिधाय च वाससी , अभयदं भयदम्भहरो महत् ॥ महान् लक्ष्मी और संपदा को प्राप्त कराने वाले सेनापति सुषेण के वचनों को भय और दंभ का हरण करनेवाले महाराज भरत ने स्वीकार किया। उन्होंने स्नान आदि से शरीर की शुद्धि की और पवित्र वस्त्र पहन कर अभयदाता भगवान् ऋषभ की पूजा की। ७५. प्रहरणालयमेत्य ततः परं , प्रहरणानि रणानितसाध्वसः । विधिवदार्चदरिप्रभृतीनि स , परमया रमया श्रितविग्रहः ॥ उसके पश्चात् महाराज भरत अपनी आयुधशाला में आए। वहां उन्होंने चक्र आदि प्रमुख आयुधों की विधिवत् पूजा की। उन्हें युद्ध का कोई भय नहीं था। उनका शरीर उत्कृष्ट संपदा से शोभित हो रहा था। ७६. एवं देवप्रणतचरणाम्भोरुहो भारतेशो, नागाधीशं सुरगिरिमिवोत्तुङ्गमारोहदुच्चैः । मौलिन्यस्यत्कनकमुकुटं सोष्णरुक्पूर्वभूभृल्लक्ष्मीलीलामुषमविरतोत्फुल्लनेवारविन्दम् ॥ इस प्रकार देवताओं द्वारा प्रणत चरण-कमल वाले महाराज भरत मेरु-पर्वत की भांति उत्तंग हस्तिरत्न पर आरूढ हुए। उस हस्तिरत्न के मस्तक पर स्वर्ण का मुकुट शोभित हो रहा था और वह अपनी कांति से पूर्वाचल में उदित होने वाले सूर्य की शोभा को चुरा रहा था। उसके नेत्र-कमल निरन्तर विकचित थे। ७७. म| छत्रं दधदमलरुक् चामर:ज्यमानो, बिभ्रत्पूर्मचल इव विधोबिम्बमुच्छारदाभ्रम् । उत्तानाक्षः सुरनरगणैर्वीक्ष्यमाणः क्षितीशः, कृत्वा नीराजनविधिमथो निर्जगाम स्वसौधात् । महाराज भरत ने सिर पर विशद प्रभा वाले छत्र को धारण किया। वे दोनों ओर से चामरों से विजित हो रहे थे । देवता और मनुष्य अपनी आंखों को ऊंची कर उन्हें देख रहे थे । वे पूर्वांचल में स्थित मेघयुक्त चन्द्रबिम्ब की भांति सुशोभित हो रहे थे। वे नीराजन विधि-शस्त्र-पूजन आदि-आदि विधियों को सम्पन्न कर अपने प्रासाद से निकल पड़े। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ... ७८. क्वचित् सरसिजाननानयनविभ्रमैः श्यामलं, विमानमणिरोचिषां समुदयविचित्रं क्वचित् । क्वचित् त्वगुरुयोनिभिर्दहनकेतनैर्वात्यया, विहायसि वित्तितैरसमयापिताब्दभ्रमम् ॥ ७६. क्वचित् कुसुमकुड्मलैः सकलिकैर्मनोज्ञश्रियं, भ्रमभ्रमरकूजितैर्मुखरतोद्धतं स क्वचित् । क्वचिच्चटुललोचनास्तनघटावलीघट्टनात्, पतिष्णुवरमौक्तिकैविशदमानशे श्रीपथम् ॥ . -युग्मम् । महाराज भरत राजमार्ग पर आ पहुंचे। वह राजमार्ग कहीं-कहीं स्त्रियों के नयनकटाक्षों से श्यामल और कहीं-कहीं विमानों की मणियों के रश्मि-समूह से विचित्र सा हो रहा था। स्थान-स्थान पर जल रहे काले अगर से निकलने वाला धुंआ वायु से प्रेरित होकर आकाश में नाच रहा था। उससे असमय में ही बादलों का भ्रम पैदा हो जाता था । कहीं-कहीं वह राजमार्ग कलिकाओं से युक्त फूलों के गुच्छों से मनोज्ञ शोभावाला, कहीं कहीं घूमने वाले भौंरों के गुजारवों से प्रचण्ड मुखरित और कहीं-कहीं स्त्रियों के स्तन रूपी कलशों के परस्पर घट्टन से नीचे गिरने वाले मोतियों से विशद (शुभ्र) था। ८०. एतस्याने संचचाराथ चक्रं , स्फूर्जज्ज्योतिर्लक्ष्यवैलक्ष्यकारि। सर्वाशान्तान् व्यश्नुवानः स्फुलिङ्ग राकाशस्थास्त्रासयद्देवनारीः ॥ महाराज भरत के आगे-आगे चक्र चल रहा था। वह हजारों ज्योतियों से स्फुरित होता हुआ शत्रुओं के लक्ष्य को भटका रहा था । उसकी चिनगारियाँ दशों दिशाओं में व्याप्त हो रही थीं। वह आकाशस्थित देवांगनाओं को भयभीत कर रहा था। ८१. तदिति सुरनरैय॑तकि चित्ते , किमिदमुपागतमान्तरं महोस्य । प्रथमभवभवः किमेष पुण्योदय इह संश्रित एव मूर्तिमत्त्वम् ॥ यह देखकर देवताओं और मनुष्यों ने अपने मन ही मन सोचा-क्या भरत चक्रवर्ती का आन्तरिक तेज यहां आ गया है ? अथवा क्या पूर्वजन्म में प्राप्त यह पुण्योदय ही मूर्तिमान् हो गया है ? - इति सेनासज्जीकरणो नाम पञ्चमः सर्गः Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा सर्ग . भरत की सेना के प्रथम पडाव का वर्णन । प्रतिपाद्यश्लोक परिमाण छन्द- . . लक्षण स्वागता। 'स्वागता रनभगैर्गरुणा च' (एक रगण, एक नगण, एक भगण और दो गुरु-डा,1,I, ss) । इसमें ग्यारह अक्षर होते हैं । इसमें नौवां अक्षर ह्रस्व और दसवां दीर्घ होता है । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु चक्रवर्ती भरत की सेना आगे बढ़ी। मंगल-पाठकों ने महाराज भरत का यशोगान किया। उस विशाल सेना के पीछे-पीछे अपनी-अपनी चतुरंग सेना के साथ बत्तीस हजार राजे चल रहे थे। वे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट ऐश्वर्य के द्वारा सबको विस्मित करने वाले थे। सेना को देख नगरवासी लोगों ने विविध प्रकार की वितर्कणाएं की। किसी ने भरत की लालसा को बुरा बताया तो किसी ने बाहुबली के अहं पर चोट की। महाराज भरत नगरी के द्वार पर पहुंचे। नगरवधुओं ने भरत का वर्धापन किया। चारों प्रोर वाद्य की ध्वनि गंज उठी। मंगल-पाठकों के आशीर्वचनों से सारा वातावरण ध्वनित हो गया । भरत के पीछे-पीछे विशाल सेना चल रही थी। उसे देखकर नगरवासियों के मन में अनेक वितर्क उत्पन्न हए। उन्होंने युद्ध को अवांछनीय बताते हुए कहा—'राजे राजसिक वृत्ति वाले होते हैं। सत्ता और अहं से उनके नेत्र विघृणित रहते हैं। जहां उनका प्रभुत्व नहीं होता, वहां वे अपना प्रभुत्व थोपते हैं । भरत अपने भाई से युद्ध लड़ना क्यों चाहते हैं। बाहबली अपने बड़े भाई को प्रणाम क्यों नहीं करता ? इन दोनों के युद्ध से हजारों-हजारों व्यक्ति मारे जायेंगे।' लोगों के मन वितर्कों से भर गए । महाराज भरत के अन्तःपुर की रानियां एक सुन्दर उपवन में एकत्रित हो चुकी थीं। भरत उपवन के पास आए। मालव देश के नरपति के हाथ का सहारा ले वे हाथी से नीचे उतरे। सभी राजे अपने-अपने वाहनों से उतरे और उपवन में क्रीड़ा करते चले गए। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः १. राजमार्गमतिलभ्य गवेन्द्रः, स्वर्गलोकमिव सत्कमनीयम् । सङ्गतं सुमनसां समुदायर्गोपुरं वितततोरणमापत् ॥ चक्रवर्ती भरत राजमार्ग को पार कर नगर के द्वार पर पहुँचे । वह स्वर्गलोक की भांति अत्यन्त सुन्दर तथा फूलों के समूह और विस्तृत तोरण से युक्त था । २. तारकरिवनपैरनुजग्मे , स्मेरतां विदधदारुचि' राजा। कौमुदं नृपतिवम विहायोभ्राजिभिः कलितकान्तिविशेषैः ॥ जैसे आकाश में देदीप्यमान और विशेष कांति से युक्त तारे चन्द्रमा का अनुगमन करते हैं वैसे ही महाराज भरत के सामन्तराजे यथेष्ट प्रफुल्लता को धारण करते हुए पृथ्वी के लिए आनन्ददायी राजमार्ग पर राजा भरत का अनुगमन कर रहे थे। ३. - सेनयाथ तमनुप्रसरन्त्या , ज्योत्स्नयेव रजनीशमयन्त्या। पौरलोचनचकोरविवृद्धानन्दयाभ्यधिकमत्र दिदीपे ॥ जैसे चन्द्रमा के पीछे-पीछे चांदनी चलती है वैसे ही नगरवासी लोगों के नयन-चकोर को अत्यधिक आनन्दित करने वाली सेना महाराज भरत के पीछे-पीछे चल रही थी। उससे वह राजमार्ग अधिक दीप्त हो रहा था। १. पंजिकाकार ने सब विशेषणों को राजमार्ग के लिए प्रयुक्त किया है । हमने उन्हें 'तोरण' ___ के विशेषण माने हैं। २. नृपः-सामन्तभूपः । ३. आरुचि-रुचि अभिलाषं मर्यादीकृत्य, आरुचि-यथेष्टम् इत्यर्थः । ४. राजा-चन्द्रमा। ५. कौमदं-को-पृथिव्यां, मुदं-हर्ष । चन्द्रमा पक्षे–कौमुदं–कुमुदां समूहं । ६. नृपतिवर्त्म-राजमार्ग। . . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वाहिनीभिरवनीधरगाभिविस्तृताभिरधिकं घनवाहैः । कुम्भिकुम्भतटवामरयाभिः , पाथसांपतिरिवायमभासीत् ॥ पर्वतों से गुजरती हुई, शक्तिशाली घोड़ों से अधिक विस्तृत, हाथियों के कुम्भतट से सुंदर वेगवाली सेनाओं से महाराज भरत समुद्र की भांति प्रभासित हो रहे थे। (जैसे समुद्र पर्वतों से निकली हुई, मेघ के जल से अत्यधिक विस्तृत, हाथियों के कुंभस्थल रूपी तट से वक्र वेगवाली नदियों से शोभित होता है।) ५. दानवारिपति'रात्मतुरङ्गभ्रान्तितो भवतु माऽस्मदभीप्सुः। .. स्वक्षुरोद्धतरजोभिरितीव , व्योम वाजिभिरकारि सवासः ॥ सेना के घोड़ों ने सोचा कि देवताओं का स्वामी इन्द्र अपने घोड़ों की भ्रांति से हमें अपना न कर ले, इसलिए मानो कि उन्होंने अपने खुरों से उठे हुए रजःकण रूपी वस्त्र से आकाश को ढक दिया। ६. वारणाः कुथपरिष्कृतदेहान्', वीक्ष्य सिंहवदनाकृतिवाहान्। बिभ्यतः कथमपीह विधार्या ;यंत्रिमिश्चकितपौरसुनेत्राः ॥ रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित सिंह-मुख की आकृति वाले अश्वों को देख हाथी डर गए। उन्होंने नगर की स्त्रियों को भयभीत कर डाला। महावतों ने ज्यों-त्यों उनको वश में किया। ७. कैश्चनोज्झितधरैरतिवेगात् , सप्तिभिर्गगनमेव ललम्बे । पार्श्वसंचरदऽनेकप राजीऊक्ष्य पक्षिभिरिवाततपक्षः॥ १. दानवारिपतिः-इन्द्र। २. अभीप्सुः-वाञ्छकः। ३. सवासः–वाससा सहितः सवासः, सवस्त्रम् इत्यर्थः । ४. कुथ.........—पंजिकाकार ने 'कुथ' का अर्थ कवच किया है। पूरे पद का अर्थ होगा-कवच से वेष्टित शरीरवाले (घोड़े) । संस्कृत कोश में 'कुथ' का अर्थ है—हाथी की झूल । (अभि० ३।३४४) । यदि 'कुथ' को हम पशुओं के शरीर को अलंकृत करने वाला कपड़ा मानें तो इसका अर्थ होगा-रंग-बिरंगे कपड़ों से शोभित शरीर वाले घोड़े। ५. सिंह.....-सिंहमुखाकाराश्वान् । ६. यन्ता-महावत (हस्त्यारोहे सादियन्त–अभि० ३।४२६) ७. चकित......-भीतपौरस्त्रीकाः ।। ८. सप्तिः–घोड़ा (गन्धर्वोऽर्वा सप्तिवीती-अभि० ४।२६६) .. ६. अनेकप:-हाथी (हस्ती मतङ्गजगजद्विपकर्यनेकपा-अभि० ४।२८३ ।). Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः पास में चल रहे हाथियों की कतार को देखकर कुछेक घोड़े, तीव्रगामिता के कारण भूमि का स्पर्श छोड़कर पंख फैलाए हुए पक्षियों की भांति आकाश में उड़ने लगे। ८. चित्रका'ननहयाधिकभीतः , स्यन्दना मुमुचिरे वृषभाक् । कण्ठकन्दलविलम्बितयोक्त्रः, प्राजन'प्रहरणान्यवमत्य ॥ रथों में बैल जुते हुए थे। वे व्याघ्र के समान मुंह वाले घोड़ों को देखकर भयभीत हो गए। उनकी कंठ-कंदली में 'जोति, (नाधा-चर्म-रज्जु) बंधी हुई थी। चाबुक के प्रहारों की अवमानना करते हुए वे झटपट रथों को छोड़कर भाग गए। ६. पत्तिभिः क्वचन शौर्यरसोद्यत्कुन्तलः कलितकुन्तकराः । मूर्ततामधिगतैरिववीर्येर्दीप्यतेस्म लहरीभिरिवाब्धेः ॥ कहीं-कहीं वीर रस से रोमाञ्चित केशवाले तथा हाथों में भाले लिए हुए पैदल सैनिक ऐसे शोभित हो रहे थे मानो समुद्र की लहरियों की भांति उनका पराक्रम मूर्तिमान हो गया हो। १०. सिंहनादमुखरैरिहवीरेस्त्रासिता मदभरालसनागाः।। तः कुरङ्गनयनाश्च विहस्तास्ताभिरुत्ससृजिरे शिशवोऽपि ॥ वीरों के मुंह से सिंहनाद हो रहा था। उन्हें सुनकर मद के भार से अलसायी गतिवाले हाथी भयभीत हो गए। हाथियों के त्रस्त होने पर स्त्रियां भी व्याकुल हो उठीं और उन्होंने अपने पास रहे बच्चों को छोड़ दिया। ११. खेचरैरपजहें नपमार्गः , संकुल स्त्रिदशवम जगाहे। नाकिखेचरविमानविहारैस्तैश्च तत्र घनसङ्कटतोहे" ॥ १. चित्रकः व्याघ्र (व्याघ्रो द्वीपी शार्दूलचित्रको–अभि० ४।१५१) २. योक्त्रं-जोती या नाधा (योनं तु योक्त्रमाबन्धः-अभि० ३।५५७) ३. प्राजनं-चाबुक (प्राजनं तोनतोदने-अभि०३।५५७) ४. कलित.......-कलितो—गृहीतो भल्लो येन तत् कलितकुन्तं, कलितकुन्तं कराग्रं येषां ते, तैः । ५. मदभरालसगतयो नागा इति शाकपार्थिवादि मध्यमपदलोपी समासः । ६. कुरङ्गनयना:--स्त्रियः । ७. विहस्त:-व्याकुल (विहस्तो व्याकुलो व्यग्र:-अभि० ३।३०) ८. संकुल:-चतुरङ्गसेनासंचारबाहल्यात संकीर्णः। ६. त्रिदशवर्त्म-त्रिदशानां देवानां, वर्त्म-मार्ग:-~-आकाशः । १०. घनसङ्कटमूहे-इत्यपि पाठः । ऊहे इति वहन प्रापणे धातोः रूपं । ऊहे प्राप्ता। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ भरत बाहुबलि महाकाव्यम् विद्याधर संकुल राजमार्ग को छोड़कर आकाशमार्ग में चले गए। देवताओं तथा विद्याधरों के विमान - विहार के कारण विद्याधरों ने आकाश मार्ग को बहुत ही संकीर्ण अनुभव किया । १२. पृथ्वी पर चक्रवर्ती की सेना चल रही है और प्रकाश में विद्याधर अपने विमानों में जा रहे हैं । बीच में रजःकण छा रहे हैं। सेना को देखने के उत्सुक विद्याधरों ने 'पृथ्वी पर चलनेवाली सेना को देखने में हमारे सामने कोई विघ्न उपस्थित न हो' – इस भावना से वारुणास्त्र के द्वारा जल बरसा कर मध्यवर्ती रजःकणों को निरस्त कर दिया । १३. अन्तरोद्यत' रजोपि निरासे, वारुणप्रहरणाम्बुविसृष्ट्या । व्योम र्बल विलोकनशौण्डे:', पश्यतां न न इहास्त्विति विघ्नः ॥ व्योमगैरिति रजोम्बरमेतद्, दिक्सरोरुहदृशां चकृषे द्राक् । • प्रत्यदायि करिभिः पुनरासां नागजाम्बर मिव श्रुतिकीर्णम् ॥ विद्याधरों ने जल बरसा कर दिशां रूपी अंगनाओं के रज रूपी वस्त्र को खींच लिया और बदले में हाथियों के कानों से बिखरे हुए सिन्दूर का वस्त्र उन्हें दे दिया । १५. , १४. प्रक्षरन्मदजलैर्गज राजैजतिरूपमयमण्डनकान्तः । विद्युदन्तरचरैरिवमेधैरुन्नतत्वपरिचारिभिरीये ॥ ऊँचे होकर चलने वाले गजराज आगे बढ़े। उनके गंडस्थल से मद भर रहा था । वे स्वर्णमय मंडन की कांति के कारण ऐसे सुंदर लग रहे थे जैसे विद्युत् के बीच में विचरण करने वाले मेघ सुंदर लगते हैं । राजलोकनकृते समुपेतं भामिनीभिरधिकत्वरिताभिः । लोचनास्य कमलाभिरिताभिः ', फुल्लपद्मदलमानसशोभाम् ॥ , १. अन्तरोद्यतं ---- अन्तरा – मध्ये, उद्यतं – उड्डीयमानं । २. बलविलोकनशौण्डः – सेनानिभालनदक्षः । ३. नः - अस्माकम् । ४. दिक्सरोरुहदृशां - - आशाङ्गनानाम् । ५. नागजाम्बरं—सिन्दूररूपवस्त्रम् (नागजं - सिन्दूरं नागजं – अभि० ४। १२७ ।) ६. श्रुतिकीर्णम् – कर्णतालविक्षिप्तम् । ७. भामिनी के दो अर्थ हैं - सुन्दर स्त्री या कुपित स्त्री ( सा कोपना भामिनी स्यात् - अभि० ३।१७४) पंजिकाकार ने इसका अर्थ - पौरवधूएं किया है । ८. इताभिः - प्राप्ताभि; Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ११३ महाराज भरत को देखने के लिए नगर की वधूएँ अत्यन्त त्वरा से एकत्रित हुई। उनके नयन और मुख-क्रमल की सम्पदा विकसित पद्मदल से युक्त मानसरोवर की शोभा को प्राप्त किए हुए थी। १६. लीलयैव करिणीशकराता , सैन्यवीक्षणपरात्र गवाक्षात् । काचिदूर्ध्वपदधःकृतवक्त्रा , हास्यमापयदनन्तचराणाम् ॥ एक सुन्दरी झरोखे से सेना को देखने में तत्पर थी। एक हाथी ने उस को क्रीडावश अपनी सूंड में पकड़ लिया। उस समय उस स्त्री के पैर ऊपर और मुंह नीचे हो गया। इसे देख विद्याधरों का हास्य फूट पड़ा। १७. कामिनी बलविलोकनदायादुद्धता करिवरेण करेण । वल्लिवत्स्तनफलाकलिताङ्गी , कामिनां मुदमदत्त तदानीम् ॥ सेना को देखने में तत्पर एक सुन्दरी को हाथी ने अपनी सूंड में उठा लिया । सैन्यसंचार के उस समय में बेल की तरह स्तन रूपी फलों से युक्त उस कामिनी ने कामी पुरुषों को प्रमुदित किया। १८. स्मेरवक्त्रकमलोपरिलोलल्लोचनभ्रमरविभ्रमंवामा। पद्मिनीव गजराजकराग्रे , राजतेस्म चकितेक्षणदृष्टा॥ विकसित मुख-कमल पर मंडराने वाले लोचन रूपी भ्रमर के विभ्रम से मनोज्ञ, आश्चर्य की आंखों से. देखी जाने वाली एक सुंदरी गजराज की सूंड में कमलिनी की भांति शोभित हो रही थी। १९. कुम्भिकुम्भकुचयोरुपमानं , लेभिरे मिलितयोमिथ एव । केचनोरंकरयोरपि साक्षात् , तादृशां ह्यवसरे किमनाप्यम् ? उस समय कई युवकों ने परस्पर मिले हुए हाथी के कुम्भस्थल और नारी के स्तनों तथा हाथी की सूंड और नारी की साथल में साक्षात् समानता देखी। क्योंकि भरत जैसे महान् व्यक्तियों के आने के अवसर पर अलभ्य क्या रह जाता है ? १. स्मेर....."-स्मेरं-विकस्वरं, वक्त्रं-आननं तदेव कमलं, तस्योपरि लालंतश्चलंतो लोचन__ भ्रमरास्तेषां विभ्रमः-शोभातिशयः, तेन वामा-मनोज्ञा। २. चकिते......-चकितेक्षणं-भीतलोचनं यथा स्यात् तथा दृष्टा-विलोकिता। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २०. कापि मत्तकरिणीश्वरभीत्या , कान्तमेव निबिडं परिरेभे । - क्रष्टुमान्तरमिवोरुभयं द्राक् , सन्निवेष्टुमिव वक्षसि कामम् ॥ किसी सुन्दरी ने मत्त हाथी के भय से अपने पति का गाढ़ आलिंगन कर लिया। मानो कि वह अपने अन्दर रहे हुए विपुल भय को बाहर करने के लिए तथा कामदेव को अपने हृदय में स्थापित करने के लिए ऐसा कर रही हो। २१. कन्दुकोप्यनुकृतस्तनलक्ष्मीर्हन्यते किल करेण यथाऽयम् । हस्तिनां गतिरदायि तथैवास्माभिरेवमपसस्र रिभात् ताः॥ गेंद हमारी स्तनलक्ष्मी का अनुकरण करती है इसलिए हम उसे हाथ से उठाकर फेंक देती हैं। हमने हाथियों से गति ली है। वे अपनी सूंड से उठाकर हमें फेंक न डालेंयह सोचकर स्त्रियाँ हाथियों से दूर हो गईं। . २२. कुम्भिनां प्रसरदच्छवसितानामुत्पतिष्णकरशीकरवारैः। - तारतारकित'मम्बरमासीत् , पांसुसंतमसनीतनिशीथे ॥ हाथियों के विपुल उच्छवास के कारण उनकी सूंड से ऊपर उछलने वाले जलकणों के समूह से उठे हुए रजःकण रूपी अन्धकार से व्याप्त रात्रि में सारा आकाश निर्मल मौक्तिक रूपी तारों से भर गया। २३. संचरबलरजोनिकुरम्बैश्चुम्बिताम्बरपथैः परितेने। संभ्रमाज्जगदपीरयदेतद् , भानुमानपरशैल मितः किम् ? संचरण करनेवाली सेना से ऊपर उठे हुए रजःकण सारे आकाश में व्याप्त हो गए। संभ्रमित होकर प्राणियों ने ऐसी वितर्कणा की कि क्या सूर्य अस्ताचल पर्वत पर चला गया है ? २४. भूवरोपरिपुरःप्रसरभिः , छत्रचक्रमहसां समुदायैः । शर्वरीदिवसनायकयोगाद् , दर्श'एव समयोऽभवदेषः ॥ १. 'अदायि'—यह प्रयोग चिंतनीय है । इसके स्थान पर 'आदायि' होना चाहिए। २. उत्पतिष्णु ......-उत्पतनशीलशुण्डादण्डसंबंधिछटासंदोहैः। ३. तारतारकितं-निर्मलमौक्तिकरूपताराढ्यम् । ४. निशीथः–आधीरात (निशीथस्त्वद्धरात्रो महानिशा-अभि० २।५६) ५. अपरशैल:-अस्ताचल पर्वत। ६. दर्श:-सूर्य और चांद का संगम-काल (दर्शः सूर्येन्दुसङ्गमः-अभि० २।६४ ), Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ११५ भरत के सिर पर छत्र था और आगे चक्र चल रहा था । इन दोनों की किरणों के समूह से वह समय चांद और सूर्य के संगमकाल की भाँति प्रतीत हो रहा था । २५. एक एव समयो गगनेलाचारिणां दिननिशान्तरतर्कम् । आततान रजसोरुविमानस्पशिनाऽनिततमोरिपुधाम्ना' ॥ आकाशचारी विद्याधरों और भूमि पर चलने वाले सैनिकों के मन में, बृहद् विमानों का स्पर्श करनेवाले तथा ( विमानों के बीच में रहने के कारण ) सूर्य के ताप पृष्टरजःकणों के कारण एक साथ यह वितर्क उत्पन्न हुआ कि अब रात है या दिन ? २६. अन्तरागतविमानततिर्द्वाक्, पस्पृशे गगनरत्नमहोभिः । नैव सैनिकशिरांसि समन्तात् पांसुपूररचितान्तरविघ्नः ॥ · सूर्य की किरणों ने बीच में आई हुई विमानों की श्रेणी का शीघ्र ही स्पर्श किया । किंतु उन्होंने सैनिकों के सिरों को नहीं छुआ । क्योंकि चारों ओर के रजःकणों ने बीच में विघ्न उपस्थित कर दिया था । २७. भारतेश्वरमिवेक्षितुमुच्चरारुरोह गगनं वसुधेयम् । सैनिकोद्धत रजश्छलतः किं पश्यतामभवदेष वितर्कः ॥ देखने वालों को यह वितर्क हुआ कि क्या यह पृथ्वी सैनिकों के द्वारा उठे हुए रजःकणों के मिष से भारत के स्वामी महाराज भरत को देखने के लिए आकाश में आरूढ़ तो नहीं हुई है ?. २८. भूचराभ्रचरसैन्यवितान, रोदसी भरणकोविदचारैः । निर्ममे जगदनेकमनोपि, प्रायशः प्रभवदेकमनस्त्वम् ॥ भूमि और आकाश के मध्य भाग को भरने में निपुण, गमन करने वाले भूचर और आकाशगामी सैन्य समूहों ने विविधता के जगत् को भी प्रायः एक कर दिया । विविध मन वाले जगत् को भी प्रायः एक मन वाला कर दिया । २६. व्योमगर्न च विमाननिविष्टैर्मन्दमन्दगति भिविबभूवे । कौतुकालसदृष्टिनिपातैर्लङ्घितु क्षितिचराधिकमार्गम् ॥ १. तमोरिपुधाम्ना - तमोरिपुः सूर्यः, तस्य धाम्ना - आतपेन । २. रोदसी - आकाश और भूमि का मध्य भाग ( द्यावाभूम्योस्तु रोदसी - अभि० ६ १६२ ) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ भरतबाहुबलिमहाकान्यम् विमानों में निविष्ट, मंद-मंद गति से चलने वाले तथा कुतूहलवश आंखों को इधरउधर घुमाने वाले विद्याधर भूमि पर चलने वालों से अधिक मार्ग को नहीं लांघ सके। ३०. किडनी क्वणितकीर्णदिगन्तोमवम विरराज विमानः । चक्रनादमुखरैश्च शताङ्ग भूतलं तदुभयोः समताभूत् ॥ विमानों में बंधे हुए घुघुरू के शब्द दिशाओं के अन्त तक गूंज रहे थे। सारा आकाशा उन विमानों से शोभित हो रहा था । चक्कों के शब्द से मुखरित रथ पृथ्वी पर शोभित हो रहे थे। इस प्रकार आकाश और पृथ्वी में समानता थी। ३१. तं प्रयान्तमवलोक्य सुरस्त्री , काचिदम्बरगता गुणहृष्टा' । मौक्तिकरवचकार' विकीर्णैस्तारकरिव गत वमारात्॥ आकाश में खड़ी हुई किसी देवी ने प्रयाण करते हुए भरत को देखा और उनके गुण से प्रसन्न होकर उसने सर्वत्र मोती बिखेर दिए-उनका मोतियों से वर्धापन किया। वे मोती दूर से ऐसे लग रहे थे मानो कि वे भूमि पर तारे हों। ३२. अक्षतैः शुचितमैरवकीर्णः" , सोऽक्षतप्रियसताभिरुपेतः । गोपुरं सपदि पौरवधूभिवृष्टिभिगिरिरिवाम्बुपृषद्भिः ॥ जैसे पर्वत वर्षा की बूंदों से अवकीर्ण होता है वैसे ही पति और पुत्रवाली नगरवधूओं द्वारा अत्यन्त धवल अक्षतों से वर्धापित होते हुए महाराज भरत शीघ्र ही नगरी के द्वार पर पहुँचे। १. किङ्किनी–घुघुरू (किङ्कणी (किङ्किनी) क्षुद्रघण्टिका-अभि० ३।३२६) २. शताङ्गः-रथ (शताङ्गः स्यन्दनो रथ:-अभि०३।४१५) ३. गुणहृष्टा-रूपादिभिः गुणैः हृष्टा-प्रीता। ४. अवचकार-संवर्द्धयामास ।। ५. आरात्-दूरात् । . ६. अक्षताः-खील (लाजाः स्युः पुनरक्षता:-अभि० ३।६५) ७. अवकीर्ण:-वर्धापितः। ८. उपेतः-समागतवान् । ६. गोपुरं–नगर का द्वार (पुरे गोपुरम्-अभि० ४।४७) १०. पृषद्-बूंद (बिन्दो पृषत्पृषतविप्रष:-अभि० ४।१५५) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ षष्ठः सर्गः .. ३३. आश्रितः स किलं सिन्धुररत्न' , हस्तिमल्ल मिव कि सुरराजः। यात्यकि विबुधैरिति साक्षान्नेक्षणद्वयसहस्रविभेदात् ॥ भरत चक्रवर्ती हस्तिरत्न पर आरूढ़ थे। उन्हें देखकर देवताओं ने ऐसी वितर्कणा की कि क्या इन्द्र ऐरावत हाथी पर बैठ कर जा रहा है ? उन्होंने साक्षात् देखकर कहा'नहीं, इनके तो दो ही आंखें हैं पर इन्द्र तो हजार आंखों वाला होता है । इसलिए ये इन्द्र नहीं हो सकते ।' ३४. उर्वशी गुणवशीकृतविश्वा , तं निपीय विममर्श तदेति । यत्पतिस्त्वधिकरूपभरश्रीरस्त्यसो जगति धन्यतमा सा॥ अपने गुणों से समूचे विश्व को वश में करने वाली देवगणिका उर्वशी ने भरत को एकटक निहारते हुए सोचा-'यह अत्यन्त रूपवान् और कांतिमान् भरत जिसका पति है वह स्त्री संसार में धन्य-धन्य है। ३५. रम्भया श्रितनभोन्तरयाऽयं , वासवादधिकरूपविलासः। इत्यचिन्त्यत पुनर्नगरीयं , नाकनाथनगरा दतिरिक्ता॥ आकाश के बीच खड़ी हुई नलकुबेर की पत्नी रम्भा ने यह वितर्कणा की कि महाराज भरत इन्द्र से भी अधिक रूप-सम्पन्न हैं और यह अयोध्या नगरी इन्द्र की नगरी अमरावती से भी विशिष्ट है। ३६. गोपुरं पुर इवाननमस्या , नीलरत्ननयनद्युतिरम्यम् । उत्तरङ्ग ततभालचकासद् , रत्नतोरणविशेषक शोभम् ॥ ३७. जातरूपमयभित्तिकपोलश्रीसनाथवलभी वरनासम् । नागदन्त लटभ भ्र विशिष्टश्रीविलासकिसलाधरबिम्बम् ॥ १. माना जाता है कि चक्रवर्ती का हस्तिरत्न हजार देवताओं द्वारा अधिष्ठित होता है। २. हस्तिमल्ल:-ऐरावत हाथी (ऐरावतो हस्तिमल्ल:-अभि० २।९१) ३. उर्वशी-उर्वशी नाम की अप्सरा। ४. निपीय–दृष्ट्वा । ५. नाकनाथनगरं-नाकनाथ (इन्द्र) की नगरी-अमरावती । ६. उत्तरङ्ग-द्वार के ऊपर तिरछी लगी हुई लकड़ी (तिर्यग्द्वारोवंदारूत्तरङ्ग–अभि० ४।७२) ७. विशेषकः-तिलक (तिलके तमालपत्रचित्रपुण्डविशेषका:-अभि० ३।३१७) ८. वलभी-छज्जा (वलभी छदिराधारः-अभि० ४१७७) ६. नागदन्तः-बूंटी (नागदन्तास्तु दन्तका:-अभि० ४१७७) १०. लटभ:-सुन्दर, वक्र । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३८. मल्लिकाकुसुमकुड्मललेखाहासहारिसुभगस्पृहणीयम् । दन्तुरं कुमुदकुन्दकलापस्तूर्यनादमुखरं स ललखे ॥ -त्रिभिविशेषकम् । वह गोपुर (प्रवेश-द्वार) नगरी के आनन की तरह नीलरत्न रूपी नयन की युति से मनोरम द्वार के ऊपर तिरछी लगी हुई लकड़ी रूपी विस्तृत ललाट और उस पर शोभित होने वाले रत्नमय तोरण रूपी तिलक से शोभित हो रहा था ।... उस गोपुर की स्वर्ण-भित्तियाँ कपोल स्थानीय थीं। उसकी छत शोभायुक्त थी, मानो कि वह उसकी सुन्दर नासिका हो। उसमें लगी हुई. खूटियाँ सुन्दर या वक्र भौंहें सी लग रही थीं। वह श्रीविलास के किसलय रूप अधर बिम्ब वाला था। वह गोपुर मल्लिका-पुष्पों के गुच्छों के हास्य को भी हरण करने वाले सुभगों द्वारा स्पृहणीय था। वह सफेद कमल और कुन्द पुष्पों के समूह से दन्तुर-बाहर निकले हुए सिरों वाला तथा वाद्यों के नाद से मुखरित था । महाराज भरत ने उस नगर-द्वार को पार कर दिया। ३९. सार्वभौम ! भवता स्पृहणीयः , सर्वथैव वृषभध्वंजवंशः। दैवतावनिरुहेव सुमेरुः , कौस्तुभेन' च हरेरिव वक्षः ॥ चक्रवर्तिन् ! आपको ऋषभ के वंश की सर्वथा स्पृहा करनी ही चाहिए । जैसे कल्पवृक्ष सुमेरु पर्वत की और कौस्तुभमणि विष्णु के वक्षस्थल की स्पृहा करते हैं। ४०. मौक्तिकरिव यशोभिरशोभि , क्ष्मातलं विमलवृत्तगुणाढ्यैः । दिक्पुरन्ध्रिहृदयस्थलधार्यहेतुरम्बुधिरिव त्वममीषाम् ॥ जैसे स्वच्छ और गोलाकार आदि गुणों से (अथवा गुण-डोरी से) युक्त मोतियों से भूमि शोभित होती है, उसी प्रकार विमल आचरण और गुण से सम्पन्न तथा दिशा रूपी सुन्दरियों के वक्षस्थल पर धारण करने योग्य यश से आपने पृथ्वी को शोभित किया है । जैसे मोतियों का हेतु (उत्पत्ति-स्थल) समुद्र है, वैसे ही यश के हेतु आप है। ४१. वामदक्षिणकरद्वयमेतत् , स्वर्गरत्नफलदाधिकमह्यम् । सर्वदेव हृदयेप्सितवस्तुप्रापणात् तव वदान्यवतंस ! ॥. १. दैवतावनिरुट-कल्पवृक्ष । २. कौस्तुभः—विष्णु के वक्ष-स्थल में स्थित मणि (भुजमध्ये तु कौस्तुभः -अभि० २।१३७) ३. ऊह्यम्--ज्ञातव्यम् । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ११९ दानशील मूर्धन्य ! आपके बाएं - दाएं दोनों हाथ सदा मनोवांछित वस्तु देने में स्वर्गरत्न - चिन्तामणि और स्वर्ग फलद - कल्पवृक्ष से भी अधिक फलदायी हैं, ऐसा जानना चाहिए । ४२. ४३. समुद्र नदियों का स्वामी होता हुआ भी जल - जड़ता युक्त है। चांद गौरकांति वाला होता हुआ भी सकलंक है । सूर्य तेज का निधान होता हुआ भी निस्तेज है । देव ! आप इनसे कैसे उपमित हो सकते हैं ? ४४. वाहिनीपतिरयं जलताढ्यो, गौरकान्ति रपि संश्रितदोषः ।। तेजसां निधिरपि क्षतधामा तत्कथञ्चिदुपमेय इह त्वम् ॥ ४५. भारत भूमि के स्वामिन् ! आपकी यह कीर्ति लोक में युगान्त तक स्थायी रहेगी । इसी का अनुसरण कर भविष्य में होनेवाले राजे पृथ्वी की रक्षा करेंगे । , " आयुगान्तमपि कीर्त्तिरियं ते स्थास्नुरत्र भरतावनिशक ! | भाविनोऽपि यदमूमनुसृत्य क्ष्माभृतो वसुमतीमवितारः ॥ ४६. 1 " कीर्ति निर्जरवा' तव राजन् ! विष्टपंत्रितयपावनदक्षा । " राजहंस रचिता धिकहर्षा वाहिनीरमणतीरगमित्री ॥ राजन् ! 'तीनों लोकों को पावन करने में दक्ष, राजहंसों— श्रेष्ठ राजानों द्वारा उल्लसित आपकी कीर्ति रूपी गंगा समुद्र के तीर की ओर जाने वाली है । त्वत्प्रतापदहने त्वदरीणां भस्मसादिह यशांसि भवन्ति । स्वेच्छया टति यशोनवयोगी, भस्मना वपुरनेन विलिप्य ॥ देव ! आपके प्रताप रूपी अग्नि में आपके शत्रुओं के यश भस्मसात् हो जाते हैं । आपका यश रूपी नया योगी, वैरियों के भस्मसात हो जाने पर बनी राख से अपने शरीर को लिप्त कर, इच्छानुसार विचरण करता है । व्यानशे तव यशश्चतुराशा, वाहिनीशितुरिवाम्बु विवृद्धम् । तंत्र सेतवति कोपि न राजा, मार्गणा स्त्वनिमिषन्ति नितान्तम् ॥ १. गौरकान्तिः - चन्द्रमा | २. तेजसां निधि:- सूर्य । ३. निर्जरवहा - गंगा । ४. सेतवति - पालिवदाचरति । ५. मार्गणः– याचक (मार्गणोर्थी याचनक: - अभि० ३।५२ ) ६. अनिमिषन्ति - मीनवदाचरन्ति । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् जैसे समुद्र का पानी ज्वार के समय चारों दिशाओं में बढ़ता है वैसे ही आपका यश चारों दिशाओं में व्याप्त हो गया है। कोई भी राजा उसके लिए बांध नहीं बन रहा है-प्रतिरोध नहीं कर रहा है और याचक उसमें मछलियों की भांति तैर रहे हैं । ४७. देव ! चन्द्रति' यशो भवदीयं , सांप्रतं क्षितिभजामितरेषाम् । तारकन्ति' च यशांसि कृतित्वं , तत्तवैव न हि यत्र कलङ्कः॥ देव ! आपका यश चन्द्रमा के समान प्रदीप्त है और दूसरे राजाओं का यश तारों की भांति टिमटिमा रहा है। जहां आपके यशःचन्द्र में किसी प्रकार को कलंक नहीं है, वहां आपका ही कर्तृत्व है। ४८. त्वामपास्य संकलार्थदहस्तं , योत्र विह्वलतया श्रयतेऽन्यम् । । . दुर्मतिः स हि सुधाब्धिमपास्ता, शुष्यदम्बुसरसि स्थितिमान् यः॥ आप हाथ के समान समस्त वस्तुओं के दाता हैं। जो व्यक्ति अपनी विह्वलता के कारण आपको छोड़कर किसी दूसरे का आश्रय लेता है वह दुर्मति अमृत के समुद्र को छोड़कर सूखते हुए तालाब का आश्रय लेता है। ४६. को गुणस्तव स येन निबद्धा , राजराज ! चपलापि जयश्रीः । नान्यमेव भवतश्च वृणीतेऽतस्त्वदीयसुभगत्वमिहेड्यम् ॥ चक्रवर्तिन् ! आपका वह ऐसा कौनसा गुण है जिससे. बंधकर यह चंचल विजयलक्ष्मी भी आपको छोड़ किसी दूसरे का वरण नहीं करती ? अतः इस विषय में आपकी सुभगता स्तुत्य है। ५०. पश्य पश्य गगनक्षितिचारि , त्वबलं खररुचं पिदधाति । इत्यवेत्य गगनान्तविहारी , ख्यातिमेति कथमत्र महस्वी' ? देखो, देखो, आकाश और भूमि पर चलनेवाली आपकी सेना सूर्य को आच्छादित कर रही है, यह जानकर आकाश के छोर तक विचरण करनेवाला सूर्य इस लोक में ख्याति को कैसे प्राप्त कर सकता है ? १. चन्द्रति-चन्द्रवदाचरति । २. तारकन्ति–तारावदाचरन्ति । ३. इड्यम्-स्तोतव्यम् । ४. वेक्ष्य-इत्यपि पाठः। ५. महस्वी-सूर्य। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ षष्ठः सर्गः ५१. इत्थमथिजन वाक्यपदान्याकर्णयन् क्षितिपतिविलुलोके । शाखिभिः परिवृतानि समन्तात् , काननानि सविधे पुर एव ॥ महाराज भरत ने मंगल-पाठकों के ये वाक्य सुने और नगर के निकट ही चारों ओर वृक्षों से परिवृत काननों को देखा।। ५२. स्वस्वनागहयपत्तिरथाढ्या , उत्तरोत्तररमापितचित्राः। पृष्ठतः क्षितिपतेः पृथिवीशा, अन्वयुः करभरा इव भानोः॥ जैसे सूर्य के पीछे-पीछे किरणों का समूह चलता है वैसे ही महाराज भरत के पीछे-पीछे अपने-अपने हाथी, घोड़े, सैनिक और रथों से युक्त (बत्तीस हजार) राजे चल रहे थे। वे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट ऐश्वर्य के द्वारा दूसरों को आश्चर्यचकित कर रहे थे। ५३. आदिदेवतनयं ध्वजिनीं तां, तारकारि मिव निर्जरसेनाम् । अन्वितां समवलोक्य सतर्क , नागरा इति परस्परमूचुः॥ कात्तिकेय के पीछे-पीछे चलने वाली देवसेना की तरह महाराज भरत के पीछे-पीछे चलनेवाली उस सेना को देखकरन्नगरवासी लोग परस्पर तर्क सहित इस प्रकार कहने लगे :५४. एतयोर्ननु पिता जगदीशः , सर्वसृष्टिकरणकविधाता। कि विरोधतरुरुप्यत आभ्यां, युत्फल श्चरनियोजनसूनः ? 'भरत और बाहुबली के पिता जगत् के स्वामी और सारी सृष्टि के एकमात्र विधाता थे । क्या अब ये दोनों वैर-वृक्ष का वपन कर रहे हैं, जिसका फल है युद्ध और फूल है दूत का संप्रेषण ?' ५५. न प्रभुर्न इह तृप्तिमवापद् , भारतक्षितिपराज्यगृहीत्या। वाडवाग्निरिव दुर्धरतेजाः , सिन्धुराजसलिलाभ्यवहृत्या ॥ हमारे स्वामी भरत भारतवर्ष के राजाओं के राज्य लेकर भी तप्त नहीं हुए, जैसे समुद्र के पानी का भक्षण करके भी दुर्धर तेजवाली वाडवाग्नि तप्त नहीं होती। १. अर्थिजन:-मंगलपाठक । २. उत्तरोत्तर..."-उत्कृष्टोत्कृष्टलक्ष्मीभिरपितं-दत्तं चित्रं-आश्चर्य यः, ते । ३. तारकारि:-कात्तिकेय (तारकारिः शराग्निभू:-अभि० २।१२३) ४. युत्फलः–युत् (युद्ध) एव फलं यस्य, असौ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५६. देवतेशितुरपि स्पृहणीया , लक्ष्मि'रस्य परिभाति गतान्ता। बन्धुबाहुबलिमण्डललिप्सोः , सांप्रतं किमधिकात्र भवित्री ॥ महाराज भरत के पास अनन्त लक्ष्मी है । इन्द्र भी उसकी स्पृहा करता है। ऐसी स्थिति में अब वे अपने भाई बाहुबली के एक प्रदेश को लेने के इच्छुक हैं। उसे लेने से अब उनके कौनसी संपदा अधिक हो जाएगी ? ५७. वाजिराजिभिरिभैश्च विवृद्धात् , प्राभवात्' सुरनरोरगकान्तात् ।। __ मन्यते तृणवदेष जगन्ति , प्राभवस्मयगिरिए विलयः॥ घोड़ों की श्रेणियों और हाथियों के कारण महाराज भरत का प्रभुत्व (आधिपत्य) बहुत बढ़ गया है । वह आधिपत्य देव, मनुष्य और नागराज के लिए भी कान्त है, स्पृहणीय है । इसलिए वे सारे संसार को तृण की तरह तुच्छ मानते हैं। क्योंकि प्रभुत्व और अहंकार का पर्वत अनुल्लंघनीय होता है। ५८. सात्विका इह भवन्ति हि केचित् , केचिदादधति राजसभावम् । तामसत्वमिह कैश्चिदुपास्तं , यज्जना भुवि गुणत्रयवन्तः ॥ इस संसार में कुछ पुरुष सात्विक होते हैं, कुछ राजसिक भाव को धारण करते हैं और कुछ तामसिक वृत्ति वाले होते हैं । इस प्रकार संसार में मनुष्य इन तीन गुणों वाले होते हैं । ५६. राजसाः किल भवन्ति महीन्द्रा , वैभवभ्रमिविणितनेत्राः । यत्प्रभुत्वमसदर्पयितारो , नाधिपत्यमितरत्र सहन्ते ॥ राजे राजसिक वृत्ति वाले होते हैं। उनके नेत्र ऐश्वर्य की भ्रान्ति से विर्णित (भ्रमित) रहते हैं । इसी कारण वे अन्यत्र दूसरे के आधिपत्य को सहन नहीं करते। जहां उनका प्रभुत्व नहीं है वहां भी वे अपना प्रभुत्व थोपते हैं। ६०. दायकत्वसुकृतित्वगुणाभ्यां , सात्विको नरपतिविविदे'ऽयम् । . सात्विकत्वमवधूय युयुत्सुः , सोदरेण सह तत्कथमेषः ? दायकत्व और सुकृतित्व (पांडित्य) के कारण हमने महाराज भरत को सात्विक जान १. लक्ष्मि दीर्घ होना चाहिए । यह प्रयोग चिन्त्य है। २. प्राभवात्-प्रभुत्वात्, आधिपत्यात् । ३. विविदे-विज्ञातः। ४. युयुत्सुः-योद्ध मिच्छु:-युयुत्सुः । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः १२३ रखा था। किन्तु वही महाराज भरत सात्विकता को छोड़कर अपने भाई के साथ युद्ध करने का इच्छुक हो रहा है। फिर वह कैसे सात्विक हो सकता है ? ६१. यो विवेकतरणेरुदयाद्रिः, सोऽधनात्र भविता चरमाद्रिः। मेदिनीगगनचारिचमूभिर्यवृतो व्रजति बन्धुविजित्यै ॥ जो विवेक रूपी सूर्य के लिए उदयाचल था वह आज यहां अस्ताचल हो जाएगा। क्योंकि भरत स्थल और नभ सेना से परिवृत होकर अपने बन्धु बाहुबली पर विजय पाने के लिए जा रहा है। ६२. मण्डपः स यदि नीतिलताया , ज्येष्ठमानमति तहि कथं नो ? मानहानिरधुनास्य न नत्यामुच्छिनत्यविनयं त्वनयाऽयम् ॥ यदि बाहुबलि नीतिलता के मंडप हैं तो वे अपने ज्येष्ठ भाई को नमन क्यों नहीं करते ?' आज भी वे यदि नत होते हैं तो उससे उनकी कोई मान हानि नहीं होती किन्तु इस नीति से वे अपने अविनय का उच्छेद कर सकते हैं। ६३. मानिनां प्रथमता किल तस्य , प्राग गता त्रिजगति प्रथिमानम् । तामपास्य कथमेति स एनं , जीविताच्छतगुणोऽस्त्यभिमानः । । बाहुबली अभिमानियों में प्रथम हैं। उनकी ऐसी प्रसिद्धि तीनों लोकों में पहले ही हो चुकी है। उसको छोड़कर वे भरत के पास कैसे जाएं ? उनका अभिमान जीवन से भी सौ गुणा अधिक है। ६४. एकदेशवसुधाधिपतित्वं , वान्धवस्य सहते न विभुनः । आत्मनो जलगतं प्रतिरूपं , वीक्ष्य कुप्यति न कि मृगराजः ? हमारे स्वामी भरत अपने भाई के एक देश का आधिपत्य भी सहन नहीं करते । क्या सिंह पानी में पड़े हुए अपने प्रतिबिम्ब को देखकर कुपित नहीं होता? ६५. यच्चकार रणचेष्टितमुच्चारतक्षितिधवस्य पुरस्तात् । एक एव बलवान् बहलीशः , सत्त्ववानिति यशोस्य भविष्णु ॥ भारत भूमि के अधिपति महाराज भरत के सम्मुख एक बाहुबली ने ही युद्ध करने की चेष्टा की है, यह महत्त्व को प्राप्त करने के लिए है। इस युद्ध के कारण बाहुबली की इस प्रकार की कीत्ति फैलेगी कि वे बलवान् और सत्त्ववान् हैं । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६६. एतयोः समरतः किल भावी , नागवाजिरथपत्तिविनाशः। - मत्तयोरिव वनद्विपयोर्द्राक् , पार्श्ववर्तितरुसंततिभङ्गः ॥ इन दोनों के पारस्परिक युद्ध से हाथी, घोड़े, रथ और सैनिकों का विनाश होगा। जैसे जंगल के मदोन्मत्त हाथियों के पारस्परिक कलह से पार्ववर्ती वृक्षों की श्रेणी का ही नाश होता है। ६७. नागरैरिति विकित एष , स्वर्वनात्यधिकविभ्रमभृत्सु। कोशलापरिसरोपवनेषु , क्षिप्तचक्षुरचलद् बलयुक्तः ॥ पौरजनों ने भरत के प्रति ऐसी वितर्कणाएं की। महाराज भरत अयोध्या के पार्ववर्ती उपवनों में दृष्टिपात करते हुए अपनी सेना के साथ आगे चल पड़े। ये उपवन नन्दनवन से भी अत्यधिक विभ्रमशाली थे। “६८. पञ्चवर्णमयकेतुपरीतः , पुष्पपल्लवचितैरिव वक्षः। हेमकुम्भकलिताग्रशिरोभिर्देवधामभिरिवोन्नतिमद्भिः ॥ ६६. पद्मिनीवदनचारुगवाक्षः , पल्वलैरिव विकस्वरपद्मः। सर्वतो वसनवेश्मभिरुच्चै , राजितान्तरमनोरमलक्ष्मि ॥ ७०. यत्र पूर्वमवरोधवधूभिः , संन्यवासि विविधोत्सवरत्ये। चारुचत्ररथतोऽपि वनं तद् , राजमौलिरिव गन्तुमियेष ।।। -त्रिभिविशेषकम् । जैसे वृक्ष पुष्प और पल्लवों से घिरे रहते हैं वैसे ही उपवन पांच रंगों वाली पताकाओं से घिरे हुए थे । ऊचे मन्दिरों की भांति उन भवनों के शिखर-भाग पर स्वर्ण-कलश चढे हुए थे। छोटे तालाबों में विकसित कमल की भांति उन भवनों के पद्मिनी स्त्री के वदन की तरह सुन्दर गवाक्ष थे। उन उपवनों के चारों ओर बड़े-बड़े पट-कुटीर (तम्बू) थे। उनसे उपवनों का मध्य-भाग मनोरम और शोभायुक्त लग रहा था। जिस उपवन में भरत के अन्तःपुर की वधूओं ने विविध उत्सवों के आनन्द के लिए पहले ही 'निवास किया था, वह उपवन कुबेर के उपवन से भी सुन्दर था और महाराज भरत कुबेर की भांति उसमें प्रवेश करने के इच्छुक हुए। ७१. भारताधिपतिरम्बरवेश्म'द्वार्यऽवातरदिभादतितुङ्गात् । मालवक्षितिधवार्पितहस्तः , स्वर्गनाथ इव मेरुगिरीन्द्रात् ॥ . भारत के अधिपति भरत उस पट-गृह के द्वार पर अपने उन्नत हाथी के पीठ से मालवा १. अम्बरवेश्म–पटकुटीर (तंबू)। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः १२५ के अधिपति के हाथ का सहारा लेकर नीचे उतरे, जैसे इन्द्र मेरु पर्वत से नीचे उतरता है। ७२. स्वस्ववाहनवरादवतेरे , राजभिस्तदनुनम्रशिरोभिः । गां गतैरिव सुरैर्वरभूषाभूषिताङ्गरुचिराजितवेषः ॥ महाराज भरत के पीछे-पीछे प्रणत शिर किए दूसरे राजे भी अपने-अपने वाहनों से नीचे उतरे, जैसे सुन्दर अलंकारों से भूषित शरीरवाले और सुन्दर वेश वाले देवता पृथ्वी पर अपने-अपने यानों से नीचे उतरते हैं। ७३. वेत्रपाणिसुचरीकृतमार्गः , संसदालयमितः क्षितिराजः । पञ्चबाण इव यौवनमन्तःपुष्पसंचयशुचिस्मितकान्तम् ।। महाराज भरत के आगे-आगे द्वारपाल मार्ग दिखाता हुआ चल रहा था। वे धीरे-धीरे संसद-भवन को प्राप्त हुए जैसे कामदेव अन्तःपुष के संचय से पवित्र और स्मित-कान्तः यौवन को प्राप्त करता है। ७४. सौधादपि प्रमुमुदे पटवेश्मनासौ , रत्नौधचित्रितवितानवितानवत्वात । यत्र प्रदीपकलिकाः पुनरुक्तभूत्यै , नक्तं दिवेव तपति धुमणौ ज्वलन्ति ॥ महाराज भरत प्रासादों से भी अधिक उन तम्बूत्रों से प्रसन्न हुए। वे तम्बू रत्न समूहों से चित्रित चंदोवों से विस्तृत थे । वहां प्रदीप की कलिकाएं चक्रवर्ती के ऐश्वर्य को पुनरुक्त करती हुई तपते हुए सूर्य की भाँति रात को दिन बनाती हुई जल रही थीं। ७५. यस्यात्रापि हि विश्वविस्मयकरः प्राचीनपुण्योदयो, जागत्ति प्रथिमानमेति सुषमा तद्दोहदेभ्योधिकम् । मुक्तापङ्कजिनीविसाशनपराः सर्वत्र हंसा यतः, काकाः कश्मलनिम्बभूरुहफलास्वादैकबद्धादराः ॥ महाराज भरत का विश्व को आश्चर्यान्वित करनेवाला प्राचीन पुण्योदय-पूर्वाजित धर्म का परिणाम यहाँ भी जाग रहा है और उनके मनोरथों से भी अधिक सुषमा को प्राप्त हो रहा है । हंस सर्वत्र मोती और कमल-नाल को खाने वाले होते हैं । किन्तु कौवे अपवित्र भोजन और निम्ब वृक्ष के फल (निबोली) का भोजन करने में ही आसक्त होते हैं। -इति प्रथमसेनानिवेशवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः१. रत्नौघ...'-रत्नौधेन चित्रितानि वितानानि-चन्द्रोदयास्तेषां वितानं-समूहो वा. विस्तारस्तद्वत्वात् । २. विसं-कमलनाल (मृणालं तन्तुलं विसम्-अभि० ४।२३१ ) Page #159 --------------------------------------------------------------------------  Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां सर्ग प्रतिपाद्य अपने अन्तःपुर की रमणियों के साथ भरत के वन-विहार का वर्णन । श्लोक परिमाण छन्द रथोद्धता। लक्षण- : 'रात्परैर्नरलगै रथोद्धता' (एक रगण, एक नगण, एक रगण, एक लघु और एक गुरु-55, ।।, SIS, I, 5)। इसमें ग्यारह अक्षर होते हैं। पहला, तीसरा, सातवां, नौवां और ग्यारहवां दीर्घ होता है। रथोद्धता छन्द और स्वागता छन्द में यही अन्तर है कि रथोद्धता में नौवां अक्षर गुरु और दसवां लघु होता है। किन्तु स्वागता छन्द में नौवां अक्षर लघु और दसवां अक्षर गुरु होता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु महाराज भरत अपने अन्तःपुर के साथ अयोध्या के परिसर में व्याप्त उपवनों में गए और अपनी रमणियों के साथ विविध प्रकार की क्रीड़ा करने लगे । महाराज भरत चन्द्रमा की भांति शोभित हो रहे थे। जैसे चन्द्रमा के पीछे-पीछे किरणें चलती हैं, वैसे ही महाराज भरत के पीछे-पीछे सुन्दरियां चल रही थीं। उनके हाथों में पंचवर्णी तालवृन्त के पंखे थे। एक सुन्दरी भरत के मस्तक पर छत्र ताने चल रही थी। भरत के मन में जलक्रीड़ा करने की इच्छा उत्पन्न हुई। वे अपनी रमणियों के साथ क्रीड़ा-सरोवर की ओर बढ़े। वे रमणीय सरोवर के पास आए। उन्होंने अंगनाओं के साथ उसमें अवगाहन किया । जलक्रीड़ा में रत सुन्दरियां भरत को छका रही थीं। उनके केशपाश शिथिल हो चुके थे। जूड़े में लगे फूल पानी पर तैरने लगे। उस समय वह सरोवर प्राभातिक आकाश की भांति फूलों से टिमटिमा रहा था। जलक्रीड़ा से निवृत्त होकर सुन्दरियां तट पर आईं। उस समय सूक्ष्म वस्त्रों के भीतर से उनके शरीर की कान्ति स्पष्टरूप से प्रकट हो रही थी। महाराज भरत भी भीगे वस्त्रों सहित तट पर प्रा.गए। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती भरत सुन्दरियों के मनोरथों से प्रेरित होकर वन में क्रीडा करने लगे । जिस प्रेमी के मन में प्रीति के नाश होने का भय होता है क्या वह अपनी वल्लभा की इच्छा का अतिक्रमण कर सकता ? २. सप्तमः सर्गः चक्रभृन् मृगदृशां मनोरथै 'रीरितोथ विजहार कानने । वल्लभाभिलषितं हि केनचिल्लुप्यते प्रणयभङ्गभीरणा ? ३. पार्श्व पृष्ठपुरतः पुरन्ध्रिभिश्च क्रिणश्चरितुमभ्ययुज्यत' । हस्तिनीभिरिव सामजन्मनो ऽनोक है क गहनोन्तरे वने ॥ वृक्षों से अत्यन्त सघन उस वन के मध्य भाग में सुन्दरियों ने चक्रवर्ती भरत को आगे-पीछे और दोनों पावों में वैसे ही घेर लिया जैसे हथिनियां हाथी को घेर लेती हैं । कामिनीसहचरस्य चक्रिणो, विभ्रमं वनयुषो विलोक्य वै 1 तत्र त्रिवशराट् शचीसखः, संचरस्त्रिदिवकाननान्तरे ॥ वन-विहार की वेला में कामिनियों के साथ संचरण करनेवाले चक्रवर्ती भरत की शोभा को देखकर देवलोक के कानन ( नन्दनवन) में इन्द्राणी के साथ संचरण करने वाला देवेन्द्र भी लज्जित हो गया । १. मनोरथ: -- कार्मः | २. अभ्ययुज्यत - - उद्यमः क्रियतेस्म । ३. सामजन्मा -- हाथी ( मातङ्गवारणमहामृगसामयोनयः - - अभि० ४।२८३ ) ४. विभ्रमं -- शोभाम् । ५. शचीसखः -- शची -- इन्द्राणी सखा अस्ति यस्य सः शचीसखः -- इन्द्राणीसहितः । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ४. ५. —युग्मम् । उस समय वन विकसित फूलों तथा पवन से प्रकंपित पत्तों वाली कनेर की लता द्वारा चक्रवर्ती भरत के दोनों पावों में चामर की लक्ष्मी - को उपस्थित कर रहा था। उस समय वह वन पवन द्वारा आकाश में फैले हुए केतकी के पराग का महाराज भरत के शिर पर अपना श्वेत प्रभा वाला छत्र तान रहा था । ७. मेरपुष्पकरवीर' वीरुधा', मातरिश्व परिधूतपत्रया | संवितन्वदिव पार्श्वयोर्द्वयोश्चामरश्रियममुष्य चक्रिणः ॥ कैतकेन रजसा तदा वनं व्योम्नि मारुतविवर्तितेन च । अस्य मूर्धनि निजं सितप्रभं, छत्रमादधदिव व्यराजत ॥ , भरत बाहुबलि महाकाव्यम् ८. वातवेल्लिततरुप्रपातिभिः प्राभृतं नरपतेः फलैर्वनम् । 1 संतान खलु नेदृशाः क्वचित् स्युश्चराचरविलङ्घ्यताजुषः ॥ वन ने पवन से आन्दोलित होकर वृक्षों से गिरने वाले फल राजा को उपहृत किए । भरत जैसे व्यक्ति कहीं भी चर-अचर जगत् द्वारा अतिक्रमणीय नहीं होते । , कामिनीकुचघटीविघट्टनैर्मन्थरो मिलितवक्त्रसौरभः । तं निषिक्तवसुधाङ्गसङ्गतोऽमुमुदत् प्रमदकाननानिलः ॥ कामिनियों 'स्तन रूपी कलशों के विघट्टन से मन्थर, उनके मुँह से निकली हुई सौरभ के कारण सुरभित और सिंचित भूमि के स्पर्श से शीतल, अन्तःपुर कानन के उस पवन ने भरत को प्रमुदित किया ।. 1 अस्मदृद्धिपरिवर्द्धके रवौ, मेष कुप्यतु रसातिसर्जनात् । छायया रविमहो निवारितं संजदस्य शिरसीति शाखिभिः ॥ सूर्य पानी बरसा कर हमारी फल, पुष्प आदि की ॠद्धि को बढ़ाता है, इसलिए महाराज भरत इस पर कुपित न हो जाएं - ऐसा सोचकर वृक्षों ने महाराज भरत के मस्तक पर लगने वाले रवि के आतप को अपनी छाया से रोक दिया । १. करवीरः -- कनेर (करवीरो हयमारः -- अभि० ४। २०३ ) २. वीरुध् (वीरुत्) -- बहुत डालों वाली लता (गुल्मिन्युलपवीरुधः - - प्रभि० ४ १८४) ३. मातरिश्वा -- वायु ( मातरिश्वा जगत्प्राणः -- अभि० ४ । १७३ ) ४. रसातिसर्जनात् -- पानीयवर्षणात् । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः ६. षट्पदाञ्जनभरं लतालयः', सविधाय सुमलोचनेषु च । वल्लभा इव मुदं ददुस्तरां , तस्य संविहरतो वनान्तरे ॥ लताओं ने अपने सुमन रूपी लोचनों में भौरों रूपी अंजन आंजकर, वन के बीच विचरण करने वाले महाराज भरत को, प्रियाओं की भांति आनन्दित किया। १०. मत्तभृङ्गरुतशिजिनीरवं , पुष्पचापमधिरोप्य मन्मयम् । संतुतोष स निजानुहारिणं , वीक्ष्य काननगतं जयावहम् ॥ महाराज भरत ने अपने समान रूप-रंग वाले विजयी कामदेव को कानन में आए हुए देखकर मत्त भृङ्ग के गुजारव रूपी प्रत्यंचा की टंकार वाले पुष्प-धनुष्य से उसे संतुष्ट किया। ११. उन्मिषत्कुसुमकुड्मलस्तनीश्चंपकप्रसवगौररोचिषः। कोकिलास्वरभृतः सितच्छदध्वाननपुर मनोरमक्रमाः॥ १२. कुन्दसुन्दरदतीः परिस्फुरच्चञ्चरीकनयनाः सुमस्मिताः। पल्लवाधरवतीर्वनावनी वणिनी रिव विलोक्य सोऽतुषत् ॥ -युग्मम्। भरत घनस्थलियों को देखकर सन्तुष्ट हुआ। वे सुन्दर स्त्रियों की भांति प्रिय लग रही थीं। वे विकसित पुष्पगुच्छ रूपी स्तनों वाली, चम्पक के फूलों सी गौर कांति वाली, कोकिलाओं के स्वर.से भरी पूरी, हंसों के शब्द रूपी नूपुरों से मनोरम चरणवाली, कुन्द फूलों सी सुन्दर दाँतों वाली, उड़ते हुए भौंरों सी आंखों वाली, फूलों की तरह हंसने वाली और पल्लव रूपी अधरों वाली थीं। १३. सर्वतोस्य फलिनीलताऽसिते, व्योमकीर्णमिह कौमुदं रजः । पक्षिपक्षपवनः प्रपञ्चितं , कौमुदीभ्रममतीतनत्तराम् ॥ सर्वत्र व्याप्त प्रियंगुलता से श्यामल वन में उड़ते हुए पक्षियों के पक्ष से उठने वाली हवा १. लतालय:--लतानां आलयः-पंक्तयः ।। २. कुन्दसुन्दरदती:-कुन्दवत् सुन्दरा दन्ता यासां तास्ताः । ३. सुमस्मिता:-सुमाणि-पुष्पाणि तद्वत् स्मितं-हसितं यासां, तास्ताः । ४. वनावनि:-काननवसुधा । ५. वणिनी स्त्री (वर्णिनी महिलाऽबला—अभि० ३१६८) फलिनीलता-प्रियंगु की लता (प्रियंगु फलिनी श्यामा-अभि० ४।२१५) कौमदं रजः–कुवलयोत्थ: परागः । पाठान्तरम्-पक्षिपक्षपवनप्रपञ्चितम् । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ .. भरत बाहुबलिमहाकाव्यम् से विस्तृत आकाश में बिखरा हुआ कुमुद का पराग महाराज भरत को चांदनी का भ्रम पैदा कर रहा था। १४. केकयाऽब्दसुहृदां तदा वनं , कामिनोंर्वददितीव वामिह'। खेलतं कलयतं फलं श्रियोऽमदृशो हवसरो दुरासदः॥ उस समय वह वन मयूरों की केका से मानो कामी स्त्री-पुरुषों से यह कह रहा हो कि ये जैसे नाच रहे हैं वैसे तुम (युगल) भी नाचो और वनश्री.की शोभा को लूटो, क्योंकि ऐसा अवसर मिलना दुर्लभ है। १५. संश्रितः स ललनाभिरुल्लसद्दो रुरोजकमलाभिरञ्जसा। . वल्लरीः फलमृणालशोभिनीः , स्पर्धयेव दधतां महीरुहाम् ॥ उल्लसित भुजा और स्तनश्री वाली ललनाओं ने भरत का आलिंगन किया। मानो कि वे फल और मृणाल से शोभित वल्लरियों को धारण करने वाले वृक्षों से स्पर्धा कर रही हों। १६. अन्वभूवमहमद्य शुद्धतां , भारतेश्वरसमागमादिति । वातधूतनवपल्लवच्छलान् , नृत्यतीव तरुराजिर ग्रंतः॥ भरत चक्रवर्ती के समागम से मैंने आज शुद्धता का अनुभव किया है-मानो कि यह दिखलाती हुई आगे की तरु-राजि पवन से कंपित नव पल्लवों के मिष से नाचने लगी। १७. उद्धतं नभसि मातरिश्वना , प्रोन्मिषत्स्थलसरोजिनीरजः। उत्तरीयमिव काननश्रियां , न्यस्तमात्मशिरसि प्रियागमात् ॥ पवन ने विकसित होती हुई स्थल-कमलिनी के पराग को आकाश में उछाल दिया। उस समय ऐसा लग रहा था मानो कि कानन की लक्ष्मी ने अपने स्वामी भरत के आगमन से उत्तरीय को अपने शिर पर प्रोढ लिया हो। १८. पल्लवैः स्वयमशोकशाखिनः, कापि तेन निहता हृदन्तरे । हृष्यतिस्म दयिते प्रियाजनः , प्रीतिकातरधिया हि तुष्यति ॥ १. अब्दसुहृद्-मयूर (नीलकण्ठो मेघसुहृच्छिखी—अभि० ४।३८५) २. कामिनो:-स्त्रीपुरुषयोः। ३. वाम्-युवाम्। v. दो:-भुजा (भुजो बाहुः प्रवेष्टो दो:-अभि० ३।२५३) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः . . भरत ने अशोक के पत्तों से स्वयं एक कामिनी के हृदय को आहत किया । आहत होने पर भी वह प्रसन्न हुई। क्योंकि प्रेमालु स्त्रियां प्रेम में कायल होती हैं । वे अपने प्रेमी से प्रसन्न होती हैं। १६. मामपास्य किमनेन पूर्वतस्ताडितेयममुना हता त्वहम् । चूर्ण मुष्टिमिति तन्मुखं रुषान्वक्षिपन्नयनतान्तिकारिणीम् ॥ इस भरत ने मुझे छोड़कर पहले इस स्त्री को अशोक के पत्तों से क्यों आहत किया है ? इसने मुझे चोट पहुंचाई है। यह सोचकर एक कामिनी ने रुष्ट होकर भरत के मुंह को लक्ष्य कर आँखों में क्लान्ति पैदा करने वाला मुट्ठी भर चूर्ण उछाला। २०. युक्तमेवमनया कृतं दृशोर्दण्ड एव विदधे यथोचितम् । कान्तयेति निहतोपि सोऽतुषत् , प्रेमणीह विपरीतता हि का ? उस वल्लभा ने चूर्ण उछालकर उचित ही किया। उसने मेरी आंखों को यथोचित दंड दिया-यह सोचकर कान्ता से ताड़ित होने पर भी भरत प्रसन्न हुआ। प्रेम में विपरीतता कैसी ? २१. काचिदन्नतमुखी प्रतिद्रुमं , हस्तदुर्लभतमप्रसूनकम् । स्वीयमसमधिरोप्य नायिता , चित्तकामममुना ह्यशारदा ॥ कोई लज्जारहितं स्त्री हाथ से दुष्प्राप्य पुष्प वाले वृक्षों के आगे (फूल तोड़ने की इच्छा से) ऊर्ध्वमुखी हो गई। उस समय भरत ने उसे कंधे पर चढ़ाकर उसके चित्त की अभिलाषा को पूरा किया। २२. काचनापि कुसुमानि चिन्वती , कण्ठदाम दयितस्य गुम्फितुम् । चुम्बितेयमधरोष्ठपल्लवे , चञ्चरीकतरुणेन तत्क्षणात् ॥ कोई अंगना अपने पति के लिए माला गूंथने के लिए फूल चुन रही थी। इतने में ही एक भ्रमर रूपी तरुण ने उसके अधर-ओष्ठ रूपी पल्लवों का चुंबन कर लिया। २३. चुम्बितं मधुकरेण तन्मुखं , वीक्ष्य कापि दयितारुषं दधौ । भ्रू विभङ्गकुटिलेन चक्षुषा , तर्जयन्त्यपि निरागसं प्रियम् ॥ 'मधुकर ने मेरे मुंह का चुम्बन ले लिया है'-यह देखकर वह स्त्री अपने कुटिल भौंहों १. अशारदा-अलज्जावती। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ वाली आंखों से निरपराधी पति को भी तर्जना देती हुई कुपित हो गई । २४. २५. तब पति ने कहा - ' है खञ्जनाक्ष े ! प्रणय भंग से भयभीत मैंने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है। तुम्हारी सखी इस बात की साक्षी है - यह कहकर उसने उस मानिनी स्त्री का अनुनय किया, उसके क्रोध को शांत किया । २६. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २७. खञ्जनाक्षि ! तव मन्तुरादधे, नो मया प्रणयभङ्गभीरुणा । साक्षिणी तव सखीति मानिनी तेन कापि मुहुरन्वनीयत ॥ " २८. कोपने ! मधुना निगद्यते युक्तमेव दयितेन तत्कथम् । मन्यसे प्रणयिनं न दुर्मदाद्, गर्वितांसि भृशमात्मनः कृते ॥ ईदृशः प्रियतमो न हि त्वया प्राप्य एव किमनेन दुर्लभा । वागेव दयिताऽलिरन्वशात्, तामिति प्रणयकर्कशं वचः ॥ 1 — युग्मम् । सखीने नायिका से कहा - 'हे कोने ! तुम्हारे पति ने आज तुमको उचित ही कहा है।' उसने कहा – 'यह कैसे ?' तब उस सखी ने प्रणय-कर्कश वाणी में उसे कहा – 'तुम अपने आप में बहुत गर्वीली हो गई हो। तुम दुर्मद के कारण अपने प्रेमी को कुछ नहीं समझती । इस प्रकार का पति तुम्हें कभी प्राप्त नहीं हो सकता । तुम्हारे जैसी स्त्री क्या उसके लिए दुर्लभ है ?" आगतेन सखि ! नागतेन किं, प्रेयसेतरनिबद्धचेतसा । कापि शृण्वति विलासिनीति' तामालिमाह सुभगत्वगविता || अपने सौभाग्य पर गर्व करती हुई किसी सुन्दरी ने पति को सुनाते हुए उस सखी से कहा - 'हे लखि ! जिसका मन दूसरी प्रेयसी में निबद्ध है, उसे पति के आने और न आने से क्या ?" मुञ्च मानिनि ! रुषं प्रियेऽधुना, यत्तवैव विरहो भविष्यति । व्याजमाप्य निहनिष्यति स्मरस्त्वां पुनः प्रियसखीत्युवाच ताम् ॥ प्रिय सखी ने उससे कहा - ' मानिनी ! तुम अब अपना कोध छोड़ दो । हे प्रिये ! पति के साथ विरह तुम्हारा ही होगा । इस विरह रूपी मित्र को प्राप्त कर कामदेव तुम को पीड़ित करेगा ।' १. विलासिन् — पतिः तस्मिन् — विलासिनि । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः २६. जोविते सति निवेदनं सखि ! प्रेयसश्च सुखदुःखयोरिति । ! 1 प्रीततरमना निशम्य तत् सस्वजे सरभसं स मानिनीम् ॥ " 'सखि ! यदि पति जीवित रहा तो मैं उसे सुख-दुख का निवेदन करूंगी' - यह सुनकर प्रेम से कायल मन वाले प्रेमी ने हठात् उस सुन्दरी को बाहों में भर लिया । ३०. क्लृप्तपुष्पशयनं लताजयं कापि कान्तमुपनीय कामिनी । 1 तत्क्षगोच्चितस्रजा दृढ़, बध्यमानमिति सागसं जगौ ॥ वहाँ एक लतागृह में पुराना बिछी हुई थी। एक कामिनी अपने पति को वहां ले आई । उसे आराधी मानकर तत्काल के चुने हुए पुष्पों से बनी हुई माला से उसे दृढ़ता से बांधती हुई वह बोली ३१. संयतोऽसि निबिडं मयाऽधुना गन्तुमक्षमपदो भवानितः । मानसं तु तव तत्र संगतं स्वागसः फलमवाप्नुहि द्रुतम् ॥ ३२. 'नाथ ! मैंने तुमको सघनता से बांध दिया है। अब तुम इस लता - मंडप से एक पग भी चलने में समर्थ नहीं हो ! तुम्हारा मन तो अपनी प्रिया में ग्रासक्त है । अब तुम निश्चित ही अपने अपराध का फल भोगोगे ।' ३३. , पुरे गुपरिपञ्जरास्ययोक्तिरेव विदितान वां मया । काञ्चिदेवमनुनीय दक्षिणः, स्वापराधविफलत्वमाचरत् ॥ १३५ 'हे प्रिये ! पुष्पों के पराग से पीत-रक्त हुए तुम्हारे दोनों के चेहरों में मैंने कोई भेद नहीं देवा' ह कहते हुए उदार नायक ने किसी एक सुन्दरी का अनुनय कर अपने अपराध को विफल बना डाला । योषितः समनुनीय तत्सखी । , यस प्रणयविह्वलं मनो इत्युवाच बहुवल्लभे प्रिये का रतिस्तव गजेन्द्रगामिनि ! ? , १. 'गले' इत्यपि । २. तन इति प्रियाजने । अपने पति के प्रति प्रेम-विह्वल मन को लक्षित कर उसकी सखी ने कहा'है गजगामिनी ! बहुपत्नीवाले पति के प्रति तेरा कैसा ?' अनुराग ३. संगतं - आसक्तम् । ४. द्रुतम् — निश्चितम् । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ३४. ३५. ऐसा कहे जाने पर वह सुन्दरी सहसा बोल उठी- ' तूने उचित बात नहीं कही । क्या तू यह नहीं जानती कि अमृत सबके लिए प्रिय होता है, किन्तु भाग्य से हस्तगत होने पर ही उसका स्वाद लिया जा सकता है' । ३६. रिति सहसं जगाद सा, न त्वयोचितमुदीरितं वचः । कि न वेत्सि सकलप्रिया सुधा, स्वाद्यते करगता हि भाग्यतः ॥ 'जिसके पति ने अनेक ललनाओं के प्रेम रस को जान लिया है, वह उन स्त्रियों के मान, कोपन आदि कलनाओं को भी भली भाँति जान लेता है । हे सखि ! कुछ भी नहीं जानने वाले पति के समक्ष मानकारिता नहीं होती क्योंकि पानी को मथने से कौन सा रस पैदा होता है ?" ३७. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ज्ञाने कललनारसः प्रियो, मानकोपकलनामवैति यत् । सख्यवेत्तरि न मानकारिता, मन्यने हि सलिलस्य को रसः ? ३८. काञ्चन प्रसवरेणुमुष्टिना, घूर्णिताक्षिकमलां प्रवञ्चय सः । चुम्बतिस्म दयिता मुखाम्बुजं कोविदो हि कुरुते मनीषितम् ॥ " महाराज भरत ने एक सुन्दरी के प्रति मुट्ठी भर पुष्प पराग फेंका। सुन्दरी की आंखें घूर्णित हो गई । इस प्रकार उसे ठगकर महाराज ने उस कान्ता का चुम्बन ले लिया । क्योंकि विचक्षण व्यक्ति ही अपनी इच्छानुसार कर सकता है । एहि एहि वर ! देहि मोहनं', नेतरासु हृदयं विधेहि रे । एवमक्षरमयीं सुमस्रजं, कापि वल्लभगले निचिक्षिपे ॥ 'नाथ ! चल, चल, मुझे रतिज सुख दे। दूसरी स्त्रियों के प्रति अपना मन मत लगा' - इस प्रकार की अक्षरमयी फूलों की माला किसी सुन्दरी ने अपने प्रिय के गले में डाल दी । कापि कुड्मलहता विलासिनी, वल्लभोपरि पपात संभ्रमात् । एतदीयमथ तत्सखीजनैनिस्त्रपत्वमुररीकृतं न हि ॥ फूलों के गुच्छों से आहत होने पर एक विलासिनी संभ्रम के साथ अपने वल्लभ पर जा गिरी । उसकी सखियों ने उसके इस कृत्य को लज्जाजनक नहीं माना । - अभि० ३ |२०० ) १. मोहनं — मैथुन (सुरतं मोहनं रतम् - प्र - Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः ३६. ४०. कोई स्त्री वृक्ष के शिखर पर जा बैठी। सूर्य की किरणों से उत्तप्त होने के कारण उसके मुख पर स्वेद-बिंदु उभर आए। उस समय वह मुख ऐसा लग रहा था मानो कि कमलिनी पर पराग के तरल बिंदु उभर आए हों । कापि शाखिशिखरं समाश्रिता, वासरेश्वरकरोपतापिता । स्वेदबिन्दुसुभगं मुखं दधौ, पद्मिनीव मकरन्दशीकरम् ॥ पल्लवोल्वणकरः प्रसूनवृक्, जारवत् क्षितिरुहोऽप्यकम्पत । एतदीयपतिलोकनादधः, कामिनी हि न सुखाय सेविता ॥ वह वृक्ष पल्लवी स्पष्ट हाथों वाला और पुष्प रूपी आंखों वाला था । उस स्त्री के पति को अपने नीचे बैठे हुए देखकर वह वृक्ष भी जार पुरुष की भांति कांप उठा क्योंकि दूसरों की स्त्री का सेवन सुख के लिए नहीं होता । ४१. पुज्यशाखिशिखरावरूढये शक्नुवत्यपि च काचिदिच्छति । मन्मयाढ्य दयिताङ्गसङ्गमं पूच्चकार पतिताहमित्यगात् ॥ ४२. ४३. 1 कुसुमित तरु शिखर से नीचे उतरने में व्याप्त अपने पति के शरीर का संगम नाथ ! मैं वृक्ष से नीचे गिर पडूंगी।' , 3 १३७ धारिता प्रियभुजेन सा दृढं स्कन्धलग्नलतिकेव तत्क्षणात् । 1 विबद्ध सिचयावशेषका होनिमीलिनयना व्यराजत ॥ समर्थ होती हुई भी कोई सुन्दरी कामदेव से करने की इच्छुक होकर चिल्ला उठी - 'हे तत्क्षण पति ने उसे अपनी भुजाओं पर दृढ़ता से झेल लिया। वह उस समय कंधों पर लगी लता की भांति शोभित हो रही थी । उस समय उस कान्ता के केवल नीवी से बद्ध वस्त्र शेष रहा था, और सारे वस्त्र खुल गए थे। लज्जावश उसकी आंखें निमीलित हो गई थीं। एतदीय कबरीविराजिनांसेन सोऽवहदनुत्तरां तुलाम् । भर्गभग्नधनुष' रतीशितु:, स्कन्धदेशतरवारि वाहिनः ॥ उस सुंदरी की कबरी (केश रचना) पति के कंधों पर लटक रही थी । उससे वह ऐसा १. भर्गभग्नधनुषः - भर्गेण - ईश्वरेण ( महादेवेन ) भग्नं धनुष्― चापो यस्य तस्य । २. रतीशितुः — कामदेवस्य । ३. तरवारि:- तलवार (तरवारिकौक्षेयकमण्डलाग्रा - अभि० ३।४४६ ) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ भरत बाहुबलि महाकाव्यम् लग रहा था मानो कि शिव द्वारा धनुष को तोड़ डालने पर कामदेव अपने स्कंध देश पर तलवार धारण कर रहा हो । ४४. उच्चिताभिनवचम्पकस्रजा, पुष्परेणुपरिपाण्डुरा तनुः । शारदोदकमुचामिवावलिविद्युतैव सुदृशां व्यरोचत ।। तत्काल चुने हुए अभिनंव चम्पक के फूलों की माला से विकीर्ण पुष्परेणु से धूसरित स्त्रियों का शरीर शरद् ऋतु के मेघों में चमकने वाली बिजली की तरह दीप्त हो रहा था । ४५. स्वेदलुप्ततिलके प्रियानने पुष्पधूलिपरिधूसरत्विषि । स व्यधत्त वदनानिलं मुहुर्जीवयन्निव मनीषितां घृतिम् ॥ 1 प्रिया के प्रानन का तिलक पसीने से घुल गया था। उसकी कांति पुष्पधूलि से धूसरित हो गई थी । भरत हृदय की इच्छित तुष्टि को प्राणवान् करता हुआ अपनी वल्लभा के मुँह पर अपने मुँह से हवा झलने लगा, फूंक देने लगा । ४६. इत्यमूं कथयतिस्म तत्सखी, तत्त्वदीयसुभगत्वमेव यत् । रम्भाऽपि कमनीयमीदृशी, वल्लभः किमनया वशीकृतः ? उसकी सखी उसको कहने लगी- 'यह तेरा ही सौभाग्य है कि इन्द्राणी भी उसकी अभिलाषा करती है । उसके मन में भी यह वितर्क उत्पन्न हुआ है कि इस कान्ता ने ऐसे वल्लभ को कैसे वश में कर लिया ?' 1 ४७. गोत्रविस्खलितमेवमभ्यधात् कापि तं प्रणय एकपक्षतः । न प्रयाति हृदयं तयाकुलं मानसे यदति तन्मुखे भवेत् ॥ ४८. इत्युदीर्यं पतदश्रुलोचना, निर्जगाम सहसा तदन्तिकात् । " संप्रवेष्टुमिव साधरान्तरं न्यङ्मुखी क्वचिदिता लतालयम् ॥ 1 —युग्मम् । पति ने अपनी कान्ता को गलत नाम से संबोधित किया, तब वह इस प्रकार बोली'मेरा प्र म एकपक्षीय है । आपका उस स्त्री से आकुल मन उस प्रेम तक नही पहुंच पा रहा है । जो मन में होता है वही मुंह पर छलक जाता है ।' इस प्रकार कहकर वह आंखों से आंसू बहाती हुई शीघ्र ही उसके पास से चली गई 1 १. कमनीयं – अभिलषनीयम् । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सग: १५६ भूमि में प्रवेश पनि की इच्छुक की भांति नीचा मुंह किए वह कहीं लतागृह में चली गई। ४९. वच्मि देवि ! भवती चकार किं , रागिणि प्रियतमे हि कि क्रुधा । श्रीरिव त्वमसि तस्य चेतसो , देवता जलरुहः किमन्यया ? ५०. त्वद्वियोगविधुरः स जीविते , संशयं परिजनस्य कल्पते । रङ्गभङ्ग उचितत्वमञ्चति , प्रस्तुते महविधौ न तत्तव ॥ ५१. तन्नियोगवशतस्त्वदन्तिकं , सङ्गतास्मि मम देहि तद् गिरम् । साथ दूतिमितिवादिनी जगौ, कोपभङ्गिपरिनतितेक्षणा ॥ -त्रिभिः कुलकम् । उसके पास एक दूती आकर बोली-'अरी देवी ! तुमने यह क्या किया ? अनुरक्त पति के प्रति क्रोध करने का क्या अर्थ ? कमल के लक्ष्मी की भांति तुम उसके चित्त की देवता हो । उसे दूसरे से क्या प्रयोजन ?' । 'देवी ! तुम्हारे वियोग से विधुर होकर वह अपने परिजन के जीवन में संदेह कर रहा है। उत्सव का प्रसंग प्रस्तुत होने पर उसके रंग में भंग करना तुम्हारे लिए उचित नहीं हैं।' 'तुम्हारे पति की आज्ञा से मैं तुम्हारे पास आई हूँ। तुम मुझे वहां चलने का वचन हो।' दूती के इस प्रकार कहने पर उस नायिका ने कोप-भंगिमा से आंखों को नचाते हुए कहा ५२. • ति ! सत्यमुदितं त्वया वचो , न प्रवेष्टुमहमस्य हृद् विभुः । .. वणिनीशतसमाकुलं यतः , प्रीतिरस्य शतधा विभज्यते ॥ 'दति ! तू ने सत्य बात कही है कि मैं उसके हृदय में प्रविष्ट होने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि उसका हृदय सैकड़ों सुन्दरियों से समाकुल है और उसका प्रेम भी उन सैकड़ो में विभाजित हो गया है।' ५३. का सुधा मृगदृशां हि वल्लभः , प्रीतितत्परमना भवेद् यदि । . प्राणनाथ करगामि जीवितं , योषितामिति वदन्ति सूरयः । यदि पति प्रीतिपरायण हो तो स्त्रियों के लिए अमृत भी क्या है ? कुछ नहीं। विद्वान ठीक ही कहते हैं कि स्त्रियों का जीवितव्य उनके पति के हाथ में होता है। . ५४. पूर्वमेव हृदयं विलासिना , मे गृहीतमथ किं करोम्यहम् । तन्मनश्च न मया ववे तदा , विज्ञ एव स न चाहमीदृशी ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० मरतबाहुबलि महाकाव्यम् 'हे सखि ! पति ने मेरा हृदय पहले ही छीन लिया है अतः अब मैं क्या करूं ? मैंने उसका हृदय नहीं लिया । वही विज्ञ है । मैं वैसी नहीं हूँ ।' ५५. 'जो नायक प्रमपूर्ण हृदयवाला होता है, वह स्त्रियों के मन से नीचे नहीं उतरता । जैसे शुद्ध पक्ष-युगल का प्रत्यय देने वाला राजहंस पद्मिनी के वन से नीचे नहीं उतरता । ' ५६. ५७. योषितामवतरेन्न मानसात् प्रीतिपूर्णहृदयो हि नायकः । राजहंस इव पद्मिनीनाच्छुद्धपक्षयुगल प्रतीतिभाक् ॥ 'धन-धान्य, रत्न, वस्त्र आदि पदार्थ जीर्ण हो जाते है किन्तु दो युवा हृदयों के बीच होने वाला अद्वितीय सघन प्रेम कभी कहीं पुराना नहीं होता, जीर्ण नहीं होता ।' ५८. 1 सस्यरत्नवसनादयस्त्वमी, संश्रयन्ति विषयाः पुराणताम् । एक एव' frfast युवद्वयी प्रीतिरीतिनिचयो' न कुत्रचित् ॥ ५६. विस्मरन्ति दयिता न वल्लभं तद्वियोगविधुरा मृगीदृशो , 'स्त्रियाँ अपने पति को कभी नहीं भूलतीं । वे पति को अपने जीवन से भी अधिक मानती हैं। पति के वियोग से विधुर हुई स्त्रियाँ अपने जीवन को तृणवत् तुच्छ समझती हैं ।' जीवितादधिक एव यत् प्रियः । मन्वते तृणवदत्र जीवितम् ॥ 7 प्राणनाथविरहासहाः स्त्रियो, जातवेदसमुपासतेतराम् । ताभिरप्यनुनयो विधीयते, साहसस्य भविता हि का गतिः ॥ 'स्त्रियाँ अपने प्राणनाथ का विरह सहन नहीं कर सकतीं । विरह प्राप्त कर वे अग्नि में प्रवेश कर जाती हैं । फिर भी उन्हें ही अपने पति का अनुनय करना पड़ता है, क्योंकि उनके साहस की क्या गति होगी, कौन जाने ?' १. एक एव - अद्वितीय । २. युवद्वयीप्रीति" पादयोनिपतितास एवं मे, नाहमप्यनुनयं समाश्रये । एत्वधिज्यधनुरप्यनन्यजो, धीरता सहचरी हि योषिताम् ॥ 'वही मेरे पैरों में आकर गिरेगा। भले ही कामदेव धनुष्य में प्रत्यंचा ताने हुए आए फिर भी मैं अनुनय नहीं करूंगी, क्योंकि धीरता ही स्त्रियों की सहचरी है ।' - युवयुवतियुगल प्रणयस्वभावसमुदयः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः १४१ ६०. इत्यु दीरितवतीमुवाच तां, दूतिरस्खलितवाक्परम्पराम् । जीवितेन सह विग्रहस्त्वयारभ्यते यदवगण्यते प्रियः ॥ नायिका ने अस्खलित वाणी में सारी बातें कही। तब दूती ने कहा- 'तुमने अपने पति की अवगणना कर अपने जीवन के साथ विग्रह प्रारम्भ कर दिया है।' ६१. किं न वेत्सि विधुरभ्युदेष्यति , प्रीतिवल्लिपरिवद्धिमण्डपः । मानिनीहृदयमानसंग्रहग्रन्थिमोक्षणपरिस्फुरत्करः॥ 'क्या तुम नहीं जानती कि प्रेम रूपी वल्लरी की परिवृद्धि के लिए मंडप के समान और मानिनी स्त्रियों के मन में रहने वाले मानसंग्रह रूपी ग्रन्थियों को तोड़ने में समर्थ, अभिव्यक्त किरणों वाला चन्द्रमा उदित होगा ?' ६२. प्रेतभूः प्रमदकाननं शराः, कौसुमा रतिपतेरयोमयाः । चन्द्रमास्तरणिरित्यवेहि ते , वैपरीत्यमवशे हृदीश्वरे ॥ 'तुम्हारे पति के तुम्हारे अधीन न होने पर यह प्रमद कानन श्मशान हो जाएगा। कामदेव के कुसुममय बाण लोहमय हो जायेंगे और यह चन्द्रमा सूर्य जैसा तपने लगेगा। तुम समझो, सब कुछ विपरीत हो जाएगा।' ६३. मौनमेवमनयाप्युदीरिता , यावदाश्रितवती त्वधोमुखी। तावदेत्य. सहसा. लतान्तराश्छिच्लिषे प्रणयिनाऽथ मानिनी ॥ द्रती के कहने पर भी नायिका मौन हो नीचे मुंह किए खड़ी रही। इतने में ही उसका पति लताओं के बीच से अकस्मात् आया और उस कामिनी को अपनी बाहों में भर लिया । ६४. सर्वदेव चतुरासि भामिनि ! , प्रीणने वनविहार ईदृशः। . सद्रवो'लय' इवातिदुर्लभः , कोपमानसमयं न वेत्सि किम् ? ६५. आददे हृदयमेव मे त्वया , नेतरा वसितु मत्र तत्क्षमा । अंह अंह इति वादिनी वधूश्चुम्बिता सरभसं विलासिना ॥ -युग्मम् । १. सद्रवः-रवेण–परिहासेन सह वर्तमान इति सद्रव: वनविहारः । २. लयः-गीतनृत्यवाद्यत्रयी। ३. वसिक् आच्छादने धातुः न तु 'वसन्निवासे । ४. अंह-मंह-सम्बोधने अव्ययः । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् भरत ने कहा - 'हे भामिनी ! तुम संतुष्ट करने में सदा ही चतुर रही हो । यह परिहास युक्त वन-विहार लय (गीत, नृत्य, और वाद्य से युक्त विलास ) की भांति अत्यन्त दुर्लभ है । प्रिये ! क्या तू कोप और मान के अवसर को नहीं जानती ?" 'तुमने मेरा हृदय ही चुरा लिया है। उस हृदय को दूसरी कोई भी स्त्री आच्छादित करने में समर्थ नहीं है ।' तब वह नायिका 'नहीं, नही' कहती रही और भरत ने उसका हठात् चुंबन ले लिया । ६६. राजा भरत चंद्रमा की भांति शोभित हो रहे थे । जिस प्रकार चंद्रमा के पीछे-पीछे किरणें चलती हैं, उसी प्रकार राजा के पीछे-पीछे अंगनाएं चल रही थीं । उस वन-विहार के समय एक दूसरे के चित्त में उत्पन्न हर्ष का सागर उछल रहा था । ६७. पञ्चवर्णमयपुष्पभङ्गियुक्तालवृन्तवरवीजनेन सः । अन्वभूत् प्रणयिनी करिणा, चामरादपि सुखं युवाऽधिकम् ॥ चन्द्रमा इव महीपतिव्यं भादङ्गनास्तदनुगा इव त्विषः । उल्लास च तदा परस्परं चित्तभूप्रमदपाथसां पतिः ॥ कान्ताएं अपने हाथों से पांच वर्ण वाले पुष्पों की सजावट युक्त तालवृन्त के पंखे झल रही थीं । उस समय युवक भरत ने चंवर डुलाने से उत्पन्न सुख से भी अधिक सुख का अनुभव किया । ६८. ६६. राजचिह्न वाले मनोज्ञ छत्र से भी अधिक प्रमोद को प्रेरित करती हुई एक सुन्दरी ने सभी जाति वाले पुष्पों की शोभा से युक्त छत्र को भरत के मस्तक पर ताना । ७०. सर्वजातिकुसुमश्रियाञ्चितं, छत्रमस्य शिरसि व्यधाद् वधूः । राजचिन्हललितातपत्रतश्चाधिकं प्रणुदती मुदां भरम् ॥ प्रस्थितोऽथ जलकेलये नृपः सावरोध' वनिताजनस्ततः । फुल्लपङ्कजदलाननश्रियं राजहंस इव केलिपल्वलम् ॥ पद्मिनीनिचयसञ्चितोत्सवं राजहंसविनिषेवितान्तिकम् । ऊमपाणिमिलनोत्सुकं रयात्, स्पर्धमानमिव भूमिवल्लभम् ।। , , १. चित्तभू.... — मानसोत्पन्नहर्षाब्धिः । २. अवरोधः - अन्तःपुर (अन्तः पुरमवरोधोवरोधनम् - अभि० ३।३९१ ) ३. केलिपल्वलम् — क्रीडा-सरोवर । --युग्मम् । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्ग: अब भरत अपने अन्तःपुर की सुन्दरियों के साथ जलक्रीडा करने के लिए राजहंस की तरह क्रीडा-सरोवर की ओर चल पड़ा। वह सरोवर विकसित कमलों की शोभा से युक्त था । वह भरत से स्पर्धा कर रहा था-उसकी बराबरी कर रहा था। वह सरोवर कमलिनी-निचय से संचित उत्सव वाला था और भरत पद्मिनी स्त्रियों से युक्त था। उस सरोवर के तटों पर राजहंस रहते थे और भरत की सेवा में राजहंसश्रेष्ठ राजे रहते थे। वह सरोवर वेगपूर्वक ऊर्मि रूपी हाथों से भरत से मिलने को उत्सुक हो रहा था। ७१. आगतोद्गतसरोजिनीचयर्मेखलारणितभङ्गकूजितः। चक्रहंसकलनपुरारवैः , सद्रसान्तरगतैः सरो बभौ ॥ भंग-कूजन रूपी करधनी के शब्दों तथा चक्रवाक और हंसों की कलध्वनि रूपी नुपूरों के शब्दों से युक्त और स्वच्छ पानी के मध्य में विद्यमान आपात उत्पन्न कमलिनियों के समूह से वह सरोवर शोभित हो रहा था । ७२. पुण्डरीकनय विकासिभिर्लोकमानमिव केलिपल्वलम् । चक्रसारसविहङ्गमस्वनैराह्वयन्तमिव स व्यलोकत ॥ विकसित कमल रूपी नयनों से देखे जाते हुए तथा चक्रवाल, सारस आदि पक्षियों के शब्दों द्वारा बुलाए जाते हुए भरत ने उस क्रीडा-सरोवर को देखा। ७३. योषितां प्रतिकृतिर्जलाशये , पश्यतामिति वितर्कमादधे । - स्वं स्वरूपमिह सिन्धुसोदरे , कि श्रियेव बहुधा व्यभज्यत । जलाशय में देखती हुई स्त्रियों के प्रतिबिम्ब ने यह वितर्क किया-क्या इस सिन्धु के सहोदर जलाशय में लक्ष्मी ने अपने आपको अनेक रूपों में विभक्त कर डाला है ? ७४. एतदग्रत इमा जलात्मजाः, कि नलिन्य इति पङ्किला ह्रिया। हीयतेस्म नलिनीगणस्तदा, शुद्धपक्षयुगलैः सितच्छदैः ॥ भरत की इन सुन्दरियों के समक्ष जड (जल) से उत्पन्न होने के कारण लज्जा से पंकिल बनी हुई, इन नलिनियों का अस्तित्व ही क्या है इस वितर्क से उन सफेद पाँखों वाले हंसों ने उस नलिनी समूह को छोड़ दिया। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहपलिमहाकाव्यम् ७५. सावरोषनृपतेः समागमादुच्छलन्निव तरङ्गपाणिभिः । स हसन्निव विकासिपद्मिनीकाननैः समतुषत् सरोवरः॥ अपने अन्तःपुर के साथ आए हुए नृपति को देखकर वह सरोवर अपने तरंग रूपी हाथों से उछलता हुआ और विकसित कमलिनियों के कानन से मुस्कराता हुआ अत्यन्त प्रसन्न हुआ ! ७६. क्रीडातटाकमवनीपतिराजगाहे,' साधं वधुभिरिभराज इव द्विपीभिः । हस्तोद्ध ताम्बुरुहिणीनिचयः समन्तादावर्तमानशफरी समलोचनाभिः॥ जैसे यूथपति अपनी हथिनियों के साथ सरोवर का अवगाहन करता है, वैसे ही घूमती हुई मछलियों की भांति दृष्टिवाली वधूओं के साथ महाराज भरत ने. हाथ से कमलिनी समूह को उखाड़कर, उस क्रीडा-सरोवर का चारों ओर से अवगाहन किया। . ७७. काभिश्चन व्यरचि लोचनकज्जलौघैः , श्यामं जलं शुचितरं स्तनचन्दनैश्च । एवं वितर्क इह केलिसरोवरेऽभूत् , सङ्गः खरांशुतनया सुरकुल्ययोः किम् ? सुन्दरियों के लोचन काजल से आंजे हुए थे। उसके कारण सरोवर का पानी कृष्णवर्ण वाला हो रहा था। उनके स्तनों पर चन्दन का लेप'था। उसके कारण पानी सफेद हो रहा था। उस समय उस क्रीडा-सरोवर को देखकर यह वितर्क उत्पन्न हुआ कि क्या यहाँ यमुना और गंगा का संगम हो रहा है ? ७८. धम्मिल्ल भारकुसुमैः पतितर्जलान्तः , . प्राभातिकाम्बरमिवस्थिततुच्छतारम् । चूर्णीकृतोमिवलयं स्तनशैलशृङ्गः, क्रीडासरो विविधरूपमतान्यमूभिः ॥ १. आजगाहे-विलोडयामास । २. द्विपीभिः-हस्तिनीभिः । ३. शफरी-मछली (अभि० ४।४१२) ४. खराशुतनया-यमुना (कालिन्दी सूर्यजा यमी-अभि० ११४६/। ५. सुरकुल्या-गङ्गा (कुल्या इति नदी ।) ६. धम्मिल्लः—केश-रचना (धम्मिल्लः संयताः केशाः-प्रभि० ३।२३४) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः उन सुन्दरियों की केश-रचनाओं में फल लगे हुए थे। जलक्रीडा के समय वे फूल पानी में गिर पड़े। उस समय वह सरोवर थोड़े तारों से युक्त प्रभात के अकाश की भांति लग रहा था । सुन्दरियों के स्तन रूपी शैल-शृगों से टकरा कर उस सरोवर की ऊर्मियों का वलय टूट चुका था। इस प्रकार उन सुन्दरियों के कारण वह क्रीडा-सरोवर विविध रूप धारण कर रहा था। ७६. आकाशसंचरसितच्छदवीजितस्य , हा ! शैत्यमभ्यधिकमम्बुचयस्य किं वा ? किं वा प्रफुल्लनयनाङ्गसमागमस्य , प्रोचान एवमयमुत्पुलको बभूव ॥ 'आकाशगामी हंसों द्वारा प्रकंपित सरोवर का पानी ज्यादा शीतल है अथवा स्त्रियों के अंग का समागम'-ऐसा कहता हुआ भरत रोमांचित हो उठा। ८०. अद्भिर्व्यपासि किल कज्जलकालिमा दृग द्वन्द्वान्न किञ्चिदपि पाटलताधरोष्ठात् । स्त्रीणामिति व्यरचि चान्यनिजावबोधो, नैसगिकी हि कमला क्वचिदप्यनेत्री ॥ सरोवर के पानी ने उन सुन्दरियों के नयन-युगल के कज्जल की कालिमा को धो डाला किन्तु अधर-ओष्ठ की पाटलता (रक्तता) को दूर नहीं किया। सरोवर के इस व्यवहार ने स्वर-पर का बोध करा दिया। क्योंकि स्वाभाविक संपदा कहीं भी छीनी नहीं जा सकती। . ८१. यावत् सहस्रकिरणो गगनावगाही , तावत् कुरङ्गनयने ! न हि नो वियोगः । गन्ताऽयमस्तमचिरादिति दीनवक्त्रे, कोके प्रियां वदति भूमिभृता न्यत्ति ॥ उदासीन चक्रवाक अपनी प्रिया से कह रहा था-'हे कुरंगनयने ! जब तक सूर्य गगन का अवगाहन करता रहेगा तब तक हमारा वियोग नहीं होगा। किन्तु यह सूर्य अब शीघ्र ही अस्त हो जाने वाला है।' यह सुनकर चक्रवर्ती भरत वहाँ से लौट गया। १. उत्पुलक:-रोमाञ्चित । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ८२. धम्मिल्लमारशिथिलालकबिदुसेके रुज्जीवयन्त्य इव शङ्करदग्धकामम् । क्रीडातटाकमवगाह्य तटं तरुण्याः, सूक्ष्माम्बरप्रकटिताङ्गरुचः प्रयाताः ॥ जूडे के शिथिल केशों पर लगे जल बिन्दु के सेक से शंकर द्वारा दग्ध कामदेव को पुनः उज्जीवित करती हुई वे सुन्दरियाँ क्रीडा-सरोवर का पूरा अवगाहन कर तट पर आ गईं। उस समय सूक्ष्म वस्त्रों के भीतर से उनके शरीर की- कान्ति प्रकट हो रही थी। ८३. नरपतिरिति स्नात्वा क्रीडासरस्तटमागत., स्तदनुहरिणीनेत्रा नीराभिषिक्तकचोच्चयाः। ' प्रणयिहृदयं नातिकामन्त्यनन्यहृदस्त्वमः, प्रसरतितरां प्राच्यात् पुण्योदयाद् हि सुखं नृणाम् ॥ इस प्रकार स्नान आदि से निवृत्त हो महाराज भरत क्रीडा-सरोवर के तट पर आ गए । उनके पीछे-पीछे भीगे हुए केशों वाली सुन्दरियाँ भी तट पर आ गईं। अनन्य हृदय वाली ये स्त्रियाँ अपने पति के हृदय की भावना का अतिक्रमण नहीं करती। क्योंकि मनुष्यों का सुख उनके पूर्वाजित पुण्योदय से ही प्रसरित होता है। -इति वनविहारक्रीडावर्णनो नाम सप्तमः सर्गः Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाद्य - श्लोक परिमाण छन्द लक्षण आठवां सर्ग भरत की सेना का बहली प्रदेश की ओर प्रस्थान | ७५ उपजाति । देखें, सर्ग २ का विवरण । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु भरत की अंगनाओं के केशों से पानी की बूदें टपक रही थीं। उस समय ऐसा लग रहा था मानो सरोवर के तट पर मोती बिखर रहे हों। राजा ने वहां कुछ विश्राम किया। सूर्य अस्ताचल की ओर तीव्र गति से बढ़ रहा था। सूर्य अस्त हो गया। चांद अभी उदित नहीं हुआ था। चारों अोर अन्धकार फैलता जा रहा था। राजा वहां से चलकर अपने पड़ाव पर आ पहुंचा। अंगनाएं अपने-अपने पटगृह में चली गईं। वे पटगंह रत्नदीपों से जगमगा रहे थे। महाराज भरत भी समयोपयुक्त वेश पहनकर पटगृह में गए। अन्यान्य राजे भी अपनी-अपनी कान्ताओं से क्रीडा करने के लिए पटगृह में चले गए। नाना प्रकार से अपने पतियों को रिझाती हुई कामिनियां पटगृहों में आनन्दित हो रही थीं। परस्पर मिलने से होने वाले रसातिरेक से दम्पतियों ने बीतने वाले समय को सुधामय, सुखमय, प्रमोदमय, कामदेवमय और एकतान माना। चाँद उगा। चाँदनी का विस्तार हुआ। सास संसार सफेद सा प्रतीत होने लगा। प्रातःकाल हुआ जानकर कुछ सैनिक जागृत हो गए। हस्तिपाल और अश्वपाल अपने-अपने हाथी-घोड़ों को खोजने लगे । अनेक वर्ण वाले हाथी-घोड़े एक सफेद वर्ण के हो जाने के कारण उनमें भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक सा था । वे परस्पर विवाद करने लगे। सेना ने वहां से प्रस्थान किया। सेना की टुकड़ियों के सेनापति आगेआगे चलने लगे। उनके वेष भिन्न भिन्न थे। चतुरंग सेना के प्रयाण से अपूर्व कोलाहल होने लगा। हाथियों के चिंघाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट और रथों के चीत्कार से सारा भू-आकाश ध्वनित हो उठा। सूर्योदय हुआ। महाराज भरत ने वहां से प्रयाण किया। कई राजे अपनी पत्नियों को साथ लेकर और कई राजे उन्हें वहीं छोड़कर भरत के साथ-साथ चल पड़े। भरत श्वेत हाथी पर आरूढ थे । शेष राजे घोड़ों और रथों पर आसीन थे। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः १. प्रथावरोधेन समं प्रयान्तं , नमस्यतीव क्षितिराजमारात् । सरस्तटोत्सपितरङ्गहस्तैः , सतां स्थिति केप्यवधीरयन्ति ? राजा ने अपने अन्तःपुर के साथ उस सरोवर से प्रयाण किया। उस समय वह सरोवर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कि तट की ओर बढते हुए तरंग रूपी हाथों से वह महाराज भरत को दूर से ही नमस्कार कर रहा हो । क्या कोई सज्जन व्यक्तियों की स्थिति की अवमानना करता है ? २. स्नानामुक्तालकबिन्दुपंक्तिव्याजेन मुक्ताभिरिवावकीर्णः । . पद्माकरस्तीरगताङ्गनाभी , रसावहानां न हि संभवेत् किम् ॥ तट पर आई हुई सुन्दरियों के, स्नान से भीगे हुए बिखरे केशों से पानी की बूंदें टपकटपक कर भूमि पर नीचे गिर रही थीं। जल की बूंदों के व्याज से ऐसा लग रहा था मानो कि उस सरोवर पर मोती बिखरे हुए हों। क्योंकि रस का वहन करने वालों के लिए क्या सम्भब नहीं होता ? सब कुछ सम्भव होता है। ३. सितच्छदानां चरतामनन्ते , जलस्थलाम्भोरुहिणीविबोधः । जलस्थपालिस्थितपद्मिनीभिर्लोलालकालिप्रसराभिरासीत् ॥ जल में और सेतु पर स्थित सुन्दरियों के बिखरे हुए केश रूपी भ्रमरों के प्रसार के कारण आकाश में उड़ने वाले हंसों को जल और स्थल में होने वाले कमलों का बोध हो रहा था। ४. धम्मिल्लमुक्तालकवल्लरीणां , नत्यक्रियाकल्पनसूत्रधारः । तं सावरोध तटसन्निविष्टं , मुहुः सिधेवे सरसीसमीरः ।। राजा अपने अन्तःपुर के साथ तट पर बैठा था। सुन्दरियों के जूडों से मुक्त केशवल्लरियाँ पवन के झोंकों से हिल रही थीं। उनकी नृत्य-कला का सूत्रधार सरोवर का पवन भरत की बार-बार सेवा कर रहा था । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५. न्यमोल्यताम्भोरहिणीगणेन , तीक्ष्णांशनाप्यस्तगिरिनिलिल्ये। नपेण चात्याजि तटाकतीरं , दीनं मुखं द्वन्द्वचरस्य दृष्ट्वा ॥ चकवे के दीन मुंह को देखकर कमलिनियाँ सिकुड़ गईं। सूर्य अस्ताचल में जा छुपा । राजा ने भी सरोवर के तट को छोड़ दिया। . निमीलिताम्भोरुहपत्रनेत्रा , तमःपटीसंवलिताम्बुदेहा । सुष्वाप कामं सरसी प्रदोषे', वियोगदुःखादिव चक्रनाम्नोः ॥... कमलपत्र रूपी नेत्रों को मूंदे हुए तथा अन्धकार रूपी वस्त्र से जल-शरीर को ढाँके हुए वह तलाई रात के प्रारम्भ काल में ही गाढ निद्रा में सो गई, मानो कि. वह चक्रवाकों के वियोग-दुःख से दुःखित हो गई हो। ७. अस्तंगते भानुमति प्रभौ स्वे , सन्ध्याचिताहव्यवहे दिनेन । . धूमैरिव ध्वान्तभरैः प्रसस्र , निजं वपुर्भस्ममयं वितेने ॥ . .. अपने स्वामी सूर्य के अस्तंगत होने पर दिन ने संध्या रूपी चिता की अग्नि में अपने शरीर को भस्ममय बना डाला और अन्धकार धुएँ की भांति फैल गया। . ८. आकाशसौधे रजनीश्वरस्य , महेन्द्रनीलाश्मनिबद्धपीठे। प्रादुर्बभूवुः परितो दिगन्तांस्ताराः प्रदीपा इव वासरान्ते ॥ अब चाँद के महान् इन्द्रनील रत्न से निबद्ध पीठ वाले आकाश रूपी प्रासाद के हर दिगन्त में तारे जगमगाने लगे जैसे कि दिन का अवसान होने पर दीपक जगमगाते हैं। ६. वियोगिनीनां विरहानलस्य , निःश्वासधूमावलिधूम्रधाम्नः । स्फुटाः स्फुलिङ्गा इव पुस्फुरुश्च , खद्योतसंघातमिषात्तदानीम् ॥ उस समय वियोगिनी स्त्रियों की निःश्वास रूपी धूमावलि से मलिन तेज वाली विरहाग्नि से, जुगुनूओं के समूह के मिष से स्फुट स्फुलिंग उछल रहे थे। १. द्वन्द्वचर:-चकवा (कोको द्वन्द्वचरोऽपि च–अभि० ४।३९६) २. प्रदोषः-रात का प्रारम्भ काल (प्रदोषो यामिनीमुखम्-अभि० २।५८) . ३. चक्रनामन्–चकवा (चक्रवाकः रथाङ्गाह्वः-अभि० ४।३६६) ४. ज्वलन्तः–इत्यपि पाठः । ५. निश्वास.....—किं विशिष्टस्य विरहानलस्य-निश्वासा एव धूमावलिस्तया धूम्र-मालनं धाम-तेजो यस्य असौ, तस्य । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम: सर्ग: १०. नभस्थलं तारकमौक्तिकाढ्यं , विभावरीभीर शिरोविराजि । __राजागते मङ्गलसंप्रवृत्त्य , वैडूर्यकस्थालमिव व्यभासीत् ॥ चन्द्रमा के उदित होने पर मंगल प्रवृत्ति के लिए विभावरी रूपी स्त्री के शिर पर तारक रूपी मोतियों से सम्पन्न नभ-स्थल वैडूर्य के थाल की भांति शोभित हो रहा था। ११. अस्तं प्रयाते किल चक्रबन्धा वनुद्यते राजनि तेजसाढ्ये । चौरेरिव व्याहतदृष्टिचारस्तमोभरानशिरे दिगन्ताः ॥ सूर्य के अस्त हो जाने पर तथा दीप्तिमान चाँद के न उगने पर दृष्टि को व्याहत करने वाला अन्धकार चोरों की भाँति सभी दिगन्तों में व्याप्त हो गया। १२. आप्लावयामास जंगत्तमोमिविकाशितालीवनराजिनीलैः। संवर्तपाथोधिरिव त्रियामा क्षणः पयोभिः परितः प्रवृद्धः॥ जैसे प्रलयकाल का समुद्र सब ओर से बढ़े हुए जल से जगत् को प्लावित कर देता है वैसे ही रात्रि के समय ने विकसित ताली वनराजी की भाँति नीले अन्धकार के द्वारा .समूचे जगत् को प्राप्लावित कर दिया । १३. हंसः प्रयातश्चरमाद्रिचूलां , तमिस्रकाकः प्रकटीबभूव । .स्थाने रथाङ्गाह्वसतां वियोगः , पापेऽधिके किं सुखमुत्तमानाम् ? सूर्य अस्ताचल पर्वत पर चला गया और अन्धकार रूपी काक प्रकट हो गया। ऐसी स्थिति में चक्रवाक रूपी सज्जनों का वियोग उचित ही है। पाप के बढ़ जाने पर क्या उत्तम व्यक्तियों को सुख मिलता है ? १४. समत्ववैषम्यसतत्त्ववेदस्तमोभरे व्याप्नुवति प्रकामम् । आसीन्नदृष्ट्येकनिबद्धचारे , दौर्जन्यभाक्स्वान्त इवासितामे ।। . १. भीरुः-स्त्री (कान्ता भीरुनितम्बिनी–अभि० ३११६८) २. राजागते:-चन्द्रागमनात् । ३. चक्रबन्धुः—सूर्य । ४. हंसः-सूर्य (ब्रघ्नो हंसश्चित्रभानु:-अभि० २।१०) ५. स्थाने–युक्तम् । ६. रथाङ्गाह्वसतां-कोकमहात्मनाम् । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् दृष्टि के संचरण को रोकने वाले तथा दुर्जन व्यक्ति के अन्तःकरण की भांति कृष्ण कान्ति वाले अन्धकार के अत्यन्त व्याप्त हो जाने पर समता और विषमता के स्वरूप का कोई ज्ञान नहीं हो रहा था। १५. विनिस्सरच्चञ्चलचञ्चरीकव्याजात् तदा करविणीभिरौज्झि । वियोगवन्हेरिव धूमपंक्तिविभावरीकान्त'करोपलम्भात् ॥ चन्द्रमा की किरणों को प्राप्त कर कमलिनियों ने बाहर निकलने वाले चपल भ्रमरों के व्याज से वियोग की वह्नि से उठने वाली धूमपंक्ति को छोड़ा। .. १६. कलिन्दकन्या पयसेव सिक्तं , कस्तूरिकावारिभरेण किवा। . किं वाञ्जनाम्भोभिरसेचि भूमीतलं तदानीं तमसैवमासीत् ॥ . उस समय वह भूमितल अन्धकार के कारण ऐसा लग रहा था मानो कि वह यमुना के पानी अथवा कस्तूरिका के पानी अथवा काजल के पानी से सींचा गया हो। १७. अनेकवर्णाढ्यमपि प्रकाममासीदिदानी जगदेकवर्णम् । तमःक्षितीशे प्रभुतां प्रपन्ने , प्रभुत्वमेतादृशमेव विश्वे ॥ अनेक वर्षों से सम्पन्न जगत् भी उस रात्रि-वेला में एक वर्ण वाला प्रतीत हो रहा था। विश्व में जब अन्धकार रूपी राजा की प्रभुता बढ़ती है तब ऐसा ही प्रभाव होता है। १८. त्वं पश्चिमाशा मधुना गतोऽसि , त्रयीतनो ! देववशेन हन्त । । त्वमभ्युदेता च रवैद्विजाना माशा इतीवाशिषमर्पयन्त्यः॥ दिशाओं ने अस्तंगत सूर्य को पक्षियों की चहचहाहट से आशीर्वाद देते हुए कहा'सूर्य ! अभी तुम भाग्यवश पश्चिम दिशा में चले गए हो, इसका मुझे खेद है किन्तु तुम पुनः उदित होओगे।' १. विभावरीकान्तः-चन्द्रमा। २. कलिन्दकन्या-यमुना (कालिन्दी सूर्यजा यमी-अभि० ४।१४६) ३. आशा-दिशा (काष्ठाशा दिग् हरित् ककुप्-अभि० २।८०) ४. त्रयीतनुः-सूर्य (त्रयीतनुर्जगच्चक्षुः—अभि० २।१२) ५. देवं-भाग्य (देवं भाग्यं भागधेयं-अभि० ६।१५) ६. द्विजः-पक्षी (द्विजपक्षिविष्किर.....'-अभि० ४।३८२) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः १९. आरामलक्ष्म्येव विनिर्मिताभिरस्नेहदीपावलिभिनिशान्तर्। प्रादुर्भवद्ध्वान्तभरापनुन्य , पदे पदेप्यौषधिभिदिदीपे ॥ रात के मध्य में प्रगट होते हुए अन्धकार को दूर करने के लिए मानो बगीचों की सम्पदा से विनिर्मित, बिना तेल वाले दीपों की श्रेणी की भांति विभिन्न प्रकार की औषधियां (वनस्पतियाँ) पग-पग पर दीप्त हो रही थीं। २०. प्रकल्पिताकल्पविधिः क्षितीशः , सहावरोधेन ततो जगाम । रत्नप्रदीपद्युतिदृश्यमानमार्गः पटागारवरं प्रदोधे । समय के उपयुक्त वेश पहन कर राजा अपने अन्तःपुर के साथ सायंकाल के समय पटगृह में गया। उस समय रत्न-प्रदीपों की किरणें उसके मार्ग को आलोकित कर रही थीं। २१. शुद्धान्तवेषस्य बभूव शोभा , या वासरे सा समये रजन्याः । ऊहेऽधिकत्वं स्मरसाहचर्यात् , मणिप्रदीपाभ्यधिकप्रकाशात् ॥ अन्तःपुर की सुन्दरियों के वस्त्रों की जो शोभा दिन में थी, उससे अधिक शोभा रात्री के समय होने लगी। इसके दो कारण थे-एक तो यह कि उस समय कामदेव का साहचर्य प्राप्त था और दूसरा मणियों के प्रदीपों का अत्यधिक प्रकाश विद्यमान था। २२. विलासिनीभिर्ययिरे युवानो , यथालिनीभिः कुमुदप्रदेशाः । __ रुचां कलापैः पुनरुद्दिदीपे , निकेतरत्न'प्रचयस्य सौधे ॥ जिस प्रकार भ्रमरियाँ श्वेत कमल के प्रदेशों की ओर जाती हैं, उसी प्रकार स्त्रियां युवक पतियों की ओर गईं । उस समय प्रासाद में दीपकों के समूहों से उठने वाली किरणें प्रदीप्त हो उठीं। २३. काचिद् विवृत विविधैः प्रसूतैः , स्वाभ्यां कराभ्यां विरचय्य शय्याम् । पुष्पेषु'बागाग्रहताङ्गयष्टि: , स्वकान्तमार्ग मुहुरीक्षतेस्म ॥ कामदेव के बाणान से आहत शरीर वाली कोई सुन्दरी अपने हाथों से विविध प्रकार के फूलों से शय्या तैयार कर अपने पति के आने के मार्ग को बार-बार निहार रही थी। १. निशान्तर्-नक्तमध्ये । २. निकेतरत्नं-दीपक (स्नेहप्रियो गृहमणि:-अभि० ३।३५१) ३. पुष्पेषु:-कामदेव। . Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् २४. आस्तीर्य शय्यां विरचय्य दीपं , कान्तेऽनपेते स्वसखीमुवाच । ससंभ्रमं स्नेहभरादुपेते , प्रिये मनो हृष्यति काचिदेवम् ॥ किसी सुन्दरी ने शय्या बिछाई और दीपक जलाया किन्तु अपने पति को आते हुए न देखकर वह उतावली होकर स्नेहिल वचनों से अपनी सखी से बोली-'सखी ! अब तो प्रिय पति के आने पर ही मन प्रसन्न हो सकता है ।' . २५. काचिद् वितागममात्मभर्तुः , प्रियालि ! पश्यायमुपैति नैति । छलादितीयं विजनं चकार , पश्चात् प्रियाप्तौ च ददौ कपाटम् ।। किसी सुन्दरी ने अपने पति के आगमन की वितर्कणा कर सखी से कहा-"प्रिय सखी ! देख, मेरे पति आ रहे हैं या नहीं।' यह कहकर वह छलपूर्वक एकान्त में चली गई। जब पति आ पहुँचा तब उसने दरवाजे बन्द कर दिए। २६. ससंभ्रमं काचिदुपेत्य कान्ता , श्लिष्टा प्रियेणेति जहास कान्तम् । हृदि स्थिता या तुदति त्वदीये , गाढं न.संश्लेषमतो विधत्से ॥ . किसी प्रिय ने शीघ्रता से आकर अपनी प्रिया का आलिंगन किया। तब वह उसका मजाक करती हुई बोली- 'तुम्हारे हृदय में स्थित सुन्दरी को व्यथा का अनुभव न हो जाए इसलिए तुम गाढ आलिंगन नहीं कर रहे हो ।' २७. नखक्षतं काचिदवेक्ष्य कान्ते , निजं परस्यास्त्विति संवितक्यं । मां मुञ्च मुञ्चेति रुषा वदन्ती , यूना व्रजन्ती विधृता पटान्ते ॥ अपने पति के शरीर पर नखों के घाव देखकर एक सुन्दरी के मन में यह वितर्क उठा कि ये घाव मेरे द्वारा कृत हैं या दूसरी स्त्री द्वारा ? यह सोच, वह कुपित होकर बोल पड़ी-'मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो।' जब वह छुड़ाकर जाने लगी तब उस युवक ने उसको वस्त्र के अंचल से थाम लिया । २८. कादम्बरीस्वादविर्णिताक्षी , छायां निजां वीक्ष्य तदीयधाम्नि । एषा परेति प्रतिपाद्य रोषाद् , यूना वजन्ती कथमप्यरक्षि' ॥ एक सुन्दरी की आँखें मदिरापान के कारण अर्द्धनि द्रित सी हो रही थीं। उसने अपनी छाया को देखकर सोचा कि मेरे पति के पास यह कोई दूसरी स्त्री है। कुपित होकर १. पंजिकाकार ने इस श्लोक को पूर्व श्लोक का पाठान्तर माना है-इदं पूर्वस्यैव वृत्तस्य पाठान्तरम्-पत्न ३१ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः . १५५ उसने यह बात पति से कही । जब वह वहाँ से जाने लगी तब उस युवक पति ने उसे किसी प्रकार रोक कर रखा। २६. उपस्थितेन प्रथमं प्रियेण , प्रियाक्रुधे किञ्चन कौतुकार्थम् । __ लाक्षारसेनालिखितं रसायां , काचित् पदं वीक्ष्य चुकोप पत्ये ॥ पहले आए हुए पति ने कुतूहलवश अपनी प्रिया को कुपित करने के लिए भूमि पर लाक्षारस से चरण आलेखित कर दिए। उन्हें देखकर वह प्रिया पति पर कुपित हो गई। ३०. पटीमुपादाय मुखे च कान्ता , छलेन निद्रामधिगम्यमाना। नोन्निद्रनेत्रयमथो विधेया , वदन्निति द्राग् जगृहे कयाचित् ॥ एक सुन्दरी मुंह पर कपड़ा ओढ़कर नींद लेने का बहाना करती हुई कपट रूप से सो गई। पति ने आकर देखा और कहां-'इसे जगाना ठीक नहीं है।' इतने में ही उठकर उसने शीघ्रता से पति को पकड़ लिया। ३१. पराङ्मुखी काचन कान्तरूपं , निजामुलीकुञ्चिकया लिखन्ती। ___निमील्य नेत्रे सहसा कराभ्यामचुम्बि पृष्ठोपगतेन नेत्रा ॥ एक सुन्दरी पीठ फेरकर अपनी अंगुलियों की तूलिका से अपने पति का रूप चित्रित कर रही थी। इतने में ही उसका पति आ पहुंचा। पीठ की ओर से आए हुए पति ने सहसा उसकी आँखें मूंदकर उसका चुम्बन ले लिया। ३२. काञ्च्याभिरामं जवनं विधाय , पादौ पुनर्न पुररम्यनादौ । स्मरं सहायञ्च सकङ्कपत्रं' , काचिन्निशीथे ऽभिससार कान्तम् ॥ कोई अभिसारिका अपनी कमर को करधनी से सुसज्जित कर, चरणों में मनोज्ञ नाद करने वाले नूपुर पहन, बाणयुक्त कामदेव को सहायक बनाकर अर्द्धरात्रि की वेला में अपने पति के पास गई। ३३. निःश्वासहार्यांशुकवीक्ष्यमाणवपुः समग्राङ्गपिनद्धभूषा। हृदीशितुर्वासगृहं समेता , काचिद् दृशोरुत्सवमाततान ॥ एक सुन्दरी निःश्वास से उड़ने वाले कपड़ों को पहने हुए थी, इसलिए उसका शरीर १. कंकपत्रं-बाण (अभि० ३।४४२) २. निशीथ:-प्राधी रात (निशाथस्त्वद्ध'रात्रो महानिशा-अभि० २।५६) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम स्पष्ट दीख रहा था। उसने सारे अंगों पर आभूषण धारण कर रखे थे। उसने वासगृह (शयनकक्ष) में आकर अपने पति की आँखों को आनन्दित किया। ३४. वितन्वती काचिदपूर्वभूषाविधि विलोक्य स्फुटमात्मदर्श । सखा न चेत् प्रीतिपराङ्मुखस्ते , कि तमुनेनवमलज्जि सख्या ॥ 'एक सुन्दरी कांच में देख-देखकर विशेष सज्जा कर रही थी। 'यदि तुम्हारा पति तुम्हारे प्रेम से पराङ्मुख नहीं है तो फिर इससे क्या-यह कहकर उसकी सखी ने उसे लज्जित किया। ३५. प्रियालि ! यादृक् प्रणयो न तादृग , भूषाविधिर्धाजति भामिनीनाम् । भूषाविधौ.रूपविधौ वितर्क , करोति यः स प्रिय एव नाऽत्र ॥ 'प्रिय सखी! स्त्रियों का प्रेम जैसी शोभा पाता है वैसी शोभां उनकी सज्जा नहीं पाती। जो प्रेमी सज्जा और रूप की वितर्कणा करता है, वह वास्तव में प्रेमी ही नहीं होता।' ३६. प्रिये ! त्वदीया पदवी विशेषान्मयाद्य दृष्टा त्वमिता कथं न । निद्राऽपि ते सख्यमलवमाना , प्राममुदत् कश्चिदितीत्वरी' च ॥ 'प्रिये ! आज मैं विशेष रूप से तुम्हारा मार्ग देखता रहा। तुम क्यों नहीं पाई ? निद्रा ने भी तुम्हारी मित्रता नहीं छोड़ी, नींद भी नहीं आई'---यह कहते हुए किसी 'रसिक ने अभिसारिका को प्रसन्न किया। . , ३७. इति प्रियं सागसमीरयन्ती , जहास काचिद् दयिता कथं न। श्लिष्टा त्वया हारमपास्य हार , मुक्ताङ्कितं ते हृदयं यदस्ति । किसी प्रिया ने अपने अपराधी पति का उपहास करते हुए कहा-'हा ! तुमने वल्लभा का आश्लेष हार को दूर रखकर क्यों नहीं किया ? क्योंकि तुम्हारा हृदय मोतियों से 'चिह्नित है।' (इससे लगता है कि तुमने किसी दूसरी स्त्री का आश्लेष किया है।) ३८. त्वयाऽथवा तत्स्मृतये न लुप्तं , तद् दृष्टमागः स्वदृशा तवैतत् ॥ प्रीणन्ति यूनो हि रताङ्कितानि', रणे भटस्येव गजाभिघाताः ॥ १. इत्वरी–कुलटा (असतीत्वरी-अभि० ३।१९२) २. हा-खेदे। ३. अरं-अत्यर्थम् । ४. आगस्–अपराध (मन्तुळलीकं विप्रियागसी-अभि० ३।४०८). ५. रतम्-मैथुन (सुरतं मोहनं रतम्-अभि० ३।२००) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः १५७ अथवा तुमने अपने प्रिया. को स्मृति रखने के लिए अपने हृदय पर लगे मुक्ता-चिह्नों को नहीं मिटाया। मैंने तुम्हारा यह अपराध अपनी आँखों से देख लिया है। क्योंकि जैसे रणभूमि में योद्धाओं को गज-प्रहार संतोष देते हैं, वैसे ही युवकों को संभोग-चिह्न संतोष प्रदान करते हैं। ३६. श्लेषात् तवैवाहनि वामनेत्रे ! , ममेदृशं जातमदो हि वक्षः । त्वत्तः परा का मम वल्लभास्ति , प्रामोदि कापीति निगद्य नेत्रा ॥ 'हे वामनेत्रे ! दिन में तुम्हारा आश्लेष लेने के कारण ही मेरा यह वक्ष इस प्रकार हो गया है । तुम्हारे से ज्यादा मुझे कौन प्रिय है'-यह कहते हुए नायक ने अपनी प्रिया को प्रमुदित किया। ४०. यदीय नामापि करोति दूरादङ्ग समग्रं पुलकाङ्कुराढ्यम् । यदागमः स्विन्नमपीति तस्मिन् , मानः कथं काचिदुवाश कान्तम् ।। 'जिसका नाम मात्र दूर से ही समूचे शरीर को रोमांचित कर देता है और जिसका आगमन शरीर को पसीने से तरबतर कर देता है, उसके प्रति कैसा अहंकार'-यह कह कर कामिनी ने अपने प्रेमी को वश में कर लिया । ४१. प्रसूनशय्या नवकण्टकालेररुतुदा रोदनसन्निकाशः । ___ अयं विनोदो भयदं विलासगृहं भवेदालि ! विना प्रियं मे ॥ ४२. सख्याः पुरः स्वैरमुदीरिताया भिति प्रियायामपराधसत्ता। विलासिना केनचन न्यवारि , स्वचेतसो व्योम्न इव द्रुवल्ली ॥ -युग्मम् । उस कामिनी ने अपनी सखी से कहा-'हे सखी ! प्रियतम के बिना यह कुसुम-शय्या अभिनव कंटक-पंक्ति से भी अधिक मर्मभेदी है। यह विनोद रुदन के समान और यह विलासगृह भयप्रद है।' अपनी सती के समक्ष इस प्रकार स्वतन्त्रता पूर्वक कहने पर पति ने अपनी प्रिया के अपराधों को मन से वैसे ही निकाल दिया जैसे आकाश से वृक्षलता निकलती है। ४३. विश्वाधिराजः कदलीविलासगेहं विवेशाथ विकीर्णपुष्पम् । लोकत्रयोस्त्रंणविशेषितश्रिमृगेक्षणारत्नविभूषितं सः ॥ १. पञ्जिकायां-स्वरमुदीरयन्त्याम्, उदीरितायां वा पाठः । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४४, रत्नप्रदीपप्रहतान्धकारं , चन्द्रोदयद्योतितमध्यदेशम् । दंदह्यमानागुरुधूमधम्रधामाङ्कितं पुण्यवतां च योग्यम् ॥ -युग्मम्। अब चक्रवर्ती ने केलों से बने क्रोडा-गृह में प्रवेश किया। वह क्रीडा-गृह तीनों लोकों के नारी समूह की विशेषताओं से विशेषित स्त्री-रत्न से शोभित था। उसमें चारों ओर 'फूल बिखरे पड़े थे। वह रत्न-प्रदीपों से जगमगा रहा था। उसका मध्यभाग चंद्रमा के उदय से देदीप्यमान था। वहाँ अगरु धूप जल रहा था और उसका आँ चारों ओर फैल रहा था। वह पुण्यशाली व्यक्तियों के निवास-योग्य था। ४५. तयोविलासा विविधाः प्रसस्त्र , रम्भामरुन्नायकयोर्यथाऽत्र । . __ शृङ्गारजन्मक्षितिराजरत्योर्यथा प्रसन्नत्वपयोधिचन्द्राः॥ . . उस विलासगृह में भरत दंपति के विविध विलास, जो प्रसन्नता रूपी समुद्र की वेलावृद्धि के लिए चंद्रमा के समान थे,.सभी ओर . उसी प्रकार फैल गए जैसे इन्द्र और इन्द्राणी तथा कामदेव और रति के विलास फैलते हैं। ४६. अन्योन्यसंपर्करसातिरेकाद् , युवद्वयो तं समयं विवेद । सुधामयं सौख्यमयं प्रमोदमयं मनोभूमयमेकतानम् ।। परस्पर मिलन (संभोग) से होने वाले रसातिरेक से दंपतियों ने बीतने वाले समय को सुधामय, सुखमय, प्रमोदमय, कामदेवमय और एकतान माना। ४७. प्रसन्नतेवं जगति प्रवत्ता , मयि प्रभो करविणीष नेति । प्रसन्नताये सितरोचिरासां , ससर्ज पीयूषभरं करेण ॥ चन्द्रमा ने सोचा-'मेरे स्वामी हो जाने पर जगत् में प्रसन्नता फैल गई किन्तु कुमुदिनियों में अभी प्रसन्नता नहीं फैली।' तब उनकी प्रसन्नता के लिए चन्द्रमा ने अपनी किरणों से अमृत बरसाया । ४८. शृङ्गारदध्नो नवनीतपिण्डो, मुस्तामणिः किं त्रिपुरारिमौले ? स्तनः खलक्ष्म्याः किमु चन्दनाः , क्रीडातटाकः प्रमदस्य किंवा ? १. त्रिपुरारि:-महादेव (अभि० २।११४) २.प्रमदः-आनन्द। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः । १५६ ४६. कि कन्दुकः श्रीतनुजस्य किं वा , रतेविलासालयकुम्भ एषः ? ___किमुत्सवच्छत्रमिति व्यकि , शरच्छशाङ्को युवभिस्तदानीम् ? -युग्मम् । उस समय तरुणों ने शरद् ऋतु के चन्द्रमा को देखकर यह वितर्कणा की कि क्या यह शृगार-रस के दही से निकला हुआ नवनीत पिंड है या शिव के शिर पर शोभित होने वाला मुक्तामणि है या गगन रूपी लक्ष्मी का चन्दन से लिप्त स्तन है या आनन्द का क्रीड़ा-सरोवर है या लक्ष्मी के पुत्र कामदेव का कंदुक है या कामदेव की पत्नी रति के विलासगृह का कुंभ है या उत्सव का छत्र है ? ५०. विलोक्य दीपान्नुपसौधसंस्थान् , बलद्विषाऽकारि किमेष दीप: ? स्वचन्द्रशालाशिखराग्रदेशेऽभ्युद्यन् विधुः कश्चिदकिं चैवम् ॥ कुछ तरुणों ने उगते हुए चन्द्रमा को देखकर यह सोचा कि क्या राजमहलों में स्थित रत्न-दीपों को देखकर इन्द्र ने अपनी चन्द्रशाला के शिखर पर यह दीप जलाया है ? ५१. सितद्युतौ दूरमुदित्वरेऽपि , विकासलक्ष्याज्जहसे कुमुद्भिः । रागी विदूरे स्थितवानंदूरे , भवेन्न किं चित्तविनोदकारी ? चन्द्रमा के बहुत दूर उदित होने पर भी विकचित होने के बहाने से चन्द्रविकासी कमल प्रफुल्लित हो गए । क्या रागवान् व्यक्ति, चाहे दूर हो या समीप, मन में विनोद पैदा नहीं करता ?. . ५२.. इन्दोः करस्पर्शनतः प्रमाद' , तत्याज वेगेन कुमुद्वती च । का वामनेत्रा न जहाति निद्रामुपस्थिते भर्तरि संनिकृष्टम् ॥ चन्द्रमा की किरणों का स्पर्श होते ही कुमुदिनी ने प्रमाद (निद्रा) का त्याग शीघ्र ही कर दिया। कौन ऐसी स्त्री होगी जो अपने पति के निकट आने पर निद्रा का त्याग नहीं करती? ५३. कराः सितांशोः परितः स्फुरन्तः , सुधाम्बुराशेरिव वीचिवाराः । तथा सितीचक्रुरिलान्तरिक्षे , यथा न वर्णान्तरदृष्टिरत्र । सुधा-समुद्र की तरंग-समूह की भांति चारों ओर स्फुरित होती हुईं चन्द्रमा की किरणों १.श्रीतनुजः-कामदेव (प्रद्युम्नः श्रीनन्दनश्च–अभि० २।१४२) २. प्रमाद:-निद्रा। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ने पृथ्वी और आकाश को सफेद बना डाला। उस समय समूचे लोक में श्वेत वर्ण के अतिरिक्त कोई दूसरा वर्ण दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। ५४. एतद्वयस्याः कुमुदिन्य एताः , पश्यन्तु सुप्ताः पुनरम्बुजिन्यः । विधुर्विचायति निशाङ्गनायास्तमिस्रवासः सहसा चकर्ष ॥ 'रात्री की सखियाँ ये कुमुदिनियां देखें कि कमलिनियां सोई हुई हैं'-ऐसा सोचकर चन्द्रमा ने अपनी पत्नी रात्री का अंधकार रूपी कपड़ा सहसा खींच लिया। ५५.. एवं प्रविस्तारवति द्विजेन्द्रोदयेऽवदातीकृतविश्वविश्वे । भृत्याः प्रतिष्ठासु बलं प्रगे' तत् , स्वकृत्यमादध्म इति प्रबुद्धाः ॥. इस प्रकार चन्द्रमा के उदय का विस्तार होने पर उसकी चांदनी से सारा संसार सफेद हो गया। 'प्रातःकाल होते ही सेना आगे बढ़ेगी। हम अपना-अपना कार्य पूरा करेंऐसा सोचकर सेवक जागृत हो गए। . ५६. श्यामार्जनाभद्विपयोविवादो , निषादिनो र्जागतयोर्बभूव । समानतुङ्गत्वरदप्रमाणवर्णैक्यदत्तभ्रमयोस्तदानीम् ॥ एक हाथी काला था और एक सफेद । दोनों की ऊंचाई और दांत बराबर थे। उनके महावत जागृत थे। चन्द्रमा की चाँदनी ने दोनों हाथियों को सफेद बना दिया। उस भ्रम के कारण दोनों महावतों में विवाद हो गया। ५७. आधोरणा अप्युदिते शशाङ्क , क्षुभ्यत्सुधाम्भोधितरङ्गगौरे । आदाय मालूर फलानि नागकर्णषु शंखभ्रमतो बबन्धुः ॥ क्षब्ध हए अमृत समुद्र के तरंगों की भांति गौर चन्द्रमा के उदित होने पर हस्तिपालों ने शंख के भ्रम से बिल्व फलों को हाथियों के कानों में बांध दिया । १. प्रतिष्ठासु-चिचलिषु । २. प्रगे-प्रातःकाल (प्रगे प्रातरहर्मुखे-अभि० ६।१६६) ३. निषादिन्–महावत (महामात्रनिषादिन:-अभि० ३।४२६) . ४. आधोरणा:-महावत (आधोरणा हस्तिपका:-अभि० ३।४२६) ५. मालूर:-बिल्व (मालूरः श्रीफलो बिल्व:-अभि० ४।२०१) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः ५८. विचित्रवर्णाः स्फुटमेकवर्णा , बभूवुरश्वा उडुपोदयाद्' द्राक् । तेषामलब्ध्वा चमरांश्च केचिन् , निगालबद्धा' विदधुशाखाः ॥ चन्द्रोदय होते ही शीघ्र ही अनेक वर्ण वाले घोड़े एक वर्ण वाले (सफेद) हो गए। इसलिए कई अश्वारोहियों को उनकी पूंछे नहीं मिली तब उन्होंने वृक्षों की शाखाओं को ही (पूंछ मानकर) सांकल से बांध दिया। ५६. केचिद् रथस्योपरितोऽधुनैवं , चन्द्रोदयोऽयं भवताद् विचार्य । कृत्वा च चन्द्रोदयशून्यमेव , प्राचीचलन् स्यन्दनमऽत्यऽमन्दाः ॥ 'रथों के ऊपर यह चन्द्रोदय अभी होने ही वाला है'-ऐसा सोचकर बहुत उद्यमी कई रथिकों ने अपने-अपने रथों के चारों ओर डाले हुए 'बँदोवों' को हटा वहाँ से प्रयाण कर दिया। ६०. विचित्रवेषा विशदेकवेषाः , पदातिधुर्याः पुरतः प्रसस्त्र । शिरोगविन्यस्तमयूरपिच्छाः , कि हंसपक्षाः शिरसीति ताः ॥ सेनानायक विभिन्न प्रकार के वेश पहने हुए आगे-आगे चल रहे थे। किन्तु उस समय वे सब एक सफेद वेश पहने हुए से लग रहे थे। उनके मस्तिष्क के अग्र-भाग में मयूरपिच्छ लगे हुए थे। उन्हें देख ऐसी तकणा हो रही थी कि क्या उनके शिर पर हंसों के पंख लगे हुए हैं ? ६१. एवं तदानीं चतुरङ्गसैन्यकोलाहलः प्रादुरभूत स कोपि । किन्नर्य उन्निद्रदृशो बभूवुर्येनाग्रतो मन्दरकन्दरस्थाः ॥ इस प्रकार उस समय चतुरंग सेना के प्रयाण से ऐसा कोई कोलाहल होने लगा जिससे मन्दरगिरी की सुदूर कन्दराओं में रहने वाली किन्नरियाँ जाग उठीं। ६२. इदं गृहाण स्वमिदं विमुञ्च , त्वं तिष्ठ गच्छ त्वमुपेहि सद्यः । त्वं सज्जयेत्यादि वचोभिरेभिस्तस्य ध्वजिन्यास्तुमुलः ससार । १. उडुपः-चन्द्रमा। २. चमर:-पूंछ (चामरं चमरोपि च इति पुंस्त्वम्) ३. पंजिकाकार ने निगाल का अर्थ- 'घोड़े का गला' किया है। आप्टे ने इसका दूसरा अर्थ 'सांकल (A chain) माना है । यहां यही अर्थ उपयुक्त लगता है। ४. चन्द्रोदय:-चंदोवा (वितानं कदकोऽपि च । चन्द्रोदये-अभि० ३।३४५) ५. तुमुल:-कोलाहल (तुमुलो व्याकुलोरवः–अभि० ३।४६३) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् उस सेना में कोई कह रहा है 'तुम यह लो', 'तुम इसे छोड़ो, ''तुम ठहरो,' 'तुम चलो', 'तुम जल्दी 'मेरे पास आओ', 'तुम सज्जित हो जाओ' - इस प्रकार के वचनों से चारों ओर कोलाहल होने लगा । ६३. निःस्वानसम्मानक तूर्य' नादे रश्वेभहेषा र बृंहितैश्च । प्रवर्धमानः सरितामिवौघो, झरः स सिन्धोस्तमुत्ससर्प ॥ उस समय सेना में मंगल वाद्यों, भम्भा, भेरी और बाजाओं के शब्द हो रहे थे । साथसाथ घोड़ों की हिनहिनाहट और हाथियों के चिंघाड़ से वे शब्द और अधिक तीव्र हो गए थे । इस प्रकार वह प्रवर्धमान कोलाहल समुद्र की ओर बढ़ा, जैसे निर्झरों से पवर्धमान नदियों का समूह समुद्र की ओर बढ़ता है । ६४. आणि यो दिक्करिभिः स्वकर्ण तालैकलोलत्वमपास्य दूरात् क्रमेतदित्यहि सुराङ्गनाभिर्ब्रह्माण्डभाण्डं स्फुटतीव यस्तु दिक्कुंजरों ने अपने कर्णपुट की चपलता को छोड़कर दूर से उस सैन्य- कोलाहल को सुना और देवांगनाओं ने उसे सुनकर वितर्कणा की कि क्या यह ब्रह्माण्ड का भांड पूट रहा है ? " ६५. सितांशु' वाहास्तुमुलेन तेन त्रस्ता इवास्ताद्विगुहां निलीनाः । शीतांशु' लक्ष्मीरपि राजवक्त्रं, भियेव लिल्ये त्वकुतोभयं हि ॥ उस तुमुल नाद से भयभीत होकर चन्द्रमा के अश्व, अस्ताचल की गुफा में छिप गए । चन्द्रमा की शोभा ने भी मानो भय के कारण निर्भीक राजा के मुख का आश्रय ले लिया । ६६. इयं वराकी विरहे प्रियस्य, मुहुर्मुहू रोदिति चक्रवाको । sara तीक्ष्णद्युतिमाजुहाव ', घनैविरावैश्चरणायुधो ऽपि ॥ ,, 'यह बेचारी चकवी अपने पति के वियोग में बार-बार रो रही है - यह सोचकर मुर्गे तेज शब्दों से सूर्य का आह्वान किया । ६७. बभूव कान्तानुनयप्रणामैर्न मानमुक्तिनिशि मानिनीनाम् । सा ताम्रचूडेन रुविनेऽनुसैन्य कोलाहलमुच्छलद्भिः ॥ १. निःस्वान --मंगल-वाद्य; भम्भा - नगाडा; आनक - भेरी; तूर्य — बाजा । " २. सितांशु: - चन्द्रमा ( सिता: - श्वेता:, अंशवः - किरणाः सन्ति यस्य सः ) ३. शीतांशुः -- चन्द्रमा (शीता: -- शीतलाः, अशवः -- किरणा:, सन्ति यस्य सः ) ४. आजुहाव - आकारयामास । ५. चरणायुधः – मुर्गा ( कुक्कुटश्चरणायुधः - अभि० ४ | ३६० ) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः १६३ रात्री में पति द्वारा किए गए अनुनय और विनय से भी सुन्दरियों ने अपना अहं (हठ) नहीं छोड़ा। उस अहं को सेना के कोलाहल के साथ उछलने वाले मुर्गे के शब्दों ने तोड़ डाला। ६८. प्रातः प्रयाणाभिमुखोऽस्मि कान्ते ! , सङ्गः कुतो नौ पुनरप्यमदृक् । न नेतुरुक्त्येति जहौ हठं या , सा कुक्कुटोक्त्या' प्रियमालिलिङ्ग ॥ पति ने अपनी प्रिया से कहा-'कान्ते ! मैं प्रातःकाल ही यहाँ से प्रयाण करने वाला हूं। हमारा ऐसा संगम पुनः कहां होगा' ? पति के द्वारा इतना कहने पर भी पत्नी ने हठ नहीं छोड़ा, किन्तु मुर्गे की बाँग सुन उसने हठ छोड़ दिया और वह पति से जा लिपटी। ६९. जगत्त्रये कस्तुमुलोयमद्य , येनाहमुज्जागरितोप्यकाण्डे । ___ तं द्रष्टुमर्कः प्रथमाद्रिचूलामध्यारुरोहेव रुषेति ताम्रः ॥ 'आज तीनों लोक में यह क्या कोलाहल हो रहा है जिससे कि मुझे असमय में ही जागना पड़ा'—यह सोचकर सूर्य क्रोध से लाल होता हुआ उस कोलाहल को देखने के लिए उदयाचल पर जाकर उदित हुआ। ७०. . रथाङ्गनाम्नोविरहप्रदानाद् , दुष्टेयमत्यन्तमहं तु मित्रः । इतीर्ण्ययेवाचकृषं तमिस्रवासो रजन्या ग्रुपतिः करेण ॥ सूर्य ने अपनी किरणों से रात्री के अंधकार रूपी वस्त्र को, इस ईर्ष्या से खींच लिया कि इस रात्री.ने चक्रवाक-युगल को विरह दिया है, इसलिए यह अत्यन्त दुष्टा है, शत्रु है और मैं उस विरह को समाप्त करता हूँ, इसलिए मैं इसका मित्र हूँ। ७१. सरोजिनीभिः किल वासरान्ते , प्रसह्य याभ्यासि दशा प्रगे सा। कुमुद्वतीभिश्च न वैपरीत्यं , जायेत कि राज्यविपर्यये हि ? दिन के अवसान की वेला में कमलिनियों ने जिस दशा (व्यवस्था) को स्वीकार किया था, उसी दशा को कुमुदिनियों (रात्रि में खिलनेवाली कमलिनियों) ने प्रातःकाल स्वीकार किया। राज्य की व्यवस्था बदलने पर क्या दूसरी सारी चीजें नहीं बदल जातीं? 1. पाठान्तरेण—कुत्कुटोक्त्या। २. अकाण्डे-असमये। ३. दिन में प्रफुल्लित होने वाले कमल रात्रि में मुरझा जाते हैं और रात्रि में प्रफुल्लित होने वाले कमल दिन में मुरझा जाते हैं । यही भाव इस श्लोक का प्रतिपाद्य है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ७२. ७३. रात्री का अन्त होने पर अत्यन्त सुगन्धित और तालाब रूपी वासगृह वाले वन में प्रभात में विकसित होने वाला कमल समूह खिल उठा। उस समय वहाँ का पवन उन खिली हुई कमलिनियों के मुंह का कामुक व्यक्ति की भांति, बार-बार चुम्बन करता हुआ. आनन्दित हो उठा । ७४. निशाविरामो 'न्मिषदब्ज राजीमुखानि संचुम्ब्य मुहुर्ननन्द । कासारवासौकसि सौरभाये, कामीव तस्मिश्च वने नभस्वान् ॥ सूर्य के उदित होने पर उस प्रभात की वेला में चक्रवर्ती भरत ने वहां से प्रयाण किया । कई राजे अपनी पत्नियों को साथ लेकर और कई राजे उन्हें वहीं छोड़कर भरत के साथसाथ चल पड़े । ७५. इत्युद्यते भानुमति प्रभाते विहाय केचित् सुदृशश्च केचित् । , समं समादाय ततः प्रचेलुर्महीभुजा भारतराजराजः ॥ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् भरतनृपतिसैन्याम्भोनिधिः संचचार, स्फुटतुरगतरङ्गस्तुङ्गमातङ्गनः । रथवहनविदो प्रश्रीभरश्चैतदग्र े, सकलजगति पीठाप्लावनोद्दामशक्तिः ॥ अव भरत चक्रवर्ती का सेना रूपी समुद्र उसके आगे-आगे चल पड़ा । उसमें घोड़े रूपी कल्लोल उठ रहे थे और प्रोन्नत हाथी रूपी मंगरमच्छ भरे पड़े थे । उस समुद्र के ऊपर रथ रूपी जहाज शोभित हो रहे थे । वह सैन्य-समुद्र समस्त भूमण्डल को आप्लावित करने में उत्कट पराक्रम वाला था । शय्यां विहाय कुसुमास्तरणोपपन्ना, प्रातस्तनं पुनरशेषविधि विधाय । पुण्योदयार्चनभरं भरताधिराजो, नागाधिपं रजतकान्तमथारुरोह ॥ प्रातःकाल के समय महाराज भरत फूलों के बिछौने वाली शय्या का परित्याग कर पुण्योदय की अर्चना से भरी-पूरी प्रातःकालीन सारी विधियों को सम्पन्न कर, चांदी की चमक वाले श्वेत हाथी पर आरूढ हुए । - इति सैन्यप्रस्थानवर्णनो नाम अष्टमः सर्गः १. निशाविराम: - प्रभात । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .नौवां सर्ग. प्रतिपाद्य भरत का अपनी सेना के साथ बहलो प्रदेश की सीमा पर पड़ाव डालना। ७७ श्लोक परिमाणछन्द-... छन्द उपजाति। लक्षण देखें, सर्ग २ का विवरण। . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु महाराज भरत की सेना का प्रयाण सुनकर सुन्दरियों के हृदय धड़कने लगे, क्योंकि उन्हें आज अपने पतियों से पृथक होना पड़ रहा था। कोई कान्ता अपने पति के साथ जाने का हठ कर रही थी तो कोई पति को वहीं रुकने का आग्रह दिखा रही थी। विरह से दीन बने हुए दम्पतियों के विविध प्रलाप होने लगे। एक दिशा की ओर प्रयाण करने वाली भरत की सेना अब सैंकड़ों मार्गों की ओर बढ़ चली। वह मार्गगत राजाओं को जीतती हुई चली जा रही थी। पैदल सैनिक सारे भूमंडल पर और आकाशगामी विद्याधर सारे प्राकाश में व्याप्त हो गए। भरत की सेना अयोध्या से बहुत दूर निकल गई। आगे चलने वाले घुड़सवारों से लोग पूछते तो वें. यही कहते कि सेना पीछे आ रही है और पीछे वालों को पूछते तो वे भी यही कहते कि सेना पीछे आ रही है । इस प्रकार उस सेना का अनुमान लगाना कठिन हो रहा था। सेना और आगे बढ़ी। __ एक योजन भूमि पार कर लेने पर सुषेण सेनापति ने भरत से कहा'देव ! अब हमें कुछ विश्राम करना चाहिए क्योंकि सभी थकावट का अनुभव कर रहे हैं। राजा ने विश्राम का आदेश दिया और अपने गुप्तचरों को बहली प्रदेश में गुप्त रहस्य जानने के लिए भेजा। कोशल देश की सीमा का वह अंतिम छोर था। आगे बहली प्रदेश की सीमा प्रारम्भ हो जाती थी। सेना का पड़ाव गंगा नदी के तट पर डाला। वहां एक सुन्दर कानन था। उसमें एक चैत्य था। महाराज भरत उस कानन को देखने चल पड़े। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. नवमः सर्गः करैरिवांशोः पुरतः स्फुरद्भिः कीर्णावनीचक्रनभोन्तरालः । तेजस्विनस्तस्य नितान्ततीव्रव्र्व्याप्यन्त साकेतवनानि सैन्यः ॥ आगे से आगे प्रकट होने वाली और भूमंडल तथा आकाश में फैलने वाली सूर्य की नितान्त तीव्र किरणों की भाँति तेजस्वी भरत की सेनाएँ साकेत के वनों में व्याप्त हो गईं । , ४. भूचारिराजन्यबलातिरेकैर्मही ललम्बे सनयैरिव श्रीः । शून्यं नमो मास्त्वधुनेति विद्याधरैविमृश्याकलितं विहायः ॥ साथ जैसे न्याय परायण व्यक्ति लक्ष्मी से व्याप्त हो जाते हैं वैसे ही चक्रवर्ती भरत साथ चलने वाले राजाओं की सेनाओं भूमि व्याप्त हो गई । 'आज आकाश भी शून्य न रहे - यह सोचकर विद्याधर आकाश में फैल गए । कृतान्तवक्त्रं बहली युद्धं तत्र प्रवेशो मम सांप्रतं तत् । 1 गच्छ प्रिये ! गेहमिति न्यषेधि, कान्तेन कान्ताथ सह व्रजन्ती ॥ अपने साथ-साथ चलने वाली प्रिया का निषेध करते हुए पति ने कहा - 'प्रिये ! तू घर चली जा, मेरे साथ मत आ । बाहुबली का यह युद्ध मृत्यु के मुख के समान है । उस युद्ध में मेरा प्रवेश अभी होने वाला है ।' प्रयोवचः स्फूर्जथुकल्पमेवमाकर्ण्य कान्ता निजगाद कान्तम् । त्वयैव गेहं मम तत्त्वदीयं छायेव मुञ्चामि न सन्निधानम् ॥ , अपने पति के वज्रध्वनि के सदृश कठोर वचनों को सुनकर कान्ता ने कहा – 'नाथ ! तुम ही मेरे घर हो, इसलिए मैं तुम्हारे साथ छाया की भांति रहूंगी, तुम्हारा सान्निध्य नहीं छोडूंगी। १. विहायस् - आकाश ( विहाय श्राकाशमनन्तपुष्करे - अभि० २|७७ ) २. स्फूर्जथु: - वज्र की ध्वनि ( स्फूर्जथुर्ध्वनि: - श्रभि० २२६५ ) - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५. अमङ्गलं मास्तु यियासतोऽस्य , पतत् कयाचिद् धृतमश्रमन्तः। तेनैव सिक्तस्य वियोगवन्हेनिःश्वासधूमावलिमुद्वमन्त्या ॥ पति को रण की ओर जाते देखकर किसी कान्ता की आँखों में आंसू छलकने लगे। उसने उन आंसुओं को यह सोचकर आंखों में ही रोक लिया कि उनके गिरने से, युद्धस्थल की ओर जाने के इच्छुक मेरे प्रिय पति के कहीं अमंगल न हो जाए । उसने अपने उन्हीं प्रांसुओं से वियोग की अग्नि का सेचन किया और वह नि:श्वास रूपी धुएं का वमन करने लगी। ६. कयाचन द्वारि वितत्य बाहू , न्यत्ति पक्षाविव राजहंस्याः। ... गमाय तेऽहं प्रिय ! नादिशामीत्युदीरयन्त्या प्रणयेन कान्तः ॥ . . किसी कान्ता ने द्वार पर राजहंसी की फैली हुई पांखों की भांति अपनी बांहें फैलाकर, 'प्रिये ! मैं तुम्हें जाने के लिए आदेश नहीं दे सकती'—यह कहते हुए पति को प्रेमपूर्वक रोक लिया। ७. वियोगदीनाक्षमवेक्ष्य वक्त्रं , तदैव कस्याश्चन सङ्गराय । वाष्पाम्बुपूर्णाक्षियुगः स्वसौधान् , न्यगाननः कोपि भटो जगाम ॥ एक सुभट वियोग से उदासीन अपनी प्रिया के चेहरे को देखकर नीचा शिर किए उसी समय युद्ध के लिए अपने घर से चल पड़ा। उसकी, आंखें आँसुओं से भर गई थी। ८. गन्तैष बाले ! दयितो भवत्याः , कुरुष्व तन् मा मुखमद्य दीनम् । त्वं वीरपत्नी भव काचिदेवं , व्यबोधि सख्या रुदती तदानीम् ॥ उस समय सखी ने रोती हुई कामिनी को समझाते हुए कहा- 'बाले ! तुम्हारा यह पति रण के लिए जाने ही वाला है। इसलिए आज तुम अपना मुंह दीन मत करो। तुम वीरपत्नी बनो।' ६. आश्लिष्य दोर्वल्लियुगेन काचित् , कान्तं बभाषे गलदश्रुनेत्रा । बद्धो मया त्वं कुत एव गन्ता , रुद्धो गजेन्द्रोऽपि वशत्वमेति ॥ कोई कामिनी अपनी दोनों भुजाओं से पति का आलिंगन करते हुए अश्रुपूर्ण नेत्रों से १. 'उद्वहन्त्या' इत्यपि पाठः। २. वीरपत्नी-(वीरपत्नी वीरभार्या-अभि० ३.१७६) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः १६६ बोली-'मैंने तुम्हें बाँध लिया है। अब तुम कहां जाओगे ? बंधा हुआ हाथी भी वश में हो जाता है।' १०. कुन्ताग्रधारा विषहिष्यसे त्वं , कथं यतो वृन्तमरंतुदं ते । इतीरिणी काञ्चिदुवाच कान्तस्त्विदं वचोरंतुदमेव ते मे ॥ कान्ता ने पति को सम्बोधित कर कहा-'नाथ ! डंठल का प्रहार भी तुमको व्यथित कर देता है तो भला तुम भाले की तीखी नोक के प्रहार को कैसे सहन कर सकोगे ?' यह सुनकर उसने कहा—'प्रिये ! तेरी यह वाणी मुझे भाले से भी अधिक पीड़ित कर रही है।' ११. मनो मदीयं भवता सहैतं , मुक्तास्मि तन्वा त्विह जीवितेश ! उवाच कान्तो हृदयं ममापि , त्वय्येव साधुव्यतिहार एषः ॥ कान्ता ने कहा-'प्राणनाथ ! मेरा मन तुम्हारे साथ ही जा रहा है। मैं इस घर में केवल शरीर के द्वारा ही रह रही हूँ।' तब पति ने कहा-'प्रिये ! मेरा हृदय भी तेरे ही साथ है। यह परिवर्तन (तेरा मन मेरे साथ और मेरा हृदय तेरे साथ) कितना अच्छा है।' १२. . पोतन्ति तारुण्यजलेऽबलानां , हृदीश्वराः कामचलत्तरङ्ग। - प्रिये ! ऽत्र यूनां तरणाय दिष्टं , धात्रा सुनेत्राकुचकुम्भयुग्मम् ॥ पत्नी बोली:-'पति (हृदयेश्वर) नारियों के तारुण्य जल, जिसमें काम-वासना की चंचल तरगें उछलती हैं, में यानपात्र के समान होते हैं।' पति ने कहा-'प्रिये ! विधाताने युवकों के लिए स्त्रियों के ये स्तन रूपी दो कलश तारुण्यजल को तर जाने के लिए ही बनाए हैं।' १३. नवैः प्रसूनः परिकल्प्य शय्यां , मार्गो मयालोकि तवैव नक्तम् । प्रसूनशय्यानियमोस्तु तावद् , यावन्न सङ्गो मम ते च भावी ॥ पत्नी बोली-'प्रिय ! नए फूलों की शय्या बिछाकर मैं रात भर तुम्हारा ही मार्ग देखती रही।' पति बोला-'प्रिये ! जब तक तेरा पुनः संगम नहीं होगा तब तक मुझे फूलों की शय्या पर सोने का नियम है, व्रत है।' १४, शृङ्गारयोनेः' कुसुमानि बाणा , विना त्वया लोहमयाः शरा मे। द्वेधाऽनुभूतिर्मम मार्गणानां , भवित्र्यनङ्गस्य शरास्त्वसह्याः॥ १. शृङ्गारयोने:-कामदेवस्य । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० भरतबाहुबलि महाकाव्यम् पत्नी ने कहा- 'प्रिय ! तुम्हारे बिना कामदेव के फूलों के बाण भी मेरे लिए लोहमय बन जायेंगे ।' यह सुनकर पति ने कहा - ' प्रिये ! तेरे बिना मुझे दो प्रकार की अनुभूति होगी - ( संग्राम में ) लोहमय बाणों की और ( तेरे बिना) कामदेव के कुसुममय बाणों की । लोहमय बाण सहे जा सकते हैं किन्तु कामदेव के कुसुममय बाण असह्य होते हैं ।' १५. पत्नी बोली- 'प्रिय ! मेरे हाथों से चालित पंखे की हवा से मैंने मैथुन से उत्थित तुम्हारे पसीने की बूंदों का आचमन किया था ।' पति ने कहा- 'बाले ! मैथुन तो तेरे ही अधीन है । अतः उससे उठने वाले स्वेदबिन्दु अब मेरे शरीर पर कहां से होंगे ? ( क्योंकि आज मैं तुमसे दूर चला जा रहा हूँ ।) ' १६. , आचामयं स्वेदलवान् रतोत्थान् मत्पाणिधूतव्यजनानिलंस्ते । संवेशनं त्वद्द्वशमेव बाले !, कुतो मम स्वेदकणास्तदुत्थाः || १७. स्वप्नान्तरे त्वं व्यवलोकनीयो, मया प्रिय ! प्रीतिनिमग्नदृष्ट्या । प्रिये ! ममोपैष्यति नैव निद्रा त्वया विना तहि कथं त्वमोक्ष्या ॥ पत्नी ने कहा - 'प्रिय ! मैं स्वप्न में भी तुमको प्रेमभरी दृष्टि से देखूंगी।' पति ने कहा - 'प्रिये ! तेरे बिना मुझे नींद ही नहीं आएगी तो मैं तुझे कैसे देख पाऊंगा ?" १८. , प्रेयोजयश्री वरणोत्सुकस्त्वं, विस्मारयेर्मा मम दूरगायाः । प्रिये ! पुरस्ताद् बहलीश्वरस्य कुतो जयश्रीप्रतिलम्भ एव ॥ , 'हे प्रिय ! तुम अपनी अत्यन्त प्रिया जय रूपी लक्ष्मी का वरण करने के लिए उत्सुक हो गए हो । मैं तुम्हारे से बहुत दूर हूँ, किन्तु मुझे कभी भूल मत जाना ।' पति ने कहा 'प्रिये ! बाहुबली के आगे जयश्री को प्राप्त करने की बात ही कहाँ है ?' इत्थं विचेविरहातिदीना युवद्वयीनां विविधाः प्रलापाः । निरन्तरे हि प्रणयातिरेके, हृदालये शल्यति विप्रयोगः ॥ इस प्रकार दम्पतियों के विरह से अति दीन बने हुए विविध प्रलाप होने लगे । यह सच है कि जहाँ प्रणय का निरन्तर अतिरेक होता है वहाँ वियोग हृदय में शल्य की भाँति चुभता रहता है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः .. १६. कान्तर्यवार्यन्त मुहः प्रबन्धात्', सह व्रजन्त्यो दयितास्तदानीम् । स्वस्वामिकृत्याधिकदत्तचित्तः , शैलेस्तटिन्याप इवापतन्त्यः॥ सभी सुभट अपने स्वामी के कार्यों के प्रति दत्तचित्त थे। उनकी प्रणाय-वेला में उनकी कान्ताएं साथ चलने का हठ कर रही थीं। उस समय उन सुभटों ने हठ करने वाली अपनी कान्ताओं को बार-बार उसी प्रकार निवारित किया जैसे पर्वत नदियों के आने वाले पानी को निवारित करते हैं। २०. विषीद मा तन्वि ! चरालयं स्वं , श्यामं मुखं मा कुरु साञ्जनास्त्रे । श्वस्ते समेता दयितः प्रियाल्या, निन्ये गहं काचिदिति प्रबोध्य ॥ 'सुन्दरी ! तू खेद मत कर ! तू अपने घर जा । कज्जल के कारण काले बने हुए आंसुओं से अपने मुंह को काला मत. बना । प्रातःकाल तेरा पति आ जाएगा'-इस प्रकार कहकर नायिका की प्रिय सखी उसे घर ले गई। २१. वियोगतः प्राणपतेः पतन्ती , विसंस्थुलं पाणिधृतापि सख्या। चैतन्यमापय्य च तालवन्तानिलैरनायि स्वगृहं मगाक्षी ॥ अपने प्रिय पति के वियोग से एकं नायिका अपनी सखी द्वारा हाथ का सहारा दिये जाने पर भी व्याकुलता से गिर रही थी। तब ताल के बने पंखे से हवा देकर सखी ने उसे सचेत कर घर पहुँचाया। २२. • अमुञ्चती स्थानमिदं विमोहात् , प्रेयःपदन्यासमनुवजन्ती । काचिद् गलद्वाष्पजलाविलाक्षी , सख्येरिताप्युत्तरमार्पयन्न । एक कान्ता की आंखें आंसुरों से पंकिल हो रही थीं। वह अत्यन्त विमूढ होकर अपने स्थान से नहीं हट रही थी। वह अपने पति के चरणों के पीछे-पीछे चल रही थी। उस अवस्था में सखी के द्वारा कुछ कहे जाने पर भी वह उत्तर नहीं दे रही थी। २३. का विप्रयुक्तिः प्रणयश्च कीदृग , विषण्णता केयमितीरणेन । मुग्धे ! पुरा त्वं सकलानुभूतिस्तवाद्य सख्येति दधेऽथ काचित् ॥ एक सखी ने नायिका को यह कहकर सान्त्वना दी कि–'हे सुन्दरी ! आज तुझे इन १. प्रबन्धात्-आग्रहात् । २. विसंस्थुलं-व्याकुलतया चीवराद्यऽसंभालनशक्तिपूर्व यथा स्यात् तथा । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ... · भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् सबका अनुभव हो रहा है कि विरह क्या होता है ? स्नेह कैसा होता है ? विषण्णता कैसे होती है ? इससे पूर्व तुझे इन सबकी जानकारी नहीं थी।' २४. अशोकमालम्ब्य लतेव काचित् , सिषेच नेत्राश्रुजलरितीव । प्रवृद्ध एष प्रविधास्यते मां , सेकादशोकां दयितागमेन ॥ एक कान्ता ने लता की भांति अशोक वृक्ष का आलंबन लेकर उसे अपने आंसुओं से यह मानकर सींचा कि यह वृक्ष सिंचन से बड़ा होकर पति के आगमन से मुझे भी अ-शोक-शोक रहित कर देगा। २५. खिन्नेव काचिद् विरहातिभारात् , पदे पदे वाष्पजलैर्गलभिः । .. प्रेयःपदन्यासरजांसि मुक्ताफलरिवैतावकिरन्त्य तूर्णम् ॥ एक कान्ता विरह के भार से अत्यन्त खिन्न होकर पग-पग पर मोतियों की भांति आंसू बिखेर रही थी। वह अपने प्रिय पनि के पदन्यात की रजों को इन मोतियों से वर्धापित करती हुई धीरे-धीरे चलने लगी। २६. कान्तस्य यातस्य पदव्यलोकि', त्वया हि यावन्न रजोन्तराभूत् । अथ स्थिता किं वितनोषि बाले !, संभाष्य सख्येवमवालि काचित् ॥ सखी ने किसी कान्ता को यह कहकर घर की ओर मोड़ा कि-'बाले ! तू यहाँ बैठीबैठी क्या कर रही है ? तू प्रयाण करने वाले अपने पति के मार्ग को तब तक देख चुकी है जब तक कि वह मार्ग धूली से ओझल नहीं हो गया था। २७. दुरुत्तरोयं विरहाम्बुराशिर्मया भुजाभ्यां दयिते प्रयाते । आशातरी चेन्न निमज्जने को , विघ्नोन्तरेतीरयतिस्म काचित् । एक कान्ता ने अपनी सखी से कहा-'सखे ! पति के प्रयाण कर जाने पर विरह के इस समुद्र को भुजाओं से पार करना मेरे लिए शक्य नहीं है। यदि आशा रूपी नौका न हो तो बीच में ही डूब मरने में कौनसी बाधा हो सकती है ?' .. जहीहि मौनं रचयात्मकृत्यं , सखीजने देहि दृशं मृगाक्षि !। . दधासि कि घस्रकुमुद्दशां त्वं , संबोध्य नीतेति च काचिदाल्या ॥ १. अवकिरन्ती-वर्धापयन्ती । २. पदवी-मार्ग (पदव्येकपदी पद्या-अभि०, ४।४६) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः १७३ सखी किसी कान्ता .को यह कहकर घर ले गई कि-'बाले ! तू मौन को छोड़ दे और अपना काम कर। हे मृगाक्षी ! तू अपनी सखियों की ओर देख । तू दिन में मुरझा' जाने वाले श्वेत कमल की अवस्या को क्यों धारण कर रहीहै ?' २६. स्निग्धाभिरेवात्र सुलोचनाभिः , संतप्यते जीवितनाथपृष्ठे । कि स्नेहभाजो न तिला विमर्यास्तेषां खलः केन च नापि मर्यः॥ इस संसार में स्नेहिल स्त्रियाँ पति के चले जाने पर संतप्त होती हैं। क्या स्नेहिल तिल नहीं पीले जाते ? अवश्य पीले जाते हैं । किन्तु तिलों की खल को कोई भी नहीं पोलता। ३०. अर्थकदिक्संमुखसंचरिष्णुश्चकार सेना शतशश्च मार्गान् । स्वर्वाहिनीवान्तरुपेतभूभृद्विभेदिनी' भारतकामचारा ॥ एक दिशा की ओर प्रयाण करने वाली भरत की सेना अब सैकड़ों मार्गों की ओर बढ़ चली। जिस प्रकार गंगा नदी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बहती हुई अपने बीच में आने वाले पर्वतों को तोड़कर आगे बढ़ती जाती है वैसे ही भरत की सेना भी विभिन्न मार्गों से प्रयाण करती हुई मार्गगत राजाओं को जीतती हुई चली जा रही थी। ३१. विश्वंभराव्योमचरर्धरित्री , न पुनर्मातुमिव प्रवृत्तः । भटैस्तदीयः स्वकरापितास्त्रैः , समंततो व्यानशिरे दिगन्ताः॥ उस समय भरत चक्रवर्ती के वीर सुभट अपने हाथों में अस्त्रों को लेकर सभी दिशाओं में व्याप्त हो गए । भूमि पर चलनेवाले सुभट और आकाश में उड़ने वाले विद्याधर इस प्रकार फैल गए मानो कि वे धरती और आकाश को मापने के लिए निकल पड़े हों। १. जीवितनाथपृष्ठे जीवननाथपरोक्षे सति । २. लविभेदिनी-इत्यपि पाठः । ५. श्लेष-सेनापक्षे एकदिक्संमुखसंचरिष्णु:-एकाशाभिमुखसंचरणशीला। अन्तरुपेतभूभृद्विभेदिनी—अन्तरालायातपृथ्वीपालपातिनी । भारतकामचारा–चक्रवर्तीच्छाचारिणी । गंगानदीपनेएकदिक् -एकाशाभिमुखसंचरणशीला । अन्तरुपेत... -अन्तरालायातपवतघातिनी । भारतकामचारा-भरतक्षेत्रे कामं प्रत्यर्थ, चार:--संचारो, यस्याः । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३२. अस्योद्यदातोद्यरवैर्ध्वजिन्या , दूरादिवाहूयत नाकलोकात् । . स्वाहाभुजां सञ्चय इत्युदीर्य , कुतूहलं किं भवदालयान्तः ? भरत की सेना में वाद्यों का उछलने वाला निर्घोष दूर से मानो देवलोक से देवों के समूह को बुलाकर यह कह रहा हो कि तुम्हारे स्वर्ग में क्या कुतूहल हो रहा है ? ३३. महोष्ट्रवामीशतसङकुलायां , कोलाहलः कोप्प्रभवद् ध्वजिन्याम् । येनाटवीश्वापदजातियूथैर्भयादलीयन्त गुहा गिरीणाम् ॥ । भरत की सेना सैंकड़ों बड़े-बड़े ऊंटों और घोड़ियों से संकुल थी। उसके प्रयाण से ऐसा कोलाहल हो रहा था, जिसे सुनकर अटवी के हिंसक पशुओं के समूह भयभीत हो गए और वे सभी पहाड़ों की गुफाओं में जा छिपे । ३४. गन्धेभसिन्दूरभरातिरक्तपथिमं तद् वनमाबभासे ।। चम्वास्य धूलीनवमेघपङ्क्त्या , चरिष्णुसन्ध्याभ्रमिव क्षपास्यम् । गन्धहस्ती के सिन्दूर-संचय से अधिक रक्त मार्गगामी वृक्षों वाला वह वन भरत की सेना से वैसे शोभित हुआ जैसे सेना से उठे रजकणों की नवमेघ की पंक्ति से संचरणशील संध्याकालीन मेघ वाला रात्रिमुख शोभित होता है। ३५. दूरंगतानामथ सैनिकानां , साकेतसौधाग्रशिरोप्यदृश्यम् । बभूव चैतन्यमिवातिशुद्ध, स्मरातुराणामसमाहितानाम् । भरत के सैनिक बहुत दूर तक चले गए। उन्हें साकेत नगर के सौध-शिखर अब वैसे ही दीखने बंद हो गए जैसे अत्यन्त निर्मल चैतन्य कामातुर और असमाहित व्यक्तियों को दीखना बन्द हो जाता है। ३६. दन्ताबलः केलिनगोपपन्ना , होपपन्ना च रथैर्बहद्भिः। अस्य प्रयाणेऽपि जनरमानि , स्फुरद्ध्वजा जङ्गमकोशलेयम् ॥ लोगों ने भरत की सेना के प्रयाण काल में उस सेना को ही फहराती हुई ध्वजारों वाली जंगम अयोध्या मान लिया था। बड़े-बड़े हाथियों के कारण वह सेना क्रीड़ा-पवंतों से उपपन्न-सी दीख रही थी और विशाल रथों के कारण वह प्रासाद वाली लग रही थी। ३७. तुरङ्गमैरग्रसरैः खुराप्रैः , क्षुण्णं रजो यावदुपैत्यनन्तम् । तावद् गजैः पृष्ठचरैमंदाम्भोभरैरधोरक्षि भवीव पङ्कः॥ . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः १७५ सेना के आगे चलने बाले घोड़ों के खुरामों से क्षुण्ण रजे जब आकाश में ऊपर उठती हैं तब घोड़ों के पीछे चलने वाले मदोन्मत्त हाथियों के मद-प्रकर्ष से वे वैसे ही नीचे गिर जाती हैं जैसे भव्य व्यक्ति पार के कारण नीचे गिर जाता है। ३८. पुरस्सरैरेति बल च पृष्ठे , तुरङ्गिभिः' पृष्ठचरैरपीदम् । ऊचे जनानामिति पृच्छतां नो , पुरो बहु प्राग् बहु संनिबोधः ॥ आगे चलनेवाले घुड़सवारों से लोग पूछते तो वे यही कहते कि सेना पीछे आ रही है और पीछे चलने वालों से पूछते तो वे भी यही कहते कि सेना पीछे आ रही है। इस प्रकार प्रश्न करने वाले लोगों को यह ज्ञात नहीं हो पाता था कि सेना आगे अधिक है या पीछे अधिक है। ३६. कण्डूयमानः करटं करीन्द्रस्त्वगुन्ममन्थे पथि भूरुहाणाम् । धर्मस्थितिश्चारुदृशां विलासैरिवाधिकौढितया प्रपन्नः॥ हाथी अपने गण्डस्थल को खुजलाते हुए मार्ग के वृक्षों की छाल उखाड़ रहे थे, जैसे कि स्त्रियों के अत्यन्त प्रपंच से संयुक्त उनके हावभाव धर्मस्थिति का उन्मथन कर देते हैं, उनको उखाड़ देते हैं। . ४०. विद्याधरैर्योसपथो जगाहे , ततो निधानैर्वडवामुखं च । भूचारिभिर्भू मितलं च सैवं, बभूव गङ्ग व चमूस्त्रिमार्याम् ॥ विद्याधरों ने आकाश का, निधानों ने पाताल का और पैदल सेना ने भूमि का अवगाहन किया। इस प्रकार वह सेना गंगा की तरह त्रिपथगा–तीन मार्गगामी हो गई। ४१. प्रवतितस्तबल कामवाविषीदतिस्मायननिम्नगापि । _ 'संघो नवोढेव रसोनकत्वपङ्क ककालुष्यभरातिदीना ॥ भरत की सेना के यथेष्ट और विस्तृत संचरण के कारण तथा पानी की न्यूनता से होने वाली कीचड़ की मलिनता के कारण मार्ग की नदियाँ नई वधू की भाँति तत्काल विषण्ण हो रही थीं। ४२. नाव्या नदी सुप्रतरा बभूव , प्रकाशमासीद् गहनं वनं च । स्थलान्यभूवन् सलिलाशयाश्च , क्रमाद् बलैरस्य जयोद्यतस्य । १. तुरङ्गी-घुड़सवार (सादी च तुरगी च स:-अभि० ३।४२५) २. वडवामुखं--(पातालं वडवामुखम्-अभि० ५।५) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् विजय के लिए उद्यत भरत की सेना के लिए क्रमशः नौका द्वारा तरने योग्य नदी भी सुखपूर्वक ऐसे ही तरने योग्य हो गई, गहन वन भी प्रकाशित हो गए और सभी जलस्थान स्थल की तरह हो गए। ४३. सुषेणसैन्याधिपतिः समेत्य , जगाद राजानमिदं स्वसैन्यम् । तापाल्ललाटंतपसप्तसप्तेविषीदति वात इवांडजानाम् ।। इतने में ही सुषेण सेनापति भरत के पास आकर बोला-'राजन् ! इस चिलचिलाती धूप में हमारी सेना उसी तरह तिलमिला रही है जैसे पक्षियों का समूह मध्याह्न वेला में आतप से तिलमिलाता है । ४४. बन्धक पुष्पाणि विकासवन्ति , वीक्षस्व सिन्दूरभरच्छवीनि। . 'वियोगिवक्षस्थलशोणिताक्ता , बाणाः किमेते स्मरवीरमुक्ताः॥ 'राजन् ! सिन्दूर की अत्यधिक कांति वाले इन विकसित 'दुपहरिया' के लाल फूलों को देखें । क्या ये वीर कामदेव द्वारा छोड़े गए बाण हैं जो कि वियोगियों के वक्षस्थल के खून से सींचे हुए हैं ?' ४५. तीक्ष्णांशुतप्त्या परितप्यमानाः , प्रसूननेत्रर्मकरन्दवाष्पान् । विमुञ्चतीः प्रेयसि सापराधे , लता मृगाक्षीरिव पश्य राजन् !॥ 'राजन् ! आप इन लताओं को देखें। जैसे प्रिय पति के प्रति अपराध हो जाने पर कान्ताएँ आंसू बहाती हैं, वैसे ही ये लताएं सूर्य के ताप से संतप्त होती हुई अपने पुष्प रूपी नेत्रों से मकरन्द रूपी वाष्प को छोड़ रही हैं।' . ४६. लोलल्लतामण्डपमध्यलीनो , विलोक्यतां पान्थजनोयमारात् । निस्त्रिशसूनध्वज'बाणघातभीत्येव भीतः परिलग्नतृष्णः ॥ 'राजन् ! प्रकंपित लता वाले इस मंडप में बैठे हुए उस पथिक को निकटता से देखें। वह काम-वासना से अत्यन्त तृषातुर है । ऐसा लग रहा है कि वह क्रूर कामदेव के बाण-प्रहार के भय से भयभीत है।' १. बन्धूकः-दुपहरिया नामक फूल (बन्धूको बन्धुजीवकः-अभि०, ४।२१५) २. निस्त्रिश:-क्रूर (क्रूरे नृशंसनिस्त्रिशपापा-अभि० ३।४०) . ३. सूनध्वजः-कामदेव (सून--पुष्पं, ध्वजा अस्ति यस्य, सः) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः १७५ ४७. अयं पशूनां समजः समन्तात् , सरस्तटं घावति लग्नतृष्णः। कामोव कान्तांधरबिम्बपित्सुः , पश्य त्वमुत्थाष्णुरजोभरत्वात् ॥ 'राजन् ! धूली के गुब्बारों के ऊंचे उठने से ज्ञात हो रहा है कि तृषातुर पशुओं का समूह प्यास बुझाने के लिए तालाब के तीर की ओर उसी प्रकार दौड़ रहा है जिस प्रकार एक कामातुर व्यक्ति (काम-वासना को मिटाने) अपनी प्रेयसी के अधरबिम्ब का पान करने के लिए दौड़ता है।' ४८. मद्धिरेषा भरताधिपस्याभवत् कृतार्था न मरन्द लक्षात् । सरोजनेत्रः परिरोदितीव , तदुज्झनीयो न जलाशयोयम् ॥ 'राजन् ! यह सरोवर कमलनेत्रों से मकरन्द को बहाने के मिष से यह सोचकर रो रहा है कि मेरी यह सारी संपदा भरत-चक्रवर्ती के लिए कृतकृत्य नहीं हुई-प्रयोजनीय नहीं हुई। इसलिए आप सरोवर को न छोड़ें ।' ४६. हस्त्यश्वपृष्ठ्या निपतन्ति राजन् ! , भाराधिरोपाच्चलनक्रमाच्च । नीराशयोदञ्चितकन्धरश्च , महोक्षवर्गः श्रममाबित्ति ॥ 'राजन् ! भार की अधिकता और प्रवास के कारण ये हाथी, घोड़े और बैल भूमि पर गिर रहे हैं । बड़े-बड़े बैलों का यह समूह जलाशय की खोज में ऊंची ग्रीवा किए हुए खिन्न हो रहा है।' ५०. स्वेदोगबिन्दूनधिमालपट्ट , स्वसैनिकानां नुदति प्रसह्य। वनं तवातिथ्यविधि विधातुं , प्रफुल्लपद्माकरमारुतेन ॥ 'राजन् ! यह अरण्य आपका आतिथ्य करना चाहता है। इसलिए यह आपके सैनिकों के भालपट्ट पर छलकने वाली पसीने की बूंदों का, अपने विकसित कमल वाले सरोवर की ठंडी वायु से, सहसा अपनयन कर रहा है।' ५१. आयोजनं भूमिरपि व्यतीता , सेनानिवेशः क्रियते कथं न। मध्यस्थतामेत्य महोनिधिः किं , क्षणं न विश्राम्यति पश्य भानुः ? १. समज:-पशुओं का समूह (समजस्तु पशूनां स्यात्-अभि० ६।५०) २. पित्सुः~-पिपासुः । ३. मरन्द:-फूल का रस (मकरन्दो मरन्दश्च-अभि० ४।१९३) ४. पृष्ठ्यः-बैल (स्थौरी पृष्ठ्यः पृष्ठवाह्यो-अभि० ४।३२६) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'राजन् ! हम एक योजन भूमि को पार कर चुके हैं । फिर भी सेना को विश्राम करने का आदेश क्यों नहीं दिया जा रहा है ? देव ! आप देखें, किरणों का निधान सूर्य मध्यान्ह की वेला में क्या क्षण भर के लिए विश्राम नहीं करता' ? अवश्य करता है।' ५२. इतीप्सितं तस्य बलाधिपस्य , स स्वीचकार प्रथमो नपाणाम् । ___ अनूरुकृत्यं दिवसाग्रभागे , ह्यलङ्घनीयं दिवसेश्वरेण ॥ . महाराज भरत ने सेनापति सुषेण की बात स्वीकार कर सेना को पड़ाव डालने का आदेश दे दिया। क्योंकि सूर्य प्रभातकाल में अपने सारथि के कार्य का उल्लंघन नहीं करता। ५३. सैन्यस्य घोषो विपिनान्तरेऽभूत् , तदावतीर्णस्य विहङ्गमानाम् । .. वनस्थलीप्रोड्डयनोत्सुकानां , संवर्तसंक्षुब्धपयोधिकल्पः ॥ ... उस समय जंगल में सेना के पड़ाव के कारण वनस्थली से उड़ने के लिए समुत्सुक पक्षियों का ऐसा कोलाहल हुआ मानो कि प्रलयफाय से क्षुब्ध समुद्र गरिव कर रहा हो। ५४. सेनानिवेशा बहुशो बभूवुस्तस्य प्रयातस्य नितान्तमेवम् । पुरीप्रदेशाधिकविभ्रमाढ्याः , पुरं वनं पुण्यवतां हि तुल्यम् ॥ युद्ध के लिए प्रयाण करने वाली भरत की इस सेना ने अनेक बार ऐसे पड़ाव डाले थे जो कि अयोध्यापुरी के प्रदेशों से भी अधिक शोभास्पद,थे । क्योंकि सौभाग्यशाली पुरुष के लिए नगर और वन समान होते हैं । ५५. स्वदेशसीमान्तमुपेत्य राजा , पताकिनीशेन समं रहश्च । स मन्त्रयित्वा प्रजिघाय चारान् , वारिप्रवाहानिव वारिवाहः॥ अपने देश की सीमा पर आकर भरत ने अपने सेनापति के साथ एकान्त में गुप्त-मंत्रणा की और जैसे मेघ पानी की धारा को चारों ओर बिखेरता है वैसे ही भरत ने गुप्तचरों को चारों ओर भेजा। ५६. करोति किं तक्षशिलाक्षितीशः , के वीरधुर्याः किल तस्य सैन्ये ? कीदृग् बलं तस्य महोशितुश्च , ज्ञातुं नृपेणेति चरा नियुक्ताः॥ १. माना जाता है कि चक्रवर्ती एक दिन में एक योजन से अधिक नहीं चलते । २. कहा जाता है कि सूर्य मध्यान्ह की वेला में भण भर के लिए विश्राम करता है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः १७६ महाराज भरत ने यह जानने के लिए गुप्तचरों को नियुक्त किया कि तक्षशिला के राजा बाहुबली क्या कर रहे हैं? उनकी सेना में कौन-कौन वीराग्रणी हैं ? उनकी सेना कैसी है ? - ५७. भरत ने सेनापति से कहा - 'सेनाओं ने अपने देश की सीमा को लाँघ दिया है । कल सेना का पड़ाव कहाँ होगा ? इसके आगे हमें शत्रु के देश में जाना होगा । शत्रु आमने-सामने हुए बिना पराक्रम और अपराक्रम की अभिव्यक्ति नहीं होती ।' ५८. कुत्र भावी ध्वजिनीनिवेशः, स्वदेशसीमा कटकैर्ललङ्घ । अतः परं गम्यमरातिदेशे, बलाबलव्य क्तिरि विना का || ५६. इस प्रकार कहे जाने पर सुषेण सेनापति ने दर्प के साथ राजा भरत से कहा- 'राजन् ! क्या पराक्रमी व्यक्तियों की, अपने और पराए के विचार से रहित, साहसश्री समुदित नहीं होती ? अवश्य होती है ।' इतीरितः सोथ सुषेणसैन्याधिपः सदर्पो निजगाद भूपम् । महौजसामात्म पराऽविमर्शा, न साहसश्रीः समुदेति किञ्चित् ? ६०. कायपी' दैन्यवतोपचर्या, संगृह्यते साहसिभिः क्षितीश ! | mata दाना' कपोलभित्तीन्, नव्हेलया हन्ति हरिर्गजान् किम् ? 'राजन् ! क्या दीन व्यक्ति पृथ्वी पर अधिकार कर सकते हैं ?" कभी नहीं । साहसी व्यक्ति ही उसे अपने अधीन कर सकते हैं। क्या अकेला सिंह मद से भीगे हुए कपोल वाले हाथियों को बात ही बात में नहीं मार डालता ?” एषां भटानां समरोत्सुकानां भवन्निदेशोस्ति महान्तरायी । रवैः पुरः किं न तदीयपादा, भूमीभृदाक्रान्तिनिबद्धकक्षाः ? , 'राजन् ! युद्ध के लिए समुत्सुक इन वीर सुभटों के लिए आपका प्रदेश महान् विघ्नकारी है । क्या सूर्य के आगे-आगे चलने वाली उसकी किरणें पर्वतों को आक्रान्त करने के लिए उत्सुक नहीं होतीं ? अवश्य होती हैं ।' १. काश्यपी - पृथ्वी ( काश्यपी पर्वताधारा - प्रभि० ४ | ३ ) २. दानं मद (मदो दानं प्रवृत्तिश्च - प्रभि० ४।२४६ ) ३. अन्तरायः विघ्न ( विघ्नेऽन्तराय प्रत्यूहः — प्रभि० ६ । १४५ ) ४. ...... निबद्धकच्छाः इत्यपि पाठः । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ६१. ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् तवानुजोऽयं तनयो युगादेर्भमायमूहो भरताधिराज!।। नो चेदयं को मम सांयुगीनोऽधुना विमर्शो मम ते निदेशः ॥ 'भरताधिराज ! बाहुबली आपके अनुज हैं और ऋषभ के पुत्र हैं- इसलिए मेरा यह वितर्क है । अन्यथा यह कौन मेरा रणकुशल प्रतिद्वन्द्वी है ? बस, अब आपका आदेश ही मेरा विमर्श है।' ६२. हठाद् रिपूणां वसुधा विशेषात् , क्रान्ता मृगाक्षीव सुखाय पंसाम् । उत्सङ्गामेते समरोत्सवे हि , किं कातरत्वं विदधाति धीरः ? .. 'राजन् ! विशेष रूप से अकस्मात् आक्रान्त शत्रुओं की भूमि पुरुषों के लिए वैसे ही सुखकारक होती है, जैसे अकस्मात् आक्रान्त सुन्दरी सुखकारक होती है। युद्धोत्सव के निकट आने पर क्या धीर पुरुष कायरता दिखाता है ?' . . ६३. पश्य स्वसेनां हरिदुःप्रधर्षा , दोष्णोर्युगे देहि दृशं नरेश !।... तावद् बली सोऽपि न यावदीये , त्वया विरोधिक्षितिभञ्जनेन ॥ 'राजन् ! आप अपनी सेना को देखें । वह इन्द्र के द्वारा भी दुष्प्रधर्ष है। देव ! आप बाहु-युगल की ओर दृष्टि करें। वैरियों की वसुधा के टुकड़े-टुकड़े करने वाले आप जब तक सामने नहीं आते तब तक ही वह बाहुबली शक्तिशाली लगता है।' ६४. ममादभुतं वाक्यमतः परं त्वं , कर्णामृतं स्वीकुरु सार्वभौम !। इतो मया चारवरा नियुक्ताः , सेनानिविष्ट्यै निजबुद्धितो ह्यः । 'हे चक्रवत्तिन् ! अब इसके आगे आप मेरी आश्चर्यकारी और अमृत के समान मधुर वाणी को ध्यानपूर्वक सुनें। इधर मैंने अच्छे-अच्छे गुप्तचरों को, अपनी बुद्धिमत्तापूर्वक सेना की व्यूह-रचना करने के लिए, कल ही नियुक्त कर डाला है।' ६५. तैरेत्य सानन्दमनोभिरेवं , विज्ञापितोऽहं प्रियसत्यवाक्यैः। अस्त्युत्तरस्यां दिशि दाव मेकमदूरगं चैत्ररथा दनूनम् ॥ 'राजन् ! प्रसन्न चित्त वाले उन गुप्तचरों ने यहाँ आकर प्रिय और सत्यवाणी में मुझे यह १. ह्यः-गतवासरे। २. दावः-कानन (काननं वनं, दवो दाव:-अभि० ४।१७६,१७७) . ३. चत्ररथं-कुबेर का वन (चैत्ररथं वनं-अभि० २।१०४) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः १८१ सूचना दी है कि उत्तर दिशा में यहाँ से निकट ही कुबेर के कानन के समान एक सुन्दर कान है । ' ६६. 'राजन् ! वह् कानन सुन्दर फलों की अतिशय शोभा से सुशोभित है। जैसे सारे गुणों की उत्पत्ति सर्वज्ञ में वृद्धिगत होती है, वैसे ही तीनों लोकों में एक भी ऐसा वृक्ष नहीं है जो उस कानन में वृद्धिगत न हुआ हो ।' , स भूरुहो नास्ति जगत्त्रयेऽपि यः काननेस्मिन् न विवृद्धिमागात् ।" गुणोद्भवः सर्वविदीव चारुफलोल्लसच्छ्रीभरभासुराङ्ग े ॥ ६७. गीर्वाणविद्याधरसुन्दरीणां सङ्क ेतलीलानिलया नितान्तम् । 1 अनेकधा यत्र विभान्ति वृक्षाः, प्रसूनचापात पवारणानि ॥ " उस कानन में अनेक प्रकार के वृक्ष शोभित होते हैं। वे देवता और विद्याधरों की सुन्दरियों के संकेत-लीला के स्थल और कामदेव के छत्र के समान हैं ।' ६८. पुष्पशाखा उपरि भ्रमन्ती, रोलम्बराजिर्जलदालिनीला । कादम्बिनी भ्रान्तिमिहातनोति कलापिनां नृत्य रसोत्सुकानाम् ॥ 'राजन् ! इस कानून के पुष्पित द्रुमों की शाखाओं पर परिभ्रमण करती हुई, मेघमाला की भाँति श्याम वर्णवाली भ्रमर-पंक्ति, नृत्य करने के लिए उत्सुक मयूरों के लिए मेघ समूह की भ्रांति पैदा करती है ।' ७०. ६६. यदीयसौन्दर्य मुदीक्ष्य दूरान्नभो विमानेन विगाहमानः । " किनन्दनोद्यानमिदं ममेति शक्रोऽपि शङ्कां हृदये विर्भात ॥ , अपने विमान के द्वारा आकाश का अवगाहन करता हुआ इन्द्र दूर से इस कानन के सौन्दर्य को देखकर - 'क्या यह मेरानन्दन वन ही तो नहीं है - इस प्रकार हृदय में शंका करता है । , श्रीमद् द्युगादेर्जगदीश्वरस्य तदन्तरेकोऽस्ति महान् विहारः । जाम्बूनदाद्र रिव शृङ्गदेशः, किं वज्रभिन्नः कलधौत रूपः ? १. प्रसूनचापः — कामदेव | आतपवारणं - छत्र (छत्त्रमातपवारणम् - अभि० ३।३८१ ) २. कादम्बिनी – मेघ समूह ( कादम्बिनी मेघमाला -- अभि० २७६ ) ३. कलापी -- मयूर | ४. जाम्बूनदाद्रिः - स्वर्णपर्वत, मेरुपर्वत ( जाम्बूनदं - स्वर्ण - जाम्बूनदं शातकुम्भं - अभि ४।१११ ) ५. कलधौतं --- स्वर्ण ( कलधौतलोहोत्तम अभि० ४ । ११० ) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'राजन् ! उस कानन के अन्तराल में युग के आदिकर्ता भगवान् ऋषभ का एक विशाल विहार (मन्दिर) है। वह स्वर्ण की भाँति चमकीला है । उसे देखकर यह वितर्क होता है कि क्या यह स्वर्णपर्वत (मेरुपर्वत) का वज्र से तोड़ा हुआ शिखर का खण्ड तो नहीं है ? ७१. महामणिस्तम्भविराजितश्रीः , कल्याण'ताडङ्क' इवायमस्ति । आरामलक्ष्म्यास्तरुराजराजिविराजमानावयवाङ्गयष्टेः ॥ 'राजन् । महान् रत्नमय स्तम्भों की शोभा से युक्त यह विहार कानन रूपी लक्ष्मी के स्वर्णमय कुंडल के समान है । यह काननलक्ष्मी श्रेष्ठ वृक्षों की श्रेणी से शोभित अवयवों से युक्त शरीर वाली है।' ७२. नवीनचामीकरनिर्मलामा , विहारभित्तिर्म कुरेकलीलाम् । आत्मस्वरूपव्यवलोकनाय , धत्तेतरां काननभूरुहाणाम् ॥ . 'नये स्वर्ण की निर्मल प्राभा वाली विहार की भित्ति दर्पण की शोभा को विशेष रूप से धारण कर रही है, जिससे कि कानन के वृक्ष अपना स्वरूप उसमें देख सकें ।' ७३. जीवो यथा पुण्यभरेण देहो , यथात्मनाब्जेन यथा तटाकः। युगादिबिम्बेन तथायमुच्चैः , प्रासादराजः परिभाति राजन् ! ॥ 'राजन् ! यह श्रेष्ठ विहार ऋषभदेव की प्रतिमा से वसे ही अत्यधिक शोभित हो रहा है जैसे पुण्य के अतिशय से जीव, आत्मा से देह और कमल से तालाब सुशोभित होता है।' ७४. मुक्तावली काननराजलक्ष्म्या , मन्दाकिनी कण्ठगतेव भाति । चरिष्णुचन्द्रातपगौरवीचिच्छलाद हसन्त्या इव शीतकान्तिम् ॥ 'उस कानन के निकट गंगा नदी बहती है। वह इस प्रकार शोभित होती है मानो कि वह काननराज की लक्ष्मी के गले का मुक्तावली हार हो। वह नदी चमकती हुई चाँदनी के समान गौर लहरों के मिष से चन्द्रमा का उपहास कर रही हो-ऐसी लगती है।' १. कल्याणं-स्वर्ण (कल्याणं कनकं-अभि० ४।१०६) २. ताडङ्क:-कुंडल (ताडंकस्तु ताडपत्रं कुण्डलं-अभि० ३।३२०) ३. शीतकान्ति:-चन्द्रमा । . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः ७५. डिण्डोरपिण्डय' इव राजहंसा , विभान्ति यत्तीरगता नितान्तम् । सेनानिवेशस्तव तत्र राजन् ! , सदोचितः पुण्यवतां यथा स्वः ॥ 'राजन् ! उस नदी के तट पर बैठे हुए राजहंस फेन के समूह की भांति अत्यन्त शोभित होते हैं । देव ! आपकी सेना के पड़ाव के लिए वह स्थान वैसे ही नितान्त उचित है जैसे पुण्यशाली के लिए स्वर्गलोक उचित होता है।' ७६. इत्थं वचः सैन्यपतेनिशम्य , चचाल राजा सह सैन्यलोकः। प्रासादलक्ष्मीकमनीयताढ्यं , द्रष्टुं तमाराममतस्तदेव ॥ सुषेण सेनापति की यह बात सुनकर, मन्दिर रूपी लक्ष्मी की कमनीयता से सम्पन्न उस कानन को देखने के लिए, महाराज भरत अपनी सेना के साथ तत्काल चल पड़े। ७७. वनं सप्रासादं नृपतिरुपगन्तुं सह बलः, कृतोद्योगः सागःक्षितिपतिमनःशल्यसदृशः । प्रतस्थे सैन्येन्द्राग्रसरपरिनुन्नः परभुवं, सुधीस्तादृक्कायें विमृशति न पुण्योदयरुचिः॥ उद्यमशील महाराज भरत ने शत्रु की भूमि में स्थित मन्दिर वाले उस कानन की ओर अपनी सेनाओं के साथ प्रस्थान किया। भरत अपराधी राजाओं के लिए मानसिक शल्य के समान थे। उनके आगे-आगे मार्गदर्शक के रूप में सेनापति चल रहा था। धर्म के उदय की अभिरुचि रखने वाला विद्वान् व्यक्ति ऐसा कार्य करने में कभी विमर्श नहीं करता।.. . . . . -इति बाहुबलिदेशसीमाप्रयाणो नाम नवमः सर्गः १. डिण्डीरपिण्डा:-फेनप्रकरा: (डिण्डीरोब्धिकफ: फेनो—अभि० ४११४३) २. स्व:-स्वर्ग। ३. सागःक्षितिपति''-सापराधभूपालहृदयशल्यतुल्यः । (अग:-अपराध) ४. परिनुन्न:-प्रेरितः । ५. पुण्योदयरुचि:-धर्माभ्युदयाभिलाषी (पुण्यं-धर्म:-अभि० ६।१५) Page #217 --------------------------------------------------------------------------  Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाद्य - श्लोक परिमाण -- छन्द लक्षण दसवां सर्ग भगवान् ऋषभ के चैत्यवाले उद्यान में भरत चक्रवर्ती की अवस्थिति । ७५ उपजाति । देखें, सर्ग २ का विवरण | Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु — चक्रवर्त्ती भरत की सेना बाहुबली की सीमा में प्रविष्ट हुई। महाराज भरत नदी के तट पर स्थित कानन में गए । मन्दिर को देख वे हाथी से नीचे उतर गए । उन्होंने सारी उत्तरासंग विधि सम्पन्न कर मन्दिर में प्रवेश किया। तीन बार प्रदक्षिणा कर, पंचांग नमस्कार कर उन्होंने भगवान् ऋषभ की स्तुति की। वे रमणीय स्थानों को देखते हुए मन्दिर घूम रहे थे। इतने में ही उन्होंने एक मुनि को ध्यानस्थ अवस्था में देखा । उन्होंने मुनि को पहचान लिया। मुनि ने आँखें खोली । महाराज भरत ने मुनि की स्तुति करते हुए पूछा - 'मुने ! आपने दीक्षा क्यों ली ? आपके शान्त रस का कारण क्या है ? आप यहाँ क्यों आए हैं ?" में मुनि ने कहा - 'महाराज भरत ! तुम्हारे साथ युद्ध लड़ने के बाद हम ( मैं नमि और विनमि) विरक्त हो गए। हम तीनों ने अपना-अपना राज्यभार पुत्रों को सौंप प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । हम भगवान् ऋषभ के चरणों में संयम जीवन यापन करने लगे । राजन् ! भगवान् की अनुज्ञा पाकर मैं तीर्थाटन करने निकला हूं । तीर्थयात्रा कर मैं पुनः वहीं चला जाऊँगा - इतना कहकर मुनि मौन हो गए। महाराज भरत ने कहा - 'मुने ! आप भगवान् ऋषभ के चरणों में मेरा वन्दन निवेदित करें ।' महाराज भरत चैत्य से अपने निवास स्थान पर आ गए और गुप्तचरों की प्रतीक्षा करने लगे । उन्होंने वहाँ कई दिन बिताए । ०० Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः १. पताकिनी श्रीभरतेश्वरस्य , सीमान्तरं तक्षशिलाधिपस्य । सा शङ्कमाना मुहुराससाद , वधूनवोढेव विलासगेहम् ॥ भरत चक्रवर्ती की सेना बार-बार शंकित होती हुई बाहुबली की सीमा में प्रविष्ट हुई, जैसे नववधू विलासगृह (शयनकक्ष) में शंकित होती हुई प्रविष्ट होती है। २. तत्काननान्ता युगपत्तदीयैः , सैन्यैरगम्यन्त सविभ्रमाङ्काः । शविलासैरिव कामिनीनां , तारुण्यलावण्यजुषः प्रतीकाः ॥ भरत की सेना ने पक्षियों के आवागमन के स्थान वाले उस कानन के छोर को एक साथ धीरे-धीरे प्राप्त किया, जैसे कामिनी स्त्रियों के विलास यौवन की लवणिमा से युक्त प्रवयवों को प्राप्त करते हैं। . ३. रजस्वलाः काननवल्ल्य एता , एषामदृश्याः किल मा भवन्तु। इतीव वाहः पवनातिपातै भो ललम्बे परिहाय भूमिम् ॥ 'ये वन-लताएं रजस्वला हैं (रजयुक्त हैं), अतः सैनिकों के लिए अदर्शनीय न हों'-मानो कि यह सोचकर भरत की सेना के वायु से तेज चलने वाले घोड़े भूमि को छोड़कर आकाश में उछलने लगे। ४. कथिता सा वनराजिरुच्चैनवोढकन्येव बलस्तदीयः । हठात्तशाखाकबरी' तदानी , चुक्रोश गाढं वयसां विरावैः॥ जैसे नायक नई वधू की वेणी पकड़कर उसकी कदर्थना करता है वैसे ही भरत की सेना ने उस वनराजि की शाखा रूपी वेणी को बलपूर्वक पकड़कर उसकी कदर्थना की। तब वह वनराजि पक्षियों के घोर कलरव से चीख उठी। १. कबरी-वेणी। २. वयसां-विहङ्गमानाम्। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् . ५. चमचरान केतक कण्टकैः सा , तुतोद यूनो वनराजिलक्ष्मीः । किलोपरिष्टात् पततो विमान , नखैरिवात्यन्तकठोरधारः ॥ जब सेना उस उद्यान में प्रविष्ट हुई तब सेना के युवक सुभट वहां के केतकी के वृक्षों से संघट्टन कर चलने लगे। उस संघट्टन से उस वृक्ष के कांटे ऊपर से नीचे गिरने लगे। उस वनराजि' की लक्ष्मी ने उन युवक सुभटों को नखों की भाँति अत्यन्त कठोर अग्रभाग वाले केतकी के काँटों से पीड़ित किया। ६. फुल्लल्लतामण्डपमध्यमीये , केचिन्निषेदुनिलयाभिरामे । महीरुहस्कन्धनिबद्धवाहाः , सुरा इव स्वर्गवनान्तराले ॥ जैसे देव अपने नन्दनवन के अन्तराल में आनन्दपूर्वक बैठे रहते हैं, वैसे ही कई सुभट अपने-अपने घोड़ों को वृक्षों के तनों से बांधकर, घर की भांति मनोज्ञ उस विकसित लतामंडप के बीच में आनन्दपूर्वक बैठ गए। . . ७. श्रान्ताः प्रसूनास्तरणेषु केचिन् , महाभुजः संविविशुः सुखेन। नागाः सरस्या इव तीरदेशे , महीरुहच्छायनिवारितोष्णे ॥ जैसे आतप को निवारित करने वाले सघन छायादार वृक्षों से युक्त सरोवर के तीर पर हाथी सुखपूर्वक सो जाते हैं वैसे ही कुछ थके हुए शक्तिशाली सुभट वहाँ फूलों के बिछौने पर सुखपूर्वक निद्राधीन हो गए। ८. केचित् तरुच्छायमुपेत्य वीरा , विशश्रमुर्वासरयौवनेऽथ ।। लतावलीनर्तनसूत्रधारस्तनूकृतस्वेदलवैर्मरुद्भिः ॥ उस मध्याह्न वेला में कुछ सुभट वृक्ष की छाया के नीचे विश्राम करने लगे। तब लतावली को नचाने वाले सूत्रधार पवन ने उनके स्वेद-बिन्दुओं को कम कर डाला। . मन्दाकिनीतीरलतालयेषु , केचिन्निलीनाः परितप्यमानाः । पटालयान केऽपि वितत्य वीरा, निषेदिवांसः परितो विहारम् ॥ कुछ सुभट संतप्त होकर गंगा नदी के तट पर स्थित लतागृहों में जा बैठे .और कुछ १. केतक:-केतकी का वृक्ष (केतक: क्रकचच्छद:-अभि० ४१२१८) २. तुतोद-तुदङ् व्यथने धातोः णबादे: रूपम् । ३. प्रसूनास्तरणम्-फूलों का बिछौना। . ४. पटालय:-तम्बू। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः १८६ वीर सुभट उस विहार के चारों ओर अपने तबुओं को तानकर विश्राम करने लगे। १०. विलासिनीविभ्रमचारुलीला , विलोक्य वीचीः सुरशैवलिन्याः। केऽपि स्मरन्तस्तुरगाधिरूढा , निषेदुरालेख्यकृता इव द्राक् ॥ कुछ घुड़सवार सुभट गंगा नदी की तरंगों को देखकर अपनी कान्ता के कटाक्ष के मनोज्ञ विलासों को याद करते हुए शीघ्र ही चित्रवत् स्थित हो गए। ११. कालागुरु'स्कन्धनिबद्धनागकटेषु' पेतुर्मधुपा विहाय । . पुष्पद्रुमान् कोऽपि विशिष्टवस्तुप्राप्तौ प्रमाद्यन्नु ससंज्ञचित्तः ॥ पुष्पित वृक्षों को छोड़कर भ्रमर काले अगर के वृक्षों के तने से बँधे हुए हाथियों के कपोलों पर गिरने लगे । ऐसा कौन सचेतन व्यक्ति होगा जो विशिष्ट वस्तु प्राप्त होने पर प्रमाद करे ? १२. दूर्वाङ्कुरग्रासनिबद्धकामा , वाहा विचेरुः सरितस्तटेषु । स्वस्वार्थचिन्ताविधिमाततान , स सैन्यलोकोऽपि तदा समग्रम् ॥ दूब के अकुरों को खाने में तल्लीन घोड़े नदी के तट पर घूमने लगे। उस समय सैनिक अपने समस्त कार्यों के प्रति दत्तचित्त हो गए। १३. अथ क्षितीशोऽवरुरोह नागाद् , विलोक्य दूराद् भगवन्निवासम् । - अमीदशानामुचितक्रियासु , नैपुण्यमाशंसति कोपि किञ्चित् ? मन्दिर को देखकर दूर से ही महाराज भरत हाथी से नीचे उतर गए। भरत जैसे बुद्धिमान व्यक्तियों को योग्य कार्य के प्रति निपुणता रखने के लिए क्या कोई भी व्यक्ति कुछ भी. निवेदन करता है ? नहीं, वे स्वयं उसका निर्वाह करते हैं। १४. ततः समग्रा अपि भूमिपाला , यानावरूढा विधिमस्य चक्रुः । अधीश्वराचीर्णमलङ्घनीयं , सेवापरैः कृत्यमिह ह्यशेषम् ॥ यह देखकर वाहनों पर चढ़े हुए सभी राजाओं ने भरत की विधि का अनुसरण किया—सभी अपने-अपने वाहनों से नीचे उतर गए। क्योंकि सेवापरायण व्यक्ति अपने स्वामी के किसी भी आचरण का कभी उल्लंघन नहीं करते । १. कालागुरु:-काले अगर का वृक्ष । २. कट:-हाथी का गण्डस्थल (गण्डस्तु करट: कट:-अभि० ४।२६१) ... Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् . १५. सर्वोत्तरासङ्गविधि विधाय , विवेश राजा जिनराजवेश्म । स निवृते रास्यमिवाभिरुच्यं', सुवर्णभास्वत्कमनीयताढ्यम् ॥ महाराज भरत ने सारी उत्तरासंग-विधि सम्पन्न कर मन्दिर में प्रवेश किया। वह मन्दिर मोक्ष के मुख की भाँति मनोज्ञ, स्वर्ण की तरह देदीप्यमान और सुन्दरता से परिपूर्ण था। १६. प्रदक्षिणीकृत्य धराधिपस्त्रिश्चकार पञ्चाङ्गनति युगादेः। .. तीथशनत्यैव हि नम्रभावं , भजन्ति भूपा अपि शुद्धिमत्या ॥ ..' महाराज भरत ने तीन बार प्रदक्षिणा कर ऋषभ को पंचांग नमस्कार किया । क्योंकि तीर्थंकर को पवित्रतायुक्त नमस्कार करने से ही राजा भी दूसरे राजाओं से नमस्कृत होते हैं। १७. न चातिदूरान्ति कसन्निषण्णः , संयोज्य पाणी भरताधिराजः।। तुष्टाव तीर्थेशमिति प्रतीतः , पदैरनेकैः किल. ताररावैः ॥ महाराज भरत ऋषभ की प्रतिमा के सम्मुख, न अति दूर और न अति निकट, हाथ जोड़कर बैठ गए। उन्होंने उच्च स्वर से अनेक परिचित पदों द्वारा तीर्थंकर ऋषभ की स्तुति की १८. भवं तितीर्षो विनस्त्वमेवाधारस्त्रिविश्वाच॑पदारविन्द !। त्वमेव पाता तमसस्त्रिलोकी , सृष्टेविधाता भवतो न चान्यः ।। 'तीनों लोकों में पूजनीय चरण वाले भगवन् ! संसार रूपी भव से तैरने के इच्छुक प्राणियों के लिए तुम ही आधार हो। तुम ही तीनों लोकों को अन्धकार (पाप) से उबारने वाले हो । तुम से भिन्न कोई सृष्टि का विधाता नहीं है।' . १६. त्वमेव संसारदवाग्निदाहप्रशान्तये वारिदवारिधारा। त्वमेव पीताब्धिरघाम्बुराशिशोषकदक्षत्वविजिनेन्द्र ! ॥ १. निर्व तिः-मोक्ष । २. अभिरुच्यं–मनोज्ञम् । ३. उत्तरीय वस्त्र को मुह पर बांधना। ४. पांच अंग-दो हाथ, दो घुटने और एक मस्तक । ५. पाठान्तरं-ताररावः । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः १६१ 'भगवन् ! संसार रूपी दावाग्नि को बुझाने में सक्षम तुम ही पानी बरसाने वाले मेष हो। जिनेन्द्र ! तुम ही पाप के समुद्र को सुखाने में निपुण अगस्त्य ऋषि हो।' २०. त्वमेव नैयायिकवाकप्रपञ्चविभुः प्रमेयोऽसि लसत्प्रताप !। त्वमेव भोक्ता शिवसंपदो हि , वेदान्तसिद्धान्तमताभितळ ! ॥ 'हे तेजस्विन् ! नैयायिक सिद्धान्त के अनुसार तुम विभु–सर्वव्यापी और प्रमेय-प्रमिति के विषय हो। हे वेदान्त सिद्धान्तमत से अभितयं ! तुम ही मोक्ष संपदा के भोक्ता हो।' २१. त्वमेव मोक्ता भवदुःखराशेस्त्वमेव तीर्णः कलि'वारिराशिम् । त्वमेव चन्द्रस्तरणिस्त्वमेव , तमोहरत्वाज्जगदीश ! तात ! ॥ 'देव ! तुम ही संसार के दुःखों से मुक्त कराने वाले हो। तुम विवाद के समुद्र को तर गए हो। हे जगदीश ! अन्धकार का नाश करने के कारण तुम ही चन्द्रमा हो और तुम ही सूर्य हो ।' २२. दुरुतरोऽयं भववारिनाथस्त्वयैव तार्यः सकषायमीनः । मनोभवोल्लोलभरातिभीष्मो , वोहित्थकेनेव' युगादिदेव ! ॥ 'हे युगादिदेव ! यह संसार-समुद्र कषाय रूपी मत्स्यों से भरा पड़ा है। यह कामवासना के कल्लोलों से अत्यन्त दारुण और दुरुत्तर है । देव ! तुम ही नौका बनकर प्राणियों को इससे पार पहुँचा सकते हो।' २३.. . स्तुत्वा च नत्वा च युगादिदेवममन्दमामोदमुवाह भूपः । ___निस्तोकलोकस्पृहणीयभाव , पीयूषधामानमिव प्रदोषः । ऋषभदेव की स्तुति और वन्दना कर महाराज भरत वैसे ही अत्यन्त प्रानन्दित हो उठे जैसे प्रदोष (संध्या) समग्रलोक में कमनीय स्वरूप वाले चन्द्रमा को पाकर आनन्दित हो उठता है। १. कलि:-युद्ध, विवाद (युद्धं तु संख्यं कलि:-अभि० ३.४६०) २. वोहित्थं-नौका (वोहित्थं वहनं पोतः-अभि० ३।५४०) ३. द्वौ चकारौ तुल्यकालं द्योतयतः । ४. यह विशेषण 'आमोद' के साथ भी लग सकता है। वहाँ 'भाव' का अर्थ होगा अभिप्राय पञ्जिका पत्र ३८-इदं विशेषणमामोदस्यापि तत्र पक्षे भावोभिप्रायः । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ २४. , करद्वयीचालितचामरौघपाञ्चालिका शाश्वतताण्डवाढ्यम् । तुलीकृतप्राक्चरमाद्रिलक्ष्मि, चन्द्रोपलश्याममणिप्रभाभिः ॥ २५. विचित्रचित्रापितचित्तचित्रं दीप्रप्रभाजालहसद्विमानम् । कल्याणशैलोन्नतजातरूपभित्तिद्युतिव्रातहृतान्धकारम् ॥ शृङ्गाग्रदेशापितहेमकुम्भं, स्फुरत्पताकापटकिङ्किणीजुक्' । महामणिस्तम्भविनिर्यदंशुचरिष्णुचामीकरतोरणाङ्कम् ॥ कल्पद्र ुमच्छायतिरोहितार्क रत्नोष्णरश्मि ज्वलनातिरिक्तम् । भूपीठन : क्वचिदिन्द्रनीलैर्द सार्क कन्या जलवीचिशङ्कम् ॥ चन्द्रोदयोल्लासितमण्डपश्रि, नेत्रोत्सवारम्भिगवाक्ष देशम् ।. निर्णिक्त' मुक्ताफलक्लृप्तजालं ददर्श तीर्थेशगृहं नरेशः ॥ , २६. २७. २८. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् महाराज भरत ने ऋषभदेव के मन्दिर को देखा । वहाँ दोनों हाथों से चामरों को डुलती हुई पुतलियाँ सदा नृत्य करती थीं । चन्द्रकान्त और वैडूर्य रत्नों की प्रभान से वह मंदिर उदयाचल और अस्ताचल की शोभा को सदृश कर रहा था । — पञ्चभिः कुलकम् । उस मंदिर के विविध आलेख मन को विस्मित करने वाले थे । वहाँ के दीपकों का कांति-समूह देवलोक को भी पराभूत कर रहा था । सुमेरु पर्वत की भाँति उन्नत स्वर्ण भित्तियों की द्युति से वहाँ का सारा अंधकार नष्ट हो रहा था । उस मंदिर के शिखर पर स्वर्णकलश चढ़ा हुआ था। छोटी घंटिकाओं (घुघुरुओं) से युक्त ध्वजा शिखर पर फहरा रही थी । वह मंदिर मणिमय विशाल स्तंभों से निकलने वाली किरणों से चमकते हुए स्वर्ण के तोरण से युक्त था । ३. किङ्किणी - घुघुरू ( किङ्किणी क्षुद्रघण्टिका - अभि० ३/३२६ ) ४. अर्करत्नं - सूर्यमणि । उष्णरश्मिः - सूर्य । वह मंदिर कल्पवृक्ष की छाया से तिरोहित था । अतः सूर्य सूर्यकांत मणि में ज्वलन पैदा नहीं कर पा रहा था । कहीं-कहीं भूतल पर जड़े हुए इन्द्रनील रत्नों के कारण यमुना नदी की तरंगों की आशंका पैदा हो जाती थी । . वह मंदिर चन्द्रमा के उदय से उल्लसित मण्डप की शोभा की भाँति सुशोभित था । १. पाञ्चालिका - पुतली ( सालभञ्जी पाञ्चालिका च पुत्रिका - अभि०४/८० ) २. श्याममणि : - वैडूर्य रत्न (पंजिका पत्र ३८ ) ५. अर्ककन्या - यमुना । ६. नणिक्तं --- स्वच्छ, शोधित (निर्णिक्तं शोधितं मृष्टम् - अभि० ६/७३ ) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः १९३ उसके वातायन आंखों में उत्सव पैदा करने वाले थे। मंदिर की जालियां निर्मल मोतियों से निर्मित थीं। २६. धन्यः स येनारचि चैत्यमीदक , तेनैव लक्ष्म्याः फलमप्यवापि । कर्तुः प्रशंसामिति सार्वभौमो , विनिर्ममे क्षोणिभुजां समक्षम् ॥ राजाओं के समक्ष चैत्य के निर्माता की प्रशंसा करते हुए महाराज भरत ने कहा'धन्य है वह जिसने ऐसे चैत्य का निर्माण किया है। उसने ही अपने धन का फल पाया है।' ३०. विहारमध्ये विजहार राजा , पदानि रम्याणि विलोकमानः । वसुन्धराधीशपरिच्छदाढ्यः' , स्वर्मेदिनीनाथ इवामराद्रौ ॥ अनेक राजाओं के परिवार से परिवृत महाराज भरत रमणीय स्थानों को देखते हुए चैत्य में वैसे ही घूम रहे थे जैसे इन्द्र मेरु पर्वत पर क्रीड़ा के लिए घूम रहा हो। ३१. आसेदिवांसं मणिहेममय्यां , वेद्यामवेदावधृतावधानम् । . मुक्तेः शिलायामिव सिद्धमन्तमहोभरोद्दीपितदिगविभागम् ॥ ३२. कल्याणगौरं वपुरुद्वहन्तं , स्थिरं सुवर्णाद्रिमिवातितुङ्गम् । मन्दाकिनीवीचिभरातिगौरध्यानद्वयीप्रापितचित्तवृत्तिम् ॥ ३३. ललाटपट्टोन्नतिमत्त्वसूचिभाग्यश्रियं भासुरदीप्तिमन्तम् । तेजोभिराशान्तविसारिभिर्दाङ, मुनिस्थितेःपमिवातिदीप्तः॥ . ३४. युवानमिन्दीवरपत्रनेत्रमाजानुबाहुं धृतिकेलिसम ।। शृङ्गारजन्माधिकरूपलक्ष्म्या , वारां निधि वारितवैरिवेगम् ॥ ३५. तृणीकृतस्त्रैणरसं रसस्य , शान्तस्य राजा नवराजधानीम् । विलोक्य विद्याधरसाधुधुर्य , ननाम निम्नोत्तमकायदेशः ॥ –पञ्चभिः कुलकम् । महाराज भरत ने विद्याधर साधु-प्रवर को देखा। उन्हें शिर झुकाकर प्रणाम किया। रत्न और स्वर्णमय स्वच्छ वेदी पर बैठे हुए वे विद्याधर मुनि ऐसे लग रहे थे मानो कि १. परिच्छद:-परिवार (परिच्छदः परिबर्ह:-अभि० ३।३८०) २. अमराद्रिः--मेरुपर्वत। ३. अवेदावधृतावधानम्--अवेदेषु-सिद्धषु, अवधृतं--आरोपितं, अवधानं-समाधानं, येन, . - असो, तम् । ४. आजानुबाहुँ–जानुविलंबिभुजद्वयम् । ५. पाठान्तरं--नम्रोत्तम'"। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ भरत बाहुबलिमहाकाव्यम् सिद्ध पुरुष मुक्तिशिला पर बैठे हों । वे सिद्धों की ओर ध्यान केन्द्रित किये हुए थे । अपने भीतर से निकलने वाले किरण-समूहों से दिग्- विभागों को प्रकाशित कर रहे थे । उनका शरीर स्वर्ण की भाँति गौर वर्ण वाला था । वे अत्यन्त उन्नत और मेरुपर्वत की भाँति अडोल थे । उनका चित्त गंगा की तरंगों की तरह शुभ्र धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान में लीन था । उनका उन्नत ललाट भाग्य रूपी लक्ष्मी की सूचना दे रहा था । वे देदीप्यमानं, मनोज्ञ, अत्यन्त तेजस्वी, दिगन्तों में फैलने वाली तेज राशि से युक्त और मुनि-मर्यादा के लिए दीपक के समान थे । वे मुनि तरुण थे । उनकी आँखें कमल-पत्र के समान विशाल थीं। उनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी थीं । वे धैर्य के क्रीडास्थल और कामदेव से भी अधिक रूपलक्ष्मी के. समुद्र थे । उन्होंने वैरियों के प्रवाह को निवारित कर दिया था । I उन्होंने स्त्रियों के प्रति होने वाली आसक्ति को नष्ट कर डाला था और वे शान्तरस की नई राजधानी के समान थे । ३६. नत्वाथ साधुं निषसाद भूपः पुरो धरोत्सङ्गमनू नभक्तिः । , न चौचिताधान विचक्षणत्वं', सन्तः प्रभुत्वादिह विस्मरन्ति ॥ महाराज भरत परिपूर्ण भक्ति से मुनि को नमस्कार कर उनके आगे पृथ्वी की गोद में बैठ गए । महान् व्यक्ति अपनी प्रभुता के कारण योग्य कार्य करने की निपुणता को कभी नहीं भूलते । ३७. प्रज्ञावतां प्राग्रह स्तमूचे पुरावलोकादुपलक्ष्य चत्री । 1 दृष्टं श्रुतं वस्तु न विस्मरन्ति मनस्विनः सर्वविदां हि तुल्याः ।। " प्रज्ञावान् व्यक्तियों में श्रेष्ठ चक्रवर्त्ती भरत ने पहले देखे हुए होने के कारण, विद्याधर मुनि को पहचान कर कुछ कहा । क्योंकि मनस्वी पुरुष दृष्ट और श्रुत वस्तु को कभी नहीं भूलते। वे सर्वज्ञ-तुल्य होते हैं । १. औचिताधानविचक्षणत्वं — योग्यताकरणचातुर्यम् । २. प्राग्रहरः - श्रेष्ठ, प्रधान (अनुत्तरं प्रागहरं प्रवेकं – अभि० ६ | ७४ ) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः १६५ ३८. दृष्टः पुरा त्वं विजयाशैले , विद्याधराधीश ! नमेरनीके। . भटा मम स्वभुजचण्डिमानमद्यापि संस्मृत्य शिरो धुनन्ति ॥ भरत ने कहा-'हे विद्याधरों के अधिपति ! मैंने आपको इससे पूर्व वैताढ्य पर्वत पर राजा नमि की सेना में देखा था। आज भी मेरे सुभट आपकी भुजाओं की प्रचण्ड शक्ति का स्मरण कर अपने शिर को धुनने लग जाते हैं।' ३९. अंसौ त्वदीयौ विजयप्रशस्तेः , स्तम्भावभूतां भरतार्शले । सर्वत्र विद्याधरराजलक्ष्मीकरेणुकासंयमनाय सज्जौ ॥ 'मुने | आपके ये दोनों बाहु वैताढ्य पर्वत पर विजय-प्रशस्ति के स्तम्भ थे। ये सर्वत्र विद्याधरों की राज्यलक्ष्मी रूपी हथिनी को नियंत्रित करने के लिए सज्जित थे।' ४०. युवासि विद्याधरमेदिनीश ! , वैराग्यरङ्ग समभूत् कुतस्ते । रसाधिराज' हि विना कुतोऽत्र , सिद्धिर्भविष्यत्यनघा'ऽर्जुनस्य' ॥ 'हे विद्याधरनाथ ! आप अभी युवा हैं। आपको वैराग्य का रंग कैसे लगा? क्योंकि पारद के बिना स्वर्ण की निर्मल सिद्धि कहाँ से हो सकती है ?' ४१. . विद्याभृतामोश ! वदामि कि ते , स्वजन्मनः प्रापि फलं त्वयैव । - यन्मादृशैरत्र हृदाप्यवाह्य, स्थलैरिवाम्भः सरसीवरेण ॥ 'हे विद्याधरनाथ ! मैं आपको क्या कहूं, आपने ही अपने जन्म का यथार्थ फल प्राप्त किया है। मेरे जैसा व्यक्ति मुनिपन को मन से भी वहन नहीं कर सकता, जैसे ऊँची भूमि पर स्थित तालाब पानी को वहन नहीं कर सकता।' ४२. केपीह भोगानसतः कमन्ते , सतोऽपि केचित् परिहाय शान्ताः । तेषामपूर्वे सुरराजवन्द्यास्तानेव कैवल्यवधूरपीच्छेत् ॥ 'विचित्र है यह संसार ! यहाँ कुछ मनुष्य अप्राप्त भोगों की कामना करते हैं और कुछ मनुष्य प्राप्त भोगों को छोड़कर उपशान्त हो जाते हैं। इनमें अपूर्व-दूसरे प्रकार १. रसाधिराज:-पारद . २. अनघा-पवित्रा। ३. अर्जुनं-स्वर्ण (अर्जुननिष्ककार्तस्वरकर्बुराणि-अभि० ४११०) ४. अपूर्वे-अप्रथमा, अन्न वृत्ते प्रथमं भोगवांछका उक्ताः, तदन्ये त्यागिनः। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् के पुरुष (जो प्राप्त भोगों का त्याग करते हैं) वे इन्द्रों द्वारा पूजनीय होते हैं और उन्हें ही कैवल्य रूपी वधू वरण करना चाहती है।' ४३. धिगस्तु तृष्णातरलं तदीयं , मनो मनोजन्म'पिशाचसङ्गात् । लीलावतीभिः परिभूय येषां , वैराग्यलीला दलिता क्षणेन ॥ 'मुने ! स्त्रियों ने कामदेव रूपी पिशाच के संग से जिन पुरुषों के मन को पराभूत कर उनकी वैराग्यलीला को क्षण भर में ही नष्ट कर डाला, उन पुरुषों के तृष्णा-तरलित. मन को धिक्कार है।' ४४. अङ्गारधानी स्तपसां वधस्त्वं , हित्वा तपस्वित्वमुरीचकर्थ । तच्छलाघनीयोऽत्र भवानशेषैस्त्यागी न केनाप्यवमाननीयः ॥ 'मुने ! तप को जलाने के लिए अंगीठी के सदृश वधूओं का त्यागकर आप तपस्वी बने हैं। आप समस्त पुरुषों द्वारा श्लाघनीय हैं। किसी भी व्यक्ति को त्यागी पुरुष की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।' ' ४५. तारुण्यलीलाः सकला अपि त्वां , रुन्धन्ति नो भोरलताप्रतानः। इतीह चित्रं हृदये न माति , ममाऽपि विद्याधरनाग ! किञ्चित् ॥ 'हे विद्याधरों में श्रेष्ठ ! मेरे हृदय में यह आश्चर्य नहीं समा रहा है कि यौवन की समस्त लीलाएँ, स्त्रियों के लता वितान में, आपको आच्छादित क्यों नहीं करती ? आपको मुनि-मार्ग में जाने से क्यों नहीं रोकती ?' ४६. शौर्याब्जिनीखण्डसरोवरस्त्वमत्रापि कंदर्पशरापनुन्न्य। शक्तो हि सर्वत्र परां विभूषां , लभेत लक्ष्मीमिव वासुदेवः ॥ 'मुने | आप इस तरुण अवस्था में पराक्रम रूपी कमलिनियों के सरोवर के समान होकर भी कामदेव के बाणों का भेदन करने में समर्थ हैं, जैसे वासुदेव सर्वत्र लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, वैसे ही आप सर्वत्र परम शोभा को प्राप्त कर रहे हैं।' ४७. त्वच्चित्तवृत्तिप्रथमाद्रिचूलां , शमांशुमाली समुदेत्युपेत्य । ततोस्मदीयं हृदयारविन्दं , विकासितामेति विलोकनेन ॥ १. मनोजन्म-कामदेव । २. अङ्गारधानी–अंगीठी (हसन्यङ्गाराच्छकटीधानीपात्यो हसन्तिका-अभि० ४।८६) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः . १६७ 'मुने ! शान्तरस का सूर्य आपकी चित्तवृत्ति रूपी उदयाचल को प्राप्त कर उदित होता है । इसलिए हमारे हृदय-कमल आपके दर्शन मात्र से विकसित हो जाते हैं।' ४८. त्वमेव साधो ! समलोष्टरत्नः , स्त्रैणे तृणे साम्यमुपैषि शश्वत् । तत् सिद्धिवध्वां भवतोभिलाषः , संसिद्धिमेष्यत्यचिराद् भवेऽस्मिन् ॥ 'मुने ! आप पत्थर और रत्न तथा स्त्री और तृण में सदा समभाव रखते हैं। इसीलिए इसी भव में सिद्धि-रूपी वधू को वरण करने की आपकी अभिलाषा शीघ्र ही पूरी हो जाएगी।' ४६. गीर्वाणनाथादपि सार्वभौमात् , सुखं मुनेरभ्यधिकं जगत्याम् । ___ गवां प्रपञ्चं त्विति तीर्थनेतुः , पिबामि पीयूषमिवेन्दुबिम्बात् ॥ 'इस संसार में मुनि का सुख इन्द्र और चक्रवर्ती के सुख से भी अधिक है। इसलिए मैं तीर्थनाथ ऋषभ की वाणी के विस्तार का उसी आदर से पान करता हूँ जैसे चन्द्रमा के अमृत का पान किया जाता है।' ५०. इच्छामि चर्या भवतोपपन्नां , कर्माणि मे नो शिथिलीभवन्ति । ... • तैरेव बद्धो लभतेऽत्र दुःखं , जीवस्तु पाशैरिव नागराजः ॥ 'मुने ! मैं आप द्वारा स्वीकृत चर्या को पाना चाहता हूँ, किन्तु मेरे कर्म शिथिल नहीं हो रहे हैं। जैसे बंधनों से बँधा हुआ हाथी दुःख पाता है वैसे ही कर्मों से बँधा हुआ संसारी जीव ससार में दुःख पाता है।' ५१. यतोऽत्र सौख्यं तत एव दुःखं , यतोऽत्र रागस्तत एव तापः । . यतोऽत्र मैत्री तत एव वैरं , तत्सङ्गिनो ये न त एव धन्याः ।। 'मुने ! इस संसार में जो सुख के कारण हैं, वे ही दुःख के कारण हैं, जो राग के हेतु हैं, वे ही ताप के हेतु हैं और जो मैत्री के कारण हैं, वे ही वैर के कारण हैं। जिनके ये सब नहीं हैं, वे ही इस संसार में धन्य हैं।' ५२. कोपानलः क्षान्तिजलेन कामं , निर्वापितो मार्दवसिंहनादात् । मदद्विपः शाठ्यतरुस्त्वदम्भपरश्वधेनादलि' लोभमुक्त ! ॥ १. स्त्रणं-स्त्रीणां समूहः।। २. परश्वधः–परशु (परश्वधः स्वधितिश्च–अभि० ३४५०) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'हे लोभमुक्त मुने ! आपने क्रोध रूपी अग्नि को क्षमा के जल से सर्वथा उपशान्त कर दिया है। आपने मान रूपी हाथी को मार्दव के सिंहनाद से परास्त कर दिया है और आपने माया रूपी वृक्ष का ऋजुता के परशु से उच्छेद कर दिया है।' ५३. अस्मादृशाः संप्रति राज्यलीलाकूलङ्कषाकूलमहीरुहन्ति । चेद् भद्रभाजः खलु तत्र तर्हि , तातप्रसादाच्छिवगा भवद्वत् ॥ 'मुने ! हमारे जैसे व्यक्ति तो आज राज्यलीला रूपी नदी के तट पर वृक्ष की भाँति हैं। यदि वहाँ भी हम कल्याण के इच्छुक हों तो पूज्य पिताश्री की कृपा से आपकी भाँति मोक्षपक्ष के अनुगामी हो सकेंगे।' ५४. त्वया तपस्या जगृहे मुनीश ! , कस्यान्तिके कस्तवशान्तहेतुः? अत्र प्रदेशे कथमागमस्ते , तत् सर्वमाशंस ममाग्रतस्त्वम् ॥ 'मुनीश ! आपने किसके पास तपस्या (दीक्षा) स्वीकार की ? आपके शान्तरस का हेतु कौन है ? आप इस प्रदेश में क्यों आए हैं ? आप यह सब मुझे बतायें ।' ५५. एतावदुक्त्वा विरते क्षितीशे , मुनिर्मुखं सूत्रयतिस्म वाचा। निजप्रवृत्तिप्रथिमानमुच्चरित्युद्वहन्त्या खमिव त्विषेन्दुः॥ इस प्रकार कहकर महाराज भरत विरत हुए । मुनि ने अपना मुंह खोला । जैसे चन्द्रमा अपनी किरणों से आकाश को प्रकाशित करता है वैसे ही मुनि की वाणी उनके चरित्र की गरिमा का प्रचुर उद्वहन कर रही थी, प्रकाशित कर रही थी। ५६. पृच्छापरश्चेद् भरताधिराज ! , त्वं हि सर्वां शृणु मत्प्रवृत्तिम् । पृच्छापराणां पुरतो हि वाक्यं , प्रणीयमानं सुभगत्वमेति ॥ 'हे भरत क्षेत्र के अधिपति भरत ! यदि तुम पूछना ही चाहते हो तो मेरे समूचे वृत्तान्त को सुनो। क्योंकि प्रश्न करने वालों के समक्ष ही कहा जाने वाला वाक्य सौभाग्यशाली होता है।' ५७. भूभृत्सुनासीर ! रणं विधाय , समं त्वया शरिमवारिराशिः। नमिः सबन्धुर्बुबुधे तदानीमेकान्तराज्यं नरकान्तमेव ॥ 'हे राजाओं के इन्द्र भरत ! तुम्हारे साथ युद्ध करने के बाद, पराक्रम के समुद्र नमि और विनमि ने राज्य को एकान्ततः नरक ही माना।' Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः १९९ ५८. मयापि तन्मार्ग उरीकृतोऽयं , चन्द्रातपेनेव तुषारभानुः । स्वनन्दनेषु प्रतिरोप्य राज्यं , वयं विरक्ता अभवाम राजन् ! ॥ 'राजन् ! अपने-अपने पुत्रों को राज्य-भार सौंपकर हम (मैं, नमि और विनमि) सब विरक्त हो गए। जैसे चाँदनी चन्द्रमा के मार्ग का अनुसरण करती है, वैसे ही मैंने भी उनके इस मार्ग का अनुसरण किया है।' ५६. त्रयोपि हंसा इव राज्यभारसरोवरं तं परिहाय लीनाः । युगादिदेवं चरणकलीलां , विधातुमाकाशपथेन सद्यः ॥ 'राजन् ! इस राज्य भार रूपी सरोवर को छोड़कर हम तीनों मैं, नमि और विनमि)' ऋषभ के चरणों में लीन हो गए हैं। जैसे हंस सरोवर को छोड़कर आकाशमार्ग में क्रीड़ा करने के इच्छुक होते हैं वैसे ही हम संयम में क्रीड़ा करने के इच्छुक हो । गए हैं।' ६०. युगादिदेवं द्रुतमेत्य बुद्धा , एवं त्रयोऽपि व्रतमाचराम । संसारतापातुरमानवानां , जिनेन्द्रपादा अमृतावहा हि ॥ 'राजन् ! इस प्रकार हम ऋषभ क़ पास पहुंचे और शीघ्र ही संबुद्ध हो गए। उनसे हमने दीक्षा स्वीकार करली। क्योंकि संसार के ताप से व्याकुल मनुष्यों के लिए जिनेन्द्र देव के चरण मोक्ष-प्रदाता होते हैं।' ६१. युगादिनेतुश्चरणारविन्दे , वयं त्रयोऽपि भ्रमरायमाणाः । ____ अंमन्दमामोदमदध्म कामं , नित्यं त्वतिष्ठाम सुनिश्चलाशाः ॥ 'हम तीनों ऋषभदेव के चरण-कमल में भ्रमर की भाँति लुब्ध हैं। हम वहां सदा प्रचुर आनन्द का अनुभव करते हैं और हमारे भाव सुनिश्चल हैं।' ६२. अधीत्य पूर्वाणि चतुर्दशापि , निःशेषसिद्धान्तरसं निपीय । वयं विनीता व्यहराम भूमीपीठे समं श्रीजगदीश्वरेण ॥ 'हमने चौदह पूर्वो का अध्ययन कर सम्पूर्ण सिद्धान्त के रस का पान किया है। अब हम विनीत भाव से जगदीश्वर के साथ-साथ पृथ्वी तल पर विहार करने लगे हैं।' १. पाठान्तरं-स्वनन्दनेभ्यः । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६३. सर्वत्र योगे सुयता महीश ! , प्रणीतमार्ग त्वचराम शीलः । - तपो द्विधा दुस्तपमाधराम , क्रियासु नालस्यमुपाचराम ॥ 'हे राजन् ! हम सर्वत्र मन, वचन और काया की प्रवृत्ति में संयत हैं । हम तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित मार्ग का साधुवृत्ति से आचरण करने लगे। हमने दोनों प्रकार को (बाह्य और आभ्यन्तर) तपस्याओं में कठोर तप तपा है। हम आवश्यक क्रियाओं में कभी प्रमाद नहीं करते।' ६४. चामीकराम्भोजनिवेशितांहिपनः सपनः सदनं गुणानाम् । वारामिवाब्धिर्गणनातिगानां , प्रणामयन् वैरिचयानिव द्रून् ॥ ६५. त्रिछत्रराजी पुरुहूतहस्तविधूतबालव्यजनः समन्तात् ।। भामण्डलं भानुविडम्बि बिभ्रत् , सधर्मचक्र निहताघचक्रम् ॥ अथान्यदा सर्वसुरासुरेन्द्रः, संसेव्यमानांहिरलंचकार । . . लक्ष्मीप्रभोद्यानमनूनलक्ष्मि , देवो नभोमध्यमिवांशुमाली ॥ __-त्रिभिविशेषकम् । ६६. 'स्वर्ण-कमल पर पैर रखकर चलने वाले, श्री-सम्पन्न, जल के लिए समुद्र की भाँति असंख्य गुणों के आश्रय, शत्रु-समूह की भाँति वृक्षों को प्रणत करते हुए, तीन छत्रों से शोभित, चारों ओर इन्द्र के हाथों द्वारा चामर से वीजित, सूर्य को विडंबित करने वाले प्रभामंडल और पाप-चक्र को प्रहत करने वाले धर्म-चक्र को धारण करने वाले, सब सुर और असुर इन्द्रों द्वारा सेवित भगवान् ऋषभ ने किसी समय परिपूर्ण शोभावाले . इस 'लक्ष्मीप्रभ' उद्यान को अलंकृत किया था, जैसे आकाशमध्य को अंशुमाली अलंकृत करता है।' ६७. प्रावोचमन्येद्युरिति प्रणम्य , नाभेयदेवं नतविश्वदेवम् । भवन्निदेशाद् भगवन् ! मदीयस्तीर्थेषु कामोस्ति गुणेष्विवार्थः ॥ एक बार समस्त देवों द्वारा वन्दनीय ऋषभदेव को वन्दना कर मैंने कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा से मैं तीर्थों में जाना चाहता हूँ, जैसे गुणों में सम्पदायें जाती हैं।' ६८. इतीरितं मे विनिशम्य लाभालाभादिविज्ञानविशेषदक्षः। युगादिदेवः किल मां जगाद , यदृच्छया वत्स ! चरेति तीर्थे । १. पाठान्तरम्-सर्वत्र योगेष्वयातमहीशप्रणीतमार्गः-सर्वत्र योगेषु-मनोवाक्कायनिरोधाख्येषु, ___ अयतामहि-प्रयत्नं कृतवन्तः.....ईशप्रणीतमार्ग-- प्रभुकथिताध्वानम्--पंजिका पन ४०। .. २. सर्वसुराऽसुरेन्द्रः-सकलवैमानिकभुवनपतिनाथः । ३. गुणेष्विवार्थः-गुणेषु-शौर्यादिषु अर्थ इव, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः इति वचनात् । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः २०१ लाभ और अलाभ को जानने में विशेष दक्ष भगवान् ऋषभ ने मेरी बात सुनकर कहा - 'वत्स ! तू अपनी इच्छा के अनुसार तीर्थों का पर्यटन कर ।' ६६. 'राजन् ! उनकी आज्ञा पाकर मैं यहाँ जिनेश्वर देव को वंदन करने आया हूँ। मुनियों की तीर्थ यात्रा का परिणाम मनोज्ञ होता है । उनके लिए इससे बढ़कर और मनोज्ञ है ही क्या ?' ७०. ७१. आज्ञां तदीयामधिगम्य राजन्निहागतोहं जिन वन्दनाय । वाचंयमानां खलु तीर्थयात्रा, फलं मनोज्ञं किमिहान्यदेव || 'चन्द्र की भाँति उज्ज्वल इस नए तीर्थ का निर्माण बाहुबली के पराक्रमी पुत्र चन्द्रयशा करवाया है । मैं उसकी यात्रा करने के लिए यहाँ आया हूँ ।' ७२. इदं नवं तीर्थमकारि बाहुबलेस्तनूजेन महाबलेन । चन्द्रामलं चन्द्रयशोभिघेन तदीययात्राकृतयेऽहमागाम् ॥ 1 ७३. 'नरेन्द्र ! वहाँ से मैं पुनः वहीं ( लक्ष्मीप्रभ उद्यान में ) ऋषभ के चरण-कमल की सेवा करने के लिए चला जाऊँगा, क्योंकि चकोर का शिशु चन्द्रमा के बिना कहीं भी घृति (तुष्टि) को प्राप्त नहीं करता ।' , युगादिदेवहिनिषेवणाय तत्रैव गन्तास्मि पुनर्नरेन्द्र ! ! विना शशाङ्कः धृतिमुद्वहेत, नान्यत्र कुत्रापि चकोरशावः ॥ इतीरयित्वा विरतं मुनीन्द्र पुनर्ववन्दे भरताधिराजः । श्रीतातपादस्य नतिर्मदीया, वाच्या विशेषादिति भाषमाणः ॥ , यह कहकर मुनि मौन हो गए। महाराज भरत ने उन्हें पुनः वन्दना करते हुए कहा'मुने ! ऋषभदेव के चरणों में मेरा विशेष वंदन निवेदित करें ।' + अभ्यर्च्य देवं प्रणिपत्य साधुं ततः स्वमावासमियाय भूभृत् । सर्वेऽपि भूपास्तदनु' स्वकेषु, गेहेष्वऽवात्सुर्नृपतेनिदेशात् ॥ ऋषभदेव की पूजा कर और मुनि को वंदन कर महाराज भरत अपने निवास स्थान पर आ गए । तत्पश्चात् उनकी आज्ञा से सभी राजे अपने-अपने निवास स्थान पर चले गए । १. तदनु— तदनन्तरम् । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ७४. अथोत्सुकः पूर्वनियुक्तचारावलोकनायाऽवनिचक्रशक्रः । तत्राशस्त पाथोधिरिव स्वकीयस्थितिक्रमे प्लावितभूतलोऽपि ॥ चक्रवर्ती भरत अत्यन्त उत्सुकता से पूर्व नियुक्त गुप्तचरों की बाट देखते हुए उस उद्यान में उसी प्रकार स्थित हो गए जैसे भूतल को प्लावित करता हुआ समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित होता है। ७५. अनयदिह कियन्ति स्फारकीतिदिनानि । क्षितिपतिरथ बन्धोः किंवदन्तीर्बुभुत्सुः । चरवदनसरोजात् पोनपुण्योदयाढ्यः । कलितललितलक्ष्मीलक्ष्यलावण्यलीलः ॥ अपने भाई बाहुबली के वृत्तान्त को गुप्तचरों के मुख-कमल से जानने की जिज्ञासा से महान् यशस्वी भरत ने उस उद्यान में कई दिन बिताए । वे पुष्ट धर्म के धनी और मनोज्ञ लक्ष्मी के लक्ष्य रूपी लवणिमा की लीला के ज्ञाता थे। -इति सचैत्योद्यानाभिगमो नाम वशमः सर्गः १. अवनिचक्रशक्र:-राजा भरतः। २. स्वकीयस्थितिक्रमे-आत्मीयमर्यादानुक्रमे। ३. बुभुत्सुः-बोटुमिच्छुः। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां सर्ग प्रतिपाद्य भरत द्वारा प्रेषित गुप्तचरों का पुनरागम और बहली प्रदेश की स्थिति का वर्णन । श्लोक परिमाण १०५ छन्द अनुष्टुप् । लक्षण देखें, सर्ग ३ का विवरण । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु — गुप्तचर लौटकर आ गए। द्वारपाल ने महाराज भरत को इसकी सूचना दी। गुप्तचर आस्थान मंडप में गए । महाराज भरत ने पूछा'बताओ ! मेरा भाई बाहुबली नत होना चाहता है या युद्ध लड़ना ?' तब गुप्तचरों में से एक निपुण गुप्तचर ने कहा - 'महाराज ! बाहुबली के नत होने की बात ही कहां है । वे तो युद्ध के लिए समुत्सुक हैं । उनके वीर सुभटों में भी अपार उत्साह है । सब युद्ध की तैयारी में लगे हुए हैं। वहां की नारियां भी अपने पुरुष सुभटों के पराक्रम रूपी अग्नि को उद्दिप्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं । राजन् ! आपके सभी शत्रु राजे उनसे जा मिले हैं । विद्याधरों का स्वामी रत्नारि भी बाहुबली के पास आ गया है । बाहुबली का प्रधानमन्त्री 'सुमंत्र' अत्यन्त बुद्धिशाली है । उसने बाहुबली को युद्ध न लड़ने की सलाह दी है । किन्तु आपके अनुज किसी की बात मानने के लिए तैयार नहीं हैं । वे आपको रणभूमि में मिलने ही वाले हैं ।' I महाराज भरत ने गुप्तचरों की बात सुनी और मन ही मन सोचा - मेरा भाई कैसा मूढ है । वह मेरे आगे कैसे टिक पाएगा ! कहां तो मैं छह भूखण्डों का स्वामी चक्रवर्ती और कहां वह एक भूभाग का सामन्त ! कहां सूर्य और कहां एक छोटा सा टिमटिमाता तारा ! ०० Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः १. अथाऽसौ कल्पिताकल्पो', विमानमिव वासवः । अनूनश्रीभराकोणं, तस्थावास्थानमन्दिरम् ।। भूपालकोटिकोटीर पद्मरागप्रभाभरैः। प्रभातमिव रक्तांशु , हरत्प्रादुर्भवत्तमः ॥ राकामुख'मिवोदञ्चच्चन्द्रोदयविराजितम् । रत्नमौवितकनक्षत्रतारामण्डलमण्डितम् ॥ चारुवारवधूधूतचामरांशुकरम्बितम् । सुधाम्भोधिरिव क्षीरं , शीतांशुकरचुम्बितम् ॥ ५. कुन्देन्दुविशदच्छत्रप्रभामण्डलमण्डितम् । विलसद्राजहंसौघ, गङ्गातीरमिवाद्भुतम् ॥ -पञ्चभिः कुलकम् । महाराज भरत ने वेष बदला। वे अत्यन्तं शोभास्पद उस आस्थान मन्दिर में उसी प्रकार आ बैठे जैसे इन्द्र विमान में आ बैठता है । वह आस्थाव मन्दिर हजारों राजाओं के मुकुटों में जड़े हुए पद्मराग के प्रभा-समूह से प्रभात में उगने वाले लाल सूर्य की भाँति लग रहा था और वह प्रकट होने वाले अंधकार का नाश कर रहा था। रत्न-रूपी नक्षत्र और मौक्तिक रूपी तारागों से भूषित वह आस्थान मन्दिर चन्द्रोदय से शोभित पूर्णिमा की संन्ध्या की तरह शोभित हो रहा था। वहाँ सुन्दर वारांगनायें चामर झल रही थीं। उनकी इस क्रिया से प्रस्फुटित किरणों से वह मिश्रित था। उस समय वह ऐसा लग रहा था मानो कि चन्द्रमा की किरणों से संयुक्त क्षीर समुद्र का पानी हिलोरें ले रहा हो। १. आकल्पः-वेष (वेषो नेपथ्यमाकल्प:-अभि० ३।२६९) २.. कोटीरं-मुकुट (मौलि: किरीटं कोटीरं-अभि० ३।३१५) ३. राकामुख-पूर्णिमा की संध्या (पूर्णमासिप्रदोषं) . ४. करम्बितम्-मिश्रितम् । ५. शीतांशु....."-चन्द्रकिरणसंयुक्तम् । ६. विलसद्राजहंसौघं-क्रीडद्भूपालश्रेष्ठसंदोहं। गंगातीरपक्षे-मिलत्कलहंससंघातम्। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वह श्वेत-पीत चन्द्रमा की भाँति निर्मल छत्रों के प्रभामंडल से विभूषित था। वह गंगा नदी के तट की भाँति विस्मयकारी लग रहा था। जैसे गंगा नदी के तट पर राजहंसों का समूह क्रीड़ा करता है वैसे ही वहाँ उत्तम राजाओं के समूह कीड़ा करते थे। ६. आस्थानी भरतेशस्य, सुधर्मेव सुरप्रभोः । विस्फुरद्विबुधा रेजे , गुरुमङ्गलधारिणी॥ 'विशाल मंगल को धारण करने वाली तथा विबुधजनों से युक्त महाराज भरत की वह सभा इन्द्र की सुधर्मा सभा की भाँति शोभित हो रही थी। ७. द्रुतं राजानमानम्य, वेत्रपाणिरदोऽवदत् । एतास्त्वत्प्रेषिताश्चारास्तिष्ठन्ति द्वारि वारिताः ॥ . इतने में ही द्वारपाल ने महाराज भरत को नमस्कार करते हुए यह कहा- 'देव ! आप द्वारा भेजे गए गुप्तचर आ पहुँचे हैं और वे द्वार पर रुके हुए हैं।' ८. एतान् प्रवेशयाह्नाय', राजेति स्वयमोरितः।' श्रीविलासानिव न्यायः , स भूपं ताननीनयत् ॥ . . महाराज भरत ने स्वयं कहा-'उन्हें शीघ्र ही भीतर ले आओ।' तब द्वारपाल ने उन गुप्तचरों को राजा के समक्ष उपस्थित किया जैसे न्याय के समक्ष लक्ष्मी के सारे विलास उपस्थित किये जाते हैं। ६. तानपृच्छदिति क्षमापो , निनंसु में स बान्धवः । युद्धश्रद्धापरः किं वा , निर्णायाख्यत हेरिकाः !॥ भरत ने उनसे पूछा- 'हे गुप्तचरो! तुम यह निर्णय करके बताओ कि मेरा भाई मेरे सामने नत होना चाहता है या युद्ध करना चाहता है ?' १. आस्थानी-सभा। २. किं विशिष्टा आस्थानी ? विस्फुरद्विबुधा--विराजत्पंडिता, सुधर्मापक्षे–विराजविबुधा देवाः, पुनः किं विशिष्टा ? गुरुमंगलधारिणी-विशालश्रेयःशालिनी, सुधर्मापक्षे-वाक्पति वक्रावहा। ३. अह नाय--शीघ्र (मझ्वह नाय च सत्वरं-अभि० ६।१६६) ४. निनंसुः-नमश्चिकीर्षः। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः २०७ १०. इत्याकर्ण्य वचो भर्तस्तेषामेकोऽभणच्चरः । निर्बन्धाद' बन्धुसंबन्धं', मन्मुखाच्छृणु सांप्रतम् ॥ अपने स्वामी का यह वचन सुनकर, उनमें से एक गुप्तचर ने कहा-'राजन् ! आप मेरे मुख से आग्रहपूर्वक अपने भाई का वृत्तान्त सुनें ।' ११. त्वदाज्ञाभ्रमरी भूप ! , नास्त तद्देशचंपके । सुमनोभिरताप्युच्चैर्भाविनी हि गरीयसी ॥ 'राजन् ! देवताओं द्वारा अत्यन्त अभिप्रेत आपकी आज्ञा रूपी भ्रमरी बाहुबली के देश के चम्पक वृक्षों पर भी नहीं ठहरती । क्योंकि भवितव्यता महान् होती है।' १२. स्वामिन् ! सोमवधूः स्वीया , बलात् परकथिता । .. उन्निद्रदर्पदावाग्निरेष चक्र चरैरिति ॥ 'स्वामिन् ! अपनी सीमा रूपी वधू शत्रु के द्वारा हठात् कथित हो रही है, यह कहकर बाहुबली के गुप्तचरों ने बाहुबली को जागृत दर्प रूपी दावाग्नि वाला बना दिया।' १३. अवामस्त वचस्तेषां , पूणिताक्षस्ततस्त्वसौ । . रवमस्थिभुजां स्वैरमुन्मत्त इव वारणः ।। 'दर्प की निद्रा से घृणित लोचन वाले बाहुबली ने उन गुप्तचरों के कथन की अवगणना की जैसे उन्मत्त हाथी कुत्तों के शब्दों की भरपूर अवगणना करता है।' १४. 'बहुकृत्वः प्रविज्ञप्तो , भटैः शौर्यरसार्णवैः । यात्रामेरी स सावज्ञमात्मभृत्यैरवादयत् ॥ 'महाराज भरत ! पराक्रम के समुद्र सुभटों द्वारा बहुत बार निवेदन करने पर बाहुबली ने अपने सेवकों से अवज्ञापूर्वक यात्रा-भेरी बजवाई।' १. निर्बन्धः-आग्रह (निर्बन्धोऽभिनिवेशः स्यात्-अभि० ६।१३६) २. बन्धुसंबन्धं-बाहुबलिव्यतिकरम् । ३. इससे आगे का संपूर्ण वर्णन महाराज भरत के गुप्तचरों द्वारा कथित है। उन्होंने बाहुवला . के प्रदेश में जो कुछ देखा-सुना था, उसका पूरा वर्णन भरत के समक्ष प्रस्तुत किया है। ४. अस्थिभुक्-कुत्ता (अस्थिभुग भषणः सारमेय:-अभि० ४।३४५) ५. पाठान्तरं-रदापयत् । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ . . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् .१५. तदा दक्षिणदिग्नेता', चकम्पे दण्डधार्यपि । भम्भानादात् सुवर्णाद्रिकम्पात् किं कम्पते न भूः ? .. 'उस समय भेरी के शब्द से दक्षिण दिशा का दण्डधारी नेता यम भी कांप उठा। क्या सुमेरु पर्वत के कंपित होने से पृथ्वी प्रकंपित नहीं हो जाती ?' । १६. भम्भाया वाद्यमानायाः , सुघोषाया इव ध्वनिः। सज्जीचकार कृत्याय , सैनिकांस्त्रिदशानिव ॥ .. 'भृत्यों द्वारा बजाई जानेवाली भेरी की ध्वनि ने सैनिकों को अपने कार्य के लिए सज्जित कर दिया, जैसे सुघोषा घण्टा की ध्वनि देवताओं को सज्जित कर देती है।' १७. पञ्चबाण' इवौद्धत्यमानन्दमिव वल्लभः । ___ शौयं जागरयामास , भटानां स रवः क्षणात् ॥ 'उस नाद ने योद्धाओं में तत्काल शक्ति को जागृत कर, डाला, जैसे कामदेव उन्माद को और प्रिय पति आनन्द को जागृत करता है।' १८. सारङ्गाणामिवाम्भोदध्वनी रसधरागमे । पुपोषामन्दमानन्दं , भम्भानादस्ततः क्षणात् ॥ . 'भेरी के नाद ने क्षणभर में सभी सुभटों के मन में प्रचुर आनन्द उत्पन्न कर दिया, जैसे वर्षा ऋतु में मेघ की ध्वनि चातकों में प्रेम उत्पन्न करती है।' . १९. अबला भीरवोप्युच्चैः , कातरत्वं स्वभावजम् । विहायोत्तेजयामासुर्भटानां शौर्यमद्भुतम् ॥ 'अपनी स्वाभाविक कायरता को छोड़कर भीरु अबलाओं ने भी सुभटों के पराक्रम को विचित्र प्रकार से उत्तेजित कर डाला।' १. दक्षिणदिग्नेता-यमराज (यमः कृतान्तः पितृदक्षिणाशा प्रेतात्पतिः-अभि० ९८) २. पञ्चबाण:-कामदेव। ३. रसधरागमे-प्रावृट्काले । ४: अबला:-स्त्रियः। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः २०. कान्त ! स्वस्वामिकृत्याय , मा विषीद मनागपि । स्वर्भाणु मुखगं चन्द्रं , पश्यतो धिग् हि तारकान् ॥ वे बोलीं-'पतिदेव ! आप अपने स्वामी के कार्य के प्रति किंचित् भी विषाद न करें। क्योंकि राहु के मुख का ग्रास बने हुए चन्द्रमा को देखने वाले तारकों को धिक्कार है।' २१. नाथ ! संस्मृत्य मां चित्ते , मुखं मा वालयेनिजम् । वलमानमुखा वीरा , न भवन्ति कदाचन ॥ 'नाथ ! मन में मेरी स्मृति कर आप रणभूमि से अपना मुंह न मोड़ लें। युद्ध-भूमी से जो मुंह मोड़ते हैं वे कभी भी वीर नहीं हो सकते ।' २२. ताम्बूलीरागसंपृक्तं , यथास्यं भाति तेऽधना । .. क्षरदधिरधाराक्तं , तथा त्वं दर्शये रणे ॥ 'नाथ ! जैसे आपका मुंह अभी ताम्बूल के रंग से संपृक्त होकर शोभित हो रहा है, . वैसे ही रण में आप अपने मुंह को झरती हुई शोणित की धारा से सिक्त दिखायें।' २३. त्वविक्रान्तिर्महावीर ! , त्रैलोक्येऽपि विदित्वरी। सुधाभित्तिरिव म्लानीकार्या नाऽकोत्तिकज्जलैः ॥ 'हे महान् वीर ! आपका पराक्रम तीनों लोकों में विदित है । वह चूने से पुती हुई मौत की तरह निर्मल है । आप उसे अयश रूपी कज्जल से म्लान न कर डालें।' डालें। २४. सुमेरुस्त्वमसि स्वामिमानसे भुजवेमवैः। - त्वं तृणीभूय संग्रामान् , मुखं मा दर्शयेर्मम ॥ 'नाथ ! आप अपनी भुजाओं के पराक्रम के कारण अपने स्वामी के मन में सुमेह की भांति हैं । आप संग्राम में तिनके बनकर मुझे कभी अपना मुंह न दिखायें।' २५. भटानां पर वीरास्त्र वितान् मरणं वरम् । धिगस्तु धरतः प्राणान् , भोरूनाक्रोशकश्मलान् ॥ 'शत्रु-योद्धाओं के अस्त्रों से मर जाना वीर सुभटों के लिए जीवित रहने से अधिक श्रेष्ठ . १. स्वर्भाणुः-राहु (स्वर्भाणुस्तु विधुन्तुद:-अभि० २।३५) २. परः-शन (शत्रौ प्रतिपक्षः परो रिपुः-अभि० ३।३९२) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् है। उन कायर सुभटों को धिक्कार है जो अपमान से कलंकित प्राणों को धारण करते हुए जीते हैं।' २६. सुरभिस्त्वं यशःकुन्दैः', सुरभीकुरु मामपि । - मलये चन्दनायन्ते , सर्वेपि मारुहा यतः ॥ 'पतिदेव ! आप स्वयं वसंत ऋतु के समान हैं । मुझे भी आप यश रूपी कुन्द के फूलों से सुरभित करें। क्योंकि मलय पर्वत पर सारे वृक्ष चन्दन की भाँति महक देने वाले बन जाते हैं।' २७. यशश्चन्द्रोदये स्फोते , भटिमादिगण स्तव । रणव्योम्नि मटोत्तंस ! , मूनि न स्यात् परातपः ॥ . 'हे वीर शिरोमगे ! युद्व के नभस्तल में जब आपके पराक्रम के धागों से बुवा हुआ यशरूपी विस्तृत चन्दोवा तन जायेगा तब शत्रुओं का आतप आपके मस्तिष्क परनहीं पड़ेगा।' २८. उत्सङ्गसङ्गिनी तेऽस्तु , जयश्रीः समराङ्गणे ।' सपत्न्यापि तया बाद, नाऽहं सेा त्वयि प्रिय ! ॥ 'हे प्रिय | समरांगण में जयश्री आपके उत्संग में बैठी रहे । वह निश्चित ही मेरी सौत (सपत्नी) होगी, फिर भी मैं आपके प्रति ईर्ष्या नहीं करूंगी।' २९. ज्ञातस्त्वं सर्वदा कान्त ! , रतेऽपि करुणापरः। तत्त्वया न कृपा कार्या , वीर ! वैरिरणक्षणे ॥ 'नाथ ! मैंने सदा यही जाना कि आप संभोग में भी करुणापर हैं। किन्तु हे वीर ! शत्रुओं के साथ युद्ध करने के क्षण में आप कभी करुणा न करें।' ३०. मां विहाय यथा यासि , प्रमना स्त्वं रणाङ्गणे । न तथा वीरतां हित्वाऽत्रागम्यं भवता गृहे ॥ १. सुरभिः–वसन्त ऋतु (वसन्त इष्यः सुरभि:--अभि० २०७०) । २. यशःकुन्द:-कीतिकुन्दकुसुमः । ३. चन्द्रोदय:-चन्दोवा (अभि० ३।३४५) ४. गुणः-तन्तु (शुल्वं तन्त्री वटी गुण:-अभि० ३।५९२) ५. परः-शनुः, तस्य आतपः।। ६. प्रमना:-प्रसन्न चित्त वाला (प्रमना हृष्टमानस:-अभि० ३३६९) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः . २११ 'जिस प्रकार आप मुझे छोड़कर प्रसन्नचित्त से रणक्षेत्र में जा रहे हैं, वैसे ही आप वीरता को छोड़कर पुनः यहाँ घर पर न आयें ।' ३१. कातरत्वं मसाभ्यणे' , मुक्त्वा त्वं धाव संयते । प्राहुः पुराविदोप्येवं , स्त्रीत्वं धर्यविलोपि हि ॥ 'नाथ ! आप कायरता को मेरे पास छोड़कर संग्राम की ओर वेग से चले जायें। प्राचीन विद्वानों ने भी यही कहा है कि स्त्रीत्व धर्य का लोप करने वाला होता है।' ३२. युद्ध शस्त्रप्रहारोऽयं , कोशलाबहलीशयोः । इति कोत्तिश्चिरं वीर ! , तवाङ्ग स्थास्यति ध्रुवम् ॥ "हे वीर ! यह शस्त्र-प्रहार भरत-बाहुबली के युद्ध में लगा था-ऐसी कीत्ति चिरकाल तक सदा आपके साथ रहेगी।' ३३. त्वं तु पाणिग्रहेऽन्यस्या , मद्गुणेषु मनो न्यधाः । जयश्रीवरणे वीर ! , मानसं मयि मा कृथाः ॥ 'वीर ! आपने दूसरी कान्ता के साथ विवाह करने के समय मेरे गुणों में अपने चित्त को आरोपित किया था। किन्तु अब जय रूपी लक्ष्मी के वरणकाल में मेरे प्रति चित्त न करें।' ३४. सखलति स्नेहशैलेन्द्र' , तटिनीव रसा मम ।। ... प्राणैरपि यशश्चेयं , प्रशस्या हि यशोधनाः ॥ 'नाथ ! जैसे नदी पर्वत के पास पहुंचकर स्खलित होती है, वैसे ही मेरी जीभ स्नेह रूपी पर्वत से टकरा कर स्खलित हो रही है । देव ! प्राण देकर भी यश को पुष्ट करना है। क्योंकि यशस्वी व्यक्ति ही प्रशंसनीय होते हैं।' ३५. त्वं दाक्षिण्यपरों यादृक् , तादृग नान्यो भुवस्तले । नात्र दाक्षिण्यमाघेयमस्थाने ह्यमृतं विषम् ।। १. अभ्यर्णम्-निकट (अभि० ६।८७) २. संयते-संग्रामाय । ३. इत्यत्र निमित्तात् कर्मयोगे सप्तमी । ४. रसा-जीभ (अभि० ३।२४६ शेष) ५. दाक्षिण्यपरः-लज्जाशीलः । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् - 'प्रियतम ! आप जितने लज्जाशील हैं उतने लज्जाशील पुरुष इस संसार में कोई नहीं है । किन्तु संग्राम में आप इस लज्जा को छोड़ दें। क्योंकि अस्थान में अमृत भी विष बन जाता है। ३६. वीरसूर्जननी तेऽस्तु , पिता वीरः पुनस्तव । त्वदेव सांप्रतं वीर ! , वीरपत्नी भवित्र्यहम् ॥ 'हे वीर ! आपकी माता वीर पुत्रों को पैदा करनेवाली बने और आपके पिता भी वीर पुत्र के पिता हों । देव ! अब मैं आपसे ही वीर की पत्नी होऊंगी।' ३७. सत्वरं त्वं मम स्नेहादागतो ग्रामतः प्रिय ! । - संग्रामे न त्वरा कार्या , स्वामिचित्तानुगो भवः॥ 'हे प्रिय ! आप मेरे स्नेह के वशीभूत होकर गांव से शीघ्र ही मेरे पास आ जाते थे, किन्तु संग्राम में आप जल्दबाजी न करें। आप अपने स्वामी के चित्त के अनुसार कार्य करने वाले हों।' ३८. मम वक्षसि निःशङ्क, पातिताः करजा' यथा । त्वया मत्तेभकुम्भेषु , प्रापणीयास्तथा शराः ॥ 'देव ! आपने निःशंक होकर मेरे वक्षस्थल पर नखों के, प्रहार किए । इसी प्रकार आप युद्ध-स्थल में मदोन्मत्त हाथियों के कुंभस्थलों पर अपने बाणों से प्रहार करें।' ३६. रणव्योम्नि परे वीरास्तव तेजोनिधः पुरः।। तारका इव नश्यन्तु , त्वत्प्रतापोस्तु वृद्धिमान् ॥ 'नाथ ! आप तेज के निधान हैं—सूर्य हैं । युद्धाकाश में आपके आगे शत्रुओं के सुभट तारों की भांति नष्ट हो जाएं ! आपका प्रताप सतत वृद्धिगत होता रहे ।' ४०. भटशौर्यबृहद्भानुदीपनाय घृतं वचः। सर्वासामिति नारीणां , निर्ययौ मुखभाण्डतः ॥ 'इस प्रकार वहां की समस्त नारियों के मुख से ऐसे वचन निकल रहे थे जो कि सुभटों के पराक्रम रूपी अग्नि को उद्दिप्त करने के लिए घृत का काम कर रहे थे।' १. करज:-नख (करजो नखरो नख:-अभि० ३।२५८) । २. बृहद्भानु:-अग्नि (वन्हिबृहद्भानुहिरण्यरेतसौ-अभि० ४।१६३) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः २१३ ४१. सुधामय इवानन्दमयस्त्विव तदाऽभवत् । .. स क्षणः सक्षणो युद्धाकांक्षिभिर्बलिभिर्मतः॥ 'चक्रवत्तिन् ! उस समय वह क्षण अमृतमय और आनन्दमय बन गया था। युद्ध के आकांक्षी पराक्रमी सुभटों ने उस क्षण को एक उत्सव के रूप में माना।' .. ४२. दोर्दण्डचण्डिमौद्धत्याद् , ये तृणन्ति जगत्त्रयम् । तेऽपि वीरा यशःक्षीरार्णवास्तं प्रययुस्तदा ॥ 'जो वीर अपनी भुजाओं की चंडिमा से उद्धत होकर तीनों लोकों को तृणवत् तुच्छ मानते हैं और जो कीत्ति के क्षीर-समुद्र हैं वे भी. संग्राम के समय बाहुबली के पास चले गए।' ४३. मन्दरा इव प्रथिवाहिनीश्वरमन्थने । भूभृतश्चण्डदोर्दण्डशाखिनः केऽपि तं ययुः॥ 'कई राजे जो शत्र रूपी समुद्र का मन्थन करने में मेरु पर्वत की भांति थे और जो प्रचंड भुजा रूपी शाखा वाले थे, वे, भी बाहुबली के पास पहुँच गए।' ४४.. ये भवन्तमवज्ञाय , नृपं बाहुबलि श्रिताः । तेऽपि विद्याधराधीशा , अभूवन प्रगुणा युधे । 'राजन् ! जो विद्याधरों के स्वामी आपकी अवज्ञा कर महाराज बाहुबली की शरण में चले गएं, वे भी आज संग्राम के लिए सन्नद्ध हो रहे हैं।' . ४५. विद्याधरवधूवर्गवैधव्यक्तदानतः। ___यस्यासि गुरुवद्वन्द्योऽनिलवेगः स दुःसहः ॥ 'राजन ! विद्याधरों की स्त्रियों को वैधव्य की दीक्षा देने के कारण जिसकी तलवार १. क्षणः-अवसर (समये क्षण:-अभि० ६।१४५) २. सक्षण:-सोत्सवः (उत्सवे-महः क्षणोद्धवोद्धर्षा-अभि० ६।१४४) ३. प्रगुणा:-सज्जाः । ४. युधे-संग्रामाय। ५. व्रतदानं-दीक्षार्पणम् । ६. असिः-तलवार (असिऋष्टिरिष्टी-अभि० ३।४४६) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् गुरु की तरह वन्दनीय है, वह अनिलवेग अत्यन्त दुःसह है-रणभूमि में उसका सामना करना कठिन है।' ४६. बहलीनाथपाथोधिः , सर्वथैव दुरुत्तरः । . भीष्मश्चौर्वानलेनेवानिलवेगेन दोष्मता ॥ 'राजन् ! महान भुज-पराक्रमी और वाडवाग्नि की भांति अनिलवेग के रहते हए बाहुबली रूपी रौद्र समुद्र को तर पाना सर्वथा दुष्कर है।' . ४७. पुनर्भारतभूपाल ! , विद्याधरधराधवः। __रत्नारिस्तमुपागच्छद् , दर्श' विधुरिवारुणम् ।। 'हे भारत के भूपाल ! एक बात और भी है। विद्याधरों का स्वामी.रत्नारि उस बाहबली के पास वैसे ही आ मिला है जैसे अमावस्या के दिन चन्द्रमा सूर्य से जा मिलता है।' . ४८. अमी विद्याभूतो वीरा , बहुशो बहलीशितुः । ___ अभ्यणं तूर्णमाजग्मुः , प्रवाहा इव वारिधिम् ॥ 'राजन् ! ये अनेक विद्याधर वीर बाहुबली के पास शीघ्र ही वैसे ही आ गए हैं जैसे पानी के प्रवाह समुद्र के पास आ जाते हैं।' , ४६. किराताः' पातितारातिदुर्मदाचलदोर्द्वमाः। उत्साहा इव देहाढ्यास्तमुपागत्य चाऽनमन् ॥ 'अपने शत्रुओं के दुरहंकार रूपी पर्वत की भुजा रूपी वृक्षावली को नष्ट करने वाले किरात ऐसे हैं, मानो मूर्तिमान् उत्साह हों । वे भी बाहुबली के पास जाकर नत हो गए हैं।' ५०. सन्नद्धबद्धसन्नाहाः', कण्ठप्रापितकार्मुकाः । __मूर्ता इव धनुर्वेदास्तस्येयुर्लक्षशः सुताः॥ 'बाहुबली के लाखों पुत्र सज्जित होकर, कवच पहनकर तथा गले में धनुष्य को धारण १. दर्श:-अमावस्या (दर्शः सूर्येन्दुसङ्गमः-अभि० २।६४) २. किरातः-भील (माला भिल्लाः किराताश्च-अभि० ३।५६८) . ३. सन्नाहः-कवच (सन्नाहो वर्म कङ्कट:-अभि० ३।४३०). ४. कामुकम्-धनुष्य (कोदण्डं धन्व कामुकम्-अभि० ३।४३६) . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः २१५ कर बाहुबली के पास आ गए हैं। वे ऐसे लगते हैं मानो धनुर्वेद ही मूर्तिमान् हो गया हो ।' ५१. 'राजन् ! सभा में बैठे हुए तथा यम की भांति दुर्धर बाहुबली को उस समय उन प्रसन्न सुभटों ने उसी प्रकार घेर लिया जैसे किरण- जाल सूर्य को घेरे रहता है ।' ५२. ५३. समासीनमदीनास्ते, कोनाशमिव दुर्धरम् । परिवत्रुस्तदेवेनं तरणि किरणा इव ॥ 2 'राजन् ! बाहुबली के मंत्री का नाम 'सुमंत्र' है । वह बृहस्पति की भांति मंत्रणा देने में निपुण है । उसने बाहुबली के समक्ष निष्कपट भाव से कहा— ५४. अथ मन्त्री सुमन्त्राख्यः', सुरमन्त्रीव मन्त्रवित् । निर्व्याजं व्याजहारेति, पुरस्तात् तस्य भूपतेः ॥ ५५. देव । त्वं मद्वचः स्वरं कुरुतात् कर्णगोचरम् । चिन्त्याहितविदोऽमात्याः कार्यारम्भे हि राजभिः ॥ 'देव ! आप मेरे वचन को ध्यानपूर्वक सुनें। नीतिकारों ने भी कहा है कि कार्य के प्रारम्भ में राजाओं को हितचिन्तक अमात्यों से मन्त्रणा करनी चाहिए ।' , यथा पयोधरौन्नत्याद्, बालाया यौवनोद्गमः । तथा स्वामिबलो कान्, मन्त्रिभिर्ज्ञायते जयः ॥ 'जैसे कुमारी के स्तनों के उभार से उसके यौवन के आगमन को जान लिया जाता है, वैसे ही मंत्री भी अपने स्वामी के पराक्रम के अतिरेक से होने वाली विजय को जान लेते हैं ।" प्रबलेन सह स्वामिन्!, विधेया न विरोधिता । पश्य पाथोजिनीनेत्रा', संक्षिप्यन्ते तमांसि हि ॥ 'स्वामिन् ! प्रबल व्यक्ति के साथ विरोध नहीं रखना चाहिए। आप देखें, सूर्य अंधकार को नष्ट कर ही देता है । ' १. पाठान्तरम् - सुमन्त्रीशः । २. पाथोजिनीनेत्रा – सूर्येण । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५६. आक्रामति परक्ष्मां यः , स एव सबलो नृपः। ___ अर्कतूलानि तिष्ठेयुश्चेहि किं विभुमरुत् ? 'जो राजा अपने शत्रु की भूमि पर आक्रमण करता है वही सबल होता है। पवन के चलने पर यदि अर्कतूल शेष रह जाए तो उस पवन का सामर्थ्य ही क्या ?' ५७. बलादाच्छिद्य भूपाल बन्धुभ्योऽपि गृह्यते । ग्रहाणामपि तेजांसि , विवस्वान् हरते न किम् ? ... "राजे अपने बंधुओं से भी भुमी को बलपूर्वक छीनकर ग्रहण कर लेते हैं । क्या सूर्य ग्रहों के तेज का हरण नहीं करता ?' । । ५८. निर्बलोऽपि परः स्वामिन् ! , प्रबलः परिभाव्यते। पृथिव्यर्थे हि को युद्धं , न करोत्यत्र सर्वथा ? 'स्वामिन् ! शत्रु निर्बल होते हुए भी सबल ही माना जाता है । क्योंकि इस भूमि के लिए सबल या निर्बल कौन युद्ध नहीं करता ?' ,' ५६. अनम्रा यदि सर्वेपि , सर्वेपि छत्रिणो यदि । तहि लोकत्रयीमध्ये , का कोत्तिश्चक्रवर्तिनः ? 'यदि सभी राजे अनम्र हो जाएं और यदि सभी छत्रधारी हो जाएं तो फिर तीनों लोकों में चक्रवर्ती की कीत्ति ही क्या रह जाएगी?' .. ६०. संप्रति कोशलास्वामी , त्वामभ्येति चमूवृतः।। ___ सराति रिवानन्तं', पीताब्धि रिव सागरम् ॥ 'अभी कोशल देश के स्वामी भरत सेनाओं से परिवृत होकर आपके पास उसी प्रकार आ रहे हैं जैसे शेषनाग के पास गरुड़ और सागर के पास अगस्त्य ऋषि आते हैं।' ६१. अयं भवत्कुले ज्येष्ठश्चक्र ययं च भवत्कुले । त्वमेनं नम तद् गत्वा , न त्रपा तव काचन ॥ १. परः-शत्रु । २. सारातिः-गरुड (सारातिर्वजिजिवज्रतुण्ड:-अभि० २।१४५) • ३. अनन्तः-शेषनाग (शेषो नागाधिपोऽनन्तो–अभि० ४।३७३) ४.पीताब्धि:--अगस्त्यऋषि (अगस्त्योऽगस्तिः पीताब्धि:--अभि० Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः २१७ 'आपके कुल में भरत ज्येष्ठ हैं और चक्रवर्ती हैं। इसलिए आप वहाँ जाकर उनको प्रणाम करें। इसमें आपको कोई लज्जा नहीं है।' . ६२. एतस्मै न नताः के कै स्याज्ञा शिरसा धृता। कैरातकोस्य नो दधे , बलिनो जयिनोऽत्र हि ॥ 'भरत के आगे कौन राजे नत नहीं हुए ? किन राजाओं ने इनकी आज्ञा शिरोधार्य नहीं की ? किसने इनका भय नहीं माना ? क्योंकि इस संसार में बलशाली व्यक्ति ही विजयी होते हैं।' ६३. बलं यदीयमालोक्य, सुरा अपि चकम्पिरे। __मर्त्यकीटास्ततः केऽमी , पुरस्तादस्य भूभुजः ? 'उनके पराक्रम को देखकर देवता भी प्रकंपित हो गए हैं। उनके सामने इन मनुष्यकीट राजाओं की बात ही क्या ?' . ६४. षट्खण्डी किकरीभूय , सेवतेऽस्य पदाम्बुजम् । रजनीव सुधाभानु'ममन्दानन्दकन्दलम् ॥ 'छहों खंड सेवक की भांति महाराज' भरत के चरण-कमलों की सेवा करते हैं, जैसे रात अधिक आनन्ददायक चन्द्रमा की सेवा करती है।' ६५. वां विना कोपि विश्वेऽत्र , न्यक्करोत्यस्य शासनम् । .. राहोरेव पराभतिविद्यते हि त्रयोतनोः ॥ "आपके बिना. इस विश्व में चक्रवर्ती भरत के अनुशासन का कोन तिरस्कार कर सकता है ? सूर्य के लिए राहु. ही पराभव है, दूसरा कोई नहीं।' ६६. द्वात्रिंशन्मेदिनीपालसहस्राण्यस्य किङ्कराः । अनुणीकर्तुमात्मानमोहन्तेप्यसुभी रणे । 'चक्रवर्ती भरत के बत्तीस हजार राजे सेवक हैं । वे युद्धस्थल में प्राणों की बलि देकर भी अपने-आपको उऋण करना चाहते हैं।' .१. सुधाभानु:-चन्द्रमा। २. वयीतनुः--सूर्य (नयोतनुर्जपच्चक्षुः-अभि० २।१२) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६७. एनं सहस्रशो देवा , बद्धाञ्जलिपुटाः सदा। सेवन्ते सर्वदं वर्णमोङ्कारमिव योगिनः ॥ 'हाथ जोड़े हुए हजारों देवता सदा महाराज भरत की उपासना करते हैं, जैसे योगीजन सब कुछ देने वाले 'ओंकार' वर्ण की उपासना करते हैं।' ६८. सुषेणोप्यस्य सेनानीः , सेनानी'रिव दुर्जयः। परीतोऽनेकगीर्वाण विनीत इव सद्गुणैः ।। 'भरत का सेनापति सुषेण भी कात्तिकेय की भांति दुर्जेय है। जिस प्रकार विनीत व्यक्ति सद्गुणों से युक्त होता है, वैसे ही वह अनेक देवताओं से परिवृत है।' ६९. अस्यैव भुजमाहात्म्याद् , वैरिणो नेशुरग्रतः । ___ चक्रवागमस्तेषां , पुनरुक्तिरिवाऽभवत् ॥ 'सेनापति सुषेण के भुजबल से भयभीत होकर शत्र पहले ही दौड़ जाते थे । चक्रवर्ती का आगमन उनके लिए पुनरुक्ति जैसा है-अर्थहीन है।' ७०. अस्य सूर्ययशा ज्येष्ठसूनुरन्यूनविक्रमः। मन्यते स्वभुजौजित्याद् , यः शक्रमपि किङ्करम् ॥ 'भरत के ज्येष्ठ पुत्र का नाम है सूर्ययशा। वह अत्यन्त पराक्रमी है। वह अपने भुजपराक्रम से इन्द्र को भी किंकर मानता है।' ७१. अन्येपि बहवो वीराः , सन्त्यस्य प्रबला बले । धतु तदन्तरेकोऽपि', सहिष्णुः पर्वतानपि ॥ 'भरत की सेना में इस प्रकार के और भी अनेक पराक्रमी वीर सुभट हैं। उनमें एकएक वीर ऐसा है जो पर्वतों को उठाने में भी समर्थ है।' ७२. एक एव महातेजास्त्वं रोद्धा ज्येष्ठमार्षभिम् । धक्ष्यन्त्यमूस्तृणानिव , चास्य चक्रदवाचिषः ॥ १. सेनानी:-कात्तिकेय (स्कन्दः स्वामी महासेनः सेनानीः शिखिवाहन:-अभि० २।१२२) २. गीर्वाणा:-देवता (गीर्वाणा मरुतोऽस्वप्ना:--अभि० २१३) ३. तदन्तर-तेषां वीराणां मध्ये, एकोऽपि । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः . २१६ 'महान तेजस्वी आप ही अकेले ऐसे हैं जो अपने ज्येष्ठ भ्राता भरत को निवारित कर सकते हैं । किन्तु उनके चक्र से उद्गत अग्नि की ज्वालाएं आपके सैनिकों को तृण की भाँति भस्मसात् कर डालेंगी।' ७३. तद् विचार्य महीपाल ! , कुरुष्वात्महितं त्विति । ताततुल्यमिमं ज्येष्ठं, भ्रातरं भरतं नम॥ 'इसलिए हे राजन! आप अपने हित की बात सोचकर पिता तुल्य अपने इस ज्येष्ठ भ्राता भरत को प्रणाम करें।' ७४. इति मन्त्रिगिरा क्रुद्धो, यावद् वक्ति क्षितीश्वरः। तावद् विद्याधराधीशोऽनिलवेगस्तमभ्यषात् ॥ 'मंत्री के ये वचन सुनकर बाहुबली अत्यन्त कुपित हो गए ।' वे कुछ कहने ही वाले थे कि विद्याधरों के अधिपति अनिलवेग ने मंत्री से कहा ७५. सचिवोत्तंस ! निस्त्रिशं', वथैव वदनानिलः । आत्मदर्शमिवोद्दीप्रं, कश्मलीकुरुषे प्रभोः॥ 'सचिव शिरोमणे ! तुम अपने मुख के श्वासों से व्यर्थ ही अपने स्वामी बाहुबली की . कांच की भांति निर्मल तलवार को मलिन कर रहे हो ।' ७६. प्रार्थ्यमानश्चिरं युद्धोत्सवो वीरमनोरथः। चांतरिवपाथोदस्तत्र वात्यायते' भवान् ॥ . 'मंत्रीवर्य ! हमारे वीर सुभट इस रणोत्सव की चिरकाल से प्रतीक्षा कर रहे थे । आज उनका मनोरथ वैसे ही सफल हो रहा है जैसे जलधर से चातकों का मनोरथ फलित होता है। ऐसी स्थिति में तुम प्रचंड पवन की तरह आचरण कर रहे हो।' . . ७७. कोऽतिरिक्तगतिश्चित्ताज्ज्वलनात् कः प्रतापवान् ? कः पण्डितः सुराचार्यात् , को घेवादधिको बली? १. निस्त्रिश:-तलवार (करवालनिस्त्रिशकृपाणखड्गा:--अभि० ३।४४६) २. वात्यायते--वातूलवदाचरति । ३. जैसे पवन जलधर को बिखेर देता है वैसे ही तुम वीर सुभटों के उत्साह को बिखेर रहे हो, नष्ट कर रहे हो। . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् "इस लोक में चित्त से अधिक गतिवाला कौन है ? अग्नि से अधिक तेजस्वी कौन है ? बृहस्पति से अधिक विद्वान् कौन है ? (इसी प्रकार) अपने स्वामी बाहुबली से अधिक बलवान् कौन है ?' ७८... अमी बाहुबलेर्वीराः , प्राणैरपि निजं प्रभुम् । सर्वथोपचिकीर्षन्त स्तृणाः प्राणा ह्यमीदृशाम् ॥ 'बाहुबली के ये वीर सुभट प्राणों को न्योछावर कर अपने स्वामी का उपकार करना चाहते हैं। ऐसे वीर सुभटों के लिए प्राण तिनके के समान होते हैं ।' ....' ७६. अयं चन्द्रयशाश्चन्द्रोज्ज्वलकोतिर्महाभुजः । यं संस्मृत्य रिपुवाता , जग्मुः शैला इवाम्बुधिम् । "चन्द्रमा की भांति उज्ज्वल कीत्ति वाला यह चन्द्रयशा इतना पराक्रमी है कि इसकी स्मृति मात्र से शत्रुओं के समूह वैसे ही जा छुपते हैं जैसे इन्द्र के भय से पर्वत समुद्र में जा छुपे थे।' ८०. लीलया दन्तिनां लक्षं , त्रिगुणं रथवाजिनाम् । हन्त्ययं वीर एकोपि, शैलोच्चयमिवाशनिः ॥ . "यह अकेला वीर एक लाख हाथियों और तीन लाख रथों तथा घोड़ों को क्षण भर मेंवैसे ही नष्ट कर देता है जैसे पर्वतों के समूह को वज्र नष्ट कर देता है।' ८१. कनीयानयमेकोऽपि , सिंहवत् प्रियसाहसः। रथी सिंहरथः केन , सोढव्यो वह्निवद् रणे ॥ 'छोटी उम्रवाला यह अकेला रथी 'सिंहरय' सिंह की भांति साहसप्रिय है। अग्नि की भांति इसको रणक्षेत्र में कौन सहन कर सकता है ? ८२. सिंहकर्णो रणाम्भोषिकर्णधारोयमुल्वणः । यबलं वैरिकर्णाभ्यामसहं पविघोषवत् ॥ 'यह सिंहकर्ण' रण रूपी समुद्र में स्पष्ट रूप से कर्णधार है। जैसे वज्र का घोष कानों के लिए असह्य है वैसे ही इसके पराक्रम की बात वैरियों के कानों के लिए असह्य है।' १. उपचिकीर्षन्तः--उपकर्त्तमिच्छन्तः। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः . २२९ ८३. परक्षमाक्रमणोहीमविक्रमी सिंहविक्रमः। यमायान्तमुपाकर्ण्य , वैरिभिर्ययिरे नगाः ॥ 'यह 'सिंहविक्रम' शत्रुओं की भूमि पर आक्रमण करने के लिए प्रचंड पराक्रमी है।। इसको आते हुए सुनकर शत्रु पर्वतों में जा'छुपते हैं।' ८४. सिंहसेनोऽरिसेनासु , केशरीव बलोत्कटः । क्ष्वेडाभिर्गजसेनासु , मददुभिक्षमातनोत् ।। 'यह 'सिंहसेन' अत्यन्त पराक्रमी है। यह शत्रुओं की सेना में केशरीसिंह की भांति है । इसने अपने सिंहनाद से हाथियों की सेना को निर्वीर्य बना डाला था।' ८५. इत्यमी तनयाः पञ्च , देवपादस्य विश्रुताः। बाणाः पञ्चेव पञ्चेषोः , कस्य पञ्चत्वदा न हि ? 'बाहुबली के ये पांचों पुत्र अत्यन्त विश्रुत हैं। ये पांचों कामदेव के पांच बाणों की भांतिः किसको मृत्युधाम तक नहीं पहुंचा देते ?' ८६. मूर्छाला मेदिनीपालाः , सन्त्यन्येऽपि सहस्रशः। संग्रामायोपतिष्ठन्ति , सज्जीकृतमहायुधाः ॥ 'और भी हजारों 'मूचाले' (मूंछवाले) राजे ऐसे हैं जो अपने-अपने शस्त्रों को सज्जित' कर युद्ध.की प्रतीक्षा में बैठे हैं।' ८७. अयं वैरिवधूहारसंहारपरिदीक्षितः। रत्नारिदेवपादेभ्यः , पुरो भवति संयते ॥ 'यह 'रत्नारि' युद्ध के समय अपने स्वामी बाहुबली के आगे रहता है। यह शत्रुओं की स्त्रियों के हारों को तोड़ने में अभ्यस्त है अर्थात् यह उनको विधवा बनाने में दक्ष है।' ८८. लक्षत्रयो तनूजानां , नृपबाहुबलेः श्रुता। जेतुं तदन्तरेकोऽपि , विभुर्विद्वषिवाहिनीम् ।। 'महाराज बाहुबली के तीन लाख अंगज हैं। उनमें से प्रत्येक वीर शत्रुओं की सेना को जीतने में समर्थ है।' Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २२२ ८९. इत्यमी बहवो वीराः , संयते समुपस्थिताः। उदयादेव तीक्ष्णांशोः , करा धार्या न केनचित् ॥ 'इस प्रकार ये अनेक वीर योद्धा संग्राम के लिए प्रस्तुत हैं। सूर्य के उदयकाल में ही उसकी कोमल किरणों के बारे में कोई धारणा नहीं बना लेनी चाहिए।' .१०. वाचालमौलिमाणिक्य ! , वाचालत्वं वथैव रे !। __ कि नाट्येत पुरोस्माकं , बहिणामिव केनचित् ? 'हे वाचालों के मुकुटमणि ! तुम्हारी वाचालता व्यर्थ है । क्या हमारे समक्ष कोई मयूर की भांति नाच सकता है ?' .. ६१. दाक्षिण्याद्देवपादानामनाक्षेप्यो भवान् मया। मा दैन्यं कुरु सैन्यस्य , स्वरं प्रक्रामतो युधे ॥. 'तुम स्वामी के अनुकूल हो इसलिए मैं तुम्हारा तिरस्कार नहीं करता । युद्ध में इच्छानुसार लड़ने वाली सेना में दीनता मत भरो।' १२. इत्युक्तोऽनिलवेगेन , स मन्त्री मौनमाचरत् । संलीनभ्रमराम्भोजराजीव रजनीमुखे ॥ . 'अनिलवेग के इस प्रकार कहने पर मंत्री वैसे ही मौन हो गया जैसे संध्याकाल में भ्रमरों से संयुक्त कमल-समूह शांत हो जाता है, मौन हो जाता है।' ६३. इत्थं विज्ञाय वीराणां , युद्धोद्धृतोत्सुकं मनः। जयश्रीनपुराणीव , नृपो वाद्यान्यवीवदत् ॥ 'इस प्रकार अपने वीर सुभटों का युद्ध के लिए अत्यन्त उत्सुक मन को जानकर बाहुबली ने विजयश्री के नूपुरों की भांति युद्ध के बाजे बजवा दिए।' ६४. अमुना कीत्तिसुधया , वयं शुचितमाः कृताः । तैनिःशङ्कस्तुतो दूराद् , दिग्मुखैमुखरैरिति ॥ १५. सर्वत्र रोदसी कुक्षिभरिभिर्ध्वजिनीभरैः। अनुद्र तः सुवर्णाद्रिरिव मन्दारभूरुहैः । ६६. छत्रचामरचारुश्रीहारकुण्डलमण्डितः। साक्षाच्छक इवोत्तीर्णस्तेजसाप्योजसा भुवम् ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'एकादश: सर्ग: " ६७. यात्रान्हि जिनमभ्यर्च्य भवानिव करीश्वरम् । श्वेतं मूर्त्तमिव श्रेयोऽध्यारुरोह विशां पतिः || - चतुभिः कलापकम् । ' इस बाहुबली ने अपनी कीर्ति-सुधा से हमको धवलित किया है - यह सोचकर वाद्य-ध्वनि से मुखर दिग्मुखों ने दूर से ही बाहुबली की निःशंक रूप से स्तुति की। जैसे मेरु पर्वत कल्पवृक्षों से अनुगत होता है वैसे ही सर्वत्र भूमी और आकाश को भरनेवाली सेना से अनुगत, छत्र, चामर तथा सुन्दर शोभास्पद हार और कुण्डल से अलंकृत तेज और ओज से भूमी पर साक्षात् इन्द्र की भांति अवतीर्ण महाराज बाहुबली यात्रा के दिन जिनेश्वर देव की अर्चा कर मूर्तिमान् श्रेय की भांति श्वेत हाथी पर उसी प्रकार बैठे जैसे आप (भरत) बैठे थे । ' £5. स्त्रीणामालोकनोत्कण्ठाकृतव्यालोलचक्षुषाम् । शतचन्द्रान् गवाक्षान् स, ततान वदनैदिने ॥ εε. ' देखने को उत्सुक तथा अभिप्राय से चपल चक्षुवाली स्त्रियों के वदनों से बाहुबली ने दिन में भी वातायनों को शतचन्द्र बना दिया ।' निर्ययौ नगरात्तूर्णं, कन्दरादिव केशरी । एकोप्यजेय एवायं सुरैरिति वितर्कितः ॥ " 'जैसे केशरीसिंह अपनी गुफा से बाहर निकलता है वैसे ही वह नगर से शीघ्र ही बाहर निकला । यह देख देवों ने यह वितर्कणा की कि यह अकेला भी अजेय है ।' १०० त्वं जेता विश्वविश्वस्य न त्वां जेष्यति कोऽपि च । " इत्यस्य शुभशंसोनि, शकुनान्यभवंस्ततः ॥ २२३ 'तुम संपूर्ण विश्व के विजेता हो । कोई भी तुम्हें जीत नहीं सकेगा' - इस प्रकार उनको अनेक शुभ सूचना वाले शकुन हुए । १०१. सैन्याश्वखुरतालोद्यत्स्थानेऽभूदन्तरा रजः । तेजो स मयाप्यस्य रविरित्यवहन् मुदम् ॥ " सेना के घोड़ों की खुरताल से उठती हुई रजें आकाश के अन्तराल में छा गईं । 'अब मैं इस बाहुबली का तेज सहन कर सकूंगा' – यह सोचकर सूर्य ने प्रसन्नता का अनुभव किया । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २२४ १०२. विद्याभृन्नर भिल्लेन्द्रसैन्यसंभारभारितः । खिन्नशेषाहिरित्यन्तर्दध्यौ शक्तोऽहमत्र न ॥ 'बाहुबली की विद्याधरेन्द्रों, नरेन्द्रों और भिल्लेन्द्रों की भरी-पूरी सेनाओं के भार से बोझिल बने हुए खिन्न शेषनाग ने मन में सोचा कि यह भार उठाने के लिए मैं समर्थ नहीं हूं।' १०३. अलंभूष्णुभुजस्थाम ! , बान्धवोऽभ्येति तेऽधुना। षट्खण्डाखण्डल ! स्वरं , मा प्रतीक्षस्व तत्क्षणम् ।। 'हे समर्थ भुजबल वाले ! हे षट्खंड के इन्द्र महाराज भरत ! आपका भाई अभी आ रहा है। आप उस क्षण की अधिक प्रतीक्षा न करें।' १०४. मम पृष्ठे स आयातस्तीक्ष्णांशोरिव वासरः । समीरस्येव पाथोदः , प्रयाणैरविलम्बितैः ॥ 'हे भारतेश ! वे अविलंबित प्रयाणों से मेरे पीछे-पीछे वैसे ही आ रहे हैं जैसे सूर्य के पीछे दिन और पवन के पीछे मेघ आता है।' १०५. इत्याकर्ण्य क्षितिपतिरयं चारवाचां प्रपञ्चं, दध्यावेवं प्रभवति पुरा यस्य पुण्योदयो द्राक् । मामोरगपतिपुरस्तस्य भावी जयोऽत्र, प्रोद्यत्कोत्तिप्रथिमकलनातीतशुभ्रांशुधाम्नः ॥ ' महाराज भरत ने अपने गुप्तचर के वाग-विस्तार को सुनकर मन में इस प्रकार सोचा'जिस पुरुष के आगे पुण्य का उदय चलता है, जिसके देव, असुर और मनुष्य सहायक हैं, जिसकी कोत्ति उन्नत है, जो विस्तृत तथा कलनातीत शुभ्रता से चन्द्रमा के समान है, वह शीघ्र ही विजय प्राप्त कर लेता है।' - इति चरोक्तिविन्यासवर्णनो नाम एकादशः सर्गः Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां सर्ग प्रतिप -. . युद्धोत्साह को उद्दीपित करने वाले वातावरण का निर्माण । श्लोक परिमाण छन्द उपजाति। लक्षण देखें, सर्ग २ का विवरण । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु - गुप्तचरों का संवाद सुनकर महाराज भरत गंभीर हो गए । उन्होंने अपने सामन्तों से युद्ध के विषय में चर्चाएं कीं, और उन्हें धैर्य रखने के लिए : प्रेरित किया । उन्होंने कहा - 'जिनमें तनिक भी कायरता हो वे यहां से चले जाएं । यद्यपि मेरी सेना बहुत विशाल है और बाहुबली की सेना छोटी है, किन्तु संग्राम में पराक्रमी सेना ही विजय प्राप्त करती है, छोटी बड़ी नहीं । जो आत्माभिमानी सुभट युद्धस्थल में सबसे पहले अपने प्राणों की आहुति देते हैं वे स्वामी के ऋण से उऋण हो जाते हैं । वे ही वीर सुभट संसार में यश प्राप्त करते हैं जिनके तीर हाथियों के कुंभस्थलों को भेदने में दक्ष होते हैं। छह खंडों को जीतकर जिस यश का मैंने संचय किया है, उसे आप धूमिल न कर डालें ।' तब सेनापति सुषेण ने आकर भरत से कहा - 'महाराज ! ये हजारों राजे और करोड़ों सुभट युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।' तत्पश्चात् सुषेण ने बाहर से आए हुए मालव, मगध, कुरु, जांगल आदि जनपदों के राजाओं का परिचय दिया और कहा - 'देव ! इसी प्रकार सीमान्तवासी किरात और हजारों देव आपके साथ हैं ।' महाराज भरत का उत्साह शतगुणित हो गया । उन्होंने कहा - 'जब तक मैं बाहुबली को नहीं जीत लूंगा तब तक मुझे शांति नहीं मिलेगी । उसके जीतने पर ही मेरा साम्राज्य मुझे संतुष्टि दे सकेगा ।' इतने में ही बाहुबली के दूत भरत के पास आकर बोले- 'प्रभो ! हमारे स्वामी जानना चाहते हैं कि रणभूमीका निश्चय कहां किया गया है ?' चक्रवर्त्ती भरत ने कहा - 'यहां पास में ही गंगा नदी है, उसी के तट पर हमारा युद्ध होगा । तुम्हारा स्वामी अपने देश की सीमा पर पड़ाव डाले । कल हम वहां मिलेंगे ।' ०० Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः १. इतीरितां चारगिरं निशम्य , सगौरवं सोऽथ गुरुपाणाम् । बमाण भूपान् सनयान्निदेशे , झुपस्थिते गौरवमाचरन्ति ॥ उक्त प्रकार से कथित गुप्तचर की वाणी को सुनकर चक्रवर्ती महाराज भरत ने नीतिज्ञ राजाओं से गौरवपूर्वक कहा कि आज्ञा प्राप्त होने पर नीतिज्ञ पुरुष गौरव का आचरण करते हैं। २. अवमि तस्यापि भवद्भुजानां , बलं क्षितीशा! मम दृष्टपूर्वम् । बलद्वयी संक्रमणात्मदर्शी , ममास्ति चित्तं हितमुद्दिशेत्तत् ॥ भरत ने कहा-'राजाओ ! मैं आपके और बाहुबली के भुजबल को जानता हूँ। मैंने उस पराक्रम को प्रत्यक्ष देखा है। मेरे मन रूपी कांच में दोनों पक्षों के बल का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है । वह चित्त हित का ही उपदेश दे रहा है।' ३. युष्माभिरेवारचि वैरिभङ्गः , पुरापि दिक्चक्रजये जयज्ञैः । . कूलङ्कषाणां हि कषन्ति कूलं , लहर्य एवाम्बुधरप्रवृद्धाः ॥ 'इससे पूर्व भी विजय को प्राप्त करने वाले आप लोगों ने ही दिशाओं के विजय-प्रसंग में शत्रुओं का नाश किया था। क्योंकि मेघ के बरसने से बढ़ी हुई लहरें ही नदियों के. तटों को तोड़ती हैं।' ४. रथन्ति भूपाः किल तत्र वीरा , धुरं धरन्ति स्थितिसेवितारः। विना प्रवीरान्न जयन्ति भूपा , यतो धुरं वोढमलं महोक्षाः ॥ 'युद्ध-स्थली में राजे रथ के समान और अनुशासित वीर योद्धा धुरा के समान होते हैं। १. महो क्षः-बड़ा बैल (महोक्षः स्यादुक्षतरो--अभि० ४।३२४) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् बिना वीर सुभटों के राजा युद्ध को जीत नहीं सकते। क्योंकि महान् बैल ही धुरा को वहन करने में समर्थ होते हैं, दूसरे नहीं।' ५. युद्धे कृतोद्योगविधौ क्षितीशे , भवन्ति वीराः प्रतिपक्षजित्यै। . साहाय्यमाधातुमलं हि वह्न, समीरणा एव पुरः सरन्ति ॥ 'जब राजा युद्ध के लिए प्रस्तुत होता है तब शत्रु पर विजय पाने के लिए वीर सुभट ही सहायता देने में समर्थ होते हैं। जैसे अग्नि के प्रज्वलन को सहायता देने वाला पवन ही आगे-आगे चलता है।' ६. भवासवा' भूग्रहणककामा , व्रजर्भटानामविलङ्घनीयाः । वन? माणामिव सानुमन्तो', भवन्ति विद्वेषिधराधिराजः ॥ ... . 'जो राजा शत्रुओं की भूमी को लेने के इच्छुक होते हैं वे अपने वीर सुभटों के समूहों के कारण शत्रु-राजाओं से अजेय बन जाते हैं, जैसे कि सघन वृक्षों वाले वनों से पर्वत अजेय बन जाते हैं।' ७. मुखं भटानामवलोक्य राजा , करोति युद्धं विहितारिदैन्यम् । ___ अम्भोधराम्भोभरदूरपूरानुगा भवेयुहि नदीप्रवाहाः ॥ 'राजा अपने वीर सुभटों के मुख को देखकर ही सत्रुओं को दीन बनाने वाला युद्ध लड़ता है। क्योंकि मेघ के पानी का दूरवर्ती पूर जब पीछे होता है तभी नदी का प्रवाह आगे बढ़ता है ?' ८. बलोत्कटं भूपमवाप्य युद्ध. , माद्यन्ति वीरा अपि पृष्ठलग्नाः । सारङ्गनेत्रावपुरेत्य किं न , तारुण्यलीलाः परिमादयन्ति ? 'युद्ध-स्थल में पराक्रमी राजा को पाकर अनुगामी वीर सुभट भी हर्षोत्फुल्ल हो जाते हैं। क्या सुन्दरियों के शरीर को पाकर यौवन की लीलाएं चारों ओर नहीं नाच उठती ?' महाभुजः संप्रति योद्धकामो , महाबलो बाहबली समेति । तत्सङ्गरोत्सङ्गमुपेयिवद्भिर्दैन्यं न नाट्य पुरतो भवद्भिः ॥ . १. भूवासव:--राजा । २. सानुमान् पर्वत (गोत्रोऽचलः सानुमान्-अभि० ४।६३) .. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः . , २२६ 'महान् पराक्रमी, महान् भुजाओं का धनी बाहुबली आज युद्ध करने के लिए आ रहा है-यह सोचकर उसके साथ युद्ध करने के इच्छक आप अपने समक्ष दीनता को न आने दें।' १०. सैन्यः समेता रचितारिदैन्यबन्धुर्मम श्वः सहसत्वरो' माम् । स्वःशैवलिन्योघ' इवाम्बुराशि , पाथीभरैः पातितपादपौधः॥ 'जैसे वृक्षों के समूह को धराशायी करने वाला तथा पानी से भरा-पूरा गंगा नदी का प्रवाह समुद्र में जा मिलता है वैसे ही मेरा भाई बाहुबली शत्रुओं को दीन बनाने वाली अपनी सेना के साथ कल शीघ्र ही मुझ से आ मिलेगा।' ११. बलोत्कटरेव भटैस्तदीयैश्चेतश्चमत्कारि तथा व्यधायि । जगज्जनानां न यथेतरेषां , हृदोवकाशं बलमश्नुतेऽतः॥ 'बाहुबली के अत्यन्त पराक्रमी भटों ने चित्त को चमत्कृत करने वाला ऐसा कार्य किया कि जगत् के दूसरे लोगों के पराक्रम के लिए हृदय में अवकाश ही नहीं रहा।' १२. करैरिवांशुर्मकरैरिवाब्धिहदैस्तटिन्योघ इवातिदुर्गः । ... तनूजलक्षैः परिवारितोयं , मामेति रोद्धं तमवच्छशाङ्कम् ॥ 'जैसे किरणों से सूर्य, मगरमच्छों से समुद्र और अथाह जलवाले नद से नदियां अत्यन्त दुर्गम होती हैं, वैसे ही यह बाहुबली अपने लाखों पुत्रों से परिवारित होकर मुझे रोकने के लिए आ रहा है, जैसे अन्धकार चन्द्रमा को रोकने के लिए आता है।' १३. · अपि प्रभूता ध्वजिनी मदीया , तनीयसश्चापि बलस्य तस्य । . रणे कञ्चित्समतां गमित्री , जयावहा वीरभुजा हि नान्यत् ॥ 'यद्यपि मेरी सेना बहुत विशाल है और उसकी सेना छोटी है, फिर भी संग्राम में । ज्यों-ज्यों समान हो जाएगी। पराक्रमी सेना ही विजयवती होती है, छोटी-बड़ी नहीं।' १४. ततो भटीभय भवद्भिराजि निर्व्याजमाधायि पुराऽधुनापि । विधीयतां वीरवसन्तसत्त्वं , सर्वत्र वः शाश्वतमायुगान्तात् ॥ १. सहसत्वरः-सत्वरेण सहित:-शीघ्र। २. स्वःशैवलिनी-गंगा। ३. आजिः-युद्ध (आस्कन्दनाजिः--अभि० ३।४६१) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० · भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'इसलिए पहले भी आप लोगों ने छल-कपट छोड़कर वीरता से युद्ध लड़े हैं और इस बार भी आप अपनी वीरता के वसन्त रूपी सत्त्व को सर्वत्र युगान्त पर्यन्त शाश्वत बना दें। १५. चलत्कृपाणाशनिसंयदब्दे , सरन्ति नासीरतया भटा ये। त एव राज्ञो हृदये वसन्त्यसाध्याः सुसाध्या रिपवो हि शक्तैः ॥ 'चलती हुई कृपाण रूपी बिजली वाले युद्ध रूपी मेघ में जो वीर सुभट आगे-आगे चलते हैं, वे ही अपने स्वामी-राजाओं के हृदय में स्थान पाते हैं। क्योंकि समर्थ योद्धा ही असाध्य शत्रुओं को सुसाध्य बनाते हैं।' १६. आयोधने मानधनाः क्षणेन , प्राणान पुरो ये तणवत्त्यजन्ति । . तेषां कृतज्ञा इति मानिनोऽमी , प्रभुः प्रशंसां स्वयमातनोति ॥ : 'जो आत्माभिमानी सुभट युद्धस्थल में सबसे पहले अपने प्राणों का तृणवत् बलिदान कर देते हैं, उनके प्रति-'ये स्वाभिमानी सुभट कृतज्ञ हो गए'–यों कहकर स्वयं स्वामी उनकी प्रशंसा करते हैं।' १७. कर्पूरपारी'प्रचयावदाता , तैरेव कोतिर्भुवनेऽर्जनीया।। करीन्द्रकुम्भस्थलशैलभेदप्रावीण्यभाजो विशिखा' यदीयाः॥ 'इस संसार में कपूरपात्र के प्रचय की भांति शुभ्र कीति का अर्जन वे ही लोग कर सकते हैं जिनके तीर हाथियों के कुंभस्थल रूपी पर्वतों को भेदने में प्रवीण होते हैं।' १८. यशःसुधासौधमनुत्तराभं , व्यधायि षट्खण्डजयेन भूपाः !। मया भवद्भिर्मलिनं न कार्य , निःश्वासधूमैर्व्यपहीनधैर्यैः ॥ 'राजाओ ! मैंने छह खण्डों को जीतकर यश से धवलित अनुत्तर आभा वाले सौध का निर्माण किया है। अब धैर्यहीन होकर आप निःश्वास धूम के द्वारा उसे मलिन न बनाएं ।' .. १. आयोधनं युद्ध (जन्यं युदायोधनम् --अभि० ३।४६०) २. पारी-पान (पारी स्यात् पानभाजनम्-अभि० ४।६०) ३. विशिखः-बाण (बाणे पृषत्कविशिखौ-अभि० ३।४४२) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः २३१ १६. प्रपिनासीर हयक्षुरामोद्धतं रजश्चुम्बति यच्छिरांसि। तैरेव कोतिर्मलिनीकृता द्राक् , पयोदवातैरिव दर्पणाभा । 'आगे चलनेवाली शत्रुओं की सेना के घोड़ों के खुरों से उठे हुए रजकण जिन सुभटों के शिरों पर आ गिरते हैं, वे ही कीति को शीघ्र मलिन कर डालते हैं जैसे कि मेघ की सीलनभरी हवा से दर्पण की आभा मलिन हो जाती है।' २०. तधूयमुद्यच्छथ संप्रहारं', कर्तुं त्रिलोकीजनताभिवन्द्यम् । वीरा यमाकर्ण्य धरन्ति शौर्य , कराः खरांशोरिव चण्डिमानम् ॥ 'आप त्रिलोकी जनता के द्वारा स्तुत्य उस युद्ध के लिए उद्यत हो जाएं, जिसकी गाथा सुनकर वीर योद्धाओं का पराक्रम सूर्य की किरणों की भांति प्रचण्ड हो जाता है।' २१. षाड्गुण्य नैपुण्यभरं भजन्तु , सर्वे धनुर्वेदमनुस्मरन्तु । भवन्तु खड्गाप्रविहस्त हस्ता, भटा ! भवन्तः श्रमयन्तु बाहून् । 'हे वीर सुभटो | आप छह गुणों-सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध (भेदनीति) और आश्रय-की निपुणता को धारण करें और सभी धनुर्वेद का अनुस्मरण करें। आप • १. प्रत्यर्थी- शत्रु (प्रत्यर्थ्यमित्रावभिमात्यराती-अभि० ३।३६३) २. नासीरं-आगे चलनेवाली सेना (नासीरं त्वग्रयानं स्यात्--अभि० ३।४६४) ३. संप्रहार:-- युद्ध (संग्रामाहवसंप्रहारसमरा:-अभि० ३।४६०) ४. षाड्गुण्य-राजनीति के छह गुण । वे ये हैं १. सन्धि-कर देना स्वीकार कर या उपहार आदि देकर शत्रुपक्ष से मेल करना । २. विग्रह-अपने राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में जाकर युद्ध, दाह आदि करते हुए विरोध करना। ३. यान-चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करना। ४. आसन-शत्रुपक्ष से युद्ध नहीं करते हुए अपने दुर्ग या सुरक्षित स्थान में चुपचाप बैठ जाना। ५. द्वैध–एक राजा के साथ सन्धिकर अन्यत्र यात्रा करना, अथवा दो बलवान् शत्रुनों में वचनमान से आत्मसमर्पण करते हुए दोनों पक्षों का (कभी एक पक्ष का कभी दूसरे 'पक्ष का) गुप्त रूप से आश्रय करना। ६. आश्रय-बलवान् शत्रु से युद्ध करने में स्वयं समर्थ नहीं होने पर किसी दूसरे अधिक बलवान् राजा का आश्रय करना। (अभिधान चिन्तामणि ३।३६६ पृ० १८०,१८१) ५. विहस्त:-व्याकुल (विहस्तव्याकुलो व्यग्रे-अभि० ३।३०) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् सब अपने हाथों को तलवार के अग्र भाग से व्याकुल कर दें और अपनी भुजाओं को अभ्यस्त करलें ।' २२. येषां यदूनं च तदर्थयध्वं हानिर्निधौ माणवके न तस्य । , यथाम्भसः प्रावृषि वारिवाहे, यथा मणेः शैवलिनीश्वरे च ॥ 'जिनके पास जो न्यून हो, उसकी वे प्रार्थना करें। जैसे वर्षाकाल के बादल में पानी की और समुद्र में रत्नों की कमी नहीं होती, वैसे ही माणवक निधि में किसी भी प्रार्थित वस्तु की कमी नहीं है ।' 1 २३. स्वसूनुसारङ्गदृशां मुखेषु मनांसि येषां निपतन्ति तेऽपि । द्रुतं निवर्तध्वमनन्यचित्तवतां जयश्रीः करसङ्गिनी हि ॥ "जिन सुभटों का मन अपने पुत्र और स्त्री के प्रति दौड़ रहा है, वे भी यहां से शीघ्र चले जाएं । क्योंकि विजयश्री उन्हीं को हस्तगत होती है जो अनन्यचित्त होते हैं— संग्राम के लिए एक चित्त होते हैं ।' २४. न कातरत्वादपि कम्पनीयं, क्षेत्रे कलेः क्षत्रिय भीमहक्के । तावद्धि दीप्रः किल शौर्य दीपो यावन्न धूयेत परास्त्रवातः ॥ 1 'जहां क्षत्रिय वीरों के भयंकर शब्द हो रहे हों वैसे रणस्थल में आप कायरता से कम्पित न हों क्योंकि पराक्रम का दीप तब तक ही प्रज्वलित रहता है जब तक कि वह शत्रुओं के अस्त्र रूपी पवन से कम्पित नहीं होता ।' २५. या कापि विद्या कुलवर्तनी वः, शक्तिश्च या काचन शक्तयोग्या । सा स्मरणीयात्वधुना भवद्भिस्तदेव शस्तं यदुपैति कृत्ये ॥ 'आपकी कुल परम्परागत जो कोई विद्या है तथा समर्थ व्यक्ति के योग्य जो कोई शक्ति है, आप आज उसका स्मरण करें। क्योंकि जो अवसर पर काम आता है, वही प्रशस्त होता है ।' २६. ईदृग् रणो नो ददृशे भवद्भिस्तत् सावधानाः समरे भवन्तु । यं हृदि क्रीडति यस्य नित्यं स एव धीरोऽत्र रणाचरिष्णुः ॥ , १. शस्तं - प्रशस्त, कल्याणकारक भद्र भद्रशस्तानि - अभि० १/८६ ) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः २३३ 'ऐसा युद्ध आपने पहले कभी नहीं देखा है इसलिए आप संग्राम में सावधान रहें। जिसके हृदय में धैर्य सदा क्रीड़ा करता रहता है, वही धीर व्यक्ति यहां रण में लड़ सकेगा।' २७. श्रीआदिदेवस्य तनूरुहत्वान्न विस्मयो बाहुबलेर्बले मे। भटास्तदीया मम सैन्यनीरनिधिं विलोक्याजदधते च धैर्यम् ॥ 'बाहुबली ऋषभ के पुत्र हैं, इसलिए मुझे उनके बल में कोई विस्मय नहीं है। उनके सुभट मेरे सैन्य रूपी समुद्र को देखकर धैर्य धारण करते हैं।' २८. ये धैर्यवन्तः पुरतः सरन्तु , तेऽत्यन्तमौदार्यगुणावदाताः। विशेद्धि यन्मानसकन्दरेषु , निरन्तरं शौर्यहरिः स शक्तः ॥ "जो धैर्यवान् हैं और औदार्य गुणों से अत्यन्त निर्मल हैं वे आगे चलें। जिसकी मन रूपी कन्दरा में शौर्य रूपी सिंह निरन्तर रहता है, वही शक्तिशाली होता है।' २६. रथाश्च वाहाश्च गजाश्च सर्वे , पदातयश्चापि भवन्तु सज्जाः । नृदेवविद्याधरकुञ्जरेषु , रणो न हीदृग् भविता जगत्याम् ॥ 'सभी रथ, घोड़े, हाथी और पदाति सैनिक सज्जित हो जाएं। इस संसार में विशिष्ट मनुष्यों, देवों और विद्याधरों में इस प्रकार का युद्ध कभी नहीं होगा।' ३०. सुषेणसैन्याधिपते ! स्वसैन्यं , विलोकय त्वं मम सन्नियोगात् । दोर्दण्डकण्ड तिरिहाप्यशेषा , भटै जेभ्यो हि निवारणीया ॥ 'सेनापति सुषेण ! तुम मेरी आज्ञा से अपनी सेना का निरीक्षण करो। सुभटों की भुजाओं में खाज चल रही है। उसका सम्पूर्ण निवारण इस रण में भुजाओं से ही करना होगा। ३१. कालं त्वियन्तं न मयाजिलीला, चक्रे स्वयं सापि करिष्यतेऽत्र । . __भानोरनूरुः पुरतो निहन्ति , तमस्तमं जेतुमलं न कोऽपि ॥ 'मैंने स्वयं इतने समय तक युद्धलीला नहीं की, किन्तु आज मुझे वह करनी होगी। सूर्य का सारथि सूर्य के आगे अन्धकार का नाश करता है किन्तु राहु को जीतने में सूर्य के सिवाय कोई समर्थ नहीं होता।' १. तमः-राहु (तमो राहुः सैहिकेयो–अभि० २।३५) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३२. सामन्तभूमन्त इमेप्यनेके , त्वया व्यजीयन्त यथा सुखेन । तथा न संभाव्यमिहानलस्य , जलेन शान्तिहि न वाडवाग्नेः॥ . 'इन अनेक सामन्तों और भूमन्तों को तुमने जैसे सुखपूर्वक जीत लिया है, वैसे ही यहां मत समझ लेना। क्योंकि अग्नि को जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु वडवानल जल से शान्त नहीं होता।' ३३. विश्वंभराचक्रजयो ममापि , तदेव साफल्यमवाप्स्यतीह। .. जेष्ये यदाऽहं बहलीक्षितीशं , वातो दुपातान न हि शैलपाती ॥ . . 'सारे भूमण्डल को जीतने की मेरी सफलता तब ही होगी जब मैं यहां बाहुबली को जीत लंगा। वृक्षों को उखाड़ने मात्र से पवन पर्वत को उखाड़ने वाला नहीं हो जाता।' ३४. कल्पान्तकालेयसहस्रभानोरिव प्रतापोस्य पताकिनीनाम् । दुरुत्सहस्तत्र विभावनीयश्छनायितुं को ध्वजिनीश ! तूर्णम् ॥ .. 'उस बाहुबली की सेनाओं का प्रताप प्रलयंकारी सूर्य की तरह अत्यन्त दुःसंह है। सेनापति ! उससे बचने के लिए छत्र कौन बनेगा- इसका तुम शीघ्र विचार करो।' .३५. इत्थं गिरं भारतवासवस्य , निशम्य स व्याहत सैन्यनाथः । किं देवदेवप्रणतांहिपद्मा ! , ऽद्यातङ्कशकुर्मनसाऽध्यरोपि? सेनापति सुषेण ने भरत चक्रवर्ती की वाणी सुनकर कहा-'इन्द्रों द्वारा प्रणत चरणकमल वाले स्वामिन् ! आज आपने अपने मन में भय का शल्य क्यों आरोपित कर रखा है ?' ३६. महीभृदुत्तंस ! मरुज्जयेऽपि', नासीद् वचोव्यक्तिरमदृशी ते । उत्पाटितानेकशिलोच्चयस्य , युगान्तवातस्य पुरो द्रुमाः किम् ? 'हे राजाओं के शिरोमणी भरत ! देवताओं पर विजय पाने के अवसर पर भी आपने ऐसी बातें नहीं कही थीं। जिस प्रलयंकारी पवन ने अनेक पर्वतों को उखाड़ फेंका है, उसके लिए वृक्षों को उखाड़ फेंकना कौनसी बड़ी बात है ?' ३७. तीर्थ त्वयाऽसाध्यत मागधादि , निःशङ्कचित्तेन धराधिराज !। ततः पुरस्ते किमयं क्षितीशः , को भारभृन्नागपतेः पुरस्तात् ? । १. मरुत्-देवता (गीर्वाणा मरुतोऽस्वप्नाः—अभि० २।३) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश: सर्ग: 'राजन् ! आपने निःशंक होकर मगध आदि तीर्थों को साधा है । अब आपके महाराज बाहुबली का अस्तित्व ही क्या है ? शेषनाग के समक्ष पृथ्वी के भार को वहन करने वाला दूसरा कौन हो सकता ?' ३८. 'महेन्द्र ! नमि आदि के क्या पर्वतों की पांखों को कुंठित होती है ?" " न नाम नम्यादिरणे महेन्द्र ! चित्तोन्नति स्ते सुरशैलतुङ्गन । कुण्ठोभवेत् कि हरि हस्तमुक्तदम्भोलि धारा गिरिपक्षहृत्यै ? ३६. श्रितस्त्वमेवाभ्यधिकोदयत्वाद्, गीर्वाणवृन्देरभिवन्द्यसत्त्वः । विश्राणनैरिभ्य इवाsतदीयैः, संपादितात्युन्नतिसन्निधानैः ॥ ४०. साथ युद्ध करने में आपका अहं मेरु की भांति ऊँचा रहा । काटने के लिए इन्द्र के हाथ से मुक्त वज्र की धारा कहीं 'अधिक भाग्यशाली होने के कारण अभिवन्दनीय पराक्रम वाले आप देवताओं द्वारा वैसे ही आश्रित हैं जैसे दान के द्वारा इभ्य । वे देवता आत्मीय न होते हुए भी उन्नति का सम्पादन करने में आपके निकटवर्ती रहते हैं ।' ४१. त्वमेव चक्री विजयी दिगन्तजेता सुरैः सेवित एव च त्वम् । तहि सामन्तजयाय तर्कः, करी प्रभुः किं व्रततीहृते न ? २३५ 'राजन् ! आप ही चक्रवर्ती हैं, विजेता हैं, दिगन्तों को जीतने वाले हैं और आप देवताओं द्वारा उपास्य हैं । ऐसी स्थिति में सामन्त को जीतने की बात ही क्या है ? क्या हाथी लता को उखाड़ने में समर्थ नहीं होता ?" . त्वामात्मतुल्यं गणयत्यजत्र, शक्रोऽपि भूशऋशिरोवतंस ! 1 चिन्तामणि कोपि जहाति हस्तात् कः पौरुषाद् रोषयते कृतान्तम् ? , 'हे राजाओं के मुकुट भरत ! इन्द्र भी आपको सदा अपने समान मानता है । क्या कोई चिन्तामणि रत्न को हाथ से गंवाता है ? क्या कोई अपने पौरुष से यमराज को पत करता है ?" १. चित्तोन्नतिः -- अहंकार ( मानश्चित्तोन्नतिः स्मयः - अभि० २।२३१ ) २. हरि:: - इन्द्र ( इन्द्रो हरिदु श्च्यवनोच्युताग्रजो - प्रभि० २२८३ ) ३. दम्भोलिः–— वज्र (दम्भोलिभिदुरं भिदुः – प्रभि० २।१४ ) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४२. दिगन्तगन्ता जगति त्वमेव , विभाव्यते नान्यतरश्च कश्चित् । - तेजस्विनां धूर्यतया प्रतीतो , होकः सहस्रद्युतिरेव देव ! ॥ "इस संसार में आप ही दिगन्तों का पार पाने वाले हैं। कोई दूसरा वैसा नहीं कर सकता । देव ! तेजस्वियों में प्रधानरूप से केवल एक सूर्य ही प्रतीत है, दूसरा कोई नहीं।' ४३. आयोधने द्वित्रिभटव्ययेऽपि , भङ्गोस्य सामन्तनृपस्य भावी । देदीप्यमाने किल दीपधाम्नि', स्वयं पतङ्गो विजुहोति देहम् ॥ ... 'इस युद्ध में अपने दो-तीन सुभटों के बलिदान से ही इस सामन्त-नृप बाहुबली का विनाश हो जाएगा। दीपक की देदीप्यमान लो में पतङ्गा स्वयं झंझापात कर अपमे शरीर की आहुति दे देता है।' ४४. कीर्तेरकीर्तेश्च महाभुजानां , रणक्षणे सङ्गतिमेति राजा। कलिन्दकन्या' ह्यपि जन्हु कन्या', व्यक्तिहि नीरेण भवेत्प्रयागे ॥ .. "युद्ध-क्षण में ही राजा महापराक्रमी योद्धाओं की कीत्ति या अकीत्ति की संगति को जान पाता है। क्योंकि प्रयाग में गंगा और यमुना की अभिव्यक्ति जल से ही होती है।' (गंगा का पानी श्वेत और यमुना का पानी नीला होता है।) ४५. अयं रणो वीरमनोरथश्च , समागतो मूर्त इव प्रमोवः । अत्रापि दैन्यं वितनोति कोपि , कामीव कान्ताधरबिम्बपाने । 'यह युद्ध वीरों के लिए मनोरथ है । यह मूर्त प्रमोद की तरह प्राप्त हुआ है। ऐसी स्थिति में भी यदि कोई दीनता दिखाता है तो वह वैसे ही निर्वीर्य है जैसे कोई कामुक व्यक्ति स्त्री के अधर बिम्ब का पान करने के लिए दीनता दिखाता है।' ४६. सहस्रशो भूमिभुजोप्यमी ते , भटास्त्वदीया नप ! कोटिशोऽमी। रणार्णवं दुस्तरमुत्तरीतुमिच्छन्ति दोर्दण्डतरण्ड काण्डः ॥ . १. दीपधामिन-दीपक में । २. कलिन्दकन्या-यमुना (अभि० ४।१४६) ३. जन्हुकन्या-गंगा (अभि० ४।१४७) २४. तरण्ड:-नौका (कोलो भेलस्तरण्डश्च–अभि० ३१५४३) . Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः .... २३७ 'राजन् ! ये हजारों राजे और ये करोड़ों सुभट आपके साथ हैं। वे अपनी भुजाओं रूपी नौकाओं से इस दुस्तर रण-समुद्र को तैरना चाहते हैं।' ४७. अवन्तिनाथोयमुदग्रतेजा , भवन्निदेशापितचित्तवत्तिः।। यस्य प्रतापज्वलनप्रतप्ता , धारागृहेष्वप्यरयस्तपन्ति ॥ 'यह प्रचण्ड तेजस्वी राजा अवन्ति देश का है। इसने आपकी आज्ञा में ही अपनी मनोवृत्तियों को समर्पित कर रखा है। इसकी प्रताप रूपी अग्नि से संतप्त शत्रु जलगहों में भी ताप का अनुभव करते हैं।' ४८. स्वप्नान्तरेपि द्विषतां ददाति , दृष्टोयमातङ्कमशङ्कचेताः । निःश्वासधूमैश्च पराङ्गनाभिः , सितापि' सौधालिरकारि नीला॥ 'जब शत्रु इस निर्भय राजा को 'स्वप्न में भी देख लेते हैं तो वे भयभीत हो जाते हैं। शत्रुओं की स्त्रियां इसको देखकर निःश्वास छोड़ने लग जाती हैं और तब निःश्वास के धुंएं से श्वेत प्रासाद की श्रेणी भी काली हो जाती है।' ४६. अयं पुनर्मागधभूमिपालो , विपक्षकालोऽग्रत एव तेऽस्ति । यस्योग्रसैन्यानि हयक्षुरामोद्धतै रजोभिः पिदधुदिनेन्द्रम् ॥ 'मगध देश का यह भूपाल आपके समक्ष ही खड़ा है । यह शत्रुओं के लिए मौत के समान है। इसकी उम्र सेनाओं ने अपने घोड़ों के खुरागों से उठे हुए रजःकणों से सूर्य को भी ढक दिया था।' ५०. स सिन्धुनाथः पुरतः स्थितस्ते , यन्नामसंसाध्वसपन्नगेन । ___ मूर्च्छन्ति दष्टाः किल भूमिपाला , न जाङ्गुलीकै रपि चेतनीयाः॥ 'आपके समक्ष सिन्धु देश का स्वामी स्थित है। इसके नाम रूपी भयानक सर्प द्वारा डसे.हुए राजे मूच्छित हो जाते हैं और वे विष-चिकित्सकों से भी सचेतन नहीं हो पाते।' १. धारागृहं--जलगृह । २. सितः-सफेद (श्वेतः श्येतः सितः शुक्ल:-अभि० ६।२८) ३. नीलः-काला (कालो नीलोऽसितः शितिः-अभि० ६।३३) ४. जाङ गुलिकः-विष-चिकित्सक (जाङ गुलिको विषभिषक्-अभि० ३।१३८) (जाङ गुलीकः इत्यपि). Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३८ : ५१. अयं कुरूणामधिपः पुरस्ते, रणे रिपूणां हि ददर्श पृष्ठम् । मुखं न यः पुष्करपुष्पवल्लीवदुन्नतोऽहीनभुजद्वयश्च ॥ " आपके सामने यह कुरु प्रदेशों का अधिपति स्थित है। यह पुष्कर की पुष्पवल्ली की भाँति उन्नत और उन्नत भुज-युगल वाला है । इसने रण क्षेत्र में शत्रुओं का मुख कभी - नहीं देखा, केवल उनकी पीठ ही देखी है ।' ५२. उदग्रबाहुद्विषदिन्दुराहुः स्थितः पुरस्तेऽधिपतिरूणाम् । स्वप्नेपि संग्रामरसातिरेकाद्, धनुर्धनुर्व्याहरतीति यश्च ॥ भरत बाहुबलि महाकाव्यम् " " आपके समक्ष यह मरुदेशों का स्वामी स्थित है। इसकी भुजाएं प्रचण्ड हैं और यह शत्रु रूपी चन्द्रमा के लिए राहु के समान है । युद्ध करने की अत्यन्त उत्कंठा के कारण यह स्वप्न में भी 'धनुष्य - धनुष्य' - यों बड़बड़ाता रहता है ।' ५३. सौराष्ट्रराष्ट्रस्य पतिः पुरोऽयं सेवाकरो यस्य करोवमेने । भूपालपंक्त्या न हृदीश्वरस्य वध्वेव रागातिशयं वहन्त्या ॥ 1 ५४. " आपके सामने यह सौराष्ट्र देश का राजा खड़ा है । दूसरे राजाओं ने इसके सेवा - परायण हाथों की कभी अवमानना नहीं की । जैसे अत्यन्त अनुरक्त स्त्री अपने पति के हाथ की अवमानना नहीं करती ।' ५५. 1 कोटि : सपादा तव नन्दनानां पुरः स्थितेयं भरताधिराज !। बुभुक्षिते वा हितभोजनाय प्रधावति स्वैरमतो रणाग्रम् ।। 'हे भरत भूपाल ! आपके समक्ष आपके सवा कोटि पुत्र स्थित हैं । जैसे भूखा व्यक्ति [ हितकारी भोजन के लिए दौड़ता है वैसे ही ये पुत्र स्वेच्छापूर्वक युद्ध के लिए दौड़ते हैं ।' अयं पुरः सूर्ययशाः सुतस्ते, गौरिप्रियस्येव गुहो बलाढ्यः । यदीयतापात् किल तारकाद्या, नेशुः प्रवृद्धात् समरोदयाद्रेः ॥ 'राजन् ! यह रहा आपका पुत्र सूर्ययशा । यह महादेव के पुत्र कार्तिकेय की भांति शक्ति- संपन्न है । इसके बढ़े हुए ताप से तारक आदि शत्रु समर रूपी उदयाचल से भाग - गए।' Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ द्वादशः सर्गः . ५६. शार्दूलमुख्या इतरेऽपि पुत्राः , पवित्रगोत्रा'स्तव सन्ति राजन् !। यदीयबाणासन'मुक्तबाणास्तीक्ष्णांशुतप्तं शमयन्ति विश्वम् । 'राजन् ! आपके पवित्र वंश वाले शार्दूल आदि दूसरे अनेक पुत्र हैं । धनुष्य की डोरी से छूटे हुए उनके बाण सूर्य से संतप्त विश्व को भी शान्त कर देते हैं।' ५७. विद्याधरेन्द्रास्त्वनवद्यविद्या , रणाय वैताढ्यगिरेः समेताः। सेवाकृते ते बहुशो विमानः , सुरा इवेन्द्रस्य ततोत्सवस्य । "आपकी सेवा करने के लिए पवित्र विद्याओं के ज्ञाता विद्याधरों के स्वामी अपने अनेक विमानों को लेकर युद्ध के लिए वैताढ्य गिरि से आए हुए हैं। जैसे विशाल उत्सव वाले इन्द्र के लिए देव आते हैं।' ५८. उदीच्यवर्धमहीभृतोऽपि , त्वामन्वयुस्ते समरोत्सवाय । सेवां यदीयां रचयन्ति नित्यं , संयोज्य पाणीस्त्रिदशा अपीह ॥ 'राजन् ! इस युद्धोत्सव में भाग लेने के लिए उत्तर क्षेत्रार्ध के राजे भी आपके पीछेपीछे आए हैं । देवता भी हाथ जोड़कर उन राजाओं की सदा सेवा करते हैं।' ५९. षटखण्डदेशान्तनिवासिनोऽमी' , एयः किराताः कृतपत्रिपाताः। भवन्तमुत्खातविपक्षवृक्षा , मदोत्कटं नागमिव द्विरेफाः ॥ 'ये छह खण्डों के सीमान्तवासी किरात आपके चरणों में अपने बाणों को न्योछावर कर आपके पास आए हुए हैं । जैसे भौंरें मदोन्मत्त हाथी को उखाड़ देते हैं, विचलित कर देते हैं, वैसे ही ये किरात भी शत्रु रूपी वृक्षों को उखाड़ देने वाले हैं।' - ६०. सहस्रशस्त्वां परिचर्ययन्ति , स्वाहाभुजः स्वीकृतशासनाश्च । तथापि ते तक्षशिलाक्षितीशजये विमर्शः किमकाण्डरूपः॥ 'हजारों देवता आपके अनुशासन को मान्यकर आपकी परिचर्या कर रहे हैं। फिर भी १. गोनं-वंश (गोवन्तु सन्तानोऽन्ववायोऽभिजनः कुलम्-अभि० ३।१६७) २. बाणासनं-घनुष्य की डोरी (शिळा बाणासनं द्रुणा-अभि० ३।४४०) ३. अमी एयु:-इत्यत्र 'असंधिरदसोमुमी'-अनेन सूत्रेणासंधिः । ४. स्वाहाभुक्-देव (स्वाहास्वधाक्रतुसुधाभुजः-अभि० २।२) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् आपके मन में बाहुबली के विजय का विमर्श होता है। क्या यह असामयिक बात नहीं है ?' ६१. प्रभो ! त्वदीयां समरस्यनीति , विद्मो वयं माणवकान्निधानात् । मणेः परीक्षामिव रत्नकारास्तत्राविदः सन्ति भटाश्च तस्य ॥ 'स्वामिन् ! हम आपकी रणनीति को माणवक निधान से वैसे ही जान लेते हैं जैसे जौहरी मणि की परीक्षा कर उसे जान लेता है । किन्तु बाहुबली के सुभट इन सारी चीजों को नहीं जानते।' ६२. निःसंशयेऽर्थे किमु संशयालु , क्रियेत चेतः क्षितिचक्रशक !। .. विश्वकनेत्रस्य विकर्तनस्य', का कौशिक स्येह गणेयताऽपि ॥. 'हे चक्रवत्तिन् ! आप असंदिग्ध अर्थ के प्रति अपने मन को इतना संशयशील क्यों बना लेते हैं ? विश्व के एकमात्र चक्षु सूर्य के समक्ष उलूक की क्या गणना हो सकती है ?' ६३. इति प्रगल्भां गिरमस्य राजाप्याकर्ण्य सैन्यप्रभवे शशंस । कि वर्ण्यते स्वीयबलं पुरो मे , नाहं परोक्षः खलु तस्य किञ्चित् ॥ 'सेनापति सुषेण की निपुणता भरी बातों को सुनकर महाराज भरत ने उसे कहा'तुम मेरे समक्ष अपनी सेना की क्या प्रशंसा कर रहे हो? मैं उससे किंचित् भी अजान नहीं हूँ।' ६४. त्वमेव सैन्ये सकलेऽग्रगामी , भव ध्वजिन्याः पतिरुद्धतो यत् । एनं पुरस्कृत्य नृपाश्च यूयं , मृधे प्रवर्तध्वमगा इवर्तुम् ॥ 'तुम ही सारी सेना के अग्रगामी बनो, क्योंकि तुम ही उसके प्रबल सेनापति हो । हे राजाओ ! तुम सभी इस (सुषेण) को आगे कर रण में प्रवर्तित हों, जैसे ऋतु के अनुसार वृक्ष प्रवर्तित होते हैं।' ६५. कृती जितेऽहं वसुधाधिराजेऽमुष्मिन् महासैन्यभरातिभीष्मे । षट्खण्डलक्ष्मीरपि मे तदेव , संतोषपोषाय मुहुर्भवित्री ॥ १. विकर्तन:-सूर्य (ग्रहाब्जिनीगोद्युपतिर्विकर्तन:-अभि० २।११) . २. कौशिकः-उलूक (कौशिकोलूकपेचका:-अभि० ४।३६०) ३. मृधं-युद्ध (संस्फोट: कलहो मृधं-- अभि० ३।४६०) ४. अगः-वृक्ष (वृक्षोऽग: शिखरी-अभि० ४।१८०) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः २४१ 'महान् सेनाओं के समूह- से अतिभीष्म इस बाहुबली को जीतने पर ही मैं कृती (निपुण) कहला सकूँगा। उसको जीत लेने पर ही छह खंडों का यह साम्राज्य मुझे संतुष्ट कर सकेगा, अन्यथा नहीं।' ६६. इत्थं गिरं व्याहरति क्षितीशे , निःस्वाननादाः पुरतः प्रसस्त्र । रजस्वलाश्चाप्यभवन् दिशो द्राग , भूभामिनी कम्पमपि व्यधाषीत् ॥ भरत चक्रवर्ती यों कह ही रहे थे कि इतने में ही युद्धवाद्यों के शब्द चारों ओर फैल गए। सारी दिशाएं शीघ्र ही रजस्वला हो गईं-रजों से व्याप्त हो गई और पथ्वी रूपी भामिनी कांपने लगी। '६७. ततो मुहूर्तेन रथाश्वनागपत्तिध्वनिः प्रादुरभूत् समन्तात् । ततः परं बाहुबलेनिदेशान्नरेन्द्रमागत्य चरास्तदोचुः॥ कुछ समय पश्चात् रथ, अश्व, हाथी और पैदल-इन चारों सेनाओं की ध्वनि चारों ओर से प्रगट हो गई। उसके बाद बाहुबली की आज्ञा से गुप्तचर भरत के पास आकर बोले ६८. अस्मन्मुखेन क्षितिराजराज ! , त्वां पृच्छतीति प्रभुरस्मदीयः। संकेतिता क्वापि रणस्य भूमिर्यत्रावयोः सङ्गम एष भावी ?, 'हे चक्रवत्तिन् ! हमारे स्वामी बाहुबली हमारे मुख से आपको यह पूछ रहे हैं कि क्या रणभूमी का कहीं निश्चय किया है, जहाँ कि हम दोनों-(भरत-बाहुबली) का यह संगम होगा?' ६९. अस्मक्षितीशः समराय राजन् ! , भटान् स्वकीयांस्त्वरते विशेषात् । महाबलाः.प्रस्तुतयुद्धकेलि , कर्तु यदुत्साहरसं धरन्ति । 'राजन् ! हमारे राजा बाहुबली अपने सुभटों को संग्राम के लिए विशेष रूप से त्वरित कर रहे हैं। उनके महान् पराक्रमी सुभट प्रस्तुत युद्ध-क्रीड़ा करने के लिए उत्साह-रस को धारण कर रहे हैं।' ७०. त्वं पश्य राजन् ! प्रभुरागतो नः , सैन्यरमेयः परिवारितोऽयम् । यदीयमारान्नमतीह किञ्चित् , सर्वसहा खेदभरं धरन्ती ।। १. सर्वसहा—पृथ्वी (सर्वसहा रत्नगर्भा-अभि० ४।३) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'राजन् ! आप देखें कि हमारा स्वामी बाहुबली अपनी अमेय सेनाओं से परिवृत होकर आ ही रहे हैं । उनके सैन्यभार के कारण खेद को धारण करती हुई पृथ्वी भी कुछ दबी जा रही है।' ७१. एतेषु विश्रान्तवचस्सु चक्री , शशंस तेभ्यः समरोद्धतेभ्यः। सुपर्वसिन्धु'हतीयमारात् , सा साक्षिणी नौ कलहस्य चेति ॥ उन दूतों के मौन हो जाने पर चक्रवर्ती भरत ने समर के लिए उद्धत उन गुप्तचरों से कहा-'यहां पास में ही गंगा नदी बह रही है। वही हम दोनों के युद्ध के लिए साक्षी होगी।' ७२. तत्रैष युष्मत्प्रभुरातनोतु , सेनानिवेशं विषयस्य सन्धौ। .. तत्राभ्युपेताहमपि प्रभाते , त्यक्ताऽवहित्थो भविता रणों नौ ॥ . 'तुम्हारा स्वामी वहां देश की सीमा पर अपनी सेना का पड़ाव डाले । मैं प्रातःकाल ही वहाँ आ पहुंचूंगा। वहां आमने-सामने हमारा युद्ध होगा।' ७३. एवं व्याहृत्य चारान् क्षितिपतिरतुलप्रोल्लसत्शौर्यधैर्यः, प्रोत्साह्य क्षोणिपालान् पुनरपि भरतः पूर्णपुण्योदयाढ्यः । प्रासादेऽभ्येत्य तीर्थेश्वरचरणसरोजन्मसेवां च कृत्वा, सायं संकेतितां तां प्रबलबलवृतोऽलंकरोतिस्म भूमिम् ॥ कमनीय शौर्य और धैर्य तथा पूर्ण पुण्योदय वाले महाराज भरत ने बाहुबली के गुप्तचरों को इस प्रकार कह, अपने राजाओं को पुनः प्रोत्साहित किया। उन्होंने ऋषभदेव के मंदिर में आकर ऋषभदेव के चरण-कमलों की उपासना की और उसी दिन सायंकाल के समय प्रबल सेनाओं से युक्त होकर संकेतित रणभूमी को अलंकृत किया। -इति रणोत्साहदीपनो नाम द्वादशः सर्गः १. सुपर्वसिन्धुः-गंगा। २. विषयः--देश (विषयस्तूपवर्तनम्-अभि० ४।१३) ३, त्यक्ता अवहित्था-गोपनं यत्र स, रण: (ऽवहित्थाजकारगोपनम्-अभि० २।२२८) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां सर्ग प्रतिपाधं-- बाहुबली का अपनी सेना के साथ संग्रामभूमी में आगमन । श्लोक परिमाण ६७ छन्द वंशस्थ। लक्षण-.. देखें, सर्ग १ का विवरण। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु युद्ध की बात सुनकर सुभट प्रफुल्लित हो गए। सभी सुभट अपनेअपने कार्यों में संलग्न हो गए। कुछ सुभट देवताओं से विजय की याचना. करने लगे। कुछ ने ऋषभ को याद किया, कुछ ने अग्नि में आहुतियां दीं और कुछ शुभ शकुन की प्रतीक्षा करने लगे। - महाराज बाहुबली भी युद्ध के लिए सज्जित होने लगे। उन्होंने युद्धोत्साह के रस से छलाछल, रोमांचित करने वाली और धैर्ययुक्त वाणी से अपने पराक्रमी पुत्रों, सुभटों और राजाओं को प्रेरणा दी। उन्होंने कहा-'आप लोगों ने अभी तक किसी, युद्ध में भाग नहीं लिया है इसलिए आप उसकी व्यूह रचनाओं को नहीं जानते । मेरे पूत्र भी युद्ध से अनजान हैं । अच्छा यही है कि मैं स्वयं भरत से लड़कर उसे जीतूं। भरत में शक्ति और चक्र का गर्व है। मैं उस गर्व को चकनाचूर कर डालूंगा। मेरी भुजाएं उसे पछाड़ देंगी।' यह सुनकर पुत्र सिंहरथ ने कहा-'इतने सारे पूत्रों और राजाओं के होते हए भी यदि आप स्वयं युद्ध में जाएं तो हमारे लिए लज्जा की बात होगी। हमें भी अपना पराक्रम दिखाने का अवसर दें।' पुत्रों की वाणी से बाहुबलो प्रसन्न हुए और सिंहरथ को सेनापति बना दिया। सुभटों ने रात को व्यवधान माना और वे सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगे। प्रभात हुआ। महाराज बाहुबली श्वेत वस्त्र पहन कर ऋषभ के चैत्य की ओर गए। भगवान की स्तुति की। स्तुति संपन्न कर वे चैत्य से बाहिर आए और आयुधों से सज्जित होकर भरत से पहले ही रणभूमी में आ पहुंचे। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. त्रयोदशः सर्गः • उपेत्य तौ विन्ध्यहिमाद्रिसन्निभौ परिस्फुरत्केतनकाननाञ्चिती । दिनात्ययेऽनुत्रिदशा पगातटं ततो निवेशं बलयोवितेनतुः ॥ , विन्ध्य और हिमालय पर्वत के सदृश तथा फहराती हुई ध्वजाओं रूपी कानन से युक्त बाहुबली और भरत — दोनों सायंकाल के समय गंगा के तट पर आये । वहाँ उन्होंने अपनी-अपनी सेनाओं का पड़ाव डाला । २. सुरासुरेन्द्राविव मत्तमत्सरी, दिनेशचन्द्राविव दीप्रतेजसा । न्यषीदतां स्वर्गनदीतटान्तिके, पताकिनी प्लावितभूतलाविमो ॥ ४. वे दोनों सुरेन्द्र और असुरेन्द्र की भाँति मत्त और मत्सरी तथा सूर्य और चन्द्रमा की भाँति प्रचण्ड तेजस्वी थे। दोनों अपनी-अपनी सेनाओं से भूतल को आप्लावित करते हुए गंगा नदी के तट के समीप ठहर गए । अवाचयेतामिति वेत्रपाणिभिः, स्वसैनिकांस्तौ भविता श्व आहवः । 'तदत्र सज्जा भवत प्रभूदितैर्गजाः प्रणुन्ना इव कर्कशाङ्कुशैः ॥ दोनों राजाओं ने अपने सैनिकों को प्रहरी के द्वारा यह कहलाया कि कल युद्ध प्रारम्भ होने वाला है, अत: सब सैनिक स्वामी की आज्ञा से सज्जित हो जाएँ, जैसे कर्कश अंकुश से प्रेरित हाथी युद्ध के लिए तैयार होते हैं । गिरं मटा वेत्रभृतां निपीय ते, मुदं परां प्रापुरिति स्वचेतसि । उपस्थितो नः समरोत्सवश्चिराद्, रथाङ्गनाम्नामिव भारकरोदयः ॥ प्रहरियों से युद्ध की बात सुनकर वे सभी सुभट मन में यह सोचकर बहुत प्रसन्न हुए कि आज यह युद्धोत्सव हमें चिरकाल से प्राप्त हुआ है जैसे चकवों के लिए सूर्य का उदय । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५. प्रसह्य केचित् कुलदेवतामगुः , प्रसूनगोशीर्षफलाकृता'ञ्चिताः । सुता इवाम्बां समिते प्रयोजने , स्मरन्ति चार्चन्ति हि नाकवासिनः॥ कुछ सुभट फूल, गोशीर्षचन्दन और फल की सज्जा से युक्त होकर शीघ्र ही अपने कुलदेवता के पास गए। जैसे किसी प्रयोजन के उपस्थित होने पर पुत्र अपनी माँ की स्मृति और पूजा करते हैं वैसे ही कार्यवश व्यक्ति देवताओं की स्मृति और पूजा करते हैं। ६. पुरः सुरं केऽपि जयं ययाचिरे , व्यधुश्च केप्यायुधचर्चनं भटाः । निजान्वयो पेतमधुर्जपञ्च के , हयस्य नीराजन'मादधुश्च के ॥ कुछ सुभटों ने देवताओं के आगे विजय की याचना की और कुछ ने अपने अस्त्रों की पूजा की। कुछ सुभट अपने-अपने वंशगत जाप करने लगे और कुछ ने घोड़ों का नीराजन-युद्धपूर्वीय पूजन किया। ७. युगादिदेवं हृदि केपि संदधुर्जयावहान् केपि सुरांश्च सस्मरुः । हुति च केपि ज्वलने व्यधुस्तरां , शकुन्तवाचं जगहुश्च केचन ॥ कुछ ने ऋषभदेव को हृदय में धारण किया; कुछ ने जयप्रदान करने वाले देवों का स्मरण किया; कुछ ने अग्नि में आहुतियाँ दी और कुछ ने शकुन रूप में पक्षियों की वाणी को ग्रहण किया। क. ततः परं तक्षशिलाक्षितीश्वरो , रणं विनिश्चित्य निशामुखे नृपान् । अजूहवद् वेत्रिगिरा च नन्दनान्नितान्तवासी विनयो गुणानिव ॥ उसके बाद तक्षशिला के स्वामी बाहुबली ने युद्ध का निश्चय कर सायंकाल ही प्रहरी को भेजकर राजाओं और अपने पुत्रों को बुला भेजा। जैसे निरन्तर पास में रहने वाला विनय गुणों को आमन्त्रित करता है। उवाच तेभ्यस्त्विति धैर्यमेदुरं , वचोऽनुजः श्रीभरतस्य भूपतेः । विलोक्य षट्खण्डपतेर्बलं महन्नृपा ! भवद्भिर्न हि कम्प्यमाहवे ॥ महाराज भरत के अनुज बाहुबली ने अति धीर और स्नेहित वाणी में उनको सम्बोधित १. आकृत:-सज्जित । २. अन्वयः-वंश (अन्वयो जननं वंशः- अभि० ३।१६७) ३. नीराजनं-युद्धपूर्वीय पूजन । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः २४७ कर कहा-'राजाओ ! आप लोग चक्रवर्ती की महान् सेना को देखकर युद्ध-क्षेत्र में कम्पित मत हो जाना। १०. महारणोऽधर एष दुर्गमश्चरिष्णुकण्ठीरवनादभीषणः। समुच्छलच्चक्रदवानलज्वलत्प्रभाप्रतप्ताखिलवीरभूरुहः ॥ 'यह भरत महान् रण रूपी पर्वत के समान है। यह दुर्गम और चारों ओर गूंजनेवाले सिंहनादों से भीषण है। इसने उछलती हुई चक्र की ज्वालाओं की तप्त प्रभा से सम्पूर्ण वीर सुभट रूपी वृक्षों को संतप्त कर डाला है।' ११. अयं समादाय बलं त्वमदृशं , समागतो योधयितुं प्रसह्य माम् । ततो न हेया सहचारिधीरता , जयः कलौ धैर्यवता हि सम्भवेत् ॥ 'यह भरत इस प्रकार की सेना को लेकर युद्ध करने के लिए सहसा मेरे सामने आ पहुँचा है । इसलिए हमें अपने सहचारी धैर्य को नहीं खोना है। क्योंकि युद्ध में जय उन्हें ही प्राप्त होती है जो धैर्यशाली होते हैं।' १२. भटास्तदीयाः कलिकर्मकर्मठा , भवद्भिरालोकि रणो न कुत्रचित् । . रणप्रवृत्तिह दयङ्गमा यतो , भवेद् दविष्ठव' न चात्मवर्तिनी ॥ 'भरत के सुभट युद्ध करने में कर्मठ हैं। आपने कहीं युद्ध देखा नहीं है। क्योंकि युद्ध की प्रवृत्ति दूसरे के साथ लड़ने से ही हृदयंगम होती है, अपने आप हृदयंगम नहीं होती।' १३. सुलोचनानां मुखमेव मोहने , न सङ्गरे वीरमुखं व्यलोक्यत । · भदा ! भवन्तः कुचकुम्भदिनः , करीन्द्रकुम्भस्थलपातिनो न वा ॥ 'सुभटो ! आपने रति-काल में स्त्रियों का मुख ही देखा है किन्तु युद्ध में वीरों का मुख नहीं देखा । आप सब स्त्रियों के स्तन रूपी कलशों का मर्दन करने वाले हैं, किन्तु हाथियों के कुम्भस्थल का मर्दन करने वाले नहीं हैं ।' १४. सुता मदीया अपि च स्तनन्धया , विदन्ति नो सङ्गरभूमिचारिताम् । .. अमीभिराप्यो विजयः कथं कलौ , खपुष्पवत् प्रौढिमतां हि सिद्धयः । 'मेरे पुत्र भी छोटे हैं। वे युद्ध-भूमी के आचरण को नहीं जानते । वे युद्ध में आकाश-कुसुम १. दविष्ठा-दूरस्थिता-अपरसंबद्धेति तात्पर्यम् । २. प्रौढिमान्-उद्यमशील (प्रौढिरुद्योगः कियदेतिका-अभि० २।२१४) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् की भाँति विजय को कैसे पा सकते हैं ? क्योकि सफलता उनको मिलती है जो उद्यमशील होते हैं।' १५. ततोहमेकोऽपि बलोत्कटं त्वम , प्रश्यन श्रयेयं विजयं रणाङ्गणे। प्रदीप एकोऽपि तमो न हन्ति किं , घनाञ्जनाभं वसतेः समन्ततः ? 'इसलिए इस रण-भूमी में पराक्रमी भरत को मैं अकेला ही नष्ट कर विजय पा लूंगा।' क्या अकेला दीपक घर में चारों ओर छाये हुए, अंजन की आभा वाले, सघन अंधकार को नष्ट नहीं कर देता ?' १६. पुरो मम स्थाष्णुरयं बलस्मयाद् , युगादिदेवस्य सुतत्वतः पुनः । .. __ युधि प्रवीराः किमु पैत्रिकं कुलं , मनागपीह त्रपयन्ति भङ्गतः ? - . . 'यह भरत अपनी शक्ति के गर्व से तथा ऋषभदेव के पुत्र होने के कारणं युद्ध में मेरे सामने टिका रह सकेगा । क्या कोई वीर पुरुष युद्ध में अपने आपको अस्थिर कर अपने पत्रिक कुल को किंचित् भी लज्जित करता है ? कभी नहीं। १७. अमुष्य चक्रं विबुधैरधिष्ठितं , पराक्रमेणव , भुजद्वयञ्च मे । द्वयोरपि व्यक्तिरनीकसङ्गमे , भविष्यति व्यक्तधियोरिवागमे ॥ 'भरत का चक्र देवताओं द्वारा अधिष्ठित है और मेरा बाहु-युगल पराक्रम से अधिष्ठित है । संग्राम में जब हमारा संगम होगा तब दोनों की अभिव्यक्ति होगी, जैसे दो विद्वान् व्यक्तियों की अभिव्यक्ति शास्त्रार्थ में होती है।' १८. महत्तरस्यापि घटस्य संस्थितिर्भवेल्लघोरश्मन एव निश्चयात् । तथा मदेव क्षयमाप्स्यति ध्रुवं , नृपोयमुच्चैर्भवितव्यतैव हि ।। 'बड़े से बड़े घड़े का विनाश एक छोटे से कंकर से निश्चित रूप से हो जाता है । इसी प्रकार महाराज भरत भी निश्चित रूप से मेरे से विनाश को प्राप्त होगा। यह कोई बड़ी भवितव्यता ही है।' १६. अतोनुजानीत रणाय मां नपा ! , हृदापि नो संशयनीयमञ्जसा । . अयं ससैन्योपि समेतु मे पुरः , समुत्सहे बाहुपरिच्छदोप्यहम् ॥ . 'राजाओं ! इसीलिए आप मुझे रण में जाने की शीघ्र अनुज्ञा दें। आप अपने हृदय में Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः २४६ संशय को स्थान न दें । भरत अपनी सेना के साथ मेरे सामने भले ही आएँ, मैं उसे अपनी इन भुजाओं के परिवार से ही सहन कर लूंगा ।' २०. इस प्रकार बाहुबली ने युद्धोत्साह के रस से छलाछल, रोमांचित करनेवाली और प्रचण्ड धैर्य से युक्त वाणी द्वारा अपने पुत्र महारथ और सिंहरथ को युद्ध के लिए प्रेरित किया । पिता की वाणी सुन अत्यन्त विस्मित होकर सिंहरथ ने कहा २१. २२. अथाहवोत्साह र सोच्छलच्छिरोरुहप्ररूढोद्धतधैर्यवर्यया । महारथ: सिंहरथः पितुगिरा, त्वितीरितो व्याहरतिस्म सस्मयम् ॥ 'पिता जी ! आपने यह उचित नहीं कहा । आपके समक्ष आपके अनेक पुत्र युद्ध के लिए तैयार हैं। शत्रुओं के कवचों का हरण करनेवाले ये भूपाल आपके सामने बैठे हैं । युद्ध के लिए ये केवल आपकी ही आज्ञा चाहते हैं । २३. , इदं भवद्भिर्न हि युक्तमीरितं यतोप्यनेके तनयास्तवाग्रतः । अमी स्थिता वहराः क्षितिश्वरा, रणाय वांछन्ति तवैव शासनम् ॥ 'देव ! आपकी ये दोनों भुजायें इन्द्र को जीतने में प्रसिद्ध हैं, फिर मनुष्य की बात ही क्या ? इन पुत्रों के होते हुए भी यदि पिता स्वयं युद्ध में जाए तो क्या यह हमारे लिए लज्जास्पद बात नहीं है ? २४. विदित्वरी देव ! भवद्भुजद्वयी, जयाय जिष्णोरपि नुश्च' का कथा । अमीषु स्वङ्गषु यत् पिता, स्वयं विगृह्णाति किमु हिये न तत् ? क्षितीश्वरे पृष्ठमधिष्ठिते भटा, रणागतान् यच्च जयन्ति विद्विषः । प्रभो महत्त्वाय तदेव सांप्रतं, दुरुत्तरोम्भोनिधिरूमभिर्यतः ॥ 'राजा द्वारा पीठ थपथपाए जाने पर वे सुभट युद्ध में आये हुए शत्रु- सुभटों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । स्वामी के महत्त्व के लिए यही उचित है। क्योंकि ऊर्मियों के कारण ही समुद्र दुरुत्तर होता है ।' विलोकतां नः समरं तथाविधं, पिता स्वचित्ते च बिभर्तु संमदम् । यहा' वैरिबलापनोदिनः स एव तातो जगतीह कीर्तिमान् ॥ , १. नुः - मनुष्यस्य । २. उद्वहः - पुत्र ( उद्वहोङ्गात्मजः सूनुः - अभि० ३।२०६ ) Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् "पिताश्री ! आप हमारे उस प्रकार के युद्ध को देखें और अपने मन में प्रसन्न रहें। जिस पिता के पुत्र शत्रुओं की सेना को भगा देने में समर्थ होते हैं, वही पिता इस संसार में कीतिमान होता है।' २५. अपेत तातस्तनुजैरकिञ्चनैः , पितामहः श्रीवषभध्वजोपि नः । युयुत्सवोऽतस्तनुजाश्च भूभुजो , भवन्निदेशात् प्रसरन्तु संयते । 'निर्वीर्य पुत्रों से हमारे पिता आप और हमारे पितामह ऋषभदेव भी लज्जित होंगे। इसलिए हम और ये सारे राजा युद्ध करने के इच्छुक हैं । आपकी आज्ञा, से ये युद्ध के लिए प्रसरण करें।' २६. कृतं स्वनामापि न येन विश्रुतं , भुवस्तले जीवति वाऽनुपद्रवम् । ... स एव पश्चात् पितुरेष किं जनः , करिष्यति ह्यात्मभुवः पितुर्मुदे ॥ . 'जो पुत्र अपने पिता की जीवित अवस्था में ही अपने नाम को निर्विघ्न रूप से विश्रुत नहीं कर देता, वह पिता के मर जाने पर क्या करेगा? क्योंकि पुत्र ही पिता के लिए आनन्ददाता होते हैं।' २७. यदा समेता समरे तवाग्रजस्तदेव तातेन रणो विधित्स्यते । द्वयोः समानत्वमवाप्य सङ्गरे , मनोजयश्रीरपि संशयेत हि ॥ 'जब आपके बड़े भाई युद्ध-स्थल में आयें, उसी समय आप उनके साथ लड़ें। युद्ध में दोनों की समानता देखकर मन रूपी विजयलक्ष्मी भी संशय में पड़ जाएगी।' २८. ततोऽनुमन्यस्व रणाय भूभुजो , निजांस्तनजांश्च परं निषिध्य मा। कथं सुता बाहुबलेर्बलोत्कटा , भवन्ति नो वाचमिति श्रयेम यत् ॥ "इसलिए आप राजाओं और अपने पुत्रों को रण के लिए प्रस्थान करने की आज्ञा दें। परन्तु आप निषेध न करें। अन्यथा हमें यह सुनने को मिलेगा कि बाहुबली के पुत्र पराक्रमी नहीं हैं।' २६. इ । णि स्वरमुदात्तविक्रमे , प्रसादमाधत्त नृपो दृशाङ्गजे । नृपाः प्रसीदन्ति दृशैव नो गिरा , विदुर्दशं येऽत्र त एव वाग्मिनः । पुत्रों का उदात्त पराक्रम और हर्षोत्फुल्ल वाणी को सुनकर बाहुबली का मन प्रसन्नता १. विधूच्–संराद्धौ इति धातोः तुबादेः मध्यमपुरुषस्य एकवचनम्। . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः २५१ से भर गया। उन्होंने प्रेमभरी आँखों से पुत्रों को देखा। राजा आँखों से ही प्रसन्नता व्यक्त करते हैं, वाणी से नहीं। जो राजाओं की आँखों को पढ़ना जानते हैं, वे ही वाक्पटु होते हैं। ३०. अथ प्रगल्भं नपतिनिजात्मजं , तमेव सेनाधिपति चकार सः। य एव नासीरतया प्रवर्तते , स एव धुर्यो भवति प्रयोजने ॥ तब बाहुबली ने अपने प्रतिभा सम्पन्न उस पुत्र (सिंहरथ) को ही सेनापति बना दिया। जो पुरुष अग्रणी होकर प्रवृत्त होता है वही, प्रयोजन उपस्थित होने पर प्रमुख बन जाता है, नेता बन जाता है। ३१. अमुं चमूनाथमवाप्य सैनिका , मुदं परां प्रापुरुदग्रतेजसम् । __ महान्धकारे रजनीमुखे जनाः, करे सदीपे न मुदं वहन्ति के ? उस प्रचण्ड तेजस्वी सेनापति को पाकर सारे सैनिक बहुत प्रसन्न हुए। ऐसे कौन व्यक्ति होंगे जो सघन अन्धकार वाली रात्री में दीपक वाले हाथ को पाकर प्रसन्न न होते हों ? ३२. अमंसत श्रीबहलीक्षितीशितुर्भटास्तदौत्सुक्यरसात् कलेरिति । युधो व्यवायो' रजनी यतो हि नो , रविं विननां न हि कोप्यपास्यति ॥ युद्ध करने की अत्यन्त उत्सुकता के कारण बाहुबली के सुभटों ने यह माना कि यह रात हमारे युद्ध के लिए विघ्न हो रही है। सूर्य के बिना इसे कोई भी दूर नहीं कर पायेगा। . ३३. भविष्यति श्वः समरो नरेशितुनरा वदन्तीति निशम्य कैश्चन । किमद्य नो युद्धयत एवमूहितं , रताहवौ मोदयुतौ हि भाविनौ ॥ राजा के लोग यह कह रहे हैं कि 'कल युद्ध होगा।' यह सुनकर कुछ सुभटों ने यह तर्कणा की कि क्या आज युद्ध नहीं होगा ? युद्ध में रत होने पर ही वे दोनों भाई (महारथ और सिंहरथ) मोदयुक्त होंगे। ३४. मधुव्रतवातसहोदरं तमः , ससार सर्वत्र दृशीव कज्जलम् । ... रुषो रजन्यामिति दोष्मतां पुनः , प्रसस्र रद्यापि कियत्यसौ तता। १. नासीरतया–अग्रगामितया। २. व्यवायः-विघ्न (विघ्नेन्तरायप्रत्यहव्यवाया:-अभि० ६।१४५) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् जैसे आंखों में कज्जल व्याप्त होता है, वैसे ही रात्री में सर्वत्र भौंरों के समूह जैसा सघन काला अन्धकार चारों ओर फैल गया। यह देखकर भूज-पराक्रमी सुभटों का रात्री के प्रति रोष उभर आया । उन्होंने सोचा-'अभी भी यह रात कितनी लम्बी है ?' ३५. तमो निरस्यत्सहसा प्रभाभर विलोक्य वीराः समरोत्सुकारततः। परस्परामचरिति प्रभाकरोऽभ्युदेति किं वाऽयमुदेति चन्द्रमाः? प्रभा के समूह से सहसा अन्धकार नष्ट हो गया। यह देखकर संग्राम के लिए उत्सुक वीर सुभटों ने परस्पर यह तर्कणा की कि क्या सूर्य उदित हो रहा है या चन्द्रमा ? .' ३६. शशाङ्ककान्तेन समं मिलन्त्यसौ , विराममायाति न कि विभावरी। तमिस्रकास्तूरिकयक्षकर्दम'क्षयान् मृगाक्षी न रते हि तुष्यति ॥ अपने पति चन्द्रमा के साथ संगम करती हुई यह रात्री विराम क्यों नहीं लेती ? क्योंकि काली कस्तूरी के मिश्रण से बने हुए सुगन्धित लेप के क्षीण हो जाने पर सुन्दरी . रति-काल में संतुष्ट नहीं होती। ३७. इमा नलिन्यो विनिमिल्य लोचने , निशि प्रसुप्तास्तरणेवियोगतः । अलोकयन्त्यः सकलं निशाकरं , रुचिहि भिन्ना मनसो जगत्त्रये ॥ ये कमलिनियाँ सूर्य के वियोग से आँखें मूंदकर रात्री में सो रही हैं । ये पूर्ण चन्द्रमा को भी नहीं देख पा रही हैं। क्योंकि तीनों जगत् में प्राणियों की मानसिक रुचि भिन्नभिन्न होती है। ३८. रथाङ्गनाम्नोः सुरसिन्धुसकते' , नितान्तभेदाद् वसतोः पृथक् पृथक् । वियोगदीनैरभिषङ्गसङ्गिभिर्वचोभिरेषा क्षयमाप नो निशा ॥ चक्रवाक पक्षी रात्री काल में अपनी प्रियाओं से नितान्त अलगाव की स्थिति के कारण गंगा नदी के पुलिन में अलग-अलग रह रहे हैं। यह रात्री वियोग से अत्यन्त दीन बने हुए इन चक्रवाकों की वाणी से भी द्रवित होकर पूरी नहीं हो रही है। ३६. शशाङ्क ! चित्रं परिलोलतारकं , नभःश्रियो वीक्ष्य मुखं समन्ततः। रथाङ्गनाम्नां मिथुनानि लेभिरे , वियोगमेवं रतये निशा न तत् ॥ १. यक्ष कर्दमः-कपूर, अगरु, कंकोल, कस्तूरी और चन्दन को मिश्रित कर बनाया गया सुगन्धित लेप (अभि० ३।३०३) २. सकतम्-पुलिन (पुलिनं तज्जलोज्झितं । सैकतञ्च-अभि० ४।१४४) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ त्रयोदशः सर्गः 'हे चन्द्र ! आकाश रूपी लक्ष्मी का ताराओं से चपल और विचित्र मुंह को चारों ओर से देखकर चक्रवाकों के युगल वियुक्त हो गए। इसलिए रात्री आनन्ददायी नहीं है।' ४०. अयं बलाद् बाहुबलिः क्षितीश्वरो , युयुत्सुरादास्यति मामकं रथम् । इतीव साशङ्कतया गभस्तिमा नुदेति नाद्यापि न याति यामिनी ॥ 'युद्ध के इच्छुक महाराज बाहुबली मेरे रथ को बलात् ग्रहण न कर लें'-इस आशंका से सूर्य अभी भी उदित नहीं हो रहा है और रात नहीं बीत रही है। ४१. इयं त्रियामेति मता तमस्विनी , वदन्ति यच्छास्त्रविदस्तदन्यथा । अभूदियं त्वद्य सहस्रयामजुक् , युयुत्सवस्तेऽन्तरिति व्यतर्कयत् ॥ 'शास्त्रकार यह मानते और कहते हैं कि रात त्रियामा (तीन यामों वाली) होती है। किन्तु यह बात अन्यथा हो रही है। यह तो आज हजारों यामों वाली बन गई हैयोद्धाओं ने मन में ऐसी वितर्कणा की। ४२. महाहवौत्सुक्यभृतां तरस्विनां , सुधावदेषां भवतिस्म सङ्गरः । ___ततस्तदीयापि बभूव तादृशी , प्रवृत्तिरिष्टं हि मनोविनोदकृत् ॥ महान युद्ध की उत्सूकता से भरे उन पराक्रमी सुभटों के लिए युद्ध अमृत की भांति था। उन सुभटों की प्रवृत्ति भी वैसी ही हो गई। क्योंकि इष्ट प्रवृत्ति मन का विनोद करने वाली होती है । ४३. इतीरिणः केचन संलयान्तरे , मम क्व वर्मास्त्रकलापवाजिनः । समुद्यता योद्धमलं निवारिता , बहुस्त्रियामेत्यनुशस्य चानुगैः॥ 'मेरा कवच, अस्त्र, तरकस और घोड़ा कहां है-इस प्रकार वितर्कणा करते हुए कुछ सुभट नींद में ही युद्ध करने के लिए उद्यत हो गये। तब उनके अनुगामियों ने यह कहकर उन्हें रोक दिया कि अभी रात बहुत बाकी है। ४४. रविः किमद्यापि न हन्ति शर्वरी , कथं न शीतांशुरुपत्यदृश्यताम् ? विशः प्ररुष्टा इव नो वदन्त्यमः , कथं विरावैरिति केचिदब्र वन् । १. युयुत्सुः-योवृमिच्छुः । २. गभस्तिमान्–सूर्य । .. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् कुछ सुभटों ने यह कहा-'सूर्य अब तक भी रात को पूरी क्यों नहीं करता ? चांद आँखों से ओझल क्यों नहीं हो जाता ? रूठे हुए व्यक्तियों की भाँति ये दिशायें पक्षिय .. के कलरव से मुखरित क्यों नहीं हो रही हैं ?' ४५. इति क्रमाद् युद्धरसाकुलर्भटः , प्रभापितेव क्षणदा क्षयं गता। ततः शशाङ्कोपि निलीनवान् क्वचिद् , वधूवियोगे विधुरीभवेन्न कः ? इस प्रकार युद्ध के रस से आकुल हुए सुभटों द्वारा मानों डरी हुई रात क्रमशः पूरी हो गई। उसके बाद चाँद भी कहीं विलीन हो गया। पत्नी के वियोग में कौन पुरुष विधुर नहीं होता? ४६. निमीलिताक्षा हि कुमद्वतीततिस्तदा वियोगाच्छशिनोष्यजायत। .. अयं विवस्वान्न विलोक्य एव मे , किमत्र सत्यन्यतरावलोकिनी ?... चन्द्रमा के वियोग से कुमुदिनी की श्रेणी ने अपनी आँखें मूंद लीं, वह सिकुड़ गई। उसने सोचा-'मैं इस सूर्य को देखू ही नहीं। क्योंकि जो पर-पुरुष को देखती है, वह कैसी सती? ४७. करीन्द्रकुम्भप्रतिमेयमानिनीस्तनद्वयाघट्टनमन्थरो मनाक् । . सरिद्वरा वारिजपांसुपिञ्जरो , विभातवाविललास भतले ॥ प्रभात का पवन सारे भूतल पर बहने लगा। वह पवन गंगा नदी में खिले कमलों के पराग से पीत-रक्त होकर हाथी के कुम्भस्थल से प्रतिमेय सुन्दरियों के स्तनों के संघटन के कारण धीरे-धीरे बह रहा था। ४८. अथावनीशक्रमिति स्तुतिव्रता , व्यबूबुधन सस्तुतिभिर्वचोभरैः। उपस्थिता द्वारि वुवूर्षया' तवाधुना जयश्रीर्जगदीशनन्दन ! ॥ स्तुतिकारों ने प्रशंसायुक्त वचनों से महाराज बाहुबली की स्तुति करते हुए कहा'हे जगदीशनन्दन ! अभी आपको वरण करने की इच्छा से विजयश्री द्वार पर उपस्थित है।' ४६. त्वयैव सावज्ञतया न होयते , महीन्द्र ! शय्या सहजेव धीरता। ___अमी च संनह्य भटाः सुतास्तवाजये चिकीर्षन्ति मनस्त्वदाज्ञया । १. क्षणदा-रानी (शर्वरी क्षणदा क्षपा-अभि० २।५५) २. सरिद्वरा-गंगा। ३. वुवूर्षा-वरितुमिच्छा। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः २५५ 'राजन् ! आप अवज्ञा से उसका त्याग न करें। जैसे शय्या सहज होती है, वैसे ही राजाओं में भी धीरता सहज होनी चाहिए। ये सभी सुसज्जित भट और आपके ये पुत्र जय प्राप्त होने तक आपकी आज्ञा से युद्ध लड़ने की इच्छा रखते हैं।' ५०. अयं नभोवा भविताद्य संकुल: , सकौतुकाकूतनभश्चरागमः।) वितयं ताराभिरितीव दृश्यताऽनुपाश्रिता ह्यतिकरः परागमः ॥ 'आज कुतूहलवश आने वाले विद्याधरों से यह आकाशमार्ग संकुल हो जाएगा'-ऐसी वितर्कणा कर तारे भी लुप्त हो गए। क्योंकि अपने स्थान में दूसरों का आगमन पीड़ाकारक होता है। . ५१. हरिन्नवोढेव च शातमन्यवी', नितान्तमाम्यत तिग्मतेजसा । अपश्चिमोर्वीधरवाससद्मनि , प्रक्लुप्तकश्मीररुहाङ्गरागिणी ॥ पूर्वाचल के वासगृह में रहने वाली तथा कुंकुम का अंगराग की हुई पूर्व दिशा को सूर्य ने नवोढा की भाँति आक्रान्त कर डाला। ५२. तमाल तालीवनराजिविभ्रमं, तमो निलिल्येऽस्तमहीधरोदरम् । उदित्वरे भास्वति संभवेत्तरां , कियच्चिरं क्षोणिप ! कश्मला स्थितिः ? 'तमाल और ताली वनराजि जैसा अत्यन्त काला अन्धकार अस्ताचल के उदर में विलीन हो गया। राजन् ! प्रकाशवान् सूर्य के उदित होने पर मलिन स्थिति (अंधकार) कितने काल तक टिक सकता है ? ५३. ' विभो ! तवालोकरवं ददत्यमूदिशः प्रभातोत्थविहङ्गमारवैः॥ इयं रणक्षोणिरपीहतेतरां, भवन्तमेकान्तसतीव वल्लभम् ॥ 'प्रभो ! ये दिशायें भी प्रभातकाल में होने वाले पक्षियों के कलरव से आपके लिए प्रकाश का गीत गा रही हैं । जैसे पवित्र सती अपने प्रियतम को ही चाहती है वैसे ही यह रणभूमी भी आपको चाह रही है।' १. शातमन्यवी-ऐन्द्री-पूर्व दिशा । (Belonging or relating to Indra-Apte.) २. कश्मीररुहः-कुकुम (कश्मीरजन्म घुसृणं-अभि० ३।३०८) ३. तमाल:-तमालवृक्ष (तापिञ्छस्तु तमालः स्यात्-अभि० ४।२१२) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ५४. भवानमुं नागमनन्तविक्रमं युधे समारोहतु दानशालिनम् । वृषेव' हाराञ्चितकण्ठकन्दलः, पुनर्दृ शामुत्सवमातनोतु ॥ "राजन् ! आप युद्ध के लिए इस अनन्त विक्रमशाली तथा भरते हुए मदवाले हाथी पर इन्द्र की भांति आरूढ़ हों और हार से सुशोभित कंठ वाले आप हमारे नयनों में उत्सव भरें ।' ५५. भरत बाहुबलि महाकाव्यम् ५६. समीरितो मागधवाग्भिरित्यसौ, जहौ विधिज्ञः शयनीयमञ्जसा क्वचित् प्रमाद्यन्ति न हीदृशाः क्षितौ मृगारयो जाग्रति कि मृगारवः ? 2 मंगल- पाठकों के वचनों से इस प्रकार प्रेरित होकर विधिज्ञ राजा बाहुबली तत्काल अपनी शय्या से उठे । संसार में ऐसे व्यक्ति कहीं प्रमाद नहीं करते । क्या सिंह हिरणों के शब्द से जागृत होते हैं ? कभी नहीं । ५८. दिवामुखत्याज्यविधि विधाय स, सिताब्जशुभ्र परिधाय चांशुके । युगादिदेवस्य जगाम मन्दिरं, शशीव बिभ्रच्छरदभ्रविभ्रमम् ॥ प्राभातिक विधि ( शौच आदि नित्यकर्म) को सम्पन्न कर महाराज बाहुबली ने श्वेत . कमल की भांति शुभ्र उत्तरीय और अधोवस्त्र पहने और शरद् ऋतु के बादलों की शोभा वाले उस ऋषभदेव के मन्दिर में चन्द्रमा की भाँति प्रवेश किया । ५७. स्तंवप्रसूनाक्षत संचयैस्ततः स पूजयामास मुंदाऽतिमेदुरः । 1 उपार्जयन् कीत्तिजयश्रियः सुखीभवेत् स एवात्र हि यो जिनाचकः ॥ बाहुबली ने अत्यन्त प्रमुदित होकर भगवान् ऋषभ की स्तवनाओं, पुष्पों और प्रक्षतों से पूजा की। जो पुरुष जिनेश्वर देव की पूजा करता है वह कीर्ति, विजय और लक्ष्मी का उपार्जन कर इस संसार में सुखी होता है ।' , अथार्चयित्वा विधिवत् क्षितिश्वरो जिनेश्वरं भक्तिभरातिभासुरः । स्तवंस्तनूजीवविरागितामयैः स्वयं च तुष्टाव सतां ह्ययं क्रमः ॥ , भक्ति के भावों से अत्यन्त देदीप्यमान महाराज बाहुबली ने जिनेश्वरदेव की विधिवत् पूजा की और शरीर तथा आत्मा में वैराग्य उत्पन्न करने वाली स्तवनाओं से स्वयं उनकी स्तुति की। क्योंकि सज्जन व्यक्तियों की यही विधि होती है । १. वृषा – इन्द्र ( वृषा शुनासीरसहस्रनेत्री - अभि० २२८६ ) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः २५७ ५६. सनाया जीवेन प्रसभमुपभुक्षे सुखचयं , त्वनेन त्वं त्यक्ता क्वचन लभपे नादरभरम । यथा ते जीवोऽयं सुखयतितरामस्य सुखदं , तनो ! पञ्चाङ्ग्यातः प्रणम जिनराजं किल तथा ॥ 'हे शरीर ! तुम आत्मा से सनाथ होकर हठपूर्वक सुखों का उपभोग करते हो । एक दिन यह तुमको छोड़ देगा। उस समय तुम्हें कहीं आदर नहीं मिलेगा । जिस प्रवृत्ति से तुम्हारी यह आत्मा सुखी हो सके वैसी प्रवृत्ति करो-आत्मा के लिए सुखद जिनराज को तुम पंचांग नमस्कार करो।' ६०. भवत्यां लुब्धाशः कलयति तनो ! दुःखमसुमान् ; न हस्ती हस्तिन्यामिव किमु वशास्पर्शरसिकः? तनूरेषा नो ते त्वमपि न हि तन्वा भवसि वां , जिनार्चातः शस्या भवतु तदनित्या स्थितिरियम् ॥ 'हे शरीर ! तुम्हारे प्रति आसक्त मनुष्य स्त्री के स्पर्श का रसिक होकर क्या हथिनी के प्रति आसक्त हाथी की भांति दुःख को प्राप्त नहीं होता ? आत्मन् ! यह शरीर तुम्हारा नहीं है और न तुम उसके हो । तुम दोनों की यह अनित्य स्थिति भगवान् की पूजा से प्रशंसनीय हो।' ६१.. व्यपास्ता जीवो मा क्वचिदपि गमी काञ्चन गति , तदस्मिन् भोक्तव्या इह हि बहुधा भोगततयः । न सन्देहो देह ! त्वयि परमयं त्वय्यविरतो, न वेत्त्येवं जीवो न हि जिनगिरा त्वां तुदति यत् ॥ शरीर सोचता है कि 'यह जीव मुझे कहीं भी छोड़ देगा और किसी गति में चला जायेगा इसलिए इसके रहते हुए मुझे बहुत प्रकार के भोगों का सेवन कर लेना चाहिए।' 'देह ! तुम्हारे इस चिन्तन में कोई सन्देह नहीं किन्तु यह जीव तुम्हारे प्रति अविरत है -असंयत है इसलिए वह यह नहीं जानता जो कुछ तुम्हें कष्ट हो रहा है, वह जीव के असंयम के कारण है, न कि जिन भगवान् की वाणी के कारण।'. ६२. नियन्ता जीवोऽयं तदनु करणः स्यन्दननिमः, षडक्षोक्षग्रामः पृथगयनगत्युत्सुकमनाः। त्वदीयं चातुर्य तदि यदि जिनादिष्टपदवी , त्वया नोल्लंध्येताक्षरनगरसंप्राप्तिनिपुणा ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'जीव सारथि है। उसके पीछे-पीछे चलने वाला यह शरीर रथ के सदृश है । छह इन्द्रियां रथ को खींचने वाले छह बैल हैं। ये भिन्न-भिन्न मार्गों में जाने के लिए उत्सक हैं, किन्तु हे सारथि ! तुम्हारा चातुर्य तब है जब तुम मोक्ष नगर की प्राप्ति में निपुण तीर्थंकर द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का उल्लंघन न करो।' ६३. भवन्नत्य मौलियरचि मम हस्ताब्जयुगली , जिन ! त्वत्पूजायै चरणयुगली चापि विधिना । भवत्कल्याणालीविशदवसुधास्पर्शनकृते , ममेत्येते कायावयवविसराः सन्तु सफलाः ॥ 'हे जिनेश्वर ! आपको प्रणाम करने के लिए मेरे मस्तक की, आपकी पूजा के लिए मेरे दोनों हाथों की और आपके पंच कल्याणों द्वारा निर्मल बनी हुई भूमि का स्पर्श करने के लिए मेरे इन दोनों चरणों की भाग्य ने रचना की है। इस प्रकार मेरे शरीर के ये सारे अवयव सफल हों।' ६४. स्तुत्वेति क्षितिवासवो जिनवरं श्रीनाभिराजाङ्गजं , चैत्यादेत्य बहिश्च कङ्कट'वरं व्याधाम'धारापहम् । , संग्रामाय दधौ विभावसुरिव प्रोद्दीप्रमंशुव्रजं , तूणीरद्वितयं च पाणिकमले द्राक् कालपृष्ठं धनुः ॥ इस प्रकार नाभिराज के पुत्र भगवान् ऋषभ की स्तुति सम्पन्न कर महाराज बाहुबली चैत्य से बाहर आए । उन्होंने संग्राम के लिए वज्र के प्रहारों को झेलने में समर्थ कवच धारण किया । जैसे सूर्य प्रचण्ड किरणों के समूह को धारण करता है वैसे ही उन्होंने तीखे तीरों से भरे-पूरे दो तूणीर धारण किए और अपने हाथ में कालपृष्ठ धनुष्य लिया। ६५. आरोहद् द्विरदं गिरीन्द्रसदृशं निर्यन्मदाम्भोधरं, मूर्त मानमिव प्रमाणरहितं प्रोद्यत्प्रभालक्षणम् । कोटीरद्युतिदीप्रभालतिलको विश्वम्भरावल्लभो , भूपालः परिवारितश्च तनुजः पुण्यैः सदेहैरिव ॥ महाराज बाहुबली मेरु पर्वत की भांति विशाल हाथी पर सवार हुए। उस हाथी के कुंभस्थल से मद कर रहा था । वह ऐसा लग रहा था कि मानो कि अमित मान ही मूर्त बनकर आ गया हो। वह अत्यन्त देदीप्यमान था। महाराज बाहुबली १. कङ्कट:-कवच (सन्नाहो वर्म कङ्कट:-अभि० ३।४३०) २. व्याधाम:-वज (व्याधामः कुलिश:-अभि१ २।९५) Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः .. २५६ के मुकुट की दीप्ति से ललाट पर लगा तिलक चमक रहा था। वे राजाओं और अपने पुत्रों से परिवृत होकर चले। उस समय वे ऐसे लग रहे थे मानो कि पुण्य ही देह धारण कर आ गया हो। ६६. मूर्नाऽधार्यत भूवरेण च शिरस्त्राणं रिपुत्रासकृत् , शृङ्ग मेरुमहीमृतेव सकलौन्नत्यस्पृशा नन्दनः । अश्रान्तं परिवारितेन तनुभिः शैलेरिवायोधनं , मापीठं प्रयियासुना बहुविधरस्त्रैश्च दीप्तद्युता ॥ 'छोटे पर्वतों से परिवत तथा समस्त उन्नति का स्पर्श करने वाले मेरु पर्वत की भांति अपने पुत्रों से परिवृत, बहुविध दीप्तिमान् अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित, रणभूमी की ओर प्रयाण करने के इच्छुक बाहुबली ने शत्रुओं को त्रास देने वाले शिरस्त्राण को वैसे ही धारण किया जैसे मेरु पर्वत शृंग को धारण करता है । ६७. राजा बाहुबलि लेन सहितः पूर्व समभ्यागमत् , संग्रामक्षितिमुद्यति युतिपतौ मातङ्गवाहानुगः । दुर्धर्षः परभूभुजां करटिनां, पञ्चास्यवन्नन्दनरुत्साहैरिव मतिमद्भिरधिकप्रोत्सपिपुण्योदयः ॥ महाराज बाहुबली अपनी सेना के साथ सूर्य के उगते-उगते ही भरत से पहले रणभूमि में आ पहुंचे। उनके पीछे हाथी और घोड़े चल रहे थे। वे शत्रु-राजाओं के लिए वैसे ही दुर्धर्ष थे जैसे हाथियों के लिए सिंह दुर्धर्ष होता है। वे मूर्तिमान् उत्साह की तरह अपने पुत्रों से अधिक वृद्धिंगत पुण्योदयवाले लग रहे थे। . -इति बाहुबलिसंग्रामभूम्यागमनो नाम त्रयोदशः सर्गः Page #293 --------------------------------------------------------------------------  Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ सर्ग प्रतिपाद्य दोनों ओर की सेनाओं का रणभूमी में आगमन और स्तुतिपाठकों द्वारा अपने-अपने शत्रुओं का परिचय-कथन । श्लोक परिमाण ७६ छन्द उपजाति ।। लक्षण देखें, सर्ग २ का विवरण। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु : चक्रवर्ती भरत प्रातःकालीन विधियों को सम्पन्न कर विशिष्ट आयुधों से सज्जित हुए। काव्यकार ने उनके आयुधों के विशिष्ट नामों का इस प्रकार उल्लेख किया है कवच का नाम था-जगज्जय। शिरस्त्राण का नाम था-गीर्वाणशृंगार। दो तूणीरों के नाम थे-जय और पराजय । धनुष्य का नाम था-त्रैलोक्यदंड । . खड्ग का नाम था-दैत्यदावानल। ' इसी प्रकार काव्यकार ने सेनापति सुषेण तथा भरत के ज्येष्ठ पुत्र सूर्ययशा के आयुधों का भी नामोल्लेखपूर्वक उल्लेख किया है। महाराज भरत अपने सवा कोटि पुत्रों तथा बत्तीस हजार राजाओं के साथ चल पड़े। उस समय दस-लाख युद्ध-वाद्य, अठारह लाख भेरियां और सोलह लाख नगाड़े बज रहे थे। महाराज भरत ने अपने मंगलपाठक वहस्पति को यह आदेश दिया कि वह शत्रु-सैनिकों के नाम, ध्वज-चिन्ह और यान के विषय में बताये । वृहस्पति ने बाहुबली की सेना के सुभटों का परिचय प्रस्तुत करते हुए उनके नाम, ध्वज-चिन्ह और यान का वर्णन किया । बाहुबली के तीन लाख पुत्र युद्ध के लिए सन्नद्ध होकर आए थे। बाहबली ने भी अपने मंत्री 'सुमंत्र' को शत्रु-सेना का परिचय प्रस्तुत करने के लिए कहा । मन्त्री ने उनके नाम, ध्वज-चिन्ह और वाहन का वर्णन किया। दोनों सज्जित सेनाएं रणभूमी में आ डटीं। सुभट युद्धारम्भ की प्रतीक्षा करने लगे। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः १. अथाग्रजो बाहुबलेर्बलं स्वमचीकरत्सज्जमनन्यसत्त्वः । प्रातर्युधे वेत्रिगिरा प्रबुद्धो , गुरुजिनोक्त्येव शिवाय भव्यम् ॥ 'प्रहरियों की वाणी से सारी स्थिति जानकर बाहुबली के अग्रज, असाधारण पराक्रमी चक्रवर्ती भरत ने प्रातःकाल अपनी सेना को 'युद्ध के लिए सज्जित किया, जैसे गुरु जिनवाणी के अनुसार भव्य प्राणियों को मोक्ष के लिए सज्जित करते हैं। २. ततः प्रवीरा भरतेश्वरस्य., दधुर्महोत्साहभरं हृदन्तः । . पतिप्रणुन्ना इव ताम्रचूडा , अन्योन्यपूर्वाभिगमप्रबन्धाः॥ उसके पश्चात् • महाराज भरत के सुभटों का हृदय अत्यन्त उत्साह से भर गया। वे स्वामी द्वारा प्रेरित कुक्कुटों की भांति, एक दूसरे से आगे रणस्थल में जाने के लिए तैयार हुए। ३. केचिद् वपुःषु द्विगुणीभवत्सु , सन्नाहमास्प्राक्षुरुदनशौर्यात् । पयोधरातहितसन्मरीचिग्रहा इवानीकनभःप्रमेयाः ॥ कुछ सभटों का शरीर प्रबल पराक्रम से द्विगुणित होकर कवच तक फैल गया। उस समय वे सेना रूपी आकाश में बादलों से ढंके हुए दीप्तिमान् ग्रहों की भांति लग रहे थे। ४. हेषा'रवोन्नादितदिविभागान् , केचित्तुरङ्गान् समनीनहन् द्राक् । गजांश्च केचित् समयूयुजंश्च , केचिच्छताङ्गास्तुरगैर्वृषेश्च ॥ कुछ सुभटों ने घोड़ों को सज्जित किया। वे अपनी हिनहिनाहट से दिगन्तों को मुखरित १. हेषा-हिनहिनाहट (हेषा ह्रषा तुरङ्गाणां—अभि० ६।४१) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ भरत बाहुबलि महाकाव्यम् कर रहे थे । कुछ सुभटों ने हाथियों को तैयार किया। कुछ सुभटों ने रथों में घोड़ों और कुछ ने बैलों को जोड़ा । ५. 'कुछ सुभटों ने तलवारें धारण कीं और कुछ सुभटों ने धनुष्यों पर बाण चढ़ाए । कुछ सुभट गदा, मुद्गर, शक्ति (सांग) और भालों को बार-बार चलाने लगे । ७. केचित् कृपाणान् बिभराम्बभूवुश्चापान् समारोपयितुं च केचित् । केचित् गदामुद्गरशक्ति कुन्तान् पुनः पुनश्चालयितुं प्रवृत्ताः ॥ " कुछ सुभट दोनों पावों में तूणीरों को धारण कर पक्षियों की शोभा को पा रहे थे । कुछ सुभटों ने हाथियों की सूंडों और दोनों पावों में कृपाण और भालों का संग्रह किया | ८. केचिद् द्विपक्षापितगृध्रपक्षाश्रयां श्रयन्तिस्म शकुन्तलक्ष्मीम् । संग्राहयामासुरिर्यदेके, करैश्च पक्षैश्च कृपाणकुन्तान् ॥ 'बहली देश के स्वामी बाहुबली यमराज (मृत्यु) के समान हैं । युद्ध-स्थल में उनका मुँह देखना होगा - इस प्रकार अन्तर्मन में उत्पन्न होने वाली उग्र चिन्ता से दीन बनी हुई धूओं से कुछ सुभट विधुर हो गए । ε. " कृतान्तकल्पो बहलीश्वरोस्ति यतो रणे तन्मुखमोक्षणीयम् । इत्यन्तराविर्भवदुग्रचिन्तादीनाभिरेके विधुरा वधूभिः ॥ प्रवर्धमानाधिकधैर्य शौर्य र सोच्छलत्कुन्तलमञ्जुलास्याः । तृणीकृत्य पुरः प्रसत्र:, स्वस्वामिनः केचन शूरसिंहाः ॥ ai में सिंह के समान कुछ सुभट युद्ध को तुच्छ समझते हुए अपने स्वामी भरत के आगे-आगे चले | वृद्धिंगत अत्यधिक धैर्य और शौर्य रस से उछलते हुए केशों से उनका मुँह सुंदर लग रहा था । 1 रणक्षित तक्षशिलाक्षितीशः पूर्वं समेतः क्रियते भवद्भिः । अद्यापि fi नोदयतिस्म सेनाधीशः स्वपुंभिस्त्विति वीरधुर्यान् ॥ महाराज बाहुबली रणभूमी में पहले ही आ पहुंचे हैं । आप सब - अब तक क्या कर रहे हैं ? इस प्रकार सेनापति सुषेण अपने आदमियों द्वारा वीर सुभटों को प्रेरित कर रहा था । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ चतुर्दशः सर्गः . . १०. अम्भोजभम्भा'बककाहलानां' , रवैदिगन्तप्रसरवितेने। उदात्तशब्दकमयं त्रिविश्वं , कि मथ्यतेऽम्भोनिधिरित्थमोहि ॥ कमल के आकार वाली भंभाओं और बक के आकार वाले काहलों की दिगन्त में प्रसरणशील ध्वनि ने त्रैलोकी को उदात्त ध्वनिमय बना डाला । इस ध्वनि के कारण यह वितर्क हो रहा था कि क्या समुद्र का मन्थन हो रहा है ? ११. ततः स्वयं भारतवासवोऽपि , प्रातस्तनं कृत्यविधि विधाय । स्नात्वा शुचीभूतवपुविवेश , क्लुप्ताङ्गरागो जिनराजगहम् ।। इसके पश्चात् महाराज भरत ने भी प्रातःकालीन करणीय विधियों को सम्पन्न कर स्नान किया और स्वच्छ शरीर पर सुगंधित लेप कर ऋषभ देव के मन्दिर में गए । १२. हिरण्मयं रत्नमयं युगादेरानचं बिम्बं हरिचन्दनेन । स्वभावसाधर्म्यजुषा ततोऽसौ , त्रैलोक्यपूज्यत्वमिवादधेऽस्य ॥ महाराज भरत ने स्वभाव से समानधर्मा अर्थात् शांतिकारक गोशीर्षचन्दन से ऋषभदेव की स्वर्ण और रत्नमय प्रतिमा की अर्चा की। तीनों स्थानों (मस्तक, हृदय और चरण) पर की गई अर्चा भगवान् के त्रैलोक्य-पूज्यत्व की सूचना दे रही थी। १३. आमोदवाहैः कसुमैः स्तवैश्च , तथाक्षतरक्षतकादिभिः सः। विधा विधिज्ञो विधिवद् व्यधत्त , पूजां युगादेर्जगदीश्वरस्य ॥ महाराज भरत तीनों प्रकार की पूजा-विधियों के ज्ञाता थे। उन्होंने पहले सुगन्धित फूलों से, फिर स्तुतियों से और अन्त में अखण्डित अक्षतों से जगदीश्वर ऋषभ की विधिवत् पूजा सम्पन्न की। १४. इत्यर्चयित्वा विधिवद् जिनेन्द्रं , जिनालयादेत्य बहिश्च चक्री। जगज्जयं नाम बमार वर्म , तेजोंशुमालीव नभोन्तमाप्तम् ॥ इस प्रकार जिनेन्द्र देव की विधिवत् पूजा कर चक्रवर्ती भरत जिनालय से बाहर आये और उन्होंने 'जगज्जय' नाम वाले कवच को वैसे ही धारण किया जैसे सूर्य आकाश के छोर तक व्याप्त तेज को धारण करता है। १. भम्भा-अवनद वाद्य । . २. काहल–तीन हाथ लम्बा, छिद्र युक्त तथा धतूरे के फूल की तरह मुंह वाला शुषिर वाद्य । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ . . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १५. गीर्वाणशृङ्गारसुनामधेयं , दधौ शिरस्त्राणमसौ स्वम । राकासुपूर्वाद्रिरिवाभिपूर्ण , शशाङ्कबिम्बं नयनाभिरामम् ॥ उन्होंने अपने सिर पर 'गीर्वाणशृंगार' नाम वाले शिरस्त्राण को धारण किया, जैसे पूर्णिमा के दिन उदयाचल पर्वत पूर्ण मण्डल वाले नयनाभिराम चन्द्रबिम्ब को धारण करता है। १६. जयः कलापोऽक्षयकङ्कपत्र 'स्ततो द्वितीयोऽपि पराजयश्च । . इत्यस्य पार्श्वद्वितये निषङ्गौ , भातःस्म पक्षाविव पक्षिराजः ॥ उन्होंने अपनी दोनों बाहुओं पर अक्षय तीरों से भरे हुए दो तूणीर धारण किये । एक का नाम था 'जय' और दूसरे का नाम था 'पराजय' । वे दोनों तूणीर ऐसे शोभित हो रहे थे जैसे पक्षिराज गरुड़ के दोनों ओर दो पाँखें शोभित होती हैं। १७. त्रैलोक्यदण्डं कलयाञ्चकार , करे स कोदण्डमुदग्रतेजः। अधिष्ठितं दानववैरिवृन्दः, सचन्दनारण्यमिव द्विजिह्वः ॥ भरत ने 'त्रैलोक्य दंड' नाम के प्रचंड तेज वाले धनुष्य को हाथ में लिया। वह धनुष्य देवताओं के समूह से वैसे ही सेवित था जैसे कि सर्पो से चन्दनवन सेवित होता है। १८. स दैत्यदावानलनामधेयं , जग्राह खड्गं निहतारिवर्गम् । अष्टाङ्गुलानूनकरप्रमाणं, सहस्रदेविनिषेव्यमाणम् ॥ उन्होंने शत्रुओं के समूह को मृत्युधाम पहुँचाने में समर्थ 'दैत्यदावानल' नामवाला खड्ग धारण किया। वह खड्ग एक हाथ आठ अंगुल प्रमाणवाला और हजारों देवों द्वारा सेव्यमान था। १९. पुरोहितोदीरितमङ्गलाशीस्तुङ्ग नगोत्सङ्गमिव द्विपारिः। आरोहदुच्चैः करिणं रथाङ्गपाणिः कुरुक्ष्मापतिदत्तपाणिः ॥ पुरोहित ने आशीर्वचन सुनाया। जैसे सिंह हाथी की ऊंची पीठ पर जा बैठता है वैसे १. राका-पूर्णिमा (सा राका पूर्णे निशाकरे-अभि० २।६३) २. कलापः-तूणीर (शरधिः कलापः-अभि० ३।४४६) ३. कङ्कपत्रः-तीर (पत्रीष्वजिह्मगशिलीमुखकङ्कपत्र:-अभि० ३।४४२) ४. निषङ्गः-तूणीर (तूणो निषङ्गस्तूणीर:-अभि० ३।४४५) ५. पक्षिराज:-गरुडस्य । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ चतुर्दशः सर्गः ही महाराज भरत उन्नत हाथी पर सवार हुए । उस समय कुरु देश के राजा ने उन्हें हाथ का सहारा दिया। २०. ततः सुषेणोऽपि पताकिनीशः , स्वयं शताङ्ग पवनञ्जयाख्यम् । आरुह्य नेतुः पुरतो बभूव , बलाहकस्येव समीरणो द्राक् ॥ उसके पश्चात् सुषेण सेनापति भी 'पवनञ्जय' नाम वाले रथ पर आरूढ़ होकर स्वयं अपने स्वामी भरत के आगे-आगे शीघ्रता से चलने लगा, जैसे मेघ के आगे-आगे पवन चलता है। २१. कुन्तं धरन् वह्निमुखं च खड्गं , कालाननं नाम सुदुःसहाभम् । सेनाधिपोऽसौ चतुरङ्गसेनासमन्वितोऽभूत् पुरतो नृपस्य ॥ चतुर्विध सेना से युक्त सेनापति सुषेण 'वह्निमुख' नाम वाले भाले और अत्यन्त दुःसह तेज वाले 'कालानन' खड्ग को धारण कर महाराज भरत के आगे हो गया। २२. ज्येष्ठः सुतः सूर्ययशा यशस्वी , ध्वान्तारिहासाख्यकृपाणपाणिः । सुपर्वसंमोहतनुः स्वकीयं , मिधाय तातस्य पुरः ससार ॥ भरत के यशस्वी ज्येष्ठ पुत्र 'सूर्ययशा' ने 'ध्वान्तारिहास' नाम वाला कृपाण अपने हाथ में लिया। उसका सुन्दर शरीर देवताओं को भी आश्चर्यचकित करने वाला था। वह भी अपने पिता भरत के आगे चलने लगा। २३. एवं तनूजन्मसपादकोट्या , वृतोऽभ्यगात् सङ्गरकेलिभूमिम् । द्वात्रिंशता भूमिभुजां सहस्रः, समन्वितः शक्र इवामरैश्च ॥ इस प्रकार महाराज भरत सवा कोटि पुत्रों से परिवृत होकर युद्ध-स्थल में आए । जैसे • इन्द्र देवताओं से परिवृत होता है वैसे ही वे बत्तीस हजार राजाओं से परिवत थे। २४. नि:स्वान'लक्षेषुदशस्वपोह , तथाजनकाष्टादशलक्षकेषु । लक्षाष्टयुग्मेषु च संपरायस्मरध्वजानां निनदत्सु कामम् ॥ २५. प्रवीरतातान्वयनामकोतिविराविषु स्फूतिमतां वरेषु । स्तुतिव्रतानां निवहेषु पूर्व , पृष्ठप्रसारेषु महारवेषु ॥ १. निःस्वानः-युद्ध-वाद्य। २. आनकः-दुन्दुभि (भेरी दुन्दुभिरानक:-अभि० २।२०७) ३. स्मरध्वजः-नगाडा। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २६. संकेतिताजेर्जगतीं जगाम , स राजराजो विहिताभियोगः'। . भूयस्तनूजैश्च समन्वितो द्राक् , क्षत्रव्रतो मूर्तिमिवोपपन्नः ॥ -त्रिभिविशेषकम् । अनेक पुत्रों से परिवृत अत्यन्त उत्साही चक्रवर्ती भरत निर्दिष्ट रणभूमी में जा पहुँचे । वे ऐसे लग रहे थे मानो कि क्षत्रियपन मूर्त होकर आ गया हो। उस समय दस लाख युद्ध-वाद्य, अठारह लाख भेरियाँ तथा सोलह लाख युद्ध के नगाड़े बज रहे थे। इनके साथ-साथ स्फूर्तिमान् मंगल-पाठकों के समूह चक्रवर्ती भरत के वंश में हुए वीर पुरुषों के कुल और नाम का कीर्तन कर रहे थे। भरत आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे महान् शब्द हो रहे थे। २७. पीयूषपाथोधिमहोमिगौरी , द्वयोर्ध्वजिन्योरपि मागधोक्ता। भोगावली' श्रीजिननाभिसूनुस्तुतिप्रधाना मुहुरुल्ललास ॥ . . उस समय दोनों ओर की सेनाओं में भी स्तुतिपाठकों द्वारा कृत जिनेश्वर देव ऋषभ की स्तुतिमय तथा सुधा समुद्र की महान् ऊर्मियों की भांति शुभ्र विरुदावली बार-बार उल्लसित हो रही थी। २८. चमूरियं वैरिचमं विलोक्य , केतुच्छलाद व्योमनि नृत्यतीव । समानतां प्राप्य रणे विवादे , न कोपि नृत्येद् विजयाभिलाषी ? भरत की सेना अपनी शत्रु-सेना को देखकर पताका केव्याज से मानोआकाश में नर्तन करने लगी। विवाद और रण में समानताको पाकर कौन विजयाभिलाषी पुरुष नहीं नाच उठता ? २९. ते कोशलातक्षशिलाधिपत्योविरेंजतुस्तुल्यतया ध्वजिन्यौ। प्राचीनपाश्चात्यमहोमिमालावेले इवान्योन्यसमागमेच्छे ॥ एक ओर कोशल देश के अधिपति महाराज भरत की सेना और दूसरी ओर तक्षशिला के अधिपति महाराज बाहुबली की सेना समान रूप से वैसी लग रही थी जैसे पूर्व और पश्चिम के समुद्र की वेला एक-दूसरे से समागम करने की इच्छुक हो। ३०. अनीकयोर्वाधरवास्तदानीं , सद्वन्दि'कोलाहलकामपीनाः। प्रापुदिगन्तांस्तदनुक्रमेण , यशोधनानामिव कीतिचाराः ॥ १. अभियोग:-उद्यम, पराक्रम। २. भोगावली-विरुदावली (ग्रन्यो भोगावली भवेत्-अभि० ३।४५६) ३. वन्दी-स्तुतिपाठक (वन्दी मङ्गलपाठक:-अभि० ३।४५८) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः . . २६६ उस समय दोनों सेनाओं के स्तुतिपाठकों के कोलाहल भरे शब्दों से पुष्ट वाद्य-शब्द क्रमशः दिगन्तों तक पहुँच गए मानो यशस्वी व्यक्तियों की कीत्ति के वे गुप्तचर हों। . ३१. तूर्यस्वनैर्वन्दिरवातिपीनः , प्रवृद्धिमाप्त सिंहनादैः। हेषारवः स्यन्दनचक्रचक्रचीत्कारगाढर्ययिरे दिगन्ताः ॥ स्तुतिपाठकों के शब्दों से मिश्रित होकर तुरी के शब्द और अधिक घने हो रहे थे। वे सारे शब्द सुभटों के सिंहनाद से बढ़ रहे थे। उन शब्दों में घोड़ों की हिनहिनाहट और रथों के चक्कों की चीत्कारें भी मिश्रित हो गईं । इस प्रकार वे शब्द और ज्यादा गाढ़ होकर दिगन्तों में व्याप्त हो गये । ३२. दिवस्पृथिव्यौ कुरुतः कलि कि , केनापि कृत्येन च दम्पतीव। कि व्योमगङ्गाऽद्य विलोड्यते वा , दिक्कुञ्जरौहि तदेति लोकः ॥ तब लोगों ने यह वितर्कणा की-क्या आकाश और पृथ्वी एक दम्पती की भाँति किसी प्रयोजनवश कलह कर रहे हैं अथवा क्या आज दिक्कुंजर आकाशगंगा का विलोडन कर ३३. समन्ततो लक्षचतुष्कयुक्ताशीतिहयस्यन्दनकुजराणाम् । रणांगणे.षण्णवतिनकोट्यो , रथाङ्गपाणेर्भवतिस्म सज्जा ॥ उस रणभूमी में चक्रवर्ती भरत की सज्जित सेना इस प्रकार थी-चार लाख अस्सी हजार हाथी, घोड़े और रथ तथा छियानवे कोटि पैदल सेना। . ३४. धीरं मनो बाहुबले टानां , चमूममूं भारतवासवस्य । नालोक्य कम्पेत सुरेन्द्रधर्यविकम्पिनी स्वगिभिरित्यकि ॥ देवताओं ने यह वितर्कणा की-'इन्द्र के धर्य को भी प्रकंपित करनेवाली भरत की इस सेना को देखकर बाहुबली के सुभटों का मन डांवाडोल नहीं हुआ, यह उनके धीर मन का परिचायक है। ३५. सहस्रकोटीशतलक्षवीरप्रयोधिनो योधवरास्तदानीम् । राजे न्यवेद्यन्त सनामपूर्व , सौस्नातिकारितवैरिवाराः ॥ उस समय सूचना अधिकारी महाराज भरत को शत्रु-समूह पर विजय पाने वाले १. सौस्नातिक:-सूचना अधिकारी। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् योद्धाओं का नामपूर्वक परिचय कराने लगा। उनमें कुछ शतयोधी, कुछ सहस्रयोधी, कुछ लक्षयोधी और कुछ कोटियोधी थे। ३६. अथ स्वयं शृण्वति भारतेशे , बलाधिराजो मगधाधिराजम् । बृहस्पति नाम विशेषविज्ञं , पप्रच्छ शत्रुध्वजनामवाहान् । महाराज भरत के सुनते हुए सेनापति सुषेण ने स्तुतिपाठकों के अग्रणी, विशेषविज्ञ बृहस्पति से शत्रुओं के ध्वजचिह्न, नाम और घोड़ों के विषय में पूछा। ... ३७. तमाह वैतालिक सार्वभौमो , गिरा विशेषाद् रिपुकीतिमत्या। यत्प्राप्तरूपा मुखरीभवन्ति , पृष्टाः पुनर्मोनजुषोऽन्यथैव ॥ तब स्तुतिपाठकों का अग्रणी, शत्रुओं की कीति करने वाली विशेष वाणी में सुषेण सेनापति के प्रश्नों का उत्तर देने लगा। विद्वान् व्यक्ति पूछे जाने पर मुखर हो जाते हैं, अन्यथा वे मौन ही रहते हैं। ३८. अयं पुरस्तक्षशिलाक्षितीशः , सिंहध्वजः शात्रवदन्तिसिंहः । गजाधिरूढः समराय धर्यनिवासभूर्धावति सूनयुक्तः ॥ . 'ये आगे हाथी पर आरूढ़ तक्षशिला के स्वामी बाहुबली हैं। ये सिंह की ध्वजा वाले, शत्रु रूपी हाथी के लिए सिंह के समान और धर्य की निवास भूमी हैं। ये अपने पुत्रों से परिवृत होकर युद्ध के लिए आये हैं।' . ३९. दोर्दण्डदम्भोलिरमुष्य राज्ञः , पक्षच्छिदे भूमिभृतां सहत्वम् । ' बित्ति यच्चित्रमिदं तदीयं , तेषां पुनः पक्षवृधे नतानाम् ॥ 'इन महाराज बाहुबली का भुजदंड रूपी वज्र राजाओं (पक्ष में पर्वतों) के पक्षों का छेदन करने में समर्थ है । किन्तु इनके विषय में यह अद्भुत बात है कि जो इनके समक्ष नत हो जाते हैं उनके पक्षों की वृद्धि होती है।' ४०. अस्यात्मभूश्चन्द्रयशाः शशाङ्ककेतुः शशाङ्काभरथाधिरूढः । यस्मिन् प्ररुष्टे कटका स्थिरत्वचिन्ता वितेने द्विषदङ्गनाभिः ॥ १. मगधः-स्तुतिपाठक (मागधो मगधः-अभि० ३।४५६) २. वैतालिक:-मंगलपाठक. (वैतालिका बोधकरा:-अभि० ३।४५८) ३. शात्रवः-शत्रु (शात्रवः प्रत्यवस्थाता-अभि० ३।३६२) ४. कटक:-कंकण (कटको वलयं पारिहार्यावापौ च कङ्कणम्-अभि० ३।३२७) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः २७१ 'यह रहा बाहुबली का पुत्र चन्द्रयशा। इसकी पताका का चिह्न है-चन्द्रमा । यह चन्द्रमा की आभा वाले रथ पर आरूढ़ हैं। जब यह रुष्ट हो जाता है तब शत्रुओं की स्त्रियों में अपने कंकणों के अस्थिर होने की चिन्ता व्याप्त हो जाती है।' ४१. अयं पुनर्बाहुबलेः पुरस्तादाविर्भवत्याजिकृते कनिष्ठः। भृशं निषिद्धोऽपि शिवं यियासुर्यती कषायरिवबद्धकक्षः ॥ 'जैसे मोक्ष जाने का इच्छुक यति कषायों से रोका जाता है, वैसे ही यह चन्द्रयशा अपने छोटे भाइयों द्वारा बहुत रोके जाने पर भी युद्ध करने के लिए बद्धकक्ष होकर बाहुबली के आगे-आगे चल रहा है।' ४२. अस्यानुजन्मा दलितारिजन्मा , महायशाः स्यन्दनसंनिविष्टः । कूर्मध्वजः कोकनदाश्व' एष , पितुः पुरस्ताद् बहुधाभियुंक्ते ॥ 'यह है कूर्म की ध्वज-चिन्ह वाला, रथं पर बैठा हुआ चन्द्रयशा का छोटा भाई महायशा । इसके रथ में लाल घोड़े जुते हुए हैं। यह शत्रुओं का नाश करने वाला है। यह अपने पिता के समक्ष बहुधा उद्यमशील रहा है।' ४३. शिलीमुखास्त्वस्य शरास'मुक्ताः, प्रत्यथिहृत्कुम्भभिदे भवन्ति । पतन्ति नेत्राश्रुजलानि तेषां , मृगेक्षणानामिति चित्रमेतत् ॥ ‘धनुष्य से छूटे हुए इसके .बाण शत्रुओं के हृदय रूपी कुंभ का भेदन करने वाले होते हैं । तब उन शत्रु-सुभटों की स्त्रियों की आंखों से आंसू टपकने लग जाते हैं । यह विचित्रता है। (वाण तो लगते हैं वैरियों के हृदय रूपी घट में और आँसू निकलते हैं उनकी स्त्रियों की आंखों से—यह आश्चर्यकारी है।) ४४. अयं रथी सिंहरथो नसिंहः , सिंहध्वजः सिन्धुहयश्च सिंहः । प्रत्यथिनां साम्प्रतमुग्रतेजा , उदेष्यति स्वैरमथाहवाय ॥ 'रथ पर आरूढ इस रथी का नाम सिंहरथ है । इसका ध्वज-चिन्ह सिंह और इसके घोड़े सिंधुदेश के हैं । यह पुरुषों में श्रेष्ठ और शत्रुओं के लिए सिंह के समान है । यह प्रचण्ड तेजस्वी वीर युद्ध के लिए पर्याप्त रूप से उदित होगा, चमकेगा।' १. कोकनदाश्वः-लाल घोड़ा (लाल कमल को 'कोकनद' कहते हैं। कोकनद की छवि वाला __ घोड़ा (लालघोड़ा)। २. शरास:-धनुष्य (धनुश्चापोऽस्वमिष्वासः--अभि० ३।४३६) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४५. अयं बलानां पुर एव दृश्यो , रविब्रहाणामिव तेजिताशः। पुनः पुनश्चापभृतो रणाय , प्रणोदयन् स्कन्द' इवादितयान्॥ 'जैसे समस्त ग्रहों में दिशाओं को दीप्त करने वाला सूर्य आगे देखा जाता है वैसे ही यह वीर सेनाओं के आगे ही देखा जाता है। जैसे कात्तिकेय देवताओं को प्रेरित करता है वैसे ही यह धनुर्धारी वीर सुभटों को युद्ध के लिए बार-बार प्रेरित करता है।' ४६. सैन्याग्रवर्ती किल सिंहसेनः , सेराह'वाजी शरभ ध्वजोयम् । .. यन्नाममात्राद् द्विषदङ्गनाभिविहाय हारांश्च कचा ध्रियन्ते ॥..' 'सेना के आगे चलने वाला यह सिंहसेन है। इसके अश्व सफेद और ध्वज-चिन्ह अष्टापद है। इसके नाम-मात्र से भयभीत होकर वैरियों की स्त्रियां अपने हारों को छोड़कर (अपनी वेणी को निर्बन्ध कर अपनी छाती पर) केशों को धारण करती हैं।' ४७. चापादवारोपयदेष किञ्चिद् , रथी गुणं न स्वयमभ्यमित्रम् ।। सुधीः कृतज्ञत्वमिव स्वचित्तादनन्यसौजन्यरसोऽभिरामात् ॥ 'यह रथी (सिंहमेन) शत्रुओं की ओर तानी हुई धनुष्य की प्रत्यंचा को स्वयं कभी नहीं उतारता, जैसे असाधारण सौजन्य वाला सुधी अपने कमनीय चित्त से कृतज्ञता के भाव को नहीं उतारता।' ४८. श्येनध्वजः सादितशत्रु पक्षः , पराक्रमी विक्रमसिंह एषः । क्रियाह वाहः किल कुन्तधारी , पितुनिदेशं स्वयमीहते द्राक् ॥ 'इसका नाम विक्रमसिंह है। यह अत्यन्त पराक्रमी और शत्रुपक्ष को जीतने वाला है। इसका ध्वज-चिन्ह है बाजपक्षी और अश्व हैं लाल। इसके हाथ में भाला है और यह अपने पिता की आज्ञा की शीघ्रता से प्रतीक्षा कर रहा है।' ४६. अयं रथी वैरिभिरेकमूर्तिः , सहस्रधा लोक्यत एव युद्धे । दोर्दण्डकण्डूतिरमुष्य जेतुः, प्रत्यर्थिवक्षोभिरतो व्यपास्या॥ 'रथ पर आरूढ इस वीर को शत्रुओं के सुभटों ने हजारों बार युद्ध में देखा है। यह १. स्कन्द:-कात्तिकेय । २. आदितेया:-देवता (अभि० २।२) ३. सेराहः-अमृत या दूध के समान रंगवाला (घोड़ा) (पीयूषवणे सेराहः-अभि० ४।३०४) ४. शरभः-अष्टापद (शरभः कुञ्जराराति:-अभि० ४।३५३) ५. क्रियाहः-लाल (घोड़ा) (क्रियाहो लोहितो हयः-अभि० ४।३०४) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः . २७३ सदा एकरूप रहता है । इस विजेता वीर की भुजदंड को खुजली वैरियों की छाती में प्रहार करने से ही दूर हो सकती है।' . ५०. सोयं विनीलाश्वरथी कनीयान् , सर्वेषु पौत्रेषु युगादिनेतुः । विपत्करी पत्ररथेन्द्र'केतोर्भुजद्वयी यस्य चिरं रिपूणाम् ॥ 'नीले घोड़ों वाले रथ पर आरूढ यह वीर ऋषभदेव के पौत्रों में सबसे छोटा है। इसका ध्वज-चिन्ह गरुड़ है। इसका बाहु-युगल वैरियों के लिए चिरकाल तक विपत्ति उपस्थित करने वाला है।' ५१. महाबलाल्यो बलसिन्धनाथः , पित्रा निषिद्धोऽपि रणाय तूर्णम् । धावत्यसो तीर इवास्त्र मुक्तस्तेजस्विनो यल्लघवोऽपि वृद्धाः ॥ 'यह महाबल पराक्रम का समुद्र है । पिता के द्वारा निषेध करने पर भी यह युद्ध के लिए धनुष्य से मुक्त तीर की भांति वेग से दौड़ता है। क्योंकि तेजस्वी लघु होने पर भी महान होते हैं।' ५२. उपात्तनानायुधयानलीला , लक्षत्रयो बाहुबलेः सुतानाम् । . एवं बलौद्धत्यरसाज्जगन्ति , तृणन्ति तेजस्विषु किं नु चित्रम् ? 'बाहुबली के तीन लाख पुत्र नाना प्रकार के आयुध और यानों से सज्जित हैं। इस प्रकार वे अपने उद्धत पराक्रम से समूचे जगत् को तृणवत् मानते हैं । तेजस्वी के लिए ऐसा करने में आश्चर्य ही क्या है ?' ५३. विद्याधरेन्द्रोऽनिलवेग एष , व्यालध्वजो व्यात्तमुखोऽभ्युपैति । युधि द्विषद्ग्रासकृते तरस्वी , रथेन चित्राश्वयुजा खमार्गात् ॥ 'विद्याधरों का अधिपति यह अनिलवेग चितकबरे घोड़ों से युक्त रथ पर आरूढ होकर आकाश-मार्ग से मुंह बांए आ रहा है । इसका ध्वज-चिन्ह सर्प है। यह युद्ध में शत्रुओं का ग्रास करने में अत्यन्त पराक्रमी है।' ५४. वितन्वताऽनेन विहारलीला , विहारलीला' युवती रिपूणाम् । विलोक्य चित्र प्रमदाप्रकाशं , मदप्रकाशं च कृतं विशेषात् ॥ १. पत्ररथेन्द्रः-पत्ररथ का अर्थ है पक्षी । पक्षियों का इन्द्र-गरुड़ । २. अस्त्रम्-धनुष्य (धनुश्चापोऽस्त्रमिष्वास:-अभि० ३।४३६) ३. विहारलीलाः -विगता हारस्य लीला यासां, ताः विहारलीलाः (द्वितीयाया बहुवचनम् ) ४. मदप्रकाशं--अन मदप्रकाश: इति युक्तम्। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'विहरण की क्रीड़ा करते हुए इस अनिलवेग ने शत्रुओं की युवतियों को हार से शून्य किया है। उसने प्रमदाओं की विचित्र अभिव्यक्तियों को देखकर विशेषरूप से मद प्रदर्शित किया । ५५. रत्नारिरेष प्रकटप्रतापश्चाङ्गकेतुर्भटचक्रचक्री। __गर्जन गदाव्यग्रकरः समेति , सावज्ञनेत्रो रणवामधुर्यः ।। 'यह सुभट शिरोमणी रत्नारि है। इसकी तेजस्विता अत्यन्त स्पष्ट है। इसका ध्वज-चिन्ह है हंस । इसकी आंखों से वंरियों के प्रति अवज्ञा का भाव झांक रहा है। यह युद्ध की प्रतिकूल स्थितियों को सहन करने में अग्रणी है। देखो, इसका हाथ गदा से व्यग्र है और यह गर्जता हुआ आ रहा है।' ५६. अयं नमेराहवकौशलस्य , सैन्यप्रभो ! स्मारयिता तवैव। गजध्वजस्तुङ्गगजाधिरूढो , भुजोष्मणा हारयिता हरेः किम् ? ' 'हे सेनापते ! यह रत्नारि आपको युद्ध -कौशल में नमि की याद दिला देगा। हाथी के ध्वज-चिन्ह वाला यह वीर उन्नत हाथी पर आरूढ़ है। क्या इन्द्र अपनी भुजाओं की ऊष्मा से इसे हरा सकता है ?' ५७. नानास्त्रयानध्वजशालिनोऽमी , सहस्रशोऽन्येपि रणं समेताः । उद्वाहवो बाहुबलेः क्षितीशा , यथोत्सवाः पुण्यकृती निकेतम् ॥ 'अनेक प्रकार के अस्त्र, यान और ध्वजा वाले ये वीर सुभट तथा हजारों दूसरे राजे इस रण में समागत हैं। बाहुबली के पक्ष के ये सभी भूपाल उद्बाहु हैं । जैसे उत्सव पुण्यशाली पुरुषों के लिए निकेतन होते हैं, वैसे ही ये वीर पराक्रम के निकेतन हैं।' ५८. एकोप्यजय्यो युधि चैष राजा , भटैः किमेभिः परिवारितोऽयम् । विलोकनीयो न दृशापि तिग्ममरीचिवद्वासरयौवनान्तः ॥ 'युद्ध में यह अकेला राजा भी अजेय है। सुभटों से परिवृत होने पर इसका कहना ही क्या ? तीक्ष्ण रश्मि वाला सूर्य वैसे ही आँखों से नहीं देखा जा सकता, फिर मध्यान्ह वेला में उसे देखने की बात ही क्या ?' ५९. इत्युक्तवन्तं मगधक्षितीशमुपेक्ष्य सैन्याधिपतिः सुषेणः । क्ष्मेन्दोयुगान्ताब्द इव व्यमुञ्चत् , क्ष्वेडां परप्राणहरीमनीके ॥ १. वासरयौवनान्तः-वासरस्य यौवनं-मध्यान्हं, तस्य अन्तः—मध्यः । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः २७५ 'स्तुतिपाठक शिरोमणी बृहस्पति ने जो कहा उसकी उपेक्षा कर सेनापति सुषेण ने चक्रवर्ती की सेना में प्रलयकालीन मेघ की भांति शत्रुओं के प्राणों का हरण करने वाला भयंकर सिंहनाद किया।' ६०. प्रादुर्बभूवुर्युगपत्तदैव , पञ्चास्यनादा भटसानुमद्भ्यः । नितान्तसंभ्रान्तिकराधिकारा , गर्जेविरावा इव वारिदेभ्यः ॥ उस समय सुभट रूपी पर्वतों से एक साथ सिंहनाद होने लगे । वे सिंहनाद बादलों से उठे हुए गर्जारव की भांति नितान्त संभ्रान्ति पैदा करने वाले अधिकार से युक्त थे । ६१. ससंभ्रम विश्वमपीह विश्व , बभूव विश्वापि चलाचलेयम् । दिक्कुञ्जरास्त्रासमुपेत्य तस्थुश्चित्रार्यलीला इव सर्वतोऽपि ॥ ६२. उज्जागरा मन्दरकन्दरस्था , द्राक् किन्नराः पाणिनिमील्यनेत्राः। बभूवुरत्यजकाः स्त्रियोऽपि , तः सिंहनादर्भटकुञ्जराणाम् ॥ -युग्मम् । उन सिंहनादों से सारा विश्व व्याकुल हो गया और सारा भूमंडल कांप उठा। चारों ओर से त्रस्त होकर दिक्-कंजर चित्र में चित्रित लीला करने वालों की भांति स्तब्ध हो गए। श्रेष्ठ योद्धाओं के सिंहनाद को सुनकर मन्दर की कन्दराओं में रहने वाले जागृत किन्नर भी शीघ्र ही हाथों से आँखें बंद कर बैठ गए। स्त्रियां भी बच्चों को दूर छोड़, भयभीत होकर बैठ गईं। ६३. टंकाररावा भटचापकोटिकोटिभ्य एताः प्रथिमानमुच्चैः । कल्पान्तकालाम्बुधिजिभीमा , दिक्कुञ्जकुक्षिभरयः प्रसस्रः॥ सुभटों के कोटि-कोटि धनुष्यों से उठने वाले टंकार दूर-दूर तक फैल गए। वे प्रलयकाल के समुद्र के गर्जारव की भांति भयंकर थे। वे दिशाओं के कोने-कोने में व्याप्त हो गए। ६४. इतः स्वयं तक्षशिलाधिपोऽपि , भ्रातुः सुतान् वेदयितुं सुतानाम् । ___ भ्रूसंज्ञयाऽपृच्छदमात्यधुर्य , सुमन्त्रनामानमनामिताङ्गः ॥ इधर तक्षशिला के अधिपति उन्नत अग वाले महाराज बाहुबली ने स्वयं अपने पुत्रों को भाई के पुत्रों का परिचय देने के लिए अपने प्रधान मंत्री सुमंत्र को भौंहों के इशारे से कहा (पूछा)। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ६५. ६६. उन्होंने कहा – 'मंत्रीवर्य ! इस रणस्थली में महाराज भरत के जो महान् योद्धा हैं और जो विशेष रूप से सेना का पथ-दर्शन करने के लिए विश्रुत हैं, तुम निःशंक और निर्भय होकर उन सबके नाम, ध्वज - चिन्ह, यान और घोड़ों के विषय में बताओ ।' ६७. महायुधा ये युधि भारतेया, विशिष्य नासीरतया प्रतीताः । निःशङ्कमातङ्कमपास्य तेषामाशंस नामध्वजयानवाहान् ॥ तवाग्रजोऽयं स गजाधिरूढो, महाभुजो भारतराजराजः । यस्य प्रभावान्निलयान् विहाय गुहागृहा एव भवन्त्यमित्राः || तब मंत्री ने कहा - 'राजन् ! हाथी पर आरूढ ये आपके बड़े भाई भुजंबली चक्रवर्ती भरत हैं । इनके प्रभाव से शत्रुगण अपने घरों को छोड़कर गुहावासी ही हो जाते हैं ।' ६६. भरतबाहुबलि महाकाव्यम् " सात हेतुः पुरुहूत' केतु विजेतुकामों निखिलारिवर्गम् । अन् सुषेणेन रणे नृपोऽयं न्यषेधि लोभेन यथा विवेक: ।। 1 'इन्द्र के ध्वज-चिह्न वाला चक्रवर्ती समस्त शत्रुवर्ग को जीतने के सहेतुक अभिप्राय से जब रण में जा रहा था तब सुषेण सेनापति ने उसे वैसे ही रोका जैसे लोभ विवेक को रोकता है ।' ६८. अयं सुषेण ध्वजिनीमहेन्द्रो हर्यक्षकेतुर्युधि धूमकेतुः । पत्युः पुरश्चालयते रथं स्वं गौरांशुगौराश्वजुषं प्रसह्य ॥ 1 , 'यह है सुषेण सेनापति । यह युद्ध में अग्नि की भाँति सब कुछ भस्म करने वाला है । इसका ध्वज चिह्न सिंह है । यह अपने स्वामी भरत के आगे-आगे श्वेत किरणों की भाँति श्वेत अश्वों से युक्त रथ को स्वयं वेग के साथ चला रहा है ।' जयी सुषेणानुज एष कोक केतुः कपोताभहयः पुरस्तात् । रथाधिरूढः समराय चैति निस्त्रिशपाणिर्जगदेकवीरः ॥ 'यह सुषेण सेनापति का छोटा भाई 'जयी' है । ' चकवे' के ध्वज- चिह्न वाला यह वीर कबूतर के रंगवाले घोड़ों से युक्त रथ पर आरूढ़ होकर युद्ध के लिए आगे जा रहा है । इसके हाथ में तलवार है और यह जगत् का एकमात्र वीर है ।' १. पुरुहूतः -- इन्द्र । २. कोक: - चकवा (कोको द्वन्द्वचरोऽपि च - अभि. ० ४ | ३६६ ) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ चतुर्दशः सर्गः ७०. ज्येष्ठोङ्गजश्चक्रधरस्य चेष , सूर्योल्वणः सूर्ययशा यशोब्धिः . यस्यावलोकात्प्रतिपक्षघूको , लीनो वने क्वापि निमील्य नेत्रे ॥ 'भरत चक्रवर्ती का यह ज्येष्ठ पुत्र 'सूर्ययशा' है । यह सूर्य की भांति तेजस्वी और यश रूपी समुद्र है । इसको देखते ही शत्रुरूपी उल्लू अपनी आँखें बन्द कर कहीं वन में छुप जाता है।' ७१. आदित्यकेतुर्नपनीतिसेतुर्दारिद्रवाहः स्थितिवारिवाहः। पितुः पुरः स्यन्दनसन्निविष्टस्त्रिविष्टपं जेतुमपि क्षमोऽयम् ॥ 'सूर्य के ध्वज-चिह्न और पीले घोड़े युक्त रथ वाला यह वीर राजा की नीति के लिए सेतु के समान और मर्यादा रूपी जल को वहन करने वाला जलधर है। तीनों लोकों को भी जीतने में सक्षम यह अपने पिता के आगे रथ पर बैठा है।' ७२. देव ! त्वज्यं देवयशास्तदीयानुजो महावीरतया प्रकाशः । मयूरकेतुर्मचितारिवों , मयूरवाजीरथसन्निषण्णः ॥ 'देव | सूर्ययशा का छोटा भाई यह देवयशा है। यह महान वीरता के लिए विश्रुत है। इसका ध्वज-चिह्न है मयूर । शत्रुओं को मथने वाला यह वीर मयूर के रंग वाले घोड़ों से जुते हुए. रथ पर बैठा है।' ७३. वैरिद्ववारो युधि वीरमानी , सोऽयं रथी वीरयशाः सशौर्यः । वज्रध्वजो बभ्र हयोऽरिसर्पान् , हन्तुं नदीष्णों भुज एव यस्य ॥ यह वीरमानी रथी वीरयशा है । यह युद्ध में शत्रु-रूपी वृक्षों का उन्मूलन करने में महापराक्रमशाली है। इसका ध्वज-चिह्न है वज्र । इसके रथ में जुते हुए घोड़े पीत-रक्त वर्ण वाले हैं। इसकी भुजाएँ ही शत्रु रूपी सों को नष्ट करने में निपुण हैं। ७४. . धैर्याम्बुधिधुम्रहयश्च धूमध्वज ध्वजोऽयं कलिभूतधात्रीम् । अभ्येति सखः सुयशा निकेतं , दीप्त्युल्वणो दीप इव प्रदोषे ॥ १. श्रेष्ठो''इत्यपि पाठः। २. हारिद्रवाहः-पीला घोड़ा (हारिद्रः पीतलो गौर:-अभि० ६।३०) ३. बभ्र ध्वजो इत्यपि पाठः । ४. बभ्रुः-पीत-मिश्रित लाल रंग (बभ्रुः कद्र : कडारश्च-अभि० ६।३३) ५. नदीष्ण:-निपुण (अथ प्रवीणे क्षेत्रज्ञो नदीष्णो निष्ण इत्यपि-अभि० पृष्ठ ६३) ६. धुमध्वज:-अग्नि । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ भ रतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'जैसे रात्रि के प्रारम्भ में देदीप्यमान दीपक घर में लाया जाता है (जलाया जाता है) वैसे ही धैर्य का समुद्र यह पराक्रमी वीर सुयशा शीघ्र रणभूमो में आ रहा है। इसके घोड़े धुएं के रंगवाले हैं और इसका ध्वज-चिह्न अग्नि है।' ७५. स कालमेघो रिपुकालमेघः , काल'ध्वजः काल हयाधिरूढः । द्विषामकालेऽपि भुजोष्मणा यः , कालस्य चिन्तां वितनोत्यजस्रम् ॥ 'राजन् ! इस वीर का नाम कालमेघ है। यह शत्रुओं के लिए मृत्यु रूपी मेघ है। इसका ध्वज-चिह्न है यमराज और यह काले घोड़े पर आरूढ़ है। यह अपने भुज-पराक्रम से शत्रु-पक्ष के लिए अकाल में भी सहसा काल (मृत्यु) की चिन्ता ला देता है।' ७६. शार्दूलकेतुर्गरुडाभवाजी , शार्दूलनामापि सुतो लघीयान् । उल्लन्ध्य तातस्य निदेशमेष , क्षुधाविद् धावति सङ्गराय । भरत का यह छोटा पुत्र शार्दूल है। इसका ध्वज-चिह्न शार्दल.है और इसके घोड़े गरुड़ पक्षी की आभा वाले हैं। यह अपने पिता के आदेश का उल्लंघन कर क्षुधा से पीड़ित व्यक्ति की भाँति संग्राम के लिए दौड़ रहा है।' ७७. विद्याधरेन्द्रा अपि भूचरेन्द्रा , अनेकशः सन्त्यपरेऽपि वीराः । महीशित ! स्तेप्यवलोकनीयाः , संख्यातिगानां गणनात्र कापि ॥ 'इस प्रकार भरत की सेना में अनेक विद्याधरेन्द्र और भूपति हैं। उनके साथ और भी अनेक वीर सुभट हैं । राजन् ! आप उनको भी देखें। वे संख्यातीत हैं। उनकी क्या गणना हो सकती है ?' ७८. बले त्वदीये स्फुटमापतन्तो , वारि प्रदेशे द्विरदा इवामी। सुतैनिरुध्यन्त इतस्त्वदीयः , पाशैरिवावार्यतरैर्बलेन ॥ 'ये सुभट आपकी सेना पर वैसे ही आ पड़ेगे जैसे हाथी अपनी बंध-भूमी पर आ पड़ते हैं। तब आपके पुत्र उनका वैसे ही निरोध करेंगे जैसे शक्तिपूर्वक दुनिवार पाशों (बंधनों) से हाथी निवारित किये जाते हैं।' १. कालः-यमराज (कीनाशमृत्यू समवर्तिकाली–अभि० २।६८) २. काल:-काला (कालो नीलोऽसितः शिति:-अभि०६।३३) ३. वारि:-हाथी को बाँधने की भूमी (वारिस्तु गजबन्धभूः-अभि० ४।२६५) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः ७६. इति वदति सुमन्त्रे मन्त्रिणि स्वरमुच्चेवृषभ जनतनूजौ पूर्णपुण्योदयाढ्यौ । समरभुवि ततज्ये' कार्मुके आददाते, प्रमुदित विजयश्री चित्ररेखानुकारे ॥ इस प्रकार सुमंत्र मंत्री ने स्पष्ट रूप से सारी बातें बताईं । ऋषभदेव के पुण्यशाली दोनों पुत्र - भरत और बाहुबली, प्रत्यंचा ताने हुए और प्रमुदित विजयश्री की चित्ररेखा जैसे धनुष्यों को धारण कर समर-भूमी में आये । - इति सैन्यद्वयसमागमवर्णनो नाम चतुर्दशः सर्गः - -- २७६ १. ततज्ये - तता - विस्तृता, ज्या - मार्वी, ययोस्ते ततज्ये । Page #313 --------------------------------------------------------------------------  Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां सर्ग युद्ध का वर्णन। प्रतिपाद्यश्लोक परिमाण १३१ छन्द- .. अनुष्टुप् । देखें, सर्ग ३ का विवरण । लक्षण Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ। रक्त की स्रोतस्विनी बह चली। हाथी तैरने लगे। कटे शिर वाले कुछ सुभटों के धड़ मात्र लड़ रहे थे। वे इस बात को प्रमाणित कर रहे थे कि शरीर अभिप्राय के पीछे-पीछे चलता है। भरत की सेना का सेनापति सुषेण और बाहुबली की सेना का सेनापति सिंहरथ दोनों अपनी-अपनी सेनाओं को प्रोत्साहित कर रहे थे। उस समय ऐसा लग रहा था मानों कि पार्वती का पुत्र कात्तिकेय अपनी देवसेना को प्रोत्साहित कर रहा हो। सुषेण के सामने कोई नहीं टिक सका। बाहुबली की सेना में 'भगदड़ मच गई। इतने में ही बाहुबली का पक्ष लेने वाला विद्याधर 'अनिलवेग' उससे आ भिड़ा। भीषण आक्रमण-प्रत्याक्रमण होने लगे। अनिलवेग ने सुषेण के धनुष्य को तोड़ डाला । सुषेण क्रुद्ध होकर सिंहरथ पर झपटा। दोनों का युद्ध देखकर दर्शकगण दांतों तले अंगुली दबाने लगे। इतने में ही सूर्य अस्ताचल में जा छुपा । युद्ध बन्द हो गया। दसरे दिन फिर दोनों की भिड़न्त हई । सिंहरथ के तीव्र प्रहारों के कारण सुषेण रणभूमी को छोड़कर भाग गया। रणभूमी में हाहाकार मचाने वाले अनिलवेग को देखकर चक्रवर्ती ने अपना चक्र फेंका। वह रणभूमी से भाग खड़ा हुआ। दूर जाकर उसने विद्याशक्ति से वज्रमय पंजर बनाकर स्वयं तोते की भांति उसमें जा छुपा । चक्र ने बिडाल का रूप धारण कर तोते की गरदन मरोड़ दी। अनिलवेग मर गया । यह देख बाहुबली के सुभटों का खून खौल उठा। वे शतगुणित उत्साह से लड़ने लगे। उन्होंने चक्रवर्ती के सैनिकों को तिनकों की भांति जलाना प्रारंभ किया। उनकी सेना का यशस्वी वीर रत्नारि' मैदान में कूद पड़ा और देखते-देखते उसने चक्रवर्ती की समूची सेना को आक्रान्त कर डाला। इतने में ही चक्रवर्ती के यशस्वी सूभट विद्याधरेश महेन्द्र ने रत्नारि के शिर को चूर-चूर कर डाला । सूर्य अस्त हो गया। दोनों सेनाए अपने-अपने शिविरों मे आ गई । सेनापति सुषेण ने भरत से कहा-'राजन् ! आपके पुत्र वीर हैं किन्तु वे बंधुजनों के दाक्षिण्य के कारण युद्ध लड़ना नहीं चाहते। यह उचित नहीं है। उनके कारण आपको पराजय का मुह देखना पड़े, यह क्षत्रियोचित बात नहीं हैं।' चक्रवर्ती के पुत्रों को यह आरोप असह्य लगा और व सब युद्ध के लिए प्रमुदित हो उठे। दूसरे दिन सूर्योदय के साथ-साथ युद्ध प्रारंभ हो गया । बाहुबली के दो विद्याधर वीर-सुगति और मितकेतु चक्रवर्ती के पुत्र शार्दूल तथा सूर्ययशा द्वारा मारे गए । विद्याधर युगल के वध से क्रुद्ध होकर बाहुबली ने सिंहनाद किया । उस सिंहनाद को सुनकर चक्रवत्ती के सवा कोटि पुत्र रणभूमी से पलायन कर गए । अब सूर्ययशा और बाहुबली आमने-सामने हो गए। देवता प्रकंपित हो उठे। ०० Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेना के संभार से खिन्न रणभूमी में होने वाले हुंकारों की भांति, निपुण तीरन्दाज योद्धाओं के धनुष्यों से भीषण टंकार निकलने लगे । २. पञ्चदशः सर्गः धनुर्भ्यः कृतहस्तानां टङ्कारा निर्ययुस्तराम् । सैन्य सम्भारविण्णाया, हुङ्कारा इव युर्भुवः ॥ 1 सर्वतः पर्वताः पेतुः अमूवृक्षान्न संरावान् 1 कातरत्वादिति क्षणात् । वर्याः श्रोतुमपि क्षमाः ॥ बड़े-बड़े पर्वत भी इस प्रकार की आवाज को सुनने में असमर्थ थे । वे कायरता से उसी क्षण चारों ओर से ढह पड़े । ३. टङ्काराकर्णनोभ्रान्ता दिशो दश समन्ततः । " तूर्यध्वानप्रतिध्वानव्याजात् पूच्चक्रिरेतराम् ॥ ५. टंकार के शब्दों को सुनकर दशों दिशाएं उद्भ्रान्त हो गईं। वे तूरी के शब्द की प्रतिध्वनि करने के मिष से चारों ओर से चिल्लाने लगीं । ४. क्वचिद् गजमयं सैन्यं क्वचिद्र रथमयं पत्तिमयं तुरङ्गममयं क्वचित् । क्वचिद राजत ॥ उस रण भूमि में कहीं हाथियों की, कहीं घोड़ों की, कहीं रथों की और कहीं पैदल सैनिकों की सेना शोभित हो रही थी । चतुरङ्गचमूः साथ, विरराज रणक्षितौ । कामं वरीतुकामेव, जयलक्ष्मीं स्वयम्वराम् ॥ वह चतुरंग सेना रणभूमी में शोभित हो रही थी । वह ऐसी लग रही थी मानो कि वह स्वयंवर में उपस्थित जयलक्ष्मी का वरण करना चाहती हो । १. कृतहस्तः - निपुण तीरन्दाज (कृतहस्तः कृतपुंख: - अभि० ३।४३६ ) Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २८४ ६. पत्तिभिः पतयः स्तम्बेरमै गा हयैर्हयाः। स्यन्दनः स्यन्दना इत्थमयुध्यन्त परस्परम् ॥ पैदल सैनिकों के साथ पैदल सैनिक, हाथियों के साथ हाथी, घोड़ों के साथ घोड़े और रथों के साथ रथ-ये सब परस्पर युद्ध लड़ रहे थे। ७... सैन्ययो:रधुर्याणां , पूर्व चेलुः शिलीमुखाः। ___ जयश्रियमिवान्वेष्टुं, स्थानान्तरनिवेशिनीम् ॥ ८. तीक्ष्णांशुकरसंतप्तं , व्योम वीजयितुं त्विव । कोदण्डकोटिनिर्मुक्तपत्रिपत्रविधूननैः ॥ -युग्मम् । दोनों सेनाओं के वीर सुभटों के तीर पहले ही चल पड़े, मानो कि वे दूसरे स्थान में निवास करने वाली जयश्री को खोजने के लिए चलें हों अथवा सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से संतप्त आकाश को, धनुष्यों से छूटे हुए बाण रूपी पंखों से हवा झलने के लिए चलें हों। ६. गुणरिव शरैलॊकत्रितयो व्यानशेतराम । तदानीं भटकोटीनां , सङ्गरोत्सङ्गसङ्गमे ॥ उस समय रणभूमी के उत्संग में दोनों सेनाओं के.संगम से लाखों सुभटों के धनुष्यों से छूटे हुए बाण तीनों लोकों में गुणों की भांति व्याप्त हो गए। १०. क्षरदूधिरधाराभो , रञ्जिता अपि पत्रिणः। उद्यन्तो रेजिरेऽत्यन्तं , तरणेः किरणा इव ॥ झरती हुई रुधिर की धारा से रंजित ऊपर जाते हुए बाण भी सूर्य की किरणों की भांति अत्यन्त शोभित हो रहे थे। ११. क्वचिन्नासीरवीराणां , विकोशासिवराः कराः। समुद्यद्विादुद्योता , जलदा इव रेजिरे ॥ कहीं-कहीं आगे चलने वाली सेना के वीर सुभटों के, म्यान से निकाली हुई तलवारों से युक्त हाथ, चमकती हुई बिजली से उद्योतित बादलों की भांति शोभित हो रहे थे। १२. चक्रिणश्चक्रचीत्कारैर्घण्टानादैश्च कुञ्जराः। हेषितैस्तुरगा ज्ञेया , आसन रेणुतमोभरे ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः .. २८५ रेणु रूपी अंधकार से व्याप्त उस रणभूमी में पहिओं के चीत्कारों से रथ, घंटाओं के शब्दों से हाथी और हिनहिनाहट से घोड़े पहिचाने जाते थे । १३. पतङ्गा इव दीपान्तः, केचिद् वीरा रणाजिरे। उत्पतन्तः पतन्तश्च , नाप्यसून बहु मेनिरे ॥ कुछ सुभट उस रण-प्रांगण में दीपकों में गिरने वाले पतंगों की तरह ऊपर उछलते हुए और गिरते हुए अपने प्राणों को भी बहुत नहीं मानते थे । १४. उत्सर्पच्छोणितोद्दामपूरप्लावितभूमृति । मीना इवाजिवाहिन्यां', मज्जन्तिस्म मतङ्गजाः ॥ बहते हुए रक्त के उद्याम प्रवाह से भूधरों ( पर्वतों या राजाओं) को आप्लावित करने वाली युद्ध रूपी नदी में हाथी मछलियों की भांति मज्जन कर रहे थे। १५. केषां निस्त्रिशनि नमौलीनां नन्तुस्तराम् । - कबन्धा गाढनिर्बन्धा , वातोद्धता द्रमा इव ॥ कुछ सुभटों के शिर तलवार द्वारा कटे हुए थे । उनके धड़ गाढ आसक्ति के कारण वायु से प्रकंपित वृक्षों की भांति उस रणभूमी में माच रहे थे। १६. युद्धकल्लोलिनीनाथकल्लोलितभुजा भटाः । कोत्तिमुक्तालतावारान् , जगृहुर्वक्त्रशुक्तितः ॥ युद्ध रूपी समुद्र में कल्लोलित भुजा वाले सुभट (प्रतिपक्षियों के ) मुख रूपी सीपियों से कीति रूपी मोतियों के लता-समूह को पकड़ रहे थे। १७. दन्तिदन्तासिसंघट्टसंजातोल्कं व्यराजत । __निशि व्योमेव कुम्मोत्थमुक्ताताराञ्चितं मृधम् ॥ जैसे रात का आकाश उल्काओं और ताराओं से शोभित होता है, वैसे ही वह युद्ध हाथियों के कुंभस्थलों से प्राप्त मोतियों रूपी ताराओं से तथा हाथियों के दांतों के साथ तलवारों का संघट्टन होने के कारण उठने वाली उल्काओं से शोभित हो रहा था। १८. वीराणामस्ततीराणां , कुम्भिकुम्भेष्वभुस्तराम् । . कृपाणाः शैलशृङ्गषु , साभ्रविधुच्चया इव ॥ १. आजिवाहिन्याम्-युद्ध रूपी नदी में। २. मृधम्-युद्ध ( संस्फोट: कलहो मृधं-अभि० ३।४६०) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् तीर चलाने वाले वीर योद्धाओं के कृपाण हाथियों के कुंभस्थल पर वैसे ही शोभित हो रहे थे जैसे पर्वतों के शिखरों पर बादलयुक्त विद्युत् के समूह शोभित होते हैं। . १९. उड्डीयेभकपोलेभ्यो , लीनाः क्वापि शिलीमुखाः । एष्यच्छिलीमुखातङ्कादास्यसाम्यं हि दुःसहम् ॥ आने वाले बाणों के आतंक से भयभीत होकर भौंरे हाथियों के कपोलों से उड़कर कहीं चले गए । क्योंकि मुंह की समानता दुःसह होती है। (भौंरों के मुंह भी तीखे होते हैं और बाणों के अग्रभाग (मुख) भी तीखे होते हैं। इसलिए संस्कृत में दोनों का नाम है-शिलीमुख)। २०. केषांचिल्लूनमौलीनां , युद्धोत्साहाद् धनुर्भृताम् । कबन्धा अप्ययुध्यन्त , ह्यभिप्रायानुगं वपुः ॥ शिर कटे हुए कुछ धनुर्धरों के युद्धोत्साह के कारण उनके धड़ भी लड़ रहे थे । क्योंकि शरीर अभिप्राय के पीछे-पीछे चलता है। ' २१. गदाभिः स्यन्दनाः कश्चिच्चूरिताः शुष्कपत्रवत् । अपात्यन्त गजेन्द्राश्च , वनभिन्नाद्रिशृङ्गवत् ॥ कुछ सुभटों ने रथों को गदा द्वारा सूखे पत्ते की भांति चूर-चूर कर डाला । कुछ सुभटों ने बड़े-बड़े हाथियों को वज्र से आहत पर्वत-शिखर की भांति नीचे गिरा डाला। २२. वीराः केचिद् रणोत्थाष्णुभुजचण्डिमविताः । वैरिणं क्षणमाश्वास्य , योधयामासुरञ्जसा ॥ कुछ वीर रण में स्फूर्त भुजाओं की प्रचंडता से गर्वित होकर वैरियों को क्षण भर के लिए आश्वस्त कर फिर शीघ्र ही युद्ध करने लगे । २३. भटाः केचिद् बलौद्धत्यात् , क्रीडाकन्दुकहेतुजान् । शताङ्गाश्चतुरङ्गाश्च , सहेलमुदपाटयन् ॥ कुछ वीर सुभटों ने अपने बल की उद्धतता के कारण शतांग और चतुरंग रथों को खिलौने की भांति लीलापूर्वक उखाड़ फेंका। १. पाठान्तरं-अलीभाः। २. पाठान्तरं-मुखातङ्कान्नास्यसाम्यं । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः २८७ २४. दन्तानाचकृषुः केचिद् , दन्तिभ्यः कन्दवद् भुवः । दोर्दण्डचण्डमाहात्म्यं , नयन्तः परभागताम् ॥ अपने भुजदंड के प्रचण्ड महत्व को उत्कर्ष प्राप्त कराते हुए कुछ वीर सुभटों ने हाथियों के दांतों को, भूमी से कंद की भांति, उखाड़ डाला। २५. सैन्यैः केशेषु संगृह्य , शिरांसि गगनस्थले । भ्राम्यन्तेस्म च केषांचित्, खड्गलू नानि वैरिणाम् ॥ कुछ सुभट खड्ग से शत्रु-सुभटों के शिर काटकर, उन्हें चोटी से पकड़ आकाश में घुमा रहे थे। २६. अहङ्कारः समं केषां , केतवः शौर्यसेतवः। . ... अच्छिद्यन्त तृणच्छेदं , किमच्छेद्यं हि दो ताम् ॥ कुछ वीरों ने अपने प्रतिपक्षियों के शौर्य की सेतुभूत पताकाओं को, उनके अहंकार के साथ तिनके की भांति तोड़ डाला । बाहुबलियों के लिए अछेद्य क्या होता है। २७. 'सा कङ्कालमयी मुण्डमयी रुण्डमयी क्वचित् । प्रेतेशराजधानीव , भीषणाऽभाद् रणक्षितिः॥ वह रणभूमी कहीं कंकालमयी, कहीं मुंडमयी और कहीं रुण्ड (धड़) मयी हो रही थी। वह यमराज की राजधानी (संयमनी) की भांति भयंकर लग रही थी। २८. जितानेकाहवा यूयं , किमद्यापि प्रमाद्यत । इत्युक्ताः स्वामिना स्वैरं , योयुध्यन्तेस्म दो तः॥ अपने-अपने स्वामी द्वारा यह स्पष्ट कहे जाने पर कि-'वीरो ! तुमने अनेक युद्ध लड़े हैं और जीते हैं, फिर आज प्रमाद क्यों कर रहे हो'–वीर सुभट अपनी स्वतन्त्र इच्छा से दुगुने वेग से लड़ने लगे। कुन्ताग्रेण समादायाऽश्ववारः केनचिद् युधि । विद्धसादिशिरोवाजिमध्येनाधोमुखं पृतः॥ युद्ध में किसी सुभट ने अश्वारोही का शिर और अश्व का पेट बींधकर, अश्वारोही को भाले की नोंक से उठाकर उसे ओंधा लटका लिया। ३०. सपताकी सभूपालः, सतुरङ्गः ससारथिः। अक्षेप्युत्क्षिप्य केनापि , दूरतो लोष्ठवद् रथः ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् किसी वीर सुभट ने पताका, राजा, घोड़े और सारथि सहित रथ को उठाकर ढेले की भांति दूर फेंक दिया । ३१. हास्तिका' श्वीय पादाग्रैमदिताः पातिता भुवि । शूरत्वं कलयामासुः केचित् स्वामिपुरो भटाः ॥ जमीन पर गिराए हुए तथा हाथियों और घोड़ों के चरणों से मर्दित कुछ वीर सुभट अपने स्वामी के समक्ष अपनी वीरता का व्याख्यान कर रहे थे । ३२. रिक्तीबभूवुः केषांचिद्, निषङ्गा विशिखव्रजैः' । कषायैरिव निर्ग्रन्यास्तोयैरिव शरद्धनाः ॥ कुछ वीर सुभटों के तरकस (तूणीर) बाणों से रिक्त हो गए, जैसे निर्ग्रन्थ कषायों से और शरद् ऋतु के बादल पानी से रिक्त होते हैं । ३३. अत्रु गुगं कश्चिच्चापदोष्णोविरोधितः । मन्युमानिव सौजन्यमजन्यमिव पुण्यवान् ॥ किसी वीर ने अपने विरोधी के धनुष्य और भुजा के गुण को वैसे ही तोड़ डाला जैसे क्रोधी पुरुष सौजन्य को और पुण्यवान् पुरुष उपद्रव (पाप) को तोड़ डालता है, नष्ट कर देता है । ३४. 1 भग्ने चापे कृपाणेऽपि कुन्ते कुण्ठे भवत्यपि । दोभिः शौर्य रसोदकाद् युयुत्स्यतेस्म कैश्चन ॥ ३५. 1 कुछ योद्धाओं ने अपने धनुष्य और कृपाण के टूट जाने तथा भाले के कुंठित हो जाने भी शक्तिरस के अतिशय से भुजाओं से युद्ध लड़ा । पर इतः सुषेण: सेनानीरितः सिंहरथो भटान् । सेनानीरिव गीर्वाणान् सोत्साहान् कलयेऽकरोत् ॥ , इधर सेनापति सुषेण और उधर सेनापति सिंहरथ -- दोनों अपनी-अपनी सेनाओं के बीर १. हास्तिकं - हाथियों का समूह ( हास्तिकं तु हस्तिनां स्यात् – अभि० ६।५४ ) २. अश्वीयं - घोड़ों का समूह ( अश्वानामाश्वमश्वीयं -- अभि० ६।५६ ) ३. विशिखः - बाण । ४. धनुष्य पक्ष में गुण का अर्थ है - डोरी और भुजा के पक्ष में उसका अर्थ हैं— शक्ति । ५. सेनानीः कात्तिकेय । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः २८६ सुभटों को युद्ध के लिए वैसे ही प्रोत्साहित कर रहे थे जैसे पार्वती का पुत्र कार्त्तिकेय देवताओं को प्रोत्साहित करता है । ३६. अत्यन्तोद्दीप्रकल्याणमय मण्डनमण्डितैः । कुञ्जरैः सतडिन्मेघा गतिमान् शैवली कचैः ॥ 1 ३७. निपतद्गजमुक्ताभिः क्वचिद् मौक्तिकवीथिमान् । रत्नवान् भग्नकोटीररत्नैर्वक्त्रैश्च शुक्तिमान् ॥ ३८. वोहित्यवान्' रथस्तोमैरधरोष्ठैः प्रवालवान् । पाठीनवान्' मुखाद्य मनवान् नृकरांहिभिः ॥ ३६. पतत्रिपत्र निर्ह्रादिर्गाभितातोद्य निःस्वनैः । घोषवान् वाहिनीवृन्देरनाकलितगाधवान् ॥ असृक् कल्लोलिनीनाथः प्रावर्तत यदृच्छया । कल्पान्ता रणे तत्रायोध्यातक्षशिलेशयोः ॥ ४०. " — पञ्चभिः कुलकम् । अयोध्या के अधिपति भरत और तक्षशिला के अधिपति बाहुबली के बीच होने वाले इस प्रलयंकारी रण में रक्त का समुद्र यथेष्ट रूप में प्रवृत्त हो गया । उस समुद्र पर अत्यन्त दीप्तिमान् स्वर्णमय मंडनों से विभूषित कुंजरः रूपी विद्युत् युक्त मेघ मंडरा रहे थे । उस समुद्र पर सुभटों के केश रूपी शैवाल तैर रही थी। हाथियों के कुंभस्थलों से गिरनेवाली मुक्ताओं से कहीं-कहीं वह समुद्र मौक्तिक मार्ग वाला, सुभटों के टूटे हुए मुकुटों से निकले हुए रत्नों से रत्नवान् और मरे हुए सुभटों के मुखों से शुक्तिमान हो रहा था । उसमें रथ रूपी जहाज चल रहे थे । सुभटों के अधर और ओष्ठ प्रवाल की तरह लग रहे थे । उनके मुख आदि अंग पाठीन मत्स्य जैसे प्रतीत हो रहे थे । वह मनुष्यों के हाथ और पैरों के कारण मछलियों वाला लग रहा था । चलने वाले बाणों तथा युद्ध-वाद्यों के शब्दों से वह घोषवान् और सेनाओं के समूह से अगाध लग रहा था । ४१. 1. अथ चक्रधरानीकं नीतं बाहुबलेर्बलैः । मन्दतां तरणेस्तेज, इव हेमन्तवासरैः ॥ बाहुबली की सेनाओं ने चक्रवर्ती भरत की सेना को मन्द कर दिया, जैसे हेमन्त ऋतु के दिन सूर्य के तेज को मंद कर देते हैं । १. वोहित्थं - जहाज ( वोहित्यं वहनं पोतः - अभि० ३ । ५४० ) २. पाठीन :- मत्स्य ( पाठीने चित्रवल्लिक:- अभि० ४ ४११ ) ३. असृक् — रक्त (शोणितं लोहितमसृग् अभि० ३।२८५) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४२. अथ क्रुद्धश्चमूनाथो , भारतेयी स्वयं युधे । डुढौके विन्ध्यशैलद् न , भक्तुं गज इवोन्मदः ॥ भरत का सेनापति सुषेण क्रुद्ध होकर स्वयं युद्ध में वैसे ही दौड़ पड़ा जैसे मदोन्मत्त हाथी विन्ध्य पर्वत के वृक्षों को तोड़ने के लिए दौड़ पड़ता है। ४३. स विवेश रथारूढो , बले ज्येष्ठेतरार्षभः । मन्थाचल इवाम्भोधौ , गजयूथे मृगेन्द्रवत ॥ .. ... वह सुषेण रथ पर आरूढ होकर बाहुबली की सेना में वैसे ही घूसा जैसे मेरु पर्वत मन्थान के रूप में समुद्र में और सिंह हाथियों के यूथ में घुसता है । ४४. क्षयाम्भोधिरिवोद्वेलो , माध्यान्हिक इवांशुमान् । पवनोत्क्षिप्तदावाग्निरिव सेहे न केन सः॥ प्रलयकाल के उद्वेलित समुद्र, माध्यान्हिक सूर्य और पवन द्वारा उद्भूत अग्नि की भांति उस सुषेण के सामने कोई योद्धा टिक नहीं सका। ४५. क्ष्वेडान्तोन्नामतः कांश्चित् , कोदण्डाकर्षणादपि । सोथ बाहुबलेर्वीरान् , काकनाशमनीनशत् ॥ सुषेण ने बाहुबली के कुछ वीरों को तीव्र सिंहनाद के द्वारा तथा कुछ वीरों को धनुष्य की टंकार के द्वारा कौओं की भांति नष्ट कर डाला। ४६. कांश्चिदाकृषतश्चापान , काँश्चित् काण्डाँश्च गृण्हतः । काँश्चिदाददतः खड्गान् , कलि काँश्चिच्च कुर्वतः ॥ ४७. रथानारोहतः काँश्चित् , तुरङ्गाँश्च गजानपि । काँश्चिदस्तरिपून्मादान् , सिंहनादान् विमुञ्चतः॥ ४८. शरसा दऽकरोदेष , युगपद् रिपुसैनिकान् । पलायनकलाचार्यः, सोभूदेषां तदैव च ॥ -त्रिभिविशेषकम् । कुछ सैनिक धनुष्यों पर बाण चढ़ा रहे थे, कुछ धनुष्यों को उठा रहे थे, कुछ खड्गों को धारण कर रहे थे, कुछ युद्ध कर रहे थे, कुछ रथों पर, घोड़ों पर और हाथियों पर आरूढ हो रहे थे तथा कुछ शत्रुओं के उन्माद को नष्ट करने वाला सिंहनाद कर रहे थे । इन सब शत्रु-सैनिकों को सुषेण ने एक साथ अपने बाणों से वींध डाला। उस १. शरसात्--अशरं शरं करोतीति शरसात् करोति । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः २६१ समय ही वह सुषेण इन सबके लिए पलायन का निमित्त बना और 'पलायनकलाचार्य' कहलाया। . ४६. विद्रवन्तमिति स्वरं, सैन्यं स्वामिविवजितम् । तं निरुध्य जगादेत्यनिलवेगो नभश्चरः ॥ स्वामीहीन सेना को अपनी इच्छानुसार भागते हुए देखकर विद्याधर अनिलवेग ने सुषेण को रोकते हुए यह कहा५०. चकिचक्रपुरोवर्ती , त्वं प्रभोर्मम मादृशाः । सन्त्येव गणनातीता , मकरा इव वारिधेः ॥ . 'सुषेण ! तुम चक्रवर्ती भरत की सेना के पुरोवर्ती–सेनापति हो । किन्तु समुद्र में जैसे असंख्य मगरमच्छ रहते हैं, वैसे ही मेरे स्वामी बाहुबली की इस सेना में मेरे जैसे गणनातीत वीर हैं।' ५१. अनेकसमरोत्पन्नाहकारातमेव ते। ममायमगदङ्कारश्चिकित्सति भुजोऽधुना ॥ 'सुषेण ! अनेक युद्धों में उत्पन्न तुम्हारे इस अहंकार रूपी रोग की चिकित्सा अभी मेरे बाहु रूपी चिकित्सक करेंगे।' ५२. इत्युचानमनूचान , एवं तं मानवानसौ। सावज्ञं योधयाञ्चके, कुरङ्गमिव केसरी ॥ अनिलवेग के इस प्रकार कहने पर वीरमानी सुषेण बिना कुछ कहे ही अवज्ञापूर्वक वैसे ही युद्ध करने लगा जैसे केसरीसिंह हरिण के साथ युद्ध करता है। ५३. शरासारवितन्वानावकालेऽपि च दुर्दिनम् । छादयामासतुर्योम , तो चिरं जलदाविव ॥ उन दोनों वीरों ने अपने बाणों की तेज वर्षा से सारे आकाश को बादलों की भांति ढंक डाला और अकाल में भी मेघ से उत्पन्न अंधकार जैसा सघन अंधकार शीघ्र . ही चारों ओर फैला दिया ।। ५४. क्षणं भूमौ क्षणं व्योम्नि , क्षणं तिर्यक् क्षणं रथे। सर्वत्र ददृशाते तौ, योगिनाविव सर्वगौ ॥ १. दुर्दिनं-मेधकृत अंधकार (दुर्दिनं मेघजं तमः-अभि० २७६) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ भरत बाहुबलि महाकाव्यम् वे दोनों वीर क्षण में भूमी पर, क्षण में आकाश, क्षण में तिरछी दिशाओं में और क्षण में रथ पर - इस प्रकार वे सर्वगामी योगी की भांति सर्वत्र दिखाई दे रहे थे । ५५. अतिभ्रान्त सुरस्त्रैणवीक्षितौ समरक्षितौ । रेजतुः कल्पवातोद्य द्विमविन्ध्यगिरी इव ॥ उस समय वे दोनों वीर अतिभ्रांत देवांगनाओं से देखे जा रहे थे । रण-स्थल में वे दोनों कल्पान्तकाल की वायु से उखड़े हुए हिमालय और विन्ध्यगिरि जैसे लग रहे थे । ५६. गीर्वाणाधिष्ठितस्यापि स विद्याधरसत्तमः । , बभञ्जोद्दण्डदोःकाण्डकोदण्डं पृतनापतेः ॥ इतने में ही उस विद्याधर शिरोमणी अनिलवेग ने देवताओं द्वारा सेवित सेनापति सुषेण की उद्दंड भुजा में स्थित धनुष्य को तोड़ डाला । ५७. दण्डेशो भग्नकोदण्डः, फालच्युत हरिर्यथा । क्रोधान्निस्त्रिशमादाय, जिघांसुस्तमऽधावतं ॥ धनुष्य के टूट जाने पर सेनापति सुषेण फालच्युत सिंह की भांति क्रोध से विकराल होकर, हाथ में तलवार ले मारने की इच्छा से अनिलवेग की ओर दौड़ा । ५८. वीक्ष्य कोपकरालाक्षं, तं दूराद्धन्तुमुद्यतम् । अरौत्सीदन्तरा सिंहरथो रविमिवाम्बुदः ॥ मारने के लिए उद्यत और क्रोध से विकराल आंखों वाले सुषेण को दूर से ही देखकर सिंहरथ ने उसे बीच में ही रोक डाला, जैसे बादल सूर्य को रोक देता है । ५६. तयोर्युद्धं बभूवोच्चैश्चिरं कुक्कुटयोरिव । यत्पश्यन्तः सुरा नेशुर्व्योमतोऽपि ससम्भ्रमम् ॥ उन दोनों का युद्ध कुक्कुटों की भांति अत्यन्त भीषण और चिरकाल तक होता रहा । युद्ध को देखने वाले देवता भी विस्मित होकर आकाश से अदृश्य हो गए । ६०. कर्मसाक्षी' तयोः कर्म, भीषणं वीक्ष्य तत्क्षणात् । संकोचितकरोsस्ताद्रिगुहां लिल्ये सभीरिव ॥ १. कर्मसाक्षी - सूर्य ( हरिदश्वो जगत्कर्मसाक्षी - अभि० २।१२ ) २. सभी : - भिया सहितः । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः २६३ उनके भीषण कर्म (युद्ध) को देखकर सूर्य डरता हुआ तत्क्षण अपनी किरणें समेटकर अस्ताचल की गुफा में जा छुपा । ६१. अवहार' विधायतौ, सैन्ये शिविरमीयतुः । प्राक्प्रतीचिपयोराशिवेले इव निजं पदम् ॥ दोनों ने युद्ध स्थगन किया । पूर्वीय और पश्चिमी समुद्र की वेला की भांति दोनों पक्षों की सेनाएं अपने-अपने शिविरों में चली गईं । ६२. पुनः प्रभातमासाद्य, युयुत्सेतेस्म ते बले । वृद्ध द्विगुणोत्साहे, पतदायुधदुर्धरम् ॥ प्रभात होने पर दोनों सेनाओं ने बढ़े हुए दुगुने उत्साह से, आयुधों के प्रहार अत्यन्त दुर्धर युद्ध लड़ा । ६३. प्रावर्तन्त शराः स्वरं रणे प्रेतपतेरिव । " सैनिकान् कवलीकर्तुं सैन्ययोरुभयोरपि ॥ रणभूमी में दोनों ओर की सेनाओं के बाण यमराज के बाणों की भांति सैनिकों को मारने के लिए यथेच्छा से चलने लगे ।. ६४. पत्रिपत्रानिलोद्धूताः पतिताः करिणां कुथाः । नालक्ष्यन्त हयोद्भूतरजः पिहितवर्ष्मणा ॥ 1 बाणों के पंखों से उठी हुई हवा से कंपित होकर हाथियों के भूल नीचे गिर पड़े । घोड़ों के खुरों से उद्धृत रजःकणों से ढंके हुए शरीर वाले सैनिकों को वे दीख नहीं रहे थे । ६५. आगच्छद्भिश्च गच्छद्भिः कङ्कपत्रैविहायसा । चक्रे, ज्योतिरिङ्गण संभ्रमम् ॥ स्वर्णपुंखैरलं , आकाश-मार्ग से आते हुए (नीचे गिरते हुए) तथा जाते हुए स्वर्ण - पुंखों वाले बाणों ने जुगुनूओं का संभ्रम पैदा कर डाला था । ६६. दोष्मतां खरसंघातघात रक्ताञ्चितांशुकैः । जयश्रीरामसंस्मारो, बहिर्यात इवान्तरात् ॥ १. अवहारं - स्थगनम् । २. कुथ: - हाथियों का झूल (कुथे वर्णः परिस्तोमः - अभि० ३ | ३४४ ) ३. ज्योतिरिङ्गणः - खद्योत (खद्योतो ज्योतिरिङ्गणः - अभि० ४। २७९ ) Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् योद्धाओं के प्रखर प्रहारों से लगी चोट से रक्त बह रहा था। उससे रंजित वस्त्र ऐसे लग रहे थे मानो कि सुभटों की 'जयश्री' के साथ रमण करने की आन्तरिक स्मृति बाहर आ गई हो। ६७. तत्र व्यतिकरे विद्याधरचक्रपरिच्छदः। सिंहकर्णान्वितः सिंहरथोऽविक्षद् द्विषद्बले ॥ उस समय विद्याधरों की सेना का सदस्य सिंहरथ सिंहकर्ण के साथ शत्रुओं की सेना में प्रविष्ट हो गया। ६८. अद्रष्टुमिव तद्वक्त्रं , वैरिभिर्कोमपुष्पवत् । दुर्लभं निर्जितस्तेन , सुषेणः पृष्ठमार्पयत् ॥ सिंहरथ के द्वारा पराजित होकर सेनापति सुषेण पीठ दिखाकर भाग खड़ा हुआ मानो कि वह वैरियों के द्वारा आकाश-कुसुम की भांति दुर्लभ सिंहरथ के मुंह को देखना नहीं चाहता हो। ६९. इतो विद्याधरोत्तंसोऽनिलवेगो महाबलः। चकिचक्र चकारोच्चैयाकुलं विविधायुधैः॥ इधर विद्याधरों के नेता महान् पराक्रमी अनिलवेग ने अपने नाना प्रकार के आयुधों से चक्रवर्ती की सेना को अत्यन्त व्याकुल कर दिया। , ७०. नोरन्ध्रमपि तत्सैन्यं , बभूव निहतं ततः। नैशं तम इव प्रातरभ्रवृन्दमिवाऽनिलात् ॥ . चक्रवर्ती की सेना नीरन्ध्र थी, सघन थी। किन्तु सिंहरथ और अनिलवेग के प्रहारों से वह प्रहत हो गई जैसे प्रातःकाल से रात्रि का अन्धकार और पवन से बादलों का समूह प्रहत हो जाता है। ७१. संवर्तानिलसंकाशक्ष्वेडाक्षोभितशात्रवः । लीलयोल्लालयामास , सोऽत्र शैलानिव द्विपान् ॥ प्रलयकाल के पवन सदृश सिंहनाद से शत्रुओं को क्षुब्ध करने वाले अनिलवेग ने पर्वत जैसे ऊंचे हाथियों को लीला से ऊंचा उछाल डाला। १. नैशं-निशाया इदं नैशम् । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः २६५ ७२. चक्रे भङ्गं तुरङ्गाणां , रथानां रोधमातनोत् । पत्तीनां च विपत्ति स , ददौ दतिरेकतः॥ उसने घोड़ों को मार डाला और रथों को रोक डाला । उसने अपने दर्प के अतिरेक से पैदल सेना के लिए विपत्ति खड़ी कर दी। ७३. गजारूढेन सोऽदर्शि , क्रीडन्निति रथाङ्गिना। कासार इव सैन्ये स्वे , कवसं भृशमुल्ललन् । हाथी पर आरूढ चक्रवर्ती ने शस्त्र उछालते हुए उस अनिलवेग को अपनी सेना में क्रीड़ा करते हुए देखा, जैसे तालाब में कोई क्रीडा कर रहा हो। ७४. मुमोचास्मै ततश्चक्र, संवीक्ष्यार्कमिवासहम् ।। स कौशिक इवानश्यत् , खद्योतस्तरणेः कियानु ? तब भरत ने उसकी ओर चक्र फेंका। सूर्य की भांति असह्य तेजवाले चक्र को देखकर वह अनिलवेग उलूक की भांति वहां से भाग गया। सूर्य के समक्ष जुगुनू कितनी देर तक टिक सकता है ? ७५. शक्त्या निर्माय सोऽविक्षत् , कीरवद् वज्रपञ्जरम् । गत्वा चक्रौतुना यञ्च , कृतान्तातिथिरादघे ॥ अनिलवेग ने अपनी विद्या-शक्ति से एक वज्रमय पञ्जर का निर्माण किया और वह एक तोते की भांति उसमें प्रविष्ट हो गया । तब चक्र रूपी बिडाल ने पास जाकर उसे यमराज का पाहुना बना दिया, मार दिया । ७६. चक्रणानीय तन्मौलिरदर्यत रथाडिने । नृपाः साक्षात्कृते कृत्ये , प्रत्ययन्ते निजेषु हि ॥ चक्र ने अनिलवेग के सिर को लाकर चक्रवर्ती भरत को दिखाया। क्योंकि राजा कार्य को प्रत्यक्ष दिखा देने पर ही अपने निजी व्यक्तियों पर विश्वास करते हैं, अन्यथा नहीं। ७७. वैरनिर्यातनात् तुष्टा , वीराश्चक्रभृतस्ततः । हते बलवति क्षत्रे , मुदं को नाम नोवहेत् ॥ १. कवसः-एक प्रकार का आयुध (आप्टे डिक्शनरी) २. वैरनिर्यातनं-विरोध का बदला लेना (वैरनिर्यातनं वैरशुद्धिर्वैरप्रतिक्रिया-अभि० ३।४६८) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् चक्रवर्ती भरत की सेना के वीर सुभट वैर का बदला ले लिये जाने पर तुष्ट हुए। बलवान् क्षत्रिय के मारे जाने पर कौन प्रसन्न नहीं होता? ७८. तथा कोपानलोऽदीपि , दोष्मतां बहलोशितुः । चक्रिगृह्यास्तृणानीव , दंदान्तेस्म तैर्यथा ॥ इस पर बाहुबली के पराक्रमी सुभटों की क्रोधाग्नि भभक उठी। उन्होंने चक्रवर्ती के सैनिकों को तिनके की भांति जलाना प्रारंभ कर दिया। ७६. कृतान्तकरसंकाशा , गदाः शत्रुगदावहाः। उल्ललन्तिस्म पत्यश्वस्यन्दनेभक्षयंकराः॥ बाहुबली के सुभट यमराज के हाथ के सदृश, वैरियों के लिए रोग पैदा करने वाली और पैदल सेना, अश्व, रथ तथा हाथियों का नाश करने वाली गदाएं चला रहे थे । ८०. रत्नारिरितामित्रः, सकूटस्थगदाद्र मः। कल्पान्तपवनोत्क्षिप्तपर्वताभस्तदाऽपतत् ॥ . . तब शत्रुओं को वारित करने वाला विद्याधर 'रत्नारि' हाथ में प्रलयकाल के पवन से उखड़े हुए पर्वत के सदृश शाश्वत गदा रूपी वृक्ष को लेकर चक्रवर्ती की सेना पर टूट पड़ा। , ८१. अनेन पतता युद्धे, कालवन्य नुकारिणा। देहे चक्राङ्गभृत्सैन्यारण्यं बाणस्फुलिङ्गकैः॥ काल रूपी अग्नि की भांति भयंकर 'रत्नारि' जब युद्ध में उतरा तब बाणों से उछलने वाले स्फूलिंगों से चक्रवर्ती की सेना रूपी अरण्य जलने लगा। . ५२. कामं तेन समाकान्तां , कामिनेव विलासिनीम् । चमू वीक्ष्य निजं चक्री , न्यदिक्षत् स्वचरान् युधि ॥ जैसे कामुक व्यक्ति कामिनी को अत्यन्त आक्रान्त कर डालता है, वैसे ही 'रत्नारि' ने चक्रवर्ती की समूची सेना को आक्रान्त कर डाला । यह देखकर चक्रवर्ती ने अपने सुभटों को युद्ध के लिए निर्देश दिया । ५३. विद्याधरधरेन्द्रण , महेन्द्रण महौजसा। शिरोऽचूर्यत रत्नारेर्मुद्गरेणामकुम्भवत् ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः विद्याधरों के स्वामी महान् पराक्रमी महेन्द्र ने अपने मुद्गर से रत्नारि के शिर को, कच्चे घड़े की भांति, चूर-चूर कर डाला। ८४. ततो बाहुबलेगुह्यो', मितकेतुर्महाभुजः । सुगत्यनुगतो वायुसखो वह्निरिवागमत् ॥ बाहुबली की ओर से उनका निजी व्यक्ति महान् पराक्रमी 'मितकेतु' 'सुगति' के साथ युद्ध-स्थल में आया, जैसे वायु के साथ अग्नि आती है। ५५. ताभ्यां विद्याधरेन्द्राभ्यां , सैन्यं श्रीभरतेशितुः। दैन्यमापादितं बाढं , किं हि चित्रं महौजसाम् ॥ मितकेतु और सुगति-ईन दोनों विद्याधर अधिपतियों ने चक्रवर्ती भरत की सेना में अत्यन्त दीनता पैदा कर दी। शक्तिशाली पुरुषों के लिए ऐसा कर देना कौन सी आश्चर्य की बात है ? ८६. त्याजिताः स्यन्दनं केचिद्धयं केचिद् द्विपञ्च के । संग्रामभुवमेके च , किं कर्तारो न हीदृशाः ? दोनों वीर योद्धाओं ने शत्रु-पक्ष के कुछ सुझटों को रथ, घोड़े और हाथी छोड़ने के लिए मजबूर कर डाला। कुछ सुभट रणभूमी छोड़कर भाग गए। इस प्रकार के पराक्रमी पुरुष क्या नहीं कर सकते ? . ८७. तयोविशिखसंदोहैः , पतद्भिः करिवर्मसु । चक्रिरे कामतीक्ष्णाप्रैः खाट्कारमुखरा दिशः॥ दोनों वीरों के धनुष्यों से निकले हुए अत्यन्त तीक्ष्ण अग्रवाले बाण हाथियों के कवच पर गिर रहे थे। उनके कारण दिशाएं 'खाट्कार' के शब्दों से मुखरित हो गई। ८८. मालवेश्वरमुख्यास्ते , महीनाथा रथाङ्गिनः। अमूभ्यां व्याकुलीभूताः, श्येनाभ्यामिव पक्षिणः ॥ चक्रवर्ती के अधीनस्थ मालव देश के राजा इन दोनों से व्याकुल हो गए, जैसे पक्षी बाज से व्याकुल होते हैं। १९. निर्मोकादिव' संग्रामात् , कैश्चिन्नेशे भुजङ्गवत् । कैश्चिद् वीरवतं त्यक्तमौदार्यमिव तद्धनः ॥ १. गृह्यः–निजी व्यक्ति । १. निर्मोकः-सांप की केंचुली (निर्मोककञ्चुका:-अभि० ४।३८१) २. तद्धनः-कंजस (कीनाशस्तद्धनः क्षुद्र:-अभि० ३।३२) Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् जैसे सर्प कंचुकी को छोड़कर भाग जाता है, वैसे ही कुछ शत्रु-सुभट संग्राम-भूमी को छोड़कर भाग गए। जैसे कंजूस व्यक्ति उदारता को छोड़ देता है, वैसे ही कुछ सुभटों ने वीरता के व्रत को छोड़ दिया। ६०. सैन्यं भारतशक्रस्याऽसंख्यं संख्येयतां गतम् । प्राभातिकमिव व्योम , चरिष्णुमिततारकम् ॥ जैसे रात्रिकाल में आकाश में अपरिमित तारे होते हैं, किन्तु प्रभातवेला में वे परिमित ही रह जाते हैं, वैसे ही चक्रवर्ती भरत की सेना जो असंख्य थी- अपरिमित थी, वह भी संख्या में ही रह गई-परिमित ही रह गई। ६१. उत्साहाद् द्विगुणीभूते , बले च बहलोशितुः। . अल्पीयांसोऽपि भूयांसः , सोत्साहा युधि यद् भटाः॥ . . बाहुबली की सेना उत्साह से दुगुनी हो गई। क्योंकि युद्धकाल में उत्साहित सुभट थोड़े होने पर भी बहुत होते हैं। ६२. इत्यसादृश्यमालोक्य , सैययोः पतिरचिषाम् । , वेगादऽस्ताद्रिमालीनः , कालक्षेपो हि भद्रकृत् ॥ इस प्रकार दोनों पक्षों की सेनाओं की असदृशता देखकर सूर्य शीघ्र ही अस्ताचल पर जा छुपा । क्योंकि कालक्षेप कल्याणकर होता है। . ६३. स्कन्धावारं ततो यातां , स्वं स्वं सैन्ये उभे अपि । ___ मनःसंप्राप्तविश्राम, कर्णनेत्रे इवेन्द्रिये ॥ दोनों सेनाएं अपने-अपने शिविरों में चली गई, जैसे कान और आँख दोनों इन्द्रियां विश्रान्त मन में चली जाती हैं। १४. चक्रिपुत्रेषु शृण्वत्सु , सेनानीरेत्य चक्रिणम् । अभ्यधत्त वचस्त्वेवं , साहसोत्साहमेदुरम् ॥ सेनापति सुषेण चक्रवर्ती भरत के पास आया और चक्रवर्ती के पुत्र सुन सके वैसे साहस और उत्साह से स्निग्ध वाणी में बोला ६५. राजन् ! पुत्रेषु पश्यत्सु , भवदीयेष्वभज्यत । चमूर्बाहुबलेर्वोरैः, पद्मिनीव गजैस्तव ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः ३εहं 'राजन् ! आपके पुत्रों के देखते-देखते बाहुबली के वीरों ने आपकी सेना को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमलिनी को तोड़ देता है ।' ६. त्वत्तुल्याः सन्ति ते पुत्रा, ज्ञातिदाक्षिण्यमोहिताः । युयुत्सन्तेन सर्वेऽपि क्षत्राणां नोचितं ह्यदः ॥ ‘आपके सभी पुत्र आपके सदृश हैं, किन्तु बन्धुजनों के दाक्षिण्य से मोहित होकर युद्ध लड़ना नहीं चाहते । यह क्षत्रियों के लिए उचित नहीं है ।' ६७. " 25. अप्यम्बातात वर्गणाः, क्षत्रियैर्वैरिणः किल । हन्तव्या योद्धुमायाताः, शुभं नैषां ह्यपेक्षणम् ॥ 'माता और पिता वर्गीय बंधुजन यदि शत्रु बन कर युद्ध लड़ने के लिए आते हैं, तो क्षत्रियों का कर्त्तव्य है कि वे उनको मार डालें । उनकी उपेक्षा करना शुभ नहीं होता ।' दाक्षिण्यं क्रियते येन, कथं जेता स सङ्गरे । fक पोतः परिहीयेत; तोयनाथं तितीर्षता ? 'जो उनके प्रति अनुकूलता दिखाता है । वह संग्राम में विजयी कैसे होगा ? क्या समुद को तैरते हुए कोई व्यक्ति अपनी नौका छोड़ देता है ?" EE. प्रागेव समरारम्भो, मुधा चक्रे त्वया विभो !। अपि वर्गहराः पुत्राः प्रमाद्यन्ति तवात्र यत् ॥ 'प्रभो ! आपने युद्ध के आरंभ की पहल व्यर्थ ही की, जब कि शत्रुओं के कवचों का हरण करने वाले आपके ये पुत्र भी युद्ध में प्रमाद दिखा रहे हैं ।' १००. इत्याकर्ण्य वचस्तस्य क्रुद्धः सूर्ययशा जगौ । 1 प्रातर्बाहुबल मुक्त्वा, सर्वान् हन्तास्म्यहं त्विति ॥ सेनापति की यह बात सुनकर भरत का ज्येष्ठपुत्र सूर्ययशा क्रुद्ध होकर बोला'प्रातःकाल ही मैं बाहुबली को छोड़कर और सभी सुभटों को मौत के घाट उतार दूंगा ।' १०१. इत्युक्ता मुदिताश्चक्रिसूनवोऽन्येऽपि दोभृतः । कथञ्चन त्रियामां तामतीत्येयू रणक्षितिम् ॥ १. दाक्षिण्यं - अनुकूलता ( दाक्षिण्यं त्वनुकूलता – अभि० ६ १३ ) Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् यह सुनकर चक्रवर्ती के अन्य पुत्र तथा वीर सुभट प्रसन्न हुए। रात को ज्यों-त्यों बिताकर, सब रणभूमी में उतर आए । १०२. सन्नद्धाः शस्त्रसंपूर्णा, भटा बाहुबलेरपि । अवतेरू रणक्षोणों, चन्द्रकन्यामिव द्विपाः ॥ बाहुबली के वीर सुभट भी सम्पूर्ण रूप से शस्त्रों से सज्जित होकर रणभूमी में उसी प्रकार उतरे जैसे हाथी नर्मदा नदी में उतरते हैं । १०३. सैन्ये सूर्ययशाः सूर्यो, व्यराजत रथस्थितः । तमांसीवारिवृन्दानि नाशयन् निजतेजसा ॥ 1 रथ पर आरूढ सूर्ययशा सेना में सूर्य की भांति शोभित हो रहा था । जैसे सूर्य अपने तेज से अंधकार को नष्ट कर देता है वैसे ही वह शत्रु समूह को नष्ट कर रहा था । १०४. भ्रातरः कोटिशस्तस्य, शालायाः पुरोऽभवन् । क्षत्रियक्षेत्रसंप्राप्तजन्मशौर्याङ्कुरा इव ॥ उसके शार्दूल आदि करोड़ों भाई उससे आगे हो गए, मानो क्षत्रिय के शरीर में जन्म से संप्राप्त शौर्य के अंकुर फूट पड़े हों । १०५. विद्याधरधरेन्द्रौ ताववग्राहाविवोद्धतौ । चक्रभृध्वजिनीवृष्टिध्वंसाय पुनरागतौ ॥ विद्याधरों के अधिपति मितकेतु और सुगति - दोनों उद्धत वीर 'सूखे' की भांति चक्रवर्ती की सेना रूपी वृष्टि का ध्वंस करने के लिए पुनः रणभूमी में आ गए। १०६. हस्तापितधनुर्बाणो, मितकेतुर्नभश्चरः । आरौत्सीत् सूर्य यशसं मनोभूरिव शंवरम् ॥ 1 हाथ में धनुष्य और बाण लिए विद्याधर मितकेतु ने सूर्ययशा को वैसे ही रोका, जैसे कामदेव 'शंवर' को रोकता है । १०७. विद्याभृत् सुगतिस्तदवच्छाई लमरुधत् ततः । आसीद् युद्धं तयोर्घोरं विस्मायितसुरासुरम् ॥ 1 १. चन्द्रकन्या – नर्मदा नदी । २. शंवर:- कामदेव का शत्रु (अरी शंवरशूर्पको – अभि० २।१४२ ) Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ पञ्चदशः सर्गः . विद्याधर सुगति ने शार्दूल का भी उसी प्रकार रोक डाला । उन दोनों के बीच देवों और दानवों को भी चकित करने वाला भयंकर युद्ध हुआ। १०८. चण्डांशुः काण्डवृष्ट्याल'मतुल्याऽखण्डरूपया। पिदधे मेघपंक्त्येवाकाण्डे कोदण्डधारिणोः॥ उन धनुर्धर दोनों युगलों (मितकेतु-सूर्ययशा और सुगति-शार्दूल) की असाधारण तथा निरन्तर होने वाली पर्याप्त बाण-वृष्टि से सूर्य असमय में वैसे ही ढंक गया जैसे मेघ-पंक्ति से ढंक जाता है। १०६. गदापट्टिशनिस्त्रिशः, संसजद्भिर्नभो मिथः। . शस्त्राणि किमु युद्धचन्ते , सुरैरप्येवमौह्यत ॥ आकाश में गदा, पट्टिश (पटा).और तलवारें परस्पर मिल रही थीं। इसे देखकर देवताओं ने भी यह वितर्कणा की—'क्या शस्त्र ही परस्पर लड़ रहे हैं ? ११०. रक्तार्धकुम्भमुक्ताभिर्गुजाभिरिव निर्ममुः। __ मिल्लस्त्रिय इवामर्यो , हारान् कौतुकतस्तदा ॥ जैसे भिल्ल-स्त्रियां गुंजाओं का हार बनाती हैं, वैसे ही देवांगनाओं ने तब कौतुकवश अर्धरक्तकुम्भ-मुक्ताओं से हार बनाये। १११. मनोरथमिव रथं , साथि सह केतुना । मूर्त दपंमिवाथांस्य , शार्दूलस्याऽभनक त्वसौ ॥ विद्याधर सुगति ने सारथि और पताका के साथ शार्दूल के रथ को मनोरथ की भांति तोड़ डाला। उसने रथ को नहीं तोड़ा किन्तु मानो उसने उसके मूर्त दर्प को ही तोड़ दिया। ११२. अनेषीत् स्वे स विद्यामृच्छालं रथपञ्जरे । ... नागपाश ढं बध्वा, खड्गव्यग्रकरं बलात् ॥ शार्दूल का हाथ तलवार चलाने के लिए व्यग्र हो रहा था। उस समय विद्याधर सुगति ने उसे बलात् नागपाश से दृढतापूर्वक बांधकर अपने रथ-पंजर में ले लिया। ११३. उन्मुक्तः सोऽहिपाशेभ्यो , मन्त्रेण भुजगद्विषः । तीक्ष्णधुतिरिवाभ्रेभ्योऽधिकतेजास्तमभ्यधात् ॥ १. अलं-पर्याप्तम् । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् जैसे बादलों से मुक्त सूर्य अधिक तेजस्वी होता है, वैसे ही गारुडिक मंत्रों द्वारा पांशों से मुक्त होकर अधिक तेजस्वी बने हुए शार्दूल ने सुगति से कहा११४. विद्याधर ! मयेव त्वं , हन्तव्यस्तरवारिणा । . इत्युक्त्वा सुगतिर्मृत्योस्तूर्णं तेनातिथीकृतः॥ 'विद्याधर ! मेरे द्वारा ही तुम इस तलवार से मारे जाओगे'—यह कहकर शार्दल ने तलवार का प्रहार किया और सुगति को शीघ्र ही मृत्युधाम पहुंचा दिया। ११५. चक्रिज्येष्ठसुतोप्युच्चैर्गाहमानोऽरिवाहिनीम् । विद्याधरधराधीशं , मितकेतु जघान च ॥ इधर चक्रवर्ती भरत का ज्येष्ठपुत्र सूर्ययशा भी शत्रु सेना का तीव्रता से अवगाहन करता हुआ आया और उसने विद्याधरों के अधिपति मितकेतु को मार डाला। ११६. व्योमेव रविचन्द्राभ्यां , लोचनाभ्यामिवाननम् । ___ चक्रं चक्राङ्गभृद्भातुर्विद्याभृद्भ्यामृतेऽभवत् ॥ . जैसे सूर्य और चन्द्रमा के बिना आकाश तथा आंखों के बिना मुंह शोभाहीन होता है, वैसे ही चक्रवर्ती भरत के भाई बाहुबली की सेना दोनों विद्याधरों के बिना शोभाहीन हो गईं। ११७. सद्यो विद्याधरद्वन्द्ववधात् क्रुद्धः सुतैर्वृतः। . , आयोधनधरां बाहुबलिः स्वयमवातरत् ॥ विद्याधर-युगल के वध से क्रुद्ध होकर बाहुबली स्वयं अपने पुत्रों से परिखत होकर युद्ध-भूमी में उतर आया। ११८. कालपृष्ठकलम्बासविस्फारमुखरा दिशः। आशाधीशानितीवोचुः , पश्यतास्य पराक्रमम् ॥ बाहबली के धनुष्य के बाणों के क्षेपण से विस्फारित मुख वाली दिशाओं ने दिशाधीशों से कहा-'इस वीर का आप पराक्रम देखें ।' ११९. चलताप्यचला ! यूयं , यातु विश्वा रसातलम् । कुरुताशागजाः! स्थानं , रोदसी' यास्यथः क्व वाम् ॥ १. विश्वा-पृथ्वी (विश्वा विश्वम्भरा धरा–अभि० ४।१) २. रोदसी—आकाश और पृथ्वी का सम्मिलित नाम (अभि० ४।५) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः ३०३ 'पवतो ! तुम अचल होते हुए भी चलो । पृथ्वी रसातल में चली जाए। हे दिग्गजो ! तुम भी अपना स्थान बनालो । पृथ्वी और आकाश अब तुम कहां जाओगे ? १२०. वेडास्येति वदन्तीव, प्रोत्सर्पत्यस्त्रनिःस्वनैः । किंवदन्तीव वृत्तान्तः प्रादत्त जगतो भयम् ॥ 1 इस प्रकार कहते हुए, वृत्तान्त के साथ किंवदन्ती की भांति अस्त्र के शब्दों के साथ चारों ओर फैलते हुए बाहुबली के सिंहनाद ने जगत् को भयभीत कर दिया । १२१. ततः कोटि : सपादापि चक्रपाणितनूरुहाम् । मृगालीव पुरोऽनश्यत् सिंहनादान्नृपार्श्वमेः ॥ 1 महाराज बाहुबली के सिंहनाद से भयभीत होकर भरत के सवा कोटि पुत्र मृग-समूह की भांति सुदूर अंचलों में भाग गए ।. १२२. तस्थौ सूर्ययशाः स्वरमेकोऽथ समराजिरे । कल्पान्तपवनस्याग्रे, कः स्थाष्णुः स्वगिरि विना ? भरत का बड़ा पुत्र सूर्ययशा अकेला ही उस रणभूमी में स्थिर खड़ा रहा । प्रलयकाल के पवन के समक्ष मेरू पर्वत के अतिरिक्त कौन स्थिर रह सकता है ? १२३. आपतन्तं तमालोक्याभ्यधात् तक्षशिलेश्वरः । आकर्णकृष्टकोदण्डश्चण्डिमाढ्यमदो वचः ॥ कानों तक खींचे हुए धनुष्य वाले बाहुबली ने, अत्यन्त क्रुद्ध और रण में प्रहार करने वाले सूर्ययशा को देखकर ऐसे कहा १२४. त्वयैव चक्र मृवंशः, क्षीरकण्ठैकवीरवान् । अतो मे कालदकल्यात् करो नोत्सहते त्वयि ॥ " 'एकमात्र तुम्हारे से ही चक्रवर्ती का वंश वीर सन्तान वाला है । इसलिए मृत्यु की दुष्ट कल्पना से मेरा हाथ तुम्हारे पर प्रहार करने के लिए उत्साहित नहीं हो रहा है। १२५ मन्मुखं त्यज तद् वत्स !, वात्सल्यं त्वयि मे स्थिरम् । अतो जीव मम क्रोधवह्नौ त्वं माहुतीभव ॥ 'वत्स ! तुम मेरे सामने से हट जाओ । तुम्हारे प्रति मेरा वात्सल्य स्थिर है, इसलिए तुम सुखपूर्वक जीवित रहो । मेरी क्रोधाग्नि में तुम आहुति मत बनो ।' Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ १२६. यदि ते युधि निर्बन्धस्तहि त्वं मत्सुतैः सह । कुरु सांग्रामिकों क्रीडां दन्ती विन्ध्य मैरिव ॥ , 'यदि युद्ध करने के लिए तुम्हारा आग्रह है तो तुम मेरे पुत्रों के साथ युद्ध क्रीड़ा करो, जैसे हाथी विन्ध्य पर्वत के वृक्षों के साथ क्रीडा करता है ।' १२७. पितृव्या ! ऽद्य ममाशंसां, पूरयस्व रणस्य च । इत्यूचानः स कोदण्डं, सटङ्कारमधात्त राम् ॥ 'पितृव्य ! आप मेरी रण की इस आशंसा को आज पूरी करें - यह कहते हुए सूर्ययशा ने टंकार करते हुए धनुष्य को धारण किया । १२८. अमू लोकत्रयोन्माथमन्दरागौ महाभुजौ । किं कर्त्ताविति स्वैरं सुरा अपि चकम्पिरे ॥ भरतबहुबलिमहाकाव्यम् महान् भुजाओं के धनी, तीनों लोकों के मन्थन लिए मंदर पर्वत के तुल्य ये दोनों ( बाहुबली और सूर्ययशा ) आज क्या कर देंगे' – यह सोचकर देवता भी प्रकंपित हो उठे । १२६. निर्घोषात् कुलिशर वातिभीष्मरूपात् कोदण्डस्य दिततमः प्रियस्य कण्ठः । ताभिस्त्रिदशवधूभिराललम्बे, वाणीभिः सकलविदामिवाशु भव्यः ॥ उन दोनों के धनुष्य से निकले हुए वज्रपात से भी अतिभीषण निर्घोष से भयभीत होकर देवांगनाओं ने अपने प्रियतमों के बिछुड़े हुए कण्ठों का आलंबन ले लिया जैसे सर्वज्ञ की वाणी भव्य प्राणी का आलंबन लेती है । १३०. कल्पान्तोद्य किमागतोऽयमधुना किं मेरुणा शीर्यते ? शेषाहिर्वसुधाधुरं परिहरत्यस्मिन् मुहूर्त्ते किमु ? अम्भोधिः स्थितिमुज्जहाति किमुतेत्यज्ञायि युद्धं तयोः, क्ष्वेडाक्षेपकरम्बिकार्मुकरवप्रोत्थापितैः स्वर्गभिः ॥ क्या आज प्रलयकाल आ गया है ? क्या मेरू पर्वत शीर्ण हो रहा है ? क्या अभी इस मुहूर्त में शेषनाग वसुधा की धुरा का परिहार कर रहा है ? क्या समुद्र अपनी मर्यादा को छोड़ रहा है ? — इस प्रकार सिंहनाद के क्षेपण से युक्त धनुष्य के शब्दों से व्याकुल होकर देवताओं ने उन दोनों के युद्ध को जाना । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशः सर्गः . ३०५ १३१. विश्वेश्वरो विहरति प्रभुरादिदेवः, पुण्योदयो विलसति प्रसभं त्विदानीम् । संहार'वार' इव का विगृहीतिरेषा', जग्मुर्भुवं मरुत इत्यवधारयन्तः ॥ 'विश्व के ईश्वर प्रभु आदिदेव आज धरा पर विहरण कर रहे हैं । आज सर्वत्र पूर्ण पुण्योदय विराजमान है। प्रलयकाल के अवसर की भांति यह कैसा विग्रह'यह सोचकर देवता भूमी पर आ गए । -इति युद्धवर्णनो नाम पञ्चदशः सर्गः १. संहारः-प्रलयकाल (संहार: प्रलयः क्षयः -मभि. २१७५) २. वार:-अवसर (वेलावाराववसर:-अभिः ६१४.५) ३. विगृहीति-विग्रह एव विगृहौतिः । Page #339 --------------------------------------------------------------------------  Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाब= . सोलहवां सर्ग भरत को देवताओं द्वारा उद्बोधन और भरत की स्वीकृति। श्लोक परिमाणछन्द-. लक्षण स्वागता। देखें, सर्ग ६ का विवरण। - Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु युद्ध की भीषणता को देखकर देवगण भूमी पर आ गए। वे सर्वप्रथम भरत के समक्ष आकर बोले-'राजन् ! आप तो मर्यादा के मूल हैं। आप ऋषभ के पुत्रों में ज्येष्ठ हैं । आप इस युद्ध में क्यों फंसे हैं।.राजे दो कारणों से युद्ध करते हैं-भूमी के लिए या अहं की तुष्टि के लिए। आप अहं के कारण ऐसा कर रहे हैं। किन्तु भाई के साथ प्रलयंकारी युद्ध करना क्या आपके लिए उचित है ? आप हमारी बात मानकर भाई के साथ संधि करलें।' भरत ने कहा-'मेरा यह भाई बाहुबलों झुकना नहीं चाहता। उसके झुके बिना यह चक्र आयुधशाला में प्रविष्ट नहीं हो रहा है। यह मेरे लिए लज्जा की बात है। उसे पराजित किए बिना मेरा कैसा चक्रवत्तित्व ।' देवताओं ने कहा-'चक्रवत्तिन् ! आप ठीक कहते हैं। किन्तु आप दोनों की अहं तुष्टि के लिए यह नर-संहार तो उचित नहीं है । आप अपनी सेना का निवारण कर परस्पर युद्ध करें। जो जिसको जीत लेगा भूमी उसी की हो जाएगी। आप दृष्टियुद्ध, मुष्टियुद्ध, शब्दयुद्ध और यष्टियुद्ध-इन चार प्रकार के युद्धों से लड़ें। इनमें आप दोनों के पराक्रम का पता लग जाएगा।' भरत ने देवताओं के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् देवता बाहबली के समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने अपनी बात कही । बाहुबली ने कहा--'यदि नर-संहार को रोकना है और हमारे पराक्रम की कसौटी करनी है तो अच्छा यह है कि युद्ध-भूमी में भरत भी अकेला आए और मैं भी अकेला ही वहां जाऊं। हम दोनों के पराक्रम का पता लग जाएगा।' देवताओं ने इसे स्वीकार कर लिया। दोनों पक्षों के सैनिकों ने जब यह संवाद सुना तो वे अवाक् रह गए। अपनी वीरता के प्रदर्शन की बात उनके मन में ही रह गई। दोनों ओर के सैनिक हट गए। देवताओं ने रण-भूमी को फूलों से उपचित कर डाला। ' Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः । १. स्वःसदोऽपि गगनादवतेयुद्धमीदृशमवेक्ष्य तदीयम् । बोधनाय वृषभध्वजसून्वोर्बोध एव परमं नयनं हि ॥ ऋषभदेव के दोनों पुत्रों के इस प्रकार के युद्ध को देखकर, उनको प्रतिबोध देने के लिए देवता आकाश से नीचे उतरे । क्योंकि प्रतिबोध ही उत्कृष्ट आंख है। २. · सैनिकाः ! किल युगादिजिनो वः, सेतुरस्तु समरकपयोंघेः। मां वदन्त इति नाकिन ईयुर्लध्य एव न हि देवनिदेशः॥ 'सैनिको ! इस युद्ध रूपी समुद्र के लिए हमारे ऋषभ देव सेतु के रूप में हों'-यह कहते हुए देवता भूमि पर आए । नेवता का आदेश अनुल्लंघनीय होता है। ३. केऽपि कार्मुकसमर्पितबाणाः, केपि तूणकलिताङ्गुलयश्च । केपि कोशरहितासिकराला, मुक्तमुद्गरगदा अपि केचित् ॥ ४. वैरिशस्त्रनिहतैरिहशूरैः, संकटो व्यरचि किं सुरलोकः ? . यत् सुरैः समरतो विनिषिद्धास्ते वयं त्विति वदन्त इदानीम् ॥ ५. सिंहनादमुखरा अपि केचितू, वैरिणो मम पुरो क्षतकायाः। यंद् व्रजन्ति महती युधि लजा, भाविनीति सुभटा निगदन्तः॥ ६. स्यन्दनध्वजनिवेशितकायाः, केऽपि वारणवरार्पितदेहाः । भालपट्टनिपतच्छमबिन्दुभ्राजिनः कलितवाजिन एके ॥ ७. दोभृतः सुरगिराथ निषिद्धाः, श्रीयुगादिजिनशासनवत्या । चित्रचैत्यरचनां कलयन्तस्तस्थुराहवरसोत्सुकचित्ताः॥ –पञ्चभिः कुलकम् । कुछ योद्धाओं मे धनुष्य पर बाण चढा दिए थे। कुछ की अंगुलियां तूणीर से बाण निकालने में तत्पर थीं। कुछ म्यान से तलवारें निकाले हुए भयंकर लग रहे थे। कुछ सुभट मुद्गर और गदा का मुक्त प्रहार करने में तत्पर थे। उस समय वीर Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् सुभट इस प्रकार कह रहे थे-'इस रणभूमी में शत्रुओं के शस्त्रों से मरे हए वीर 'योद्धाओं ने क्या देवलोक को भी संकीर्ण बना दिया है, जिससे कि देवों ने हम सबको युद्ध करने से रोका है ?' सिंहनाद से मुखरित होने वाले कुछ सुभटों ने यह कहा-'ये शत्रु-सुभट युद्ध में घायल होकर हमारे आगे से चले जा रहे हैं । यह अत्यन्त लज्जास्पद बात होगी।' कुछ सुभट रथ की ध्वजा में अपने शरीर को लपेटे हुए थे। कुछ हाथियों पर आरूढ थे और घोड़ों पर सवार कुछ सुभट ललाट से गिरने वाली श्रम-बिन्दुओं से शोभित हो रहे थे। ऋषभदेव के शासन की प्रभावना करने वाले देवताओं की वाणी से निषिद्ध होकर कुछ सुभट युद्धोत्सुक होने पर भी चैत्य की अद्भुत रचना को देखते हुए बैठ गए। . ५. देवताः सपदि भारतराज , मूतिमत्य इव सिद्धय एवम् । अभ्यधुर्दलितवैरविशेषा , देवसेव्यचरणं करुणाढयाः ॥ . . देव-सेव्य चरण-कमल वाले चक्रवर्ती भरत के पास वैर विशेष का शमन करने वाले दयालु देवता मूर्तिमान् सिद्धियों की भांति सहसा आए और इस प्रकार बोले-- ९. आहवः किमधुनष युवाभ्यां , वारणाश्वरथपत्तिविमर्दी । कल्पकाल इव निर्मित एवं , यश्च भापयति देवमनांसि ? 'आप दोनों ने कल्पान्तकाल की भांति हाथी, घोड़े, रथ और पदाति सेना को नष्ट करने वाले इस युद्ध को क्यों प्रारम्भ किया है ? यह देवताओं के मन को भी भयभीत कर देता है।' १०. यद् युवां वृषभनाथतनूजौ , यद् युवां सुकृतकेतकमृङ्गो। यद् युवां चरमविग्रहधारौ, यद् युवां स्थितिमवेथ इनोक्ताम्॥ 'आप दोनों ऋषभ के पुत्र हैं। आप दोनों सुकृत रूपी केतकी के फूलों पर विचरण करने वाले भ्रमर हैं । आप दोनों चरम-शरीरी हैं। आप स्वामी ऋषभ द्वारा उक्त स्थिति को जानते हैं।' ११. तत्कथं समर एष भवद्भ्यां , प्रावृतत् क्षय इवातिरताभ्याम् । कालबोष इव मित्र विधूभ्यां , सर्वसंहरणयोगविधायी॥ . 'फिर भी कलह में,रत आप द्वारा प्रलयकाल की भांति यह युद्ध क्यों प्रवृत्त हुआ १. इनः-स्वामी (ईशितेनो नायकश्च-अभि० ३।२३) २. मित्रः-सूर्य (अभि० २०१०) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः ३१.१. है ? यह सूर्य और चन्द्रमा की भांति कालबोध - मृत्युबोध कराने वाला और समस्त प्राणियों का संहार करने वाला है ।' १२. आंविनेतुरुवभूत् किल सृष्टिर्वामिवाखिलविशेषविधातुः । किन्तु वां स्फुटमियं भगिनी वां मर्द्यते कथमसौ तत इत्थम् ? " 'प्रथम तीर्थंकर तथा समस्त विशेष विधियों के विधाता भगवान् ऋषभ से जैसे आप दोनों उत्पन्न हुए है, वैसे ही यह सृष्टि भी उन्हीं से उत्पन्न हुई है । इस प्रकार यह सृष्टि स्पष्ट रूप से आपकी भगिनी है । तो फिर आप इस सृष्टि का ऐसा मर्दन क्यों कर रहे हैं ?" १३. युग्मिधर्मनिपुणत्वमलोपि, श्रीयुगादिजिनपेन युवाभ्याम् । स्वीकृतं तदनु सृष्टिविमर्दात् सत्सुतैर्न पिता व्यतिलध्यः ॥ T 'श्री युगादिदेव ने युगल-धर्म की निपुणता का लोप किया । आप दोनों ऋषभ द्वारा सृष्ट सृष्टि का मर्दन कर उन्हीं के चरण चिन्हों पर चल रहे हैं । क्योंकि अच्छे पुत्र पिता के पथ का अतिक्रमण नहीं करते ।' १४. त्वं तु भारतपते ! स्थितिमूलं, ज्येष्ठ एव तनयेषु युगादेः । आदिदेवसदृशोऽसि गुणैस्तत्, ताततो न तनयो हि भिनत्ति ।। 'भारतेश्वर भस्त ! आप तो मर्यादा के मूल हैं । आप ऋषभ के पुत्रों में ज्येष्ठ हैं । आप गुणों में आदिदेव के तुल्य हैं क्योंकि पुत्र पिता से भिन्न नहीं होता ।' १५. १६. अत्र यत्तरणिरस्तमुपेतः, संमदो हुतवहे विनिवेश्यः । 'सान्धकारपटलेऽञ्जनकेतुस्तत्पुरो भवति नक्तमिहौकः ॥ 'संसार में सूर्य ( ऋषभदेव ) अस्त हो गया है, इसलिए हमें अपना उल्लास अग्नि में स्थापित करना चाहिए। रात्रि में अन्धकारपटल में जनता के सामने दीप ही शरण होता है ।' भूभृतः समरमप्यवलेपाद, भूकृते किमुत यद् रचयन्ति । तत्तदीयमतिरस्य विमर्श, भङ्गसंशयवशादनुशेते ॥ 'राजे अहंकार के कारण युद्ध करते हैं अथवा भूमि के लिए करने में उनकी बुद्धि विकल्प के संशय में पड़कर ( वास्तविक के कारण) पश्चात्ताप करती है ।' इस बात का विमर्श निर्णय न कर सकने --- Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १७. मान एव भव ता विदघेऽयं , नो पुनर्भरतराज ! वितर्कः। बन्धुना सह क एष युगान्तोऽनून आहव इयांस्तव योग्यः ? 'हे भरतराज ! आपने युद्ध करने में अहं ही प्रदर्शित किया है, विमर्श नहीं किया। भाई के साथ इतना बड़ा युगान्तकारी युद्ध करना आपके लिए उचित है ?' १८. राजकुञ्जर ! तवाहवलीला , तातसृष्टितरसंचयमित्य। संबभूव मदसंभृतिभर्तुः , सर्वदोन्नततयाभ्यधिकस्य ॥ . . . 'श्रेष्ठ राजन् ! सर्वदा उन्नत होने के कारण आप अधिक मद के भार को धारण कर रहे हैं। आपकी यह युद्ध-लीला पिता ऋषभ की सृष्टि रूपी तरु-समूह के विनाश के लिए प्रारम्भ हुई है।' . १६. केवलं वसुमतीह दयेशाः , प्राणिपीडनवशादुपयन्ति। . . दुर्गतिर्न हि भवानिह तादृक् , सांप्रतं रणरतिर्भवतः का? . 'स्वामी भूमी रूपी रमणियों को प्राणी-पीडा के द्वारा ही प्राप्त करते हैं। आप वैसे दरिद्र नहीं हैं । फिर अब आपकी रण के प्रति यह कैसी रति ?' २०. निर्दयत्वमधिकृत्य नरेन्द्र तिरोपि तनया अपि घात्याः। . मूकृते वसुमती न तदीया , पातकं हि हननस्य चिराय॥ 'भूमी पर अधिकार करने के लिए राजे निर्दयी बन जाते हैं और अपने भाइयों तथा पुत्रों को भी मार डालते हैं । किन्तु भूमी उनकी नहीं होती। केवल हत्या का पाप चिरकाल तक उनके साथ रहता है।' २१. संगरो गर' इवाकलनीयो , यं श्रिता मृति'मयन्ति हि माः । .. प्राप्य तत्र विजयं निलये स्वे , ये व्रजन्ति भुवि तेऽधिकपुण्याः॥ 'युद्ध को विष की तरह मानना चाहिए । इसका आश्रय लेकर मनुष्य मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं । जो पुरुष विजय प्राप्त कर अपने घर चले जाते हैं, वे जगत् में अधिक पुण्यशाली होते हैं।' २२. आत्मनीनमिव दोषमुदग्रं , बान्धवं युधि निहत्य नरेन्द्र !! मोक्ष्यते नु भवतोदधिनेमि , त्यसो तब कियद् वसुधेयम् ? १. गरः - कृत्रिम विष (गरश्चोपविषं च तत्-अभि० ४।३८०) २. मृतिः-मृत्यु (मृतिः संस्था मृत्युकालो-अभि० २।२३७) Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः .. ३१३ 'नरेन्द्र ! अपने भीतर उत्पन्न उदग्र रोग की भांति युद्ध में बन्धुजनों को मार कर आप समुद्र पर्यन्त इस पृथ्वी का उपभोग करेंगे। किन्तु यह आपके पास कितने काल तक स्थिर रह सकेगी?।' २३. त्वत्पितुर्जगति कोतिभिरारात् , पौणिमा भवति भारतराज ! द्राक् कुहु'स्तदितराभिरमूभिर्बन्धुघातकलुषाभिरिहैव ॥ 'भारतेश्वर ! आपके पिता की.कीति से जगत् में पूर्णिमा होती है। किन्तु बंधुओं के घात से कलुषित आपकी इस अकीत्ति से यहां शीघ्र ही अमावस्या हो जाएगी।' २४. आधिपत्यरभसाद् विगृहीतिर्यत्त्वया व्यरचि साधु न चैतत् । बन्धुना सह कुरुष्व गिरा नः , सन्धिमेव नृप ! युद्धमपास्य ॥ 'राजन् ! आपने अपने आधिपत्य के बल पर यह विग्रह प्रारंभ किया है । किन्तु आपने यह उचित नहीं किया। हमारी बात मानकर आप युद्ध को छोड़, अपने भाई के साथ संधि ही करें।' २५. ईरणादुपरतेषु सुरेष्वित्याह भारतपतिः स्फुटमेतान् । बूथ यूयमिह यत् तवशेषं , सत्यमेव हृदयं मनुते मे ॥ इस प्रकार प्रेरणा देकर देवता जब उपरत हुए तब भरत ने स्पष्ट रूप से उनसे कहा'आप जो कुछ कहना चाहें वह सब कुछ कहें । मेरा हृदय यथार्थ ही मानता है।' २६. किं करोमि लघुरेष मदीयो , बान्धवो न मतिमानभिमानात् । मानमिच्छति गुरुर्लघुवर्गाज्जीवनं जलनिधेरिव मेघः॥ 'क्या करूं, मेरा यह छोटा भाई बाहुबली अभिमान के कारण बुद्धिमान् नहीं है। बड़ा छोटे से सम्मान चाहता है जैसे मेघ समुद्र से पानी चाहता है।' २७. भूभुजोषिकबलाः क्षितिपीठे , वैरिवर्गमवधूय भवन्ति । मन्थनादुदनिधेः कमलाप्तिः, संबभूव किल नन्दकपाणेः ॥ 'राजा वैरियों का उन्मूलन करके ही इस भूमि पर अधिक बलशाली हो सकते हैं। समुद्र के मन्थन से ही विष्णु को लक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी।' २८. आयुषं न मम चायुधधाम्नोन्तविवेश सरलत्वमिवाऽहेः । तेन मे तुवति मानसमेतद् , गात्रमस्त्रमिव मर्मविभेदि । १. कुहुः-अमावस्या (अभि० २१६५) २. नन्दकपाणे:-विष्णोः-नन्दकः (असिः) पाणी अस्ति यस्य, स तस्य(अभि०२।१३६ असिस्तु नन्दकः) Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'जैसे सर्प सरल-सीधा होकर बिल में पेठ जाता है, वैसे मेरी आयुधशाला में चक्र प्रविष्ट नहीं हुआ । इसलिए जैसे मर्मवेधी शस्त्र से शरीर पीड़ित होता है, वैसे ही मेरा मन इस घटना से पीड़ित हो रहा है।' २९. मानवा जगति मानभृतः स्युः , प्रायशस्त्विति सुरा अपि वित्थ । तद् विचार्य वदतोचितमस्मान् , मानहानिरधुना न यथा मे ॥ 'संसार में प्रायः मनुष्य मानशाली होते हैं , यह आप सब देवता भी जानते हैं। इसलिए आप विचार कर हमें कोई उचित मार्ग दिखाएं, जिससे आज मेरी मान-हानि भी न हो।' ३०. ते सुरा अपि तदीयगिरेति , प्रार्थिताः पुनरपीदमशंसन् । साधु साधु वृषभध्वजसूनो !, व्याहृतं ह्यघमुशन्ति न सन्तः।। भरत की वाणी से इस प्रकार प्रार्थित होकर उन देवताओं ने पुनः कहा--'ऋषभ के पुत्र ! आपने बहुत ठीक कहा है । क्योंकि सज्जन पुरुष पाप की कामना नहीं करते।' ३१. अस्मदुक्तिकरणकपटुत्वं , विद्यते तव हिताहितवेदिन् !। यत् सुधां किरति तारकराजसून चित्रममला हि सदैवम् ॥ 'हे हित और अहित के ज्ञाता ! आप हमारी उक्तियों को क्रियान्वित करने में अत्यन्त पटु हैं । चन्द्रमा का पुत्र बुध अमृत को बिखेरता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि पवित्र व्यक्ति सदा ऐसा ही करते हैं।' ३२. सद्बलाबलरणे विजयश्रीराप्यते जगति चैकतमेन । तुल्यतां पुनरवाप्य विधत्ते ; संशयं मनसि सैव नयज्ञ !॥ 'जिस रण में एक सबल और दूसरा अबल होता है, वहां सबल व्यक्ति ससार में विजयश्री को प्राप्त कर लेता है। किन्तु नयज्ञ ! जहां दोनों पक्षों में तुल्यता होती है, वहां विजयश्री भी मन में संशय करने लग जाती है।' ३३. वंश एष शतधा परिवृद्धस्तुङ्गतां कलयतिस्म युगादेः। युद्धपशुहननेन युवाभ्यां , छेद्य एव न कथञ्चिदवाप्य ॥ 'ऋषभदेव का यह वंश सैकड़ों प्रकार से वृद्धिंगत होता हुआ बहुत उन्नत हो गया है। इसको प्राप्त कर आप दोनों युद्ध रूपी पशु के प्रहार से इसका किसी प्रकार हनन न करें। १. तारकराजसू:-बुध । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः . ३१५ ३४. मन्मथोऽपि कुसुमैः प्रयुयुत्सुनपि किं मृतिमनङ्गजिघांसोः। ईरयेयुरिति नीतिविदस्तद् , विग्रहो न कुसुमैरपि कार्यः॥ 'फूलों से युद्ध लड़ने वाला कामदेव भी क्या शंकर से नहीं मार डाला गया ? नीतिमान् व्यक्ति यह प्रेरणा देते हैं कि विग्रह फूलों के द्वारा भी नहीं करना चाहिए।' ३५. तन्निवार्य सकलं हयपत्तिस्यन्दनद्विपयुगान्तमनीकम् । योधनीयमथ मंक्षु भवद्भ्यां , यश्च यं जयति तस्य महीयम् ॥ 'इसलिए घोड़े, पैदल-सैनिक, रथ और हाथियों की इस युगान्तकारी सेना का निवारण कर आप दोनों शीघ्र ही परस्पर युद्ध करें। जो जिसको जीत लेगा, भूमी उसी की होगी।' ३६. दृष्टि-मुष्टि-रव-यष्टिविशेषर्योधनीयमितरैर्न तु किञ्चित् । ज्ञायते च युवयोरपि युद्धोत्साहसाहसबलाभ्यधिकत्वम् ॥ 'आप दृष्टि-युद्ध, मुष्टि-युद्ध, शब्द-युद्ध और यष्टि-युद्ध--इनसे लड़ें किन्तु अन्य अस्त्रों से न लडें । इनसे ही आप दोनों का युद्ध के प्रति उत्साह, साहस और बल-इन तीनों की अधिकता जानी जा सकेगी। ३७. . एष आहव उरीकरणीयस्तुष्टिमापय मनःसु न' इत्थम् । शीतकान्तिकिरणा इव सन्तस्तोषयन्ति जगतीं निखिला हि ॥ 'इस प्रकार के युद्ध को स्वीकार कर हमारे मन को प्रसन्न करें। सन्त लोग. चन्द्रमा की किरणों की भांति समस्त जगत् को प्रसन्न करते हैं, संतुष्ट करते हैं।' ३८. ते तथेति कथिते जननेत्रा , स्वःसदः प्रमदमाकलयन्तः। सर्वकामसुभगं भवदीयं , कृत्यमस्त्विति निगद्य निवृत्ताः॥ जननायक भरत के द्वारा यह स्वीकार कर लेने पर देवता बहुत प्रसन्न हुए और 'आपका यह कार्य सर्वथा सुभग है'-यह कहकर वे अपने-अपने स्थान पर चले गये। ३६. कालपृष्ठधनुरपितपाणि , कुञ्जरारिमिव सम्भ्रममुक्तम् । हव्यवाहमिव दीप्तिकलिं , स्वर्णपर्वतमिवोन्नतिमन्तम् ॥ ४०. भागधेयवदनाकलनीयं , मूर्तिमाश्रयदिवाधिकशौर्यम् । दुःप्रधर्षतमकान्तिमिवार्क , प्रेतनाथमिवाहवभूम्याम् ॥ १. अनङ्गजिघांसुः-शंकर। २. न:-अस्माकम् । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४१. ते तदैव भरतानुजमीयुरिदा इव नदीहृदयेशम् । कोपताम्रनयनोल्बणवक्त्र, व्याहरनिति गिरानुनयाच्च ॥ ___ --त्रिभिविशेषकम् । जैसे बादल समुद्र के पास जाते हैं, वैसे ही वे देवता भरत से बातचीत कर बाहुबली के पास आए। महाराज बाहुबली के हाथ में कालपृष्ठ धनुष्य था। वे अष्टापद की भांति निःशंक, अग्नि की भांति अत्यन्त दीप्त, मेरु पर्वत की भांति उन्नत, भाग्य की भांति अगम्य, मूर्तिमान् बने हुए अधिक शौर्य वाले, सूर्य की भांति दुष्प्रधर्षतम कान्ति वाले, रणभूमी में यमराज के सदृश और क्रोध से रक्त हुए नयन से युक्त आनन वाले थे। देवताओं ने अनुनयभरी वाणी में कहा- . ४२. आदिदेवजननाधिसितांशो ! , वैरिवंशदहनकदवाग्ने !। धैर्य मन्दरगिरीन्द्र ! इदानीं , निर्जरैस्त्वमसि विज्ञपनीयः ॥ . 'हे ऋषभवंश रूपी समुद्र के चन्द्रमा !, वैरियों के वंश-दहन के एक मात्र दावाग्ने !, धर्य रूपी मन्दर पर्वत !, अब आपको देवता कुछ कहना चाहते हैं।' ४३. नीतिमण्डप ! पराक्रमसिन्धो ! , को गुरुं प्रणमतस्तव दोषः । सैन्धवीयसलिलस्य हि हानिः , का भवेदुपयतो जलराशिम् ? 'हे नीति के मंडप !, हे पराक्रम के समुद्र !, बड़े भाई को प्रणाम करने में आपको क्या दोषापत्ति है ? क्योंकि समुद्र में मिलने वाली नदी के पानी की क्या कोई हानि होती है ? कुछ भी नहीं।' ४४. चेद् विलुम्पसि गुरूनभिमानात्तद् गुरून् जगति मानयिता कः ? हीयते खलु गुरोरपि बुद्धया , यत्र तत् किमितरैरवगाह्यम् ? 'यदि आप बड़े के प्रति होने वाले व्यवहार का अहंकार के वशीभूत होकर लोप करते हैं तो भला संसार में दूसरा कौन होगा जो बड़ों को मान देगा? आप जैसे व्यक्ति भी यदि गुरुत्व की बुद्धि से क्षीण हो जाते हैं तो भला दूसरे व्यक्ति गुरुत्व की बुद्धि का अवगाहन कैसे करेंगे?' ४५. ज्येष्ठबान्धववधाय करस्ते , कि प्रभुर्भवति भूधन ! हा हा ! । गुर्वभक्तिनिरतेषु तवास्तु , प्रागुदाहरणमाहितनिन्धम् ॥ 'राजन् ! आपका हाथ बड़े भाई के वध के लिए क्या समर्थ है ? हा ! हा ! तब तो गुरुजनों के प्रति अविनय करने वाले व्यक्तियों में आपका निन्द्य उदाहरण पहला होगा। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ षोडशः सर्गः ४६. सर्वदैकसुकृती जगदन्तश्चेद् भवानपि भवेद् गुरु लोपी। अन्धकाररिपुरेष विभाति , कि तमोभिरुपलिप्यत एव ॥ 'संसार में आप सर्वदा अत्यन्त पुण्यशाली हैं। यदि आप भी बड़ों को मारने वाले होते हैं तब तो अन्धकार का शत्रु यह सूर्य क्या अन्धकार से व्याप्त नहीं हो जाएगा?' सभिरेव विहिता स्थितिरुच्चैः , संभवेदिह सदाचरणाय । स्वां स्थिति परिजहाति पयोधिः , किं कदाचन विना क्षयकालम् ? 'सज्जन व्यक्तियों ने सदाचरण के लिए ही ऊंची मर्यादाओं का विधान किया है । क्या कभी प्रलयकाल के बिना समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन करता है ?' ४८. तातवंशभवनं भवता यत् , संव्यधायि शुचिकीतिसुधाभिः । ज्येष्ठबन्धुवधपङ्कनिषेकर्मा तदेव मलिनीकुरु राजन् ! ॥ 'आपने अपने पिता ऋषभ के वंश-प्रासाद को पवित्र कीत्ति रूपी सुधा से धवलित किया है। राजन् ! उसी प्रासाद को आप ज्येष्ठ बंधु के वध रूपी कीचड़ के सिंचन से मलिन न करें। ४६. स्यप्ती वसुमती न च लक्ष्मी वितं न न सुखं न च दाराः। एकमेव शरदिन्दुकराभं , शाश्वतं किल यशोऽपयशश्च ॥ 'राजन् ! इस संसार में भूमी, लक्ष्मी, जीवन, सुख और स्त्री-ये स्थायी नहीं हैं । केवल शरद चन्द्रमा की किरणों की आभा वाला यश या अपयश ही स्थायी रहता है। ५०. विस्मयो न युवयोरपि शक्तावंसयोरिव युगादिजिनस्य । सृष्टिरत्र सकलैव वृथा वामीदृशेन समरेण तदा स्यात् ।। 'आप युगादिदेव के दो स्कंधों की भांति हैं, इसलिए आप दोनों के पराक्रम में कोई । विस्मय नहीं होता। किन्तु इस प्रकार के संग्राम से यह सृष्टि वृथा ही हो जाएगी।' ५१. इत्युदीर्य विरता वचनेभ्यो , वर्षणेभ्य इव वारिमुचस्ते । तानुवाच च बली बहलीशो , धैर्यमेदुरवचोभिरमीभिः ॥ इतना कहकर देवता बोलने से विरत हो गए, जैसे बादल बरस कर विरत हो जाते हैं । तब पराक्रमी बाहुबली ने धीर और स्निग्ध वाणी में उनसे इस प्रकार कहा५२. देवताः ! किमपि वित्त ममायं , बान्धवश्छलबलोत्कटचित्तः। मां नुनोद समराय कथञ्चित् , प्रेतनायकमिव प्रलयाय ? Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'देवगण ! क्या आप यह जानते हैं कि छल-बल में प्रवीण मेरे इस भाई भरत ने ही मुझे ज्यों-त्यों युद्ध करने के लिए वैसे ही प्रेरित किया है जैसे प्रलय के लिए यमराज को प्रेरित किया जाता है ?' ५३. वेत्त्ययं च बलवानहमेको , यन्मयैव वसुधेयमुपाता। देवसेव्यचरणोऽहमिदानीमित्यहं कृतिवशात् परिपुष्टः॥ वह जानता है—'इस धरती पर मैं ही एक पराक्रमी हूँ। यह भूमी मैंने ही प्राप्त की है । अब मैं देवताओं द्वारा उपास्य हूँ इसलिए भाग्यवश परिपुष्ट हूँ।' .. " ५४. मत्कनिष्ठसहजक्षितिचक्रादानतः किमपि मानमुवाह। __ एष सम्मदमशेषमतोऽहं , सङ्गरे व्यपनयामि विशेषात् ॥ 'मेरे सहजात छोटे भाइयों के राज्यों को प्राप्त करने से इसके मन में कुछ अहं आ गया है इसलिए मैं इसके सारे अहं को विशेष रूप से संग्राम में नष्ट कर दूंगा।'' ५५. अस्य लोभरजनीचर'चारैानशे हृदयमत्र न शङ्का। तोष एव सुखदो भुवि लीलाराक्षसा हि भयदाः पृथुकानाम् ॥ 'देवगण ! इसमें कोई शंका नहीं है कि मेरे भाई भरत का हृदय लोभ रूपी राक्षसों से भर गया है। संसार में संतोष ही सुखदायी होता है । बालकों के लिए क्रीडा-राक्षस भी भयप्रद होते हैं तो भला लोभ रूपी राक्षस भयप्रद क्यों नहीं होंगे ?' ५६. लौल्यमेति हृदयं हि यदीयं, तस्य कस्तनुरुहः सहजः कः । वृद्धिमेति विहरन् जलराशौ , संवरः स्वककुलाशनतो हि ॥ 'जिसका मन लोभ से भरा हुआ है, उसके लिए कौन पुत्र और कौन भाई ? समुद्र में विहरण करता हुआ मत्स्य अपने कुल की मछलियों का भक्षण करके ही वृद्धिंगत होता है, ऐसे नहीं।' ५७. संयता सह मया किमवाप्यं , सौख्यमत्र भरतक्षितिराजा। जीवितुं क इहेच्छति किञ्चित् , कालकूटकवलीकरणेन ? 'मेरे साथ संग्राम कर महाराज भरत कौन सा सुख पा लेंगे ? कालकूट विष का भक्षण कर कौन व्यक्ति जीने की इच्छा कर सकता है ?' १. रजनीचर:-राक्षस। २. संवर:-मत्स्य (संवरोऽनिमिषस्तिमि:-अभि०४४१०) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः ३१६ ५८. कोपवन्हिरतुलो मम चक्रेऽनेन दूतवचनेन्धनदानात् । सोभिषेणन'घृतकनिषेकाद् , दीपितः किमिह भावि न वेनि ॥ 'भरत ने दूत का वचन रूपी इन्धन डाल कर मेरी क्रोधाग्नि को भड़काया है। उसने एक मात्र आक्रमण रूपी घी के सिंचन से उस अग्नि को प्रज्वलित किया है। अब क्या होगा, मैं नहीं जानता।' ५६. सङ्गरोयमजनिष्ट महान् नौ , द्वादशद्विगुणितायनमात्रः । चेन्निषेधमधुनास्य विदध्यां , तहि मेऽल्पबल इत्यपवादः॥ 'हम दोनों के बीच यह महान् युद्ध प्रारम्भ हो चुका है। इसको बारह वर्ष हो गए हैं। यदि अब मैं इसे बीच में ही रोक दूं, तो 'मैं अल्प शक्तिशाली हूँ'-इस प्रकार मेरा अपवाद होगा।' ६०. मागतास्त्रिविवतो यदि यूयं , मां त्रिविष्टपंसदो ! न मया तत् । पुग्यवत्सुलभदर्शनवाक्याः , कुत्रचित् कलिवशादवमन्याः॥ 'देवगण ! आपकी वाणी और दर्शन पुण्यशालियों को ही सुलभ होते हैं। यदि आप स्वर्ग से मेरे पास आए हैं तो विग्रहवश मेरे द्वारा आपका कहीं भी अपमान न हो जाए, (इसलिए मैं एक प्रस्ताव करता हूँ-)' . ६१. एक एव समुपैतु रथाङ्गी , तादृशोहमपि संयत एता। तत्र नावधिक विक्रमवान् यः, स्वीकरिष्यति च तं विजयश्रीः । 'युद्ध-भूमी में चक्रवर्ती भरत अकेले आएँ और वैसे ही मैं भी वहां अकेला जाऊं। हम दोनों में जो भी अधिक पराक्रमी होगा, विजयश्री उसी का वरण करेगी।' ६२. एवमेव जनवर्गविमर्दो , नो भविष्यतितरां विबुधा ! हे !। दोर्बलोभ्यधिकताप्रतिपत्ति विनी च किल सर्वसमक्षम् ॥ 'हे देवगण ! ऐसा करने से ही जनसंहार नहीं हो पाएगा और वहीं पर सबके समक्ष हमारी भुजाओं के पराक्रम की अधिकता का विश्वास हो जायेगा।' ६३. व्याहृता अपि सुरा इति हृष्टास्तेन युद्धविधिदक्षभुजेन । कौतुकाय मगनं त्वधितस्थुः, कौतुकी न हि विलोकयिता कः ? १. अभिषेणनं–सेना के साथ शत्र पर चढ़ाई करना(अभिषेणनं तु स्यात् सेनयाऽभिगमो रिपो अभि० ३।४५४) २. नो+अधिक । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० 'भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् युद्ध-विधि में दक्ष भुजा वाले उस बाहुबली के इस प्रकार कहने पर देवता भी प्रसन्न हुए और कुतूहलवश आकाश में जा बैठे। ऐसा कौन कौतुकी होगा जो देखने का इच्छुक नहीं होगा ? ६४.. एतदाजिमवलोकयतो मे , स्वस्थितिर्बहुतरेव भवित्री। इत्यवेक्ष्य तरणिः परि लिल्ये , पश्चिमां नववधूमिव रागात् ॥ 'इस युद्ध को देखते हुए मेरी स्थिति बहुत ही लम्बी हो जाएगी'---ऐसा सोचकर सूर्य ने, नववधू की भांति पश्चिम दिशा का आसक्ति से आलिंगन कर लिया ।' ६५. तौ तदैव च निवर्तयतःस्म , वेत्रिभिः प्रहरणाग्निजवीरान् । देवतोक्तमिति वृत्तमशेषं , तत्पुरो कथयतां च विशेषात् ॥ उसी समय भरत और बाहुबली–दोनों ने अपने-अपने प्रहरियों को भेजकर अपने वीर सुभटों को युद्ध से निवर्तित कर दिया। उनके समक्ष देवताओं द्वारा विशेष रूप से कथित सारा वृत्तान्त रखा। ६६. तनिशम्य बहलीश्वरवीराश्चेतसीति जहषुः परितळ । नास्मदीश्वरबलोबलबाहुः , कोऽपि तज्जयरमाधिपतिर्न ॥ यह सुनकर बाहुबली के वीर मन में यह सोचकर हर्षित हुए कि हमारे स्वामी से बढ़ कर कोई दूसरा अत्यधिक भुज-पराक्रमी नहीं है। उनकी विजयलक्ष्मी का स्वामी भी कोई दूसरा नहीं है। ६७. भारतेश्वरभटास्त्विति दध्युविक्रमाधिकभुजो बहलोशः। चक्रभृच्च सुकुमारशरीरस्तज्जयः स्पृशति संशयदोलाम् ॥ चक्रवर्ती भरत के वीरों ने मन में यह सोचा-'बाहुबली की भुजाएं अधिक शक्तिशाली हैं। चक्रवर्ती भरत सुकुमार शरीर वाले हैं। इसलिए उनकी विजय संशयास्पद है।' ६८. भूभुजोऽत्र विभवन्ति चमूभिः , सर्वतोऽधिकबला न भुजाभ्याम् । ताः पुनः समनुशील्य नृपास्तत् , सङ्गराय विदधत्यभियोगम् ॥ सर्वत्र राजे सेनाओं के द्वारा अधिक बलशाली होते हैं , न कि भुजाओं के द्वारा। वे सेनाओं का सम्यग् अनुशीलन कर युद्ध के लिए उद्यम करते हैं। ६९. भूभृतः परिजनैश्च धनैश्च , प्रोत्सहन्ति समराय न दोाम् । किङ्करैस्तु नृपतिर्य भि रक्ष्यो , दैन्यजुक् प्रभुमृतेः किल सैन्यम् ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः 'राजे अपने परिजन और धन के कारण ही युद्ध के लिए प्रोत्साहित होते हैं, भुज-बल से नहीं । सेवकों का कार्य है कि वे युद्ध में राजा की रक्षा करें। स्वामी के मारे जाने पर सेना दीन हो जाती है।' ७०. देवतेरितमुरीकृतमेतत् , साधु नैव भरतक्षितिनेतुः । स्वान विषण्णमनसस्त्विति वीरान् , भूपतिवृषभसूनुरुवाच ॥ 'देवताओं द्वारा प्रेरित होकर यह सब स्वीकार किया गया है, किन्तु यह भरत के पक्ष में अच्छा नहीं है—'इस प्रकार विषण्णमन वाले अपने सैनिकों को देखकर महाराज भरत ने कहा ७१. खातिका खनत साम्प्रतमेकां , सैनिकाः ! पृथुतरातिगभीराम् । प्रत्ययो मम बलस्य ततो दाग , लप्स्यते सुकृतवद्भिरिवार्थः॥ 'सैनिको! अभी तुम एक विशाल और गहरी खाई खोदो। जैसे पुण्यशाली व्यक्ति धन प्राप्त करता है, वैसे ही तुम मेरे सामर्थ्य का शीघ्र ही विश्वास प्राप्त कर लोगे।' ७२. शासमं भरतनेतुरितीदंः, सैनिकः सफलतामथ निन्ये । . वारिवैरिव ललज्जलधारैर्नोप'काननमिवाम्बुदकाले ॥ भारतेश्वर की यह आज्ञा पाकर सैनिकों ने एक विशाल खाई खोदकर ऐसे तैयार कर ली, जैसे वर्षाकाल में जलधारा को बरसाने वाले मेघ कदम्ब के कानन को तैयार कर लेते हैं। ७३. तत्र भारतपतिः स्वयमस्थाच्छं खलं निजभुजे परिरभ्य। ऊचिवानिति कृषन्तु यथेष्टं , पद्मनालमिव चैनमशेषाः॥ तब भरत अपनी भुजाओं पर सांकल लपेट कर स्वयं वहां बैठ गए और अपने सैनिकों से बोले-'तुम सब मिलकर पद्मनाल की भांति इस सांकल को यथेष्ट रूप से खींचो।' ७४. चालितो न सकलैरपि बाहुः , कर्षणोत्कटहठः क्षितिनेतुः। शैलराजशिखरं न कदाचिद् , वात्यया हि निपतन्ति फलानि ॥ सांकल को खींचने के लिए अत्यन्त हठी सभी सैनिकों ने सांकल को जोर से खींचा किन्तु चक्रवर्ती भरत की भुजा टस से मस नहीं हुई। तूफान से मंदर पर्वत का शिखर कभी नहीं गिरता केवल वृक्षों के फल ही नीचे गिरते हैं । १. नीपः---कदम्ब (नीपः कदम्ब:-अभि९ ५।२०४) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ७५. चालिते नृपतिना भुजवज्र , गोत्र पक्षनिवहा इव सर्वे । . ते निपेतुरवनीरुहशाखालम्बिनो वय' इवानिलवेगात् ॥ भरत के द्वारा अपने भुजा-वज्र को हिलाने पर वे सब सैनिक पर्वतों के पंख-समूह की भांति वैसे ही भूमी पर आ गिरे, जैसे वृक्ष की शाखा पर बैठने वाले पक्षी पवन के वेग से नीचे आ गिरते हैं। ७६. प्रत्ययं तरसि भारतनेतुश्चक्ररद्भुततया भटधुर्याः। इन्दवीय महसीव चकोराः, संमदं मुहुरुदीक्षणतीवाः ॥ . यह देखकर भरत के वीर सैनिकों में अपने स्वामी के सामर्थ्य के प्रति आश्चर्यकारी विश्वास हो गया । जैसे ऊंची ग्रीवा कर देखने की तीव्र इच्छा वाला चकोर चन्द्रमा की किरणों को देखकर प्रसन्न होता है, वैसे ही वे प्रसन्न हो गए। . ७७. स्वस्वनायकैबलाम्यधिकत्वान् , मेनिरे तृणमिवाहितवर्गम्। सैनिका विजयलाभविवृद्धोत्साहसाहसमनोरमचित्ताः॥ वे सैनिक अपने-अपने स्वामी की शक्ति की अधिकता से शत्रुवर्ग को तृण की भांति मानने लगे । उनका चित्त विजय-प्राप्ति के लिए प्रवृद्ध उत्साह और साहस से मनोरम हो रहा था। ७८. गीर्वाणानां वाक्यमेतद् विशालं , मध्ये चित्तं श्रद्दधानौ नरेन्द्रौ । नीत्वा श्यामां तामशेषां दिनादौ., देवोद्दिष्टामीयतुयुद्धभूमिम् ॥ दोनों राजाओं-भरत और बाहुबली ने देवताओं की विशाल वाणी को चित्त में धारण कर सारी रात बिताई। प्रातः काल होते ही देवता द्वारा निर्दिष्ट रणभूमी में दोनों आ गए। ७६. ये पातिता रिपुभिरायुधघोरपातः , सर्वेपि ते भरतराजपुरोधसा. द्राक् । सज्जीकृता नृपतिबाहुबले लेपि , तद्वच्च चन्द्रयशसा युधि रत्नमन्त्रैः॥ रणभूमी में शत्रु सैनिकों द्वारा आयुधों के तीव्र प्रहार से भरत के जो वीर सुभट घायल हो गए थे, उन सबको भरत के पुरोहित ने मंत्रों द्वारा शीघ्र स्वस्थ कर पुनः सज्जित १. गोत्र:-पर्वत । २. वयस्-पक्षी। ३. इन्दोः भवं इन्दवीयम् । भवार्थे ईय प्रत्ययः । ४. पुरोधस्-पुरोहित (पुरोधास्तु पुरोहित:-अभि० ३.३८४) . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः ३२३ कर दिया । इसी प्रकार बाहुबली की सेना में भी जो सुभट घायल हो गए थे, उन सबको चन्द्रयशा ने रत्न और मंत्रों द्वारा स्वस्थ कर सज्जित कर दिया। ८०. पवमानरयोधुतधूलिभरैर्जलशीकरसेकनिषिक्तधरैः । विबुधैविदघे कुसुमप्रचयोपचिता रणभूरथ कौतुकिभिः॥ कुतूहली देवताओं ने सारी रणभूमी को फूलों से उपचित कर डाला। वे हवा के वेग से धूलिकणों को उड़ाकर पानी द्वारा भूमी को सींच रहे थे । ८१. कि मार्तण्डद्वयाढया किमुत हुतवहद्वन्द्वदीप्रा चकास देहोत्साहद्वयोयुक् किमुत रणमही गजिहर्यक्षयुग्मा । मेरुद्वन्द्वाभिरामा किमुत सुरनरैस्तकितेत्थं तदानीं, ताभ्यां भूमीधराभ्यामुदयति तरणौ पूर्णपुण्योदयाभ्याम् ॥ सूर्योदय के समय अत्यन्त पुण्यशाली महाराज भरत और बाहुबली–दोनों के रणक्षेत्र में उतरने पर देवताओं ने उस समय यह वितर्कणा की—क्या यह रणभूमी दो सूर्यो से संपन्न हुई है ? अथवा दो अग्नियों से दीप्र हो रही है ? अथवा शरीर के उत्साहद्वय से युक्त है ? अथवा हाथी और सिंह--इस युग्म से सहित है ? अथवा दो मंदर पर्वतों से शोभित हो रही है ? . -इति गीर्वाणवचःस्वीकरणो नाम षोडशः सर्गः Page #357 --------------------------------------------------------------------------  Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाय सतरहवां सर्ग 'भरत-बाहुबली के बीच हुए बार प्रकार के युद्धों का वर्णन । बाहुबली का ध्यानुस्थ हो जाना और भरत का अयोध्या की ओर प्रस्थान। श्लोक परिमाण छन्द लक्षण . ८६ . प्रहर्षिणी। त्र्याशाभिर्मनजरगाः प्रहर्षिणायम एक मगण, एक नगण, एक जगण, एक रमण और अंतिम गुरु (sss, l,si, Fas,.s)। इस छन्द के प्रथम तीनों अक्षर तथा आठवां, दसवां, बारहवां और तेरहवां दीर्घ होता है और तीसरे और दसवें अक्षर पर विश्राम होता है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु चक्रवर्ती भरत और पराक्रमी बाहुबली-दोनों रणभूमी में आ गए। सारा आकाश देवताओं से भर गया । सर्व प्रथम 'दृष्टियुद्ध' प्रारंभ हुआ। यह कुछ प्रहरों तक चला । भरत इसमें हार गए। फिर 'शब्दयुद्ध' प्रारंभ हआ। दोनों के सिंहनादों से सारा विश्व प्रकंपित हो उठा। इसमें भी विजय बाहुबली की ही हुई । उसके बाद 'मुष्टियुद्ध' प्रारंभ हुआ। भरत ने बाहुबली की छाती पर मुष्टि से प्रहार किया। बाहुबली का शरीर उससे अत्यन्त पीड़ित हो गया। वे क्रुद्ध होकर सर्प की भांति फुफकारने लगे। उन्होंने भरत को उठाकर आकाश में फेंक दिया। भरत आकाश में इतने दूर उछले कि दीखने बंद हो गये। बाहुबली का मन अनुताप से भर गया । उनका मन नानाविध संकल्पों में उलझ गया। इतने में ही भरत आकाश-मार्ग में दीख पड़े । बाहुबली ने उन्हें अपनी भुजाओं से झेल लिया। भरत क्रुद्ध हो गये । अब अन्त में 'दण्डयुद्ध' की बारी थी। दोनों ने लोहदंड हाथ में थामा और एक दूसरे पर प्रहार करना प्रारंभ कर दिया । भरत के तीव्र प्रहारों से बाहुबली घुटने तक भूमी में धंस,गये। उन्होंने दूसरा प्रहार करना चाहा। बाहुबली संभल चुके थे। उन्होंने भरत पर प्रहार किया और भरत गले तक भूमी में धंस गये। भरत घबड़ा गये। उनकी आँखें भयभीत थीं। बाहुबली ने सभी युद्धों में विजय प्राप्त करली। देवताओं ने विजय की दुंदुभी बजाई। फिर भी भरत अपनी पराजय स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए । भरत ने कहा-तू अब भी मेरा आधिपत्य स्वीकार करले, अन्यथा मैं इस चक्र के द्वारा तुझे भस्म कर दूंगा। बाहुबली का रोष बढ़ा और वे मुष्टि-प्रहार से भरत को मारने दौड़े। उनकी प्रचंडता को देख देव घबरा गए। वे बाहुबली को प्रतिबोध देने के लिए आए। उन्होंने उन्हें समझाया। बाहबली का रोष शांत हुआ। उन्होंने अपनी मुष्टि का प्रयोग केश-लुंचन में किया और महाव्रतधारी मुनि बन गये। भरत की आंखें डबडबा आईं। उन्होंने बाहुबली की स्तुति की। किन्तु 'बाहुबली शान्त खड़े रहे। __ भरत वहां से मुड़े। बाहुबली के पुत्र को बहली प्रदेश का आधिपत्य सौंपकर भरत अयोध्या लौट आए। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सप्तदशः सर्गः स्वः सिन्धोः पुलिन रजांसि पावयन्तौ पन्न्यासैः समरभुवं प्रकीर्णपुष्पाम् । आयात स्थितिमिव पूर्वपश्चिमान्धी, तौ बाहूल्बणलहरीभाराभिरामौ ॥ अपने पद-न्यास से गंगा के पुलिन के रजकणों को पावन करते हुए, भुजारूपी स्पष्ट लहरों से सुन्दर भरत और बाहुबली, दोनों फूलों से ढकी हुई रणभूमी में उसी प्रकार स्थित हो गए जैसे पूर्वीय और पश्चिमी समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित हो जाते हैं । , ३. एताभिर्वृषभत नजरूपलक्ष्मीमन्वेष्टुं कलहविलोकनोत्सुकाभिः । पातालाद् भुजगवधूभिरूर्ध्व लोकाद्द वीभिः कबरितमन्तरीक्षमासीत् ॥ युद्ध को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक पाताल लोक से भुजंगवधूएं और ऊर्ध्वलोक से देवियां ऋषभ के पुत्रों की रूप-लक्ष्मी का अन्वेषण करने के लिए वहां आईं और समूचा आकाश उनसे विविध वर्णवाला हो गया । कामिचि विबुधवधूभिरग्रजोयं, जेता द्रागयमनुजश्च तौ तदानीम् । औह्येतामिति गगनाङ्गलम्बिनीभिर्दृग्नीराजनविधिना 'टितानुरागम् ॥ आकाश में स्थित कुछ देवियों ने उन दोनों के विषय में तब यह वितर्कणा की कि यह बड़ा भाई भरत शीघ्र ही विजित होगा और कुछ ने यह वितर्कणा की कि छोटा भाई बाहुबली विजित होगा । उन देवियों ने अपनी दृष्टि की 'नीराजन - विधि' से अपने अनुराग को व्यक्त किया । ४. आकाशे freefaमानधोरणीभिः, संकीर्णे विपुलतरेऽपि सूरसूतः' । नाशक्तः स्वमपि रथं त्रसत्तुरङ्ग, संत्रातुं करनिबिडीकृतोरुरश्मिः ॥ १. विजया दशमी के दिन दिग्विजय यात्रा के पहले शान्त्युदक छिड़का जाता है, उसे 'नीराजन - विधि' कहते हैं । (अभि० ३।४५३) २. सुरसूतः - सूर्य का सारथि ( सूरसूतस्तु काश्यपि : - अभि० २।१६ ) ३२७ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् विशाल आकाश देव-विमानों की श्रेणी से संकीर्ण हो गया। सूर्य के रथ में जुते हुए घोड़े भयभीत हो गए। फिर भी सूर्य का सारथि घोड़ों की मोटी लगामों को स्वयं हाथों में दृढ़ता से थामे, रथ की रक्षा करने में समर्थ हो रहा था। ५. शेषाहे ! त्वमपि गुरुं मदीयभारं , वोढासि द्रढिमजुषाद्य मस्तकेन । क्षोणीति क्षितिपपदप्रहारघोषैर्जल्पती स्फुटमिव सर्वतो बभूव ॥. उस समय चारों ओर से राजाओं के पद-प्रहार के घोषों से भूमी यह स्पष्ट कह रही थी-'हे शेषनाग ! आज तुमको भी अपने शक्तिशाली मस्तक पर मेरे इस गुरुतर भार को वहन करना होगा।' ६. युद्धेऽस्मिन्नचलवरा निपातिनोमी , पाथोधिः स्थितिमपहास्यति प्रकामम् । स्थेयस्त्वं न सुरगिरे ! त्वयाप्यपास्यं , प्रावोचन्निति निनदा इवानकानाम् ॥ दुन्दुभियों के शब्द मानो यह कह रहे थे कि इस युद्ध में ये सारे पर्वतं गिर पड़ेंगे। समुद्र अपनी मर्यादा को बिल्कुल ही छोड़ देगा । हे मंदर पर्वत ! तुम्हें स्थिरता नहीं छोड़नी है। ७. न्यग्लोकात् समुपगतः कवे विनेयः , वैपुल्यं वियत इयद् व्यतय॑तेति । पूज्यत्वं क्वचिदपि चास्य दृश्यते नो , सम्भाव्यं श्रवणगतं न दृष्टिपूतम् ॥ नीचे लोक से समागत शुक्र के शिष्य दैत्यों में आकाश की इतनी विपुलता की वितर्कणा करते हुए कहा-'आकाश की पूजनीयता कहीं भी दृग्गोचर नहीं हो रही है। जो सुना हुआ होता है उसकी संभावना ही की जा सकती है। आकाश दृष्टिपूतदृश्य नहीं है इसलिए यह कहीं भी पूज्य नहीं है।' प. उत्फुल्लत्रिदशवधूविलोचनाब्जैराकाशं कुसुमितमुत्फलं स्तनैश्च । सामोदं सपरिमलैस्तदीयदेहैः , किं न स्यात् सपदि तदा समञ्जसञ्च ? समूचा आकाश देवांगनाओं के विकसित नयनरूपी कमलों से पुष्पित, उनके स्तनों से फलित और उनके सुगंधित देहों से सुरभित हो गया। उस समय सहसा सामञ्जस्य कैसे नहीं होता? ६. कोटीराङ्कितशिरसौ महाप्रतापौ , सन्नाहाकलिततन उभावितीमौ । एकां यज्जयकमलां वरीतुकामावन्योन्यं त्रिदशगविवकितौ च ॥ १. कवि:-शुक्र (उशना भार्गवः कविः-अभि० २।३३) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः . ३२९ भरत और बाहबली-दोनों के मस्तक पर किरीट थे । दोनों महान् प्रताप वाले थे । दोनों ने अपने शरीर पर कवच धारण कर रखे थे। दोनों एक ही जयलक्ष्मी का वरण करने के इच्छुक थे । इन दोनों के विषय में देवता परस्पर वितर्कणा कर रहे थे। १०. कि वाऽयं भरतपतिर्बलातिरिक्तः , किं वाऽयं किल बहलोशिता बलाढयः ? नो विप्रः क इह बली द्वयोरितीमावौह्येतां मुहुरपि दानवामरेन्द्रः॥ असुरेन्द्र और देवेन्द्र बार-बार यह वितर्कणा कर रहे थे कि इन दोनों में पराक्रमी कौन है, हम नहीं जानते। क्या भारत का अधिपति भरत बलवान् है या बहली देश का राजा बाहुबली बलवान् है ? ११. गीर्वाणस्त्रिदिवमपास्तमाजिदृष्टौ', पातालं भुजगवरैश्च वेश्म मत्यः । निःशेषेन्द्रियविषयाधिकस्तदेकोप्यूर्जस्वी नयनरसः किलाखिलानाम् ॥ युद्ध देखने के इच्छुक होकर देवताओं ने स्वर्ग, भुजंगमों ने पाताल और मनुष्यों ने घर छोड़ दिए । समस्त इन्द्रियों के विषयों में अधिक ऊर्जस्वी अकेला नयन-रस उन सब में नाच रहा था। १२. इत्युच्चभुजयुगलीपराजितेन्द्रो, वर्षेन्द्र बहलीपतिर्जगाद गर्वात् । देवानां स्मर बलकिङ्करीकृतानां , प्रस्तावे समयति यः स हि स्वकीयः॥ अब अपने भुज-युगल से इन्द्र को भी पराजित करने वाले बाहुबली न गर्व के साथ बाढ़-स्वर में भरत से कहा—'अपने बल के प्रभाव से सेवक बनाए हुए देवताओं का तुम स्मरण करों। क्योंकि जो समय पर काम आए, वही अपना होता है।' १३. जानीहि स्फुटमिति भूमिरस्तिवीरा, षट्खण्डोद्दलनविधौ ससंशयं हृत् । अस्त्येवं क्षितिप ! तवोल्लसत्स्मयत्वात्तन्मातस्तुदतितरां न चान्यदेव ॥ 'राजन् ! तुम यह स्पष्ट रूप से जान लो कि भूमी पराक्रमी वीरों के अधीन ही रही है । तुम्हारे बढ़ते हुए अहं को देखकर तुम्हारे षट्खंड-विजय के प्रति मेरे मन में संदेह हो रहा है । यह संदेह ही मुझे पीड़ित कर रहा है, दूसरा कुछ नहीं।' १. आजिंदृष्टी-युद्धदर्शने। २. वर्षेन्द्रम्-भरतम् । ३. देवानां स्मर-स्मृत्यर्थदयेशां वा-इति सूत्रण देवानां स्मर, देवान् स्मर वा। ४. अस्तिवीरा-वीरवती। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २४. इत्युक्त्वा दृशमरणांशुदुःप्रधर्षषटखण्डाधिपतिमुखेऽधिपत् क्षितीशः । कल्पान्ताम्बुधिलहरीमिवातितीवां , सामर्षा रिपुकुलकालरात्रिघोराम् ॥ यह कहकर बाहुबली ने सूर्य के किरणों की भांति दुष्प्रधर्ष, छह खंडों के अधिपति भरत चक्रवर्ती के मुह पर अपनी दृष्टि फैकी । वह दृष्टि प्रलयकाल के समुद्र की लहरों की भांति अति तीव्र, विजयेच्छा के उत्साह से युक्त क्रोध से उत्पन्न और शत्रुओं के कुल के लिए कालरात्री की भांति अत्यन्त घोर थी। .. १५. चक्राङ्गी सपदि ततो रुषातिताम्रां , रक्ताक्षध्वजभगिनी'त रङ्गभुग्नाम् । चिक्षेप क्षपितविपक्षिपक्षिपक्षामस्यास्ये हुतवहतेजसीव दीप्रे॥ . तब चक्रवर्ती भरत ने सहसा क्रोध से अत्यन्त लाल, यमुना की तरंगों की भांति टेढीमेढी, शत्रु रूपी पक्षियों की पांखों को नष्ट करने वाली दृष्टि बाहुबली के 'अग्नि के तेज की भांति दीप्त', मुंह पर फेंकी। १६. सोत्साहं कथमपि सिंहपूणिताक्षं , पक्ष्मान स्तिमित'तरान्तरालतारम् । . अन्योन्यं सुरनरकिन्नराद्भुताढ्य, त्वायामादजनि तदीयदृष्टियुद्धम् ॥ भरत और बाहुबली का दृष्टि-युद्ध कुछ प्रहरों तक चला। दोनों में उस समय भरपूर उत्साह था। उनकी आंखें सिंह की भांति एक दूसरे को घूर रही थीं। भीगी हुई पलकों के अन्तराल में ताराएं डूब रही थीं। देवता, मनुष्य और किन्नर-ये सब परस्पर में आश्चर्य प्रदर्शित कर रहे थे। , १७. आश्रान्तं जलमिव सारसं निदाघे , व्यालोकात्सरसिजचक्रवत्सहस्ये । तीक्ष्णांशोमह इव वासरावसाने , दग्द्वन्द्वं भरतपतेस्तरस्विनोपि ॥ जैसे ग्रीष्म ऋतु में धूप से तालाब का पानी सूख जाता है, पौष मास में कमल का समूह कुम्हला जाता है और दिन के अन्त में सूर्य की किरणें मन्द हो जाती हैं, वैसे ही पराक्रमी भरत की भी दोनों आंखें श्रान्त हो गईं। . १८. तद्बन्धोनयनयुगं ततोवलोकात् , प्रौढत्वं कलयितुमाचरत् क्रमेण । संक्रान्ताविव रवेरुदीचामश्रान्तं दिनमिव पुण्यवत् समाधौ ॥ १. रक्ताक्ष:-महिषः, ध्वजा अस्ति यस्य स रक्ताक्षध्वजः-यमराजः, तस्य भगिनी इति रक्ताक्षध्वजभगिनी-यमुना इत्यर्थः । २. भग्नम्-टेढी-मेढी (वृजिनं भङ गुरं भुग्नमरालं-अभि० ६।६३)। . ३. स्तिमित:-भीगा हुआ (तिमिते स्तिमितक्लिन्न'-अभि ० ६।१२८) ४. सहस्य:-पौष मास (पौषस्तषः सहस्यवत्-अभि० २।६६) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः ३३१ भरत के बाधु बाहुबली की दोनों आंखें .वलेोवन के समय से क्रमशः वैसे ही प्रता को प्राप्त होने लगी जैसे संक्रान्ति के समय उत्तरायण के सूर्य के दिन तथा भाग्यशाली योगी की समाधि के दिन अश्रान्त होते हैं, बढते चले जाते हैं। १६. मा देवा मम वदनं पातिदीनं , पश्यन्तु त्विति जगतीमिव प्रवेष्टुम् । न्यग्वक्त्रोऽवरजपुरो रथाङ्गपाणिष्पिाम्बूपचितविलोचनोथ तस्थौ ॥ 'मेरा लज्जा से दीन बना हुआ यह मुंह देवता न देखें'—यह सोचकर जमीन में प्रवेश करने के इच्छुक की भांति नीचा मुंह किए चक्रवर्ती भरत अपने छोटे भाई बाहुबली के समक्ष खड़े थे। उनकी आंखें आंसुओं से छलछला रही थीं। २०. ऊचेऽसौ भरतनपं गभीरसत्त्वो , भ्रातः ! कि मनसि विषादमादधासि । बालानामुचितमिदं त्ववेहि युद्धं , क्षत्राणां भवति हि युद्धमुग्रशस्त्रैः॥ गंभीर पराक्रम वाले उन बाहुबली ने महाराज भरत से कहा—'भाई ! मन में विषाद क्यों कर रहे हो ? दृष्टि-युद्ध आदि युद्ध तो बालकों के लिए उचित हो सकते हैं। क्षत्रियों का युद्ध उग्र शस्त्रों से ही होता है।' २१. एतेनाहवललितेन चक्रपाणे !, नात्मानं किल जितकाशिनं ब्रवीमि । तल्लज्जामथ परिहाय जन्यलीलामाधेहि प्रथय यशश्च दोर्बलस्य ॥ 'हे चक्रवत्तिन् ! मैं इस युद्ध-क्रीड़ा से अपने आपको युद्ध-विजयी नहीं मान सकता। तुम पराजय की उस लज्जा को छोड़कर युद्ध-क्रीडा को स्वीकार करो और अपने भुजबल के यश को फैलाओ।' . २२. इत्युक्तः शरभ इवादधत् समन्तात् , संक्षोभं त्रिजगति संचचार घोरम् । क्ष्वेडामिः प्रलय इवोद्धताभिरेष , वात्याभिर्जलधिरिवोमिभिस्तताभिः ॥ बाहुबली के द्वारा इतना कहते ही अष्टापद की भांति क्षोभ को धारण करता हुआ भरत उद्धत सिंहनादों के द्वारा प्रलय की भांति तीनों लोकों में व्याप्त हो गया, जैसे तूफान से उठी हुई विशाल ऊर्मियों से समुद्र व्याप्त हो जाता है। २३. संत्रस्यत्तदनु मृगरिव द्विपेन्द्र वल्लीभिस्त्विव दयिताभिराललम्बे। कान्तः क्षमारह इव गह्वरो गभीरो, हर्यक्षरपि भुजगश्च नागलोकः ॥ १. जितकाशी-युद्ध में विजयी (जिताहवो जितकाशी-अभि० ३।४७०) २. जन्यलीला-युद्धक्रीडां, आधेहि-स्वीकुरु। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् उन सिंहनादों से हाथी भी मृगों की तरह संत्रस्त हो गए। भयभीत होकर वल्लरियां वृक्षों से और स्त्रियां अपने पतियों से जा लिपटीं। सिंह भी अपनी गहरी गुफाओं में जा छिपे और भुजंगमों ने नागलोक का आश्रय ले लिया। २४. उत्साहं द्विगुणमवाप्य तत्कनिष्ठो , ज्यायोभिर्हरिनिनदिगन्तगाहैः। चक्राङ्गिध्वनितभराहितावकाशं , ब्रह्माण्डं न्यभरदुदैरिवाभ्रम भ्रम् ॥ यह सुनकर छोटे भाई बाहुबली का उत्साह द्विगुणित हो गया। जैसे पानी के द्वारा बादल आकाश को भर देता है वैसे ही उन्होंने दिगन्तों तक अवगाहन करने वाले दीर्घ सिंहनादों से ब्रह्माण्ड को भर दिया जो कि चक्रवर्ती के सिंहनादों की ध्वनि से भर जाने पर भी कुछ खाली था। २५. तज्जन्य प्रकटत मैकलास्यलीला , हर्यक्षध्वनिनिचयाभिनन्द्यनाटयाः। भूरङ्ग परिननृतुर्नटा इवाङ्गाः , साश्चर्य विबुधमनः समादधानाः ॥ उस समय उन दोनों के अंग भूमी के. रंगमंच पर नटों की भांति नाच रहे थे । युद्ध का ताण्डव उनका साथ दे रहा था। उनका नर्तन सिंहध्वनि के निचय से अभिनन्दनीय लग रहा था और वे आश्चर्यपूर्ण ढंग से देवताओं के मन को समाहित कर रहे थे। २६. हा शैत्यं तुहिनगिरिरितीरयन्त्यः , किन्नर्यः प्रकटितगाढदन्तवीणाः। रुद्राणीगुरुगिरि गह्वरं निलीनाः , सद्धर्मस्थितय इवाहदुक्तवाक्यम् ॥ 'हा ! कितनी सर्दी ! यह तो हिमगिरि है'-इस प्रकार कहने वाली किन्नरियों के दांत किटकिटाने लगे-दांतों की वीणा स्पष्ट रूप से बजने लगी । वे हिमालय की गुफाओं में लीन हो गईं, जैसे सद्धर्म की स्थितियां अर्हत्-वाक्यों में विलीन हो जाती हैं। २७. भीताभिविबुधवधूभिरभ्रमार्गान् , मञ्जीरा रवमुखरीकृतान्तरालात् । आलिल्ये निबिडतया प्रियस्य कण्ठो , देवानां तदनि युद्धमुत्सवाय ॥ १. अभ्रं-बादल। २. अनं—आकाश। ३. जन्यं युद्ध। ४. भूरङ्ग-भुवः रङ्ग-नाट्यस्थले (स्थानं नाट्यस्य रङ्गः स्यात्-अभि० २।१६६) ५. रुद्राणीगुरुगिरिः-हिमालय । ६. मजीरम्-नपुर (मजीरं हंसकं शिञ्जिन्यं-अभि० ३।३३०) . Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः उस समय भयभीत देवांगनाओं के नूपुरों के शब्दों से आकाशमार्गों के अन्तराल मुखरित हो रहे थे। वे दौड़ो-दौड़ी अपने प्रियतमों के पास गई और उनके गलों से गाढ-रूप में लिपट गईं। वह युद्ध देवताओं के लिए एक उत्सव (क्रीडा-काल) की भांति उपस्थित हुआ। २८. मूर्छाला त्रिदशवधूः पपात काचित् , संसिक्ताप्यमृतभरर्मुहुः प्रियेण । चैतन्यं न च लभतेस्म विप्रयोगी , गीर्वाणो गरमिति संगरं तदावेत् ॥ कोई देवांगना मूच्छित होकर भूमी पर गिर पड़ी। उसके प्रियतम देव ने बार-बार अमृत का सिंचन किया फिर भी उसकी मूर्छा नहीं टूटी, उसमें चेतना नहीं आई। उस समय विरही देवता ने युद्ध को विष के समान समझा.। २६. एणाक्षी कथमपि विश्लथाङ्गमारात् , सम्भ्रान्ता करतलधारिता पतन्ती। मा भैषीस्तव सविधे समागतोऽहमाश्वास्येति च दयितेन धाम नीता ॥ कोई संभ्रान्त सुन्दरी शिथिल होकर पति के पास ही भूमी पर गिर रही थी तब उसके प्रियतम ने उसे हाथ से थामते हुए कहा-'प्रिये ! तू डर मत, मैं तेरे पास आ गया हूं।' इस प्रकार से आश्वस्त कर वह उस प्रियतमा को घर ले गया। ३०. मातङ्गः परिजहिरे निषादियन्त्रा', उन्मत्तैरिव गुरुराजसम्प्रदायाः। उद्दामत्वमधिकृतं तुरङ्गमैश्च , प्रालेय 'रिव शिशिरर्तुमाकलय्य ॥ जैसे उन्मत शिष्य गुरु की आम्नाय को छोड़ देता है वैसे ही हाथियों ने महावतों के अंकुश को छोड़ दिया । जैसे शिशिर ऋतु को प्राप्त कर हिमपात उद्दाम हो जाता है वैसे ही घोड़े भी उच्छृखल हो गए । ३१. . अत्युच्चः परिरटितं च वेसरौघैः , कोनाश रिव पितृकाननं समेत्य । आक्रन्दैरपि करभैर्जगत् प्रपूर्ण , विस्तीर्णरिव महतां यशःसमूहैः ॥ 'जैसे श्मशान में जाकर राक्षस जोर-जोर से चिल्लाते हैं वैसे ही खच्चरों के समूह भी बहुत जोर से चिल्लाने लगे। जैसे महान् व्यक्तियों के विस्तीर्ण यश-समूह से जगत् भर जाता है वैसे ही ऊंटों ने अपने शब्दों से जगत् को भर दिया। १. निषादियन्त्रः--अंकुश। २. प्रालेयम्-हिमपात (प्रालेयं मिहिका हिमम्-अभि० ४।१३८) ३. वेसरः-खच्चर (वेसरोऽश्वतर:-अभि० ४।३१९) ४. कीनाशः-राक्षस (कीनाशरक्षोनिकसात्मजाश्च-अभि० २।१०१) ५. पितृकाननम्–श्मशान (श्मशान करवीरं स्यात् पितृप्रेतादनं गृहम --अभि० ४।४४) Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ३२. इत्युच्चैः खगुणमयं बभूव विश्वं चातङ्कातिशयमयं च मुक्तकृत्यम् । वेडाभिर्वृषभजिनाधिराजसून्वोः शूरत्वोच्छ्वसित कचाभिराममूर्ध्नाः ॥ , अपने पराक्रम द्वारा उठे हुए केशों से सुन्दर मस्तक वाले ऋषभदेव के दोनों पुत्रभरत और बाहुबली के उच्च सिंहनादों से सारा विश्व शब्दमय, अतिशय आतंकमय और कार्यमुक्त हो गया । 1 ३३. पर्यायादथ भरतेश सिंहनादस्तत् सिंहारवनिवहैः पिधीयतेस्म । पायोरिव तुहिनद्युति' प्रकाशः, कल्लोलैरिव जलधेः सरित्प्रवाहः ॥ चक्रवर्ती भरत का सिंहनाद चारों ओर फैल गया । वह बाहुबली के सिंहनादों के समूह से वैसे ही ढंका जा रहा था, मंद होता जा रहा था जैसे चन्द्रमा का प्रकाश बादलों से और समुद्र में मिलने वाला नदी का प्रवाह समुद्र के कल्लोलों से ढंक जाता है । ३४. चक्रेशः श्रमवशतो निमील्य नेत्रे, अध्यास्ते क्षणमथ यावदाहं तावत् । इत्येनं स जयरमोत्सुकै कचित्तः, को भ्रात ! स्तव हृदयेऽधुना विमर्शः ? ३५. . चक्रवर्ती भरत श्रम से थककर क्षण भर के लिए आंखें बंद कर जब विश्राम के लिए नीचे बैठ गए तव विजयलक्ष्मी को पाने के लिए उत्सुक मनं वाले बाहुबली ने उनसे कहा 'भाई ! आपके मन में अभी क्या विमर्श हो रहा है ? ' . ३७. " सामान्यं वचनरणं त्ववेहि राजन् ! जेयत्वं तदितरत्र नैव किञ्चित् । यावन्नो भवतितरां शरीरभङ्गः, किं वीरैर्युधि विजयोऽत्र तावदाप्यः ॥ 'राजन् ! वचन का युद्ध सामान्य युद्ध है । इसमें जीत जाना कुछ भी नहीं है । युद्ध में जब तक शरीर का भंग नहीं होता, तब तक वीरों के लिए विजय ही क्या है ?' ३६. पादिति सहजस्य' सार्वभौमस्तास्राक्षः परिकर राजिताङ्गयष्टिः । fi मेरुश्चपलता सबाहुकूटस्त्रं लोक्याक्रमणकृते त्विति व्यतिक ॥। अपने भाई बाहुबली के इस आक्षेप से भरत चक्रवर्ती की आंखें लाल हो गईं । वे पालथी की मुद्रा में बैठे थे । उन्होंने यह वितर्कणा की - 'क्या बाहुरूपी शिखर से युक्त यह मेरु पर्वत (बाहुबली) तीनों लोकों पर आक्रमण करने के लिए चपलता से उद्यत हुआ है ?" आलोकाद बहलिपतिस्ततोस्य शौर्योत्कर्षोत्कः प्रबलबलः पुरोऽधितस्थौ । उलः किमयमपां निधिः समन्तादाक्रान्ता सगिरिमहीमितीरितो द्राक् ॥ १. तुहिनद्युतिः - चन्द्रमा । २. सहज: - भाई (‘''सगर्भसहजा अपि - अभि० ३।२१५ ) ३. परिकरः - पालथी ( पर्यंस्तिका परिकरः - अभि० ३ | ३४३ ) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः ३३५ उसके पश्चात् शौर्य के उत्कर्ष-से उत्कण्ठित और महान् शक्तिशाली बाहुबली देखते-देखते भरत के सामने उपस्थित हो गए । उस समय यह तर्कणा हो रही थी-'क्या यह उद्वेलित समुद्र पर्वत-युक्त समूची पृथ्वी को शीघ्र आक्रान्त करेगा ?' ३८. तो राजद्विरदवरौ निबद्धमुष्टिप्रोद्दामैकतमरदौ स्फुरन्मदाढ्यौ । आयुक्तां भुजयुगली परस्परेण , वातूलोल्ललदवलाविव क्षयान्तः॥ उन दोनों राज-हस्तियों ने अपनी-अपनी मुट्ठियां तान लीं ! तब वे एक दांत वाले मदोन्मत्त हाथी की भांति क्षयकालीन वात्याचक्र की तरह उछलते हुए परस्पर एक दूसरे के सामने खड़े हो कर भुजाएं उठालीं। ३६. नन्वेतौ जिनवरतो जनुः स्म यातश्चन्द्रार्काविव जलधेर्महाप्रभाढ्यौ । कुर्वात इति कलहं कृते धरित्र्या , लौल्यं हि व्यपनयते विवेकनेत्रम् ॥ ४०. का हानिर्भरतपतेर्यदेष बन्धुघ्नो , लोभादयमपि मानतो न नन्ता। यद्ज्येष्ठं' क्षपयति किं कषायवह्निर्न स्नेहं त्विंति विबुधैस्तदा व्यकिं ॥ -युग्मम् । देवताओं ने तब यह सोचा--'जैसे समुद्र से महान् तेजस्वी सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई है, वैसे ही इन दोनों की उत्पत्ति जिनदेव ऋषभ से हुई है । ये भूमी के लिए युद्ध कर रहे हैं, क्योंकि लोलुपता विवेक की आंख को नष्ट कर देती है।' 'महाराज भरंत के क्या कमी है ? फिर भी वे लोभ के वशीभूत होकर बन्धु की घात करने के लिए उद्यत हो गए। यह बाहुबली भी अहंकारवश बड़े भाई के सामने नत नहीं हो रहा है । क्या कषाय की आग स्नेह को क्षीण नहीं कर देती ?' ४१. तो धूलील लिततनू विकीर्णकेशौ , स्वेदोद्यज्जलकणराजिमालपट्टी। रेजाते रणभुवि शैशवकलीलास्मर्ताराविव न हि विस्मरेत् स्मृतं यत् ॥ उस समय रणभूमी में उनके शरीर धूल से धूसरित थे , केश बिखरे हुए थे। उनके भालपट्ट पर स्वेद की बूंदें छलक रही थीं। वे बचपन की लीला को याद करते हुए-से प्रतीत हो रहे थे, क्योंकि जो स्मृत है उसे भूलना नहीं चाहिए । ४२. शंबेना'चलमिव नायकः सुराणां , चक्रेशो द्रढिमजुषाऽथ मुष्टिना तम् । चण्डत्वादुरसि जघान सोऽपि जज्ञ, वैधुर्योपचितवपुस्तदीयघातात् ॥ जैसे देवताओं का नायक इन्द्र वज्र से पर्वत पर प्रहार करता है वैसे ही चक्रवर्ती १. यद्वेषं इत्यपि पाठः। २. शंबः–वज़ (अभि० २।९४) .. . Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् भरत ने कुपित होकर दृढमुष्टि से बाहुबली की छाती पर प्रहार किया। उस मुष्टिप्रहार से बाहुबली का शरीर अत्यन्त पीडित हो गया। ४३. उच्छवासानिलपरिपूर्णनासिकोऽसौ , तद्घातोच्छलितरुषा करालनेत्रः । निःशङ्कप्रति भरतं तदा दधाव , भोगीन्द्र गरुड इवाहितापकारी ॥ उस प्रहार से उत्पन्न रोष के कारण बाहुबली की आंखें विकराल हो गई । उसकी नासिका उच्छवास की वायु से भर गई। वह निःशंक होकर भरत की ओर दौड़ा, जैसे सर्प को पीड़ित करने वाला गरुड़ सर्पराज की ओर दौड़ता है। ... ४४. अत्यन्तोद्धतकरपक्षतिद्वयेनोल्लाल्यायं गगनमनायि तेन रोषात् । ___ सोऽपि द्राग् नयनपथं व्यतीत्य यातो , योगीवाद्भुतमहिमावदातसिद्धिः॥ बाहुबली ने अपने अत्यन्त उद्धत हाथों से भरत को ऊंचा उठाकर रोष से आकाश में फेंक दिया। वह शीघ्र ही आंखों से दीखना बन्द होकर आगे चला गया, जैसे अद्भुत . महीमा वाली पवित्र सिद्धियों का धनी योगी अदृश्य होकर आगे चला जाता है। ४५. द्वे सैन्ये अपि चरमाद्रिपूर्वशैलप्रातःश्रीनिभृतमुखाम्बुजे तदास्ताम् । निविण्णो बहलिपतिश्च लोकमानो, व्योमात मुहुरिति संततान चिन्ताम् ॥ उस समय भरत की सेना का मुख-कमल अस्ताचल पर गए हुए सूर्य की आभा वाला तथा बाहुबली की सेना का मुख-कमल उदयाचल पर आए हुए सूर्य की आभा वाला हो रहा था । उदासीन बाहुबली ने आकाश की ओर, बार-बार देखा और उसके मन में यह चिन्ता उत्पन्न हुई४६. सोदर्योद्दलनकरी भुजद्वयो मेऽभूदेवं प्रसमरवाग्भरादकोत्तिः । कोतिर्वा भरतपतेः क्षतिः क्षितीशादित्यासीद् बहलोपतिर्न तत् किमूहे ? 'मेरी ये दोनों भुजाएं भाई को पीड़ित करनेवाली सिद्ध हुई हैं'-इस प्रकार फैलने वाली वाणी से मेरी अकीति होगी अथवा ऐसी कीत्ति होगी कि एक सामन्त राजा के द्वारा भरतपति की क्षति हुई है ? बाहुबली इस प्रकार वितर्कों में खो रहा था । ऐसा कौन सा वितर्क था जो उस समय बाहुबली ने नहीं किया ? ४७. इत्यन्तर्मनसि महीपतौ रथाङ्गी , गौचर्य नयनपथस्य संचचार । आदध्र भुजयुगलेन चान्तरिक्षादायान्तं बक इव संवरं स एनम् ॥ १. करपक्षति:-करमूलः 'हाथ' इति भाषायाम् । २. गौचर्यम्-गोचरस्य भावः गौचर्य विषयतामित्यर्थः। ३. संवर:-मत्स्य (संवरोऽनिमिषस्तिमि:--अभि० ४।४१०) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः ३३७ महाराज बाहुबली मन ही मन यह सोच रहे थे । इतने में ही भरत आकाश मार्ग में दीख पड़े । आकाश से आते हुए भरत को बाहुबली ने अपनी भुजाओं से झेल लिया, जैसे बगुला मत्स्य को ऊंचा फेंक कर पुनः झेल लेता है । ४८. तब बाहुबली ने अपने भाई भरत के स्वेदकणों को सुखाने के लिए चादर रूपी पंखों से हवा ली और क्षण भर के लिए आश्वस्त कर कहा - 'भाई ! युद्ध के मिष से बचपन में जो किया था, उसको याद करो ।' ४६. , आश्वास्य क्षणमय, बान्धवं स्वकीयं प्रावार 'प्रवरविधूननाऽनिलेन । स्वेदाम्भः कणशोषिणा स ऊचे, बालस्य स्मर पुनराहवच्छलेन ॥ 'राजन् ! छह खंडों को जीतने के समय तुम्हें जैसा श्रम नहीं हुआ था वैसा श्रम मेरे साथ बाहु-युद्ध करने में हुआ है । राजन् ! पर्वत के वृक्षों को उखाड़ फेंकने में क्या कोई कहीं भी हाथी की बराबरी कर सकता है ?" ५०. षट्खण्डचा जयसमये न यादृशी तेऽभूच्छ्रान्तिस्त्विह मम तादृशी नियुद्धे' | शैर्वीरुहदलने गजस्य साम्यं, कुत्रापि प्रभवति किं धराधिराज ! ? प्रागेव क्षितिप ! मयोदितं चराने, स्थातव्यं युधि भवतैव मे पुरस्तात् । कः स्थातुं त्रिदशfift विना विभूष्णुः, कल्पाब्धेः किल पुरतो विलोलवीचेः ? 'राजन् ! मैंने दूत से पहले ही कह दिया था कि युद्ध में तुम्हें ही मेरे समक्ष ठहरना है । विब्ध ऊर्मियों वाले प्रलयकाल के समुद्र के समक्ष मन्दर पर्वत के अतिरिक्त कौन स्थिर रहने में समर्थ हो सकता है ?' ५१. तद्वाक्यादिति कुपितोऽभ्यधादऽसौ तं तुष्टस्त्वं मनसि मया जितोद्य चक्री । यद्दोष्णोर्वदसि यथा तथावलेपात् सामान्यैः क्षितिपतिभिर्न जीयते हि ॥ ५२. , बाहुबली के इन वाक्यों से कुपित होकर भरत ने उससे कहा- तुम मन में यह सोचकर तुष्ट हो रहे हो कि मैंने आज चक्रवर्ती को जीत लिया है। तुम भुजाओं के अभिमान से जैसे-तैसे बोल रहे हो । सामान्य राजे चक्रवर्ती को नहीं जीत सकते ।' " गर्व यदि भुजयोगृहाण दण्डं तद्दृप्तः प्रणयमतो न संविधास्ये । इत्युक्त्वा नृपतिरविभ्रमत् कराभ्यां लीलाम्भोरुहमिव शस्त्रपिण्डदण्डम् ॥ " १. प्रावारः – उत्तरासंग (वैकक्षे प्रावारोत्तरासङ्गो - अभि० ३।३३६ ) २. नियुद्ध - बाहु युद्ध (नियुद्ध ं तद् भुजोद्भवम् - अभि० ३।४६३ ) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'यदि तुम्हें अपनी भुजाओं पर गर्व है तो तुम दंड हाथ में लो। तुम उन्मत्त हो गये हो इसलिए मैं तुम्हारे पर प्रेम नहीं रखूगा'-यह कहकर भरत ने शस्त्र के पिण्ड रूप दंड को दोनों हाथों से काडा-कमल की तरह घुमाया। ५३. अज्येष्ठस्तदनु तथैव लोहदण्डं , हस्ताभ्यां दृढमवस्य संयतेऽस्थात् । दण्डाभ्यामथ परितेनतुश्च संगरं तौ , षाट्कारारवमुखरीकृतत्रिविश्वम् ॥ ५४. संघट्टस्फुरदनलस्फुलिङ्गनश्यत्पौलोमीसिचयविवूननातितीवः। . आकाशश्वसनरर्यविनीतखेदस्वेदाम्भःकणपरिमुक्तवीरवक्त्रम् ॥ ... युग्मम् । उसके बाद कनिष्ठ भ्राता बाहुबली भी वैसे ही हाथों से लोहदंड को दृढ़ता से घूमाता हुआ युद्ध में स्थित हो गया। जब दोनों में दंड-युद्ध प्रारंभ हुआ तब दंडों के प्रहार के. 'षाटकार' शब्दों ने तीनों लोकों को मुखरित कर डाली। उस समय दंडों के संघट्टन से अग्नि-स्फुलिंग उठ रहे थे । भय से दौड़ती हुई इन्द्राणी के कपड़े रूपी पंखों के तीव्र झलने से आकाश में . पवन का वेग बढ़ गया था। उससे वीर सुभटों के मुंह पर रहे हुए खेद रूपी स्वेद-बिन्दुओं का अपनयन हो गया। ५५. षट्खण्डाधिपतिरथ क्रुधा करालो , दण्डेन स्मयमिव मौलिमाबभञ्ज । तच्छीर्षाधिवसनकल्पितस्थिरत्वं , निःशङ्कबहलिपतेरुदनबाहोः॥ छह खंडों के अधिपति भरत ने क्रोध से विकराल होकर प्रचंड भुजा वाले बाहुबली के मुकुट, जिसने उनके सिर पर बने रहने की स्थिर कल्पना कर ली थी, को अपने दंड से निःशंक होकर तोड़ डाला, मानो कि उसके अभिमान का भंजन कर डाला हो । ५६. आजानु क्षितिमविशत्तदीयघाताद् , दुर्दान्तद्विप इव वारि'मार्षभिः सः। आयान्तं पुनरपि हन्तुमग्रजातं , दण्डेन प्रसभमथावधीदमर्षात् ॥ उस दंड-प्रहार से बाहुबली घुटने तक भूमी में धंस गया, जैसे दुर्दान्त हाथी बंधन भूमि में धंस जाता है । बाहुबली ने जब भरत को पुन: घात करने के लिए आते हुए देखा तो उसने क्रोध से विकराल होकर अपने दंड से भरत पर तीव्र प्रहार किया। ५७. आकण्ठं भरतपतिविवेश भूमौ , तद्घाताच्छरभ इवाद्रिकन्दरायाम् । आकाशात् त्रिदशवरैरपि प्रमोदान् , मुक्ता द्राक्कुसुमततिः कनिष्ठमूनि ॥ १, वारिः-हाथी की बंधन-भूमी (वारिस्तु गजबन्धभूः-अभि० ४।२६५) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः ३३६ बाहुबली के तीव्र प्रहार से भरत गले तक भूनी में प्रवेश कर गए, जैसे शरभ पहाड़ की गुफा में प्रवेश कर जाता है । यह देखकर देवगण प्रमुदित हुए और उन्होंने आकाश मार्ग से शीघ्र ही बाहुबली के मस्तिष्क पर फूलों की वर्षा की । ५८. स ज्येष्ठं तदनु विलोक्य कातराक्षं, खिन्नोन्तर्मुहुरिति चिन्तयाञ्चकार । हा ! तातान्यशरदेकशीत रश्मौ, कर्मेदं व्यरचि कलङ्कपङ्कलीलम् ॥ उसके पश्चात् बाहुबली ने अपने बड़े भाई भरत की ओर देखा । उनकी आंखें भयभीत थीं । बाहुबली का मन खिन्न हो गया । उन्होंने बार-बार यह चिन्तन किया - ' हा ! पूज्य पिता श्री ऋषभ देव का वंश शरद् ऋतु के चन्द्रमा जैसा निष्कलंक है । किन्तु मैंने कलंक से पंकिल ऐसा कार्य कर डाला !' ५६. 'मैंने इन सभी युद्धों के प्रयोगों से जान लिया है कि मेरी भुजाओं में या भरत की भुजाओं में ! सभी युद्ध क्रीडाओं में मेरी विजय हुई है के लिए भाई को मार डालना उचित नहीं है ।' ६०. " विज्ञातं किल समरात् मयेत्यमुष्मान् मद्दोष्णोर्बलमधिकं रथाङ्गपाणेः । तत्सर्वाह वललितेष्वभूज्जयो मे हन्तव्यः परमवनीकृते न बन्धुः ॥ 4 ' ६१. नाभेrप्रथमसुतोऽथ भूमिमध्यान्निर्यातो . जलदचयादिवोष्णरश्मिः । चक्राङ्ग निजकरपङ्कजे निधाय प्रोवाचानुजमधिकप्रतापदीप्रम् ॥ जैसे सूर्य बादल से बाहर निकलता है वैसे ही ऋषभ के प्रथम पुत्र भरत भूमी से बाहर निकले और प्रताप से अत्यन्त दीप्र चक्र को हाथ में लेकर बाहुबली से बोले— , · अधिक शक्ति है । फिर भी भूमी भ्रात ! स्त्वं लघुरसि तत्तवापराधाः क्षन्तव्या मनसि मया गुरुर्गुरुत्वात् । दाक्षिण्यं तवं तु ममारि तीव्रमेतन्नो कर्त्ता तुहिनरुचेर्यथा तमास्यम् ॥ ". , ★ "भाई ! तुम छोटे हो और मैं बड़ा हूँ, इसलिए मुझे अपने गुरुत्व को ध्यान में रखकर मन ही मन तुम्हारे अपराधों को क्षमा कर देना चाहिए । किन्तु यह मेरा तीव्र चक्र तुम्हारे पर कृपा नहीं करेगा, जैसे राहु चन्द्रमा पर कृपा नहीं करता ।' ६२. अद्यापि प्रणिपतमञ्च मा मृयस्वाहंकारं त्यज भुजयोविपत्तिकारम् । चक्राङ्गज्वलनरुचोपतप्तदेहाः, कुत्रापि क्षितिपतयो रति न चापुः ॥ १. अरिन् – चक्र (रथाङ्ग रथपादोऽरि - अभि० ३।४१९) । २. तमास्यं - राहु | Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'भाई ! तुम अभी भी प्रणिपात करलो, व्यर्थ ही क्यों मरते हो। अपनी भुजाओं के विपत्तिकारक अहं को छोड़ दो। देखो, मेरे चक्र की अग्नि की लपटों से. उत्तप्त होकर राजा कहीं भी सुख नहीं पा सके।' ६३. संरुष्टः सपदि तदीयया गिरेति , व्याहार्षीद बहलिपतिश्च कोशलेशम् । कि बन्धो ! ऽहमपि तवेदशैविभाव्यः , सारङ्गैर्हरिरिव यत्प्रभुस्त्वमेव ? . भरत की वाणी सुनकर सहसा कुपित हुए बाहुबली ने कहा-'भाई ! तुम अपने आप को ही प्रभु मान रहे हो । क्या मैं तुम्हारी इस प्रकार की बातों से डर जाऊंगा? क्या हरिणों से सिंह डर जाता है ?' ६४. मर्यादां परिजहतस्तवामरोक्तां , चक्राङ्गादथ विजयः कथं भविष्णुः ? पादाब्जं यदि हृदयेऽर्हतो ममादेः, किं कालायस'शकलाद बिभेमि तहि ? 'भाई ! तुमने देवताओं द्वारा विहित मर्यादाओं का उल्लंघन किया है, तब इस चक्र से विजय प्राप्त कैसे होगी ? यदि आदिदेव ऋषभ के चरण-कमल मेरे हृदय में स्थित हैं तो क्या मैं इस लोहे के टुकड़े चक्र से भयभीत होऊंगा ?'. ६५. औद्धत्यादिति निगदन्तमेनमुच्चैय॑स्राक्षीत् प्रति भरतोऽरि दीप्तिदीप्रम् । पाथोदस्तडितमिवास्य पार्श्व मेत्य , सम्राजं प्रति ववले ततो रथाङ्गम् ॥ उद्धतता से इस प्रकार बोलते हुए बाहुबली के प्रति भरत ने दीप्ति से जाज्वल्यमान चक्र को जोर से फेंका जैसे बादल विजली को फैकता है । वह चक्र बाहुबली के पास आकर चक्रवर्ती भरत की ओर मुड़ गया। ६६. स्वःसिन्धूदकलहरीवलक्षवक्त्रा , योद्धारो बहलिपतेस्तदाबभूवुः । कालिन्दीतरुणतरङ्गमज्जदास्याः , षट्खण्डाधिपतिभटास्तदैव चासन् ॥ उस समय बाहुबली के योद्धाओं के मुंह गंगा के पानी की लहरों की तरह उज्ज्वल हो गए और भरत के सैनिकों के मुंह यमुना की तरुण तरंगों में डूबे हुए जैसे मलिन हो गए। ६७. उद्यम्य प्रबलतया क्रुधा दधावे , तन्मुष्टि त्वयमपनेतुमुल्बणास्त्रम् । उष्णत्वं व्रजति हि वह्निसंप्रयोगात् , पाथोऽपि प्रकटतया स्वभावशीतम् ॥ १. कालायसम्-लोह (लोहं कालायसं शस्त्रम्-अभि० ४।१०३) । . २. शकलम्- (खण्डेऽर्धशकले भित्तम्-अभि० ६।७०) ३. उल्बणास्त्रम्-प्रकट अस्त्र (चक्र) । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः ३४१ तब बाहुबली क्रोध के आवेश में अपनी मुष्टि को उठा कर उस प्रकट अस्त्र चक्र को नष्ट करने के लिए दौड़ा। क्योंकि प्रत्यक्षतः स्वभाव से शीतल पानी भी अग्नि के प्रयोग से गरम हो जाता है। ६८. संहर्ता त्रिजगदनेन मुष्टिनायं , क्रोधाब्धिर्भरतपतिः स्थिति त्वलुम्पत् । श्रेष्ठानां क्षयकरणं भवेद् विरुद्धं , कि कार्य त्विति विबुधैर्व्यचारि चित्ते ॥ बाहुबली अपनी मुष्टि से तीनों लोकों का संहार कर देगा । क्रोध का समुद्र भरत अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर चुका है । श्रेष्ठ व्यक्तियों का क्षय करना व्यक्ति के लिए प्रतिकूल सिद्ध होता है-यह देखकर देवताओं ने अपने मन में सोचा कि अब क्या करना चाहिए ? (वे बाहुबली के पास आए)। . ६६. अयि बाहुबले ! कलहाय बलं , भवतोऽभवदायति'चारु किमु ? प्रजिघांसुरसि त्वमपि स्वगुरुं., यदि तद्गुरुशासनकृत् क इह ? ७०. कलहं तमवेहि हलाहलकं , यमिता यमिनोप्ययमा नियमात् । भवती जगती जगतीशसुतं, नयते नरकं तदलं कलहैः ॥ नप ! संहर संहर कोपमिमं , तव येन पथा चरितश्च पिता । सर तां सरणि हि पितुः पदवीं , न जहत्यनघास्तनयाः क्वचन ॥ धरिणी हरिणीनयना नयते, वशतां यदि भूप ! भवन्तमलम् । विधुसे विधिरेष तदा भविता , गुरुमाननरूप इहाक्षयतः ॥ ७३. तव मुष्टिमिमां सहते भुवि को , हरिहेतिमिवाधिकघातवतीम् । - भरताचरितं चरितं मनसा , स्मर मा स्मर केलिमिव श्रमणः ॥ . ७४. अयि ! साधय साधय साधुपदं , भज शान्तरसं तरसा सरसम् । ऋषभध्वजवंशनभस्तरणे ! , तरणाय मनः किल धावतु ते ॥ ७५. इति. यावदिमा गगनाङ्गणतो , मरुतां विचरन्ति गिरः शिरसः । अपनेतुमिमांश्चिकुरानकरोद् , बलमात्मकरेण स तावदयम् ॥ -सप्तभिः कुलकम् । ' देवताओं ने बाहुबली से कहा-'हे बाहुबले ! तुम्हारा बल युद्ध के लिए प्रयुक्त हो रहा है। क्या यह भविष्य के लिए शुभ होगा ? यदि तुम भी अपने बड़े भाई भरत को मारना चाहते हो तो इस संसार में बड़े भाई की आज्ञा मानने वाला दूसरा कौन होगा ?' 'तुम उस कलह को हलाहल विष के समान जानो जिसका आश्रय लेकर संयमी मुनि १. आयतिः-भविष्यकाल (आयतिस्तूत्तर: काल:-अभि० २७६) २. यं-कलह, इता:-प्राप्ताः ।। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ३४२ - भी निश्चय से असंयमी हो जाते हैं । यह पूजनीया पृथ्वी राजपुत्र को नरक में ले जाती है, इसलिए इसके लिए किए जाने वाले ऐसे कलह से हमें क्या ?' 'राजन् ! तुम अपने इस क्रोध का संहरण करो, संहरण करो। जिस मार्ग पर तुम्हारे पिता ऋषभ चले हैं, उसी मार्ग पर तुम चलो । सुपुत्र अपने पिता के मार्ग को कभी नहीं छोड़ते ।' 'राजन् ! यदि यह भूमी रूपी सुन्दरी तुमको वश में कर लेती है तो बड़ों को सम्मान देने की यह विधि मूलतः विधुर हो जाएगी ।' 'इन्द्र के वज्र की तरह प्रचंड प्रहार करने वाली तुम्हारी इस मुष्टि को संसार में कौन सहन कर सकता है ? तुम भरत द्वारा आचीर्ण चरित्र को मन से भी याद मत करो, जैसे श्रमण पूर्वकृत काम-क्रीडा को याद नहीं करता ।' 'राजन् ! तुम मुनिपद की साधना करो, साधना करो। तुम शीघ्रता से सरस शान्तरस का आसेबन करो। हे ऋषभदेव के वंशरूपी आकाश के सूर्य ! तुम्हारा मन आत्म-कल्याण के लिए अग्रसर हो !' इस प्रकार आकाश में देववाणी हुई । इतने में बाहुबली ने अपने बल का प्रयोग- अपने हाथ से शिर के केश - लुंचन में किया । 1 ७६. मुनिरेष बभूव महाव्रतभृत् समरं परिहाय समं च रुषा । सुहृदोsसुहृदः सदृशान् गणयन् सदयं हृदयं विरचय्य चिरम् ॥ , उस समय बाहुबली युद्ध और रोष को एक साथ छोड़कर, मित्र और शत्रु को समान मानते हुए हृदय को सदा के लिए करुणामय बनाकर महाव्रतधारी मुनि बन गए । ७७. सरसीरुहिणीव मुनीन्द्रतनुः सुकुमारतरा विधुराण्य सहत् । शिवलक्ष्मि निवासपदं सफला क्वचिदप्यनिता न्वऽनुपास्तिमती ॥ ७८. मुनीन्द्र बाहुबली का शरीर कमलिनी की भांति अत्यन्त सुकुमार था। उस शरीर से उन्होंने अनेक कष्ट सहे । वह शरीर मोक्ष का हेतु था और अपने लक्ष्य की सिद्धि में सफल था । लक्ष्य की उपासना नहीं करने वाला शरीर कहीं भी नहीं पहुंच पातालक्ष्य तक नहीं जा पाता । 1 अमरीभिरुपेत्य स राजऋषिर्तवणाद्य वतारणकैर्नुनुवे । दुधुवे सुरबालकुरङ्गदृशां नयनैर्न मनागपि चैकमनाः ॥ 1 देवांगनाएं राजर्षि बाहुबली के पास आईं और लवण आदि उतार कर उनकी स्तुति १. लक्ष्मि - यह ह्रस्व प्रयोग चिन्त्य है । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ सप्तदशः सर्गः की । बाहुबली एकाग्रचित होकर स्थित थे । वे देवांगनाओं के नयनों से किञ्चिद् भी विचलित नहीं हुए। ७६. पत दशुकणाविलवक्त्ररुचिर्भरताधिपतिः समुपेत्य ततः। प्रणनामतरां मत रामसिकानुरविरतं निरतं विरतौ ॥ इतने में ही महाराज भरत वहां आ गए। आंसुओं के बहने से उनकी मुखश्री पंकिल हो रही थी। उन्होंने संयम में संलग्न और अपने अभिप्राय की हठवादिता की अनुरक्ति से विरत मुनि बाहुबली को प्रणाम किया। ८०. प्रणिपत्य मुनिः कलिभङ्गकरः , समताञ्चितजानुविलम्बिकरः। ___सवचोभिरिति प्रणयप्रवणैर्जगदे जगदेकतमप्रभुणा ॥ मुनि बाहुबली के समतायुक्त हाथ दोनों घुटनों पर लटक रहे थे । वे युद्ध के वातावरण को भंग कर चुके थे । जगत् के अनन्य प्रभु भरत ने उन्हें प्रणाम कर प्रेम-प्रवण वचनों में इस प्रकार कहा ८१. यशसां पटहेन पटुध्वनिना , तव बान्धव ! सन्तु दिशो मुखराः। मुखरागभिदो न पितुः सरणेमम तद्विपरीततरेण पुनः॥ 'बान्धव मधुर ध्वनि वाली आपकी यशःदुंदुभि से दिशाएं मुखरित हों । पिताश्री के अभिनिष्क्रमण के समय भी मेरे मुख की प्रसन्नता नहीं टूटी थी, किन्तु आज उससे विपरीत हो रहा है।' ८२. सुरंकिङ्कर ! किं करवाणि तवाऽनवधानधरं हृदयं न यतः। समयो नियमस्य ममास्ति गुरोर्न तवास्ति लघोः कुरुषे किमतः ? 'हे देवताओं द्वारा उपास्य मुने ! आपका हृदय समाहित हो गया है । अब मैं क्या करू ? बड़ा भाई होने के नाते दीक्षा लेने का समय तो मेरा था, छोटे होने के कारण आपका नहीं । यह आप क्या कर रहे हैं ?' ८३. मम मन्तुमतो वहते रसना , रसनायकनायक ! नोक्तिमपि । सरितं तपतापवती सुमते !, पयसा मम पूरय चाभिमताम् ॥ 'हे शान्तरस के नायक ! मैं अपराधी हूँ, इसलिए मेरी जीभ कुछ कह नहीं पा रही है । हे सुमते ! ग्रीष्म ऋतु से तप्त मेरी अभिमत सरिता को आप पानी से भर दें।' Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् । ५४. निगदन्निति चक्रधरो बहुधा , समभाष्यत तेन न किञ्चिदपि। स्पृहणीयतया परिहीनहृदो , नृपतीनपि यच्च तृणन्तितराम् ॥ चक्रवर्ती ने इस प्रकार बहुत बार कहा किन्तु मुनि बाहुबली ने प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं कहा । जिन व्यक्तियों का हृदय आसक्ति से परिहीन है, वे राजाओं को भी तृण के समान समझते हैं। ८५. त्रिदशाचलनिश्चलचित्तरुचेर्यतिनो भरताधिपवाग्विसराः। . न मुदे न रुषे व्यभवन् सुतरां, सुतरागपराङ्मुखता कृतिनः॥ . मेरु की भांति निश्चल चित्त वाले मुनि बाहुबली के लिए महाराज भरत के वचन न प्रसन्नता के लिए और न अप्रसन्नता (रोष) के लिए हुए। उनके मन में पुत्रों के प्रति अनुराग भी नहीं रहा था। ८६. सचिवैः प्रतिबोध्य कथञ्चिदयं , निलयान्तरनायि समं त्वरिणा। .. भरते भरताधिपतेः सकले , विजहार च शासनमस्य ततः॥ मंत्रियों ने भरत को समझाया और ज्यों-त्यों उन्हें चक्र के साथ शस्त्रागार के भीतर ले गए। इसके बाद समूचे भारत में महाराज भरत का अनुशासन चलने लगा। २७. बहलीविषये किल तस्य सुतं , विनिवेश्य ततः स निजां नगरीम् । उपगन्तुमियेष सुरेन्द्र इवेन्दिरया प्रबलध्वजिनीसहितः॥ बाहुबली के पुत्र को बहली प्रदेश का अधिपति बनाकर लक्ष्मी (वैभव) से युक्त इन्द्र की भांति महाराज भरत अपनी प्रबल सेना के साथ अयोध्या नगरी की ओर जाने के इच्छुक हुए। ५८. नभसस्त्रिदशैः स उपेत्य गुरुकुसुमैः परिवर्ध्य च चक्रधरः। ___ जगदे जयशब्दपुरस्सरया, सहितस्तनयैर्नृपबाहुबलेः॥ आकाश से देवता आए । उन्होंने विपुल कुसुमों से बाहुबली के पुत्रों के साथ चक्रवर्ती भरत का वर्धापन कर जयकार किया। ८९. श्रीमन् ! भारतभूपुरन्दर ! भवानाद्यो रथाङ्गी विहा शेषक्षोणिवपूकरग्रहकृती नन्द्याच्चिरं भारते। अत्यन्ताद्भुतचारिमा'ञ्चितललल्लावण्यपुण्योदयो, गीर्वाणः परिनूयतेस्म स इति प्रोद्दामसंपत्तिमाक् ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः ३४५ 'हे श्रीमन् !, हे भारत के अधिपति भरत ! आप इस संसार में पहले चक्रवर्ती हैं। आपने समूची पृथ्वी रूपी वधू का वरण कर लिया है। आप भारतवर्ष में चिरकाल तक राज्य करते रहें। आप अद्भुत चरण वाली लक्ष्मी से युक्त, ललित लावण्य के पुण्योदय वाले तथा उत्कृष्ट संपदा के भोक्ता हैं'-इस प्रकार देवताओं ने उनकी स्तुति की। -इति भरतबाहुबलिद्वन्द्वयुद्धवर्णनो नाम सप्तदशः सर्गः १. अत्यन्तं अद्भुतचारिणी च मा लक्ष्मीः च इति अत्यन्ताद्भुतचारिमा । Page #379 --------------------------------------------------------------------------  Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाद्य श्लोक परिमाण छन्द लक्षण अठारहवां सर्ग भरत और बाहुबली -दोनों को केवलज्ञान की प्राप्ति । c ८३ r उपजाति । देखें सर्ग २, का विवरण । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथावस्तु भरत अयोध्या पहुंचे। जनता ने उनका स्वागत किया। वे पूर्ववत् राज्य-संचालन में लग गए। बाहबली कायोत्सर्ग में लीन थे। उनका मन उपशान्त था। बारह महीने बीत गए। लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो रही थी। उनके मन में 'अहं' का अंकुर विद्यमान था। वे उसे नष्ट नहीं कर पा रहे थे । भगवान् ऋषभ ने यह जाना । उन्होंने अपनी प्रवजित पुत्रियों-ब्राह्मी और सुन्दरी को वहां भेजा। उनके कथन से प्रतिबद्ध होकर बाहबली ने अहं के अंकर को उखाड फैका । विनय के प्रवाह में वे निमग्न हो गए। उन्होंने अपने छोटे भाइयों, जो पहले ही प्रवजित हो चुके थे, को वन्दना करने के लिए एक कदम रखा। वे उसी क्षण प्रबुद्ध हो गए। उन्हें निरावरण ज्ञान की उपलब्धि हो गई। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन गए । देवताओं ने यह संवाद भरत को दिया। एक बार भरत चक्रवर्ती कांच महल में अपने शरीर का मंडन कर रहे थे । आभूषणों से अलंकृत शरीर की शोभा से वे आनन्दित हो उठे। कुछ क्षणों के बाद उन्होंने आभूषण उतार दिए । आभूषणों के बिना शरीर की अशोभा को देख वे छटपटा गए । उनका मन वैराग्य से भर गया। वे आत्म-भावना में आरोहण करने लगे। परिणामों की विशुद्धि बढ़ती गई। उनके घाती-कर्म क्षीण हुए और वे सर्वज्ञ बन गए। देवताओं ने उनका 'केवलज्ञान-महोत्सव' किया। वे अभिनिष्क्रमण के लिए उद्यत हए । उनके साथ हजारों राजे प्रवजित हुए। उनका राज्य-भार उनके ज्येष्ठ पुत्र सूर्ययशा ने संभाला। ० ० Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः सर्गः १. अयाऽयमिन्दीवरलोचनानां , ततान साकेतनिवासिनीनाम् । राजा दृशामुत्सवमागमेन , कुमुद्वतीनामिव कौमुदीशः ॥ महाराज भरत अयोध्या पहुंचे। उन्होंने अपने आगमन से वहां की सुन्दरियों के नयनों के लिए उत्सव पैदा कर दिया जैसे चन्द्रमा कमलिनियों के लिए उत्सव पैदा कर देता है। २. सुलोचनाभिः सममाससञ्जुश्चिरं वियुक्ताभिरथाश वीराः। पयोदराजीभिरिवाब्दकाले , नगा इवानङ्गनिदाघदग्धाः ॥ कामदेव के ताप से दग्ध वीर सुभट लम्बे समय से वियुक्त अपनी स्त्रियों के साथ युक्त हो गये; जैसे वर्षाकाल में पर्वत मेघ की श्रेणी से युक्त हो जाते हैं। ३. सा राजधानी ऋषभाङ्गजस्य , रराज सैन्यविविधः समेतैः।। फुल्लत्सरोजैः सरसीव साक्षादामोददानप्रवणैः प्रभाते ॥ भरत की वह राजधानी अयोध्या विविध प्रकार की सेनाओं से शोभित हो रही थी जैसे प्रभातकाल में सरोवर दूर तक सुगंध फैलाने में साक्षात् प्रवीण विकसित कमलों से शोभित होता है। ४. निःशङ्कमाज्ञा भरतांधिपस्य , ततो व्यहार्षीद् भरतेऽखिलेऽपि । . नदीव मेघागमवारिपूर्णा , महीभृदुल्लङ्घनलब्धवर्णा ॥ पहाड़ों का उल्लंघन करने में निपुण, वर्षा ऋतु में पानी से परिपूर्ण नदी की भांति भरत का शासन निःशंक रूप से समूचे भारत में बरतने लगा। समं समग्राभिरथाङ्गनामिश्चिक्रीड सर्वर्तुविलासलास्यः । तरङ्गिणीनाथ इवापगाभिः , परिस्फुरद्विभ्रमवीचिभिः सः ॥ ३४६ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् चक्रवर्ती भरत अपनी समस्त सुन्दरियों के साथ सभी ऋतुओं के योग्य विलास-नृत्यों से क्रीडा करने लगे, जैसे समुद्र उठती हुई विभ्रम रूपी लहरों वाली नदियों के साथ क्रीडा करता है। ६. राजा ऋतूनामहमस्मि शश्वत् , सेवापरोऽमुष्य भवामि तस्मात् । इतीव राजानमिमं जगाम , मधुर्मधुस्यन्दिभिराशु पुष्पैः ॥ ... 'मैं सदा सभी ऋतुओं का राजा हूं, नायक हैं, इसलिए मैं भरत चक्रवर्ती की सेवा करू'—यह सोचकर चैत्र मास मधु बिखरने वाले पुष्पों के साथ शीघ्र ही राजा भरत के पास आ पहुंचा। ७. आमोददायी कुसुमैनवीनविलासिनामेष मधुस्ततोऽहम् । . . भवामि सौख्याय रथाङ्गनाम्नां , रविविचार्येति शनैश्चचार ॥: . 'यह मधुमास विलासी पुरुषों को नए सुगंधित पुष्पों से आमोद देने वाला है, इसलिए मैं भी चक्रवाकों के लिए सुखकर होऊं'—यह सोचकर सूर्य अत्यन्त धीमे चलने लगा। ८. स्मेरैः प्रसूनः स्मितमादधाना , बालप्रवालैर्दधती च रागम् । पुंस्कोकिलमजुरवारवद्भिर्वनस्थलीयं मधुना लिलिङ्ग ॥ उस समय वनस्थली विकसित पुष्पों से हंस रही थी। नए प्रवालों से वह लाल हो रही थी। पुंस्कोकिलों के मीठे शब्दों से वह गुंजायमान थी। मधुमास ने ऐसी वनस्थली का आलिंगन किया। ६. आहासि विस्मेरसरोरुहालीव्याजैः सरोभिर्मगधैरिवास्य । मधुव्रतवातगिरा भणद्भिरमूदृशां कीतिकरा न के स्युः ? वहां के तालाब विकसित कमल-पंक्तियों के मिष से हंस रहे थे और भ्रमर-समूहों की वाणी में बोल रहे थे, मानो कि वे भरत के मंगल-पाठक हों। भरत जैसे महान व्यक्तियों का कीतिगान करने वाले कौन नहीं होते ?. १०. इमा नलिन्यस्तुहिनेन होना , वितेनिरे रोषभरादितीव । रविहिमानीः स्नपयाम्बभूव , प्रियापराभूतिररंतुदा हि ॥ 'हिमपात ने इन नलिनियों को कांतिहीन बना दिया है'—यह सोचकर सूर्य ने क्रोध से हिम-समूह को पिघाल डाला। क्योंकि प्रिया की पराभूति दुःखदायी होती है । १. मधु:-चैत्र मास (चत्रो मधुश्चत्रिकश्च–अभि० २।६७) २. हिमानी-हिमपात (हिमानी तु महद्धिमम्-अभि० ४।१३८) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ अष्टादशः सर्गः . ११. महो मदीयं दिशि दक्षिणस्यां , मन्दं हिमानी ववृधे ततोऽसौ । इतीव भानुर्दिशि चोत्तरस्यां , हिमालयं नाम नगं जगाम ॥ हिम-समूह ने दक्षिण-दिशा में मेरी किरणों को मंद कर डाला है, मानो कि यह सोचता हुआ सूर्य उत्तर-दिशा में हिमालय पर्वत पर चला गया। १२. मुहुर्मुह राजमरालबालरम्भोरुहिण्यङ्कनितान्तसक्तैः। आविष्कृतारावभर विशेषाद् , धात्रीव चैत्र सरसी सिषेवे ॥ उस चैत्र मास में कमलिनियों की गोद में सदा आसक्त रहने वाले तथा शब्दों के द्वारा अपना अस्तित्व बतलाने वाले राजहंसों के शिशु, पृथ्वी की भांति सरोवर में विशेष रूप से बार-बार क्रीडा करने लगे। १३. युवद्वयोचितदरीनिवासिमानग्रहग्रन्थिभिदो विरावाः । पुंस्कोकिलानां प्रसभं प्रसस्र वनस्थली)न्मिषितासु पुष्पैः॥ फूलों से विकसित वनस्थलियों में पुंस्कोकिलों के 'कुहू-कुहू' के शब्द सहसा फैल गए। वे शब्द तरुण-तरुणियों के चित्त रूपी गुहा में निवास करने वाली मानग्रह रूपी ग्रन्थी का भेदन करने वाले थे। १४. इतीन्दुगौरैस्तिलकप्रसूनः, सर्वान् मधुश्रीरहसोदिव' न्। ऋते न कस्यापि भविष्यति श्रीरमूदृशी भृङ्गरुतर्भणन्ती॥ • तिलक वृक्ष के चन्द्रमा की भांति गौर फूलों से मधुमास की शोभा सभी ऋतुओं का उपहास कर रही थी। वह ऋतु भौरों के गुनगुनाहट से मानो यह कह रही हो कि ऐसी शोभा इस ऋतु के बिना किसी की भी नहीं होती। १५. आरादभूवन् प्रविकासभाजि , यस्मिन् प्रसूनानि दृशां प्रियाणि । अयं तरुः कस्त्विति षट्पदस्य , स किंशुकोऽपि भ्रममाततान ॥ दूर से देखने पर जिस वृक्ष के विकसित फूल आंखों को प्रिय लगते थे, उस किंशुक : वृक्ष ने भौरों के मन में भ्रम पैदा कर यह प्रश्न उपस्थित कर दिया कि-'यह कौन सा वृक्ष है ?' पयोधिडिण्डीरनितान्तकान्तं , पीयूषकान्तेविचचार तेजः। तेनैव चेतांसि विलासिनीनां , वितेनिरे मानपराञ्चि कामम् ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् चन्द्रमा का तेज जो समुद्र की फेनों की तरह नितान्त मनोज्ञ था, वह चारों ओर फैल गया । इसीलिए सुंदरियों के चित अत्यधिक मान से व्याप्त हो गए। १७. प्रसूनबाणान् प्रगुणीचकार , शृङ्गारयोनेर्मधुलोहकारः । उत्तेज्य शीतद्युतिबिम्बशाणे , युवद्वयीमानसभेददक्षान् ॥ मधुमास रूपी लोहकार ने चन्द्रमा के बिम्ब रूपी शाण पर तरुण और तरुणियों के मन को भेदने में दक्ष कामदेव के पुष्प-बाणों को उत्तेजित कर उन्हें तीखा बना डाला। १८. प्रियः सुरा यौवनवृद्धिमत्ता , ज्योत्स्ना सितांशोश्च मधुश्च मासः । दुरापमेकैकमिति प्रियालिः, काचित् सखीरित्यनुवेलमाह ॥'. उस सयय किसी नायिका ने अपनी सखियों को समयोचित बात कही-'पति, सरा' यौवन का उभार, चन्द्रमा की चांदनी और चैत्रमास-इन एक-एक का मिलना भी कठिन होता है । (जहां ये सारे एक साथ प्राप्त हों, उसका तो कहना ही क्या ?) १६. लज्जा युवत्याशयसङ्गिनीह , क्षयं जगाम क्षणदेव किञ्चित् । नीता च दूरं सुरतेपि सर्वा , द्वयोः कियत्येकपदे स्थितिहि ? उस समय युवतियों के आशय की संगिनी लज्जा भी रात्री की भांति कुछ क्षीण हो गई और मैथुन-काल में वह लज्जा पूर्ण रूप से दूर हो गई। क्योंकि दो (स्त्री और लज्जा) एक साथ कितनी देर टिक सकती हैं ? २०. कादम्बरी पाननितान्ततुष्टा , विहाय वासः कुसुमान्तरीयम् । ददौ प्रियाविर्भवदङ्गकान्तिः , पातुः प्रियस्य प्रमदं वसाना ॥ सुरापान से अत्यधिक तुष्ट किसी प्रिया ने वस्त्र छोड़कर फूलों के. अंतरीय को धारण किया। उसने अपने शरीर की कांति को प्रगट कर अपने रक्षक पति को हर्षित कर डाला। २१. वधूमुखस्वादुरसैनिषिक्तः , पुष्पाणि तत्सौरभ वन्त्यमुञ्चत् । यो यच्च तच्चौर्यमपास्य सोऽयं , तरुस्तदेको बकुलो रसज्ञः ॥ बकुल ही एक ऐसा रमज्ञ वृक्ष है जो कुछ भी नहीं चुराता, जैसा उसको प्राप्त होता है, वैसा ही लौटा देता है। स्त्रियों के मुख से निकली मदिरा से निषिक्त होकर वह वृक्ष उसी मदिरा की सुगंधी वाले फूलों को बाहर छोड़ता है अर्थात् उससे वैसे ही फूल फूट पड़ते हैं। १. कादम्बरी—मदिरा (कादम्बरी स्वादुरसा हलिप्रिया-अभि० ३।५६६) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः सर्गः .. ३५३ २२. स नूपुरारावपदाभिघातात् , स्त्रीणामशोकोऽपि समान्यधार्षीत । व्यलोलरोलम्बरुताञ्चितानि , न कारणात् कार्यमुपैति हानिम् ॥ नपरों के शब्द युक्त स्त्रियों के पादाभिघातों से भी अशोक वृक्ष के फूल निकल आए । उन पर चंचल भौरें गुनगुनाहट कर रहे थे। कारण के उपस्थित होने पर कार्य की कोई हानि नहीं होती। २३. पिकस्वरामोदवती च यूनां , जहार चेतो वनराजिरामा । स्मेरप्रसूनस्तबकस्तनाभिरामा मुहुर्मेदुरकान्तिकान्ता ॥ वहां की वनराजि रूपी लक्ष्मी कोयल के मीठे स्वरों से युक्त, आमोद बिखेरने वाली, विकसित पुष्पों के गुच्छे रूपी स्तनों से सुन्दर और कोमल कांति से मनोज्ञ थी। उसने तरुणों के चित्त का बार-बार हरण कर दिया। २४. जना ! रसालस्तरेष सत्यो, यन्मजरीस्वादवशात् स्वरो मे । बभूव कामं सरसः पिकोऽपि , स्वरं न्यगादीदिति पञ्चमोक्त्या ॥ कोयल ने भी यथेष्ट रूप से पंचम स्वर में यह कहा-'लोको ! यह आम्रवृक्ष है। यह सच है कि इस वृक्ष की मंजरियों के स्वाद से ही मेरा स्वर अत्यधिक सरस हुआ है, मीठा हुआ है। २५.. रन्ता स चंकी समयः स सा श्रीः; सर्वत्र ता राजसुताः सहायाः। कि तहि वयं खलु. तत्र देवी , वाग्वादिनी चेत् कुरुते प्रसादम् ॥ . रमण करने वाला वह चक्रवर्ती भरत, वह मधुमास का समय, वनराजि की वह शोभा और सर्वत्र सहायक वे राजपुत्रियां-इतना होने पर यदि वाग्देवी सरस्वती स्वयं वहां कृपा करदे तो फिर कहना ही क्या ? २६. पतिनदीनामिव वाडवेन , जरागमेनेव वयःस्थभावः। मधुनिदाघेन ततस्त्वशोषि , प्रतीवतापाम्युदितक्रमेण ॥ जैसे वाडवाग्नि समुद्र का और बुढापा यौवन का शोषण करता है वैसे ही तीव्र ताप के बढ़ने से ग्रीष्म ऋतु ने मधुमास का क्रमशः शोषण कर दिया। २७. ओजस्वितां सूनधनुर्यथाऽयं , मधौ तथोष्णे स्वयमेव नाऽधात् । बलावहः सर्वत एव पुंसां , संभावनीयः समयो यदेकः ॥ १. यह कविरूढी है कि स्त्रियों के पाद-प्रहार से अशोक वृक्ष पुष्पित हो जाता है। २. पाठान्तरम्-प्रतापतीवाभ्युदितक्रमेण । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् मधुमास में कामदेव जैसा ओजस्वी था वैसा वह स्वयं उष्ण काल में नहीं रहा । क्योंकि मनुष्यों को सब ओर से शक्ति देने वाला एक समय ही है। २८. तन्व्यो बभूवुः सरितः समन्तान्नार्यो वियुक्ता इव जीवनेन । ततस्त्रियामाऽपि तनूबभूव , स्ववर्गकाश्यं हि करोति कायम् ॥ चारों ओर नदियां पानी से वैसे ही क्षीण हो गईं जैसे स्त्रियां पति के वियोग में क्षीण हो जाती हैं । उसके बाद रात्रियां भी क्षीण हो गईं, छोटी हो गईं। क्योंकि स्व-वर्ग की कृशता कृशता पैदा करती है। २६. अलब्धमध्या अपि केलिवाप्यः , सुखावगाहा अभवन्निदाघे । . सधुक्तयोथिन्य इवापजाड्ये , लक्ष्मीवतां लक्ष्म्य इवाल्पदैवे ॥ जिनका मध्य प्राप्त न हो ऐसी क्रीडा करने की गहरी वापियां भी ग्रीष्म ऋतु के । कारण सहज तैरने योग्य हो गईं, जैसे विद्वान् व्यक्ति में अर्थपूर्ण उक्तियां और मंदभाग्य में धनी व्यक्तियों की संपदा सहज अवगाहित हो जाती है । ३०. तुषारतां तत्र तुषारभानोः , स्प्रष्टुं रजन्यां जन उत्ससाह । श्रीखण्डसंपृक्तमहन्यभीक्ष्णं , पयश्चयं चालयदीर्घिकाणाम् ॥ रात्री में लोग चन्द्रमा की शीतलता का स्पर्श करने के लिए और दिन में घर की वापियों के चन्दन से संपृक्त पानी का बार-बार स्पर्श 'करने-स्नान करने के लिए उत्साहित हुए। ३१. हाराभिरामस्तनमण्डलीभिः, सूक्ष्मांशुकालोक्यतनुप्रभाभिः । धम्मिल्लभारापितमल्लिकाभिर्वधूभिरुन्मादमुवाह कामः ॥ कामदेव स्त्रियों के साथ उन्मत्त हो रहा था। वे स्त्रियां हारों से सुशोभित स्तनों वाली थीं। सूक्ष्म वस्त्रों के अन्तराल से उनके शरीर की प्रभा छिटक रही थी। उनके जूड़ों में मल्लिका के फूल लगे हुए थे। ३२. सगन्धसाराधिकसारतोयाभिषिक्तदेहः सह कामिनीभिः । __रन्तुं रथाङ्गो सलिलाशयेषु , प्रावर्तत स्वरमजो' द्वितीयः॥ . द्वितीय विधाता चक्रवर्ती भरत का शरीर चंदन से भी अधिक सुगंधित १. अजः--विधाता (परमेष्ठ्यजोऽष्टश्रवणः स्वयम्भूः--अभि० २।१२५) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः सर्गः ३५५ पानी से अभिषिक्त था । वे अपनी सुन्दरियों के साथ यथेष्ट क्रीड़ा करने के लिए सरोवर में प्रविष्ट हुए । ३३. शोषं रसानां किरणैः खरांशुं कुर्वाणमालोक्य घनैः पयोधैः । पयः समादाय नभः सभानु, प्यधीयताऽरण्यमगैरिवाशु || 'सूर्य अपनी किरणों से रसों का शोषण कर रहा है - यह देखकर बादलों ने समुद्र से पानी लेकर सूर्ययुक्त आकाश को शीघ्र ही ढंक दिया जैसे वृक्ष अरण्य को ढंक देते हैं। ३४. प्रतापवत्वात्तरणे ! त्वयंनां प्रातप्य धात्रों किमवाप्तमत्र ? तापापनोदं वयमाचरामोऽस्यास्तज्जगर्जुर्जलदा इतीव ॥ 1 'हे सूर्य ! तुम प्रतापवान् हो इसलिए इस धरती को प्रतप्त करते हो परन्तु इस प्रवृत्ति से तुम्हें क्या मिला ? देखो, हम इस धरती का ताप दूर करते हैं - मानो यह कहते हुए बादल मर्जारव करने लगे । ३५. विद्युल्लतालिङ्गितवारिदाल, वीक्ष्येति केकाः शिखिनामभूवन् । ! किमद्यापि पथि व्रजन्तो न हि त्वरध्वं निलयाय यूयम् ? 1 बिजली का आलिंगन करने वाली बादलों की श्रेणी को देखकर मयूर केका करने लगे । वे केका के व्याज से यह कह रहे थे - 'पथिको ! मार्ग में चलते हुए तुम घर पहुंचने के लिए अब भी शीघ्रता क्यों नहीं कर रहे हो ?” ३६. आपिञ्जरी' नीपतरो रजोभिदिशां विभागा विबभुः गन्धैश्च धाराहत पल्लवानां, सुगन्धिनोऽरण्यभुवः समंतात् । प्रवेशाः ॥ चारों ओर दिशाओं के विभाग कदम्ब वृक्षों की धूली से पीत रक्त होकर शोभित हो रहे थे । उस अरण्य के भूमी - प्रदेश मेघ की धारा से आहत पल्लवों की गंध से सुगंधित हो रहे थे । " ३७. भववधूवर्गवियोग दीर्घनिश्वासवातैः पथिका निषिद्धाः । यदाननान्तः पतदम्बुधारैः सारङ्गमै रित्थमभूत्तदानीम् ॥ उस समय ऐसा घटित हुआ कि मुंह से गिरती हुई जलधारा वाले चातक पत्नियों के १. पिञ्जरः -- पीत रक्त (पीतरक्तस्तु पिञ्जरः - अभि० ६ । ३२ ) २. सारङ्गम: - चातक ( सारङ्गो नभोम्बुपः अभि० ४।३६५ ) Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् होने वाले वियोग से निकलते हुए दीर्घ निःश्वास-वायु द्वारा पथिकों को जाने से टोक रहे थे। ३८. वियोगिनिःश्वासनितान्तधूमंदिशो दश श्यामलिता इवासन् । तडित्स्फुलिङ्गालिरिव स्फुरन्ती , व्यतय॑तेत्यन्तरिहापि कश्चित् ॥ वियोगी व्यक्तियों के निश्वास से निरंतर निकलने वाले धूए से दशों दिशाएं श्यामल सी हो गई। कुछ व्यक्तियों ने उन वियोगी व्यक्तियों के अन्तर में स्फूर्त बिजली की भांति स्फुलिंग श्रेणी की वितर्कणा की। ३९. पयोदकाले करवालकाले , सूर्येन्दुकारानिलये विचेरुः। . रथाङ्गनाम्नां परितो विरावाः, सुदुःश्रवा वासरयौवनेऽपि ॥ तलवार की भांति नीली आभा वाले तथा सूर्य और चन्द्रमा के लिए कारागृह बने हए मेघकाल में चक्रवाकों के दिन में नहीं सुने जाने वाले शब्द मध्यान्ह काल में भी चारों ओर फैल गये । (उन्होंने घोर अंधकार के कारण यह समझ लिया था कि रात हो गई है।) ४०. सन्मल्लिकामोदसुगन्धिवाटीलुभ्यद्विरेफारवबद्धचेताः । व्रजो वधूनामपि पुष्पबाणसेवी व्यतीयाय पयोदकालम् ॥ उस समय मल्लिका के फूलों की सुगंधित वाटिका से प्रसृत होने वाले आमोद में भौरें लुब्ध होकर गुंजारव कर रहे थे । कामवासना से दीप्त स्त्रियां उनके गुंजारव में आसक्त हो रही थीं। इस प्रकार उन्होंने वह वर्षाकाल बिताया। ४१. सौधं सुधाधामकलाकलापश्वेतं सुधालेपमयं विवेश । कान्ताभिरेकान्तसुखं स साद्धं , वर्षासु हर्म्यस्थितिरेव धृत्यै ॥ महाराज भरत अपनी पत्नियों के साथ एकान्त सुखमय, चूने से पुते हुए और चन्द्रमा की कलाओं के समूह की भांति श्वेत प्रासाद में प्रविष्ट हुए । वर्षा ऋतु में घर में रहना ही धृति के लिए होता है। ४२. घनात्ययोऽपि ज्वलदुष्णरश्मिः , प्रादुर्बभूवाच्छ'तमान्तरिक्षः। फुल्लभिरम्भोरुहिणीसमूहैविकासवद्भिविहसन्निवान्तः॥ अब शरद् ऋतु आ गया । उसमें सूर्य की रश्मियां तेज हो गई। आकाश स्वच्छतम १. घनात्ययः-शरद् ऋतु (शरद् धनात्यय:-अभि० २७२) २. अच्छम्-स्वच्छ, प्रसन्न (अच्छं प्रसन्ने–अभि० ४।१३७) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः सर्गः ३५७ हो गया। प्रफुल्लित और विकसित होते हुए कमल के समूहों से वह ऋतु मन ही मन हंस रहा हो ऐसा लगने लगा। ४३. समीरणः पद्मपरागपूरसंपृक्तदेहो जललब्धजाड्यः। विशारदः शारद' एव लिल्ये , तीव्रातपक्लान्तिभरापनुत्त्यै ॥ शरद् ऋतु का पद्म-पराग से युक्त पवन जल की संपक्ति के कारण कुछ मन्द हो रहा था। निपुण व्यक्तियों ने तीव्र आतप की क्लान्ति को दूर करने के लिए उस पवन का आसेवन किया। ४४. गवाक्षजालान्तरलब्धमार्गः, करैः सितांशोमिलितानि पश्यन् । चक्रे प्रियास्यानि स ऊहमेनं , किं चन्दनाम्भःपृषतोक्षितानि ? गवाक्षों की जालियों से भीतर आने वाली चन्द्रमा की किरणों से भरत की कान्ताओं के मुख संपृक्त हो गए । यह देखकर चक्रवर्ती भरत ने सोचा-क्या इन कान्ताओं के मुख चन्दन के पानी की बूंदों से सिंचित हैं ?' ४५. स चित्रशालासु मनोरमासु , संक्रान्तरूपातिशयाञ्चितासु । शरत्सुधाधामरुचोज्ज्वलासु, रेमे मृगाक्षीभिरनुत्तरश्रीः॥ अनुत्तर शोभा वाले महाराज भरत अपनी सुन्दरं पत्नियों के साथ मनोरम, रूपातिशय को प्रतिबिम्बित करने वाली तथा शरद् चन्द्रमा की किरणों से उज्ज्वल चित्रशालाओं में क्रीड़ा करने लगे। ४६. शरघवापद रसमिक्षयष्टिविकासमाज्यब्जवनानि चासन् । मरालबालदधिरे प्रमोदाः, किं शारदो नः समयो हि नेग ? शरद् ऋतु में इक्षु में रस भर आया । कमल-वन विकसित हो गए। हंसों के शिशु आनन्दित होने लगे। क्या हमारे लिए भी शरद् ऋतु का यह समय ऐसा ही नहीं हो जाता ? .. ४७. विधुहिमानीमिरधीकृतस्तदुभाम्बभूवे शरदा रुषेव । का नाम नारी सहते सपत्नीपराभवं भ्रष्टपयोधरा'ऽपि ॥ हिमपात ने चन्द्रमा को अपने अधीन कर डाला। किन्तु शरद् ऋतु ने कुपित १. शरदि भवः शारदः समीरणः । २. श्लेष-भ्रष्टपयोधरा-वह शरद् ऋतु जिसमें पयोधर-मेष नहीं रहते। वह स्त्री जिसके पयोधर-स्तन भ्रष्ट हो गए हों, शिथिल हो गए हों। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् होकर उसे मुक्त कर दिया । वह क्या स्त्री जो शिथिल स्तनों वाली होने पर भी अपनी सपत्नी का पराभव सहन करे ? ४८. ततोप्यवश्यायनिषेकपाताज्जहेतरां जीवितमब्जिनीभिः । अमूदृशीनां सुकुमारमेव , प्रोत्तेज्य शस्त्रं हि विधिनिहन्ता ॥ उसके बाद हेमन्तकालीन तुषारपात के कारण कमलिनियों ने अपना जीवन समाप्त कर डाला। इस प्रकार की सुकुमार शरीर वाली कमलिनियों के लिए सुकुमार शस्त्र (हिम) को तेजकर विधाता उनको मार डालता है। ४६. जाड्यातिरेकाज्जघनप्रदेशात् , काञ्चीकलापं व्यमुचन मगाक्ष्यः। ... तत्कामिभिः साधुरमानि कालो , ध्रियेत भूषा हि सुखाय नित्यम् ॥ शीत की अधिकता के कारण स्त्रियों ने अपनी कमर पर बंधी हुई करधनी को खोलकर रख दिया। कामुक व्यक्तियों ने उस काल को अच्छा माना । क्योंकि आभूषण सदा सुख के लिए ही पहने जाते हैं। .. ५०. महुवितन्वन्नधरं व्रणाङ्क, निर्मखलाभं जघनञ्च कुर्वन् । हिमागमः कान्त इवाङ्गनाभिरमानि रोमाञ्चचयप्रपञ्ची ॥ अधरों को बार-बार व्रणांकित तथा जघन को करधनी रहित करते हुए रोमांचित करने वाले हिमकाल (शीतकाल) को स्त्रियों ने पति के रूप में माना । ५१. प्रियस्य सीत्काररवान् मृगाक्ष्यः , संभोगलीला स्मरयाम्बभूवुः । हेमन्त एष स्मरभूपतेस्तत् , सामन्त एव प्रतिपादनीयः॥ अपने पति के मुख से निकलने वाले सीत्कार शब्दों को सुनकर कान्ताओं को संभोग लीला का स्मरण हो आया । यह हेमन्त ऋतु कामदेव का सामन्त है-ऐसा कहा जा सकता है। ५२. वधूस्तनोत्सङ्गकृताधिरोहो , मेदस्विनी/मनशर्वरीः सः। गर्भालयान्तः क्षणवन्निनाय , सुखाय हि स्याद् धनिनां हिमतुः॥ महाराज भरत ने तलघर में अपनी कान्ताओं के स्तनों के क्रोड में आरोहण कर उन अत्यन्त ठंडी और लम्बी रातों को क्षण की भांति बिता डाला । हेमन्त ऋतु धनिकों के लिए सुखदायी होता है। १. हैमनशर्वरी—शीत ऋतु की रात । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः सर्गः ५३. वहन्नवश्याय'कणान् कृशानुध्वजाधिकश्यामतनुश्चचार । मुहुर्मुहुर्वावितदन्तवीणः, शैत्यप्रवीणः शिशिराशुगोऽथ ॥ शिशिर ऋतु का शीत प्रधान पवन बहने लगा। वह तुषार-कणों से युक्त और धूए से भी अधिक श्याम शरीर वाला था। उसके कारण लोगों के दांत बार-बार किटकिटाते थे। ५४. अङ्गारवान्या परितप्यमानहस्तैर्ददानास्त्वधरोष्ठबिम्बे । प्रणाभिरामे 'मदन' मृगाक्ष्यो, यूनो जराभीरु मदीदिपच्च ॥ सुन्दरियां अंगीठी से तपाये जाने वाले हाथों से, व्रण से सुन्दर अपने अधर और ओष्ठ बिम्बों पर मोम लगाती हुई युवकों में कामवासना दीप्त कर रही थीं। ५५. तल्पेषु तूलच्छववेष्टितेषु, केचिद्धसन्तीपरिभासुरेषु । क्लिासमेहेष्वधिशय्य निन्युर्जाड्यञ्च विस्मेरदृशोपगूढाः ॥ अंगारधानी से गरम किए हुए विलासगृहों में, तूल से आच्छादित शय्याओं पर, अपने पत्नियों के आलिंगनपाश में बद्ध होकर कुछ युवकों ने ठंड को बिताया। ५६. बभूव तस्मिन् समये कुचोष्णरुचां यदुष्मैव तुषारहृत्य । सदोन्नता एव विपत्तिहत्य , भवन्ति सेव्या हि त एव जाड्ये ॥ उसं शीतकाल में स्तनों की उष्ण-रश्मियों की ऊष्मा ही शीत-निवारण करने वाली थी। क्योंकि सदा उन्नत रहने वाले ही विपत्ति का हरण करते हैं। अतः जडता (शीतकाल यो विपत्ति) के समय उनकी ही उपासना करनी चाहिए। ५७. स वामनेत्राकुचधर्मनीतोत्कण्ठोयमाकण्ठनिपीतकामः । वासालयान्तविशदांशुवासास्तुषारगर्व शमयाम्बभूव ॥ उज्ज्वल वस्त्रधारी महाराज भरत ने स्त्रियों के स्तनों की ऊष्मा से उत्कंठित होकर आकण्ठ काम का निपान कर, अपने शयनगृह में तुषार के गर्व को शान्त किया। . . ५८. इत्यं स सर्वर्तुविलासलास्यचिलोललीलः कलयाञ्चकार। सरान् विमानव मतोन्तरिक्षे , चित्रातिरेकाञ्चितधाऽथ वृष्ट्या ॥ १. अवश्यायः-तुषार (अवश्यायस्तु तुहिनं-अभि० ४।१३८) २. कृशानुध्वजः-धूआं (अभि० ४।१६४) ३. ममम -मोम । ४. जराभीरु:-कामदेव (मदनो जराभीरुरनङ्ग:-अभि० २।१४१) Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् इस प्रकार समस्त ऋतुओं के योग्य विलास-नाटयों में लीलारत महाराज भरत ने आकाशमार्ग में विमानों द्वारा विचरण करने वाले देवताओं को अत्यन्त आश्चर्यचकित दृष्टियुक्त बना दिया। ५९. सुरा ! भवन्तः क्वचिदप्ययन्तः , कथं त्वरन्तां जगतीभुजेति । पृष्टास्तमाचल्युरुदात्तवाचो, निदानमभ्यागमनस्य तेऽदः ॥ महाराज भरत ने देवताओं से पूछा-'आप इतनी त्वरा से कहां जा रहें हैं ?' तब देवताओं ने उदात्त वाणी में अपने-अपने अभ्यागमन का यह कारण बताया। ६०. राजन् ! भवबन्धुरपास्य राज्यं , धृतव्रतो बाहुबलिर्बलाढ्यः । . संवत्सरं मानगजाधिरूढः , शीतातपादीन्यपि सोढुमष्ट ॥ . 'राजन ! आपके पराक्रमी भाई बाहुबली ने राज्य का त्याग कर व्रत धारण कर लिया है। वे अभिमान के हाथी पर आरूढ होकर एक वर्ष से शीत, आतप आदि कष्टों को सहन कर रहे हैं। ६१. तं केवलज्ञानरमावरीतुकामाऽपि नागच्छति साभिमानम् । सर्वाहि नार्यो विजनं प्रियं स्वं , नितान्तमायान्ति किमत्र चित्रम् ? 'केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी बाहुबली का वरण करने की इच्छक होती हुई भी उनके पास नहीं आ रही है क्योंकि वे अभिमान के साथ रह रहे हैं। सभी स्त्रियां सदा अकेले रहने वाले अपने पति के पास आती हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?' ६२. तं भाववेदी भगवान् विवेद , मानांतुरं मानितसर्वसत्त्वः । तपः किमर्थं कुरुतेऽयमारात् , स्मयोऽस्य चेतहि हृदीति तातः ॥ 'सर्व प्राणियों द्वारा पूजनीय सर्वज्ञ भगवान् ऋषभ ने देखा कि उनका पुत्र मान से आकुल है । उन्होंने सोचा-'यदि उसके हृदय में गर्व है तो वह पुत्र इतने लम्बे समय से तपस्या क्यों कर रहा है ?' ६३. मत्वा मुनि तं भगवान् मदान्धौ , मग्नं सुते स्वे प्रजिघाय साध्व्यो। समागते ते बहलीवनं तन्मूर्ते इवार्हत्स्थितिनिर्वृती द्राक् ॥ मुनि बाहुबली को गर्व के समुद्र में डूबा हुआ जानकर भगवान ऋषभ ने अपनी प्रबजित दोनों पुत्रियों-ब्राह्मी और सुन्दरी को वहां भेजा। वे दोनों शीघ्र ही बहलीवन में आई, मानो कि अर्हत् दशा और निर्वृति (शांति)-दोनों मूर्त हो गई हों। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः सर्गः .. ६४. गते वदन्त्याविति गाढवाचा , गजाधिरोहस्तव यत् स्वभावः । अत्याजि गार्हस्थ्यमदस्त्वया तद , व्यहायि बन्धो ! न गजाधिरोहः ॥ उन दोनों ने वहां आकर अतिशय वचनों से यह कहा—'मुने ! हाथी पर आरूढ होने का आपका स्वभाव है। किन्तु आपने गार्हस्थ्य को छोड़ दिया है। किन्तु बंधो ! आपने गज पर चढना नहीं छोड़ा।' ६५. एते तनूजे वृषभध्वजस्य , सत्यंवदे किं वदतो ममेति । तद्वाचमाचम्य मुनिः स तकं , चकार चैनं प्रणिधानमध्ये ॥ उनकी वाणी सुनकर मुनि बाहुबली के समाहित चित्त में यह तर्क उपस्थित हुआक्या इस प्रकार कहने वाली ये ऋषभ देव की दोनों पुत्रियां मुझे सच कह रही हैं ? ६६. सत्यं किलतद् वचनं भगिन्योरारूढवानस्मि मदद्विपेन्द्रम् । शुभो ममास्त्यत्र ततोऽवतारः, स्थानेऽमिलज्जानवधून माञ्च ॥ 'हां, बहिनों का यह कथन सत्य है । मैं अहंकार रूपी हाथी पर आरूढ हूं। उससे नीचे उतरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है । यह उचित ही है कि केवलज्ञान रूपी वधू मुझे प्राप्त नहीं हुई है।' ६७. इति स्वयं स प्रणिधाय साधुनमश्चिकीर्षुसंघुबन्धुवर्गम् । चचाल यावत् पदमात्रमेकं , तं केवलश्रीरुदुवाह तावत् ॥ इस प्रकार स्वयं चिन्तन कर मुनि बाहुबली ने अपने छोटे भाइयों को प्रणाम करने के लिए ज्योंहि एक. पर आगे रखा त्योंहि केवलज्ञान रूपी वधू ने उनका वरण कर लिया-के केवली हो गए। म ६८. तत्केवलज्ञानमहं विधातुं, राजन् ! बजामो वयमद्य तूर्णम् । सम्यक्त्वहानिर्मरुतां तदा स्याज्ञानप्रभावो यदि न क्रियेत ॥ 'राजन ! केवलज्ञान-प्राप्ति के उस उत्सव को मनाने के लिए हम आज शीघ्रता से जा रहे हैं । यदि हम देवगण ज्ञान की प्रभावना न करें तो हमारे सम्यक्त्व की हानि होती है।' ६९. सा भारती भारतवासवस्य , सौरी' श्रुतेर्गोचरतां गताऽपि । पुपोष वैराग्यरसं विशेषात् , सतां प्रवृत्तिहि सदाभिनन्द्या ॥ १. गाढम -अतिशयं (अत्यर्थे गाढमुद्गाढम्-अभि० ६।१४१) २. सौरी-सुराणामियं (भारती) सौरी। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् उस देववाणी को सुनकर भी महाराज भरत का वैराग्यरस विशेष रूप से पुष्ट हुआ। क्योंकि सज्जन व्यक्तियों की प्रवृत्ति सदा अभिनन्दनीय होती है। ७०. धन्याः सदा मे खलु बान्धवास्ते , धन्यः स मे बाहुबलिश्च बन्धुः । करोमि किं नाग इवोरुपके , मग्नो न मे जन्म विमुक्तयेऽस्ति ॥ भरत ने सोचा-मेरे वे सभी बन्धु धन्य हैं । मेरा वह भाई बाहुबली भी धन्य है। विपुल पंक में फंसे हुए हाथी की भांति अब मैं क्या करू ? मेरा जन्म विमुक्ति के लिए नहीं है। ७१. राजेन्द्रलीला अपि तेन सर्वा , विमेनिरे चेतसि रेणुकल्पाः । पाठीन'मात्मानमजीगणच्च , स शुद्धचेता विषयार्णवान्तः ॥ उस शुद्धचेता भरत ने मन में समूची राजलीला को धूली के समान माना और विषय रूपी समुद्र के बीच अपनी आत्मा को एक मत्स्य के रूप में स्वीकार किया। ७२. ता राजदारा नरकस्य कारास्ते सर्वसाराः कलुषस्य धाराः । शनैः शनैश्चक्रभृताऽथ तेन , प्रपेदिरे बान्धववृत्तवृत्त्या ॥ अपने भाईयों द्वारा आचीर्ण वृत्तियों के आधार पर चक्रवर्ती भरत ने धीरे-धीरे यह जान लिया कि सभी रानियां नरक के कारागृह के समान हैं और सारा ऐश्वर्य पाप का प्रवाह है। ७३. अन्येच रात्मानुचरोपनीतभूषाविधिभूषितभारतश्रीः । आदर्शगेहे निषसाद भूपः , पराजितस्वर्गधरेन्द्ररूपः ॥ . एक बार भरत चक्रवर्ती अपने अनुचर द्वारा लाए गए आभूषणों से अपने आपको भूषित कर कांचमहल में बैठे थे। उस समय वे स्वर्ग-निवासी इन्द्र के रूप को भी पराजित करने वाले जैसे लग रहे थे। ७४. वराङ्गनावीजितचामरश्रीर्गीर्वाणहस्तान्जधृतातपत्रः।। स आत्मदशेषु' निजं स्वरूपं , विलोकयामास युगादिसूनुः ॥ उस समय भरत कांचमहल के दर्पणों में अपना रूप देख रहे थे । वेश्याए चामर डुला रही थीं और देवताओं के हस्त-कमल में छत्र थे। १. पाठीनः—मत्स्य विशेष (पाठीने चित्रवल्लिकः-अभि० ४।४११) . २. आतपत्रम्-छन । ३. आत्मदर्श:-दर्पण (मुकुरात्मदर्शाजदर्शास्तु दर्पणे–अभि० ३।३४८) । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः समः . ७५. तत्पाणिपमान्निपपात चैकं, रत्नाङ्गुलीयं स ततः क्षितीशः । व्यचिन्तयत् पुद्गलमेतदेव , विभूषणर्धाजति चेतसीति ॥ भरत के हाथ से रत्नजटित अंगूठी नीचे गिर पड़ी तब भरत ने मन में यह सोचा'यह शरीर पुद्गल है । यह आभूषणों से ही शोभित होता है।' ७६. उपाधितो भ्राजति देह एष , न च स्वभावात् कथमत्र रागः । तत्खाद्यपेयैः सुखितः प्रकामं , न स्वीभवेज्जीव ! विचारयतत् ॥ 'यह शरीर बाह्य उपाधियों (उपकरणों) से भूषित होता है, स्वभाव से नहीं । ऐसी स्थिति में इसके प्रति राग-भाव क्यों किया जाए ? इसको खाद्य और पेय से यथेष्ट सुख पहुँचाने पर भी यह अपना 'स्व' नहीं होता । आत्मन् ! तू इस पर विचार कर।' ७७. एकान्तविध्वंसितया प्रतीतः , पिण्डोयमस्मादिति कात्र सिद्धिः। विधीयते चेत् सुकृतं न किञ्चिद् , देहश्च वंशश्च कुलं मृषेतत् ॥ 'इसलिए यह शरीर एकान्ततः क्षरणशील है। ऐसी स्थिति में इससे कौन सी सिद्धि प्राप्त होगी ? यदि कुछ भी सुकृत नहीं किया जाता है तो यह शरीर, यह वंश और यह कुल–सारे मृषा हैं, निरर्थक हैं । ७८. स भावनाभावितचित्तवृत्तिायन्निति ज्वानहताम्यसूयः । त्रिकालवेदी समभूत्तदानीं , किमार्षमीणां चरितेष चित्रम? भावनाओं से भावित चित्तवृत्ति वाले भरत इस प्रकार सोच रहे थे । ध्यानलीनता के कारण उनकी असूया नष्ट हो चुकी थी। वे तत्काल सर्वज्ञ हो गये तीनों कालों के ज्ञाता हो गये । ऋषभ के पुत्रों के चरित्र में यह आश्चर्य ही क्या है ? ७९. जयशब्दविराविमिरेत्य सुरस्त्रिदिवास्थ भारतराज ! इति । बभणेऽधिकपुण्यपरोऽत्रभवान् , गृहिवेषधरोऽपि च केवलभृत् ॥ उस समय देवता स्वर्गलोक से आए और भरत का जय-जयकार करते हुए बोले'भारतराज ! आप अधिक पुण्यशाली हैं कि आप गृहवेश में भी केवली हो गए। ८०. अतिरिच्य स एव पितुस्त्वमिहोदयवान् किल केवलवान्नपते !। कृतवान्न च कष्टमपि प्रवरं, चरणे न परीषहमप्यसहः॥ 'राजन् ! आप केवलज्ञान प्राप्त कर अपने पिता से भी अधिक उदयवान् हुए हैं। आपने चरित्र के पालन में भी कोई विशेष कष्ट नहीं किया और न आपने कोई परीषह ही सहा है।' Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ८१. जगतीत्रितये विदितं चरितं , सततं भवतात्तव भारतराट् ! रतरागपराङ मुखता हृदि यद् , गृहिवासपदेप्यभवद् भवतः॥ 'भारत के सम्राट् ! आपका यह चरित्र तीनों लोकों में सतत विदित हो कि आपके हृदय में गृहस्थावस्था में भी सब विषयों के प्रति पराङ्मुखता रही है।' ८२. निष्क्रान्तो भरतेश्वरोऽसुरसुरैरित्थं तदा संस्तुतो, भूपालायुतसंयुतो भवतु नः सर्वार्थसंपत्तये। सूनुः सूर्ययशा बभार वसुधाभार तदीयस्ततो, लक्ष्मीश्चामरहासिनीरनुभवञ्श्वेतातपत्राङ्किताः॥ असरों और देवताओं द्वारा इस प्रकार स्तुति प्राप्त करते हुए भरत ने अभिनिष्क्रमण किया। उनके साथ हजारों राजे थे। उनका अभिनिष्क्रमण हमारे सभी प्रयोजनों की सिद्धि के लिए हो । भरत के ज्येष्ठ पुत्र सूर्ययशा ने श्वेतछत्र पर अंकित तथा देवताओं की संपदा का भी उपहास करने वाली लक्ष्मी का अनुभव करते हुए चक्रवर्ती भरत का राज्यभार संभाला। . .. ५३. पुण्योदयाद् भवति सिद्धिरिहाप्यशेषा, पुण्योदयात् सकल बन्धुसमागमश्च । पुण्योदयात् सुकुलजन्मविभूतिलाभः, पुण्योदयाल्लसति कोतिरनुत्तराभा ॥ इस संसार में सारी सिद्धियां पुण्योदय से संपन्न होती हैं । पुण्योदय से ही सभी बंधु-बांधवों का समागम होता है। पुण्योदय से ही सकुल में जन्म और संपत्ति का लाभ होता है तथा पुण्योदय से ही अनुत्तर शोभावाली कीर्ति प्रसृत होती है । -इति भरतबाहुबलिकेवलोत्पत्तिवर्णनो नाम अष्टादशः सर्गः इति श्रीपुण्यकुशलगणिविरचितं भारतबाहुबलिमहाकाव्यं समाप्तम् । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टानि १. इलोकानामका राद्यनुक्रमः । २. सुभाषितानि 1 ३. पञ्जिका । Page #399 --------------------------------------------------------------------------  Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः अ— १६२ अंसो त्वदीयो विजयप्रशस्तेः अकरुणं कलहे कुरुपुङ्गवं अक्षतैः शुचितमैरवकीर्णः अगुणानपि नोति स्वकान् अङ्गारधानीस्तपसां वस्त्वं अङ्गारधान्यां परितप्यमानः अजितेsपि जितेऽपि बान्धवे अज्येष्ठस्तदनु तथैव लोहदण्डं अतस्त्वया श्रीभरतानुजन्मन् ! अतिभ्रान्त सुरस्त्रेण 'अतिरिच्य स एव पितुस्त्वमिहोअतिविकस्वरकाशपरिस्फुरत् अतुलमाभरणं तव कज्जलं अत्रुटद् गुणं कश्चिद् १५.३३ • अतोनुजानीत रणाय मां नृपाः ! १३.१६ अत्यन्तोही प्रकल्याणअत्यन्तोद्धतकरपक्षतिंद्वयेन अत्युच्चैः परिरटितं च ... अत्र यत्तरणिरस्तमुपेतः अथ क्रुद्धश्चमूनाथो अथ क्षितीशोऽवरुरोह नागाद् अथ चक्रधरानीकं अथ द्रुतगिरा ज्वलन्नपि १०.३६ ५.६४ ६.३२ ४.१९ १०.४४ १८.५४ ४.२६ १७.५३ २.२८ १५. ५५ १८.८० ५.१३ ५.३७ १५.३६ १७.४४ १७.३१ १६.१५ १५.४२ १०.१३ १५.४१ ४.१ अथ प्रगल्भं नृपतिर्निजात्मजं अथ भारतवासव ! श्रुती अथ मन्त्री सुमन्त्राख्यः अथ यूत्कृषये प्रबोधितः अथ रथेषु रथाङ्गसनाथतां अथवार्षभितेजसां भरे अथ स्वयं शृण्वति भारतेशे अथाग्रजो बाहुबलेर्बलं स्वं • अथाग्रतो बाहुबलेर्निविष्टो अथान्यदा भालनियुक्तपाणि•अथान्यदा सर्वसुरासुरेन्द्रैः अथाऽयमिन्दीवरलोचनानां अथार्चयित्वा विधिवत्.. अथार्षभिर्भारतभूभुजां बलाद् अथावनीशक्रमिति स्तुतिव्रता अथावरोधेन समं प्रयान्तं अथाऽसौ कल्पिताकल्पो अथाहवोत्साहर सोच्छल च्छिरः अथैकदिक्संमुखसंचरिष्णुः १३.४८ ८.१ ११.१ १३.२० ६.३० १०.७४ १.५४ अद्भिर्व्यपासि किल कज्जल... ७.८० अद्यप्रभृति मे भ्राता ३.११ अद्यप्रभृति वो भारो अद्यापि प्रणिपतमञ्च मा... अथोत्सुकः पूर्वनियुक्तचाराअथो पुरीद्वारमवाप्य संकुलं १३.३० ४.३२ ११.५२ ४.७१ ५.४ ४.४८ १४.३६ १४.१ २.१ २.८१ १०.६६ १८. १ १३.५८ १.१ ३६७ ३.५.१ १७.६२ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् अद्रष्टुमिव तद्वक्त्रं १५.६८ अभङ्गुरं भारतवर्षनेतुः २.५४ अधित काचन हारलतां गले ५.३३ अभवं जितकाशिशेखरः ४:३६ अधीत्य पूर्वाणि चतुर्दशाऽपि १०.६२ अभिषेकविधौ तव त्वयं ४.७० अधुनास्य मनोवनान्तरे ४.७२ अभ्यर्च्य देवं प्रणिपत्य साधु १०.७३ अनम्रमौलीनपि नम्रमौलीन् २.७० अमंसत श्रीबहलीक्षितीशितुः १३.३१ . अनम्रा यदि सर्वेपि ११.५६ अमङ्गलं मास्तु यियासतोऽस्य ६.५ अनयदिह कियन्ति स्फार... १०.७५ अमन्दानन्दमेदस्वि-. . . ३.४७ अनयोरप्यहंकारवेश्म- ३.७१ अमरीभिरुपेत्य स राजऋषिः .१७.७८ अनावृतं पश्यतु मा मुखाब्ज- २.४१ अमिमान्तमिवान्तस्तु अनीकयोर्वाद्यरवास्तदानीं . १४.३० अमी बाहुबलेर्वीराः ११.७८ अनुजस्तव बान्धवो बली ४.४५ अमी विद्याभृतो वीराः . . ११.४८ अनुनीतिमतां वरः क्वचित् ४.६६ अमीषां कर्मषु क्रोध- .. . ३.६० अनुनीतिरपि क्षमाभृतां ४.६८ अमुं चमूनाथमवाप्य सैनिकाः १३.३१ अनेकराजन्यरथाश्ववारणैः १.६१ अमुञ्चती स्थानमिदं विमोहात् ६.२२ अनेकवर्णाढ्यमपि प्रकाम- ८.१७ · अमुना कीत्तिसुधया ११.६४ अनेक समरोत्पन्ना- १५.५१ अमुष्य' चक्र विबुधैरधिष्ठितं १३.१७ अनेन पतता युद्धे १५.८१ अमुष्य नामापि बभूव शूलकृद् १.२४ अनेन राज्ञा रजनीमणीयितं १०.३२ अमुष्य सैन्याश्वखुरोद्धतं रजः १.२६ अनैषीत् स्वे स विद्याभृत् १५.११२ - अमू लोकत्रयोन्माथ- १५.१२८ अन्तरागतविमानततिर्दाक् ६.२६ अम्भोजभम्भाबककाहलानां १४.१० अन्तरोद्यतरजोपि निरासे ६.१२ अयं कुरूणामधिपः पुरस्ते १२.५१ अन्येधुरात्मानुचरोपनीत- १८.७३ अयं चन्द्रयशाश्चन्द्रो- ११.७६ अन्येपि बहवो वीराः ११.७१ अयं नमेराहवकौशलस्य १४.५६ अन्योन्यसंपर्करसातिरेकाद् ८.४६ अयं नभोवा भविताद्य संकुल: १३.५० अन्वभूवमहमद्य शुद्धतां अयं पशूनां समजः समन्तात् ६.४७ अपचीयत एव संततं - ४.१७ अयं पुनर्बाहुबलेः पुरस्ता- १४.४१ अपरमाहववृत्तभरोच्छवसत्- ५.६२ अयं पुनर्मागधभूमिपालो १२.४६ अपि दुर्नयकारिणं निजं ४.५६ अयं पुरः सूर्ययशाः सुतस्ते .. १२.५५ अपि प्रभूता ध्वजिनी मदीया १२.१३ अयं पुरस्तक्षशिलाक्षितीशः १४.३८ अपूर्वपूर्वादिमिवांशुमालिनं १.७३ अयं बभाषे प्रथमस्य चक्रिणः १.६५ अप्यम्बातातवर्गीणाः अयं बलाद् बाहुबलिः क्षितीश्वरो १३.४० १५.६७ अप्युत्तरीयमस्यांसात् अयं बलानां पुर एव दृश्यः १४.४५ अबला भीरवोप्युच्चैः ११.१६ अयं भवत्कुले ज्येष्ठः अबलोऽपि रिपुर्महीभुजा ४.६१ अयं रणो वीरमनोरथश्च १२.४५ ७.१६ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः अयं रथी वैरिभिरेकमूर्तिः १४.४६ अस्मान् निर्वसनानेव। ३.४० अयं रथी सिंहरथो नृसिंहः १४.४४ अस्य प्रयाणेषु हयक्षुराग्रोद्धृतै- २.४० अयं रसो वीर इवाङ्गवान् स्वयं १.४६ अस्य लोभरजनीचरचारैः १६.५५ अयं विपक्षांस्तृणवन्नु मन्यते १.३१ अस्य सूर्ययशा ज्येष्ठ- ११.७० अयं वैरिवधूहारं ११.८७ अस्यात्मभूश्चन्द्रयशाः... १४.४० अयं समादाय बलं त्वमूदृशं १३.११ अस्यानुजन्मा दलितारिजन्मा १४.४२ अयं सुषेणो ध्वजिनीमहेन्द्रः १४.६८ अस्यैव भुजमाहात्म्याद् ११.६६ अयं ह्य नशतभ्रातृ ३.१४ अस्योद्यदातोद्यरवैर्ध्वजिन्या : ९.३२ अयमभ्यधिको हीनः ____३.५२ अहनि चित्तमुपास्यति कामिनां ५.१० अयमीश्वर एकमण्डले. ४.४७. अहमप्यभजं दविष्ठतां ४.१४ अयमेव समस्तबन्धुषु ४.१२ अहमेव करोमि दुर्नयं ४.२५ अयि बाहुबले ! कलहाय बलं .१७.६६ अहमेव गतो विलोलतां ४.२ अयि ! साधय साधय साधूपदं १७.७४ अरिषु ते महसा सममुग्रतां ५.८ आ-५१ अलंभूष्णुभुजस्थाम ! ११.१०३ आकण्ठं भरतपतिविवेश भूमौ १७.५७ अलङ्कारः समं केषां १५.२६ अलब्धमध्या अपि केलिवाप्यः . .१८.२६ आणि यो दिक्करिभिः... ८.६४ अवन्तिनाथोयमुदग्रतेजा- १२.४७ आकर्ण्य तां तस्य सरस्वती स २.८४ अवहारं विधायैतौ १५.६१ आकाश संचरसितच्छद... ७.७६ अवाचयेतामिति वेत्रपाणिभिः १३.३ आकाशसौधे रजनीश्वरस्य ८.८ अवामस्त वचस्तेषां . ११.१३ आकाशे त्रिदिशविमानधोरणीभिः . १७.४ अविमृश्य करोति यः क्रियां ४.२४ आक्रामति परक्ष्मां यः ११.५६ अवैमि तस्यापि भवद्भुजानां १२.२ आक्षेपादिति सहजस्य... १७.३६ अशोकमालम्ब्य लतेव काचित् ६.२४ आगच्छद्भिश्च गच्छद्भिः १५.६५ असंस्तवाद्रिः, किल दूतिवाक्य- २.६६ आगतास्त्रिदिवतो यदि यूयं १६.६० असृक्कल्लोलिनीनाथः - १५.४० आगतेन सखि ! नागतेन किं ७.२७ अस्तंगते भानुमति प्रभौ स्वे ८.७ आगतोद्गतसरोजिनीचयः ७.७१ अस्तं प्रयाते किल चक्रबन्धा- ८.११ आचामयं स्वेदलवान् रतोत्थान् ६.१५ अस्ति तक्षाशिलान्तर्वा ३.८४ ___आजानु क्षितिमविशत् तदीय... १७.५६ अस्मक्षितीशः समराय... १२.६६ आज्ञां तदीयामधिगम्य राजन् ! १०.६६ अस्मदुक्तिकरणकपटुत्वं १६.३१ आडम्बरो हि बालानां ३.२६ अस्मदृद्धिपरिवर्द्ध के रवौ ७.८ आत्मनीनमिव दोषमुदग्रं मिव दोषमदनं १६.२२ अस्मन्मुखेन क्षितिराजराज ! १२.६८ आददे हृदयमेव मे त्वया ७.६५ अस्मादृशाः संप्रति राज्यलीला- १०.५३ आदित्यकेतु पनीतिसेतुः १४.७१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् आदिदेवजननाब्धिसितांशो! १६.४२ इ-७९ आदिदेवतनयं ध्वजिनीं तां ६.५३ आदिनेतरुदभत किल सष्टिः १६.१२ इच्छामि चयाँ भवतोपपन्नां १०.५० आधिपत्यरभसाद् विगृहीतिः १६.२४ इत: सुषेणः सेनानी: १५.३५ आधोरणा अप्युदिते शशाङ्क ८.५७ इतः स्वयं तक्षशिलाधिपोऽपि १४.६४ आपतन्तं तमालोक्या- १५.१२३ इतरस्य जये ममेदृशो आपिञ्जरा नीपतरो रजोभिः १८.३६ इतरेऽपि मदीयबान्धवाः .. ४.११ आप्लावयामास जगत्तमोभिः ८.१२ इति क्रमाद् युद्धरसाकुलैर्भटः .. १३.४५ आमोददायी कुसमैनवीनः १८.७ इति चमूमवलोक्य चमूपतिः ५.६ आमोदवाहैः कुसुमैः स्तवैश्च इति तढुक्तिविधाकुररीकृते . ' ५:५७ १४.१३ इति तस्य गिरा रणोत्सव- ४.७८ आयातः केन मार्गेण ३.४२ आयातो भूरिभिर्वत्स ! ३.६६ इति निगद्य शुभं नतिकारिणां: ५.६६ इति नृपतये सेनाधीशोप्युदीर्य... ४.७६ . आयुगान्तमपि कीतिरियं ते ६.४३ इति नृपानितरानपि भूरिशः ५.६५ आयुधं न मम चायुधधाम्नो- १६.२८ इति नृपोऽथ सुषेणमुपादिशत् ५.५८ आयोजनं भूमिरपि व्यतीता ६.५१ इति प्रगल्भां गिरमस्य राजा- १२.६३ आयोधने द्वित्रिभटव्ययेऽपि १२.४३ इति प्रियं सागसमीरयन्ती ८.३७ • आयोधने मानधनाः क्षणेन १२.१६ इति भारतवर्षपर्षदि ४.४१ आरादभूवन् प्रविकासभाञ्जि १८.१५ इति मन्त्रिगिरा क्रुद्धो ११.७४ आरामलक्ष्म्येव विनिर्मिताभि- ८.१६ इति यांवदिमा गगनाङ्गणत: १७.७५ आरूढस्तरुशाखा ३.३३ इति रथाङ्गभृदुत्सवमार्तवं ५.२५ आरोहद् द्विरदं गिरीन्द्रसदृशं... १३.६५ इति राज्ञा स्वयं पृष्टो ३.६७ आलोकाद् बहलिपतिस्ततोस्य... १७.३७ इति वदति समन्त्रे मन्त्रिणि... १४.७६ आश्रान्तं जलमिव सारसं... १७.१७ इति वादिन एव भूविभोः ४.३० आश्रितः स किल सिंधुररत्नं ६.३३ इति विभूषणभूषितभूघना ५.४० आश्लिष्य दोर्वल्लियुगेन काचित् ६.६ इति वीरगिरं शृण्वन् आश्वास्य क्षणमथ बान्धवं... १७.४८ इति समीरयति ध्वजिनीपतौ ५.२६ आसीत् तव स्वागतमप्ययोध्या- २.३ इति स्वयं स प्रणिधायं साधुः १८.६७ आसे दिवांसं मणिहेममय्यां १०.३१ इति स्वरूपं लोकानां ३.८६ आस्तीर्य शय्यां विरचय्य दीपं ८.२४ इतीन्दुगौरैस्तिलकप्रसूनः . १८.१४ आस्थानी भरतेशस्य ११.६ इतीप्सितं तस्य बलाधिपस्य ६.५२ आहवः किमधुनष युवाभ्यां १६.६ इतीरयित्वा बहलीक्षितीशः २.२३ आहासि विस्मेरसरोरुहाली- १८.६ इतीरयित्वा विरतं मुनीन्द्र १०.७२ इतीरिणं तीरितराज्यभारो २.८५ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रम : ३७१ ' पा इतीरिणः केचन संलयान्तरे १३.४३ इत्युदीर्य विरता वचनेभ्यः १६.५१ इतिरिणि स्वरमुदात्तविक्रमे- १३.२६ इत्युद्यते भानुमति प्रभाते ८.७३ इतीरितं मे विनिशम्य- १०.६८ इत्यूचानमनूचान १५.५२ इतीरितः सोथ सुषेणसैन्या- ६.५८ इन्दोः करस्पर्शनतः प्रमादं ८.५२ इतीरितां चारगिरं निशम्य १२.१ इदं गृहाण त्वमिदं विमुञ्च ८.६२ इतोपि दोर्दण्डदलीकृतं शिला- १.२० इदं नवं तीर्थमकारि बाहु- १०.७० इतो बाहुबलिर्वीर- ३.५६ इदं भवद्भिर्न हि युक्तमीरितं १३.२१ . इतो विद्याधरोत्तंसो . १५.६४ इमा नलिन्यस्तुहिनेन हीना १८.१० इत्थं गिरं भारतवासवस्य इमा नलिन्यो विनिमिल्य लोचने १३.३७ १२.३५ इत्थं गिरं व्याहरति क्षितीशे १२.६६ इयं त्रियामेति मता तमस्विनी १३.४१ इत्थं वचः सैन्यपतेनिशम्य ६.७६ इयं वराकी विरहे प्रियस्य ८.६६ इत्थं विचेरुविरहातिदीना- इह भवानिव नित्यविवधिभिः ६.१८ ५.१६ इत्थं विज्ञाय वीराणां ११.६३ इहापणश्रेणिभिरद्भुतश्रिया इत्थं स सर्वर्तुविलासलास्य- १८.५८ इत्थर्थिजनवाक्यपदान्या- ६.५१ इत्यन्तर्मनसि महीपतो रथाङ्गी १७.४७ १२.२६ इत्यमी तनयाः पञ्च .. ११.८५ ईदृशः प्रियतमो न हि त्वया ७.२६ इत्यमी बहवो वीराः ११.८६ ईरणादुपरतेषु सुरेषु १६.२५ इत्यम कथयतिस्म तत्सखी ७.४६ ईरितेति सहसं जगाद सा ७.३४ इत्यचयित्वा विधिवद् जिनेन्द्र १४.१४ उ_२३. इत्यसादृश्यमालोक्य · १५.६२ इत्याकर्ण्य क्षितिपतिरयं... ११.१०५ उच्चिताभिनवचंपकस्रजा ७.४४ इत्याकर्ण्य वचस्तस्य १५.१०० उच्चैः पदादयं वीरः ३.३६ इत्याकर्ण्य वचो भर्तुः . ११.१० उच्छ्वासानिलपरिपूर्ण... १७.४३ इत्युक्तः शरभ इवादधत्... १७.२२ उज्जागरा मन्दरकन्दरस्था १४.६२ इत्युक्तवन्तं मंगधक्षितीश- १४.५६ उड्डीयेभकपोलेभ्यः १५.१६ इत्युक्ता मुदिताश्चक्रि- १५.१०१ उत्फुल्ल त्रिदशवधूविलोचनाब्जः १७.८ इत्युक्तोऽनिलवेगेन ११.६२ उत्सङ्गसङ्गिनी तेऽस्तु ११.२८ इत्युक्त्वा दृशमरुणांशुदुःप्रधर्ष- १७.१४ उत्सर्पच्छोणितोद्दाम- १५.१४ १७.२४ इत्युच्चैः खगुणमयं बभूव विश्व १७.३२ उत्साहं द्विगुणमवाप्य... १५.६१ इत्युच्च र्भुजयुगलीपराजितेन्द्रः १७.१२ उत्साहाद् द्विगुणीभूते १२.५२. इत्युदात्तागिरस्तस्य ३.३६ उदग्रबाहुर्द्विषदिन्दुराहुः इत्युदीरितवतीमुवाच तां ७.६० उदीच्यवर्षार्धमहीभृतोऽपि १२.५८ इत्युदीर्य पतदश्रुलोचना .. ७.४८ उद्धतं नभसि मातरिश्वना ७.१७ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् उद्यम्य प्रबलतया क्रुधा दधावे १७.६७ एतस्मै न नता के कैः ११.६२ उन्मिषत्कुसुमकुड्मलस्तनी- ७.११ एतस्य सेनाधिपतिं सुषेणं ..२.५१ उन्मुक्तः सोऽहिपाशेभ्यो १५.११३ एतस्याग्रे संचचाराथ चक्र ५.८० उपमानोपमेयाभ्यां ३.३४ एतान् प्रवेशयाहनाय ११.८ उपस्थितेन प्रथमं प्रियेण ८.२६ एता बाहुबलिः काचिदिति ३.७६ उपात्तनानायुधयानलीला १४.५२ एताभिर्वृषभतनूजरूपलक्ष्मी- . १७.२ उपाधितो भ्राजति देह एष १८.७६ एतावदुक्तवति भारतसार्वभौम- २.९६ उपेत्य तो विन्ध्यहिमाद्रिसंनिभौ १३.१ एतावदुक्ता विरते क्षितीशे ...१०.५५ उर्वशी गुणवशीकृतविश्वा ६.३४ एते तनूजे वृषभध्वजस्य १८.६५ उवाच तेभ्यत्विति धैर्यमेदुरं १३.६ एतेनाहवललितेन चक्रपाणे !. १७.२१ एते वदन्त्याविति गाढवाचा १८.६४ ऊ-१. . एतेषु विश्रान्तवचस्सु चक्री . १२.७१ ऊचेऽसौ भरतनृपं गभीरसत्त्वः १७.२० एनं भुजाभ्यामपसार्य दुरात् . २.७ . एनं सहस्रशो देवा ऋ-१. एवं तदानीं. चतुरङ्गसैन्य एवं तनूजन्मसपादकोट्या १४.२३ ऋषभध्वजवंशोयं एवं देवप्रणतचरणाम्भोरुहो... ५.७६ ए-३६. एवं प्रविस्तारवति द्विजेन्द्रो- ८.५५ एवं व्याहृत्य चारान् क्षितिपति...१२.७३ एक एव महातेजाः ११.७२ एवं शरच्चन्द्रमरीचिगौरं २.५५ एक एव समयो गगनेला- ६.२५ एवमेव जनवर्गविमर्दो १६.६२ एक एव समुपैतु रथाङ्गी १६.६१ एष आहव उरीकरणीयः १६.३७ एकछत्रं मम स्वामी ३.७० एषां भटानां समरोत्सुकानां ६.६० एकदेशवसुधाधिपतित्वं एहि एहि वर ! देहि मोहनं ७.३७ एकान्तविध्वंसितया प्रतीतः १८.७७ एकोप्यजय्यो युधि चैष राजा १४.५८ ओ-१. एको बाहुबलिर्वीरः ___३.७२ ओजस्वितां सूनधनुर्यथाऽयं १८.२७ एणाक्षी कथमपि विश्लथाङ्ग... १७.२६ एतदग्रत इमा जलात्मजाः ७.७४ औ-१. एतदाजिमवलोकयतो मे १६.६४ औद्धत्यादिति निगदन्तमेनमुच्चैः. १७.६५ एतदीयकबरीविराजिनां ७.४३ एतद्वयस्याः कुमुदिन्य एताः ८.५४ 'क-१३५. .. एतयोः समरतः किल भावी एतयोर्ननु पिता जगदीशः ६.५४ - ककुदुमतो वीक्ष्य मदोत्कटान्... १.६ ___३.८ एवं देवप्रणतच Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकारानुक्रमः कठिन भटिमाधिकत्वत्तो कण्डूयमानः करटं करीन्द्रैः कथिता सा वनराजिरुच्चैः कनीयानयमेोऽपि कन्दुकोप्यनुकृतस्तनलक्ष्मी: याचन द्वारि वितत्य बाहू करटिभिर्निपतन् मदनिर्भरैः करद्वयीचालितचामरोघ करयुगं च कयाचन कौतुकाकराः सितांशोः परितः स्फुरन्तः करीन्द्रकुम्भप्रतिमेय मानिनी करैरिवांशुर्म करैरिवाब्धिः करैरिवांशोः पुरतः स्फुरदुभिः करोति किं तक्षशिलाक्षितीश: कर्पूरपारीप्रचयावदाता कर्मसाक्षी तयोः कर्म कांश्चिदाकृषतश्चापान् काचनापि कुसुमानि चिन्वती काचित् कान्ता प्रियं ग्रामकाचिदुन्नतमुखी प्रतिद्रुमं काचिद् वितगममात्मभर्तुः काचिद् विवृतैर्विविधैः प्रसूनैः काञ्चन प्रसवरेण मुष्टिना काञ्च्याभिरामं जघनं विधाय ४.७ कादम्बरीस्वादविघूर्णिताक्षी ६.३६ कान्तस्य यातस्य पदव्यलोकि कान्त ! स्वस्वामीकृत्याय कान्तैर्न्यवार्यन्त मुहुः प्रबन्धात् कापि कुड्मलता विलासिनी कापि मत्करिणीश्वरभीत्या कातरत्वं ममाभ्यर्णे कादम्बरीपाननितान्ततुष्टा १०.४ ११.८१ ६.२१ ६. ६ ५.२ १०.२४ ५. ३२ ८.५३ १३.४७ १२.१२ कलमगोपवशास्तव चक्रभृद् कलहं तमवेहि हलाहलकं कन्दिन्यायसेव सिक्तं . कल्पद्रुम च्छायतिरोहितार्ककल्पान्तकाले यसहस्रभानोः कल्पान्तोद्य किमागतोऽयमधुना...१५.१३० कल्याणगौरं वपुरुवहन्तं कषायैरिव संसारी ६. १ ६.५६ १२.१७ १५.६० ५.२२ · १७.७० ८.१६ १०:२७ १२.३४ . १०.३२ ३.६६ १५.४६ ७.२२ ३.८० ७.२१ ८. २५ ८.२३ ७.३६ कापि शाखिशिखरं समाश्रिता काभिश्चन व्यरचि लोचन... काभिश्चिद् विबुधवधूभिरग्रजोयं कामं तेन समाक्रान्तां कामिनीकुचघटीविघट्टनैः कामिनी बलविलोकनदाढ्र्या कामिनी सहचरस्य चक्रिणः कालं त्वियन्तं न मयाऽजिलीला कालपृष्ठकलम्बास कालपृष्ठधनुरर्पित पाणि कालागुरुस्कन्धनिबद्धनागका विप्रयुक्तिः प्रणयश्च कीदृग् • काश्यपी करमारूढा का सुधा मृगदृशां हि वल्लभः का हानिर्भरतपतेर्यदेषबन्धुघ्नः किं कन्दुकः श्रीतनुजस्य किं वा किं करोमि लघुरेष मदीयः किं काश्यपी दैन्यवतोपचर्या fafaaraणितकीर्णदिगन्तैः किं दुर्गस्तस्य किं शैलः fi दूत ! साकूतमिहागतोसि किं न वेत्सि विधुरभ्युदेष्यति किं मार्तण्डद्वयाढ्या किमुत... किं राजराजोपि च यक्षलक्ष्म्याः २७३ ८.३२ ११.३१ १८.२० किमूनं भरतस्यापि ८.२८ ६.२६ ११.२० ६. १६ ७.३८ ६.२० ७.३६ ७.७७ १७.३ १५.८२ ७.७ ६.१७ ७.३ १२.३१ १५.११८ १६.३६ १०.११ ९.२३ ३.२३ ७.५३ १७.४० ८.४६ १६.२६ ६.५६ ६.३० ३.८५ २.२१ ७.६१ १६.८१ २.६२ किं वाऽयं भरतपतिर्बलातिरिक्तः १७.१० २.४६ fara चित्रं क्षितिबल्लभानां किमुर्वशीभिः सुहृदा बलद्विषा १.७५ ३.६८ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ किराताः पातितारातिकिल भवानुररीकृत उल्लसद्किल वधूरधिरोदुमपेक्षते कीर्त्तिनिर्जरवहा तव राजन् कीर्त्तेरकीर्त्तेश्च महाभुजानां ! कीनाश इव दुष्टाशः कीनाशानामिव द्रव्य - कुक्षिपूर्तिर्नासीत् कुन्तं धरन् वन्हिमुखं च खड्गं कुन्ताग्रधारा विषहिष्यसे त्वं कुन्ताग्रेण समादायाकुन्देन्दुविशदच्छत्र कुन्दसुन्दरदतीः परिस्फुरत् कुमुदहासवती शरदाश्रिता कुम्भिकुम्भकुचयोरुपमानं कुम्भिनां प्रसरदुच्छ वसितानाकुलकेतुरिहोच्यते स यः कुलदेव्यो निमित्तज्ञाः कृतं स्वनामापि न येन विश्रुतं कृतान्तकरसंकाशा कृतान्तकल्पो बहलीश्वरोस्ति कृतान्तवक्त्रं बहलीशयुद्धं कृती जितेऽहं वसुधाधिराजेकृशानुः शीततां याति केकयाऽब्दसुहृदां तदा वनं केचिद् कृपाणान् बिभराम्बभूवुः केचिद् तरुच्छायमुपेत्य वीराः केचिद् रथस्योपरितोऽधुनैवं केचिद् वपुःषु द्विगुणीभवत्सु केचिद् विपक्षार्पितगृध्रपक्षाकेचिन् नृपा मौलिमणीमपास्य केऽपि कार्मुकसमर्पितबाणाः केपीह भोगानसतः कमन्ते ११.४९ केवलं वसुमती हृदयेशाः केषांचिल्लूनमौलीनां ५. १५ ५.४६ केषां निस्त्रिशनिर्जून ६.४४ कैश्चनोज्झितधरैरतिवेगात् १२.४४ ३.१५ ४.२३ ३.५८ १३.२६ 'भरत बाहुबलि महाकाव्यम् ३.४६ ३.६९ कोटीराङ्कितशिरसौ महाप्रतापौ १४.२१ कोऽतिरिक्तगतिश्चित्तात् ६.१० कोपने ! त्वमधुना निगद्य से १५.२६ कोपवन्हिरतुलो मम चक्रे - ११.५ कोपानलः क्षान्तिजलेन काम क्रमं विनीतैरिव नावलङ्घितुं ७.१२ ५.२७ क्रीडातटाकमवनीपतिराजगाहे ' ६.१६ ' क्लृप्तपुष्पशयनं लतालय ६.२२ १५.७९ १४.७ ९. ३ १२.६५ ३. १०३ ७. १४ कैतकेन रजसा तदा वनं को गुणस्तव स येन निबद्धा कोटि : सपादा तव नन्दनानां १४.३ १४.६ क्वचिच्च वैढूर्यमणिप्रभाभरैः क्वचित् कुसुमकुड्मलैः... क्वचित् सरसिजाननानयन... क्षणं भूमौ क्षणं व्योम्नि क्षयाम्भोधिरिवोद्वेल : १४.५ क्षरक्षितिजधाराक्तं १०. ८ ८.५८ क्वचित् सरामाऽथ सलक्ष्मणा... क्वचिद् गजमयं सैन्यं क्वचिन्नास रवीराणां क्वचिन्मृगयूथमयद् यदृच्छया क्वं सर्वदेशाधिपतिः स चक्री क्षरदुरुधिरधाराभीक्षितिपतिर्बल राजनिवेदितं क्षितिभुजामुपशल्यनिवेशिनां क्षितीश्वरे पृष्ठमधिष्ठिते भटा २.३२ क्षिपन् गुञ्जारुणे नेत्रे १६.३ १०.४२ क्ष्वेडान्तोन्नामतः कांश्चित् क्ष्वेडास्येति वदन्तीव १६.१६ १५.२० १५.१५ ६.७ ७.५ ६.४६ १२.५४ १७.६ ११.७७ ७.२५ .१६.५८ १०.५२ १.४५ ७.७६ • ७.३० '' १.६२ ५.७६ ५.७८ १.५८ १५.४ १५.११ १.१२ २.६१ १५.५४ १५.४४ ३.५४ १५.१० ५.७४ ५.७१ १३.२३ ३.२ १५.४५ १५.१२० Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ख-५. च-३५. खञ्जनाक्षि ! तव मन्तुरादधे ७.२४ चंडाशुः काण्डवृष्ट्याल- १५.१०८ खलूरिकाकेलिनिबद्धलालसैः १.४४ चकते प्रतिपक्षलक्षतः खातिकां खनत साम्प्रतमेकां १६.७१ चक्रभृन्मृगदृशां मनोरथैः ७.१ खिन्नेव काचिद् विरहातिभारात् ६.२५ चक्राङ्गी सपदि ततो रुषाति... १७:१५ खेचरैरपजहे नृपमार्गः ६.११ चक्रिचक्रपुरोवर्ती १५.५० चक्रिज्येष्ठसुतोप्युच्चैः ग-२१. १५.११५ चक्रिणश्चक्रचीत्कारैः १५.१२ गजं विनिर्यन्मदवारिधारं २.६ चक्रिपुत्रेषु शृण्वत्सु १५.६४ गजारूढेन सोऽदर्शिः १५.७३ चक्रेणानीय तन्मौलि १५.७६ गजाश्वरथपत्तीनां ३.२७ चक्रे भङ्ग तुरङ्गाणां १५.७२ गदापट्टिशनिस्त्रिशैः . १५.१०६ चक्रेशः श्रमवशतो निमील्य... १७.३४ गदाभिः स्यन्दनाः कश्चिद् १५.२१ चतुरङ्गचमूः साथ १५.५ गन्तैष बाले ! दयितो भवत्याः ६.८ चन्द्रमा इव महीपतिळभा- ७.६६ गन्धेभसिन्दूरभरातिरक्त-. ६.३४ चन्द्रोदयोल्लासितमण्डपश्रि- १०.२६ गर्वस्ते यदि भुजयोहाण दण्डं १७.५२ चमूचरान् केतककण्टकैः सा .. १०.५ गवाक्षजालान्तरलब्धमार्गः १८.४४ चमूरियं वैरिचमं विलोक्य .१४.२८ गिरं : नानामिति मानशालिनी १.३५. चरः पुरः पू:परिखां पयोभृतां १.५२ गिरं भटा वेत्रभृतां निपीय ते १३.४ चरः पुरोगन्तुमथैहत त्वरां १.४० गिर इव क्षितिराज! तवेक्षवो- ५.२३ चरः सचित्रार्पितसिंहर्शनाद् १.६६ गीर्वाणनाथादपि सार्वभौमात् १०.४६ चरः सरत्नस्फटिकाश्मभित्तिक १.५३ गीर्वाणविद्याधरसुन्दरीणां . ६.६७ चरन्तमायान्तमुदीक्ष्य वेत्रिणः १.६४ गीर्वाणशृंगारसुनामधेयं . १४.१५ चरो विचिन्त्येति हृदा गिरा ततः . १.३७ गीर्वाणाधिष्ठितस्यापि १५.५६ चलताप्यचला यूयं ..१५.११६ गीर्वाणांनां चाक्यमेतद् विशालं १६.७८ चलत्कृपाणाशनिसंयदब्दे १२.१५ गीर्वाणस्त्रिदिवमपास्तमाजि... १७.११ चलबलाकाभ्रमदं सविद्रुमाः . १.६३ गुणैरिव शरैर्लोक १५.६ चलन्मृगाक्षीनवहेमभूषण- १.६० गोत्रविस्खलितमेवमभ्यधात् ७.४७ चापमासज्य कण्ठेषु गोपुरं पुर इवाननमस्या . ६.३६ चापादवारोपयदेष किञ्चिद् १४.४७ चामीकराम्भोजनिवेशितांह्रि- १०.६४ घ-१. चारुवारवधूधूत ११.४ चालिते नृपतिना भुजवज्र १६.७५ घनात्ययोऽपि ज्वलढुष्णरश्मिः १८.४२ चालितो न सकलैरपि बाहुः १६.७४ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११.१६ ३७६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् चित्रकाननहयाधिकभीतः चुम्बितं मधुकरेण तन्मुखं ७.२३ डिण्डीरपिण्डा इव राजहंसाः ६.७५ चेद् विलुम्पसि गुरूनभिमानात् १६.४४ त–१३३. छ--१. तं केवलज्ञानरमावरीतु- १८.६१ छत्रचामरचारुश्री तं प्रयान्तमवलोक्य सुरस्त्री ६.३१ ज-२३. तं भाववेदी भगवान् विवेद १८.६२ जमतीत्रितये विदितं चरितं १८.८१ तज्जन्यप्रकटतमैकलांस्यलीला १७.२५ जमत्त्रयजनं जेतु ३.१६ ततः कोटि: सपादापि १५.१२१ जगत्त्रयी यस्य च कीतिमल्लिकां १.२८ ततः परं तक्षशिलाक्षितीश्वरः १३.८ जगत्त्रये कस्तुमुलोयमद्य . ८.६६ ततः प्रवीरा भरतेश्वरस्य १४.२ जनाद् बलं बाहुबले टैः पथि १.१६ ततः स दूतो विषयान्तरं रिपोः . १.२ जना ! रसालस्तरुरेष सत्यः १८.२४ ततः समग्रा अपि भूमिपाला १०.१४ जनास्तत्र भयोभ्रान्ता ३.८७ ततः सुषेणोऽपि पताकिनीशः १४.२.० जयः कलापोऽक्षयकंकपत्र- १४.१६ ततः स्वयं भारतवासवोऽपि १४.११ जयशब्दविराविभिरेत्य सुरैः १८.७६ ततश्चचालाधिपति पाणा- २.६६ जयी सुषेणानुज एष कोक- १४.६६ ततायतां द्यामिव सर्वतः समां १.७२ जहीहि मौनं रचयात्मकृत्यं ततो निबद्धाञ्जलयो नृपं च ते १.६६ जाड्यातिरेकाज्जघनप्रदेशात् १८.४६ ततोऽनमन्यस्व रणाय भूभुजः १३.२८ जातरूपमयभित्तिकपोल ततोप्यवश्यायनिषेकपातात् १८.४८ जानीहि स्फुटमिति भूमि... १७.१३ ततो बाहुबले ह्यः १५.८४ जितानेकाहवा यूयं १५.२८ ततो भटीभूय भवद्भिराजिः १२.१४ जीविते सति निवेदनं सखि ! ततो मुहूर्तेन रथाश्वनाग- १२.६७ जीवो यथा पुण्यभरेण देहो ततो विमृश्येति हृदन्तरुच्चैः २.७८ ज्ञातनैकललनारसः प्रियः ७.३५ ततोऽहमेकोऽपि बलोत्कटं त्वमुं १३.१५ ज्ञातस्त्वं सर्वदा कान्त ! ११.२६ ततौजसं सोथ सभासदां वरः १.७१ ज्येष्ठः सुतः सूर्ययशा यशस्वी १४.२२ ज्येष्ठबान्धववधाय करस्ते तत्कथं समर एष भवद्भ्यां १६.११ १६.४५ ज्येष्ठोऽग्रसंजाततया गुणैश्च तत्काननान्ता युगपत्तदीयैः । १०.२ २.३१ ज्येष्ठोङ्गजश्चक्रधरस्य चैष तत्केवलज्ञानमहं विधातुं १८.६८ १४.७० तत्तत्पितुालनमप्यशेषं २.१६ ट-२. तत् त्वं विहाय स्मयमप्यशेषं २.६५ टाररावा भटचापकोटि- १४.६३ तत पाणिपदमाविण्यात १४.६३ तत् पाणिपमान्निपपात चैकं । १८.७५ टङ्काराकर्णनोभ्रान्ता १५.३ तत्र भारतपतिः स्वयमस्था- . १६.७३ ६.२८ माहवा यूय ७.२६ ६.७३ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ श्लोकानामकारावनुक्रमः तत्र व्यतिकरे विद्या- .. १५.६७ तबानुजोऽयं तनयो युगादेः तत्रष युष्मत् प्रभुरातनोतु १२.७२ तस्थौ सूर्ययशाः स्वैरं १५.१२२ तथा कोपानलोऽदीपि १५.७८ तातप्रियापत्यतयाप्रतीतौ २.५० तदन्तरे कोपि बलातिरिक्तः २.३० तातवंशभवनं भवता यत् १६.४८ तदात्मजेभ्यो विहितानतिभ्यः २.८० तानऽपृच्छादितिक्ष्मापः ११.६ तदा दक्षिणदिग्नेता ११.१५ द्राभ्यां १५.८५ तदा भवान् मंत्रिभिरोदितस्तद् २.८६ ताम्बूलीरागसंपृक्तं ११.२२ तदि चतुर्भिरलध्यतमो द्विषत् ५.५६ तास्कैरिव नृपैरनुजग्मे तदिति सुरनरर्व्यतकिं चित्ते ५.८१ ता राजदारा नरकस्य कारा १८.७२ तदियं तवका सरस्वती ४.४३ तारुण्यलीलाः सकला अपि त्वां १०.४५ तदर्पदीपं शममानयाम्यः २.७६ तास्ताः समस्ता इति बाललीलाः २.५ तबन्धोनयनयुगं ततोवलोकात् १७.१८ तीक्ष्णांशुकरसंतप्तं १५.८ तथूयमुद्यच्छथ संप्रहारं .१२.२० तीक्ष्णांशुतप्त्या परितप्यमानाः ६.४५ तद्ववाक्यादिति कुपितो... १७.५१ तीर्थं त्वयाऽसाध्यत मागधादि १२.३७ तद् विचार्य महीपाल ! ११.७२ तरङमैरग्रसरैः खुराप्रैः ६.३७ तन्नियोगवशतस्त्वदन्तिकं . ७.५१ तुषारतां तत्र तुषारभानोः १८.३० तनिवार्य सकलं हयपत्ति- १६.३५ तुष्ट: कनीयसां राज्यैः ३.१३ तन्निशम्य बहलीश्वरवीराः १६.६६ तूर्यस्वनैर्वन्दिरवातिपीनः १४.३१ तन्ब्यो बभूवुः सरितः समन्तात् १८.२८ तृणीकृतस्त्रैणरसं रसस्य १०.३५ तमालतालीवनराजिविभ्रमं १३.५२ ते कोशलातक्षशिलाधिपत्योः तमाह वैतालिकसार्वभौमः १४.३७ १४.२६ तमो निरस्यत्सहसा प्रभाभरैः १३.३५ ते तथेति कथिते जननेत्रा १६.३८ तयोर्युद्धं बभूवोच्चः १५.५६ ते तदैव भरतानुजमीयुः १६.४१ तयोविलासा विविधाः प्रसस्र . ८.४५ ते भारती चारमुखानिशम्य २.७६ तयोविशिखसंदोहैः १५.८७ ते सुरा अपि तदीयगिरेति १६.३० तस्सव न केवलं-विभोः .. तैरेत्य सानन्दमनोभिरेवं तैलबिन्दुरिवाम्भस्सु ३.७६ तल्पेषु तूलच्छदवेष्टितेषु तब पार्थिव ! चक्रमुल्वणं तौ तदैव च निवर्तयतःस्म १६.६५ तो द्वादशाब्दी भरतेन सार्धं २.५३ तव मुष्टिमिमां सहते भुवि को १७.७३ तव वधूभिरनुत्तरदृष्टिभिः ५.४१ ___ तो धूलीललिततनू विकीर्णकेशौ १७.४१ तव वधूहृदयानि वनान्तरं ५.५० तौ राजद्विरदवरौ निबद्धमुष्टि- १७.३८ तब विलासवती च निजेऽलिके ५.३८ त्यज तत् त्वममूदृगूहनं ४.७३ तव सभेव नरेश्वर ! सुन्दरा ५.१७ त्याजिताः स्यन्दनं केचिद् १५.०६ १३.२५ तवाग्रजाऽयं स गजाधिरूढो १४.६६ त्रपेत तातस्तनुजैरकिञ्चनैः ४.२२ ४.७७ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् त्रयोऽपि हंसा इव राज्यभार १०.५६ त्वां विना कोपि विश्वेऽत्र ११.६५. त्रिछत्रराजी पुरुहूतहस्त- १०.६५ त्वामपास्य सकलार्थदहस्तं ६.४८ त्रिदशाचल निश्चलचित्तरुचेः १७.८५ त्वामात्मतुल्यं गणयत्यजस्न . १२.४१ त्रैलोक्यदण्डं कलयाञ्चकार १४.१७ ४.५ त्वं जेता विश्वविश्वस्य ११.१०० त्वं तु पाणिग्रहेऽन्यस्या ११.३३ दण्डेशो भग्नकोदण्ड: १५.५७ त्वं तु भारतपते ! स्थितिमूलं १६.१४ ददतमूहमिमं सुधियां परा- ५.४७ त्वं दाक्षिण्यपरो यादृक् ११.३५ दन्तानाचकृषुः केचिद् .. १५.२४ त्वं पश्चिमाशामधुना गतोसि ८.१८ दन्ताबलः केलिनगोपपन्ना ६.३६ त्वं पश्य राजन् ! प्रभुरागतो नः १२.७० दन्तिदन्तासिसंघट्ट- १५.१७ त्वं मानुषीभोगनिमग्नचित्तः - २.६३ दयितेनानुनीताऽपि - ३.७८ त्वच्चित्तवृत्तिप्रथमाद्रिचू ला १०.४७ दाक्षिण्यं क्रियते येन १५.६८ त्वत्तुल्याः सन्ति ते पुत्राः १५.६६ दाक्षिण्याद् देवपादाना- ११.९१ त्वत्पितुर्जगति कीत्ति भिरारात् १६.२३ दानवारिपतिरात्मतुरङ्ग- ६.५ त्वत्प्रतापदहने त्वदरीणां ६.४५ दायकत्वसुकृतित्वगुणाभ्यां ६.६० त्वदवरोधजनाद् ऋतुसज्जितात् ५.९६ दिगन्तगन्ता जगति त्वमेव १२.४२ त्वदवरोधवधूह तमत्सर- ५.४५ दिवस्पृथिव्यौ कुरुतः कलिं किं १४.३२ त्वदाज्ञाभ्रमरी भूप ! दिवामुखत्याज्यविधि विधाय स १३.५६ त्वविक्रान्तिर्महावीर ! ११.२३ दीप्रदन्तद्युतिज्योत्स्नात्वद्वियोगविधुरः स जीविते ७.५० दुरुत्तरोऽयं भववारिनाथः १०.२२ त्वन्मौलिकालायससञ्चयोत्र २.८६ दुरुत्तरोयं विरहाम्बुराशिः ६.२७ (वमिह दूतगिराह्वय सर्वतः ५.६० दूतत्वं भरतेशस्य ३.४६ त्वमेव चक्री विजयी दिगन्त- १२.४० दूत ! त्वं सत्वरं गत्वा . ३.३५ त्वमेव नैयायिकवाक्प्रपञ्चैः १०.२० दूत ! त्वत् स्वामिनो धाटय त्वमेव भोक्ता भवदुःखराशे- १०.२१ दूतत्वात् त्वमवध्योसी- ३.१०५ त्वमेव संसारदवाग्निदाह- १०.१६ दुति ! सत्यमुदितं त्वया वचः ७.५२ त्वमेव सैन्ये सकलेऽग्रगामी १२.६४ दूरंगतानामथ सैनिकानां ६.३५ त्वमेव साधो ! समलोष्टरत्नः १०.४८ । दूरलक्षीकृताकाशत्वया तपस्या जगृहे मुनीश ! १०.५४ दुर्वांकूरग्रासनिबद्धकामा १०.१२ त्वयाऽथवा तत्स्मृतये न लुप्तं ८.३८ । त्वया भरतभूभर्तुः ३.६ दृष्ट: पुरा त्व विजयाशिले १०.३८ त्वयि दिग्विजयोहाते प्रभो ! ४.३३ दष्टि-मुष्टि-रव-यष्टिविशेषैः १६.३६ त्वयैव चक्रभृवंशः १५.१२४ देव ! चन्द्रति यशो भवदीयं . ६.४७ त्वयैव सावज्ञतया न हीयते १३.४६ देव ! तस्य मदोद्धृत- .. ३.१०१ द् Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.२० ४.६२ ११.७ श्लोकानामकाराउनुक्रमः ३७६ देवताः ! किमपि वित्त ममायं १६.५२ न-७६. देवताः सपदि भारतराज १६.८ न कातरत्वादपि कम्पनीयं देवतेरितमुरीकृतमेतत् १६.७० १२.२४ न किञ्चिदूचानमवेक्ष्य दूतं ११.५३ २.२ देव ! त्वं मद्वचः स्वरं न कोपि समरे वीरः देव ! त्वदस्त्रालयमुग्रतेजो २.८२ नखक्षतं काचिदवेक्ष्य कान्ते ८.२७ देव ! त्वयं देवयशास्तदीया- १४.७२ १०.१७ न चातिदूरान्तिकसन्निषण्णः दैवतेशितुरपि स्पृहणीया ६.५६ नटीकृतानेकमहीभुजो भ्रवः दोर्दण्डचण्डिमौद्धत्याद् । ११.४२ १.६७ दोर्दण्डदम्भोलिरमुष्य राज्ञः १४.३६ नत्वाऽथ साधुं निषसाद भूपः १०.३६ दोभृतः सुरगिराथ निषिद्धाः १६.७ न नाम नम्यादिरणे महेन्द्र ! १२.३८ दोष्मतां खरसंघात १५.६६ न निधिर्न मणिर्न कुञ्जरः द्वात्रिंशन्मदिनीपाल ११.६६ नन्वेतौ जिनवरतो जनुः स्म १७.३६ द्विजराजनदीशयोस्तुलां . . . ४.१८ न पृथग्जनवत् क्षितीश्वरो धुसद्विद्याधराधिक्यात् ६.५५ न प्रभुर्न इह तृप्तिमवापद् ३.१७ २.७५ न बन्धुषु भ्रातृषु नैव ताते द्रुतं राजानमानम्य द्वे सैन्ये अपि चरमाद्रिपूर्वशैल- १७.४५ न भवता सह काननमेष्यते ५.५१ नभसस्त्रिदशैः स उपेत्य गुरु- १७.८८ ध-१४. . . नभस्थलं तारकमौक्तिकाढ्यं ८.१० . . न मादशी क्वापि पुरी जगत्या- २.१८ धनुरनूतरधी: ! करपञ्जरे ५.२० नरपतिरिति स्नात्वा क्रीडा... ७.८३ धनुर्बाणाञ्चितकरान् ३.६२ नवीनचामीकरनिर्मलामा ६.७२ धनुर्व्यः कृतहस्तानां १५.१ नवैः प्रसूनैः परिकल्प्य शय्यां ६.१३ धन्यः सं येनारचि चैत्यमीदृक्. १०.२६ न सांयुगीनो मम कश्चिदाहवे धन्याः सदा मे खलु बान्धवास्ते १८.७० न सुरो न च किन्नरो नरः धम्मिल्लभारकुसुमैः पतितै... ६.७८ न हि तातकुलं कलक्यते ४.२८ धम्मिल्लभारशिथिलालक... ७.८२ नागरैरिति वितकित एष धम्मिल्लमुक्तालकवल्लरीणां ८.४ नाथ ! संस्मृत्य मां चित्ते ११.२१ धरिणी हरिणीनयना नयते १७.७२ नानास्त्रयानध्वजशालिनोऽमी १४.५७ धारिता प्रियभुमेन सा दृढं ७.४२ नाभेयप्रथमसुतोऽथ भूमिमध्यात् १७.६० धिगस्तु तं रणे नाथं ३.५७ नाराचमण्डपस्याधो ३.५६ धिगस्तु तृष्णातरलं तदीयं १०.४३ नाव्या नदी सुप्रतरा बभूव । ६.४२ धीरं मनो बाहुबलेभंटानां निगदन्निति चक्रधरो बहुधा १७.८४ धैर्याम्बुधिधूम्रयश्च धूम- १४.७४ निचखान तवाभिधाङ्कितान् ४.३६ निजहरिध्वनिकम्पितकातरे ५.६६ Kw १४.३४ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् नितान्ततृष्णातुरमस्मदीयं २.४ नृपतेऽस्य जयः सुदुर्लभो ४.७५ नितान्तबन्धुप्रणयप्रदीपो २.१६ नप ! दधेऽथ कयाचन कान्तरुक्- ५.३५ निधयोऽपि तवैव दृश्यतां ४.४० नपनीतिलताऽधिरोपिता ४.२६ निन्यिरे वल्लवैर्गावो ३.८६ नृप ! नियोगमवाप्य बलाधिपः ५.१ निपतद्गजमुक्ताभिः १५.३७ नृप ! भवन्तमजः कुसुमस्फुरद्- ५.२८ निमीलिताक्षा हि कुमुवतीतति- १३.४६ नप ! संहर संहर संहर कोप... १७.७१ निमीलिताम्भोरुहपत्रनेत्रा ८.६ नफल्गु सस्यं परिहाय निस्तुषं १.६ नियन्ता जीवोऽयं तदनु.. १३.६२ नकरत्नांशुवैचित्र्य- . ३.६३ नियन्तुरानेमिविवृत्तिहारिभिः १.५० न्यग्लोकात् समुपगतैः कवेविनेयः १७.७ निर्घोषात् कुलिशरवा. १५.१२६ न्यमील्यताम्भोरुहिणीगणेन निर्दयत्वमधिकृत्य नरेन्द्रः १६.२० न्यवेशि तातेन भुजेऽस्य लक्ष्मी: २:११ निर्बलोऽपि परः स्वामिन् ! ११.५८ निर्मोकादिव संग्रामात् .. १५.८६ प--१०४. निर्ययौ नगरात् तूर्णं ११.६६ पञ्चबाण इवौद्धत्यनिर्वारिरिव कासारः ३.४१ पञ्चवर्णमयकेतुपरीतैः निववृते शिखिभिः सततोच्छलत् ५.१८ पञ्चवर्णमयपुष्पभङ्गियुक्- ७.६७ निःशङ्कमाज्ञा भरताधिपस्य १८.४ पञ्चास्यादिव सारङ्गः ३.४३ निशङ्कमातंकमरातिभूभृद्- २.२२ निःश्वासहार्यांशुकवीक्ष्यमाण- ८.३३ पटकुटी: परिताड्य निवत्स्यते ५.५६ निःसंशयेऽर्थे किमु संशयालु १२.६२ पटीमुपादाय मुखे च कान्ता ८.३० निःस्वानभम्भानकतूर्यनादैः पतङ्गा इव दीपान्तः, १५.१३ १५.३६ पतत्रिपत्रनिर्बादनिःस्वानलक्षेषु दशस्वपीह १४.२४ पतदश्रुकणाविलवक्त्ररुचिः १७.७६ निस्वाननिस्वानभियास्य नष्टः २.३८ निष्क्रान्तो भरतेश्वरोऽसुर... १८.८२ - पताकिनी श्रीभरतेश्वरस्य १०.१ निशाविरामोन्मिषदब्जराजी- ८.७२ पतिर्नदीनामिव वाडवेन १८.२६ ४.५ पत्तिभिः क्वचन शौर्यरसोद्यत्- निहताद् दृढमुष्टिना मया ६.६ निहतायनभूभृदुमिके ४.४ पत्तिभिः पत्तयः स्तम्बेरमैः नीतिमंडप ! पराक्रमसिन्धो ! १६.४३ पत्रिपत्रानिलोधूताः नीतोहमिन्द्रत्वमहं त्विदानी २.२० पद्मिनीनिचयसञ्चितोत्सवं ७.७० पद्मिनीवदनचारुगवाक्षः ६.६६ नीरन्ध्रमपि तत्सैन्यं १५.७० पयोदकाले करवालकाले १८.३६ नृप ! तनूभवति क्रमतोऽधुना ५.११ पयोधिडिण्डीरनितान्तकान्तं १८.१६ नृपतिर्न सखेति वाक्यतः ४.५८ पयोधिरिव कल्लौलैः ३.१०२ नपतेः स्वजनाश्च बान्धवा ४.५५ परं देव ! तव भ्राता ३.१०४ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.५२ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ३८१ परक्ष्माक्रमणोद्दाम ११.८३ पोतन्ति तारुण्यजलेऽबलानां ६.१२ परस्परामावहतोरपीहां २.१२ प्रकल्पिताकल्पविधिः क्षितीशः ८.२० पर्यायादथ भरतेशसिंहनादः १७.३३ प्रकाममंसार्पितहारहारिणं १.७६ पराङ मुखी काचन कान्तरूपं ८.३१ प्रक्षरन्मदजलैर्गजराजः ६.१४ परा भूतिरनेनात्र ३.२६ प्रज्ञावतां प्राग्रहरस्तमूचे १०.३७ परिदधेऽथ रणन्मणि शिञ्जिनी ५.३१ प्रणयस्तटिनीश्वरादिकैः ४.१६ परिस्फुरत्कान्तिसहस्रदीप्रं २.४५ प्रणयस्त्वयि नाभिभूपसू ४.५१ पल्लवः स्वयमशोकशाखिनः .. ७.१८ प्रणयस्य वशंवदो नृपः ४.५७ पल्लवोल्वणकरः प्रसूनदृक् ७.४० प्रणयात् त्वमजूहवस्तरां ४.५० पवमानरयोधुतधूलिभरैः १६.८० प्रणयामृतवीचिसञ्चयं पश्य पश्य गगनक्षितिचारि ६.५० प्रणयो यदुपाधिमत्तया ४.५४ पश्य स्वसेनां हरिदुःप्रधर्षां ६.६३ प्रणिपंत्य मुनिः कलिभङ्गकरः १७.८० पादयोनिपतिता स एव मे ७५८ प्रत्ययं तरसि भारतनेतुः १६.७६ पार्श्वपृष्ठपुरतः पुरन्ध्रिभिः ७२ प्रत्यर्थिनासीरहयक्षुराग्रो- १२.१६ पिकस्वरा मोदवती च यूनां १८.२३ प्रतापभृत्स्वामिबलाभिशङ्कितः १.३ पितृव्या ! ऽद्य ममाशंसां १५.१२७ प्रतापवत्वात्तरणे ! त्वयनां १८ ३४ पीयूषपाथोधिमहोमिगौरी . ' १४.२७ प्रतिपक्षवनद्र मावली ४.४ पुण्डरीकनयनविकासिभिः ७.७२ , प्रथमं भवदत्युपेक्षणाद् ४.४६ पुण्योदयाद् भवति सिद्धि. १८.८३ प्रथमतः परितापितविद्विष ५.६१ पुनः प्रभातमासाद्य . १५.६२ प्रथितिमान् नलिनीनिक्ये त्रयो- ५.४२ पनर्भारतभूपाल ! ११.४७ प्रदक्षिणीकृत्य धराधिपस्त्रिः १०.१६ पर: सूरं केऽपि जयं ययाचिरे १३ ६ प्रफुल्लककेल्लिनवीनपल्लवैः १.१५ पुरस्सररेलि बलं च पृष्ठे ६.३८ प्रबलेन सह स्वामिन ! परा चर ! भ्रातरमन्तेरण २.१३ प्रभो ! त्वदीयां समरस्य नीति १२.६१ पुरी परीलेयमनेकशो हयः १.४२ प्रवर्तितैस्तद्बलकामचारैः ६.४१. पुरोन्तरं प्राप्य तटं पयोनिधे- १.५५ प्रवर्धमानाधिकधैर्यशौर्य- . १४.८ पुरो मम स्थाष्णुरयं बलस्मयाद् १३.१६ प्रवीरतातान्वयनामकीत्ति- १४.२५ पुरोहितोदीरितमङ्गलाशीः . १४.१६ प्रसन्नतैवं जगति प्रवृत्ता ८.४७ पुष्पद्रु शाखा उपरि भ्रमन्ती ६.६८ प्रसरतीह वने कलमोल्लसत्- ५.२४ पुष्परेणुपरिपिञ्जरास्ययोः ७.३२ प्रसह्य केचित् कुलदेवतामगुः । १३.५ पुष्पशाखिशिखरावरूढये ७.४१ प्रसूनबाणान् प्रगुणीचकार १८.१७ . पूर्वमेव हृदयं विलासिना ७.५४ प्रसूनशय्या नवकण्टकाले- ८.४१ पृच्छापरश्चेद् भरताधिराज. ! १०.५६ प्रस्थितोऽथ जलकेलये नृपः Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ प्रहरणालय मेत्य ततः परं ५.७५ प्रागेव क्षितिप ! मयोदितं चराग्रे १७.५० प्रागेव समरारम्भः १५. ९६ ७.५८ प्राणनाथविरहासहाः स्त्रियः प्रातः प्रयाणाभिमुखोऽस्मि कान्ते ! ८.६८ प्रादुर्बभूवुर्युगपत्तदैव १४.६० प्रार्थ्यमानश्चिरं युद्धो ११.७६ प्रावर्तन्त शराः स्वरं १५.६३ प्रियः सुरा यौवनवृद्धिमत्ता प्रियस्य सीत्काररवान् मृगाक्ष्य: प्रियालि ! यादूक प्रणयो" प्रिये ! त्वदीया पदवी विशेषात् प्रीतिर्भवत्यस्ति ततो विचारः प्रेतभूः प्रमदकाननं शराः प्रेयसि प्रणयविह्वलं मनो प्रेयोजयश्रीवरणोत्सुकस्त्वं प्रेयोवचः स्फूर्जथुकल्पमेवं प्रोव चमन्येद्युरिति प्रणम्य फ - १. फुल्लल्लतामण्डपमध्यमीये ब - १४. बन्धूकपुष्पाणि विकासवन्ति बभूव कान्तानुनयप्रणामैः बभूव तस्मिन् समये कुचोष्ण Sairat मालोक्य बलादाच्छिद्य भूपालैः त्वदीये स्फुटमापतन्तः बलोत्कटं भूपमवाप्य युद्धे बलोत्कटैरेव भटैस्तदीयैः बहलीनाथपाथोधिः बहलीविषये किल तस्य सुतं १८. १८ १८.५१ ८. ३५ ८.३६ २.६२ ७.६२ ७.३३ भरत बाहुबलि महाकाव्यम् ४.५६ ३.६२ ११.१४ ४.६ बहवो नृपसंपदर्थिनः बहिर्मुक्तहयस्तम्बे बहुकृत्वः प्रविज्ञप्तः बहुधास्य बलं हि शैशवे भ - ४८. भने चापे कृपाणेsपि भटशौर्य बृहद्भानु भटाः केचिद् बौद्धत्यात् भटानां परवीरास्त्रः भटास्तदीयाः कलिकर्मकर्मठा भम्भाया वाद्यमानायाः भयाम्भोनिधिरुद्वेलः भरतनृपतिचारः सोऽथ भरतनृपतिसैन्याम्भोनिधिः‘" भरतराज ! समग्रममंक्रमा ६.१७ ६.४ भरतेशचरोद्यता १०.६७ भवं तितीर्षोर्भविनस्त्वमेवाभवतात् तटिनीश्वरोन्तरा भवत्यां लुब्धाशः कुलयति .. १०.९ भवदीययशोध्वगामिनः भवद्वधूवर्ग वियोगदीर्घभवन्नत्यै मौलिर्व्यरचि मम भवाँस्तुलां तस्य रथाङ्गपाणेः भवानमुं नागमनन्तविक्रमं भवान् बली यद्यपि सार्वभौमं ६.४४ ८.६७ १८.५६ ११.६३ भविष्यति श्वः समरो नरेशितुः ११.५७ भागधेयवदनाकलनीयं १४.७८ भारताधिपतिरम्बरवेश्म १२. ८ भारतेश्वरमिवेक्षितुमुच्चैः १२.११ भारतेश्वरभटास्त्विति दध्युः ११.४६ भारत्येति प्रवीराणां १७८७ भीतं बाहुबलेर्देशात् १५.३४ १.१.४० १५.२३ ११.२५ १३.१२ १.१.१६ ३.७७ १.७६ ८.७४ ५.७२ ३.६१ १०.१८ ४.१५ १३.६० ४.७६ १८.३७ १३.६३ २.८७ . १३.५४ २.६० १३.३३ १६.४० ६.७१ ६.२७ १६.६७ ३.६७ ३.७५ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11111 १०.६ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ३८३ भीताभिविबुधवधूभिरभ्रमार्गान् १७.२७ मनोरथमिव रथं १५.१११ भुजंगराज वसुधैकधुर्वहं १.२५ मन्दरा इव प्रत्यर्थि ११.४३ भुजद्वयीशौर्यमिवाक्षिगोचरं १.७७ मन्दाकिनीतीरलतालयेषु भुजद्वयोन्मूलितभूरुहावलि १.१७ मन्दाक्षमन्दाक्षमवेक्ष्य चाहं २.६५ भूचराभ्रचरसैन्य वितानः ६.२८ मन्मथोऽपि कुसुमैः प्रयुयुत्सुः १६.३४ भूचारिराजन्यबलातिरेकैः ६.२ मन्मुखं त्यज तद् वत्स ! १५.१२५ भूधरोपरि पुरः प्रसरभिः ६.२४ मम पृष्ठे स आयातः ११.१०४ भूपतिर्भरताधीशः - ३.६५ मम मन्तुमतो वहते रसना १७.८३ भूपालकोटिकोटीर- ११.२ मद्धिरेषा भरताधिपस्या- ६.४८ भूपालवक्षस्थललम्बिहार- २.३३. मम वक्षसि निःशङ्क ११.३८ भूभुजोऽत्र विभवन्ति चमूभिः १६.६८ ममाद्भुतं वाक्यमतः परं त्वं । ६.६४ भूभुजोधिकबलाः क्षितिपीठे .१६.२७ मयापि तन्मार्ग उरीकृतोऽयं १०.५८ भूभृतः परिजनैश्च धनैश्च १६.६६ मर्यादां परिजहतस्तवामरोक्तां १७.६४ भूभृतः समरमप्यवलेपाद् १६.१६ मल्लिकाकुसुमकुड्मललेखा- ६.३८ भूभृदाक्रमण चित्रं .. ३.६ मह जिनाधिपतिं कुसुमैर्नवैः ५.७३ भूभृत्सुनासीर ! रणं विधाय १०.५७ महत्तरस्यापि घटस्य संस्थितिः १३.१८ भूवासवा भूग्रहणककामाः १२.६ महाप्रतापानलतापितं द्विषद्- १.२६ भ्रातरः कोटिशस्तस्य १५.१०४ महाबलाख्यो बलसिन्धुनाथः १४.५१ भ्रात ! स्त्वं लघुरसि तत्... १७.६१ महाभुजः संप्रति योद्ध कामः १२.६ भ्राता मदीयोऽयमिति स्वचित्ते २.८८ महाभुजैनः प्रभुरीदृशैर्वृतः । १.२३ भ्रातुः संसप्पिदोंर्दर्प ३.३१ महामणिस्तम्भविराजितश्री:- १.७१ महामृगेन्द्रासनसन्निविष्टं । महायुधा ये युधि भारतेयाः १४.६५ मगधध्वनिमिश्रमन्मथ- ४.३१ महारणोर्वीधर एष दुर्गमः १३.१० मणिविराजितरशिबिकाकृते . ५.४८ महाहवौत्सुक्यभृतां तरस्विनां १३.४२ मण्डपः स यदि नीतिलताया ६.६२ महीभृदुत्तंस ! मरुज्जयेऽपि १२.३६ मत्कनिष्ठसहजक्षितिचक्रा- १६.५४ महीशितुर्दादशवर्षमात्रे २.७३ मत्तभृङ्गरुतशिञ्जिनीरवं . ७.१० महो मदीयं दिशि दक्षिणस्यां १८.११ मत्वा मुनिं तं भगवान् मदाब्धौ १८.६३ महोष्ट्रवामीशतसङ कुलायां ६.३३ मदीय भूपाम्बुदतूर्यजित- १.३६ मां विहाय यथा यासि ११.३० मदेन हस्तीव वनप्रदेशः .. २.४२ मातङ्गः परिजहिरे.. १७.३० मद्बाहुवायुसञ्चारे मा देवा मम वदनं त्रपातिदीनं १७.१६ मधुव्रतवातसहोदरं तमः १३.३४ मान एव भवता विदधेऽयं १६.१७ मनो मदीयं भवता सहैतं ६.११ मानमातङ्गमारूढ़ः ३.१०० . २.३५ म-६६.. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ मानवा जगति मानभृतः स्युः मानिनां प्रथमता किल तस्य मामपास्य किमनेन पूर्वतः मालवेश्वरमुख्यास्ते मिमानमन्तर्न दधानमुच्चकैः मुक्तावली काननराजलक्ष्म्या मुखं भटामामवलोक्य राजा मुञ्च मानिनि ! रुषं प्रियेऽधुना .मुदं ददानानवलोकितेतर - मुनिरेष बभूव महाव्रतभृत् मुमोचास्मै ततश्चक्रं मुहुर्मुहू राजमरालबालैः वितन्वन्नधरं व्रणाङ्क मूर्च्छाला त्रिदशवधूः पपात मूर्च्छाला मेदिनीपालाः ... मूर्ध्ना छत्रं दधदमलरुक्" मूर्ध्नाधर्यत भूवरेण त्र' मृगेन्द्रासनासीनं मौक्तिकैरिव यशोभिरशोभि मौनमुद्रामयोन्मुच्य मौनमेवमनयाप्युदीरिता य - ४६. यच्चकार रणचेष्टितमुच्चैः यच्छरा : करिकुम्भेषु यतोऽत्र सौख्यं तत एव दुःखं यत्र पूर्वमवरोधववृभिः यथा ते भ्रातरस्तातं यथाधिपत्यं त्रिदिवस्य जिष्णुः यथा पयोधरौन्नत्याद् यथारुणस्तीक्ष्णरुचेरिवाग्रे यदा समेता समरे तवाग्रजः यदि तद्बलमस्य दोर्द्वये - १६.२६ ६.६३ ७. १६ १५.८८ १.७४ ९.७४ ६. ६५ ३. ५३ १०.५१ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् यदि युधि निर्बंध: यदि भक्तिरिहास्ति बान्धवे ६.७० ३. २५ यदीयनामापि करोति दूरा यदीयसौन्दर्य मुदीक्ष्य दूरात् यद् युवां वृषभनाथतनूजी १२.७ ७.२८ १.८ १७.७६ १५.७४ यस्याजसमऽज्येष्ठतयाहमेव १८.१२ १८.५० १७.२८ ११.८६. युक्तमेवमनया कृतं दृशोः ५.७७ युगादिदेवं द्रुतमेत्य बुद्धाः १३.६६ युगादिदेवं हृदि केऽपि संदधुः ३.९४ युगादिदेवांह्रिनिषेवणाय ६.४० युगादिनेतुश्चरणारविन्दे ३.५ युग्मिधर्मनिपुणत्वमलोपि ७.६३ युद्धकल्लोलिनीनाथ युद्धे कृतोद्योगविधौ क्षितीशे युद्धे शस्त्रप्रहारोयं युद्धेऽस्मिन्नचलवरा निपातिनोमी युवद्वयीचित्तदरीनिवासियुवानमिन्दीवरपत्रनेत्र यद् वा भरतभूपाल: यशः सुधासोधमनुत्तराभं यशश्चन्द्रोदये स्फीते यशसां पटहेन पटुध्वनिना १७.८१ यस्यात्रापि हि विश्वविस्मयकरः .. ६.७५ २.६ या कापि विद्या कुलवर्तिनी व:यात्रान्हि जिनमभ्यर्च्य यावत् सहस्रकिरणो गगनावगाही युवासि विद्याधरमेदिनीश ! युष्माभिरेवारचि वैरिभङ्गः ये धैर्यवन्तः पुरतः सरन्तु २.७७ ये पातिता रिपुभिरायुधघोर"" ११.५४ ये भवन्तमवज्ञाय २.४३ येषां यदूनं च तदर्थयध्वं १३.२७ योऽखण्डषट्खण्डधराधराणां यो विवेकतरणेरुदयाद्रि; ४.८ १५. १२६ ४.६६ ८.४० ६.६६ १६.१० ३.१६ .१२.१८ ११.२७ १२.२५ ११.६७ ७.८१ ७.२० १०.६० १३.७ १०.७१ १०.६१ १६.१३ १५.१६ १२.५ ११.३२ १७.६ १८.१३ १०.३४ १०.४० १२.३ १२.२८ १६.७६ ·११.४४ १२.२२ २.४७ ६.६१ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ३८५ ११.५० .४.७४ योषितां प्रतिकृतिलाशये ७.७३ राजा ऋतूनामहमस्मि शश्वत् १८.६ योषितामवतरेन्न मानसात् ७.५५ राजा बाहुबलीबलेन सहितः... १३.६७ राजेन्द्र ! तं हेतुमहं तु जाने २.८३ र–३६. राजेन्द्रलीला अपि तेन सर्वा १८.७१ रिक्तीबभूवुः केषांचिद् १५.३२ रंता स चक्री समयः स सा श्रीः १८.२५ ४.३५ रिपुवंशकृते तवाग्रतोऽहरक्तार्धकुम्भमुक्ताभिः १५.११० रे स्नेह ! मन्मनोगेह- ३.२१ रजस्वलाः काननवल्ल्य एता : १०.३ रणक्षिति तक्षशिलाक्षितीशः १४.६ ल-८. रणव्योम्नि परे वीराः ११.३६ रतिरधीश ! कयाचिदभीप्स्यते ५.४३ . लक्षत्रयी तनूजानां ११.८८ रत्नप्रदीपप्रहतान्धकारं लज्जा युवत्याशयसङ्गिनीह। १८.१६ रत्नानि निधयश्चास्य . ३.१८ ललाटपट्टोन्नतिमत्त्वसूचि- १०:३३ रत्नारिरेष प्रकटप्रतापः १४.५५ लीलया दन्तिनां लक्ष रत्नारिर्वारितामित्रः १५.८० लीलयैव करिणीशकरात्ता ६.१६ रथन्ति भूपाः किल तत्र वीराः १२.४ । लोकानां मुखशैलाग्रात् ३.४५ रथपत्तितुरङ्गसिन्धुर लोलल्लतामण्डपमध्यलीनः ६.४६ रथाङ्गना-नोविरहप्रदानाद्- ८.७० लौल्यमेति हृदयं हि मदीयं रथाङ्गनाम्नोः सुरसिन्धुसैकते १३.३८ रथानारोहतः कौश्चित् १५.४७ व--१०४. रथाश्च वाहाश्च गजाश्च सर्वे १२.२६ वंश एष शतधा परिवृद्धः १६.३३ रथै रथाङ्गध्वनिबन्धबन्धुरैः १.५१ वच्मि देवि ! भवती. चकार किं. ७.४६ रदद्वयीचिन्हितवप्रभित्तिभिः १.४७ वज्राहतानां वसुधाधराणां २.३७ रम्भया श्रितनभोन्तरयाऽयं . ६.३५ वधूमुखस्वादुरसैनिषिक्तः . १८.२१ रविः किमद्यापि न हन्ति शर्वरी १३.४४ वधूस्तनोत्सङ्गकृताधिरोहः १८.५२ राकामुखमिवोदञ्च- ११.३ वनं सप्रासादं नृपतिरुपगन्तुं. ६.७७ राजकुञ्जर ! तवाहवलीला १६.१८ वनभुवो निलयादपि कामिनः ५.४६ राजन् ! पुत्रेषु पश्यत्सु . १५.६५ वनायुदेश्यः पवनातिपातिभिः १.४३ राजन् ! भवबन्धुबलाम्बुराशिः २.४४. वयं चराः स्वामिनिदेशनिघ्नाः । २.२६ राजन् ! भवबन्धुरपास्य राज्यं १८.६० वयं वीरा अयं स्वामी ३.४८ राजन् ! भवन्तं भरताधिराजः २.२४ वराङ्गनावीजितचामरश्रीः १८.७४ राजमार्गमतिलध्य गवेन्द्रः ६.१ वशीकृतान्तःकरणस्तथापि २.६८ राजलोकनकृते समुपेतं ६.१५ वसुधाधिपतेर्वचःशरा ४.६३ राजसाः किल भवन्ति महीन्द्रा ६.५६ वसुधेयमपीहते पति ४.५३ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वहन्नवश्यायकणान् कृशानु- १८.५३ विद्याभृतामीश ! वदामि किं ते १०.४१ वहन् बालातपारक्त- ३.४ विद्याभृत् सुगतिस्तद्वत् १५.१०७ वाचालमौलिमाणिक्य ! ११.६० विद्याभृन्नरभिल्लेन्द्र- ११.१०२ वाच्यो दूत ! ममाकूतो ३.२८ विद्युल्लतालिङ्गितवारिदालि १८.३५ वाजिराजिभिरिभैश्च विवृद्धात् ६.५७ विद्रवन्तमिति स्वरं १५.४६ वातवेल्लिततरुप्रपातिभिः ७.६ विधुहिमानीभिरधीकृतस्तदु- . १८.४७ वामदक्षिणकरद्वयमेतत् ६.४१ विधृतवागुरिवागुरिकावली- . ५.५४ वारणाः कुथपरिष्कृतदेहान् ६.६ विधेरिवास्मादऽहितहितैः पुनः .. १.३३ वाहिनीपतिरयं जलताढयः ६.४२ विनिवेश्य विभुनिजे पदे ४.४६ वाहिनीभिरवनीधरगाभिः ६.४ विनिस्सरच्चञ्चलचञ्चरीक- ' ८.१५ विकचतामरसा तव तत्र किं ५.५२ विनिहत्य रणाङ्गणागतं . ४.६५ विकस्वराम्भोजमुखी परिस्फुरद्- १.१३ विभो ! तवालोकरवं ददत्यमूः १३.५३ विचित्रचित्रं मणिभिः समाचितं १.६८ वियोगतः प्राणपतेः पतन्ती ६.२१ . विचित्रचित्रार्पितचित्तचित्रं १०.२५ वियोगदीनाक्षमवेक्ष्य वक्त्रं . ६.७ विचित्रवर्णाः स्फुटमेकवर्णाः ८.५८ वियोगिनिश्वासनितान्तधूमैः १८.३८ विचित्रवेषा विशदैकवेषाः ८.६० वियोगिनीनां विरहानलस्य ८.६ विजितस्तव बान्धवत्वतः ४.४४ विरचय्य भवन्तमुच्चकैः ४.३७ विज्ञातं किल समरान्मयेत्य. १७.५६ विरहिणां ददति प्रतिवासरं ५.५५ विततमङ्गलजङ्गलपार्थिवं ५.६३ विरोधिलक्ष्मीकबरीविडम्बिनं १.४८ वितनोमि यदीह विग्रहं ४.३ विलङ्गिताध्वा कतिचिद् दिनैश्चरः १.४१ वितन्वताऽनेन विहारलीला १४.५४ विलसितं किमिहातुलसंमदः ५.१२ वितन्वती काचिदपूर्वभूषा ८.३४ विलासिनीभिर्ययिरे युवानः ८.२२ वितयं चित्तान्तरिति प्रणष्ट: २.६३ विलासिनीविभ्रमचारुलीला १०.१० विदित्वरी देव ! भवद्भुजद्वयी १३.२२ विलोकतां न: समरं तथाविधं १३.२४ विद्याधरधरेन्द्रेण १५.८३ विलोक्य तं मन्मथहारिरूपं २.६० विद्याधरधरेन्द्रौ ता- १५.१०५ विलोक्य दीपान् नृपसौधसंस्थान् ८.५० विद्याधर ! मयैव त्वं १५.११४ विलोक्य यत् सैन्ययावधूतं २.३६ विद्याधरवधूवर्ग ११.४५ विश्वंभराचक्रजयो ममापि १२.३३ विद्याधरेन्द्रा अपि भूचरेन्द्राः १४.७७ विश्वंभराव्योमचरैर्धरित्री ६३१ विद्याधरेन्द्रास्त्वनवद्यविद्या १२.५७ विश्वाधिराजः कदलीविलास- ८.४३ विद्याधरेन्द्रोऽनिलवेग एष १४:५३ विश्वेश्वरो विहरति प्रभुरादिदेवः१५.१३१ विद्याधरैराढयमलङ्घनीय २.४८ विषीद मा तन्वि ! चरालयं स्वं ९.२० विद्याधरैोमपथो जगाहे .४० विस्मयो न युवयोरपि शक्ता- १६.५० Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ३८७ विस्मरन्ति दयिता न वल्लभं ७.५७ शरद्यवापद् रसमिक्षुयष्टि: १८.४६ विस्मृत्य शुद्धान्तवधूविलासा- २.६७ शरसादऽकरोदेष १५.४८ विहारमध्ये विजहार राजा १०.३० शरासारैर्वितन्वाना १५.५३ विहिते मनसि त्वयायितुं ४.३८ शरैरनावृत्तमुख मनोतिगैः १.२१ वीक्ष्य कोपकरालाक्षं . १५.५८ शशाङ्ककान्तेन समं मिलन्त्यसौ १३.३६ वीरविग्रहवृत्तान्त ३.४४ शशाङ्क ! चित्रं परिलोलतारकं १३.३६ वीरसूर्जननी तेऽस्तु . ११.३६ शार्दूलकेतुर्गरुडाभवाजी १४.७६ वीराः केचिद् रणोत्थाष्णु- १५.२२ शार्दूलमुख्या इतरेऽपि पुत्राः १२.५६ वीराणामस्ततीराणां . १५.१८ शासनं भरतनेतुरितीदं १६.७२ वेत्त्ययं च बलवानहमेकः. १६.५३ शिलामुखास्त्वस्य शरासमुक्ताः १४.४३ वेत्रपाणिसुचरीकृतमार्गः ६.७३ . शुण्डागण्डोपधानाढ्य- ३.५५ वैमानिकः स्यन्दनसन्निविष्टः २.५२ शुद्धान्तवेषस्य बभूव शोभा ८.२१ वैरनिर्यातनात् तुष्टाः १५.७७ शृङ्गाग्रदेशापितहेमकुम्भं १०.२६ वैरिद्रुवारो युधि वीरमानी १४.७३ शृङ्गारदध्नो नवनीतपिण्डः ८.४८ वैरिशस्त्रनिहतैरिह शूरैः १६.४ शृङ्गारयोनेः कुसुमानि बाणाः ६.१४ वोहित्थवान् रथस्तोमैः १५.३८ शेषाहे ! त्वमपि गुरु मदीयभार १७.५ व्यजीज्ञपद् दूतिमुखेन भूपं . . २.६१ शोषं रसानां किरणैः खरांशु १८.३३ व्यधित कापि तवालसलोचना ५.३९ शौर्याब्जिनीखण्ड सरोवरस्त्व- १०.४६ व्यपास्ता जीवो मां क्वचिदपि... १३.६१ श्यामार्जुनाभद्विपयोविवादः ८.५६ व्यानशे तव यशश्चतुराशा ६.४६ श्येनध्वजः सादितशत्रुपक्षः .. १४.४८ व्याहृता अपि सुरा इति हृष्टाः १६.६३ श्रमच्छिदे तस्य विरुद्धपुष्पव- .१.१४ व्योमगैरिति रजोम्बरमेतद् ६.१३ श्रवणपत्रकमौक्तिकराजिना ५.३६ व्योमगर्न च विमाननिविष्टः ६.२६ श्रवणयोस्त्वदनु स्फुटमिच्छती ५.३४ व्योमेव रविचन्द्राभ्यां १५.११६ श्रान्ताः प्रसूनाऽस्तरणेषु केचित् १०.७ श्रितस्त्वमेवाभ्यधिकोदयत्वाद् । १२.३६ श-४१. ... - श्रीआदिदेवस्य तनूरुहत्वात् १२.२७ शक्त्या निर्माय सोऽविक्षत् १५.७५ श्रीतातपादाब्जरजःपवित्री- २.१७ शङ्कमानो यमो यस्मात् ३.६६ श्रीतातहंसेन शमंगतेन २.१० शतं सुतानां वृषभध्वजेन २.२६ श्रीमयुगादेर्जगदीश्वरस्य ६.७० शम्बेनाचलमिव नायक: सुराणां १७.४२ श्रीमन् ! भारतभूपुरन्दर !... १७.८४ शय्यां विहाय कुसुमास्तरणो.. ८.७५ श्रुतयापि रणस्य वार्तया ४.६ शरच्छशाङ्कद्युतिपुञ्जपाण्डुरं १.४ श्लेषात् तवैवाहनि वामनेत्रे ! ८.३६ शरदि पङ्कभरा न भवत्क्षया. ५.१६ श्वः कुत्र भावी ध्वजिनीनिवेश; ६.५७ शरदुपैति विधातुमनन्तरं .. ५.७ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ .. · भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ष-११. स एव बन्धुः समये य एता २.७४ स कन्दरद्वारमवार्यवीर्यः २.५६ षट्खण्डरखण्डीकृतकाश्यपीन्द्र- २.७१ सकलराजकमेतमवेत्य स ५.७० षट्खण्डदेशान्तनिवासिनोऽमी १२.५६ स कालमेघो रिपुकालमेघः १४.७५ षट्खण्ड्या जयसमये न यादृशी ते १७.४६ स किन्नरो नात्र स नात्र मानवः १.३४ षट्खण्डविजयात् तेन ३.२४ सख्याः पुरः स्वरमुदीरिताया- . ८.४२ षट्खण्डाखण्डलत्वाच्च ३.१० स गन्धधूलीमृगसंश्रिताः शिला १.७ षट्खण्डाधिपतिरथ क्रुधा करालः १७.५५ सगन्धसाराधिकसारतोया- .. १८.३२ षटखण्डाधिपतिरयं तदीयवाचा ३.१०६ स चित्रशालासु मनोरमासु १८.४५ षट्खण्डी किंकरीभूय ११.६४ सचिवैः प्रतिबोध्य कथञ्चिदयं ' १७.८६ षट्पदाञ्जनभरं लतालयः . ७.६ सचिवोत्तंस ! निस्त्रिशं .११.७५ षड्तुभूरुहसंपदमाश्रिते ५.५३ सज्येष्ठं तदनु विलोक्य.... १७.५८ षाड्गुण्यनैपुण्यभरं भजन्तु १२.२१ सतनयास्तनया अपि लक्षशः . स तुरगैविविधैर्मुमुदे गुण- .:. ५.३ स-१८६. सत्कृत्य रत्नकनकाभरणप्रदानः ३.१०७ सत्यं किलतद् वचनं भगिन्योः १८.६६ संकेतिताजेर्जगतीं जगाम १४.२६ सत्वरं त्वं मम स्नेहा- ११.३७ संगरोगर इवाकलनीयः १६.२१ स दर्शनात् क्षोणिपतेः प्रकंपितः १.७८ संगरोयमजनिष्ट महान् नौ १६.५६ स दैत्यदावानलनामधेयं १४.१८ संग्रामायोद्यतं कान्तं ३.८१ सद्बलाबलरणे विजयश्री- १६.३२ संघट्टस्फुरदनलस्फुलिङ्गनश्यत्- १७.५४ सदभिरेव विहिता स्थितिरुच्चैः १६.४७ संचरबलरजोनिकुरम्बैः ६.२३ सद्यो विद्याधरद्वन्द्व- १५.११७ संत्रस्यत्तदनु मृगैरिव द्विपेन्द्रः १७.२३ सनाथा जीवेन प्रसभमुपभुक्षे... १३.५६ संदेशहारी निजनायकस्य २.२७ स निवृतिक्षेत्रमुदीक्ष्य दूरतः १.१० संनिधायिन्यहं चास्य ३.३७ स नपुरारावपदाभिघातात् १८.२२ संप्रति कोशलास्वामी ११.६० स नौविमानरवतीर्यसिन्धू- २.५६ संयता सह मया किमवाप्यं १६.५७ सन्नद्धबद्धसन्नाहाः ११.५० संयतोऽसि निबिडं मयाऽधुना ७.३१ संरुष्टः सपदि तदीयया गिरेति १७.६३ सन्मल्लिकामोदसुगन्धिवाटी सन्नद्धाः शस्त्रसंपूर्णाः .. १५.१०२ १८.४० संवर्तानिलसंकाश १५.७१ सपताकी सभूपालः १५.३० संश्रितः सकलश्रीभिः ३.३२ सपदि काचिदधान्मणिनूपुरं - ५.३० संश्रितः स ललनाभिरुल्लसद्- ७.१५ सपदि पीतनदीरमणोदयात् ५.२१ संहर्ता त्रिजगदनेन मुष्टिनायं १७.६८ स भावनाभावितचित्तवृत्तिः १८.७८ स इन्द्रनीलाश्ममयकमण्डपं १.७९. सभासीनमऽदीनास्ते Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.१४ ७.५६ ८.७१ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ३८६ स भूभृदुत्कृष्टतरप्रभावः २.५८ ससंभ्रमं काचिदुपेत्य कान्ता ८.२६ स भूरुहो नास्ति जगत्त्रयेऽपि ६.६६ ससंभ्रम विश्मपीह विश्वं १४.६१ समं समग्राभिरथाङ्गनाभिः १८.५ स साकेत पुरोद्देशान- ३.६० समत्ववैषम्यसतत्त्ववेद स सिन्धुनाथः पुरतः स्थितस्ते १२.५० समन्ततो लक्षचतुष्कयुक्ता- १४.३३ स सिन्धुरैः सन्निहिताभ्रमुप्रिय- १.४६ स मन्मुष्टिप्रदीपान्तः ३.२२ स सौरभेयीरवलोक्य शङ्कितः १.५ सममिलेश्वर ! संप्रति दीप्यते ५.१४ सस्नेहं काचिदित्याह ३.८२ स मल्लिकाक्रोडविलोललीलः .. २.५७ सस्यरत्नवसनादयस्त्वमी समीरणः पद्मपरागपूर- १८.४३ सहस्रकोटीशतलक्षवीर- १४.३५ समीरितो मागधवाग्भिरित्यसौ १३.५५ सहस्रशस्त्वां परिचर्ययन्ति १२.६० समुपयन्तु विमानविहारिणः ५.६८ सहस्रशो भूमिभुजोप्यमी ते १२.४६ सरसीरुहिणीव मुनीन्द्रतनुः . १७.७७ सा कंकालमयी मुण्ड १५.२७ स राजधानीभिरनङ्गभूपते- १.३६ साकूतहेतुः पुरुहूतकेतुः १४.६७ सरुषा विनिषेधयेद् भ्र वा ४.६७ सात्विका इह भवन्ति हि केचित् ६.५८ ।। सरोजिनीभिः किल वासरान्ते .. सा प्रीतिरङ्गीक्रियते मया नो २.१४ सर्वजातिकुसुमश्रियाञ्चितं . ७.६८ सा भारती भारतभूमिभर्तुः २.२५ सर्वतः पर्वताः पेतुः १५.२ सा भारती भारतवासवस्य १८.६६ सर्वतश्चंचलाकारान् सर्वतोस्य फलिनीलतासिते सामन्तभूमन्त इमेप्यनेके १२.३२ ७:१३ सर्वत्र योगे सुयता महीश! सामान्यं वचनरणं त्ववेहि... . १७.३५ १०.६३ सर्वत्र रोदसी कुक्षि- . सारङ्गाणामिवाम्भोद- ११.१८ ११.६५ सर्वत्रापि खेलक्षेत्र सा राजधानी ऋषभाङ्गजस्य . ३.८८ सर्वदैकसुकृती जगदन्तः सार्वभौम ! भवता स्पृहणीयः ६.३६ १६.४६ सर्वदैव चतुरासि भामिनि ! ७.६४ सार्वभौमस्तमायातं ३.६५ सर्वेपि शक्रप्रमुखा धुलोका- २.७२ सावरोधनृपतेः समागमा ७.७५ सर्वेषु भूभृत्सु विभाति सोयं. २.३६ सिंहकर्णो रणाम्भोधि ११.८२ सर्वोत्तरासङ्गविधि विधाय १०.१५ सिंहनादमुखरा अपि केचित् १६.५ सलीलमुत्पाट्य गिरिर्गजेन्द्रवन् .२२ सिंहनादमुखरैरिह वीरैः ६.१० स वामनेत्राकुचघर्मनीतो- १८.५७ सिंहसेनोऽरिसेनासु ११.८४ स विभुः किमिहावनेर्मतः ४.२१ सिंहासनार्धं किल वज्रपाणि: २.६४ स विवेश रथारूढः १५.४३ सिंहिकासुतमेवैकं ३.१२ स वीरो यस्य शस्त्राः ३.५० सितच्छदानां चरतामनन्ते स वेपमानं सरसीजले विधुं १.११ सितद्युतौ दूरमुदित्वरेऽपि ८.५१ स शंखकुन्देन्दुवलक्षरोचिषः । १.५६ सितांशुवाहास्तुमुलेन तेन ३.६४ c. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् सुगेयकृष्टाभिरुदग्रकन्धरं १.३८ सोदर्योद्दलनकरी भुजद्वयी मे १७.४६ सुता मदीया अपि च स्तनन्धया १३.१४ सोयं विनीलाश्वरथी कनीयान् १४.५० सुतामुपादाय नृपाश्च केचित् २.३४ सौधं सुधाधामकलाकलाप- १८.४१ सुधामय इवानन्द- ११.४१ सौधादपि प्रमुमुदे पटवेश्मनासौ ६.७४ सुधारसस्वादुफलानि नो भटैः १.१८ सौराष्ट्रराष्ट्रस्य पतिः पुरोऽयं १२.५३. सुभगराज ! कयाचन कान्तया ५.४४ स्कन्धवारं ततो यातां १५.६३ सुमेरुस्त्वमसि स्वामि- ११.२४ स्खलति स्नेहशैलेन्द्रे. . . . ११.३४ सुरकिंकर ! किं करवाणि तवा- १७.८२ स्तवप्रसूनाक्षतसंचयस्ततः .. १३.५७ सुरभिगन्धिविकस्वरमल्लिका- ५.६ स्तुत्वा च नत्वा च युगादिदेव- १०.२३ सुरभिस्त्वं यशःकुन्दैः . ११.२६ स्तुत्वेति क्षितिवासवो जिनवरं". १३.६४ सुरा भवन्तः क्वचिदप्ययन्तः १८.५६ स्त्रीणामालोकनोत्कण्ठा-. . ११.६८ सुरासुरेन्द्राविव मत्तमत्सरौ १३.२ स्थेयसी वसुमती न च लक्ष्मीः .. १६.४६ सुलभा हरिणीदृशः श्रियः ४.२७ स्नानार्द्रमुक्तालकबिन्दुपंक्ति- . . ८.२ सुलोचनाभिः सममाससञ्जः १८.२ स्निग्धाभिरेवात्र सुलोचनाभिः १.२६ सुलोचनानां मुखमेव मोहने १३.१३ . स्नेहो मयि विधीयेत ३.६८ सुवर्णकुम्भस्तनशालिनी स्फुरत्- १.५७ स्मेरपुष्पकरवीरवीरुधा ७.४ सुषेणसैन्याधिपतिः समेत्य . ६.४३ स्मेरवक्त्रकमलोपरिलोलत- ६.१८ सुषेणसन्याधिपते ! स्वसैन्यं गाभियते । स्वसैन्य १२.३० स्मेरैः प्रसूनः स्मितमादधानाः १२.३० १८.८ सुषेणोप्यस्य सेनानी: ११.६८ स्यन्दनध्वजनिवेशितकायाः १६.६ सेनयाथ तमनप्रसरन्त्या ६.३ स्वःसदोऽपिं गगनादवतेरुः १६.१ सेनानिवेशा न पतेरिहास्य २.४६ स्वःसिन्धूदकलहरीवलक्षवक्त्राः १७.६६ सेनानिवेशा बहुशो बभूवुः ६.५४ स्वःसिन्धोः पुलिनरजांसि :: १७.१ सैनिकाः ! किल युगादिजिनो वः १६.२ स्वजनैर्न च बान्धवैर्न वा ४.६४ सैन्यं भारतशक्रस्या- १५.६० स्वतातजन्मोत्सववारिणार्चितः १.२७ सैन्ययो:रधुर्याणां १५.७ स्वदेशसीमान्तमुपेत्य राजा . ६.५५ सैन्यस्य घोषो विपिनान्तरेऽभूत् ६.५३ स्वप्नान्तरे त्वं व्यवलोकनीयः ६.१६ सैन्याग्रवर्ती किल सिंहसेनः १४.४६ स्वप्नान्तरेऽपि द्विषतां ददाति १२.४८ सैन्याश्वखुरतालोद्य तू- ११.१०१ स्वयमेव निजं निहत्य यो- ४.२० सैन्ये सूर्ययशाः सूर्यो १५.१०३ स्वरूपलावण्यकलावलेपा- २.६४ सैन्यः केशेषु संगृह्य १५.२५ स्वसूनुसारङ्गदृशां मुखेषु १२.२३ सैन्यः समेता रचितारिदैन्यः १२.१० स्वस्वनागहयपत्तिरथाढ्याः ६.५२ सोत्साहं कथमपि सिंहघूर्णिताक्षं १७.१६ स्वस्वनायकबलाभ्यधिकत्वान् १६.७७ सोथ स्वस्वामिनो देशं ३.७४ स्वस्ववाहनवरादवतेरे ६.७२ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ३६१ स्वस्वामिविजयाश्चर्य ३.७३ हतेभकुम्भस्थलजन्ममौक्तिकः १.१६ स्वामिन् ! सीमवधूः स्वीया ११.१२ हरिन्नवोढेन च शातमन्यवी १३.५१ स्वेदलुप्ततिलके प्रियानने ७.४५ हस्त्यश्वपृष्ठया निपतन्ति राजन् ! ६.४६ स्वेदोदबिन्दूनधिभालपट्ट ____.५० हस्तापितधनुर्बाणाः १५.१०६ हाराभिरामस्तनमण्डलीभिः १८.३१ ह-१३. हा ! शैत्यं तुहिनगिरिरितीरयन्त्यः १७.२६ हास्तिकाश्वीयपादाः हंसः प्रयातश्चरमाद्रिचूलां . ८.१३ हिरण्मयं रत्नमयं युगादे- १४.१२ हठादपास्ता भरतस्य हस्तान् २.८ हतुक्षेत्र भूम्यां परिवापमेतैः २.१५ हठाद् रिपूणां वसुधा विशेषात् ६.६२ हेषारवोन्नादितदिविभागान् १४.४ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितानि प्रथमः सर्गः० क्रमं न लुम्पन्ति हि सत्तमाः क्वचित् [१४] ० सकण्टका एव हि दुर्गमा द्रुमाः [१६] ० .."किमसाध्यमुझेटः ? [१८] • "महौजसां ह्योजसि कोऽपि विस्मयः ? [२१] . ० प्रभुः स एवात्र यतो विशेषतः , फलाफलावाप्तिरनुत्तरा भवेत् [३३] • निशम्य कर्णान्तकटु प्रियं वचो , वदन्ति वाचा न हि वाछिमनः क्वचित् [३७] • न हि त्वरन्ते क्वचिदर्थकारिणः [४०] • विलम्बनं स्वामिपुरो हिताय नो [४०] ० विवेकवान्न्यायमिवातुलैर्गुणैः [६७] ० क्वचिदपि हि विधिज्ञा नैव लुम्पन्ति मार्गम् [७६] .. द्वितीयः सर्गः• नपा महोभिद्य विलङ्घनीयाः [१]. ० मुखेन दृष्ट्या च विदन्ति सर्वं , विचक्षणा: स्वान्तगतं हि भावम् [२] ० दूरेस्तु धाराधरवारिधारा , सारङ्गमानन्दति गजिरेव [४] ० .. पयोदकालः, शतहृदादर्शनतो हि वेद्यः [६] . शक्तोऽपि दावाग्निररण्यदाहे , सारथ्यमीहेत समीरणस्य [२१] ० "नृपाश्चारपुरस्सरा हि [२२] . .. क्षितिवल्लभा हि , नीतिप्रियाः प्रीतिपरा न चैवम् [२४] ० मलीमसं वारिदवारि भावि , न हि श्रिये किं सरसीवरस्य ? [२८] • सतां हि वृत्तं सततं प्रवृत्त्यै [२६] • वज्राहतानां वसुधाधराणां , भवेच्छरण्यः किल वारिराशिः [३७] ३६२ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० ० ० सुभाषितानि . ३६३ ० सतां प्रभावो हि वचोतिरिक्तः [४६] ० औत्कृष्ट्यतः प्राघुणकेषु सत्सु , स्वीयं हि माहात्म्यमलोपनीयम् [५८] ० का स्मेरनेत्रा विभवेदलज्जा , कामाभिलाषं स्वमुखेन वक्तुम् [६१] ० प्रीतिॉ नूहा...... [६२] ० पीयूषसिन्धोरमृतकसङ्गः , कथं निवेद्यो लवणाब्धिमीनः ? [६३] ० सर्वान्तराकारविदो ह्यभिज्ञाः [६५] ० संपक्तिरन्योन्यरसातिरेकात् [६६] ० नालेः करीरद्रुमविस्मृतिः स्यात् , किं मल्लिकापुष्परसप्रसक्त्या ? [६७] ० सन्तो युगान्तेप्यविलङ्घनीयान् , धर्मार्थकामान् न विलङ्घयन्ति [६८] ० न दोष्मतां चित्रकरं हि किञ्चित् [७०] ० पुरातनः कोऽपि विधिन लोप्यः [७२] ० स एव बन्धुः समये य एता [७४] ० तदेव सौजन्यमजातदौष्ठ्यम् [७४] ० स एव राजा न सहेत योत्राहमिन्द्रतां कस्यचिदुद्भटस्य [७४] ० न बन्धुषु भ्रातृषु नैव ताते , न नात्र संबन्धिषु राज्यकृभिः । स्नेहो विधेयो न [७५] ० त्राता सुतानां विधुरे हि तातः [७६] ० कोपः प्रणामान्त इहोत्तमानामनुत्तमानां जननावधिहि [८०] ० शुभाशुभं क्षोणिभुजे निवेद्यं , नियोगिभित्मिनरा हि ते स्युः [८३] ० विश्वंभरा हि क्वचिदस्तिवीरा [८५] .. ० निम्नोऽतिदीर्घः सरसीवरः किं , पाथोनिधेर्याति कियन्तमंशम् [८७] ० 'सुखाय , न संस्तवो हि क्षितिवल्लभेषु [८८] • मदोत्कटोऽपि द्विरदाधिराजः , किं दन्तघातैर्व्यथते सुमेरुम् ? [१०] ० महानपि द्योतयते हि दीपो , गृहं जगद्द्योतकरोऽत्र भानुः [११] ० मनस्विभिः स्वं हि बलं विचार्यम् [६३] ० ज्येष्ठो हि बन्धुः पितृवत् प्रसाद्यः [६५] तृतीयः सर्गः-- . . ० किं पादा अपि नोष्णांशोभूभृदाक्रमणोल्बणाः ? [[] ० महाब्धिर्मीनबाहुल्यात् , किमगस्तेर्भयङ्करः ? [१७] ० ....."रणे स्नेहो , न हि वैरिजयप्रदः [२१] ० किं स्खलेदर्कतूलेषु , पवनः पातितद्रुमः ? [२७] • त्रातारो नैव संग्रामे , गजाश्वरथपत्तयः [२८] ० आडम्बरो हि बालानां , विस्मापयति मानसम् [२६] ० आरूढस्तरुशाखाग्रं , वनौकाः क्षितिलम्बिनम् । किं गजस्य तिरस्कारं , करोति मदविह्वलः ? [३३] Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ • स्वर्णं तदेव यद्वह्नौ विशुद्धं निहतं घनैः [५० ] , • हठो हि बलवत्तरः [ ६८ ] • कीर्तिप्रिया नृपाः [ ६९ ] ० • स्वामिसंभाषिता भृत्या, गच्छन्ति हि परां मुदम् [१७] चतुर्थः सर्गः - • समरः शौर्यवतां हि वल्लभः [७] • अपरीक्षितमेव पूर्वतो विदुषां वस्त्वनुतापकृद् भवेत् [ 8 ] o • जलदो हि कृशानुशान्तये प्रभविष्णुः शमयेन्नविद्युतम् [१०] 1 • अधिक: सिन्धुवराद्धि मत्सरी [१६] ० अकारो हिदुस्त्यजः [ ७०] हृदयावनिलब्धसंभवः, प्रणयः सज्जनयोर्न हि (अपचीयते) क्वचित् [ १७ ] अगुणानपि नज्झति स्वकान् स हि गम्भीरिमसंश्रितः पुमान् [१९] मृतं तिष्ठति नागभीरके [१६] , ० • स्वयमेव निजं निहत्य योऽनुशयीतैति स निन्दनीयताम् । तटशाखिनिपातनाद् रयः, सरितः किं न तटं प्रकाशयेत् ? [२०] o O , ० स विभुः किमिहावनेर्मतः स्वपरौ वेत्ति हिताहितौ न यः ? - [२१] ० तरसैव न केवलं विभोर्मतिमत्ताधिकवृद्धिमश्नुते [२२] कुलकेतुरिहोच्यते स यः स्वकुलं रक्षति सर्वथापदः [२३] 1 अविमृश्य करोति यः क्रियां, बहुधा सोनुशयीत तत्फले [२४] शुचये सुरवाहिनीजलं जगतामस्ति [२५] o भरत बाहुबलि महाकाव्यम् ० 1 • न हि बन्धु रवाप्यते पुनर्विधुरे तिष्ठति यो वृतीयितुम् [२७] ० रिपवो हि प्रबला नताः श्रिये [३७] o इतराद्रिमहोन्नतत्त्वतः किमु नीचोत्र सुपर्वपर्वत: ? [४३] 1 , o घृतये हि प्रणयो द्विपक्षतः [ ५१ ] • प्रणयो यदुपाधिमत्तया परिहीयेत दिने दिनेऽधिकम् [ ५४ ] , ० • प्रणये कलहो न साम्प्रतं [ ५६ ] • निवसन्नपि विग्रहान्तरे विकृतो व्याधिरलं गुणाय किम् ? [ ५७ ] , नृपतिर्न सखा.. [ ५८ ] ० अभय: श्रियां पदम् [६०] • अबलोऽपि रिपुर्महीभुजा, हृदये शङ्कुरिवाभिमन्यताम् । उदयन्नपि कुञ्जराशनाङ्कुरलेशो न हि किं विहारभित् ? [६१] • घनटंकी भवतीह तन्नृपः [ ६३ ] • विजयेन विशिष्यते नृपः [ ६४ ] महसेवात्र मणिर्महानपि [ ६४ ] Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितानि ३६५ ० अनुनीतिरपेक्षयाञ्चिता , प्रतिपक्षेषु यदायतौ श्रिये [६६] ० अनुनीतिरपि क्षमाभृतां , सविधेरेव समीपगस्य वा [६८] ० मिलनौत्सुक्ययुषो हि सज्जनाः [६६] ० स्वजनानां समये हि सङ्गमः [७०] • कलिरेव महीभुजां स्थितिर्विजयश्रीवरणाय सत्तमा [७३] ० दनुजारिमणिप्रभावतो , न हि दारिद्रपराभवः किमु ? [७५] ० प्रणवो मन्त्रपुरो हि पापहृत् [७७] ० श्रितमौनो हि नृपोर्थसिद्धये [७८] ० भवति नपतेर्मान्यः पुण्योदयेन हि सेवकः [७६] षष्ठः सर्गः० दुर्मतिः स हि सुधाब्धिमपास्ता , शुष्यदम्बुसरसि स्थितिमान् यः [४८] ० प्राभवस्मयगिरिड विलङ्घयः .[५७] ० आत्मनो जलगतं प्रतिरूपं , वीक्ष्य कुप्यति न किं मृगराजः ? [६४] ० मत्तयोरिव वनद्विपयोर्द्राक् , पार्श्ववर्तितरुसंततिभङ्गः [६६] सप्तमः सर्गः-- • वल्लभाभिलषितं हि केनचिलुप्यते प्रणयभङ्गभीरुणा ? [१] ० ....."ह्यवसरो दुरासद: [१४] . • हृष्यतिस्म दयिते प्रियाजनः , प्रीतिकातरधिया हि तुष्यति [१८] ० प्रेमणीह विपरीतता हि का [२०] ० .... सकलप्रिया सुंधा , स्वाद्यते करगता हि भाग्यतः [३४] ० मन्थने हि सलिलस्य को रसः [३५] ० कोविदो हि कुरुते मनीषितम् [३६] ० कामिनी हि न सुखाय सेविता [४०] ० प्राणनाथकरगामि जीवितं , योषितामिति ... [५३] ० सस्यरत्नवसनादयस्त्वमी , संश्रयन्ति विषयाः पुराणताम् । __एक एव निबिडो युवद्वयीप्रीतिरीतिनिचयो न कुत्रचित् [५६] ० विस्मरन्ति दयिता न वल्लभं , जीवितादधिक एव यत् प्रियः । ___ तद्वियोगविधुरा मृगीदृशो , मन्वते तृणवदत्र जीवितम् ॥ [५७] ० प्राणनाथविरहासहाः स्त्रियः [५८] ० साहसस्य भविता हि का गतिः [५८] ० धीरता सहचरी हि योषिताम् [५६] . नैसर्गिकी हि कमला क्वचिदप्यनेत्री [८०] ० प्रसरतितरां प्राच्यात् पुण्योदयाद् हि सुखं नृणाम् [८३] Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् अष्टमः सर्गः० सतां स्थिति केप्यवधीरयन्ति ? [१] ० रसावहानां न हि संभवेत् किम् ? [२] ० पापेऽधिके किं सुखमुत्तमानाम् ? [१३] ० तमःक्षितीशे प्रभुतां प्रपन्ने , प्रभुत्वमेतादृशमेव विश्वे [१७] ० प्रीणन्ति यूनो हि रताङ्कितानि , रणे भटस्येव गजाभिघाताः [३८] ० रागी विदूरे स्थितवानदूरे , भवेन्न किं चित्तविनोदकारी ? [५.१] ० का वामनेत्रा न जहाति निद्रामुपस्थिते भर्तरि संनिकृष्टम् [५२] . ० .....'न वैपरीत्यं , जायेत किं राज्यविपर्यये हि [७१] . नवमः सर्गः० ""अनङ्गस्य शरास्त्वस ह्याः [१४] ० निरन्तरे हि प्रणयाँतिरेके , हृदालये शल्यति विप्रयोगः [१८] ० किं स्नेहभाजो न तिला विमस्तेषां खलः केन च नापि मर्यः [२६] • पुरं वनं पुण्यवतां हि तुल्यम् [५४] . ० बलाबलव्यक्तिररि विना का [५७] ० महौजसामात्मपराऽविमर्शा , न साहसश्रीः समुदेति किञ्चित् ? [५८] • एकोपि दानाकपोलभित्तीन् , न हेलया हन्ति हरिर्गजान् किम् ? [५६] ० रवेः पुरः किं न तदीयपादा , भूमीभृदाक्रान्तिनिबद्ध कक्षाः ? [६०] ० उत्सङ्गमेते समरोत्सवे हि , किं कातरत्वं विदधाति धीर: ? [६२] ० गुणोद्भवः सर्वविदि [६६] ० सदोचितः पुण्यवतां यथा स्वः [७५] दशमः सर्गः-- . ....'कोपि विशिष्टवस्तुप्राप्तौ प्रमाद्येन्नु ससंज्ञचित्तः [११] ० अधीश्वराचीर्णमलङ्घनीयं , सेवापरैः कृत्यमिह ह्यशेषम् [१४] • तीर्थशनत्यैव हि नम्रभावं , भजन्ति भूपा अपि शुद्धिमत्या [१६] ० दृष्टं श्रुतं वस्तु न विस्मरन्ति , मनस्विनः सर्वविदां हि तुल्याः [३७] ० रसाधिराज हि विना कुतोऽत्र, सिद्धिर्भविष्यत्यऽनघाऽर्जुनस्य [४०] ० त्यागी न केनाप्यवमाननीयः [४४] ० पृच्छापराणां पुरतो हि वाक्यं , प्रणीयमानं सुभगत्वमेति [५६] ० संसारतापातुरमानवानां , जिनेन्द्रपादा अमृतावहा हि [६०] • विना शशाङ्क धृतिमुवहेत , नान्यत्र कुत्रापि चकोरशावः [७१] . . Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ सुभाषितानि .. एकादशः सर्गः- . ० भाविनी हि गरीयसी [११] ० ....."सुवर्णाद्रिकम्पात् किं कम्पते न भूः ? [१५] ० स्वर्भाणुमुखगं चन्द्रं , पश्यतो धिग् हि तारकान् [२०] ० वलमानमुखा वीरा , न भवन्ति कदाचन [२१] ० मलये चन्दनायन्ते , सर्वेऽपि क्ष्मारुहा यतः [२६] • स्त्रीत्वं धैर्यविलोपि हि [३१] ० प्राणरपि यशश्चेयं [३४] ० प्रशस्या हि यशोधनाः [३४] ० अस्थाने ह्यमृतं विषम् [३५] ० चिन्त्या हितविदोऽमात्याः , कार्यारम्भे हि राजभिः [५३] ० प्रबलेन सह स्वामिन् !, विधेया न विरोधिता [५५] ० अबैतूलानि तिष्ठेयुश्चेत् तर्हि किं विभुमरुत् ? [५६] ० राहोरेव पराभूतिर्विद्यते हि त्रयीतनोः [६५] ० उदयादेव तीक्ष्णांशोः , करा धार्या न केनचित् [८६] द्वादशः सर्गः० ....."निदेशे ह्य पस्थिते गौरवमाचरन्ति [१] • कूलंकषागां हि कषन्ति कूलं , लहर्य एवाम्बुध्रप्रवृद्धाः [३] ० विना प्रवीरान न जयन्ति भूपाः [४] ० यतो धुरं वोढुमलं महोक्षाः [४] ० वनमाणामिवं सानुमन्तो , भवन्ति विद्वेषिधराधिराजैः [६] • अम्भोधराम्भोभरदूरपूरानुगा भवेयुर्हि नदीप्रवाहाः [७] ० जयावहा वीरभुंजा हि नान्यत् [१३] ० असाध्याः सुसाध्या रिपवो हि शक्तैः [१५] ० ... 'अनलस्य , जलेन शान्तिर्हि न वाडवाग्नेः [३२] ० वातो द्रुपातान्न हि शैलपाती [३३] . ० उत्पाटितानेकशिलोच्चयस्य , युगान्तवातस्य पुरो द्रुमाः किम् ? [३६] ० को भारभृन्नागपतेः पुरस्तात् ? [३७] • कुण्ठीभवेत् किं हरिहस्तमुक्तदम्भोलिधारा गिरिपक्षहृत्यै [३८] ० करी प्रभुः किं व्रततीहृते न [४०] ० कः पौरुषाद् रोषयते कृतान्तम् [४१] ० देदीप्यमाने किल दीपधाम्नि , स्वयं पतङ्गो विजुहोति देहम् [४३] • कलिन्दकन्या ह्यपि जन्हुकन्या , व्यक्तिहि नीरेण भवेत् प्रयागे [४४] ? बुभुक्षिते वा हितभोजनाय , प्रधावति स्वैरमतो रणाग्रम् [५४] Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ त्रयोदशः सर्गः - सुता 'इवाम्बां समिते प्रयोजने स्मरन्ति चार्चन्ति हि नाकवासिनः [५] 1 • ...न हेया सहचारिधीरता [११] • जयः कलौ धैर्यवतां हि संभवेत् [ ११ ] o o • प्रदीप एकोऽपि तमो न हन्ति किं घनाञ्जनाभं वसतेः समन्ततः ? [१५] 1 ० - युधि प्रवीराः किमुपैत्रिकं कुलं मनागपीह त्रपयन्ति भङ्गतः ? [ १६ ] , o महत्तरस्यापि घटस्य संस्थितिर्भवेल्लघोरश्मन एव निश्चयात् [१८] • युदुद्वहा वैरिवलापनोदिनः स एव तातो जगतीह कीर्तिमान् [२४] 1 o ० ••आत्मभुवः पितुर्मुदे [२६] • नृपाः प्रसीदन्ति दृशैव नो गिरा [ २९ ] O विदुर्दृशं येऽत्रत एव वाग्मिनः [ २९ ] 1 o • य एव नासीतया प्रवर्तते स एव धुर्यो भवति प्रयोजने [३०] महान्धकारे रजनीमुखे जनाः, करे सदीपे न मुदं वहन्ति के ? [ ३९ ] तमिस्रकास्तूरिक पक्षकर्दमक्षयान् मृगाक्षी न रते हि तुष्यति [३७] रुचिहि भिन्ना मनसो जगत्त्रये [ ३६ ] o o o o o भरतबाहुबलि महाकाव्यम् रणप्रवृत्तिर्हृदयङ्गमा यतो भवेद् दविष्ठैव न चात्मवर्तिनी [१२] , " प्रौढिमतां हि सिद्धयः [१४] ...रतये निशा न तत् [३९] प्रवृत्तिरिष्टं हि मनोविनोदकृत्[४२] वधूवियोगे विधुरीभवेन्न क: ? [ ४५ ] किमत्र सत्यन्यतरावलोकिनी ? [ ४६ ] o .." ह्यतिकरः परागमः [ ५० ] • उदित्वरे भास्वति संभवेत्तरां, कियच्चिरं क्षोणिप ! कश्मला स्थिति: ? [ ५२] मृगारो जाग्रति किं मृगारवै: ? [ ५५ ] o • सुखी भवेत् स एवात्र हि यो जिनार्चक: [ ५७ ] चतुर्दशः सर्गः - • समानतां प्राप्य रणे विवादे, न कोपि नृत्येद् विजयाभिलाषी ? [ २८ ] • यत् प्राप्तरूपा मुखरीभवन्ति, पृष्टाः पुनर्मोनजुषोऽन्यथैव [३७] ० सुधीः कृतज्ञत्वमिव स्वचित्तादनन्यसौजन्यरसोभिरामात् [४७ • तेजस्विनो यल्लघवोऽपि वृद्धा: [ ५९ ] ० ....... तेजस्विषु किं तु चित्रम् ? [ ५२] • यथोत्सवाः पुण्यकृतो निकेतम् [ ५७ ] Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____३६६ ३६६ सुभाषितानि .. • विलोकनीयो न दृशापि तिग्ममरीचिवद्वासरयौवनान्तः [५८] ० न्यषेधि .लोभेन यथा विवेकः [६७] पञ्चदशः सर्गः० आस्यसाम्यं हि दुःसहम् [१६] • ह्यभिप्रायानुमं वपुः [२०] ० किमच्छेद्यं हि दोभृताम् [२६] ० नृपाः साक्षात्कृते कृत्ये , प्रत्ययन्ते निजेषु हि [७६] ० हते बलवति क्षत्रे , मुदं को नाम नोद्वहेत् [७७] ० किं हि चित्रं महौजसाम् [८५]. ० किं कर्तारो न हीदृशाः ? [८६] . • अल्पीयांसोऽपि भूयांसः , सोत्साहा युधि यद् भटाः [११] ० कालक्षेपो हि भद्रकृत् [१२] . ० शुभं नैषां ह्य पेक्षणम् [१७] ० किं पोतः परिहीयते , तोयनाथं तितीर्षता ? [१८] • कल्पान्तपवनस्याग्रे , कः स्थाष्णुः स्वगिरि विना ? [१२२] षोडशः सर्गः- .. ० बोध. एव परमं नयनं हि [१] . • लड्ध्य एव न हि देवनिदेशः [२] ० सत्सुतैर्न पिता व्यतिलभ्यः [१३] ० ताततो त तनयो हि भिनत्ति [१४] ० सान्धकारपटलेऽञ्जनकेतुस्तत्पुरो भवति नक्तमिहौकः [१५] ० पातकं हि हननस्य चिराय [२०] ० ."ह्यघमुशन्ति न सन्तः [३०] ० विग्रहो न कुसुमैरपि कार्यः [३४] ० सैन्धवीयसलिलस्य हि हानिः , का भवेदुपयतो जलराशिम् [४३] ० हीयते खलु गुरोरपि बुद्धया , यत्र तत् किमितरैरवगाह्यम् ? [४४] ० स्वां स्थितिं परिजहाति पयोधिः , किं कदाचन विना क्षयकालम् ? [४७] ० तोष एव सुखदो भुवि [५५] ० लीलाराक्षसा हि भयदाः पृथुकानाम् [५५] ० वृद्धिमेति विहरन् जलराशौ , संवरः स्वककुलाशनतो हि [५६] ० जीवितुं क इहेच्छति किञ्चित् , कालकूटकवलीकरणेन ? [५७] • कौतुकी न हि विलोकयिता कः ? [६३] • किंकरस्तु नृपतियुधि रक्ष्यः [६६] Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ० दैन्युजुक् प्रभुमृतेः किल सैन्यम् [६६] ० वात्यया हि निपतन्ति फलानि [७४] सप्तदशः सर्गः० प्रस्तावे समयति यः स हि स्वकीयः [१२] ० यावन्नो भवतितरां शरीरभङ्गः , किं वीरैर्युधि विजयोऽत्र तावदाप्यः [३५] ० शैलोर्वीरुहदलने गजस्य साम्यं , कुत्रापि प्रभवति किं धराधिराज ! [४६] • कः स्थातुं त्रिदशगिरि विना विभूष्णु : , कल्पाब्धेः किल पुरतो विलोलवींचे: ? [५०] • हन्तव्यः परमवनीकृते न बन्धुः [५६] • उष्णत्वं व्रजति हि वह्निसंप्रयोगात् , पाथोऽपि प्रकटतया स्वभावशीतम् [६७] . ० श्रेष्ठानां क्षयकरणं भवेद् विरुद्धम् [६८] ० न जहत्य नघास्तनयाः क्वचन [७१] अष्टादशः सर्गः• प्रियापराभूतिररु तुदा हि [१०] • द्वयोः कियत्येकपदे स्थितिहि ? [१९] ० न कारणात् कार्यमुपैति हानिम् [२२] ० बलावहः सर्वत एव पुंसां , संभावनीयः समयो यदेकः [२७] ० स्ववर्गकाश्यं हि करोति कार्य म् [२८] ० सद्युक्तयोर्थिन्य इवापजाड्ये , लक्ष्मीवतां लक्ष्म्य इवाल्पदैवे [२६] ० वर्षासु हर्म्यस्थितिरेव धृत्यै [४१] . . , ० ध्रियेत भूषा हि सुखाय नित्यम् [४६] • सुखाय हि स्याद् धनिनां हिमतुः [५२] ० सदोन्नता एव विपत्तिहत्य , भवन्ति सेव्या हि त एव जाड्ये [५६] ० सर्वा हि नार्यो विजनं प्रियं स्वं , नितान्तमायान्ति किमत्र चित्रम् ? [६१] • सतां प्रवृत्तिहि सदाभिनन्द्या [६६] Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रथमः सर्गः - -- पञ्जिका १. ॥ नमः ॥ अथेति षट्खंडविजयमाधाय स्वपुय्र्यागमनानन्तरे, आर्षभिर्भरतः तक्षशिला महीभुजे - बाहुबलयें, दूतं प्रजिघाय प्राहिणोत् । कथंभूतो भरत: ? स्वपुरीं उपागतः - निजनगरी आगतः । पुनः कथं ० ? भारतभूभुजां - भरतक्षेत्रवत्तराज्ञां, बलात् - हठात् हृतातपत्रो - गृहीत छत्रः । किं वि० दूतं ? वाग्मिनंवाचोयुक्तिपटु, सुषेणनामानमिति शेषः । किं० बाहुबलये ? ततौजसे - विस्तीर्णबलाय, किं कृत्वा ? विमृश्य- विचार्य्य, सचिवैः सहेति शेषः । २. ततः स० । स दूतः ततो भरतदेशात्, रिपोः - बाहुबलेः, विषयांतरंदेशान्तरालं, गतः-प्राप्तः सन् विस्मयं दधौ - धरतिस्म । क इव ? वपुष्मान् इव-यथा कश्चित् प्राणी विषयांतरं गतो विस्मयं दधाति । अन्ये विषया: शब्दादय इति विषयान्तरं । हि यतः, रसांतरं - पृथिव्यंतरं गच्छत एव पुरुषस्य अनेकधा- भावविलोकनात् - बहुधा वस्तुदर्शनात्, विस्मयो भवेत् - आश्चर्यं स्यात् । प्राणिपक्षे - अन्ये रसाः शृंगारादय इति रसान्तरं । तत्र गच्छत एव प्राणिनो बहुधाभिप्रायनिरीक्षणात् विस्मयः स्यात् । भवोभिप्रायवस्तुनोरिति । ३. प्रताप० । स दूतः इति वादिनः - एवं ब्रुवाणान् लोकान्, अवलोक्य - दृष्ट्वा, अधिकं यथा स्यात् तथा विसिष्मिये - विस्मितः, इह-अस्मिन् देशे, तीक्ष्णकरः -श्रीसूर्यः, प्रतापभृत्स्वामिबलाभिशंकितः - प्रतापधारिनृपौजसा पराभूतः, करेण - किरणैः, तमोहरो - ध्वान्तहर्त्ता, परं न तापकारी । ४. शरच्छ० । स दूतः धैनुकंधेनूनां समूहं वीक्ष्य - दृष्ट्वा, नेत्रे - लोचने, ततानविस्तारयामास । किं० धै० - शरच्छशांकद्युतिपुंज पांडुरं - शरदिंदुकांतिसमूहोज्ज्वलं उपमीयते - महीभर्तुः - बाहुबलेः, अंगं आश्रितं - मूर्तं यश इव । पुनः किं० ० ? गवेन्द्रद्दूरगं - गवेन्द्राः -गोपालाः, दूरगाः - दूरवत्तनो यस्य Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् तत् तत् । यशःपक्षे-गवेन्द्रात्-राज्ञः सकाशात् दूरं गच्छतीति तत् । किं कुर्वत् ? पयोमहः-दुग्धतेजो, विगलत्-क्षरत् । यशःपक्षे-विगलत्पयो क्षरदुग्धमिव, महस्तेजो यस्येति तत् तत् । ५. स सौर० । स दूतः क्वचित्-कुत्रचिद् बाहुबलिदेशे, चरंती:-तृणादनं कुर्वती:, सौरभेयी:-महिषीरवलोक्य शंकितः-सशंको जातः। किं वि० म० ? असिता:-श्यामाः। उत्प्रेक्षते-यशोभिः सह तनु-शरीरं, जुह्वतांभस्मसात्कुर्वाणानां द्विषां, चिताधूमततीरिव । किं कुर्वतीः ? -वनान्तरेअरण्यान्तः, चरंती:-चलन्तीः। ६. ककुद् । स दूतः, गवीश्वरोदीरितभूभृदाज्ञया-गोपालकथितराजाज्ञया, निषिद्धयुद्धान्-निवारितकलहान्, ककुमतो-महोक्षान्, दुर्द्धरान्, · वीक्ष्य चकितो-भीतो, विस्मितश्च-अहो एतस्य माहात्म्यम् । किं. कुर्वत; ? क्रुधा कोपेन, कलि-संग्राम, संदधत:-कुर्वाणान् ।। ७. स गन्धः । स चरः, क्वचित् प्रदेशे,. युवद्वयीः-युवयुवतियुगलानि, निध्याय विलोक्य, वचोतिगां-वागतीतां, 'मुदं-हर्ष, बभार-धरतिस्म । किं कुर्वती: युवद्वयीः ? गंधधूलीमृगसंश्रिता:-कस्तूरिकामृगसेविताः, शिलाः, निविश्यस्थित्वा, वासांसि-वस्त्राणि, सुगंधीनि-सद्गंधवंति, वितन्वती:-निर्मापयन्तीः । ८. मुदं० । तेन दूतेन मही प्रियेव फलावहा-सफला, व्यलोकि-दृष्टा । किं कुर्वाणा ? निजेशितु:-स्वस्वामिनो, मुदं-हर्ष, ददाना-ददती। किं विशिष्टा ? अनवलोकितेतरप्रभुः-अदृष्टान्यभर्तृका, पुनः किं वि० ? प्रभूतांकुरराजिराजिनी-बहुलाङ्कुरश्रेणिशोभिनी । कथंभूता प्रिया ? रोमांचवती। ६. नफल्गु० । स दूतो दिनात्यये-संध्यासमये, इतीरिणः-एवं वादकान्, मान् मनुजान्, विलोक्य, मुमुदे-जहर्ष । इतीति किं ? अस्य धान्यस्य, सदैवनिरंतरं, क्षितीश्वराज्ञा-बाहुबलिनपाज्ञा, पालिनी-रक्षका वर्तते एव । किं वि० मान् ? गेहं चलितान्-गृहगतान् । किं कृत्वा ? खलेषु सस्य-धान्यं, परिहाय-मुक्त्वा। किं विशिष्टं सस्यं ? नफल्गु-आरक्षकजनरहितं, पुनः किं विशिष्टं ? निस्तुषं-तुषरहितं । १०. स निर्वृतिः। स दूत: नितिक्षेत्रं-वृत्तिरहितं केदारं, उदीक्ष्य-दृष्ट्वा, दूरतो-दूरात्, स निर्वृतिक्षेत्रविलाससस्पृहः-सौव्यकलत्रक्रीडनमाकांक्षो बभूव । हि-यतः, सर्वो-लोको, विशिष्टवस्तुनि-प्रधानपदार्थे, ईक्षिते-दृष्टे सति, सराग-रागिणं, जनं क्षणात् स्मरेत्-चिंतयेत् । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग १) ४०३ ११. स वेप० । तु-पुनः, स दूतः, सरसीजले-तटाकोदके, वेपमानं-कंपमानं, विधु-चन्द्र, विलोक्य, मुहुः-असकृत्, इतिवादिनी:-एवं ब्रु वाणाः; कांता:नारीय॑लोकत-पश्यतिस्म। इतीति किं ? हे शशांक ! त्वं राजा असिभवसि । हे चन्द्र ! त्वं प्रभोर्बलात् मा विभेषि-मा कंपस्व । न:-अस्माकं, प्रभुः-स्वामी, सकृपः-सदयोस्ति, अपराधं विना न हंतीति चतुर्भगोन्वयः । राजा तु पार्थिवे निशाकरे प्रभौ शक्र -इत्यनेकार्थसंग्रहे । १२. क्वचित् । स दूतः क्वचित्-प्रदेशे, मृगीयूथं वीक्ष्य-दृष्ट्वा , इति अतर्कयत् एवं व्यचारयत् । किं विशिष्टं मृगीयूथं ? विस्फाररवेपि-धनुषां टंकारशब्देऽपि, असंभ्रमं-असत्वरं, कथंभूते विस्फाररवे ? कर्णांतिक-कर्णसमीपं, गतेपिप्रातेऽपि, अत्रापेः पुनरादानं अतीवसमीपख्यापनार्थं । किं कुर्वत् ? यदृच्छयास्वेच्छया, अयत्-भ्रमत्, इतीति किं ? आर्षभीणां-आदिदेवपुत्राणां, विषयेषुदेशेषु, शाश्वती कृपा । . १३. विकस्व० । च-पुनः, तस्य-दूतस्य, सरसी-तटाकः, दयितेव-वल्लभेव, मुदे हर्षाय, अभवत्-बभूव। कथंभूता सरसी ? विकस्वराम्भोजमुखी-विकचकमलानना, पुनः कः ?,परिस्फुरत्विसारनेत्रा-चलन्मीननयना, पुनः क० ? रथांगनामस्तनराजिनी-चक्रवाकरूपस्तनशालिनी, पुनः ? चलत्तरंगनाभिः । १४. श्रमाच्छ श्रमच्छिदे० । समीरण:-वायुभिः, तस्य-दूतस्य, श्रमच्छिदे-प्रयासच्छेदाय, अभूयत-बभूवे। किं वि० समीरणः ? विरुद्ध पुष्पवल्लताप्रसक्तैः-विरुद्धा व्यभिचारादिना, पुष्पवती-रजस्वला, एतादशी लता, तत्र प्रसक्तैः-प्रसंगवद्धिः । पक्षे-विरुद्धा-विभिः-पक्षिभिः, रुद्धा-व्याप्ता, पुष्पवत्-कुसुमवत् । पुनः किं वि० ?श्रितसारिणीजलैः । पुनः किं वि० ? अवेगचरैः-मंदैः । हि-यतः, सत्तमाः-उत्तमाः, क्वचित् क्रम-परिपाटी न लुपंति-नोल्लंघयंति । १५. प्रफुल्ल० । अमुष्य-तस्य दूतस्य, वनं, प्रफुल्लकिंकेल्लिनवीनपल्लवैः विकस्वराशोकनूतनप्रवालैः सायंतनवारिदभ्रमं-सांध्यमेघभ्रम, आदधे-चक्र । पुनर्वनं श्यामलताभिरंचितं-व्याप्तं सत् दिनेपि, दोषाभ्रम-रात्रिभ्रमं आदधे । १६. जनाद् बलं० । चरः पथि मार्गद्रुमेषु-वृक्षेषु, भूभृत्सु च-पर्वतेषु च, बाहुबले टै भुजाशुगास्त्रैः-बाहुबाणशस्त्रैः कृत्वा, चिन्हितं-अंकितं, जनाद् बलं परिपीयआकर्ण्य, कंपितः-भीतः । हि-यत: सकंटका एव द्रुमाः जनः दुर्गमाःदुरवगाहाः। . Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १७. भुजद्व० । जनता-जनसमूहः, तं चरं, भुजद्वयोन्मूलितभूरुहावलिं बाहुद्वयोत्पाटितवृक्षावलिं, निभाल्य-दृष्ट्वा, असौ भूरुहावली कि हस्तिभिराहता-उन्मूलिता-इति वदन्तं तं चरं ऊचे-कथितवतीति, हे चर! नो- अस्माकं, भटैः असौ वृक्षावली, अरातिकांक्षितैः-वैरिवाञ्छितैः साकसाढे, अभंजि-भग्ना, इति त्रिभंगोन्वयः । . १८. सुधारस० । हे चर ! त्वं मुष्टिभिः हतद्रुमस्कन्धनिपातितानि-हततरुस्कंधेभ्योऽधः पातितानि, सुधारसस्वादुफलानि-अमृतरसस्वादवंति फलानि, विलोकय-पश्य । किं कृत्वा ? नो-अस्माकं भटैर्वृक्षस्यातीवोत्तुंगत्वात् करानवापानि-हस्तदु:प्रापानि, विमृश्य-विचार्य, उद्भटैरुद्धतैः किमसाध्यमस्तीति द्विभंगोन्वयः । १६. हतेभ० । हे दूत ! त्वं इतः-अस्मात् प्रदेशात्, तदुत्खातरदान-तैर्भटैः उत्खाता-उद्धृताः ये दंतास्तान्, क्षितौ पतितान् इति शेषः, निभालय-विलोकय ये भटाः हतेभकुंभस्थलजन्ममौक्तिकैः-विदारितहस्तिकंभोत्थमुक्ताफलैः कृत्वा। इह-अस्मिन् वने, प्रियावक्षसि हारं आदधुः-चक्रः । उत्प्रेक्षते-औजसां-बलानां, यशोन्यास मिव-कीर्त्यारोपमिव । द्विभंगोन्वयः । २०. इतोपि० । हे चर ! त्वं इतोपि, दोर्दडदलीकृतं-भुजदंडकर्करीकृतं, घन: मुद्गरैः, अभंगुरं-अभंजनशीलं । एतादृशं शिलातलं उद्भटैकदत्तैः वीक्षस्व । किमिव ? विरोधिनां-वैरिणां, वक्षो-हृदयमिव । हि-यतः, अविक्रमः-निर्बलैरिद अभेद्यं-अविदार्य, अच्छेद्यं-अद्विधाकावें । २१. शरैरना० । हे चर !, नो-अस्माकं, धनुर्धरैः शरैविद्धं-विदारितं, इमं द्रुमावलिस्कंधं त्वं पश्य । कथंभूतैः शरैः ? अनावृत्तमुखैः-अवालिताननैः, पुनः कथंभूतैः ? मनोतिगैः-मनसातिचरितः, कथंभूतः धनुर्धरैः ? अनन्यविक्रमः। हि-यतः, महौजसां-अधिकबलानां, ओजसि-पराक्रमे, कोऽपि विस्मयः ? न कोपीति शेषः । २२. सलील । हे दूत ! त्वं इति-उच्यमानं, अनेकधा-बहुधा, भटानां-वीराणां, बलं दृष्टिगोचरं-अक्षिविषयं कुरु। इतीति किं ? महाबल:-बलाधिक: वीरैः, करैः-हस्तः, सलीलं यथा स्यात् तथा उत्पाट्य गिरिगजेन्द्रवत् इतस्ततोनीत:-प्रापितः । कैः क इव ? गजैः अनोकह इव सलीलमुत्पाट्य इतस्ततः नीयते । इति त्रिभंगोन्वयः । २३. महाभु० । हे दूत ! नो-अस्माकं, स प्रभुरीदृशैः महाभुजैर्वृतो-युक्तो, वज्रिणा-इन्द्रेण, मनसाऽपि दुःप्रधर्षो-दुःसहोऽस्ति । स कः ? यदीयदोर्दण्ड Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका ( सर्ग १ ) ४०५ पविप्रथाहताः- यंद्भुजदंड वज्रप्रभात्रासिताः, महीभृतो- राजानः पर्वताश्च, हिनिश्चितं, सागरमाश्रयन्ति । इति द्विभंगोन्वयः । २४. अमुष्य० । हे दूत ! अमुष्य-बाहुबले:, नामापि विरोधिनां वैरिणां, भूर्धनिमस्तके, निःप्रतिक्रियं - प्रतीकाररहितं, शूलकृत् - शूलरोगकारि बभूव । वा निःप्रतिक्रियमिति क्रियाविशेषणं । हे दूत ! नो- अस्माकं प्रणिपाततः प्रणामतः परं - अन्यत्, रसायनं -औषधं, तस्य अखिले महीतले नास्ति । इति द्विभंगोन्वयः । प्रभोः - स्वामिनः, विरोधिमस्तकस्य २५. भुजंग० । हे दूत ! नागराट् - शेषनागः, नो - अस्माकं नृपं एत्य - आगत्य, इति जगाद - अकथयत् । इतीति किं ? हे राजन् ! मया भवान् रसासहस्र े :जिह्वादशशतैः, उपगीयते - स्तूयते । किं कुर्वन्तं नृपं ? भुजंगराजं - नागाधिपं, वसुधैकधूर्वहं - धरित्र्येकभारघरं, भुजस्य- बाहोः, दायादं - स्पर्द्धक, अवेक्ष्यविचार्य्य, प्रयातं - प्रयाणं कुर्वाणं । अत्र द्विभंगोन्वयः । २६. अमुष्य० । अमुष्य - राज्ञः, सैन्याश्वखुरोद्धतं - कटकतुरगखुरोड्डीनं, रजो - रेणुः, द्विजानां पति-चन्द्र, सकलंक - सलाञ्छनं, आधित-चकार, आरातिमनोपिशत्रुचित्तमपि, अहर्निशं सकंपं चकार । नदीनां वरं समुद्रमपि, पंकिलंकर्दमाढ्यं चकार । किलेति श्रूयते । २७. स्वतात । हे दूत ! वयं हृदा - मनसा, एवं अमुना प्रकारेण, परितर्कयाम हे - विचारयामः । एवमिति किं ? महेन्द्रमुष्ट्या - बाहुबलि मुष्टिना, अयं सुमेरुगिरिः चूर्णतां न गमितः - क्षोदत्वं न प्रापितः । किं विशिष्टः सुमेरु: ? स्वतांत जन्मोत्सववारिणाचितः - श्री आदिदेवजन्माभिषेकजलेनार्चितः । किं विशिष्टया महेन्द्रमुष्ट्या ? शतकोट्यहीनया - वज्राधिकया । अत्र द्विभंगोन्वयः । 1 २८. जगत्त्र ं । च-पुनः, जगत्त्रयी - त्रैलोक्यं यस्य - बाहुबलेः, कीर्तिमल्लिकांयशोमालती, शिरसा - मस्तकेन, अजस्र - निरंतरं, विकाशिनीं - विकस्वरां, वा विराजिनी, दधाति - धारयति । स एक वीरो भुवनत्रये अफलं-फलरहितं, धनु: - चापं, न हि बिर्भात न धरति । क इव ? कंदर्प इव । यथा कंदर्प : अफलं धनुर्न बिर्भात । इति त्रिभंगोन्वयः । २६. महाप्र० । हे दूत । द्विषद्बलैकता, अमुष्य-बाहुबलेः, तेजः कनकं भवति, कैः ? अनून:- अहीनैः, अमल प्रभाभरैः । कुतः ? रसेन्द्रयोगतः - पारदसंयोगात् । पंक्षे-रसेन्द्राः-राजानः, तेषां योगः - उपायस्ततः । कथंभूतं द्विषद्बलैकताम्र ? महाप्रतापानलतापितं - गुरुतेजोवह्निसंतप्तम् । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३०. न सांयु० । हे दूत। तु-पुनः, असौ बाहुबलिरहनिशं एवं विचिन्तयति । एवमिति किं ? आहवे-संग्रामे, मम सांयुगीनो-ममाग्रे रणाय साधुतया स्थाता न कश्चिदस्ति । अतः क्षितीशो-बाहुबलिः, समागतं रणं क्षणीकृत्यउत्सवीकृत्य मनुते । किं विशिष्ट: क्षितीशः ? महाभटैर्वृतः-संयुक्तः। इति त्रिभंगोन्वयः ? ३१. अयं वि० । हे दूत ! अयं राजा, विपक्षान्-शत्र नु, नु इति वितर्के, तृणवन् मन्यते, तु-पुनः विपक्षरयं नपो गिरि:-पर्वतात् अतिरिच्यते । अयं नपो रिपुसंचयं-वैरिसमूह, धुनीते-कंपयते । अयं नृपः कैश्चिद् वैरिभिः सुरशैलवत् मेरुगिरिवन् न धुतो-न कंपितः । इति चतुभंगोन्वयः । ३२. अनेन । हे दूत ! यदा अनेन राज्ञा-बाहुबलिना, रजनीमणीयितं-चंद्रायितं, किल इति संभाव्यते, तदा-तस्मिन् समये, अन्यभूपैः-इतरराजभिः, तारकायितं नक्षत्रवदाचरितं । अतः कारणात् नृपः अस्य बाहुबलेनिदेशः-आज्ञा, न लङ घ्यते-नातिक्रम्यते। तु-पुनः अयं राजा कस्यचिद् अन्यभूपस्य निदेश आज्ञां, न दधातीति चतुर्भगोन्वयः । ३३. विधेरि०। हे दूत ! अस्माद्-बाहुबलेः सकाशात्, अहितैः-शत्रुभिः, हितैः-मित्रैः पुनः फलानि अलभ्यंत-प्राप्यंत। किं विशिष्टः ? कलिक्रमाथिभिःक्लेशांह्रिसमीहकैः, कस्मादिव ? विधेरिव । यथा' विधिविधातुः सकाशात् फलानि लभते । अत्र प्रभुः स एव स्यात् यतो-यस्मात्, विशेषतोऽनुत्तर: श्रेष्ठः फलाफलावाप्तिर्भवेद् । इति चतुर्भगोन्वयः । ३४. स कि न० । हे दूत ! स अत्र-लोके, किन्नरो न विद्यते । च-पुनः, स अत्र मानवो नास्ति । कोपि विद्याधरपुंगवोऽत्र स न वर्त्तते, येन नपार्षभे:बाहुबलेर्यशः कर्णेषु न दधे-न धृतं । किं विशिष्टं यशः ? शरच्चंद्रकरातिसंदरंशरत्कालीनेन्दुकिरणातिमनोज्ञं । इति चतुर्भगोन्वयः। . ३५. गिरं ज० । तेन-दूतेन, इति-पूर्वोक्तां, जनानां, लोकानां, · मानशालिनी अहंकारवतीं, गिरं-वाणी, निशम्य-श्रुत्वा, हृदा-मनसा, व्यतर्यंत-व्यचार्य्यत । के विचारं चकारेत्याह-मे-मम, प्रभोः-स्वामिनो भरतस्य, बलिनोऽपिबलवतोऽपि, बलं-पराक्रम, महीभृति-बाहुबलौ, वृथा मा स्यात् । कस्येव ? करिणीपतेरिव । यथा करिणीपतेः-हस्तिनो बलं, महीभृति-पर्वते वृथा स्यात् । इति त्रिभंगोन्वयः। ३६. मदीय० । अयं-राजा, किल इति संभाव्यते, भटवतो-वीरैः संयुक्तो, रणेऽसून्-प्राणान्, मोक्ष्यते-त्यक्ष्यति। किं कुर्वन् ? मदीयभूपांबुदतूर्यजित Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका ( सर्ग १ ) ४०७ ध्वनी प्रवृत्ते - भरतरूपमेघवाद्यगर्जारवे प्रवर्तिते सति शरभीभवन् - अष्टापदीभवन् च- पुनः अयं अभिमानिनां प्रथमः मानिनां मुख्यः, स्मयं - गर्व, न मोक्ष्यते । ३७. चरो० । ततस्तदनन्तरं चरो- दूतो, हृदा - मनसा, इति - पूर्वोक्त, विचिन्त्य - विचार्य, एषां जनानां पुरतो - अग्रतः, च - पुनः, किंचिद् नो जगादनोक्तवान् । हि यतः, वाग्मिन: - पंडिताः, कर्णान्तिकटु-श्रवणान्तकटुकं, प्रियंहृद्यं वचो - वचनं निशम्य - आकर्ण्य, क्वचित् - कुत्रापि वाचा - भाषणेन, न वदंति - न कथयंतीति द्विभंगोन्वयः ॥ ३८. सुगेय० । मृगाङ्गनाभिः - हरिणस्त्रीभिः उदग्रकंधरं - उच्चग्रीवं यथा स्यात् तथा, क्वचित् - कुत्रचित् प्रदेशे स चरो विलोकितः - दृष्टः । किं विशिष्टाभिः मृगाङ्गनाभिः ? सुगेय कृष्टाभिः - शोभनगानाकर्षिताभिः, शालिगोपिभिः. कलमरक्षिकाभिः, स दूतः सविभ्रमं - सविलासं, अपि- पुनः, ईक्षितोऽवलोकितः । किं विशिष्टाभिः शालिगोपिभिः ? विभ्रमवामदृष्टिभिः - कटाक्षाभिरामविलोनाभिः । अत्र द्विभंगोन्वयः । ४०. ३६. स राज० । स दूतः पुरंधिभिः - स्त्रीभिः, तरंगितामोदभरः - कल्लोलितप्रीतिभरोऽनेकशो - बहुशो, ग्रामपुराणि व्यलंघत - अतिक्रामतिस्म । किं विशिष्टाभिः पुरंधिभिः ? अनंगभूपतेः -- कामभूपस्य, राजधानीभिः - वासनगरीभिः । पुनः किं विशिष्टाभिः ? पूर्वस्य - प्रथमस्य रसस्य शृंगाराख्यस्य, केलिसद्द्मभिः - क्रीड़ावसतिभिः । पुरंधिशब्दस्य ईपागमो वा । 1. चरः पु० । अयं चरः पुरो - अग्रे, गन्तुं त्वरां - शीघ्रतां ऐहत - अवांछत् । उत्प्रेक्षते - अंगवान् - मूर्तिमान्, महीधरस्य - भरतस्य उत्साहो - जिगीषाभिलाष इव । अर्थकारिणः - कार्यविधायिनः, क्वचित् - कुत्रापि पुरुषाः न हि त्वरंते ? अपि तु त्वरंत एवं । स्वामिपुरः - प्रभोरग्रे, विलंबनं न हिताय । इति चतुर्भगोन्वयः । ४१. विलंघि० । चरः पुरीप्रदेशान् - तक्षशिलोद्देशान्, उपेत्य - आगत्य, दृशो: नयनयो:, उत्सवं संप्रापयत् - अनीनयत् । किं विशिष्टः चरः ? विलंघिताध्वाअतिक्रान्तमार्गः, कैः ? कतिचिदुद्दिनैः । किं विशिष्टान् पुरीप्रदेशान् ? जितनाकविभ्रमान् - जितस्वर्गशोभान् पुनः किं विशिष्टान् ? सरः सरित्काननसंपदांचितान्-तटाकनदीवनशोभया भूषितान् । ४२. पुरी० । ततस्तदनंतरं तस्य - भरतदूतस्य, हयैः - अश्वैः, मुदः तरंगिता:कल्लोलिताः । अयं अन्वयः कलापकेनावसातव्यः । किं कुर्वद्भिः हयैः ? Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ · भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् इति स्मयात् - गर्वात्, विहस्य - परिहासं विधाय खुरोद्भुतं रजः - क्षुरोड्डापितां इतीति किं ? इयं पुरी । धूलि, क्षिपद्भिः - किरद्भिः उच्चैः - ऊर्ध्वम् । तक्षशिला अनेकशो - बहुशो, हयैः परीता - संयुक्ता श्रीसूर्यस्य, ये सप्ततुरंगमाः तैरेवांकितं चिन्हितं । चलतांचितक्रमैः - चापल्यसंयुतचरणैः, नैकत्रावस्थायिभिः । नभः - आकाश, अंशुमतः - किं विशिष्ट : हयैः ? ४३. वना० । तु-पुनः, वनायुदेश्यैः - वनायुदेशसंभवैरश्वैः । किं कुर्वद्भिः ? इति - तो, वारिधी रजः तिरः - तिर्यक्, क्षिपद्भिः - क्षेपं कुर्वाणः । इतीति कि ? अस्माभिर्यद्ययं वारिधी रजोभिः - रेणुभिः, कृत्वा अखिल :- समस्तः, पूर्य्यते - पूर्णीक्रियते, तदा नो- अस्माकं, रयो - वेगः क्वचिद् - समुद्रादी, न हि स्खलति । किं विशिष्टैः वनायुदेश्यैः ? पवनात् - वायोरतिपतंति - अतिगच्छंतीतिपवनातिपातिनः, तैः । ४४. खलू० । किं विशिष्टैः वनायुदेश्यैः ? ससैन्धवैः - सिंधुदेशोद्भवाश्वसहितैः, पुनः किं विशिष्टैः ? खलूरिका - हयश्रमभूस्तत्र केलिः - क्रीडा, तस्यां : निबद्धा लालसा - अभिलाषा, येषां ते तैः पुनः किं विशिष्टैः ? सादिनोऽश्वारोहस्य, मनसः-मानसात्, अतिगच्छंतीति सादिमनतिगामिनः तैः । पुनः किं विशिष्टैः ? नितान्तं - अत्यर्थं, अभ्यासवशेन अल्पितोऽल्पीभूतः क्लमः - परिश्रमो येषां ते तैः । पुनः किं विशिष्टैः ? समुच्छलंतःस्फुरंतो ये केसरकेशास्तैः राजते - शोभन्ते इति समुच्छलत्के सरकेशराजिनस्ते । ४५. क्रमं वि० । किं विशिष्टः ? महाभुजैः - दोषमद्भिः क्रमं चरणं, अवलंघितुं - अतिक्रमितुं न कृतप्रयत्नं न कृतप्रयासं यथा स्यात् तथा परिधारितैः - रक्षितैः, कैरिव ? विनीतशिष्यैरिव । यथा विनीतशिष्यैः क्रमं - अनुक्रमं शेषं तथैव । कथंभूतैः महाभुजैः ? अखेद मेदस्विबलैः - अनायासपुष्टपराक्रमैरिति कलापकं व्याख्यातम् । ४६-४७. स सिं० । स दूतः सिन्धुरैः - हस्तिभिः, आनन्दितलोचनः - प्रीतनयनो, ययौ - यातवान् । किं विशिष्टैः सिन्धुरैः ? सन्निहिताऽभ्रमुप्रियभ्रमैः समीपीभूतरावणभ्रांतिभिः, पुनः किं वि ? भ्रमदुभ्रामरवद्धितक्रुधैः - संचरत्भ्रमरसमूहप्रौढकोपैः, उत्प्रेक्षते-चलन्नगेन्द्रैरिव - जंगम हिमाचलैरिव । कस्मात् ? वारणच छलात् - गजमिषात् । पुनः किं० ? कपोलपालीविगलन्मदांबुभिः - कपोलप्रान्तक्षरन्मदवारिभिः । पुनः किं० ? पुनः पुनः निजप्रतिच्छायरुषा - स्वप्रतिच्छंदक्रोधेन, Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका'(सर्ग१) . ४०६ रदद्वयीचिन्हितवप्रंभित्तिभिः, किं कुर्वद्भिः ? पथि-मार्गे, व्रजभिः-संचरभिः, किं विशिष्टे पथि ? निषादिदूरीकृतमानवे । इति युग्मम् । ४८. विरोधि० । ततः-तदनंतरं, अमुना-दूतेन, पदातिवर्गो ददृशे-दृष्ट: । कथंभूतः पदातिवर्गः ? शौर्येण-चारभट्येन, उल्लसंतः-उल्ललंतः, आसुरीकचाःकूर्चकेशाः यस्य, असौ। किं कुर्वन् ? करेण-हस्तेन, असिं-कृपाणं, उद्वहन्धरन् । किं विशिष्टं असि ? विरोधिलक्ष्म्याः कबरी विडंबयतीत्येवंशीलस्तं । उत्प्रेक्षते-जयश्रियः पाणिमिव-हस्तमिव । ४६. अयं० । स दूतः क्वचित्-तत्र पुरीपरिसरे, धनुर्बाणधरं भटोच्चयं वीक्ष्य एवं अतर्कयत्-क्यचारयत् । एवमिति किं० ? अयं अंगवान्-मूर्तिमान् रसो वीर इव । वा-अथवा, रतीश्वर:-कामः, स्वयं-आत्मना, किमिहागतः ? ५०-५१. नियंतु० । स दूतो नगरीमवाप प्राप्तवान्-किं विशिष्ट: ? सकौतुकाकूत विलोलमानस:-सकुतूहलाभिप्रायचपलमनाः । पुनः किं विशिष्ट: ? प्रहृष्टदृष्टि:-प्रमुदितनयनः । कैः ? रथैः । किं कुर्वद्भिः ? जीर्णपद्धति-पुराणमार्ग, अलंघयद्भिः-अनतिक्रामद्भिः । कस्य ? नियंतु:-सारथेः । कैरिव ? विनेयैः-शिष्यैरिव । किं • कुर्वद्भिविनेयः ? गुरोः वृद्धपंक्तिमलंघयद्भिः, कि विशिष्टः रथैः ? आनेमि-आचक्रधारं, विवृत्ति:-परावृतिश्चंक्रमणं, तेन हारिभि:-मनोज्ञैः। विनेयपक्षे-आनेमि-आमर्याद, विवृत्तिः-विशिष्टवर्तनं, हरंति-गृह णतीत्येवंशीलास्तैः । पुनः किं विशिष्टः ? हृदयानुगामिभिः-मनोनुगः, पुनः किं विशिष्टः ? सदा कुलीनैः-वसुधासक्तैः । विनेयपक्षे-कुलीनैःकुलोद्भवैः । पुनः किं विशिष्ट: ? युग्यवाहिभिः-युगैरुह्यन्ते इत्येवंशीलास्तैः । पुनः किं विशिष्टः ? रथांगध्वनिबंधबधुरैः-चक्रनादबंधमनोज्ञैः । उपमीयतेचलद्भिरावासवरैरिव-गृहश्रेष्ठरिव। पुनः किं विशिष्टः ? उरुभिः विशालैरिति युग्मम् । ५२. चरः० । चरः पुरोऽग्रे, पयोभृतां-वारिपूर्णा, पू:परिखां-नगरीखातिकां, विलोक्य इत्यचिंतयत् । इतीति किं ? बाहुबलि निषेवितुं-उपासितुं, अयं स्वयं पाथोधिः-समुद्रः, किमत्रागतः ? किं कर्तुं ? बलान्निजां श्रियं-रमां, रक्षितुं, इति द्विभंगोन्वयः । . ५३. चरः सर० । तु-पुन:, चरः सरत्नस्फटिकाश्मभित्तिकं-मणिखचितस्फटिको. पलकुडिं वप्रं विलोक्य, इम-उच्यमानं, ऊहं-वितर्क, आतनोत्-व्यधात् । पुरा-नगा, आत्मनः-स्वस्य, श्रियं-शोभां, वीक्षितुं-द्रष्टुं, अयं वरः Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् आदर्शवरो—दर्पणश्रेष्ठः, क्षितौ-पृथिव्यां, किं प्रकल्पितो-रचयांचक्रे ? इति द्विभंगोन्वयः । ५४. अथो० । अथो सः रथद्विपाश्वैः-स्यन्दनहस्तिहयः, संकुलं-आकुलं,पुरीद्वारमवाप्य कथंचिन्-महताकष्टेन, प्रवेशं आसदत्-प्राप्नोतिस्म । क इव ? आवेश इव । यथा आवेशः-संरंभो, योगभृतां योगिनां, अंतराशयं-अभिप्रायांतरमवाप्य कथंचित् प्रवेशं आसादयति । किं विशिष्टं पुरीद्वारं ? तता-विस्तीर्णा, क्षमा-वसुधा, यत्र तत्। आशयपक्षे--बहुक्षांतिकं । कथंभूतो दूतः ? सविस्मयः। ५५. पुरोंत० । चरः पुरोन्तरं-नगा मध्यं, प्राप्य-लब्धा, दृशं दातुमपि क्षम: समर्थो नाभूत् । किं विशिष्ट: चरः ? गजाश्वसंघट्टभयात् सवेपथुः-सकम्पः । किं विशिष्टं पुरोन्तरं ? उरु-विस्तीर्ण, पुनः किं वि० ? मुक्ताफलरत्नराजितं । उपमीयते-पयोनिधेस्तटमिव । ५६. इहाप० । तु-पुनः, असौ दूतः , चतुष्क-चतुःपथमागादागच्छतिस्म, किं विशिष्टश्चर: ? इह अस्यां नग- अद्भुतश्रिया मनोरमाभिः-विशिष्टलक्ष्म्या मनोज्ञाभिरापणश्रेणिभिः-हट्टपंक्तिभिः, कृत्रलोचनोत्सवः । किं विशिष्ट चतुष्कं ? बहुवस्तुसंचयस्य प्रपात:-निक्षेपः, तेन दुःप्रापं-दुर्लभं, धरातलंभूपीठं यस्य, तत्। ५७. सुवर्ण० । स दूतः चतुष्कभूवारवधूं-चतुःपथभूमीवेश्यां, ऐक्षत-पश्यतिस्म । किं विशिष्टां? सुवर्णकुम्भस्तनशालिनी-सुवर्णघटरूपकुचमंडितां, पुनः किं विशिष्टां ? स्फुरतूसुवृत्तमुक्ताफलराशिसुस्मितां-दीप्यमानशोभनवर्तुलमुक्ताफलसमूहहासां, पुनः किं विशिष्टां ? विशालनेत्रां-पृथुवस्त्रां । पक्षे-विशालनयनां । पुनः किं ? स्फुटाः विद्रुमा एवाधरा यस्या सा, तां। . ५८. क्वचित् स०। सा पूः तस्य चरस्य प्रमोदं-आनन्दं, आतुषत्-पुष्यतिस्म । केव? ईक्ष्वाकुपुरीव-अयोध्येव, किं विशिष्टा सा पू: ? क्वचितप्रदेशे, सरामा-सस्त्रीका, अयोध्यापक्षे-सरामचन्द्रा । पुनः किं विशिष्टा ?सलक्ष्मणालक्ष्मणाः-धनाढ्यास्तैः सह वर्तमाना, अयोध्यापक्षे-ससुमित्रातनया। पुन: किं विशिष्टा ? ससुग्रीवबला-सशोभनशिरोधररूपा, अयोध्यापक्षेसुग्रीवो-वानरेश्वरस्तस्य बलं-सैन्यं, तेन सह वर्तमाना। बलं रूपे स्थामनि स्थौल्यसैन्ययोरित्यनेकार्थे । पुनः किं विशिष्टा। चारवरैरलंकृताभूषिता। किं विशिष्टश्चारवरैः ? सुधामभिः-सुतेजोभिः, पक्षे-आचारश्रेष्ठः वरमंदिरैः। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग १) ४११ ५९. स शंख० । स . दूतः, शंखकुन्देन्दुवलक्षरोचिषः-शंखकुन्देन्दुधवलकांतान्, पुरीविहारान्-नगरीप्रासादान्, अवलोक्य-दृष्ट्वा , अतुच्छसंमदं-भूयिष्ठानन्दं, प्रापत् । उत्प्रेक्षते-कर्तुः-निपादयितुर्यशश्चयानिव-कीत्तिसमूहानिव । किं विशिष्टान् पू० ? उद्भवतक्षणान्-उत्पद्यमानोत्सवान्, पुनः किं वि० ? सुधामयान्-लेपमयान् । पक्षे-अमृतमयान् । चलन् । ततः परं स दूतो राजमार्ग गतवान्-प्राप्तवान्, किं विशिष्टं राजमार्ग ? विनिर्मितं-विरचितं, स्वर्णनगावनी-मेरुशलमही भ्रमं, कैः ? चलन्मृगाक्षीनवहेमभूषणप्रकामसंघट्ट-अत्यर्थसंघर्षणैः, पतिष्णुरेणुभिः-पतनशीलरजोभिः । ६१-६३. अनेक० । क्वचिच्च० । चल०। ततस्तदनंतरं क्रमाद्-अनुक्रमात्, स चरो नपद्वारं अवाप-लभतेस्म । किं विशिष्टं नृपद्वारं ? निषिद्धसंचारं-निवारितसंचरणं, कैः ? अनेकराजन्यरथाश्ववारणैः-अन्यभूपालसंबंधिस्यंदनहयहस्तिभिः, कैः किमिव ? अवनिरुहैः-तरुभिर्वनायनमिव-वनमार्गमिव । पुनः किं वि० ? विश्वजनेक्षणक्षणप्रदं-सर्वजननयनोत्सवदं । पुनः किं वि० ? प्रलीनारिमनोरथंप्रक्षीणशात्रवाभिलाषं। . पुनः किं ? वैडूर्यमणिप्रभाभरैः-नीलरत्नकान्त्यातिशयैः, कृतांबुदभ्रान्तिःविहितमेघभ्रमः, मनोज्ञविभ्रमं-चारुशोभं, पुनः किं वि० ? सपद्मरागांशुभिःपद्मरागरत्नप्रभासहितः-वैडूर्यमणिप्रभाभरैरपिताशनिभ्रमं-दत्तविद्युभ्रमं । पुनः किं ? स (शुद्ध) स्फटिकाश्मकांतिभिः-स्फटिकोपलकांतिसहितः । चलबलाकाभ्रमदं-चलबकपंक्तिभ्रान्तिदायिनं, पुनः किं वि० ! विद्रुमैःप्रवालैः सह वर्तमानं, अर्जुनं-सुवर्णं, तस्यांशवः-किरणास्तैः दत्तसुरायुधभ्रम- . दत्तेन्द्रधनुर्धान्ति । पुनः किं ? वेत्रिभिः-प्रतिहारिभिः, निवारितं स्वैरगमागमं यत्रं असौ, तं । इति विशेषकार्थः। ६४. चरं त० । वेत्रिणस्तं चरं आयांतं-आगच्छतं, उदीक्ष्य-विलोक्य, इति उदीरयन्-अकथयन् । इतीति किं ? क एष वैदेशिकः ? हे दूत ! त्वं कस्य प्रभोः-स्वामिनश्चरोऽसि ? कुतो देशादागतः ? अत्र राजद्वारे, नोअस्माकं प्रभोनिदेशाद्-आज्ञातः, प्रविवक्षुः-प्रवेशं कर्तुमिच्छुरिति चतुर्भगोन्वयः। ६५. अयं ब० । अयं-सुवेगनामा दूतो बभाषे-अवादीत् । भो ! वेत्रिणः ! अह ततस्तस्याः-अयोध्यानगर्याः, भवत्स्वामिन-बाहुबलि आगतोस्मि। किं विशिष्टोऽहं ? प्रथमस्य चक्रिणः चरः। तस्याः कस्याः? श्रीभरतो यां नगरी Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ . भरतबाहुबलि महाकाव्यम् प्रशास्ति - पालयति । किं विशिष्टः श्रीभरत: ? अखण्डषट्खण्ड नरेन्द्रमौलिभिःसमग्र भारतराजशिरोभिर्नतक्रमः - वंदितचरणः । इति त्रिभंगोन्वयः । 1 ६६. ततो नि० । ततस्तदनन्तरं ते वेत्रिणी, नृपं - बाहुबलि, समेत्य - आगत्य, चपुनः, नत्वा - प्रणम्य वदंतिस्म - अवोचन् । किं विशिष्टाः वेत्रिणः ? निबद्धांजलयः - संयोजितकराः, हे विभो !, युगादेस्तनयस्य - भरतस्य चक्रवर्त्तिनः चरो - दूतो, अस्माभिर्निवारितो - निषिद्धः, द्वारि विलंबते - प्रतीक्षते इति द्विभंगोन्वयः । ६७. नटीकृ० । स धराधिपो - बाहुबलि, आदेशविधायिवेत्रिभिः - आज्ञाकारिभिर्जनः चरं प्रवेशयामास । कया ? नटीकृतानेकमहीभुजो भ्रं वः संज्ञयो । 'क: कमिव ? विवेकवान् न्यायमिव । यथा विवेकवान् पुरुषोऽतुलः - निः समानः, गुणैः न्यायं -नयं प्रवेशयति । ६८. विचित्र० । स दूतो नृपालयान्तरं - राजगृहमध्यं प्रविष्टः प्राविशत् । किं विशिष्टं नृपालयान्तरं ? विचित्रचित्र - विविधचित्रं । पुनः किं विशिष्टं ? मणिभिः समाचितं - रत्नः खचितं पुनः किं विशिष्टं ? इन्द्रालयतोऽपि - इन्द्रभुवनादपि, विशिष्टं - विशेषवत् । किं विशिष्टात् इन्द्रालयतः ? सच्छ्रिय:प्रधानशोभात् । ६९. चरः स० । गजानू चित्रार्पितसिहदर्शनाद् विवृत्तात् पश्चादवलितात, स चर: क्वचिदपि - कुत्रापि प्रदेशे, अशंकत - सशंकोऽजनि । किं विशिष्टात् ग० ? मदवारिसौरभागतद्विरेफात् - दानांबुसुगंधितायात भ्रमरात् पुनः किं विशिष्टात् ? विलंघिताधोरणतीव्रयत्नतः - उल्लंघिता आधोरणानां - हस्तिपकानां कशा:कुशहारा येन असो, तस्मात् । ७०. स इन्द्र० । स अयं दूतः ततस्तदनन्तरं इन्द्रनीलाश्ममयिकमंडपं विलोक्य, मुदां संभारं - हर्षभरं बभार । किं विशिष्टं मंडपं ? मेघागममेघविभ्रमंप्रावृट्कालजलदशोभं, पुनः किं विशिष्टं ? गजेन्द्रगर्जारवेण नृत्ताः - नटीभूताः, बर्हिणो-मयूराः, यत्र असौ, तम् । ७१. ततौजसं० । अथानन्तरं स चरो वृषभध्वजांगजं - बाहुबलि, वसुंधरेशंराजानं, साक्षाच्चकार - प्रत्यक्षीकरोतिस्म । किं विशिष्टं राजानं ? ततौजसंविस्तीर्णतेजसं, पुनः किं विशिष्टं ? सभासदांवरैः - सभ्यश्रेष्ठैः, विराजितं - शोभितं, कै: कमिव ? ग्रहैस्तीक्ष्णकरमिव-सूर्यमिव, ऋक्षैः-नक्षत्रैः, शशांकचन्द्रमिव, सुरैः वासवं - इन्द्रमिव, कलभैः द्विपेन्द्रमिव । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ पञ्जिका (सर्ग१) .. ७२. तताय । पुनः किं विशिष्टं राजानं ? संश्रितश्रियं-आश्रितलक्ष्मीकं, कामिव.? सुधर्मामिव-वासवसभामिव, पुनः किं विशिष्टां सभां? ततायतांविस्तीर्णदीर्घा, पुन: किं विशिष्टां ? सर्वतश्चतुरस्र, समां-अविषमां, उपमीयते-द्यामिव आकाशमिव । पुनः किं विशिष्टं राजानं ? सरत्नचामीकरभित्तिसंक्रमात्-मणिखचितसुवर्णभित्तिसंक्रांतितो, धृतकमूत्ति-धृतैकशरीरं, बहुमूर्तितां गतं-भूरिप्रतिबिंबतां गतं-प्राप्तं। ७३. अपूर्व०। पुनः किं विशिष्टं राजानं ? महामृगेन्द्रासनं-महासिंहासनं, अधिष्ठितं-अध्यासीनं । कमिव ? अपूर्वपूर्वादि-नवीनोदयाचलं, अधिष्ठातारं अंशुमालिनं-आदित्यमिव, किं कुर्वतं ? उद्दीपितसर्वदिग्मुखैः-उत्तेजितसर्वाशाननः, महोभिस्तेजोभिः, दुरालोकं-दुःप्रेक्षं, वपुः-शरीरं, अलं-अत्यर्थं बिभ्रतं-दधानं । ७४. मिमान। पुनः किं कुर्वाणं ? नृपोपरि-बाहुबलेरुपरिष्टात्, सितातपत्र च्छलत:-श्वेतछत्रमिषात्, यशः-कीति, दधानं-धरंतं । किं विशिष्टं यशः ? सुधाब्धिडिंडीरभरानवस्करं-क्षीरांभोधिफेनातिशयशुद्धं । उत्प्रेक्षते-अन्तर्मध्ये, न मिमानं-न मान्तं, अत एव बहिर्यातमिव-निर्गतमिव । पुनः किं विशिष्टं यशः ? एकतां-एकीभूतत्वं, गतं-प्राप्तं, कथं ? उच्चकैः-अत्यर्थम् । ७५. किमुर्व० । किं विशिष्ट राजानं ? विलासिनीभिः-वारवधूभिः, उद्वेल्लितं आन्दोलितं, चामरोभयं-चामरयुगलं, यस्मासौ, तं । किं कुर्वतीभिर्विलासिनीभिः ? इत्यमुं वितर्क-विचारं, ददतीभिः-अर्पयंतीभिः । इतीति किं ? उर्वशीभि:स्वर्वेश्याभिः, किमेनं राजानमभ्युपास्तुं-से वितुं, आगतं । अत्र भावे क्तः । किं विशिष्टाभिः उर्वशीभिः ? सुहृदा-मित्रेण, बलद्विषा-इन्द्रण, प्रहिताभिःप्रेषिताभिः । ७६. प्रकाम० । किं विशिष्टं राजानं ? प्रकाम-अत्यर्थ, अंसार्पितहारहारिणं स्कंधालंबितहाररमणीयं, वा प्रकामं-प्रकृष्टाभिलाषं, उपमीयते-सनिर्भरं मेरुशलमिव । पुनः किं विशिष्टं ? उन्नतप्रथं-उत्तुंगप्रख्यानं, पुनः किं विशिष्ट राजानं ? यशःप्रतापाभ्यां अभिहतौ-तिरस्कृतौ, इन्दुभास्करी-शशिसूर्यो, ताभ्यामाश्रितं-सेवितं, कस्मात् ? स्वकर्णार्पितकुंडलच्छलात् । ७७. भुजद्व० । उत्प्रेक्षते-भुजद्वयीशौर्यमिव-भुजयुगलपराक्रममिव, अक्षिगोचरं दृष्टिविषयं, चकार । अंगिनं-मूर्तिमंतं, महोत्सवमिव । उन्नतं मान-उच्चमहं कारमिव । इति सप्तकुलकार्थः । ७८. स दर्श० । स-दूतः, क्षोणिपतेः-राज्ञो दर्शनात्, प्रकंपितः सन्, इति अतर्कयत् विचारयामास । इतीति किं ? अहं यं राजानं लोचनाभ्यां नेत्राभ्यामपि, Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् विलोकितुं - द्रष्टुं न क्षमे न कस्मादिव ? समर्थो भवामि, मया स राजा किं- कथं, तीव्रतेजसो - दुःसहमहसो ज्वलत्कृशानोः ईर्यो - वाच्यः । यथा ज्वलदग्नेः प्रकंपितः । अथवात्र षष्ठी चिन्त्या । दर्शनेन सह संयोज्या अत्र त्रिभंगोन्वयः । ७६. भरत० । चारु-मनोज्ञं यथा स्यात् तथा भरतनृपतिचारः - प्रथमच क्रिसंदेशहारी, पाणी - हस्तौ संयोज्य - योजयित्वा क्षितिपति - राजानं नत्वा बिधिवत् - विधिपूर्व, अवनिनाथस्याग्रतो - बाहुबलेः पुरस्तात्, संनिविष्टः - स्थितः । किं विशिष्टं राजानं ? अत्यंतपुण्योदयाढ्यं - अत्यंतधर्मोदयसंपूर्णं । हि यतो, विधिज्ञाः क्वचिदपि प्रत्यनीकादावपि मार्गं नैव लुंपतीति द्विभंगोन्वयः । इत्थं श्रीकविसोमसोमकुश लाल्लब्धप्रसादस्य मे, श्रीनाभिक्षितिराजसूनुतनयश्लोकप्रथा पंजिका । नैकुण्यव्यवसायिपुण्य कुशलस्याऽस्याऽरविंदोद्गता, सद्वृत्तोल्लसदक्षरार्थकथिनी विश्वावदास्तां चिरम् ॥ इति श्री भरतबहुबलि महाकाव्ये पंजिकायां भरत दूतागमो नाम प्रथमः सर्गः । द्वितीयः सर्गः - अथ दूतवाक्योपन्यासं विवर्णयिषुः कविद्वितीयसर्गमारब्धुमुपक्रमते १. अथाग्र० । अथ - अनन्तरं एष दूतो विवक्षुरपि वक्तुमिच्छुरपि किञ्चिन् न वक्ति । किं विशिष्ट एष: ? बाहुबलेऽग्रतो निविष्टः स्थितः । पुनः किं विशिष्ट: ? एतस्य - राज्ञः, तेजोभिः - प्रभावः, विघूर्णितात्मा - विभ्रान्तचित्तः । हियतो, महोभिः - तेजोभिः, नृपाः - राजानः, अविलंघनीयाःअनुल्लंध्या भवंति । आत्मा चित्ते धृतौ यत्ने धिषणायां कलेवरे । परमात्मनि जीवेऽर्के हुताशनसमीरयोः ॥ — इत्यनेकार्थसंग्रहे । इति द्विभंगोन्वयः । २. न किंचि० । राजा न किंचिद् उक्तवंतं दूतं अवेक्ष्य - विचार्य, जगाद - वदतिस्म । किं विशिष्टो राजा ? विदिताशयार्थः - विदिताभिप्रायहेतुः । हि-यतो, विचक्षणाः- पंडिताः, स्वांतगतं भावं - हृदय स्थितमभिप्रायं सर्वं समस्तं मुखेन दृष्ट्या विदंति - जानंति । इति द्विभंगोन्वयः । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग २) .. ४१५ ३. आसी० । अपीति कोमलामंत्रणे । हे दूत ! तव एतावत्-पर्यन्तं, अखंडमार्गे अवच्छिन्नप्रयाणेऽध्वनि, स्वागतं-सुखेनागतं, आसीतू-बभूव ? किं विशिष्टस्य तव ? अयोध्यागतस्य-कौशलाय आगतस्य । च-पुनः, तवागमादिदं, मे-मम, मनः तृप्त-सन्तुष्टं। कस्येव ? तृषातुरस्येव । यथा तृषापीडितस्य जलावलोकात्-पानीयदर्शनात्, मनस्तृप्यति । इति त्रिभंगोवन्यः । नितांत । तृप्तेनिदानमाह । हे दूत ! त्वमद्य अस्मदीयं-आस्माकीनं, चित्तंअन्तःकरणं, बंधुप्रवृत्या-भरतादीनां किंवदन्त्या, सुखय-प्रीणय । किं विशिष्टं चित्तं ? नितांत-निर्भरं, तृष्णया-लिप्सया, आतुरं-व्याप्तं, मिलनायेति शेषः । धाराधरवारिधारा-वारिदजलधारा, दूरेऽस्तु-दवीयसी स्तात् । गजिरेववारिदध्वनिरेव, सारंग-चातकं, सानंदति-प्रीणाति । इति त्रिभंगोन्वयः । ५. तास्ता: । हे दूत ! तास्ता:-वक्षमाणाः, इति-अमुना प्रकारेण, समस्ताः समग्राः बाललीला:-कुमारावस्थाक्रीडाः । नो-अस्माकं, अदो मन:-चित्तं, सोत्कण्ठं-सरणरणरकं, आतेनु:-चक्रं : । का इव ? विध्यगिरेः क्रीडाभुव इव यथा विंध्याचलस्य क्रीडाभुवो, दंताबलानां-गजानां, दूरगानां-दूरवत्तिनां, मनः सोत्कंठं वितन्वंतीति द्विभंगोन्वयः । ६. यस्यास०। हे दूत ! यस्य-भरतस्याहमेवाज्येष्ठतया-लघिष्ठतया, आसं अभूवम् । स बंधु:-भरतो, मयाद्य दृष्टः। किं विशिष्टो भरतः ? सबंधु:सभ्रातृकः । कस्मात् ? त्वदर्शनात् । हि-यतः, पयोदकालः-प्रावृट्समयः, शतर्ह दः-विद्य तो दर्शनाद्-अवलोकनात्, वेद्यो-ज्ञेयः । इति त्रिभंगोन्वयः । ७. एनं भु० । हे दूत ! बाल्ये अहमेनं भरतं, भुजाभ्यां-बाहुभ्यां, अपसार्य दूरीकृत्य, प्रसह्य-हठात्, तातांक-पितुरुत्संगं, दूरादेत्य निषण्णः-स्थितः । तातेन-वृषभध्वजेन, इत्यहमत्यंतं भृशमहं निषिद्धो-निवारितः । किं कृत्वा ? प्रसाद्य-प्रसन्नीकृत्य । इतीति किं ? हे बाहुबले ! ते-तवायं भरतो, ज्येष्ठोअग्रजो, भ्रांता-बान्धवों भवतीति त्रिभंगोन्वयः । ८. हठाद०। हे दूत ! मया अस्य-भरतस्य, हस्तादीक्षुयष्टी, हठादपास्ता बलात्त्याजिता किं कुर्वतोऽस्य ? काम-अत्यर्थं, रुदतो-रोदनश्रवणानन्तरं, तातैः-वृषभस्वामिभिः, स्वयमात्मना, एत्य-आगत्य, तस्याः-ईक्षुयष्टेः,खंडंशकलं, विधाय-कृत्वा, नौ-आवाभ्यां, प्रत्यर्पितं-प्रतिदीयतेस्म। किमिव ? अवनेः खंडमिव । इति द्विभंगोन्वयः । ६. गजं वि० । हे दूत ! कदाचिद् मया ज्यायान्-भरतः, उपादाय हठादपास्तो Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् बलात् क्षिप्तोम्बरे । च- पुनः अस्मादंबरात् पतन् धृतः । किं कुर्वन् ज्यायान् ? विनिर्यन्मदवारिधारं-निर्गच्छद्दानजलधारं गजं आरुह्य, सलीलं -सक्रीडं यथा स्यात् तथा, चरन् - व्रजन् । १०. श्रीतात ० । हे दूत ! कच्चिदिति प्रियप्रश्ने । तस्य - भरतस्य, भद्र - कल्याणमस्ति । तस्य कस्य ? श्रीतातहंसेन - श्रीवृषभस्वामिसूर्येण यो वह्निरिव स्वे पदे न्यधायिन्यवेशि । किं विशिष्टेन ? शमंगतेन - शान्ति प्राप्तेन । पुनः किं विशिष्टेन ? विदूरं - विप्रकृष्टं विमुक्ता - उज्झिता, अस्त्राण्येवरुचः - कांतयो येन, असौ, तेन । किं विशिष्टो भरतः ? उरुतेजा: - महाप्रभावः । ११. न्यवेशि० । हे दूत ! तातेन - श्रीवृषभस्वामिना, अस्य - भरतस्य, भुजे - दोर्दंडे, या लक्ष्मीर्न्यवेशिं-आरोप्यत । केव ? सस्यराजीव । यथा सत्क्षेत्रभूम्यां - प्रधानक्षेत्रवसुधायां, धान्यराशिविधीयते । सा लक्ष्मीः सस्यराजी, अधुनेदानी, नीतिवृष्ट्या–न्यायवर्षणेन, अस्माद् - भरताद्, ववृधे - वृद्धिमासदत् । कस्मात् ? शात्रवावग्रहशक्तिनाशात् वैरिमेघान्तरायवलध्वंसात् । १२. परस्प० । हे दूत । आवयोरन्तरे - मध्ये, विदेशः पतितोऽस्ति । कयो किमिव ? अक्ष्णोरन्तरे नक्रमिव । किं कुर्वतो ? परस्परां - अन्योन्यां, ईहां स्पृहां, आवहतोः - धरमाणयोः । किं विशिष्टयोः ? समानसौहार्दयुषोः– सदृशमैत्र्यभाजोः । पुनः किं विशिष्टयोः ? प्रेमोद्रयोः - प्रणयक्लिन्नयोः । परस्परामिति प्रयोगो नैषधे- परस्परोमर्पित हस्ततालमिति । १३. पुराच० । हे चर! अहं भ्रातरमंतरेण-बांधवं विना, मुहूर्तमपि स्थातुं न शशाक—न समर्थोऽभूवं । कथं ? पुरा - पूर्व, मम दृष्ट्याऽधुना उपोष्यतेउपवासः क्रियत एव । भ्रातुर्दर्शनं विनेति शेषः । ततः - तस्माद्धेतोः, मे - मम, दिवसाः व्यर्थाः - निः फलाः, प्रयांति - व्रजन्ति । इति त्रिभंगोन्वयः । शशांकेति 'ब' उत्तमवचनं । १४. सा प्रीति० । हे दूत ! मया सा प्रीतिः - स प्रणयो नो अंगीक्रियते नो प्रतिपद्यते । सा का ? किल इति निश्चयेन, यस्यां प्रीतौ विप्रयोगो - विरहो, जायेत-भवेत् । यदि आवां - भ्रातरौ विप्रयुक्तौ - वियोगिनो, जिजीविवप्राणान् दधिव, तदा प्रीतिर्नावयोविभावनीया- न ज्ञातव्या । किंतु हियतो, रीतिः - प्रकृतिः, चिन्त्या | पंचभंगोन्वयः । जिजीविवेत्यत्र. 'णबुत्तमपुरुषस्य' द्विवचनं । १५. ह्रत्क्षेत्र० । हे दूत ! नौ - आवयोः, प्रीतिबीजैः अन्योन्यसंपर्कपयोदवृष्टया Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ परस्परमिलनमेघवर्षणात् शतधा विवृद्धं । किं विशिष्टैः ? ह्रत्क्षेत्रभूम्यां - हृदयक्षेत्रक्षोण्यां, परिवापं - बीजसंतानं, एतैः - आप्तैः तु पुनः अत्र मिलनवर्षणेऽवग्रहो-वृष्ट्यन्तरायकारी, विदेश एवास्तीति द्विभंगोन्वयः । 2 पञ्जिका (सर्ग २ ) १६. तत् तत् पि० । हे दूतं ! अशेषं समस्तं पितुर्लालनं, च-पुनः, बांधवैः सह ताः पूर्वोक्ताः बाललीलाः स्मृत्वा - संचिन्त्य मे - मम मनः स्वयमेव शांति यातिप्राप्नोति । कस्येव ? द्विपस्येव । यथा द्विपस्य - हस्तिनो, मनः स्वयमेव शांति यति । किं विशिष्टस्य द्विपस्य ? नगाहृतस्य - वंध्याचलानीतस्य । ० १७. श्रीतात । हे दूत ! पुरीप्रदेशाः - अयोध्योद्देशाः, मम मनोऽभिनन्दन्ति-प्रीतिमुत्पादयन्ति । किं विशिष्टा: पुरीप्रदेशाः ? श्रीतातपादाब्जरजः पवित्रीकृताः, पुनः किं विशिष्टाः ? जितस्वर्नगरैकलक्ष्म्यः - निर्जितनाकशोभा, के कमिव ? यथा कलाधरस्य - चन्द्रस्य, करा: - किरणाः, चकोरमभिनंदति । १८. न मा० । दूत ! या पुरी अयोध्या कल्याणसालच्छलतः - स्वर्णप्राकारमिषेण, इति स्मयात् - गर्वात्, वलयं - कटकं, बिर्भात - धारति । इतीति किं ? जगत्यां - विश्वे, क्वापि - कुत्रापि मादृशी - मम सदृशी, पुरी - नगरी नास्ति । सा पुरी कोशला इदानीं - अधुना तादृगेवास्ति तत्स्वरूपैवास्ति । किं विशिष्टा ? शिवाढया - मंगलपूर्णा । . १६. नितांत० । हे दूत ! नितांतबंधुप्रणयप्रदीपः - अत्यर्थस्वजनप्रेमदीपः, तेजो बिभत्त । किं विशिष्टं तेजः ? तमोहारि - ध्वान्तहरं, पुनः किं विशिष्टं ? दिक्षुआशासु, चरिष्णु-चरणशीलं कस्मात् ? निरंतरस्नेहभरात् - परिपूर्णप्रेमातिशयान् ! दीपपक्षे - स्नेहस्तैलं । अतः परं - एतस्मात् दिवसादारभ्य इहास्मिन् प्रणयप्रदीपें, खेदवातः - खेदानिलो, मा भूत् - माऽस्तु । इति द्विभंगोन्वयः । २०. नीतोह ० । हे दूत ! अहं तु पुनः, इदानीमस्मिन्नवसरेऽयोध्यां - कोशलां, एतुंआगंतु, न विभवामि न शक्नोमि । किं विशिष्टोऽहं ? तातेन - ऋषभस्वामिना, अहमिद्रत्वं - स्वतंत्रस्वामित्वं नीतः - प्रापितः । एतद् मम हृदयं - मनः, सोत्कंठंसौत्सुक्य, आस्ते - तिष्ठति । कयोरिव ? रथांगनाम्नोरिव । यथा चक्रवाकीचक्रवाकयोर्हृदयं, हीति खेदे, रजन्यां सोत्कंठं आस्ते । इति त्रिभंगोन्वयः । २१. किं दूत ! । हे दूत ! किमिति वितर्के, त्वं साकूतं - साभिप्रायं यथा स्यात् तथा, इह - मत्समीपे, आगतोऽसि । वा - अथवा, मम भ्रातुः - भरतस्यारिः - शत्रुः, बलाढ्यः - बलवान् किं वर्त्तते । दृष्टान्तमाह । दावाग्निः - वनवह्निः, अरण्यदाहेवनज्वालने, शक्तोऽपि—समर्थोऽपि, समीरणस्य - वायोः, सारथ्यं-साहाय्यं ईहेतअभिलषेत् । इति त्रिभंगोन्वयः । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् २२. निःशंक ० । हे दूत ! त्वं मे - मम, पुरोऽग्रे, त्वद्भर्तुः - भवत्स्वामिनो, निःशंक यथा स्यात् तथा, शासनं- आज्ञां, आविष्कुरु- प्रकटय । किं कृत्वा ? आतंकं - भयं, दूरादपास्य-त्यक्त्वा, किं विशिष्टमातंकं ? अरातिभूभृद्हृत्कुंजवास्तव्यंप्रत्यनीकभूपालहृदयारण्यवासिनं । हि यतो नृपाः- राजानः, चारपुरःसराः भवंति । २३. इतीर० । बहलीक्षितीशः - बाहुबलिः, इति - अमुना प्रकारेण, ससंभ्रमं - सत्वरं, सप्रणयं- सस्नेहं, सनीति-सनयं यथा स्यात् तथा ईरयित्वा - कथयित्वा क्षणंघटिकाषष्ठ्यांशं, विशश्राम - तस्थौ । अथ चरः सुवेगनामा, भूपमुवाच - अब्रवीत् । किं विशिष्टश्चरः ? भालस्थलीमिलत्पाणिः - कृतांजलिः । इति द्विभंगोन्वयः । २४. राजन् ० । हे राजन् ! भरताधिराजो - भारतवर्षाधीशो, ममाननेनं वचो - वचनं, भवंतं-त्वां, अभिधत्ते - कथयति । किं विशिष्टं वचः ? प्रादुर्भवन्नीति - प्रकटीभवन्न्यायं । हि-यतः, क्षितिवल्लभाः - राजानः, नीतिप्रियाः - न्यायवल्लभाः, भवंति । च-पुनः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण भवदुवन् न प्रीतिपरा:प्रणयासक्ताः भवति । इति त्रिभंगोन्वयः । २५. सा भार० । हे राजन् ! भारतवासवस्य - भरतचक्रिणः, सा भारती - वाणी, मां-अनुचरमात्रं, आललंबे - समाश्रितवती । सा का ? या नृपमौलिभिः - राजशिरोभिः, नवमल्लिकेव - नवीनमालतीव नित्यं प्रियेत । किं कुर्वती ? स्फुरंतं-विस्तरयंतं, आमोदभरं - आनंदातिशयं, वहंती - दधाना | पक्षे - परिमलभरं । इति द्विभंगोन्वयः । 1 २६. वयं च० । हे राजन् ! वयं चराः श्रितानुवृत्ति - आश्रितप्रभोरनुमति, न विलंघयामः-नातिक्रामामः । किं विशिष्टा वयं ? स्वामिनिदेश निघ्नाः - पत्युरादेशवशाः । पुनः किं विशिष्टाः ? जगत्यां - विश्वे, तमोहराः- स्वस्वामिबलादिज्ञापनेन अज्ञानहराः । पुनः किं विशिष्टाः ? तापकरा:- मत्स्वामी त्वां हनिष्यतिइत्यादि वचनेन कष्टकराः । के कमिव करा: ? उष्णद्युतिबिंबचारमिव - यथा किरणाः सूर्यमंडलचारं नातिक्रमति । करपक्षे - ध्वांतहराः संतापकृतः । २७. संदेश० । हे राजन् ! संदेशहारी- दूतो, यो निजनायकस्य - स्वस्वामिनः, प्रत्यर्थिनां - वैरिणां, पुरस्तात् - अग्रे, नैर्बल्यं - बलराहित्यं, आविष्कुरुते - प्रकटीकरोति, स जनः पयोधिवह्निसमानतां - वडवानलसादृश्यं गच्छति - प्राप्नोति । कथंभूतः सः ? संश्रयारिः - आश्रयवैरी । इति द्विभंगोन्वयः । २८. अतस्त्व० । हे श्रीभरतानुजन्मन् - भरतावरज ! अतः कारणात् वक्षमाणात्, Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग२) ४१६ त्वया-भवता, चरस्यापि वचोऽवधारणीयं-मनस्यानेयं, सरसीवरस्य-मानससरसः किं मलीमसं-कलुषं, वारिदवारि-नवमेघजलं, श्रिये-शोभायै, न हि भावि । इति द्विभंगोन्वयः। २६. शतं सु० । हे राजन् ! वृषभध्वजेन-श्रीवृषभस्वामिना, भिन्नेषु देशेषु सुतानां शत विन्यवेशि-आरोप्यत । किं कृत्वा ? नामांकतो-अभिधानचिन्हतो, राजपदेऽभिषिच्य-राज्याभिषेकं विधाय । हि-यतः, सतां वृत्तं-महतां आचारः, सततं निरंतरं, प्रवृत्त्यै अगात् । ३०. तदंत० । हे राजन् ! तदन्तर् यद् ऋषभसूनुशतानामध्ये कोपि भुवस्तलं-मही मंडलं, प्लावयितुं-द्रावयितुं, सहिष्णु:-समर्थोस्ति । किं विशिष्ट: ? बलातिरिक्तः-पराक्रमाधिकः । क इव ? कल्पान्तकालाब्धिरिव । यथा कल्पान्तकालजलधिर्भुवस्तलं प्लावयितुं सहिष्णु : स्यात् । किं विशिष्टः ? उत्तरंग:-उत्कल्लोलः, अस्य-ऋषभसूनुसमुदयस्य, निषिद्धिः-निवारणं, सौभ्रात्रसीमैव सुबंधुभावमर्यादा एव । इति त्रिभंगोन्वयः । ३१. ज्येष्ठोग्र० । हे राजन् ! तातेन यो भरतः स्वीयपदे-निजस्थाने, न्यवेशि-स्थापितः किं विशिष्टो यः ? अग्रसंजाततया-प्रथमलब्धजन्मतया, गुणैश्च-सत्त्वादिभिः, ज्येष्ठः-वृद्धः । तस्य भरतस्य प्रतापाब्धिहिरण्यरेता:-प्रतापवडवानलः, प्रत्यर्थि पाथांसि-वैरिजलानि, तनूकरोति-कृशीकुरुते । इति द्विभंगोन्वयः । ३२. केचिन्न० । हे राजन् ! केचिन् नृपाः-राजानः, प्रभोः-भरतस्य, पुरो-अग्रे, केवलं प्रांगणं-आसनाभावादजिरं आश्रयन्ति । किं विशिष्टाः राजानः ? अप्यूर्ध्वजानुक्रमवर्तमानाः-ऊर्ध्वजानुचरणवर्तमानाः । किं कृत्वा ? मौलिमणीमस्तकरलं, अपास्य-त्यक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ? गुरु-महतीं, एतदाज्ञां-भरताज्ञां, निवेश्य-स्थापयित्वा, शिरसीति शेषः । ___३३. भूपाल । हे राजन् ! तस्य-भरतस्य, राजाजिरं-राजसभाप्रांगणं, राजति शोभते । किं विशिष्टं राजाऽजिरं ? भूपालवक्षस्थललंबिहारसंघट्टसंघर्षणचूर्णगौरं-नृपहृदयस्थललंबमानहारपरस्परमिलनसंघर्षणक्षोदधवलं । उपमीयतेकीत्तिशीतांशुरोचिच्छुरितश्रिया इव-यशःशशधरकिरणस्फुरितलक्ष्म्येव । ३४. सुतामु०। हे राजन् ! च-पुनः, केचिन् नृपाः-राजानः, सुतां-तनयां, उपादाय प्राभृतीकृत्य, एनं-भरतं स्वजनं विधाय प्रणेमुः-ववंदिरे, के कमिव ? गिरीन्द्रमुख्या नीलकंठमिव । यथा हिमाचलप्रभृतयो महादेवं स्वजनं विधाय प्रणमंतिस्म। किं विशिष्टमेनं ? प्रभूतभूत्यैकनिबद्धचित्तं-बहुलसंपत्येक नियतमानसं, महादेवपक्षे-भूतिभस्म । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ३५. महामृ० । हे राजन् ! नरेन्द्रलक्ष्म्यः - भूपालश्रियः, स्वयं - आत्मनैव आयांतिअनायासेन समागच्छति । किं विशिष्टं ? महामृगेन्द्रासनसंनिविष्टं - महासिंहासनस्थितं ? पुनः किं विशिष्टं ? नृपैः - भूः परीतं संयुक्तं । कै: कमिव ? त्रिदशैरन्द्रमिव । का: कमिव ? महीध्रकन्या वारिराशिमिव । यथा नद्यः समुद्रं स्वयमायान्ति । ४२० ३६. सर्वेषु० । हे राजन् ! स भवद्भ्राताऽयं भरतः सर्वेषु भूभृत्सु - राजसु, विभाति - शोभते । किं विशिष्टः सः ? अभिनंद्यः - स्तुत्यः क इवं ? मेरुरिव । यथा सुमेरुः सर्वेषु पर्वतेषु अभिनंद्यः स्यात् । पुनः किं विशिष्टः सः ? परोन्नतिःपरा–उत्कृष्टा, उन्नतयः-समृद्धयः यस्यासौ । मेरुपक्षे - सर्वेभ्यः उच्चः । पुनः किं विशिष्टः ? आक्रान्त निःशेष महीनिवेशः - व्याप्तनिखिलधराधिष्ठानः । पुनः कि विशिष्ट ? उद्दीप्रकल्याणमनोरम श्रीः- भास्वरमंगलाभिरामलक्ष्मीः, मेरुपक्षेकल्याणं- सुवर्णं । I ३७. वज्राह० । हे राजन् ! वसुधाधराणां-पर्वतानां, किल इति श्रूयते, वारिराशि:समुद्रः, शरण्यः - त्रायको भवेत् । किं विशिष्टानां वसुधाधराणां ? वज्राहतानां - इन्द्रमुक्तशस्त्रलून पक्षाणां एतदुभिया - भरतभयेन त्रस्तमहीश्वराणां - प्रनष्टभुपालानां, लोकत्रयेऽपि त्रैलोक्येपि, परः - अन्यः, शरण्यः-रक्षकः, नास्तीति त्रिभंगोन्वयः । ३८. निस्वान० । हे राजन् ! अस्य - भरतस्य, विरोधिभिः - वैरिभिः, दिगंता:ककुभां प्रान्ताः, व्यानशिरे - व्याप्यंत । कुरंगैः - मृगैः, उषितं - तस्थौ । किं विशिष्टः कुरंगैः ? तदीय पौधा विरूडदूर्वांकुर प्रलुब्धैः - तेषां शत्रूणां गृहोपरि संजात तृणांकुरा सक्तैः । किं विशिष्टैः विरोधिभिः ? नष्ट: - पलायितैः । कया ? निस्वाननिस्वानभिया - वाद्यविशेषनिर्घोषभीत्या । इति द्विभंगोन्वयः । ३६. विलोक्य० । हे राजन् ! च पुनः राजहंस : - नृपश्रेष्ठैः । पक्षे - मानसपक्षिभिः । श्यामाननीभूय - कृष्णाननी भूत्वा पलायितं - प्रनष्टं । किं विशिष्टैः । राजहंसः ? शुद्धपरिच्छदाढ्यः - विशदपरिवारस हितैः । मानसपक्षिपक्षेपरिच्छदः पक्षः । किं कृत्वा ? रजः - पांसुं विलोक्य दृष्ट्वा किं विशिष्टं रजः ? यत्सैन्यह्यावधूतं भरतकटक तुरगोत्थापितं । पुनः किं विशिष्टं रजः ? नवांभोधरराजिनीलं - नवमेघलेखाश्यामं । ४०. अस्य प्र० । हे राजन् ! कैश्चिद् - वैरिभूपालैः, क्वापि भुवोन्तरालेमहीमध्ये गतं । किं कृत्वा ? मुखानि - वदनानि, लात्वा - गृहीत्वा । किं Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. पञ्जिका (सर्ग२) ४२१ विशिष्टानि मुखानि ? अद्रष्टुमर्हाणि-अविलोकितुं योग्यानि । पुनः किं विशिष्टानि मु० ? रजोभिर्म लिनीकृतानि-रेणुभिर्मलीमसानि । कि विशिष्टः रजोभिः ? हयक्षुराग्रोधृतैः-अश्वखुरशिखोत्थापितैः । केषु ? अस्य प्रयाणेषुभरतस्य यात्रासु। अनावृ० । हे राजन् ! हरिद्भिः-दिग्भिः, इतीव रेणुच्छलतो-रजोव्याजेन, नीलपटी-श्यामोत्तरीयं, समंतात्-सर्वतः, समाददे-संजगृहे। इतीति किं । नोअस्माकं, अयं पतिः-भर्ता, अनावृतं-अनाच्छादितं, मुखाब्ज-मुखकमलं, मा . पश्यतु-मा दृष्टिविषयीकरोतु । प्रायेण स्त्रियो हि प्रियावलोकने मुखमाच्छा दयंति । किं विशिष्टोऽयं ? प्रभुतोपपन्न:-प्रभुत्वसंयुतः । इति द्विभंगोन्वयः । ४२. मदेन । हे राजन् ! राजा-भरतः, चक्रेण अधिकदुःप्रधर्षः-अत्यंतदुःसहः, आभात्-विराजतेस्म । केन क इव ? मदेन हस्तीव-दानवारिणा गज इव । मृगारिणा-सिंहेन वनप्रदेश इव । आशुगेन-वायुना अग्निरिव । उनिलेनवाडवाग्निना, पयोधिः-समुद्र इव । उपमानोपमेयाभ्या मिति पंचभंगोन्वयः । ४३. यथारुण । हे राजन् ! तीक्ष्णरुचेः-सूर्यस्य, यथाऽरुण:-विनतासूनुः, अग्रे भवति, तथा अस्य-राज्ञः, चक्र-रथांगं, पुरतः-पुरस्तात् बभूव-आसीत् । किं विशिष्टं चक्र ? सतेजः-सप्रभावं, कया ? दुरुत्तरारातितमःप्रहारनितांतदाक्षिण्यत्तया-दुरंतशात्रवांधकारहननात्यंतविद्धत्त्वेन । ४४. . • राजन् !० । हे राजन् ! भवबंधुबलांबुराशि:-त्वद्भातृकटकसिंधुः, प्रकाम अत्यर्थं, एतत्प्रणिपातसेतुबंधप्रबंधेन-भरतनमस्कारसेतुबंधाग्रहेण, विगाहनीयःतरीतव्यः । किं विशिष्ट: ? चतुर्दिगाप्लावनबद्धकक्ष:-चतुराशाक्रमणबद्धपरिकरः । ४५. परिस्फु० । हे राजन् ! स राजा भरतः, वसुधाधराणां-राज्ञां, दुःसहो बभूव। किं कुर्वाण: ? चक्र-रथांगं, दधान:-धरमाणः किं विशिष्टं चक्र ? उल्बणाभं-भीषणाभं । किमिव ? तीक्ष्णद्युतेः-सूर्यस्य बिंबमिव । पुन: किं विशिष्टं चक्र ? परिस्फुरत्कांतिसहस्रदीप्रं-राजमानप्रभासहस्रभासुरं, क इव ? शक्र इव । यथेन्द्रः आत्तशबः-विहितवज्रो, गिरीणां दुःसहो भवति । ४६. किमत्र०.। हे राजन् ! क्षितिवल्लभानां-राज्ञां जयेऽत्र किं चित्रं-आश्चर्य वर्त्तते ? अयं-भरतः, सुराणां-देवानां, अप्यजय्यः-न जेतुं शक्यः । हि-यतः, सतां-महतां, प्रभावः-महिमा, वचोतिरिक्तः-वचनातीतोस्त्येव किं विशिष्टः प्रभावः ? देवासुरवृन्दवंद्यः-सुरासुरसमूहस्तुत्यः । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ४७. योऽखंड० । हे राजन् ! यो नृपो भरतः, अखंडषट्खंडधराधराणां - समस्त भरतभूपानां, गौरांशुगौरातपवारणानि - चन्द्रोज्वलच्छत्राणि, हतु - ग्रहीतुं प्रवृत्तः - प्रसृतः । उत्प्रेक्षते - यशांसीव । क इव ? संवर्तपाथोधिरिव - कल्पांतकालाब्धिरिवातिरौद्रः - अतिभीषणः । ४८. विद्याध० । हे राजन् ! नृपस्य - भरतस्य, तेजो - महोऽतिदुःसह्यं - अतितापेन दुःसहना अभूत् - आसीत् । कस्येव ? अंशोरिव । यथा सूर्यस्य तेजो दुःसाध्यं भवति । किं विशिष्टस्य नृपस्य ? वैताढ्यगिरि - भारतार्द्धपर्वतं, गतस्य - प्राप्तस्य । किं विशिष्टं वैताढ्यगिरिं ? विद्याधरैराढ्यं - पूर्णं । पुनः किं विशिष्टं ? अलंघनीयं अनतिक्रमणीयं । विना चक्रिणा एनं पर्वतं लंघयितुं कोपि समर्थो न । कैः कमिव ? गुणैः - विनयादिभिः, इज्यं - पूज्यमिव । पुनः कैः कमिव ? सलिलैः-पानीयैः, अब्धि- समुद्रमिव । ४६. सेनानिं० । हे राजन् ! अस्य नृपतेः - भरतस्य इह-अस्मिन् वैताढ्यगिरी, सेनानिवेशाः-स्कंधावाराः पंचाशत् आसन् - बभूवुः । गिरेः पंचाशत्योजनविस्तीर्णत्वात् । किं विशिष्टाः सेनानिवेशा: ? अधिकोत्सवाढयाः - वर्द्धमानं महोत्सवपूर्णाः । किं कुर्वंत इव ? तुरंगमातंगपुरीषसगैः - अश्वगजशकृत्त्यागैः, कूटानि शिखराणि तन्वंत इव - विस्तारयंत इव । किं विशिष्टानि कूटानि ? अतनूनि - अनल्पानि । २०- ५१. तातप्रि० । एतस्य० । हे राजन् ! तौ - नमिविनमी कच्छमहाकच्छसुतौ, एतस्य - भरतस्य, सुषेणनामानं सेनाधिपति - सेनानीं, मार्गे पथि, न्यरुद्धांन्यवारयतां । किं विशिष्टौ ? प्रतीती - विख्यातौ कया ? तातप्रियापत्यतयाऋषभस्वामीष्टसंतानतया । तो को ? यो स्वामिनि - युगादिदेवे, मौनं संसृते सति, पन्नगेन्द्राननलब्धविद्यौ- धरणेन्द्रास्यसंप्राप्ताष्टचत्वारिंशत्सहस्रविद्यावभूतां । पुनः किं विशिष्टौ ? भारतार्द्धगिरीन्द्रे - वैताढ्यगिरी, संप्राप्तमहर्द्धिराज्य - लब्धोत्तर णिदक्षिणश्रेणिप्रभुत्वी । कौ कमिव ? सामुमन्तौ तटिन्या यमिव यथा पर्वतौ नद्यावेगं निरुद्धां । किं विशिष्टं रयं प्रसृत्वरं - प्रसरण - शीलं किं विशिष्टौ तौ ? कटकाभिरामी - सैन्यमनोहरौ । पर्वतपक्षे - कटकोद्विनितंबः । पुनः किं विशिष्टौ ? अविलंघनीयो - अनतिक्रमणीयो । इति युग्मार्थः । ? 1 ५२ - ५३. वैमानि० । तौ द्वाद० । हे राजन् ! तौ - नमिविनमी, द्वादशाब्दी - द्वादशसंवत्सरी, भरतेन सार्द्धं द्वन्द्वं - संग्रामं वितेनतुः - चक्रतुः । किं विशिष्टं द्वन्द्वं ? संपादितोल्कं-निर्मापितोल्कापातं कस्मात् ? निर्घषद् - संघर्षात् । कैः कृत्वा ? बाणैः शरैः । किं विशिष्टैर्बाणैः ? अधोमुखैरूर्ध्वमुखैश्च । कैः ? Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग २) ४२३ खगामिभिः-विद्याधरैः, भूमिचरैः । किं विशिष्टः ख० ? वैमानिकैः-विमानरूढः। किं विशिष्ट: भूमिचरैः ? स्यंदनसंनिविष्ट:-रथारूढः। पुनः किं विशिष्ट: ? बहुधाप्रवृत्तः-अनेकधाप्रसृतः । बाणैरित्यत्र करणे तृतीयाऽन्यत्र कतरि। को केनेव ? गजी विंध्याचलेनेव । किं विशिष्टौ ? मदान्धौ-गन्धिौ । पुनः किं विशिष्टौ ? अनिंद्यसत्वौ-श्लाघनीयबलौ। किं विशिष्टं द्वन्द्वं ? चित्रकारि आश्चर्य विधायि, केषां ? सुरासुराणां । इति युग्मार्थः । ५४. अभंगु० । हे राजन् ! तौ-नमिविनमी, स्वसुतां तस्मै-चक्रिणे, अदत्तां-ददतुः । किं कृत्वा ? भारतवर्षनेतुः-भरतक्षेत्राधीशस्य, अभंगुरं-भंगरहितं, बलंसैन्यं, दृष्ट्वा-विलोक्य । स सार्वभौमः-स चक्रवर्ती, ताभ्यां-नमिविनमीभ्यां, राज्यं अददात्-अर्पयामास । किं विशिष्ट: सः ? स्त्रीरत्नलाभात्-स्त्रीरत्न प्राप्तेः, मुदितो-हृष्ट: । इति द्विभंगोन्वयः । ५५. एवं श० । हे राजन् ! एवं अमुना प्रकारेण, एषः-भरतचक्री, वैताढयगिरि मादाय-गृहीत्वा, चचालाने-प्रयाणमकार्षीत् । उत्प्रेक्षते-विद्याभृतां-विद्याधराणां, श्लोक-यश इव, अतितुंगं-अत्युच्चमादाय । किं विशिष्टं ? शरच्चन्द्रमरीचिगौरं-शरत्शशांककिरणधवलं । पुनः किं विशिष्टं ? पूर्वापरांभोधिगतांतं प्राच्यापरलवणसागरप्राप्तप्रान्तं । ५६. स कंद । हे राजन् । स-राजा भरतः, तत्र-तस्मिन् वैताढ्यगिरौ, क्रमात् परिपाटीतः, कंदरद्वारं-तमोगुहाद्वारं उद्घाटय, विवेश-प्रवेशं चकार । किं . विशिष्टः सः ? काकिण्या:-रत्नविशेषस्य, असंख्येयः-अगणनीयो यो महःप्रभावः- तेजोनुभावः, तेन तिरोहित-आच्छादितो, ध्वान्तभर:-तमःसमूहो येन, असौ । पुनः किं विशिष्टः सः ? अवार्यवीर्यः । पुरस्तादग्रे। ५७. स मल्लिं० । हे राजन् ! सः-भरतो, मार्गे-पथि, समीरैः-वायुभिः, सिषेवे सेवितः । किं विशिष्टः स० ? मल्लिकाकोडे-मालत्यंके । विलोला:-चपलाः, लीला:-क्रीडाः येषां, ते, तैः। पुनः किं विशिष्टः ? मंदाकिनीशीकरिभिःगंगाजलच्छटावद्भिः । पुनः किं विशिष्टः ? करीन्द्रा:-भरतगजेन्द्रास्तेषां कुंभस्थलेषु स्खलनात्-पतनात्, अतिमंदै:-अतिकृशैः, पुनः किं विशिष्टः, हतक्लान्तिभरैः-हतमार्गक्लेशातिशयैः । ५८. स भूभृ० । हे राजन् ! स-भरतः, पृथिव्यादिभिः पंचभिर्भूतैः भूभृदपि, असेवि-पर्युपासितः। कुतः ? औत्कृष्टयतः-उत्कृष्टरूपेण । किं विशिष्ट: स राजा ? उत्कृष्टतरप्रभाव:-असाधारणतरप्रभावः। हि-यतः, सत्सु-महस, प्राघुणकेषु, स्वीयं-निजं, माहात्म्यं-महत्त्वमलोपनीयं-रक्षणीयमित्यर्थः । इति द्विभंगोन्वयः। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् . ५६. स नौवि० । हे राजन् ! स-राजा, जाह्नवीये-गांगेये, तीरे-तटे, सेनानिवेशं ततान-चकार । किं कृत्वा ? सिन्धूनद्यौ अवतीर्य-उत्तीर्य, कैः ? नौविमानैः, किं विशिष्ट: (सः) ? तपस्क्रियाभ्यां आराधितानि-स्ववशीकतानि सन्निधानानि येन, असौ । किं विशिष्टे तीरे ? धुलोकलक्ष्मीमुषि--स्वर्गश्रीस्तेये। . . विलोक्य० । हे राजन् ! गंगापि रोमोद्गमलक्षतो-रोमहर्षमिषात्, द्राक्-शीघ्र, बाणांतपक्षानिव-कामबाणपक्षप्रान्तानिव, संबभार-धरतिस्म । कया ? पुष्पेषांकामस्य, बाणाग्राणि-शरोपरिभागः, विभिन्ना-विहता, तनुस्तयेति । किं. कृत्वा ? तं-सार्वभौम, मन्मथहारिरूपं-काममनोज्ञाकारं, विलोक्य-दृष्ट्वा ।। ६१. व्यजिज्ञ० । हे राजन् ! सा स्वर्वधूः-गंगादेवी, दूतीमुखेन भूपं-भरतं, एवं वक्षमाणप्रकारेण, व्यजिज्ञपत्-विज्ञप्ति कारयामास । किं विशिष्ट भूपं ? अनन्यरूपं-अनितसौन्दर्य । का स्मेरनेत्रा-स्त्री, स्वमुखेन-स्वास्येन, कामाभिलाषं स्मरमनोरथ, वक्तुं-कथयितुं, विभवेत्-समर्था स्यात् । किं विशिष्टा? अलज्जा। . इति द्विभंगोन्वयः । ६२. प्रीतिर्भ० । हे राजन् । दूत्यागत्य किं जगाद ? हे नरदेव ! भवति-त्वयि, प्रीतिः-प्रणयोऽस्ति । तत:-तस्माद्धेतौ, तया-गंगादेव्या, मर्त्यमात्रे विचारो न विधीयते-न क्रियते । हि-यतः, अनूहा-वितर्करहिता, प्रीति:-मैत्री, विद्यते । देवीयं अधुना-साम्प्रतम्, भवद्वियोगे-त्वद्विरहे, विधुरा-व्याकुलाऽस्ति । इति चतुर्भूगोऽन्वयः । ६३. त्वं मानु० । हे राजन् ! सा दूती पुनः किमाह ? हे भरत ! त्वं मानुषीणां भोगे-सुखे, निमग्नं-निलीनं, चित्तं-मानसं यस्य, असौ, एतादृशो वर्त्तसे । हिनिश्चयेन त्वं स्व........। अत्र पञ्जिकायां नवमः पृष्ठः सम्पूर्णो भवति अत ऊध्वं षट् पृष्ठाः (१०-१५) न समुपलभ्यन्ते षोडशपृष्ठस्य प्रारम्भे तृतीयसर्गस्य अन्तिमश्लोकस्य किञ्चिदंशः प्राप्तोऽस्ति ।] ........'षयामास । किं विशिष्टं दूतं ? वाक्यस्य-वचनस्य, योऽवकाशंअवगाहनं, तत्र विदुरं-पंडितं । किं विशिष्ट: क्षितीशः ? पुण्योदयाढ्यहृदयःधर्माभ्युदयभरितमनाः । पुनः किं विशिष्ट: ? सदयः-सद्भाग्यो वा सको, हि-यतः, तादृशां-चक्रवर्तिसदृशानां, विनिषेवणं-पर्युपासनं, अत्र-अस्मिन् लोके, न वंध्यं-न निष्फलं स्यात् ।। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग ४) इथं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मे, . देवश्रीवृषभध्वजांगजकथाश्लोकप्रथा पंजिका । नैपुण्य व्यवसायि पुण्य कुशलस्यास्थारविंदोद्गता, या तस्यां निजनीवृदागतचरः सर्गस्तृतीयोऽभवत् ॥ इति श्रीभरतबाहुबलि महाकाव्ये पंजिकायां दूतप्रत्यागमो नाम तृतीयः सर्गः । ४२५ चतुर्थः सर्गः -- १. अथ ० । अर्थ - अनन्तरं, क्षितिराजः - भरतः, वचनं वदने - मुखे, दधे - धृतवान् । किं कुर्वन् ? दूतगिरा - चरवाण्या ज्वलन्नपि - तपन्नपि । किं विशिष्टं वचनं ? प्रणयांचितं - प्रेमसहितं पुनः किं वि० ? क्षपितारिविग्रह - दूरीकृतारातिकलहं । क इव ? अभ्भोद इव, यथा घनो विद्युता - तडिता, ज्वलन् - दीप्यमानः, वदने अंबु - पानीयं धत्ते । किं विशिष्टं अंबु ? अरि-चक्र, तस्य वि-विशेषेण, ग्रहो - ग्रहणं अर्थाच्छकटः । क्षपितोऽरिविग्रहः - शकटसंचारो येन, तत्, तत् । यत्र, २. अह मे० । किं वचनं जगादेत्याह । अहमेव विलोलतां - चांचल्यं गतः - प्राप्तः । क इव ? अवनीरुह इव । यथावनीरुहो - वृक्षः, पवनोद्भूतः सन् - वायुना कंपितः सन्, विलोलतां गच्छति । यत् - अस्माद्धेतोः अहं बांधवं प्रत्यमुं चरं प्रजिघाय - प्राहिणवं- - जब उत्तमवचनं । हि यतः ईदृशाः - एवंविधाः, दूतकर्मणे न मताः - न संमताः । इति चतुभंगोन्वयः । दौत्याय ३. वितनो० । अहं यदि - चेत्, इह-अस्मिन् समये, बलिना - बाहुबलिन्स स्वबंधुना वितनोमि - करोमि, तदा अहं जलवासिनस्तिमेःजनोक्तिभिः– लोकवाक्यैः, एतास्मि - प्राप्तास्मीति सार्द्धं, विग्रहं समरं, मच्छस्योपभां-तुलनां, द्विभंगोन्वयः । ४. निहता । यो - बाहुबलिः, दिविषच्छ्वलिनीरयेऽपि - गंगापूरेपि, वेतसवृत्ति न ह्याश्रितः । किं विशिष्टे दिवि० ? निहताः - पातिताः, अयनभूभृतो - मार्गपर्वताः, याभिरेतादृशा ऊर्मिकाः - कल्लोलाः, यत्र, असौ तस्मिन् । तस्याभिमानिनः पुरो - अग्रे, किमहं स्यां ? ५. निहता० । अहमस्माद् - बाहुबलेः सकाशात्, सभयः - सभीतिः सन् पितुरंतिकंतातस्य समीपं गतवान् । किं विशिष्टादस्मात् ? मया दृढमुष्टिना - गाढमुष्टिप्रहारेण निहतान् - ताडितात् । तु पुनः, किलेति सत्ये, तातेन - वृषभस्वामिना, ते - तव, अग्रजः - ज्येष्ठ भ्राता पूज्य इत्येष - बाहुबलिः, निषिद्धः - वारितः । किं कुर्वन् ? मां तुदन् - मुष्ट्यादिना प्रहरन् - इति द्विभंगोन्वयः । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् . ६. श्रु तया० । अयं बाहुबली रणस्य वार्त्तया श्रुतया-आकणित या, मनसा-हृदयेन उत्साहं दधौतरां-धरतेस्म । अधुना-इदानीं, आगतो रणोऽस्य बंधो जयोबाह्वोरुत्सवं कथं न दधाति । ७. कठिनो० । अस्य-बाहुबलेः, युधि-संग्रामे, काम:-अभिलाषः, यथा प्रवर्त्तते न तथा राज्यसंग्रहे । किं विशिष्ट: कामः ? भटिमाधिकत्वतः-वीरताति शयत्वतः, कठिन:, हि-यतः, शौर्यवतां-बलवता, समर:-संग्राम:, वल्लभ:-प्रियो भवति । ८. यदि त० । यद्यस्य बाहुबलेः तबलं दोये-भुजयुगले, विद्यते । तत् किं बलं ? यन्मया बाल्ये दृष्टं । वा यतो बलाद् अहं विशेषतो शंके-विशेषात् भीतवान् । तदास्य-बाहुबलेः, पुरतः कोप्यासितुं-स्थातुं, युधि-संग्रामे, न विभुः-समर्थः स्यात् । कस्येव ? विभावसोऽग्नेरिव । ६. बहुधा० । अस्य-बाहुबलेः, मया शैशवे-बाल्ये, बहुधा-भूरिप्रकारैः, बलं . परीक्षितं-ज्ञातं । केनेव ? स्वर्णकृता-सुवर्णकारेणेव । वसुवन-स्वर्णवत् । पूर्वतः-प्रथमतः, अपरीक्षितं-अविचारितमेव वस्तु, विदुषां-पंडितानामनुताप कृत्-पश्चात्तापकारी भवेत् । १०. इतर० । ममेतरस्य-बान्धवादन्यस्य, जये नेदृशो विचारो वर्तते । खलु-निश्चितं, अयं बांधवः-भ्राता, वर्त्ततेऽत एव विचारः। हि-यतो, जलद:-मेघः, कशानुशान्तये-वह्निशमनाय, प्रभविष्णुः-समर्थोऽपि, विद्युतं-तडितं, न शमयेत् न निर्वापयेत्-इति त्रिभंगोन्वयः । ' ११. इतरे०। मदीयबांधवा:-मद्भातरः, इतरे-अष्टानवतिरपि, मामनापृच्छय, यद्यस्मात् कारणात् ययुस्त-मां-जग्मुः । तद्विरहस्तेषां बांधवानां वियोगः, मम अरु तुदः-मर्माभिदोऽस्ति । कस्येव ? करिणः-गजस्येवांकुशो मर्माभिदो भवति । किं विशिष्टस्य करिणः ? अशांतरुचे:-मदोन्मत्तस्य। किं विशिष्टस्य मम ? (अशांतरुचेः) अशमिताभिलाषस्य। १२. अयमे । समस्तबंधुषु-सकलभ्रातृषु, अयमेव-बाहुबलिः, एकतमोऽवशिष्यते । कथंभूतोऽयं ? स्थितिमान्-मर्यादावान्, कस्य क इव ? यथा तिमिरारे:सूर्यस्य, अहनि-दिवसे, भार्गव:-शुक्रः, पुरोऽवशिष्यते। किं विशिष्टस्य तिमिरारेः ? समा-समस्ता, संहृता-क्षिप्ता, तारकावलिः-नक्षत्रश्रेणिः येन, असो, तस्य । १३. न निधि० । ममैकबांधवी-एकबंधुसंबंधिनी, तृष्णा-स्पृहा, दुर्वार्यतमा-दुःखेन Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ पञ्जिका (सर्ग४) . वारयितुं शक्या, येन न शाम्यति-न शमं गच्छति । स निधिर्न, स मणिर्न, स कुंजरो न, स सैन्याधिपतिः-सेनानीन, स भूमिराट्-राजाऽपि न । १४. अहम० । तातेन-वृषभस्वामिना, नौ-आवां, उभौ वपुषैव-शरीरेण, पृथक् भिन्नीकृतौ, न हि हृदा-मनसेति पृथक् कृतौ । इतीति किं ? अहमपि दविष्ठतांदूरतां अभजं । तेनापि-बाहुबलिना किल-निश्चयेन, विदूरतः स्थितमिति चतुर्भगोन्वयः। १५. भवता । तटिनीश्वरः-समुद्रः, अंतरा-मध्ये, भवतात्-भूयात् । क्षितिभृच्चयः पर्वतसमूहः, विषमः-स्थपुटः, अंतरा-मध्ये, अस्तु । जलाधिका सरित्-नदी, अन्तरा-मध्ये, अस्तु । किलेति सत्ये, आवयोरंतरा पिशुनो माऽस्तु । इति चतुर्भगोन्वयः । . १६. प्रणय० । पूर्ववृत्तार्थमेव स्पष्टयन्नाह । तटिनीश्वरादिकैः-समुद्रादिभिः, अंतर मध्ये, पतितः प्रणयोऽयं-प्रीतिरेषा, न हीयेत-न हीनीक्रियेत । पिशुनेनदुर्जनेन, क्षणात् प्रणयो विहीयते-न्यूनीक्रियते । हि-यतो, मत्सरी-खलः, सिंधुवरात्-समुद्राद्, अधिकः स्यात् । इति त्रिभंगोन्वयः । १७. अपची० । असुमतां-प्राणिनां, वपुः-शरीरं, वयसा-बाल्यादिना सार्द्ध-सह, इह-अस्मिन् लोके, संततं-निरंतरं, अपचीयत एव-हानिः प्राप्यत एव । यदा वयो हानिं गच्छति तदनुसारेण वपुरपि हानि गच्छति । अपचीयते इत्यत्र कर्मकर्तृत्वं अवसातव्यं क्वचित्-कुत्रापि, सज्जनयो:-मित्रयोः प्रणयो नापचीयते। किं विशिष्टः प्रणयः ? हृदावनिलब्धसंभवः-मनोमहीसंप्राप्तजन्मा। १८. द्विजरा०। इह-अस्मिन् लोके, कः पुमान् द्विजराजनदीशयो:-चन्द्रसमुद्रयोः, तुला-सादृश्य, लभते-प्राप्नोति । किं कुर्वतः ? हरिणोौ -मृगवडवानलौ, दंधतो.-धरतोः किं विशिष्टौ हरिणोौं ? अवर्णदौ-वचनीयतादायिनौ । अपिपूनः, तो-द्विजराजनदीशौ, अयशो-निंदां धरतः, परं तौ हरिणोवौँ नोज्झत एव-जत्यजत एंव । इति त्रिभंगोन्वयः । १६. अगुणा । पूर्वमेव वृत्तार्थं स्पष्टयितुमाह। यः पुमान्, स्वकान्-निजान, अगुणान्-निर्गुणान्, अपि नोज्झति-न त्यजति। हि-निश्चितं, स पुमान् गंभीरिम्ना गुणेन संश्रितः-आश्रितः स्यात् । तत्-तस्मात् कारणात्, तत्रगुणवति पुंसि, संपदः-श्रियः, निवसंति-निवासं कुर्वन्ति । हि-यतो, गभीरके उत्तानस्थाने, अमृतं-पानीयं, न तिष्ठति । इति चतुर्भगोन्वयः । २०. स्वयमे । यो-राजा, निजं-आत्मीयं स्वयमेव-आत्मनैव, निहत्य-व्यापाद्य, अनुशायीत-पश्चात्तापं कुर्वीत। स निंदनीयतां-गर्हणीयतां, एतीति-प्राप्नोति । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् सरित:-नद्याः, रयः-वेगः, तट-पुलिनं, किं न प्रकाशयेत्-प्रकटीकुर्वीत । कस्मात् ? तटशाखिनिपातनातू-तीरद्रुमपातनात् इति त्रिभंगोन्वयः। . स विभुः । इह-अस्मिन् लोके, अवनेः-वसुंधरायाः, किं विभुमर्तः ? स कः ? यः स्वपरी-निजानिजौ, हिताहितौ-भक्ताभक्तौ, न वेत्ति-न जानाति । किलेति सत्ये, कोपि न हुताशं-अग्नि, संस्पृशेत्-परामृशेत् । कुतः ? स्वपरानवबोधहेतुतः-स्वीयास्वीयाज्ञान कारणात् । इति त्रिभंगोवियः । २२. तरसै० । विभोः-समर्थस्य, मतिमत्ता-पांडित्यं, अधिकवृद्धिमश्नुते । केवलं परं, तरसा-बलेनैव न। तरसो-बलादपि मतिः प्रवर्द्धते । तत्-तस्मात् कारणात्, धियैव-बुद्ध्यैव, धीधनः-पंडितः उदीर्णः-कथितः । इति त्रिभंगोन्वयः । २३. कुलके० । इह-अस्मिन् लोके, सः-पुमान्, कुलकेतु:-कुलध्वज उच्यते । स कः ? यः सर्वथापद:-विपत्तितः, स्वकुलं-निजवंशं, रक्षति-त्रायते । हि-यतः, प्रियबन्धुः, वल्लभस्वजन, इभः-हस्ती, यूथप:-यूथनाथो भवति । हरि:-सिंहः, अधिकशक्ति:-अधिकबलः, यत्-यस्मात् कारणात् एक एव भवति । इति चतुर्भगोन्वयः । २४. अविमृ० । यः पुमान्, अविमृश्य-अविचार्य, नियां-कर्म, करोति, स पुमान् तत्फले बहुधाऽनुशयीत-पश्चात्तापं कुर्वीत । किमिति वितर्के, बली-बलवान्, बलात्-हठात्, धन्वनि-धनुषि, नामिते सति-भग्ने, युधि-संग्रामे, कि विदधीत-किं कुर्वते ? न किमपि । इति त्रिभंगोंन्वयः। २५. अहमे० । यद्यहमेव दुर्नयं-दुर्नीति, बंधुवधलक्षणां करोमि तहि-तदा, कः पुमान् न्यायं प्रकरोति-विदधाति । सुरवाहिनीजलं-गंगापानीयं, यज्जगतांलोकानां, शुचये-शुद्धयेऽस्ति, तदेव सांप्रतं-युक्तं भवेत् । इति चतुर्भगोन्वयः । २६. नपनी० । मया नपनीतिलता-राजनीतिवल्ली, जगदावालपदे-विश्वकेदार स्थाने, याऽधिरोपिता सा नृपनीतिलता, बलिबंधुवधैकपशु ना-बलवद्भ्रातृघातककुठारेण, मूलतः, कथमद्य मया छिद्यते-प्रोन्मूल्यते । इति त्रिभंगोन्वयः । २७. सुलभा० । हरिणीदृशः-स्त्रियः, श्रियः-लक्ष्म्यः, सुलभाः स्युः । खलु-निश्चितं, ___ राज्यस्थितयोप्यदुर्लभा:-अदुःप्रापाः स्युः । पुनः स बंधुः क्वचित् न ह्यवाप्यते, यो विधुरे-कष्टे, वृतीयितुं-वृतिरिवाचरितुं तिष्ठति । इति पंचभंगोन्वयः । २८. न हि ता०। सांप्रतं-अधुना, मया बंधुवधेन-भ्रातृघातेनं, विशदं-निर्मलं, तातकुलं-ऋषभवंशः, न हि कलंक्यते-न सकलंकीक्रियते किलेति संभावनायां। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ कः पुमान् सुधामयं निलयं - सौधमित्यर्थः । घूमभरेण कश्मलं - मलिनं, कुरुते - विदधाति । पञ्जिका (सर्ग ४) २६. अजिते० । बांधवे जितेप्यजितेऽपीति मम वाच्यं वचनीयता, भूतले भवति । भरतेशः -षट्खंडाधिपतिः, बंधुविग्रहं - भ्रातृकलहमकृत - कृतवान् । किं विशिष्टो भरतेशः ? कलिताखिलभूमिभृन्नयः - परिज्ञातसर्वराजनयः । ३०. इति वा० । सुषेण सैन्यसट् - सुषेण अभ्येत्य - आगत्य, भूविभोः - भरतस्य तिष्ठतिस्म । क इव ? शिष्य इव । , नामा सेनानीः, सहस्रदेवताऽधिष्ठितः, इति वादिन एव पुरतः - अग्रतः, आस्तेयथांतेवासी सद्गुरोः पुरतः तिष्ठति । किं विशिष्ट: ? करचुंबितभालपट्टिकः, पुनः किं विशिष्टः ? समदः - सगर्वः, शिष्यपक्षे - सहर्षः । ३१. मगध० । हे राजन् ! प्रथमं तावत् मगधाः - मंगलपाठकास्तेषां ध्वनिः - निर्घोषः, तेन मिश्रो यो मन्मथध्वजनादः–तूर्यस्वनः, निषिध्यतां - निवार्यतां । किं विशिष्टः ? चमरांचितवारवर्णिनीनां चामरसंयुतवारस्त्रीणां, करयुक्कंकणसंरवेण-करकलितकंकणध्वनिना, उद्धतः -उद्दामः । ३२. अथ भा० । अथ - अनंतरं, हे भारतवासुव ! - हे भरतक्षेत्राधीश !, त्वं मे - मम गिरि - भारत्यां, श्रुती - कर्णौ, विनिधेहि - स्थापय । किं विशिष्टायां गिरि ? मंत्ररसैकस दुद्मनि - आलोचनरसैकवसतौ । क इव ? गिरिरिव । यथा पर्वतः स्वकन्यकें—–नद्यौ, सारस्वततीरसंमुखे - समुद्रसंबंधितटाभिमुखे विनिदधाति । विनिवेदयितुं - ज्ञापयितुं ३३. त्वयि दि० । हे प्रभो ! त्वयि दिग्विजयोद्यते सति कैश्चन भूपालैः बलं तव - भवतः, इति हेतोश्चापचापलं - कोदंडचपलता, विदधे - क्रियते स्म । इतीति किं ? अयं राजा नोऽस्मान्, स्वसेविनः - निजसेवकान् कृत्वां रक्षति । ३४. पतिप० । हे राजन् ! यदा भवता - त्वया, प्रतिपक्षाः - शत्रवस्त एव वनद्रुमाः, तेषां अवलिः - श्र ेणी, तस्या परिवाहाय -ज्वालनाय, दवायितं - वनवह्नीयितं, तदा मया पवनायितं - वायुवदाचरितं । तदनु- तदनंतरं कोपि - प्रतिपक्षः, स्थातुमलं समर्थो नाभून्नासीत् । ३५. रिपुवं० । हे नृपोत्तम ! तवाग्रतो - भवतः पुरस्तात्, अहं रिपुवंशकृते - वैरिवंशछेदाय, परशुः - कुठारः, अभूवमासं । अरुणो - गरुडाग्रजः, समुदेष्यतः - उदयं प्राप्स्यतः, रवेः अग्रे–पुरस्तमोहृते - ध्वान्तहरणाय किं न भवेत् ? Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ४३० ३६. अभवं० । हे राजन्नहं पदे पदे - स्थाने स्थाने, तव तजोभिः - भवत्प्रभावैः, जितका शिशेखरः - जिताहवशिरोमणिरभवमासम् । क इव ? धनंजय इव । यथाग्निस्तरणेः दीप्तिभिः सूर्यस्य कान्तिभिः, ध्वान्तहृते - तमोहरणाय, भृशं ज्वलति देदीप्यते । ३७. विरच० । हे राजन् ! विनमिः - वैताढ्याधिपतिः नमिना - बन्धुना सह भवन्तं - त्वां, अनमत्-प्रणनाम । किं कृत्वा ? उच्चकैः - अत्यर्थं, द्वादशहायनावधिद्वादशवर्षप्रमाणं, समरं - संग्रामं, विरच्चय - रचयित्वा । हि यतः, प्रबला रिपवः - वैरिणः, नम्रीभूताः श्रिये - शोभायै भवंति || ३८. विहिते ० । हे राजन् ! त्वया भवता, आयितुं - आगंतुं, मनसि - चित्ते, विहितेकृते सति, स त्रिदशो - देवो, दरिद्वारकपाटसंपुट-गुहाद्वारकपाटपेटां उद्घाटयत् । स कः ? य उग्रतेजसा - प्रबलमहसा, भ्रु वा - संगेण (भ्रूभंगेण), भुवं-पृथ्वीं, चलयेत्-कंपयेत् । ३६. निचखा० । हे विभो ! अहं तवाभिधांकितान् - भवन्नामचिन्हितान्, विजयस्तंभभरान् सुरशैवलिनीतटांतरे - गंगातीरमध्ये, निचखान- अध्यरोपयं । निचखानेत्यत्र णबुत्तमवचनं । उत्प्रेक्षते - भवदीयकीत्तिगोः - त्वदीययशोधेन्वाः, कीलानिशंकूनिव । 1 , ४०. निधयो० । हे राजन् ! निधयोपि - निधानान्यपि तवैव दृश्यतां - दृष्टिविषयत्वं, गतवंतः-प्रापुः । उत्प्रेक्षते - सुकृतैः - पुण्यैः आहृताः, आहूता इव । वा सुरसिंधोः गंगाया मूर्तिमंतः मनोरथाः - अभिलाषा इव । किं विशिष्टा निधयः ? प्रचितः - पुष्टः, यः श्रीभरो-लक्ष्म्यातिशयस्तेन भासुरं - दीप्यमानं, अन्तर् - मध्ये, येषां ते । नाभवन्न ४१. इति भा० । हे प्रभो ! धुनेदानीं तव काचिदूनता - हीनता, भवति स्म । किं कृतवतस्तव ? भारतवर्षपर्षदि - भरत क्षेत्रसदसि सामर्थ्य माप्तवतो - लब्धवतः । कस्येव ? घुसदां पत्युः -- इन्द्रस्येव । किं विशिष्टस्य ? अधिकश्रियः - अभ्यधिकलक्ष्मीकस्य । प्रभुतां ४२. न सुरो० । हे प्रभो ! येन - सुरादिना तव निदेशनीरज - भवदाज्ञाकमल जगत्त्रये - त्रैलोक्ये, शिरसा - मस्तकेन, नो अधार्यत - नाधारि । स सुरो नास्ति, स नरो नास्ति, स किन्नरो नास्ति स विद्याधरकुंजरोपि - विद्याध ष्ठोपि नास्ति । ४३. तदियं० । हे राजन् ! तत् तस्मात् कारणात् इयं तव का सरस्वती - वाक्, यया सरस्वत्या बाहुबलिः बलवानुच्यते । अत्र लोके सुपर्व पर्वतः - मेरुः, किमु Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग ४) ४३१ नीचः - ह्रस्वः स्यात् ? कुतः ? इतराद्रिमहोन्नतत्त्वतः - अन्य महीधरमहोच्छ्रय त्वात् । " ४४. विजित० । हे राजन् ! केनापि महीभुजा, तु-पुनः, अयं बाहुबलिः, न हि विजितः - न पराजितः कुतः ? तव बांधवत्वतः - भवद्भ्रातृत्वात्, किलेति श्रयते, सूर्यदत्तया - रविविश्राणितया कलया चन्द्रमा, इह-अस्मिन् लोके, अधिक दीप्तिः- अभ्यधिकधामा भवति । ४५. अनुज० । हे प्रभो ! यदि तव बांधवः, अनुजः - लघीयान् बली - बलवान्, विद्यते । कः कस्येव ? सीमंतकभृत् - विष्णुः, हरेः - इन्द्रस्येव । तर्हि तदा, असौ - बाहुबलिः, भवानिव चतुराशांतजयी - चतुर्दिगंतजेता, किं न भवतिकिं न समर्थो भवति ? ४८. ४६. ं प्रथमं० । हे राजन् ! अस्य - बाहुबलेः, बलवानिति सर्वथा प्रथा - विख्यातिरभवद्-बभूव । ततः–तस्माद्धेतोः, अयं बाहुबलिः स्मयवान्-अभिमानवान् । प्रथमं तावतु भवदत्युपेक्षणात् तव अवज्ञानात् पुनर्व' षकेतोः - वृषभस्वामिनः, तनयत्वतः-- पुत्रत्वात् । ४७. अयमी० । हे राजन् ! द्वयोराह्वयोः, सत्-- सुत्यं, अन्तरं महदेव - गरीय एवास्ति । कि ं विशिष्टयोर्द्वयोः ? बलरिक्तबलातिरिक्तयोः - विक्रमहीनविक्रमाधिकयोः तत् किं अन्तरम् ? अयं बाहुबलिः एकमंडले - एकदेशे, ईश्वरः - नायकोस्ति । त्वं भरते विभुरसि । कथंभूतस्त्वं ? अस्तशात्रवः - क्षिप्तप्रत्यनीकः । इति त्रिभंगोन्वयः । ५०. अथवा० । हे राजन् ! अथवा आर्ष भतेजसां भरे - युगादिदेव संतान महसामतिशये, बलवत्ता - विक्रमाधिकत्वं किमु चित्रकारिणी - किमाश्चर्यविधायिनी विद्यते ? जलधेः-समुद्रस्य, लहरीचयोच्चताविषये - कल्लोलसमूहोत्तुंगतायां, कोपि महान् विस्मयः स्यात् ? ४६. विनिवे० । हे राजन् ! ततः - तदनन्तरं भवान् इह - भ्रातृदेशादानविषये, सौभ्रात्रं-सुष्ठुबन्धुत्वं न हि अलुलुपत्-न लोपयांचकार । नाभिसूः विभुःयुगादिदेवः, त्वां बलिनं - बलवंतं, परिभाव्य - ज्ञात्वां निजे पदे विनिवेश्यस्थापयित्वा, व्रतं - दीक्षां, आददिवान्- गृहीतवान् । 1 to । हे राजन् ! प्रणयात् - स्नेहात् त्वं निजबंधुं - स्वभ्रातरं, अजुहवस्तरांआकारयामाथि । स बाहुबलिः, स्वयं - आत्मना, नागतः - नागमत् । च-पुनः, Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् अयं अभिमानवान्-अहंकारी, चारपुर:-दूताग्रतः, नानुनिन्ये-नानुनयं चकार । हि-यतः, ईदृशां-एवंविधानां अनुनयो न स्यात् । इति चतुर्भगोन्वयः । . ५१. प्रणय०। हे नाभिभूपसूजननाकाशदिनेश!-ऋषभस्वामिवंशांबररवे !, त्वयि विषये यादशः प्रणयः इहोस्ति बांधवे-बाहुबलौ, तादृश एव प्रणयो न ह्यस्ति । हि-यतो, द्विपक्षत:-उभयपार्वतः, प्रणयः-प्रीतिः, धृतये-सुखाय भवति । इति त्रिभंगोन्वयः । ५२. प्रणया० । हे राजन् ! फिलेति निश्चयेन, स्मयरेणु:-अभिमानधूलिः प्रणयामृत वीचिसंचयं-स्नेहसुधाकल्लोलराशि, म्लानिमपंकिलं-मालिन्यकर्दमाढय, क्षणात् कुरुते । किं विशिष्टा स्मयरेणुः ? हृदयस्थलीभवा । पुनः किं विशिष्टा? कोपसमीरणोत्थिता-क्रोधानिलोड्डापिता। ५३. वसुधे० । हे राजन् ! इयं वसुधा बंधुप्रणयादिविह्वलं-भ्रातृस्नेहाद्यातुरं, पति स्वामिनं, नहीहते-न वांछति । कस्मात् ? इति-अमुना प्रकारेण, तदीयतर्कणात्तस्या वसुधाया विचारात्, इतीति किं ? · तु-पुनः, इतरत्र-अन्यत्रस्थाने, बांधवादौ, प्रणयी-प्नेहवान्, मदीहक:-मद्वांछकः कथं स्यात् । कोर्थः ? यो वसुवाभिच्छति स बांधवादीन् नेच्छति । ५४. प्रणयो । हे राजन् ! यद्यस्माद्धेतो उपाधिमत्तया प्रणयः-स्नेहः, दिने दिने अधिकं यथा स्यात्तथा परिही त-क्षीयेत । मषीचयोऽमृतांबुनिधेः-क्षीरसमुद्रस्य, अपां भरं-पाथसां निचयं, किमु न श्यामयते-कथं न श्यामलीकरोति । अत्र करणे निः । ५५. नृपते० । हे राजन् ! नृपते:-राज्ञः, स्वजनाः-ज्ञातिवर्गीणाः, बांधवा:-सहोदराः, बहवो विद्यते । एषु संस्तव:-परिचयः, नोचितः-न युक्तः । यद्यस्मात् कारणात एते संस्तुताः-परिचिताः, अधीशं-स्वामिनं, अवमावत एव-अवगणनां कुर्वन्त्येव । यादृशा वयं तादृगयमपि । के इव ? यथाऽजरास्तरुणाः, जरिणंजरीयांसं, अवमन्वते । इति चतुर्भगोन्वयः । ५६. अपि दु०। हे राजन् ! नृपती-राजा, निजं-आत्मीयं, दुर्नयकारिणं दुर्नीतिविधायिनं, प्रीतिभरातू-स्नेहातिशयान्, न बाधते-न व्यथते। प्रणयेप्रेम्णि, कलहो न सांप्रत-युक्तं न। क इव । अनयच्छल इव । यथा वसुधाधीशे-पार्थिवे, दुर्नय-छद्म न युक्तं ।। ५७. प्रणय० । हे राजन् ! नृपः-भूपतिः, प्रणयस्य वशंवदः सन्-प्रेमायत्तः सन्, Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग४) . ४३३ दुर्नयिनं-दुर्नयकारिणं, स्वजनं-बन्धु, विवर्द्धयेत्-वृद्धि नयेत् । विकृतः-विकारं गतः, व्याधिः-गदः, किं गुणाय अलं-समर्थः स्यात् ? किं कुर्वन् ? विग्रहान्तरेशरीरमध्ये, निवसन्नपि-तिष्ठन्नपि । ५८. नपतिः । हे राजन् ! सचिवाद्या:-अमात्यमुख्या, अपि नृपतिर्न सखा-राजा न मित्रमिति वाक्यतः-नीतिवचनात्, ध्रुवं-निश्चितं, बिभ्यति-भयमाप्नुवन्ति । ' के इव ? गजा इव। यथा दवधूमध्वजतः-दवाग्नेः, यथा राजा बिभ्यति । किं विशिष्टाद्दवघूमध्वजतः ? पृथुलज्वलदुग्रतेजसः विपुलोद्दीप्यमानतीक्ष्णमहसः । ५६. बहवो० । हे राजन् । महीभुजा-राज्ञा, तेषु स्वयं-आत्मना, गतशंकसंस्तव: निःशंकपरिचयः, न हि प्रविधेयः-न कर्त्तव्यः, भुवस्तले बहवोऽनेके, नृपसंपर्थिन:-राज्यश्रीकामुकाः सन्ति । च-पुनः, खला:-दुर्जनाः, अपि बहवः सन्ति । ६०. चकते। हे राजन् ! यो राजा, प्रतिपक्षलक्ष्यतः-वैरिशतसहस्रात्, न हि चकते-न बिभेति । क इव ? केशरीव । यथा केसरी-सिंहः, गजयूथात्-द्विरदवृन्दात् न चकते। हि-निश्चयेन, स राजा राज्यं परिभुक्ते-पालयति । कि विशिष्ट: असौ ? अखंडविक्रमः-संपूर्णपराक्रमः । हि-यतः, अभयः-भयरहितः, श्रियां-लक्ष्मीणां, पदं-स्थानं । इति चतुभंगोन्वयः । ६१. अबलो० । हे राजन् ! महीभुजा-राज्ञा, रिपु:-शत्रुः, हृदये-मनसि, शंकुरिव कीलक इव, अभिमन्यतां-विज्ञायतां । किं विशिष्टो रिपुः ? अबलोपि-बलरहितोऽपि, कुंजराशनांकुरलेश:-प्लक्षप्ररोहलवः, किं विहारभित्-प्रासादपातकः, न हि स्यात् ? किं कुर्वन् ? उदयन्नपि-उद्गच्छन्नपि । . ६२. न पृथक् । हे राजन् ! क्षितीश्वर:-भूमिपालः, दैन्यभरात्-दीनतातिशयात्, पृथक्ज़नवद्-इतरलोक इव, दयालुतां न दधते-न धारयति । दधि धारणे भ्वादिः । जनाः-लोकाः, रयाद्-वेगाद्, इमं राजानमवजानन्ति-अवगणयन्ति । कस्माद् ? इत्युदीरणाद्-इति कथनाद् । इतीति किं ? सदयः-दयावानयं भूपः, कंचिदपि न मारयति । इति त्रिभंगोन्वयः । ६३. वसुधा० । हे राजन् ! वसुधाधिपतेः-भूपस्य, वचःशरा:-वचनबाणाः, यैः वैरिभूपालः उपलीभूय-पाषाणी भूत्वा (भूय ?) नोरीकृता:-नांगीकृताः, तत्-तस्मात् कारणात्, नृपः-राजा, इह-अस्मिन् शत्रौ पाषाणीभूते घनटंकीभवति-दृढपाषाणदारको भवति । तेषु-शत्रुषु, मृदुता-मार्दवं, न हि सांप्रतं-न युक्तमिति त्रिभंगोन्वयः। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ 'भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ६४. स्वजनैः० । हे राजन् ! नृपः - राजा, स्वजनैः - ज्ञातिवर्गीणः, न विशिष्यते-न विशेषः क्रियते । च- पुनः बांधवैः - भ्रातृभिर्न विशिष्यते । वा - अथवा, पवनातिपातिभिः - वायोरतिवेगैः, वाहैः - अश्वैः, न विशिष्यते । केवलं विजयेनशत्रुपराभवनेन विशिष्यते । कः केनेव ? मणी - रत्न, महसेव- तेजसेव, अत्रलोके विशिष्यते । किं विशिष्टो मणिः ? महान् गुरुः । ६५. विनिह० । हे राजन् ! नृपः- राजा, तु-पुनः, जयमर्जयेद् - जयोपार्जनं कुर्यात् । किं कृत्वा ? बंधु - भ्रातरमपि विनिहत्य - हत्वा । किं विशिष्टं बंधुं ? रणांगणागतं–संग्रामाय समेतं । किमु इति वितर्के ? अंशुमान् - सूर्यः, ग्रहकान्तिसंहृते शशांकादिसर्वग्रहतेजः संहरणात्, तेजस्विवरत्वं कलयेत् - प्राप्नुयात् । ६६. अनुनी० । हे राजन् ! असौ क्षितीश्वरः- राजा, क्वचित् स्थाने, अनुनीतिमतां वरः - अनुनयवतां श्रेष्ठो भवति । क्वचिदपि स्थाने ईर्ष्यालुर्मन्युमान् भवति । यद्यस्माद्धेतोरनुनीतिः क्रोधोपशांतिकरणं प्रतिपक्षेषु-वैरिषु, आयतोउत्तरकाले, श्रिये - लक्ष्म्यै भवेत् । किं विशिष्टानुनीति: ? अपेक्षया वांछया, अंचिता - पूर्णा । प्रतिपक्षेभ्यो यदि किंचिद् ग्राह्म तदानुनीतिरेव युज्यते । ६७. सरुषा० । हे राजन् ! नृपो दुर्नयकारिणः स्वजनान् सरुषा भ्रु वाभंगे, विनिषेधये तु - निवारयेत् । कः कानिव ? कज्जलध्वजः - दीप:, शलभान् - पतंगानिव । कया ? स्फुरदचिः प्रथया - ज्वलद्उल्कया, कुतः विदूरतः । ६८. अनुनी० । हे राजन् ! क्षमाभृतां - राज्ञां सविधेरेव - सभाग्यस्येव, अनुनीतिःअनुनयः, उचितः - योग्यः । किं विशिष्टा अनुनीतिः ? स्वादुरसश्रियांचितास्वादवतूबललक्ष्म्या युक्ता । केषां केव ? क्ष्मारुहां-तरूणां फलसंपदिवीचिता । कस्य ? समीपगस्य- पार्श्ववत्तिनः । ६६. यदि भ० । हे राजन् ! यदि इह-अस्मिन् बांधवे त्वयि विषये भक्तिरस्ति तदाऽयं बाहुबलिः त्वां कथं स्वयं नाययौ - नागतवान् । कथं भूतं त्वां ? हरितां-दिशां, जयात्-विजयं विधाय समेतं - समागतम् । अत्र क्यप् लोपे पंचमी वक्तव्यः । हि यतः, सज्जना मिलनोत्सुक्यजुषः - मिलनोत्कंठावंतः । ७०. अभिषे० । हे राजन् ! तु-पुनरयं बाहुबलिस्तवाभिषेकविधी - भवद्राज्याभिषेके, सांप्रतं - अधुना कथं नागतवान् ? किं विशिष्टाभिषेकविधौ ? समिता:समागताः, असंख्याः–अनेके, सुरासुरेश्वरा यत्र, असो, तस्मिन् । हि यतः, समये-अवसरे, स्वजनानां संगमः -समागमो भवति । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग४) . ४३५ ७१. अथ यु० । हे राजन् ! अथ-अनन्तरं, अयं बाहुबलिः, चरसंप्रेषणरूपगजितारवैः गजितध्वनिभिः, त्वया युत्कृतये-युद्धकर्षणाय, प्रबोधितः-जागरितः कथं ? कः केनेव ? कृषीबलो जलदेनेव । ७२. अधुना० । हे राजन् ! अधुना-अस्मिन् समये, अस्य-बाहुबलेः, मनोवनांतरे हृदयारण्यमध्ये, अभिनिवेशाग्निः-कदाग्रहदावाग्निः, उदच्छत्तरां-उच्छल तिस्म । किं कत्तु ? तव-भवतः, राष्ट्रपुरद्रुमोच्चयं-जनपदनगरवृक्षसमूह, परिदग्धंभस्मीकत्तु, किलेति संभाव्यते, तदंतरा-तस्यांतराले, को भावी ? न कोपीत्यर्थः। ७३. त्यजतः । हे राजन् ! तत्-तस्मात् कारणात्, त्वममूदगृहनं-एतादृशं विचारं त्यज-परिहर, हे महीपते ! युद्धाय मनः कुरु-विधेहि। महीभुजां-राज्ञां, कलि:संग्राम एव सत्तमा-प्रधाना, स्थिति:-सीमाऽस्ति । कस्मै ? विजयश्रीवरणाय । ७४. रथप० । हे राजन् ! त्वया-भवता, रथपत्तितुरंगसिंधुराणां क्षुरतलोद्धतरेणुभि रसमयेऽनवसरे, सविता-सूर्यः, अस्तमयं नीयते-प्राप्यते । तस्य बाहुबले: का विचारणा ? ७५. नृपतेः । हे नृपते ! अस्य-बाहुबलेर्जयो रथांगत:-चक्रात भवता दुर्लभो न विभाव्यः-न ज्ञातव्यः, सुलभ · एव भविष्यति । दनुजारिमणिप्रभावतःचिन्तामणिमहिमातः, दारिद्रपराभवः किमु न हि भवेत् ? भवत्येव । . ७६. भवदी० । हे राजन् ! जगति-विश्वे, यदृच्छया-स्वैरतया, भवदीययशोऽध्व गामिनः-त्वद्यशःपान्थस्य, · संचरणं-संचारः, भवतात्-भयात् । कस्मात् ? प्रतिपक्षपर्वतप्रतिघातातू-विपक्षाद्रिविध्वंसात्, किं विशिष्टस्य भवदीययशोध्वगामिनः ? हरिदंतगांहिनः-दिगन्तसंचारिणः ।। ७७. तव पा० । हे पार्थिव ! तव-भवतः, चक्र-रथांगं वा कटकं, पुरत:-अग्रे, यदा-यस्मिन् काले, भावि-भविष्यति । तदा परिपंथिगण:-शत्रुसन्दोहः, कथमासितुं-स्थातुं विभुः । हि-यतः, मंत्रपुरस्तात् प्रणवः-ओंकारः, पापहृत्पापहर्ता। ७८. इति । चक्रभृत्-भरतः, न हि किंचिदुवाच । किं विशिष्ट: ? रणोत्सवेन द्विगुणो य उत्साहः-प्रागल्भ्यं, तेन विवृद्ध ः मत्सरो यस्य, असौ, कया ? तस्य-सुषेणसैन्याधिपस्य, गिरा-भारत्या, हि-यतः नृपोऽर्थसिद्धयेकार्यनिष्पत्तये, श्रितमौन:-तूष्णीको भवति । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ७६. इति न० । इति-उक्तप्रकारेण, सेनाधीश:-सेनानीरपि, नपतये-भरताय, वचोभरं-वचनातिशयं, उदीर्य-कथयित्वा, असकृत्-पुनः पुनः, व्यरमतनिवर्त्ततेस्म । किं विशिष्टं वचोभरं ? रणे-संग्रामे, रतिः-रागः, तस्य रस:स्वादः, तस्योल्लास:-चिन्ताभिप्रायविशेषः, तस्योद्रेक:-आधिक्यं, तेनोद्भवंतः-उत्पद्यमानाः, पुलकांकुराः-रोमकंटकाः, यस्माद् असो, तं । असौ-7पोऽपि भरतो, विशिष्य-विशेषतया, तस्मै-सेनापतये, पुष्ट:-प्रीतः, हि-यतः, सेवकः पुण्योदयेन नृपतेर्मान्यो भवतीति त्रिभंगोन्वयः । इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मे, .. ऽयोध्यातक्षशिलाधिराजचरितश्लोकप्रथा पंजिका।। नैपुण्यव्यवसायिपुण्यकुशलस्यास्यारविंदोद्गता, या तस्यां नृपनीतिनिर्मितकथः सर्गश्चतुर्थोऽभवत् ॥ ... इति श्रीभरतबाहुबलिमहाकाव्ये पंजिकायामुत्साहोद्दीपनो नाम चतुर्थः सर्गः । पञ्चमः सर्ग:--- १. नपनि० । नपनियोगमवाप्य स बलाधिपः-सेनाधिपतिः सुषेणः, चतुरं यथा भवति तथा चतुरंगचमूविधि-चतुःप्रकारसेनाविधि, रणाययुद्धाय, रचयतिस्म-कल्पयतिस्म किं विशिष्टं चतुरंगचमूविधि ? विनिर्मितं अहितदलं-शत्रुखंडनं येन, स, तं। किं विशिष्टः सेनानी: ? तदलंध्यनिदेशवान्भरताज्ञाकारकः। २. करटि० । करटिभिः-गजैः, इमं नरवरं-भरतं, किल-निश्चयेन हेतुतः कुतोपि कारणात, उपास्तु-सेवितुं, इतं-प्राप्तं । उत्प्रेक्षते-गिरिवरैरिव रैभरवाहिभिःकनकालंकारधारिभिः, किं विशिष्ट: ? रवरंजितवारिदै:-वारिदातिशायिध्वनिभिः । ३. स तुर० । स-सेनापतिः, विविधैस्तुरगैर्मुमुदे । किं विशिष्ट: ? गुणवजवनैः तुरगगुणसमूहगृहैः, हृदयरिव जवनैः-वेगवत्तरः, किं कुर्वद्भिः ? सुरहयंउच्चैश्रवसं, अवद्यतां रहयंत-त्यजंतं, अनुहरभिः-अनुकुर्वद्भिः । अगणेयतामितैः-प्राप्तः । ४. अथ र० । च-पुनः, स एष-सेनाधिपतिः, चारदृक् सन्, रथेषु रथांगसनाथतां चक्रांगसनाथतां, परिचचार-करोतिस्म किं कुर्वत्सु ? कुलवरं-गृहवरं, Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग५) . ४३७ अनुहरत्सु-अनुकुर्वत्सु । किं विशिष्टं कुलवरं ? लवरंजितलोचनं-लवं_ लवमात्र रंजितानि लोचनानि येन, तत् ।। ५. दृशम० । अथ असौ सैन्यपः पत्तिषु दृशक्षिपत्-चिक्षेप । किं विशिष्टेष पत्तिषु ? उल्वणसंचररिपुविपत्तिषु-उल्वणा:-प्रकटाः संचरंत्यो रिपविपत्ता येभ्यस्ते, तेषु । गुरुकलापकलापविराजिषु-गुरुकलापा:-शराश्रयाः, तेषां कलापः-समूहस्तेन विराजते इत्येवंशीलाः, तेषु । इति च०। इति चमूपतिः चमू-सेनां, अवलोक्य नृपतिमेवमुवाच। कि विशिष्टां चमू ? प्रगुणितां-सज्जीभूतां, पुनः किं विशिष्टां ? गुणितांतकविग्रहांगुणित:-मानितः, अंतकेन समं विग्रहो यया, सा, तां। अत्रांतकप्रायो बाहुबलिः । वा अंतकरोतीति अंतकः, विग्रहस्य विशेषणं । एवमिति किं ? हे नृपते ! तु-पुनः, अयं शरदः समयो वर्तते । किं० ? तनूभवद्रसमय:मेघाल्पीयस्त्वाद् अल्पजलमयः । । ७. शरदू०। शरत्स्त्री , हे नृपते ! शुभवत:-कल्याणवतः, भवतः-तव, विनिषेवणं-पर्युपासनं विधातुं उपैति । किं विशिष्टा ? विकचवारिरुहाननशालिनी। किं विशिष्टं विनिषेवणं? विकलह-कलहरहितं, कि लक्षणा शरत् ? कलहंसशुचिस्मिता। ८. अरिषु । हे नृपते ! शरदि ते महसा-तव तेजसा समं अरिषु, दिनाधिपधाम रवितेजः, उग्रतां किं नार-किं नापत् ? च-पुनः, सुरवहा-गंगा, साधतः तव गति वितनुते । किं विशिष्टा गंगा ? रवहारिसितच्छदा-रवमनोज्ञहंसा। ६. सरभिः । अहीनमहीन ! हे अक्षीणक्षमापाल ! सुरभिगंधिविकस्वरमल्लिकावनं विराजते । किं कुर्वत् मल्लिकावनं ? इति परितर्कणं-विचारं, ददत् । इतीति किं ? अमुना विकस्वरमल्लिकावनेन, विषमायुधपत्रिण:-कामबाणाः, किं न विषमाः ? अपि तु विषमा एव । अहनि । हे राजन् ! अहनि-दिवसे, कामिनां चित्तं, अलीकुलसंश्रितांभ्रमरीकुलसंश्रितां, भ्रमरकुलाश्रितां कमलिनी, उपास्यति-सेवते । पुनर्निशिरात्री, तरुचंचिरुचं-द्रुमव्यापिकरं, एतादृशं सितरुचं उपास्यति । पुनः सितरुचं किं विशिष्टं ? जलदमुक्ततया-मेघमुक्ततया विशदं । ११. नृप ! त० । हे नृप ! नवलंभितसस्यक-नूतनप्रापितधान्यक, वनबलं-नीरशक्तिः, क्रमत:-अनुक्रमात्, अधुना तनूभवति-कृशीभवति । किं विशिष्टं वनबलं ? Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् स्फुटविलोक्य मानतटांत रं- प्रकटदृश्यमानतीरांतरं किं कुर्वत् ? प्रमदयत्- हर्ष कुर्वत्, पुनः किं कुर्वत् ? नलिनीदलैः मदयत्-मदं कुर्वत् । १ विलसि० । हे गवेन्द्र ! - क्षितीश !, व्रजकानने- गोवने, गवेन्द्रविनोदितैः - गोपालप्रेरितैः, वृषभैः - महोक्षैः, इह - अस्यां शरदि, किं न विलसितं - न क्रीडितं ? अपि तु क्रीडितमेव । किं विशिष्टैर्वृषभैः ? अतुलसंमदैः - बहुहर्षेः पुनः किं विशिष्ट - वृषभैः ? भैरववासितैः - वृषाणामन्यदृषभाणां भयंकरं वासितं येषां तैः I १३. अतिवि० । ऋतुरपि - शरदपि, अपरया - अन्यया, श्रिया - लक्ष्म्या, नृपं चक्रिणं, अमूमुदत्-मोदयामास । किं० ? अतिविकस्वरकाशपरिस्फुरच्चमरया । किं विशिष्टं राजानं ? अमरयाचितसेवनं । पुनः किं विशिष्टया श्रिया ? अब्जदलातपत्रपरया - कमलदल छत्रयामया । १४. सममि० । हे इलेश्वर ! सितरोचिषः - चन्द्रस्य, प्रतिपत्तिथेः सकलया - संपूर्णया, कलया समं–सार्द्धं, तव जन्मतः, अन्मलया - निर्मलया लक्ष्म्या संप्रति दीप्यते । किं विशिष्टया कलया ? पृथुतमंप्रथया - गुरुतरख्यात्या । १५. किल भ० । हे नृप ! किल इति निश्चयेन, भवान् उल्लसद्विनयया यया जनतया न उररीकृतः - न स्वीकृतः । किं विशिष्टया जनतया ? अभ्युदयद्भिया - प्रादुर्भवदुभयया, भवदनंगीकारिणी प्रायोरिपोर्जनतानतया - कुंचितया, तया जनतया त्वमिव एष ऋतुर्निषेव्यते - पर्युपास्यते । कथं ? कलितोत्सवं । १६. शरदि० । हे विहितसज्जन ! - कृतसामग्रीक ! युधे शरदि पंकभरा मुदिरेभ्यः विवर्द्धनात्–मेघध्वनिविच्छेदात्, न मुमुदिरे - न जहषुः । भवतु - विद्यमानः, क्षयःराजयक्ष्मा, येषां ते, प्रायेण क्षयरोगी शुष्यति, तद्वत्पंका अपि शोषं गताः, मेघाऽल्पीयस्त्वात् । स एव सज्जनो य उपकृतापदि तुदते - व्यथते । अत्र उपकर्त्ता मेघः । १७. तव स० । हे नरेश्वर ! तव सभा इव वनराजि:, अराजत - अशोभत । किं विशिष्टा सभा वनराजिश्च ? सुमन श्रिया - कुसुमलक्ष्म्या, तरुणया - रक्तया, सुंदरा - मनोज्ञा । सभार्थे सुमनसो देवाः पंडिताश्च । पुनः किं विशिष्टा ? वरसंचरन्नवनरा-वराः- प्रधानाः, संचरंतो नवास्तरुणा नरा यस्यां सा । १८. निववृ० । हे अरालमतिद्विषन् ! - हे वक्रमतिवैरिन् ! शिखिभिः - मयूरैः, सततोच्छलत्कलमरालं-सततमुच्छलंत: कलमरालाः - कलहंसा:, यस्मिन्, असो, तं । शरत्समयं विलोक्य, निववृते - निवृत्तं । किं विशिष्टं ? घनाघनगमं - Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ घनाघनाः मेघाः, तेषां गमः - नाशः यस्मिन्, असो, तं । किं० वि० ? नगमंजुकलस्वनैः–नगाः–पर्वताः वृक्षाश्च तेषु मंजु - मनोज्ञं, कलः - गंभीरो ध्वनिः येषां, ते, तैः । ' पञ्जिका (सर्ग ५) १६. इह भ० । इह - अस्यां शरदि भवानिव तरुततिरस्ति, विवर्द्धभिः सुरभिभि:सुवासिभिः प्रसवः - पुष्पैः पत्रैश्च, नवैः - तरुणैः प्रसरत्फलसंततिः - प्रसरती फलानां संततिर्यस्या वा । किं विशिष्टा तरुततिः ? रुततीव्रवयोगणा - रुतेनकूजितेन, तीव्रा - उत्कटा, वयोगणाः - पक्षिसमूहाः यस्यां सा । नोपमानं लिंगव्यत्ययतां दूषयति । यदाह मैषधकारः - 'ब्रह्मव चेतांसि यतव्रतानां ।' २०. धनुर० । हे अनुत्तरधीः, हे ताचय ! तां - लक्ष्मी चिनोतीति ताचयः, तस्यामंत्रणं त्वं करपंकजे धनुश्चापं, रचय - कुरु । किं विशिष्टं ? द्विषां तापकरं, उत्प्रेक्षतेतव भयात्, गोपतिना - वासवेन हृतं शरदींद्रधनुरभावः स्यात् । त्वं किं ? • वसुधाधिपचक्षुषां नृपनेत्राणां नवसुधा - नवामृतं । २१. सपदि । हे चितरङ्ग ! - हे पुष्टीकृत रंग !, सरिज्जलं च - पुनः, तव द्विषां गूथपथं - हृदयं, गवि - पृथिव्यां भियां पदं कलय । किं विशिष्टं सरिज्जलं ? सपदि - तत्कालं, पीतनदीरमणोदयात्-अगस्ते रुदयात्, शुचितरं - अतिविशदं । किं विशिष्टस्य तव ? विपदंतकृतः - आपत्क्षयकारकस्य । २२. कलम० । हे चक्रभृत् !, कलमगोपवशाः - शालिगोप्यः, किल - निश्चयेन, लयशोभनं -लयो गीतिविश्रामविशेषस्तेन शोभनं - सुन्दरं यथा भवति तथा, उज्जगुः-उज्जयंतिस्म । काभिः ? परभृतानिभृतस्वरगीतिभिः । किं विशिष्टं यशः ? शुचिः - पवित्रा, रमा - शोभा यस्य, तत्, पुनः किं विशिष्टं ? चिरमंगलकारणम्. । २३. गिर इ० । हे क्षितिराज । तव गिर इव इक्षवो मधुराशिसितारसात् - मधुशर्करा - रसादतिमधुरा - अतिम्रिष्टा, सतां मनांसि व्यवहरति - आकृषंति । कथं ? मुहुः । किं विशिष्टा गिरः इक्षवश्च ? रसमयाः - रसाः शृंगारादयस्तन्मय्यो गिरः, कथं ? समया - समीपे, काः नगरीभुवः । समयायोगे द्वितीया चिन्त्या । २४. प्रसर० । हे अरिमलोदयवजित ! - हे वैरिपापोदयोज्झित !, पवनेरितवत्तयावायुप्रेरितवत्तया, उपवने अपि पुनर्भवदानने, श्वसितगन्धवहः – श्वासवातः, इह - अस्यां शरदि, वने - पानीये, कलमोल्लसत्परिमलः - आमोदः, प्रसरति, कलमाः प्रायेण पानीये भवंति । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० — भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २५. इति र० । हे बन्धुरबन्धुरमालय !-हे मनोज्ञस्वजनलक्ष्म्यालय ! इति-अमुना प्रकारेण, आर्तवं उत्सवं-शत्रुसंबंधिनं क्षणं कलय। किं विशिष्टस्त्वं ? रथांगभृत्-चक्रभृत् । त्वं किं चिकीर्षुः ? बलिभुवं-बाहुबलिभुवं, प्रयियासुः । किं विशिष्टस्त्वं ? सदयित:-सस्त्रीकः । पुनः किं ? दयितोरुविपक्षभी:दत्तबहुशत्रुभयः। २६. इति स०। इति-उक्तप्रकारेण, ध्वजिनीपतौ-सेनान्यां, समीरयति सति-कथयति सति, विनयतो नयतोयधिपारगं-न्यायाब्धिपारगं, नृपमुपेत्य स कंचुकिक्षितिवर:सोविदल्लराजस्तदा इति जगाद । स कः? योऽत्र शुद्धान्ते अतिवर:-अतिश्रेष्ठः। २७. कुमुद० । हे राजन् ! तव अधिमत:-अधिकमान्यः, दयिताजनः-स्त्रीजनः, इति हेतोविशिष्य-विशेषतः, विभूषणं बिभति-धरति । किं. विशिष्टस्य तव ? विधिमतः-भाग्यवतः, इतीति किं ? भुजेरितवैरिणा-दोर्दडक्षिप्तवैरिणा, क्षितिभुजा-राज्ञा, कुमुदहासवती शरदाश्रिता। २८. नुप ! भ० । हे नृप ! अजः-कामः, कुसुमस्फुरद्धनुकरः-कुसुमस्फुरच्चापंपाणिः । धनुः शब्दः उकारान्तोप्यस्ति अभिधानचिन्तामणिवृत्तौ । भवन्तं कथंचन महता कष्टेन अनुकरोतु-तुल्यतां यातु, रतिरपि त्वदनेकनितंबिनीनिवहतां-भवदनेक स्त्रीसमूहतां, वहतां-धारयतां । हि-यतः, रतिः पतिव्रता। २९. त्वदव० । हे क्षितिपराज !-हे राजराज !, त्रिदशराजवधूरपि सांप्रतं नयन विभ्रमविभ्रमभर्त्सनात्-नेत्रकटाक्षशोभातर्जनात् त्वदवरोधजनात्-त्वदन्तःपुरजनात्, ऋतुसज्जितात्-ऋतुनिमित्तं सज्जीभूतात्, पराजय-पराभूति, अश्नुतेप्राप्नोति। ३०. सपदि० । अथ विभूषणविधिमाह । हे राजन् ! सपदि-सत्वरं, काचित्-कांता, चरणयोः रणयोगविचक्षणं-रणः-शब्दः, तस्य योगो-युक्तिस्तत्र विचक्षणं, वा राज्ञ आमंत्रणविषये, हे रणयोगविचक्षण !-हे संग्रामयोजनकवे ! मणिनूपुरं अधात्-दधतिस्म । उत्प्रेक्षते-हठान् मदनं शयितं-सुप्तं, विजयश्रिया अतिशयितं -अतिरिक्तं किं बोधयितुमिव-जागरयितुमिव । .३१. परिद० । हे सुभग ! काचन स्त्री, काञ्चनमेखलां परिहितेन-परिधानीकृतेन, सितवाससा-नीलवस्त्रेण, पिहितां-आच्छादितां, मनोभवभूपतेरपि हितांहितकारिणी, उद्दीपनहेतुत्वात् रणन्मणिशिंजनी मुखरां परिदधे-परिदधातिस्म। ३२. करयु० । हे राजन् ! कौतुकात् कयाचिद् अबलया चिरयातमनःशुचा-चिरगत Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग५) . ४४१ मनःशोकया, भवदतुच्छतमप्रणयोदयात्-भवदधिकतमस्नेहोदयात्, रुचिरया रुच्यया, करयुगं वलयांचितं-कटकसहितं, आदधे-चक्रे । ३३. अधित । तु-पुनः, काचन सुनयना-स्त्री, नयनार्पितकज्जला-नेत्रदत्ताञ्जना, कलभकुंभततस्तनलम्बिनी-करिकुंभपरिणाहिस्तनगाहिनी, नवमांसलरोचिषंनवीनपीनकान्ति, अनवमां-प्रधानां, गले हारलतां, अधित-दधौ । ३४. श्रवण । हे राजन् ! काचन नायिकया श्रवणयो:-कर्णयोः, वसुरत्नकरंबितं सुवर्णमणिमिश्रितं, उन्मनोभवसुरं-उत्कृष्टो मनोभवसुरो-कामदेवो येन यस्माद् वा, तत् । एतादृशं कुण्डलं, न्यधित-निहितवती । किं कुर्वती ? त्वदनु-भवत्पूर्वं, विकचवारिजवारिज़वागम-विकचांभोजनीरशीघ्रागमं, इच्छती-वांछती। ३५. नृप ! द० । बत इति कोमलामन्त्रणे, कयाचन रमणीजनकान्तया-स्त्रीजन मनोज्ञया, वरमणिः-प्रधानमौक्तिकं, अध्यधरोष्टक-अधरोष्टयोरधिकृत्य इत्यध्यधरोष्टकं, नासिकामुपरि इति उपरिनासिकं इति अव्ययीभावः, क्रियाविशेषणद्वयं । किं विशिष्टो वरमणिः ? कांतरुक्नवतर:-मनोज्ञरुचाभिनवः, पुनः किं विशिष्ट: ? रोषितमन्मथः-आरोपितकामः, दधे-ध्रियतेस्म । श्रवण । हे राजन् ! सुलोचना श्रवणपत्रकमौक्तिकराजिना-कर्णपत्रमुक्ताफलसोभिना, मुखेन निचिततारंकतारकनायक-व्याप्ततारकचन्द्रं, अनुकरोतिसमानतां याति । किं विशिष्टं ? शुचितम-विशदतमं । किं विशिष्टा सुलोचना ? चितमंगलसज्जना-पुष्टमंगलसामग्रीका । ३७. अतुल । हे कमललोचन ! तव दयिता लोचनयो:-नेत्रयोः, अतुलमाभरणं कज्जलं न्यधात्-विदधातिस्म । क इव ? स्मर इव, यथा स्मर:-कामः, भवद्रुहे-ईश्वरद्रोहाय, इषुमुखेषु-बाणमुखेषु, अयो-लोहं निदधाति । किं विशिष्टः कामः ? जगतः मदयिता-विश्वस्य ग्लपयिता। ३८. तव वि० । हे नृपविशेष !-हे राजविशेष !, च-पुनः, तव विलासवती· भवद्विलासिनी, निजेऽलिके-स्वभालस्थले, विशेषक-तिलकं, आचरत्करोतिस्म । उत्प्रेक्षते-रतिपते:-कामस्य, उदंचितं-ऊवीकृतं, भल्लमिवकंतमिव । किं विशिष्टं कुंतं विशेषकं च ? छविधरं-कांतिधरं, किं कुर्वन्तं ? अनूनतां-अहीनतां, विधरंतं-दधानं । ३६. व्यधित० । हे निशितकुन्तल !-निशितं कुंतलं-भल्लं लातीति-निशितकुंतल स्तस्यामंत्रणं । तव कापि अलसलोचना स्त्री, कुंतलमंडनं-केशप्रसाधनं, व्यधित Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् _ विधत्तेस्म । कैः ? विचिकिलाभिनवप्रसवोच्चयैः-मालतीनवसमसमहै:, किं विशिष्टैः ? सुमनसां मनसां प्रमदप्रदः-देवचित्तहर्षदैः, चक्रवत्तिस्त्री देवाधि ष्ठिता भवतीत्यागमः । ४०. इति वि० । हे राजन् ! तव सुदृशः पश्यतो मम मुदमदुः-हर्ष ददतिस्म । का इव ? हरिवधूरिव-वासवस्त्रिय इव, धूतसुरालयाः-त्यक्तस्वर्गाः, भुवमागता इत्यर्थः । पुनः किं विशिष्टाः ? इति-उक्तप्रकारेण, विभूषणभूषितभूघनाःआभरणराजितांग्यः । पुनः किं विशिष्टा: ? दमदुर्द्धरदुर्लभाः .दमेन-दांत्या, दुर्द्धरा:-दुःसहाः, अर्थान् मुनयस्तैर्दुर्लभाः-दुःप्रापाः । प्रायेण महातपस्विनःचक्रवर्तित्वं प्राप्नुवंतीत्यागमः । ४१. तव व० । हे जगतीश !-हे पृथिवीपते !, तव अनुत्तरदृष्टिभिः-मनोज्ञनेत्राभिः, वधूभिः त्रिजगती चमत्कृता-विस्मापिता, अतः-हेतोरिह-अस्मिन् जगति, अनघरूपतया-निर्मलरूपत्वेन, सुकृतिभिः कृतिभिश्च-पुण्यवभिः पंडितैश्च, ता विशिष्य-विशेषमाधाय, ईरिताः-उक्ताः। ४२. प्रथिति० । हे राजन् ! हि-निश्चयेन, सुदृशों ऽगना, इति धिया-इति बुध्या, अंगपिधित्सया-अंगाच्छादनेच्छ्या, उपरितः-उपरिष्टात्, परित:-सर्वतः, सिचय-वस्त्रं, उपलक्षणादुत्तरीयं, न्यधु:-न्यस्यंतिस्म । इतीति किं ? योत्र नलिनीनिचये अधिपतया-प्रभुतया, प्रथितिमान् नलिनीनिचयाधिपः सूर्यः, स पतयालुकरो मास्तु-पतिष्णुकरी मा भूयात् । यतोऽसूर्यपश्या राजदारा। ४३. रतिरधीश ! ० । हे अधीश !, हे नयार्णव !-न्यायांभोधे ! हे नतरोपितसौहृद ! नताः-नतिकारिणस्तेषु रोपितं-न्यस्तं, सौहृदं-मैत्र्यं येन, असौ, तस्यामन्त्रणं । कयाचित् सरसिजाननया-कमलवदनया, भवता समं वनतरोः पुष्पचये किमपि रति भीप्स्यतेऽपितु अभीप्स्यते एव वा अभिलष्यते एव । ४४. सुभग ! ० । हे सुभगराज ! कयाचन कान्तया भवता सह मगवर:-गिरिवरः, अलिनीमलिनीकृतकुड्मलैः-भ्रमरीम्लानीकृतमुकुलैः रन्तुं किं नापेक्ष्यते-न वांछति ? अपितु वांछत्येव । किं विशिष्टो नगवरः ? अगवरोद्धतनीडज:तरुवरोत्कटविहंगमः। ४५. त्वदव० । हे हृतमत्सरव्यसनिदेश !-हृतो मत्सरव्यसनिनां देशो येन, असौ, तस्यामंत्रणं। हे क्रमनमज्जन !-हे क्रमनमन्नरपत्ते !, तव निदेशत:-आज्ञात एव कापि त्वदवरोधवधूः त्वया समं, अंभसि-पानीये, मज्जनं-स्नानं जलावगाहलक्षणं झटिति-सत्वरं, वांछति । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग५) ४६. किल वधू० । हे नप !, हे सुन्दर !, तव वधूः कापि जवरंजितगोद्विपं-वेग रंजितैरावणं, गजवरं-गजश्रेष्ठं, अधिरोढुं-आरोढं, उपेक्षते-इच्छति । च-पुनः, कापि त्वदंगना अद्भुतं सितवसुं-श्वेतकान्ति, चलतरं तुरंगमं अधिरोढुमपेक्षते। ४७. ददत० । हे पराशुगभुजंगम ! परे-शत्रवस्त एव आशुगा:-वायवः, तेषु भुजंगम इव यस्तस्यामंत्रणं। हे धृतरथांग !-धृतचक्र !, काचिद् सपदि रथमलं कुरुते । किं कुर्वन्तं रथं ? किं जंगमं सम इव-चलद्गेहमिमं ऊहंवितर्क, सुधियां-पंडितानां ददतं। किं विशिष्टं ? रथांगमनोरमरथस्यावयवर्मनोरम । ४८. मणिवि० । हे नप !, मणिविराजितरैशिविकाकृते-मणिखचितसुवर्णजाप्ययान निमित्ततया, कयाचन युवत्या याचनं-प्रार्थनं, आदधे-क्रियतेस्म । तया कया ? यदीयमनुनयनं-प्रसाधनं, अलं-अत्यर्थं, नयनंदितभूभुजा-न्यायाल्हादितपाथिवेन त्वया स्वयमकारि-चक्र । . . . ४६. वनभु०। हे विबुधवल्लभ !-पंडितप्रिय ! हे माधव !-लक्ष्मीपते !, निलयादपि-गृहादपि, वनभुवः शरदि च-पुनः, माधवमासि-वैशाखमासि, कामिनां मनः कृषति-आकृषंति, कथं ? समं, कया ? वल्लभया-कांतया, कैः ? विविधैः द्रुमैः । ५०. तव क० । हे शुभरते !-कल्याणे रतिर्यस्य असौ, तस्यामंत्रणं । हे वृषभनन्दन !, . हे भरतेश्वर !-वधूहृदयानि-स्त्रींजनमनांसि, तव शासनात्-भवदाज्ञातः, तद्वनान्तरं• जिगमिषंति-गंतुमिच्छंति, तत् किं वनान्तरं ? यदग्रतो नंदनकाननं-इन्द्रवनं किमस्ति ? ५१. न भवता० । हे भारतमेदिनीशिखरिशासन !-हे भरतक्षितीन्द्र !, हे प्रणतकिन्नर !, शासनकारिभिः-आज्ञाकारिभिः, नरनायकैः-राजभिः, भवता-त्वया सह काननं नवं किं न एष्यते-किं न प्रव्रजिष्यतेऽपितु व्रजिष्यत एव । किं विशिष्टं काननं ? कृतमनोरति । विकच । हे गतगभीरिमभीरिमजित !-गतगांभीर्यकातरत्ववर्जित !, हे अनरसादर ! नराणां सादं-खेदं, राति-ददातीति नरसादः, न नरसादरः अनरसादरः तस्यामंत्रणं । यमकश्लेषचित्रेषु रलयोः सावर्ष्यात् अनलसादर इत्यपि वाच्यं । अनलस:-अलसरहितः आदरो यस्य, असो, तस्यामंत्रणं । विकचतामरसा दीर्घिका तव तत्र-वने रतिखेदमपास्तुं-निराकतुं, किं नालं स्यात् ? किं विशिष्टा दीपिका ? स्फुरद्घनरसा-स्फुरत्पानीया । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५३. ;षड्ऋतु० । किं लक्षणे वने ? षड्ऋतुभूरुहसंपदमाश्रिते-सर्वर्तुवृक्षश्रियमाश्रिते। किं विशिष्टां षड्ऋतुभूरुहसंपदं ? समहिता-सर्वहितां, च-पुनः, वियोगिनां अहितां-वैरिणी, पुनः किं विशिष्टां ? कामिहद्दितविपल्लवपल्लवराजिनी-कामिचित्तखंडितापल्लेशपल्लवराजिनीं। पुनः किं विशिष्टे वने ? फलपलाशसुमांचिनि। ५४. विधृतः । पुनः किं विशिष्टे वने ? विधृतवागुरवागुरिकावलीविगतविप्रिय विप्रियभूरुहे-विधृतवागुरवागुरिकावलिः विगतं - विप्रियमपराधो व्यापादनलक्षणो येभ्यस्ते एतादृशा वयः-पक्षिणस्तेषां प्रिया भूरुहा:-वृक्षाः यस्मिन् तत्, तस्मिन् । वने किं कारयति ? रवरागविवद्धिका:-रवेण-शब्देन, राग-प्रेम, विवर्द्धयंतीति रवरागविवद्विकाः, स्वरवरा:-स्वरप्रधानाः, परभृताः कोकिलाः, स्फुट अपि-पुनर्, मोदयति-आल्हादयति। ५५. विरहिः । वने किं कुर्वति ? विरहिणां कुसुममार्गणपोडनं-कामबाणव्यथनं, प्रतिवासरं ददति-प्रयच्छति । अपि-पुनरर्थे, तदन्यविलासिनां-अवियोगिनां, गलितविप्रियया-गलितागसा, प्नियया-वल्लभया, सम-सार्धं, इह-अस्यां शरदि, मुदं-हर्ष, ददति। . . . ५६. पटकु० । हे रुचिरकानन !-चारुमस्तक !, तव योषितां विसरैः-समूहै:, इतः-नगरतः, बहिः पटकुटी: परिताड्य, काननसत्तमे-वनवरे, निवत्स्यतेस्थास्यते । किं विशिष्टे काननसत्तमे ? अगरतोरुविहंगमे-अगेसु-वृक्षेषु, रताःआसक्ताः, उरवो-बृहत्तमाः, निर्भीकत्वात्, विहंगमाः-पक्षिण: यत्र, तस्मिन् । इति कलापकव्याख्यानं । ५७. इति त० । स कंचुकिनायको मुदमवाप्य अविशरणं-अक्षयं, शरणं-गृहं, निजं स्वकीयं, आययौ-आगतवान् । कस्मिन् सति ? इति-उक्तप्रकारेण, अहिभृतावनिबाहुना-अहिः-शेषोहिः तद्वत् भृता-धृता अवनिर्येन, असौ अहिभृतावनिः, एवंविधो बाहुर्यस्य, असौ, तेन । महीभृता-राज्ञा वा । हि-निश्चयेन, तदुक्तिविधौ उररीकृते सति-आमिति कथिते सति। ५८. इति न० । अथेत्यनन्तरं, नप: सुषेणमिति उपादिशत् । इतीति किं ? हे बलविरोचन !-ध्वजिनीरवे !, चेद्-यदि, तव बहलीशितुराहवं-बाहुबलेः संग्राम, कलयितुं-ज्ञातुं, रोचनं-अभिलाषोऽस्ति, तदा त्वं अमर्त्यकान्-देवान्, तदात्वं-तत्कालं, अव-प्रीणय । उक्तं रघुकाव्ये-न मामवति सद्वीपा। ५६. तदि च० । हे द्विषत्कृतपराजय !-वैरिकृतविजय-!, तदि-तदा, त्वं चतुभिर्बलैरलयतमः-अनुलंघ्यतमः, राजयसे-दीपयसे । हे अकुरुते !-हे Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग ५) . ४४५ अकुत्सितशब्द ! भवान् धराधवबाहुबलेः पुरो युधि-संग्रामे, यदि स्थिति कुरुते-विधत्ते । ६०. त्वमिह । हे सुगुणमण्डल !-हे सुगुणसमूह !, त्वं मंडलनायकान्-राज्ञः, दूतगिरा कृत्वा इह-नगर्या, सर्वतः-समताद्, आह्वय-आकारय । तदनुतदनन्तरं, तद्विजयाय-तस्य बाहुबलेः जयाय, समुत्सुकं मे मनः, हे कृतरमोदय !-विहितलक्ष्म्योदय !, मोदय-हर्षय। प्रथम । कुलकव्याख्या । प्रथमतः परितापितविद्विषं सबलमालवमालवभूपति इमां नगरी नयतात्-प्रापय । कया ? चरगिरा-दूतवाण्या। एवं सर्वेषां संटंकः । बलस्य मा-लक्ष्मी:, तस्याः लवो-विकाशः तेन सह वर्तमानः, सबलमालवः पश्चात्कर्मधारयः । मालवदेशविशेषस्तस्य भपतिस्तं । च-पनः. वसुद्विपवाजिनां वितरणैः-दानः, मुदिता मागधा:-वंदिनः, यस्माद् असो, पश्चात् कर्मधारयः । मागधाः-देश विशेषास्तेषां भूभृतं-राजानं । ६२. अपर० । अपरं-अन्यं, आहवः-संग्रामः, तस्य वृ त्तभरः-वृत्तान्तसमूहः, तेनोच्छ्वसंतः-ऊर्वीभवन्तः, श्रवणयोः कुन्तला:-केशाः यस्य, असौ, एतादृशः कुंतलवासवः-कुन्तलदेशाधिपस्तं । पुनः अहिताः-शत्रवस्त एव वारणा:-हस्तिनः, तेषां वारणं-निषेधनं, तत्र बुद्धिमान्-कोविदः, हरिसम:सिंहसदृशः, आरवः-शब्दः, यस्य, असौ, . एतादृशो मारवभूपति मरुसंबंधिराजानं । ६३. वितत० । विततानि-विस्तीर्णानि, मंगलानि यस्य, असौ,- एतादृशो जंगलपार्थिवः-जंगलदेशाधिपस्तं । पृथुल:-महान्, लाट:-लाटदेशः, स एव ललाट-भालं, तत्र विशेषक इव-तिलक इव वर्तते, यः असौ, तं प्रणतजनानां वत्सलः-हितकारी, एतादृशः कच्छदेशाधिपस्तं। द्विषतां-वैरिणां, अदक्षिणः वक्रः, एतादृशो दक्षिणदेशाधिपस्तं । ६४. अकरु । कलहे-संग्रामे, अकरुणं-निर्दयं, एतादृशं कुरुपुंगवं-कुरुदेशाधिपं, जवनाः-वेगवत्तराः, सैन्धवाः-वाजिनः, यस्य, असौ। ईदृशं सिंधुदेशाधिपं । गलंत:-क्षयंतः अरातयो यस्माद् असौ, एतादशं किरातमहीपति-भिल्लपति, मलयभूधरः-मलयाचलः, तस्य भूधर-राजानमादरात् । ६५. इति न० । इति उक्तान् नपान् अन्यानपि परमुदारं-परमं प्रमोदेन, अरं अत्यर्थं, उदारपराक्रमान्-उद्भटविक्रमान्, नयतात् इमां नगरौं । किं विशिष्टां नगरी ? नरचितां-नरसंकुलां । पुनः किं विशिष्ट्रां? सुरभुजा-इन्द्रण, रचितांविनिर्मितां इति कुलकार्थः । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६६. निजहरिध्वनि०। हे बलप !-सेनाधिपते !, पत्तिचयेपि तरवारिकरे करवाल करे, वा-अथवा धनं वितर-देहि। किं विशिष्टे पत्तिचये ?निजहरिध्वनिकपितकातरे-प्वसिंहनादक्षोभित कातरे, पुनः किं० ? अबलतपराभवैः-न बलेन-पराक्रमेण, एतः-आगतः, पराभव:-अभिभवः, येषां तानि तैरर्थाद् बलवत्तरः, एतादृशः परबलैः-विपक्षसैन्यः, अतिदुःसहे। ६७. सतन० । हे सुषेण ! मम तनयाः लक्षशः, सतनयाः-ससूनवः, नयनयोः उत्सवं संदधतु-रचयंतु। किं विशिष्टाः ? न्यायादिना .नरहिताःलोकहितकारिणः, पुनः किं विशिष्टाः? प्रहरणाहरणाधिकलालसा:शस्त्रग्रहणाधिकस्पृहालवः । ६८. समुप० । हे विदितसंगर !-प्रथितप्रतिज्ञ ! ये विद्याधराः दुरुत्तरे रणार्णवे किमपि किंचिच्चक्रवर्त्यपेक्षया वहनंति-यानपात्रीभवंति। ले सविजया:अप्राप्तपराजयाः, विजयार्द्धगिरीश्वराः-वैताढ्यनायकाः, विमानविहारिणः संतः समुपयंतु-आगच्छंतु। ६६. इति नि०। एष सेनाधिपः अविरतं-निरंतरं, नतिकारिणां शुभं-शुभकारिणं इति निगद्य-उक्त्वा, विरतं-निवृत्तं, एतादृशं नृपं भरतं आनमत्-प्रणनाम । पुनरेष सेनाधिपो जवतः-वेगात्, निजैः मनुजैः, भुजवतः-दोष्मतः, महीपतीन्राज्ञः, अजूहवत्-आकारयामास । ७०. सकल । सः-सेनाधिपः, सकलराजकं-निखिलराजचक्र, द्रुततया-शीघ्रतया, एतं-आगतं, अवेत्य नरपतेः-भरतस्य, अभिषेणनं-सेनयाभिगमनं, ऊचिवान्उक्तवान् । किं विशिष्टं सकलराजकं ? ततयातरणोत्सवं-ततो महान्, यातः प्राप्तः, रणोत्सवो येन, तत् । कस्मिन् ? अशुभहारिणि-अकल्याणध्वंसिनी, हारिणि-मनोज्ञ, वासरे-दिवसे । ७१. क्षितिभु० । किमुक्तं इत्याह । हे क्षितिपकुंजर !-राजश्रेष्ठः, उपशल्यनिवेशिनांग्रामसीमाधिवासिनां, क्षितिभुजां-राज्ञां, उन्मदैः-उत्तमैः, कुंजरसंचयैःहस्तिसमूहैः, नगरीणवनान्ता:-द्रुमरहितवनाकुलाः (वनाञ्चिताः,) इयं नगरी किं न आशु-शीघ्र, व्यरच्यत एव-विधीयत एव। ७२. भरत०। हे भरतराज !, समग्रगमक्रमात्-समस्तचलनानुक्रमात्, अचरमं प्रथम, जिनवरं-तीर्थकरं वृषभध्वजं, नवरंगकरार्चनैः-नवरंगोत्पादकपूजनैः, मंगलकारणं-मंगलहेतुं, उपनन्तुं त्वं चर-व्रज । किं विशिष्टं जिनं ? इतान्तरशात्रवं-गतांतरवैरिणं । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग५) ४४७ ७३. मह जिं०। हे सुगुणसंश्रय !-सद्गुणाधार !, सुरतरो:-कल्पद्रोः, नवैः कुसुमैः, जिनाधि-वृषभध्वजं, मह-पूजय, किं विशिष्टं जिनाधिपतिं ? रतरोगपराङ मुखं-सुरतव्याधिविमुखं, तदनु ते-त्वां, समरांगणसंगतंरणांगणागतं, जयः संश्रयते । ७४. क्षितिप० । क्षितिपतिः श्रीभरतः, वलराजनिवेदितं-सुषेणसेनानीप्रणीतं वचनं आदित-जग्राह । किं विशिष्टं वचनं ? मादिततागम-मादेः-लक्ष्म्यादेः, तत:महान्, आगमो यस्मात् तत्, तत् । च-पुनः, शुचिवपुः सन् वाससी परिधाय अभयदं-भगवन्तं, अमहत्-अपूजयत् । किं विशिष्टो राजा ? भयदंभहरःभीतिच्छलनाशकः । प्रहर०। ततः परं-तदनंतरं, स राजा प्रहरणालयमेत्य-आयुधशालां समागत्य, अरिप्रभृतीनि-प्रहरणानि-चक्रप्रमुखानि शस्त्राणि, विधिवद्-विधिना, आर्चतपूजयामास । किं विशिष्ट: ? रणानितसाध्वस:-रणे-संग्रामे अनितो-प्राप्तो, साध्वसो-भयं येन, असौ, पुनः किं विशिष्टः सः ? परमया रमया श्रितविग्रहःउत्कृष्टलक्ष्म्या श्रितदेहः । ७६. एवं दे०। एवं-उक्तप्रकारेण, भारतेशः-भरतचक्री, नागाधीशं-पट्टहस्तिनं, उच्चैः आरोहत्-आरूढवान् । किं विशिष्टो भारतेशः ? देवप्रणतचरणाम्भोरुहः-सुरनतपादपद्मः, किं विशिष्टं नागाधीशं? सुरगिरिमिव-मेरुमिव, उत्तुङ्ग. उन्नतं, पुनः किं विशिष्टं ? मौलिन्यस्यत्कनकमुकुट-मस्तकारोपितस्वर्णकोटीरं । पुनः किं विशिष्टं ? सोष्णरुक्पूर्वभूभृतः-ससूर्योक्याचलस्य, लक्ष्मीलीलां शोभाविलासं, मुष्णाति-चोरयतीति, असौ तं । पुनः किं विशिष्टं ? अविरतं... निरंतरं, उत्फुल्लनेवारविन्दं-उत्फुल्लानि-विकस्वराणि नेत्रारविन्दानि यस्माद्, असौ, तं। .७७. मूर्ना० । अयो-निरंतरं, क्षितीशः-भरतः, स्वसौधात्-स्वगृहात्, निर्जगाम.. निर्गच्छतिस्म । किं कृत्वा ? नीराजनविधि-आरात्रिकविधानं, कृत्वा-विधाय । कि क्रियमाणः ? उत्तानाक्षः-ऊर्वीकृतनेत्रः, सुरनरगणैः वीक्ष्यमाणः-दृश्यमानः । पुनः किं क्रियमाणः ? चामरैः वीज्यमानः, किं कुर्वन् ? मूर्ना-शिरसा, अमलरूक्-विशदप्रभं छत्रं दधत्-धारयन्, क इव ? पूर्वाचल इव । यथोदयाद्रिः उच्छारदाभ्र-उत्कृष्टशारदीनमेघ, विधोबिम्बं-चन्द्रस्य मंडलं, बिभ्रत्-दधानः । ७८. क्वचित् । स राजा श्रीपथं-राजमार्ग, आनशे-प्राप्तवान्, किं विशिष्टं श्रीपथं ? क्वचित् प्रदेशे, सरसिजाननानां-स्त्रीणां, नयनविभ्रमः-नेत्रविलासः, Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् श्यामलं । पुनः किं विशिष्टं ? विमानमणिरोचिषां समुदयः-विमानरत्नकिरणानां संमूहैः, विचित्रं-नानारूपं । पुनः किं विशिष्टं श्रीपथं ? असमयापिताब्दभ्रमअनवसरदत्तजलदभ्रान्ति, कैः ? दहनकेतनैः-धूमः, किं विशिष्टः दहनकेतनः ? वात्यया-वायुसमूहेन, विहायसि-व्योम्नि, विवर्तितः-प्रेखोलितैः, पुनः कि विशिष्टः दहनकेतनः ? अगुरुयोनिभिः-कृष्णागुरुजन्मभिः। ७६. क्वचित् । पुनः किं विशिष्टं श्रीपथं ? सकलिकैः-सकोरकैः, कुसुमकुड्मलै: पुष्पमुकुलैः, मनोज्ञश्रियं-कमनीयलक्ष्मीकं, पुनः किं विशिष्टं श्रीपथं ? भ्रमद्- . भ्रमरकूजितः-संचरन्द्विरेफारवैः, मुखरतया-वाचालतया, उद्धतं-उद्दामं, पुनः किं विशिष्टं श्रीपथं ? चटुललाचनानां नारीणां स्तनघटावलीघट्टनात्कुचघटश्रेणिसंपर्कात्, पतिष्णुवरमौक्तिकैः-पतयालुवरमुक्ताफलैः, विशदंउज्ज्वलं, इति युग्मार्थः। ८०. एतस्या०। चक्र', एतस्य-भरतस्याग्र-पुरस्तात्, संचचार-गच्छतिस्म । कि विशिष्टं चक्र ? स्फूर्जज्ज्योतिःलक्ष्येण-स्फुरत्कांतिशतसहस्रण, लक्ष्य करोतीति, इत्येवंशीलं, किं कारयत् ? देवनारी:-देवांगनाः त्रासयत्-नाशयत् । किं विशिष्टा देवनारी: ? आकाशस्था:-नभोमार्गस्थिताः, कैः ? स्फुलिंगैःवह्निकणैः। किं कुर्वाणैः ? सर्वाशान्तान्-दशदिगंतान्, व्यश्नुवानैःव्याप्नुवद्भिः। ८१. तदितिः। सुरनरैः-देवमनुष्यैः, चित्ते-मनसि, तच्चक्र इत्येवं व्यकि व्यचारि। इतीति किं ? अस्य भरतचक्रिणः किं आस्तरं-अन्तर्वति महस्तेज इदं उपागतं ? किमिति वितर्के । एष पुण्योदय, इह-अस्मिन् भवे, मूर्तिमत्वंदृश्यत्वं संशृत एव । किं विशिष्ट: पुण्योदयः ? प्रथमभवमवः-प्राग्भवजातः । इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मे, ऽयोध्यातक्षशिलाधिराजचरितश्लोकप्रथा पंजिका । नैपुव्यव्यवसायिपुण्यकुशलस्यास्यारविंदोद्गता, या तस्यामिति सैन्यसज्जनविधिः सर्गोऽभवत् पंचमः ।। इति श्रीभरतबाहुबलिमहाकाव्ये पञ्जिकायां सेनासज्जीकरणो नाम पंचमः सर्गः। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ पञ्जिका (सर्ग६) षष्ठः सर्गः १. राजमा० । गवेन्द्र:-राजा भरतः, राजमार्ग अतिलंध्य-अतिक्रम्य, गोपुरंपूर्वारं, आपत् । किं विशिष्टं राजमार्ग ? सद्भिः-साधुभिः, कमनीयंअभिलषणीयं, कमिव ? स्वर्गलोकमिव, यथा गवेन्द्रो-वासवः स्वर्गलोकमाप्नोति। पुनः किं विशिष्टं राजमार्ग .? सुमनसां-कुसुमानां, समुदायैः-समूहै:, संगतंसंयुक्तं, स्वर्गलोकपक्षे-सुमनसः-देवाः। पुनः किं विशिष्टं राजमार्ग ? वित्तततोरणं-विस्तीर्णतोरणं । २. तारके०। नृपः-सामन्तभूपैः, राजा-श्रीभरतः, अनुजग्मे-अनुगम्यतेस्म । कथं ? आरुचि-रुचि-अभिलाषं मर्यादीकृत्य आरुचि यथेष्टमित्यर्थः । किं कुर्वन् ? कौ—पृथिव्यां, मुदं-हर्ष, स्मेरतां-विकाशितां, विदधत्-निष्पादयन् । कैः क इव ? तारकैः राजा-चन्द्र इव अनुगम्यते । एतत्पक्षे-कौमुदंकुमुदां समूह, स्मेरतां विदधत्, आरुचि-आचन्द्रदीधिति, किं विशिष्टः ? नपतिवर्त्मविहायोभ्राजिभिः-राजमार्गाकाशविराजिभिः, पुनः किं विशिष्ट: कलितकांतिविशेषः-प्राप्तशोभातिशयैः. तारकपक्षे-कांतिः-विभा। ३. सेनया० । अथानन्तरं सेनया अभ्यधिकं-अधिकं यथा स्यात् तथा, अत्र राजमार्ग, दिदीपे-दीप्यतेस्म। कयेव ? ज्योत्स्नेव, यथा ज्योत्स्नया-चन्द्रातपेन दीप्यते । किं कुर्वत्या सेनया.? तं भरतं अनुलक्षीकृत्य प्रसरन्त्या-गच्छंत्या । . किं कुर्वत्या ज्योत्स्नया ? रजनीशं-चन्द्रं, अयंत्या-व्रजन्त्या। किं विशिष्टया ? .. पौरलोचनचकोराणां विवृद्ध आनन्दो-हर्षो यस्याः सा, तया । ..४. वाहिनी० । अयं-भरतः, वाहिनीभिः-सेनाभिः, अभासीत्-शुशुभे । क इव ? पाथसां पतिरिव, यथा समुद्रो वाहिनीभिः-नदीभिर्भाति । सेनानद्योविशेषणः साम्यमुच्यते । किं विशिष्टाभिर्वाहिनीभिः ? अवनीधरं-राजानं पर्वताद् वा . गच्छंतीति ताः, ताभिः, पुनः किं विशिष्टाभिः ? घनवाहैः-दृढाश्वः मेघप्रवाहैश्च, अधिकं विस्तृताभिः-प्राप्तविस्तराभिः, पुनः किं विशिष्टाभिः ? ___. कुभिनां-हस्तिनां, कुम्भस्थलरूपतटेषु-पुलिनेषु, वामः-मनोज्ञो वक्रो वा, रयो वेगो यासां ताः, ताभिः। ५. दानवा०। वाजिभिः-अश्वः, स्वक्षुरोद्धतरजोभिः-निजखुरोड्डापितरेणुभिः कृत्वा, व्योम-आकाशमिति हेतोः सवासः सांबरमकारीव व्यरच्यतेव । इतीति किं ? दानवारिपति:-इन्द्रः, अस्माकमभीप्सुः-अस्मद्वांछको मा भवतु । ... कुतः ? आत्मतुरंगभ्रांतित:-उच्चैःश्रवोभ्रमात् । ६. वारणाः० । इह-अस्मिन् राजमार्गे, यंत्रिभिः-आधोरणः, वारणाः-हस्तिनः, Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् कथमपि-महता कष्टेन, विधार्याः-प्रयत्नेन रक्षणीयाः आसन् । किं कुर्वतः ? बिभ्यत:-भयं प्राप्नुवंतः । किं कृत्वा ? सिंहवदनाकृतिवाहान्-सिंहमुखाकारान् अश्वान् वीक्ष्य, किं विशिष्टान् ? कुथपरिष्कृतदेहान-सन्नाहसंवेष्टिततनून् । किं विशिष्टा वारणाः ? चकितपौरसुनेत्राः-भीतपौरस्त्रीकाः । ७. कश्चन । सप्तिभिः-तुरगः, अतिवेगात् गगनमेव ललम्बे-आश्रितं । कि विशिष्टः सप्तिभिः ? उज्झितधरैः-त्यक्तवसुधैः । कैरिव ? पक्षिभिरिव । किं विशिष्टः पक्षिभिः ? आततपक्षः-विस्तारितच्छदैः । किं कृत्वा . ? . पार्श्वसंचरदनेकपराजी:-अभ्यर्णागतगजश्रेणी:क्ष्य । ८. चित्रका० । अत्र-राजमार्गे, वृषभैः स्यंदनाः-रथाः, द्राक्-शीघ्र, मुमुचिरे मुक्ताः । किं विशिष्टः वृषभैः ? चित्रकाननहयाधिकभीत:-चित्रकायास्यतुरगात् . पलायितैः, पुनः किं विशिष्टैः ? कण्ठकन्दलविलम्बितयोक्त्रै:-कंठकंदले-ग्रीवायां, विलंबित:-संश्रितः कोक्त्रो येषां ते, तैः। किं कृत्वा ? प्राजनप्रहरणानितोदनप्रहारान् अवमत्य-अवज्ञाय । ६. पत्तिभिः । पत्तिभिः-पदातिभिः, क्वचन दीप्यतेस्म । किं विशिष्टः पत्तिभिः ? शौर्यरसोद्यत्कुंतलः । पुनः किं विशिष्ट: ? कलित:-गृहीतः, भल्लो येन, तत् कलितकुंतं, कलितकुंतकराग्र येषां, ते, तैः । उत्प्रेक्षते-वीर्यः मूर्ततां अधिगतैः-प्राप्तः, अब्धेः-समुद्रस्य, लहरीभिः-तरंगैरिव । १०. सिंहना० । इह-अस्मिन् भरतसैन्ये, सिंहनादमुखरैर्वीरैः मृदभरालसयो नागा इति शाकपार्थिवादिमध्यमपदलोपीसमासः । त्रासिताः-भापिताः । तै:-गजः, कुरंगनयना:-स्त्रियः, विहस्ता:-व्याकुलीकृताः। ताभिः-नारीभिः, शिशवः बालाः, उत्ससृजिरे-त्यक्ता इति त्रिभंगोन्वयः । ११. खेचरै० । खेचरै:-विद्याधरैः, चतुरंगसेनासंचारबाहुल्यात् संकुलो नृपमार्गः राजपथः, अपजहे-त्यक्तः । त्रिदशवर्त्म-गगनं, जगाहे-अगायत। च-पुनः तैः-खेचरैः, तत्र-त्रिदशवर्त्मनि नाकिखेचरविमानविहारैः-सुरविद्याधरविमान संचारैः कृत्वा घनसंकटता-बहुलसंकीर्णता, अहे-प्राप्ता। . १२. अंतरो० । व्योमगैः-विद्याधरैः, अंतरा-मध्ये उद्यतरजोपि-उड्डीयमानरेणुरपि, निरासे-दूरीकृतं । कया ? वारणप्रहरणांबुविसृष्ट्या -वरुणास्त्रपानीयवर्षणात्, किं विशिष्टः व्योमगैः ? बलविलोकनशौंड:-सैन्यनिभालनदक्षः। इतीति किं ? न:-अस्माकं विद्याधराणां, पश्यतां-विलोकयतां, विघ्नः-व्यवायः, इहअस्मिन् समये, न अस्तु-न भवतु । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग६) ४५१ १३. व्यमग० व्योमगैः-खेचरैरिति वरुणास्त्रवर्षणेन दृक्सरोरुहदृशां-आशांगनानां, एतद् रजोम्बर-पांसुरूपं वस्त्रं, द्राक्-शीघ्र, चक्रिष-आकृष्टं । पुनः करिभिः' हस्तिभिः, आसां-दिगांगनानां, श्रुतिकीर्ण-कर्णतालविक्षिप्तं, नागजांबरं सिन्दूररूपवस्त्रं, प्रत्यदायीव-प्रत्ययेतेस्मेव । १४. प्रक्षर० । गजराजरीये-प्रयातं । किं विशिष्टः गजराजैः ? प्रक्षरन्मदजल: पतदानवारिभिः, पुनः किं विशिष्ट: ? जातरूपमयमण्डनकान्तः-स्वर्णाभरणशोभनैः, उत्प्रेक्षते-विद्युदंतरचरैः-तडिन्मध्यवर्तिभिर्मेघेरिव, किं विशिष्टः ? उन्नतत्त्वेन-प्रोत्तुंगतया परिचरंतीत्येवंशीला उन्नतत्त्वपरिचारिणस्ते। अत्र वृत्ते भाकोक्तिरेव चिन्त्या। १५. राजलोंक० । भामिनीभिः-पौरवधूभी राजलोकनकृते-भरतावलोकनार्थं, समु पेतं-समागतमत्र भावे क्तः । किं विशिष्टाभिर्भामिनीभिः ? अधिकत्वरिताभि:सत्वराभिः, पुनः किं विशिष्टाभिः ? फुल्लपद्मदलमानसशोभा-विकस्वरांभोजमानससरसीवरश्रियं, इताभिः-प्राप्ताभिः, काभिः, कृत्वा ? लोचनास्यकमलाभिः-नयनवदनश्रीभिः । १६. लीलय०। काचिद् रामा अनंत चराणां-विद्याधराणां, हास्य-हसनीयतां, आपयत्-प्रापितवती। किं विशिष्टा काचित् ? ऊर्ध्वपदधःकृतवक्त्रा-ऊर्ध्वाहिन्यकृतमुखी, पुनः किं विशिष्टा काचित् ? अत्र-राजमार्गे, गवाक्षात् लीलयैव करणीशकरात्ताद्-हस्तिशुण्डादण्डगृहीता, पुनः किं विशिष्टा ? सैन्यवीक्षणपरा। १७. कामिनी० । काचित् कामिनी करिवरेण-हस्तिना, बलविलोकनदाढर्यात . . सैन्यालोकनतत्परत्वात्, उद्धृता-उत्पाटिता, करेण-हस्तेन, पुनः किं विशिष्टा ? . . . वल्लिवत् स्तनफलाकलितांगी कामिनां तदानीं-तस्मिन् सैन्यसंचारसमये, मुदं-हर्ष, अदत्त-दत्तेस्म। १८.. स्मेरव० । काचिद् बाला गजराजकराग्रे-हस्तिहस्ताग्रे, पद्मिनीव-कमलिनीव, .. राजतेस्म-दिदीपे । किं विशिष्टा ? चकितेक्षणं-भीतलोचनं यथा स्यात् तथा दृष्टा-विलोकिता, पुनः किं विशिष्टा ? स्मेरं-विकस्वरं, वक्त्रं-आननं, तदेव कमलं, तस्योपरि लोलंतः-चलंतः, लोचनम्रमराः तेषां विभ्रमः-शोभातिशयः, तेन वामा-मनोज्ञा। १६. कुम्भिकु० । केचन युवानः कुंभिकुंभकुचयो:-द्विरदकुंभस्थलपयोधरयोरपि पुनः उरुकरयोः-सक्थिहस्तिशुडयोः, साक्षात्-प्रत्यक्षतयोपमानं-तुल्यतां, लेभिरेप्राप्तवंतः। किं विशिष्टयोः ? मिथ:-परस्परं, मिलितयोः-संपृक्तयोरेव । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् हि-यतः, तादृशां - भरतसदृशानां, अवसरे - प्रस्तावे, किमनाप्यं - अलभ्यं, अपितु सर्वं सुलभमेवास्ति । २०. कापि म० । काचिद् बाला मत्तकारिणीश्वरभीत्या - मत्तद्विरदभयेन, कांतं भर्त्तारं एव निबिडं - बाढं यथा स्यात् तथा परिरेभे-आलिंगितवती । उत्प्रेक्षते - द्राक्शीघ्र, आंतरं - मध्यवत्त, भयं क्रष्टुं - निष्कासयितुमिव वक्षसि - हृदयस्थले, कामं—मन्मथं. संनिवेष्टुं-स्थापयितुमिव । २१. कंदुको०] । ताः - स्त्रियः, एवं अमुना प्रकारेण इभात् - गजात्, अपसत्र:दूरीबभूवुः । एवमिति किं ? अस्माभिर्यथाऽयं कंदुकः, किलेति निश्चयेन, करेण-हस्तेन, हन्यते । किं विशिष्ट : कंदुक: ? अनुकृतस्तनलक्ष्मीः - सदृशीकृतपयोधरश्रीः, तथैवास्माभिर्हस्तिनां गतिर्गमनमदा यि - जगृहे । २२. कुम्भिनां०। कुंभिनां - हस्तिनां उत्पतिष्णुकरशीकरवारैः - उत्पतनशील भुजदंडसंबंधिछटासन्दोहैः, अंबरं - गगनं, तारतारकितं - निर्मलमौक्तिकरूपताराढ्यमासीत्, कस्मिन् ? पांसुसंतमसेन - रजोंधकारेण, नीतं - प्रापितं यन्निशीथंअर्द्धरात्रः तस्मिन् । किं विशिष्टानां कुंभितां ? प्रसरदुच्छ, वसितानां - विस्तृतोच्छ्वासानां । २३. संचर० । संचरबल रजोनिकुरंबै: - गच्छत्सैन्य धूलिनिव है, जगदपि - विश्वमपि, संभ्रमाद् एतद् ईरयद् - इदं ब्रुवाणं, परितेने चक्रे । एतदिति कि ? भानुमान्सूर्य:, किमिति वितर्के, परशैलं - अस्ताचलं, इतः - प्राप्तः, किं विशिष्ट : ? चुंबितांबरपथैः- आश्लिष्टगगनैः । २४. भूधरो० । छत्रचक्रमहसां समुदायः एष समयः - अवसरो, दर्शः सूर्येन्दुसंगम एवाऽभवत् । कस्मात् ? शर्वरीदिवसनायकयोगात् - सूर्य चन्द्रमसोमिलनात् । किं कुर्वदुभिः ? भूधरोपरिपुरः - भरतस्योपरिष्टात् पुरस्तात् च प्रसरद्भिः - विस्तारं प्राप्नुवद्भिः । २५. एक एव० । गगनेलाचारिणां विद्याधरभूमिचराणां एक एव समय: - प्रस्तावः, रजसा - रेणुना कृत्वा, दिननिशांत रतर्क - दिवसरजन्यंतर विचारं, आततानकरोतिस्म । किं विशिष्टेन रजसा ? उरुविमानस्पर्शिना - बृहद्विमानावलंबिना । । किं विशिष्टेन ? अनिततमोरिपुधाम्ना-अप्राप्तदिनकरातपेन, पुनः विमानांतरभावात् । २६. अंतरा० । गगनरत्नमहोभिः - सूर्यकिरणः, अंतरागतविमानततिः द्राक् - शीघ्र, पस्पृशे - स्पृश्यतेस्म । सैनिकशिरांसि - सैन्यवत्तभटोत्तमांगानि, समन्तात् सर्वतः Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग६) ४५३ नव पस्पृशिरे। किं विशिष्टः गगनरत्नमहोभिः ? पांसुपूरेण-धूलिनिकरण, रचित:-कृतः, अंतरे-मध्ये, विघ्नो येषां, ते, तैः । २७. भारते० । पश्यतां-विलोकयतां, एष वितर्क:-विचारः, अभवद्-बभूव। किमिति वितर्के, इयं वसुधा भारतेश्वरं ईक्षितुमिव, उच्चैः-अत्यर्थं गगनमारुरोह आरूढवती । कुतः ? सैनिकोद्धतरजश्छलत:-सैन्योड्डापितधूलिदंभात्।। २८. भूचरा०। मनुष्यविद्याधरकटकसमूहैः अनेकमनोपि जगद्-विश्वं प्रभव देकमनस्त्वं-जायमानैकहृदयत्वं, निर्ममे-विदधे । किं विशिष्ट: ? भूचराभ्रचरसैन्यवितानैः, रोदसीभरणे-द्यावाभूमीपरिपूरणे, कोविदः-विशेषज्ञः, चार:-गमनं, येषां, तानि, तैः । २६. व्योमग० । व्योमगैः-विद्याधरैः, क्षितिचराधिकमार्ग-भूचरातिरिक्तं पंथानं, लंधितुं-अतिक्रमितुं न विबभूवे-न समर्थीभूतं । किं विशिष्टः व्योमगैः ? विमाननिविष्टः, पुनः किं विशिष्ट: ? मंदमंदगतिभिः, पुनः किं विशिष्टः ? कौतुकानलसदृष्टिनिपातः-कुतूहलोद्यमितलोचनप्रचारैः । ३०. किंकिणी० । तत्-तस्माद्धेतोः, उभयोः-व्योमवर्त्मभूतलयोः, समता-तुल्यताऽभूत् । किंकिणीक्वणितकीर्णदिगन्तै:-क्षुद्रघंटिकारावपरितदिप्रान्तः, एतादृशैविमानैः व्योमवर्त्म-गगनपथो विरराज । च-पुनः, चक्रनादमुखरैः-रथांगध्वनितवाचालैः, एतादृशैः शतांगैः-स्यन्दनैर्भूतलं विरराज । ३१. तं प्रयात० । काचित् सुरस्त्री-देवनारी, तं-भरतें, मौक्तिकैः-मुक्ताफलः, अवचकार-संवर्द्धयामास । किं विशिष्टा सुरस्त्री ? अंबरं-आकाशं, गता-प्राप्ता, पुनः किं विशिष्टा ? गुणैः-रूपादिभिः, हृष्टा-प्रीता। किं कृत्वा ? प्रयान्तंप्रयाणं कुर्वाणं तं भरतं अवलोक्य-दृष्ट्वा । किं विशिष्ट: मौक्तिकः ? विकीर्णैः विपर्यस्तैः, पृथक् पतितैः उत्प्रेक्षते-आराद्-दूरात्, भुवं-वसुधां, गतः-प्राप्तः, ... तारकैः-नक्षत्ररिव । . ३२. अक्षतैः । स भरतो गोपुर-नगरीद्वार, सपदि-सत्वरं, उपेतः-समागतवान् । किं विशिष्ट: स ? पौरवधूभिः-नागरिकनारीभिः, अक्षतैः-लाजैः, शुचितमैःअतिशयितधवलैः, अवकीर्णः-वर्द्धापितः । किं विशिष्टाभिः पौरवधूभिः ? अक्षतप्रियसुताभिः-अनाहतभञपत्याभिः, काभिः क इव ? वृष्टिभिगिरिरिव, यथा वर्षाभिरंबुपृषद्भिः -वारिशीकरैः, गिरि:-पर्वतः, अवकीर्यते । ३३. आश्रितः । विबुधैः-देवैः पंडितर्वा इत्यतकि-व्यचारि। इतीति किं ? स ___ भरतः, सिंधुरत्न-सहस्रदेवताधिष्ठितं गजं, आश्रित:-स्थितः सन् याति-व्रजति। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् किलेति संभाव्यते, किं सुरराज:-इन्द्रः, हस्तिमल-ऐरावणमाश्रित इव । ईक्षणद्वयसहस्रविभेदात् नायं सुरराजः । एतस्य नेत्रद्वयं, वासवस्य नेत्रसहस्र, अयमेव भेदो नत्वन्यः। ३४. उर्वशी० । उर्वशी-स्वर्वेश्या, तं-भरतं, निपीय-दृष्ट्वा , तदा-तस्मिन् समये, इति विममर्श-विचारयतिस्म । इतीति किं ? तु-पुनः, यत्पतिर्यस्या दयिताऽसौ भरतोस्ति, जगति-विश्वे, सा धन्यतमा-अतिशयितपुण्यवती। किं विशिष्टोऽसौ ? अधिकरूपभरश्री:-अतिरिक्तरूपातिशयलक्ष्मीकः, किं विशिष्टा उर्वशी ? गुणवशीकृतविश्वा-गुणैः रूपादिभिः, वशीकृतं विश्वं-जगत् यया, सा। ३५. रंभया० । रंभयाऽयं भरतः, इत्यचित्यतः-एवं विचार्यतः । वासवाद्-इन्द्रात्, अधिकरूपविलासोऽस्ति । पुनरियं-एषा नगरी विनीता, नाकनाथनगराद्अमरावतीतोतिरिक्ता-अधिकतमा। किं विशिष्टया रंभया ? आश्रितनभोन्तरया। ३६. गोपुरं० । जातरू । मल्लिका० । स-भरतः, गोपुरं-नगरीद्वारं, ललंघे अतिक्रान्तवान् । उपमीयते-अस्याः पुरः-नगर्याः, आनन-बदनमिव, कि विशिष्टं ? नीलरत्ननयनद्युतिरम्यं-नीलरलानि इन्द्रनीलान्येव नयेनानि, तेषां द्युतिः-कांतिः, तया रम्यं-मनोज्ञं । पुनः किं विशिष्टं ? उत्तरंग-पूरोलद्वारभागस्तदेव ततभालं-विशालललाटं तत्र चकासदरत्नतोरणरूपविशेषकस्य-तिलकस्य शोभा यत्र, तत् उत्तरंगततभालचकासदरत्नतोरणविशेषकशोभं । ३७. पुनः किं विशिष्टं ? जातरूपमयी-स्वर्णरूपा या भित्तिरेव कपोलस्तस्य श्रीलक्ष्मी स्तया सनाथा-सहिता या वलभी-छदिराधारः, सैव वरनासा-प्रधानघ्राणं यत्र, तत् । पुनः किं विशिष्टं ? नागदंता:-द्वारोपकरणविशेषाः, त एव लटभभ्रवः-वक्रभूभंगास्तैविशिष्टो-रुचिरः, यः श्रीविलासो यत्र, एतादृशाः किसलाः पल्लवपुष्पादीनां तद्रूपमधरबिंब यत्र, तत् । ३८. पुनः किं० । मल्लिकाकुसुमकुड्मलानां लेखा-श्रोणिः, तद्वत् यो हास:-स्मितं, तेन हारि-मनोज्ञं, पुनः किं० वि० ? सुभगैः स्पृहणीयं-कमनीयं, पुनः किं० वि० ? कुमुदकुंदानां कलापैः-समूहैः, दन्तुरं-उन्नतदशनवत् । पुनः किं ? . तूर्यनादमुखरं-वाद्यनिर्घोषवाचालं । इति विशेषकार्थः । ३६. सार्वभौ० । हे सार्वभौम !-चक्रवर्तिन् !, भवता-त्वया, ऋषभध्वजवंशः, सर्वथैव स्पृहणीयः-अभिलषणीयः, केन क इव ? देवतावनीरुहा-कल्पद्रुमेण स्मेरुरिव । च-पुनः, कौस्तुभेन हरे:-विष्णोः , वक्षोह दयमिव । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ पञ्जिका ( सर्ग ६ ) ४०. मौक्तिकं । हे राजन् ! भवता यशोभिः क्ष्मातल - भूवलय, अशोभि - शोभितं । उपमीयते—मौक्तिकैरिव । किं विशिष्टः यशोभिः ? विमलवृत्तगुणाढय :विशदाचारगुणपूर्णैः, मौक्तिकपक्षे - विमलानि - निर्मलानि, वृत्तानि - वर्तुलानि, गुणाढ्यः -सदवरकानितैः, पुनः किं विशिष्टैः ? दिक्पुरंधिहृदयस्थलेन . धायै: - वहनीयैः, अमीषां यशः मौक्तिकानां अम्बुधिरिव त्वं हेतुः - निदानमसि । ४१. वाम० । हे वदान्यवतंस ! - दातृशिरोमणे ! तवैतद् वामदक्षिणकरद्वयं स्वर्गरत्नफलदाधिकं - चिंतामणिकल्पद्रुमातिशायितं, अस्माभिः, ऊह्यं - ज्ञातव्यं । कस्मात् ? हृदयेप्सितवस्तुं प्रापणात् । कथं ? सर्वदैव । ४२. वाहिनी० । हे राजन् ! तत् तस्माद्धेतोः त्वं कथंचिन् महता कष्टेन, इह - अस्मिन् लोके, उपमेयः- उपमानासि । अयं वाहिनीपतिः - नदीनाथः, त्वं सेनानाथः । परं जडतया - जाडो न आढ्यः - पूर्णः, त्वं नेदृक् । गौरकांति:चन्द्रोपि संश्रितदोषः, त्वं त्यक्तदोषः । तेजसां निधिः- श्रीसूर्योऽपि क्षतधामा - हतप्रभावः संध्यासमये । त्वं नैतादृक् । ४३. आयुगां० । हे भरतावनिशक्र ! - भारतवर्षभूमीन्द्र !, ते तव, कीर्त्तिरियं स्थाणुः - शाश्वती भविष्यति कथं ? आयुगान्तं - आकल्पान्तकालमपि, कुत्र ? अत्र-लोके ं । यत्-यस्मात् कारणात् भाविनोपि भविष्यंतोपि क्ष्माभृतः - राजानः, वसुमतीं अवितारः - रक्षितारः । किं कृत्वा ? अमुं त्वदीयां कीति अनुसृत्य - अनुगम्य । ४४. कोत्तिनि० । हे राजन् ! तव कीर्तिनिर्जरवहा - भवत्कीत्तिगंगा, रमणतीरगमित्री - समुद्रतटगमनशीला विद्यते । किं विशिष्टा ? विष्टपत्रितयपावनदक्षाजगत्त्रतयपवित्रीकरणनिपुणा, पुनः किं ? राजहंसानां - भूपालश्रष्ठानां मरालानां च रचितः - विहितः, अधिक: हर्षः यया, सा । त्वत्प्र० । हे राजन् ! त्वदरिणां भवदुवैरिणां, यशांसि - कीर्त्तयः, इह-अस्मिन्, त्वत्प्रतापदहने - भवत्प्रतापाग्नौ भस्मसादु भवंति । तव यशोनंवयोगी स्वेच्छया अति, किं कृत्वा ? अनेन भस्मना वपुः - शरीरं विलिप्य । I ४६. व्यानशे० । हे राजन् ! सपदि -सत्वरं, तव यश: चतुराशाः - चतुर्दिशः, व्यानशेव्यापत् । कस्येव ? वाहिनीशितुः - समुद्रस्येव यथा समुद्रस्यांबु - पानीयं विवृद्धवृद्धि प्राप्तं चतुराशा व्याप्नोति, तत्रांबुधौ कोपि राजा - प्रत्यर्थिभूपः, न सेतवति - पालिवदाचरति, तु पुनः, तत्र मार्गणाः - अर्थिनः, नितांतं मीनवदाचरंति । अत्र चतुर्भंगोन्वयः । अनिमिषंति Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४७. देव ! चं० । हे देव !, भवदीयं यशश्चंद्रति-चन्द्रवदाचरति । सांप्रतं-अधुना, च-पुनः, इतरेषां-अन्येषां, क्षितिभुजां-राज्ञां, यशांसि तारकंति, तारावदाचरंति, तत् तवैव कतित्वं-पांडित्यमस्ति। हि-निश्चितं, यत्र यशश्चन्द्र कलंकांको न भवति वापवादः । इति चतुभंगोन्वयः कलंकांकोपवादयोः इत्यनेकार्थसंग्रहे । ४८. त्वामपा० । हे राजन् ! यः पुमान् अत्र-लोके, विह्वलतया अन्यं-अपरं, श्रयते सेवते। किं कृत्वा ? त्वां-भवन्तं, अपास्य-त्यक्त्वा, किं विशिष्टं त्वां ? ' सकलार्थदहस्तं-सकलवस्तुदायिकरं, हि-यतः, स पुमान् दुर्मतिः-दुर्बुद्धिः स्यात्, यः शुष्यदंबुस रसीस्थितिमान् भवति-शुष्कपल्वलस्थाता । किं विशिष्ट: ? स सुधाब्धि-क्षीरसमुद्रं अपास्ता-उज्झिता।। ४६. को गुण । हे राजराज ! हे राजेन्द्र !, स तव को गुणो वर्तते येन गुणेन त्वया चपलापि-अनवस्थायिन्यपि जयश्री: निबद्धा-नियंत्रिता, च-पुनः, या श्रीर्भवतः-त्वत्तोन्यं-अपरं, एव न वृणीते-नांगीकुरुते, अतः हेतोः, इह-अस्मिन्जगति, त्वदीयसुभगत्वं-भवदीयसौभाग्यं, ईड्यं-स्तोतव्यं, अस्माभिरिति शेषः । इति चतुर्भगोन्वयः । ५०. पश्य प० । हे राजन् ! त्वबलं-तव सैन्यं खररुचि-श्रीसूर्य, पिदधाति आच्छादयति, त्वं पश्य-विलोकय, किं विशिष्टं त्वबलं ? गगनक्षितिचारिव्योमवसुधासंचरणशीलं । महस्वी सूर्यः कथमत्र लोके ख्यातिमेति-प्राप्नोति । किं विशिष्टो महस्वी ? इति-पूर्वोक्तं अवेक्ष्य-विचार्य, गगनांतविहारी नभःप्रान्तविहरणशीलः। ५१. इत्थम० । क्षितिपतिः-राजा भरतः, पुर:-नगा एव सविधे-समीपे, काननानि वनानि, लुलोके-दृष्टवान् । किं कुर्वन् ? इत्थं-पूर्वोक्तः, त्रयोदशवृत्तः, अर्थिजनवाक्यपदानि-वंदिजनवचनस्थानान्याकर्णयन्, किं विशिष्टानि काननानि ? समंतात्-सर्वतः, शाखिभिः-द्रुमः, परिवृतानि-व्याप्तानि । ५२. स्वस्वना० । पृथिवीशा:-द्वात्रिंशत् सहस्रपरिमिता भूपाः, क्षितिपतेः-भरतस्य, पृष्टतोन्वयु:-अनुयान्तिस्म । किं विशिष्टाः पृथिवीशाः ? स्वस्वनागहयपत्तिरथाढ्याः । पुनः किं० ? उत्तरोत्तररमाभिः-उत्कृष्टोत्कृष्टलक्ष्मीभिः, अर्पितंदत्तं, चित्रं-आश्चर्यं यः, ते । कस्येव ? भानोरिव, यथा भानोः पृष्टतः करभरा अनुयांति। ५३. आदिदे० । नागराः सतर्क-सविचारं यथा स्यात्तथा परस्परमित्यूचुः । कि कृत्वा ? तां ध्वजिनीं-सेना, समवलोक्य-दृष्ट्वा, किं विशिष्टां ध्वजिनीं ? Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग६) ४५७ आदिदेवतनयं-भरतं, अन्वितां-अनुप्रयातां, कां कमिव ? निर्जरसेना-देवचमू, तारकारि-स्वामिकात्तिकेयमिव । ५४. एतयोः । नागरा: किं अवोचन इत्याह । ननु-निश्चितं, एतयो: भरतबाहुबल्योः, पिता-जनकः, जगदीश:-तीर्थकरोस्ति । किं विशिष्टो जगदीशः ? सर्वसृष्टे: करणं-निष्पादनं, तकविधाता-एककर्ता, आभ्यांभरतबाहुबलिभ्यां, किमिति वितर्के, विरोधतरु:-वैरवृक्षः, उप्यते-समारोप्यते। किं विशिष्टो विरोधतरुः ? युत्-संग्राम एव फलं यस्य, असौ, पुनः किं० ? चरनियोजनं-द्तसंप्रेषणमेव सून-पुष्पं यस्य, असौ।। ५५. नः प्रभु०। इह-अस्मिन् व्यतिकरे, न:-अस्माकं, प्रभुः-भरतः, भारतंक्षितिपराज्यगृहीत्या-भरतवर्षसंबंधिभूपालराज्यादानेन न तृप्तिमवापत् । क इव ? वाडवाग्निरिव, यथा वडवानल: सिंधुराजसलिलाभ्यवहृत्यासमुद्रपानीयभक्षणेन न तृप्तिमवाप्नोति । किं विशिष्ट: ? दुर्द्धरतेजा: दुःसहबलः । ५६. दैवते० । अस्य-भरतस्य लक्ष्मी:-संपत्, गतांता-अनंता परिभाति, किं विशिष्टा लक्ष्मीः ? देवतेशितु:-इन्द्रस्यापि स्पृहणीया-अभिलषणीया । किमिति वितर्के, बंधुबाहुबलिमंडललिप्सोः अस्य भरतस्य, सांप्रतं-अधुना, किमधिका भवित्री-किमतिंशायिनी भविष्यति ? ५७. वाजिरा० । एष-भरतः, तृणवज्जगंति मन्यते । कस्मात् ? प्राभवात्. प्रभुत्वात् । किं विशिष्टात् प्राभवात् ? वाजिराजिभिः-हयततिभिः, इभैः गजैः, विवृद्धात्-वृद्धि प्राप्तान्, पुनः किं विशिष्टात् ? सुरनरोरगकांतात् । . हि-यतः, प्राभवस्मयगिरि:-प्रभुत्वाहंकारपर्वतः, विलंघ्यः-अनुल्लंघ्यः । ५८. सात्विका० । केचिज्जना इह-अस्मिन् युगे, सात्त्विका:-पुण्यवंतः दायका ... भवन्ति । केचिज्जना राजसभावमादधति-धरंति । केचिज्जनैः इह-अस्मिन् लोके, तामसत्वमुपास्तं-सेवितं, यत्-यस्माद्धेतो(वि-पृथिव्यां, जना:-लोकाः, गुणत्रयवंतो भवन्ति । इति चतुर्भगोन्वयः । १६. राजसाः। किलेति संभाव्यते, महीन्द्रा:-राजानः, राजसा:-रजोगुणवंतो भवंति । किं विशिष्टाः महीन्द्राः ? विभवभ्रमिविघूणितनेत्रा:-प्रभुत्वभ्रान्तिभ्रमितदृशः, यत्-यस्माद्धेतोः इतरत्र-अन्यत्रस्थाने, आधिपत्यं-ईश्वरत्वं न सहते । किं विशिष्टाः ? असद्-अविद्यमानं, प्रभुत्वं अर्पयितार:-दातारः। ६०. दायक० । अस्माभिः अयं नरपतिर्भरतः सात्त्विकः सत्वगुणवान् विविदे Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् विज्ञातः, काभ्यां ? दायकत्वसुकृतित्वगुणाभ्यां । कथं तत्-तस्माद्धेतोरेष भरतः सोदरेण-बांधवेन सह युयुत्सुः-युद्धं कर्तुं इच्छुः, किं कृत्वा ? सात्त्विकत्वं अवधूय-दूरीकृत्य । ६१. यो विवे० । अधुना-अस्मिन् समये स भरतः चरमाद्रि:-अस्ताचलः, विवेकतरणेः अस्तमयाय भविता-भावी । स कः ? यो विवेकतरणेः उदयाद्रिः उदयाचलोस्ति। यत्-यस्माद्धेतोः, मेदिनीगगनचारिचमूभिः-भूचरविद्याधर कटकैः, वृतः-संयुक्तः, बंधुविजित्यै–बाहुबलिविजयाय व्रजति । . ६२. मंडपः । स बाहुबलिः यदि नीतिलतायाः-न्यायवल्याः, मडप:-आश्रयोस्ति, तहि अयं कथं ज्येष्ठं-बृहद्भ्रातरं नानमति-नमस्करोति, तु-पुनः, अयं बाहुबलिः अनया नत्या - अविनयमुच्छिनत्ति-उन्मूलयति । अधुना अस्य भरतस्य नत्यां-नमस्कारे सति न मानहानिः नाहंकारस्य न्यूनता। . . ६३. मानिनां० । किलेति-श्रूयते, तस्य-बाहुबलेः, मानिनां प्रथमता प्राग-पूर्व, त्रिजगति-त्रैलोक्ये, प्रथिमानं-गरिष्ठतां, गता-प्राप्ता। स बाहुबलि: एनंभरतं कथमेति-आगच्छति । किं कृत्वा ? तां मानिनां प्रथमतामपास्यत्यक्त्वा, जीवितात्-प्राणतः, अभिमानः शतगुणोऽस्ति। ' ६४. एकदे० । न:-अस्माकं, विभुः-स्वामी, बांधवस्य-भ्रातुः, एकदेशवसु धाधिपतित्वं-एकमंडलाधिपत्यं, न सहते-न क्षमते । मृगराजः-सिंहः, आत्मनः प्रतिरूपं जलगत वीक्ष्य-दृष्ट्वा , किं न कुप्यति ? . . ६५. यच्चका० । एव एव बहलीशः-बाहुबलिः, भारतक्षितिधवस्य-षट्खंडाधिपतेः, पुरस्ताद्-अग्रतः, यद् रणचेष्टितं चकार-करोतिस्म, तदुच्चैः-महत्वाय, अस्यबाहुबलेः, बलवान्-सत्त्ववान्, अयं इत्येवंविधं यशो भविष्णु-भावि । ६६. एतयोः । एतयोः-भरतबाहुबल्योः, समरतः-संग्रामतः, किलेति निश्चयेन, नागवाजिरथपत्तिविनाश:-क्षयः, भावी-भविता। कयोरिव ? मत्तयोर्वनद्विपयोरिव कलहात्, पार्श्ववत्तितरुसंततिभंगः । ६७. नागरैः । एष-भरतः, नागरैः-नगरवासिभिः लोकः, इति-पूर्वोक्तप्रकारेण, वितर्कितः-विचारितः सन् अचलत्-चलतिस्म । किं विशिष्ट एषः ? कोशलापरिसरोपवनेषु-विनीतासमीपवनेषु, क्षिप्तचक्षुः-स्थापितदृष्टिः। कि विशिष्टेषु ? स्वर्वनात्-नन्दनवनाद्, अभ्यधिकविभ्रमभृत्सु-अतिशायिशोभाधारिषु । पुनः किं विशिष्ट एषः ? बलेन-कटकेन वा पौरुषेण युक्तः-सहितः । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग६) ४५६ ६८-७०. पंचव० । पद्मिनी० । यत्र पू०। अथ-अनन्तरं, राजमौलिः-नृपकोटीरो भरतः तद् वनं गन्तुमियेष-वांछतिस्म । तत् किं ? यत्र वनेऽवरोधवधूभिःअन्तःपुरस्त्रीभिः, संन्यवासि-संस्थितं । कस्मै ? विविधोत्सवरत्यनानामहोत्सवक्रीडनाय । किं विशिष्टं वनं ? सर्वतः-समंतात्, वसनवेश्मभिःपटकूटीभिः, राजिता-शोभिता, अंतरे-मध्ये, मनोरमा-मनोज्ञा, लक्ष्मी:-शोभा, यस्य, तत् राजितांतरमनोरमलक्ष्मि । किं विशिष्ट वसनवेश्मभिः ? उच्चैः -उन्नतैः, पुनः किं विशिष्ट: ? पंचवर्णमयकेतुपरीतैः उत्प्रेक्षते-पुष्पपल्लवचितैःकुसुमप्रवालभरितैः वृक्षरिव । पुनः किं विशिष्टः ? हेमकुंभैः कलितं अग्रशिर:शिखरं येषां तानि, तैः । उत्प्रेक्षते-देवधामभि:-प्रासादरिव । किं विशिष्टः ? उन्नतिमभिः । पुनः किं विशिष्टः ? पद्मिनीनां-प्रथमजातीयनायकानां कमलिनीनां च वदनैः-मुखैः, चारुगवाक्षा यत्र, तानि तैः। उत्प्रेक्षतेपल्वलस्ताटकैरिव । किं विशिष्ट: पल्वलैः ? विकस्वरपद्मः-विकचांभोजैः, वसनवेश्मपक्षे-विकस्वरश्रीकः, पुनः किं विशिष्टं वनं ? चित्ररथतः-धनदवनात्, चारु-मनोज्ञं,-इति विशेषकार्थः । ७१. भारता० । भारताधिपतिः-भरतः, इभात्-गजात्, अतितुंगात्-अत्युच्चाद्, अंबरवेश्मद्वारि-पटकुटिद्वारे, अवातरत्-उत्तरतिस्म। किं विशिष्टो भारताधिपतिः ? मालवक्षितिधवेन-मालवदेशाधीशेन, अर्पितः-दत्तः, हस्तः यस्य, असौ । कस्मात् क इव ? मेरुगिरीन्द्रात् स्वर्गनाथ-इन्द्र इव । ७२. स्वस्ववा० । तदनुः-तदनंतरं, राजभिः-नृपः, स्वस्ववाहनवरात्-निजनिजयान प्रवराद्, अवतेरे-उत्तीर्ण। किं विशिष्टः राजभिः ? नम्रशिरोभिः-नतोत्तमांगः, उपमीयते-गां गतः-भुवस्तलमाप्तः, सुरैः-देवैरिव, किं विशिष्टैः ? वरभूषयाप्रधानशोभया, भूषिता-शोभिता अंगरुचि:-देहकांतिः, तया राजितः वेषो येषां, ते तः। .. ७३. वेत्रपा० । क्षितिराजः-भरतः, संसदालयं-सभागृह, इतः-आगतवान् । कि विशिष्टः क्षितिराजः ? वेत्रपाणिभिः-दौवारिकैः, सुचरीकृतः-संचरणार्टीकृतः मार्गः यस्य, असो, कः किमिव ? पंचबाण:-कामः, यौवनमिवेति । किं विशिष्टं ? अन्तर-मध्ये, पुष्पसंचय:-कुसुमोच्चयः, धवलहासेन कान्तं-मनोज्ञं, यौवनपक्षे पुष्पसंचयशुचिस्मिताः कान्ताः-स्त्रियो यत्र, तत् ।। ७४. सौधाद० । असौ-भरतः, सौधात्-हात् अपि, पटवेश्मना-पटकुटया, प्रमुमुदे प्रमुदितवान् । कस्मात् ? रत्नौधेन चित्रितानि वितानानि-चन्द्रोदयाः, तेषां वितानं-समूहो वा विस्तारः, तदवत्वात्, यत्र-सौधे, प्रदीपकलिका पुनरुक्तभूत्यैउक्तस्य पुनर्भाषणाय, ज्वलंति-दीप्यते, कथं ? नक्त-निशीथे, किंमिव ? दिवेव वासरे इव । कस्मिन् सति ? धुमणौ-सूर्ये तपति सति दुर्दिनामुक्तिः। • Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४६० ७५. यस्यात्रा० । हि - निश्चितं, अत्रापि - जगत्यां यस्य - पुरुषस्य, प्राचीनपुण्योदयः-प्राक्तनधर्मोत्पत्तिर्जागर्ति, तदुदोहदेभ्यः - तेषां मनोरथेभ्योऽधिकं यथा स्यात् तथा सुषमा प्रथिमानं - प्रौढिमानं, एति - आगच्छति । किं विशिष्टः प्राचीनपुण्योदयः ? विश्वविस्मयकरः - जगदाश्चर्यविधायी, यतः - यस्माद्धेतोः, सर्वत्र - सकललोके, हंसा: मुक्ताफलानां पंकजिनीविसानां - कमलिनीतन्तूनां अशने - भोजने, परा:तत्पराः, भवंति । काका: कश्मलस्य - मलिनवस्तुनः, निंबभूरुहफलानां आस्वादेभोजने, एकः-अद्वितीयः, बद्धः - नियतः, आदरो यैः, ते, एतादृशाः काका : संति । इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशला ल्लब्धप्रसादस्य मे, ऽयोध्यातक्षशिलाधिराजचरितश्लोकप्रथा पंजिका । न पुण्यव्यवसायि पुण्य कुशलस्यास्यारविन्दोद्गता, या तस्यां प्रथमाभिषेणनमुखः सर्गश्च षष्ठोऽभवत् ।। श्रीभरत बाहुबलि महाकाव्ये पंजिकायां प्रथमसेनानिवेशवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः । सप्तमः सर्गः - १. चक्रभृ० । अथानन्तरं चक्रभृद्-भरतः, मृगदृशां मनोरथैः - स्त्रीणां कामैः, ईरितः - प्रेरितः सन् कानने - वने, विजहार - क्रीडतिस्म | हि - निश्चितं, केनचित् पुंसा वल्लभाभिलषितं - प्रियाकांक्षितं लुप्यते ? न केनापि इत्यर्थः । किं विशिष्टेन पुंसा ? प्रणयभंगभीरुणा - प्रीतिध्वंसकातरेण । २. पार्श्वपृ० । पुरंधिभिः - स्त्रीभिः, चक्रिणः - भरतस्य, पार्श्वपृष्ठपुरतः चरितुं - गन्तुं, अभ्ययुज्यत—उद्यमः क्रियतेस्म । काभिः कस्येव ? यथा हस्तिनीभिः, सामजन्मनःहस्तिनः, पार्श्वपृष्ठपुरतश्चरितुमभियुज्यते । कस्मिन् ? वने । किं विशिष्टे बने ? अनोक हैः- वृक्षैः, एकं गहनं संकीर्णं, अंतरं - मध्यं यस्य तत्, तस्मिन् । 1 ३. कामिनी० । वि- निश्चितं त्रिदशराट् - शक्रः तत्र पे - लज्जितः । किं कुर्वन् ? त्रिदिवकाननान्तरे-नंदनवनमध्ये संचरन् - भ्रमन्। किं कृत्वा ? कामिनीसहचरस्य चक्रिणः, विभ्रमं - शोभां विलोक्य - दृष्टवा । किं वि चक्रिणः ? वनयुषो - आरामसेविनः, किं विशिष्टः त्रिदशराट् ? सचीसखा इन्द्राणसहितः । ४-५. स्मेरपु० । केतकै० । तदा तस्मिन् व्यराजत - शुशुभे । किं कुर्वत् ? अस्य सितप्रभं - उज्ज्वलं छत्र, केतकेन कामिनी सहचरभरतविहारसमये, वनं भरतस्य मूर्ध्नि - मस्तके, निजं - आत्मीयं, रजसा - केतकसंबंधिरेणुना, आदधदिव Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञिका (सर्ग७) धरमाणमिव । किं विशिष्टेन रजसा ? व्योम्नि-नभसि, मारुतवित्तितेनवायुपरिचालितेन । पुनः किं कुर्वद् वनं ? अमुष्य-चक्रिणः, पार्श्वयोर्द्वयोः स्मेरपुष्पकरवीरवीरुधा-विकस्वरकुसुमहयमारलतया, चामरश्रियं संवितन्वदिवविदधान इव । किं विशिष्टया० ? मातरिश्वना-वायुना, परिघूतानि-कंपितानि पत्राणि यस्याः, सा, तया । इति युग्मार्थः । ६. वातवेल्लित । खलु-निश्चितं, वनं नरपतेः-भरतस्य, फलैः प्राभृतं संततान विधत्तेस्म । किं विशिष्टः फलैः ? वायुवेल्लिता:-वायुप्रकंपिता ये तरवः तेभ्यः प्रपतीत्येवंशीलानि, तैः क्वचित्-कुत्रापि स्थाने, ईदृशाः-भरतसदृशाः, चराचराणां-जंगमस्थावराणां, विलंध्यतायुषः-उल्लंघनीयताभाजः, न स्युः-न भवेयुः। ७. कामिनी०। प्रमदकाननानिलः-क्रीडाकाननवायुः, तं-भरतं, अमूमुदत् प्रमोदयांचकार । किं विशिष्टः प्रमदकाननानिलः ? कामिनीकुचघटीविघट्टनैःस्त्रीणां स्तनघटसंघट्टनैः, मंथर:-मंदगामी। पुन किं विशिष्ट: ? मिलितवक्त्रसौरभः-संसृष्टवदनपरिमलः । पुनः किं विशिष्ट: ? निषिक्ता या वसुधा-वसुंधरा, तस्याः अंगानि-अवयवाः, तेषु संगतो-मिलितः । अस्मदृ० । शाखिभिः-वृक्षः, छायया कृत्वा, इति करणा रविमहः-तरणेस्तेजः, निवारितं-न्यषेधि । किं कुर्वत् ? अस्य-भरतस्य, शिरसि-मस्तके, संजत्लगत् । इतीति किं ? एष भरतः रवौ-सूर्ये, मा कुप्यतु-मा रुष्यतु । किं विशिष्टे रवौ ? रसातिसर्जनात्-पानीयवर्षणात्, अम्माकं या वृद्धिः फलपुष्पादिरूपा तस्याः परिवर्द्धके वृद्धिकारिणे । - '६. षट्पदा० । तस्य-राज्ञः, लतालयः-वल्लीव्रजाः, मुदं-हर्ष, ददुस्तरां ददतेस्म। किं कृत्वा? सुमलोचनेषु-पुष्परूपनयनेषु, षट्पदांजनभरं-भ्रमररूपकज्जलातिशयं, संविधाय-निर्माय । किं कुर्वतस्तस्य ? वनान्तरे संविहरतः-क्रीडतः, का इव ? वल्लभा:-स्त्रिय इव । १०. मतभृ। स राजा भरतः, मन्मथं काननगतं-वनप्राप्तं, वीक्ष्य-दृष्ट्वा, संतुतोष-संतुष्टवान् । कि विशिष्टं मन्मथं ? निजानुहारिणं-आत्मसदृशं रूपेण इति शेषः । पुनः किं विशिष्टं ? जयावहं-जयप्रापकं किं कृत्वा ? पुष्पचापमधिरोप्य-कुसुमधनुरारोप्य । किं विशिष्टं पुष्पचापं ? मत्ता ये भृगाः भ्रमरास्तेषां रुतं-कूजितं, तदेव शिंजिनीरवः-ज्याशब्दः यत्र, असो, तं.। ११-१२. उन्मिषः । कुंदसुं० । स राजा भरतो वनावनी:-काननवसुधा, वणिनी:-प्रमदा Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् विलोक्य आतुषत्-तुष्टवान् । किं विशिष्टाः ? उन्मिषत्कुसुमकुड्मला:• विकस्वरपुष्पस्तबका एव स्तना यासां, ताः, ताः। पुनः किं विशिष्टाः ? चपकप्रसववत्-गंधफलीपुष्पवत्, गौररोचिषः-वीतकांतीः । पुनः किं विशिष्टा: ? कोकिलास्वरं बिभ्रतीति धारयंतीति तास्ताः। पुनः किं विशिष्टाः ? सितच्छदानांहंसानां, ध्वाननूपुरैः मनोरमा:-मनोज्ञाः, क्रमा:-चरणा: यासां तास्ताः । वनावनीपक्षे-क्रमोनुक्रमः । पुनः किं विशिष्टा: ? कुंदवत् सुन्दरा दन्ता यासां तास्ताः । पुनः किं विशिष्टा: ? परिस्फुरंति-दीप्यमानानि, चंचरीकरूपनयनानि यासां, तास्ताः । पुनः किं विशिष्टाः ? सुमानि-पुष्पाणि, तद्वत् स्मितं-ससितं यासां, तास्ताः । पुनः किं विशिष्टा: ? पल्लवाधरवती:-द्रुमप्रवालरक्ताधरौष्ठाढ्या, इति युग्मार्थः। १३. सर्वतो० । इह-अस्मिन् वने, अस्य-भरतस्य, कौमुदं रज:-कुवलयोत्थः परामः,. कौमुदीभ्रमं-चंद्रातपभ्रान्ति, अतीतनत्तरां-अतिशयेन विस्तारयामास । किं . विशिष्टे वने ? सर्वतः-समंतात्, फलिनीलतया-प्रियंगुवल्या, असिते-श्यामे । किं विशिष्टं रजः ? व्योम्नि-नभसि, कीर्ण-व्याप्तं । पुनः किं विशिष्टं ? पक्षिपक्षपवनेन-प्रोडीयमानविहंगपक्षवायुना, प्रपंचितं-विस्तरितं । १४. केकया। तदा-तस्मिन् समये वनं अब्दसुहृदां-मयूराणां, केकया-वाण्या, कामिनो:-स्त्रीपुंसोः, इति वददिव-कथयदिवासीत् । इतीति कि ? भो कामिनी! इह-अस्मिन् वने, वां-युवां, खेलतं-क्रीडतं । श्रियो-लक्ष्म्या: फलं कलयतप्राप्नुतं । हि-यतः, अमूदृशः-एतादृशः अवसरः-समयः, दुरासद:-दुःप्रापः । कलन्संख्यानगत्योश्चुरादिरदंतत्वात् वृद्ध्यभावः । . १५. संश्रितः० । अंजसा-अत्यन्तं, ललनाभिः-स्त्रीभिः स भरतः, संश्रितः-आलिंगितः। किं विशिष्टाभिः ललनाभिः ? उल्लसंती-समुदयंती, दोः उरोजानां-भूजपयोधराणां, कमला-लक्ष्मीः, यासां, ताः, ताभिः, उत्प्रेक्षते-महीरुहां-वृक्षाणां स्पर्द्धयेव । किं कुर्वतां ? वल्लरी:-लताः, दधतां-धारयतां, किं विशिष्टा वल्लरी: ? फलमृणालैः शोभंते-राजंति, इत्येवंशीलाः फलमृणालशोभिन्यः, ताः । १६. अन्वभू० । इति कारणात्, अग्रतः पुरस्तात्, तरुराजि:-द्रुमश्रोणिः, नृत्यतीव नाट्यं करोतीव । कस्मात्? वातधूतनवपल्लवच्छलात्-वातांदोलितनूतनकिसलयव्याजात्, इतीति किं ? अहमद्य भारतेश्वरसमागमात्, शुद्धतां-निर्मलत्वं, अन्वभूव-प्राप्नुवं । १७. उद्धतं० । मातरिश्वना-वायुना, प्रोन्मिषत्स्थलसरोजिनीरजः-विकसत्स्थल-. कमलिनीरजः, नभसि-आकाशे, उद्धतं-उड्डापितं । उत्प्रेक्षते-प्रियागमात् काननश्रिया आत्मशिरसि-निजे मूनि, उत्तरीयमिव न्यस्तं-आरोपितं । कस्मात् ? प्रियागमात्-भरतागमनतः । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग) ४६३ १८. पल्लवैः । तेन भरतेन, कापि-कामिनी, हृदंतरे-वक्षोमध्ये, निहता-ताडिता, तत: हृष्यतिस्म-हृष्टा । हि-यतः, प्रियाजनः प्रीतिकातरधिया-स्नेहभीरुबुद्ध्या। दयितेन-वल्लभेन, तुष्यति-तुष्टिमाप्नोति । १९. मामपा० । काचित् कामिनी इति कारणात् रुषा-क्रोधेन, चूर्णमुष्टिमक्षिपत् चिक्षेप। कथं ? तन्मुखं-तस्य भरतस्य मुखमनुलक्षीकृत्य । किं विशिष्टां चूर्णमुष्टि ? नयनतांतिक.रिणी-लोचनक्लान्तिविधायिनी, इतीति किं ? अनेन विलासिना, पूर्वतः-प्रथमतः, किमियं-कथमेषा दयिता ताडिता किंकेल्लिपल्लवैः ? किं कृत्वा ? मामपास्य-त्यक्त्वा, अपि-पुनरर्थे, अमुना-विलासिना ऽहं हता-मारिता। इति त्रिभंगोन्वयः । २०. युक्तमे० । स राजा कांतया-वल्लभया, इति-पूर्वोक्तप्रकारेण, निहतोपि ताडितोपि, अतुषत्-तुष्टिमापत् । इतीति किं ? अनया विलासिन्या एवं युक्त कृतं, दृशोरेव विदधे-कृतः, कथं ? यथोचितं-यथायोग्यं यथा स्यात्तथा । हि यतः, इह-अस्मिन्, प्रेम्णि-स्नेहे, का विपरीतता-को विपर्ययः । २१. काचिदु० । हि-निश्चितं, अमुना-विलासिना, काचिद् अशारदा-अलज्जावती, चित्तकाम-मनीषिताभिलाषं, नायिता-प्रापिता। किं विशिष्टा काचित् ? द्रुम-वृक्षं, प्रत्युन्नतमुखी-ऊर्वीकृतवदना। किं विशिष्टं द्रुमं ? हस्ताभ्यां दुर्लभतमानि प्रसूनानि यत्र, तंदेतादृशं कं-शीर्षं यस्य, असौ, तं । वा स्वार्थे कः । किं कृत्वा ? स्वीयमंसं अधिरोप्य-निजं स्कंधमारोप्य । काचना० । चंचरीकतरुणेन-भ्रमरयूना, काचनापि कामिनीयं, अधरौष्ठपल्लवे चंबिता-दष्टा। किं कुर्वती ? दयितस्य-भतु: कंठदाम गुंफितुं-ग्रथितं, कुसुमानि-पुष्पाणि, चिन्वती-कुसुमावचयं कुर्वाणा इत्यर्थः, तत्क्षणात्तत्कालतः । चुबितं । कापि दयिता, मधुकरेण-भ्रमरेण, तन्मुखं-तस्या वदनं चंबितं, वीक्ष्य-दृष्ट्वा , रुषं दधौ-धृतवती। किं कुर्वती ? भ्र विभंगेन कुटिलं-वक्र ईदशेन चक्षुषा, प्रियं-प्रणयिनं, तर्जयंती-ताडयन्ति । किं विशिष्टं प्रियं ? निरागसं-अपराधरहितमपि। २४. खंजना० । नायको नायकां प्रत्याह-हे खंजनाक्षि ! मया तव मंतु:-अपराधः, नादधे-न कृतः । किं विशिष्टेन मया ? प्रणयभङ्गभीरुणा-प्रेमभंगकातरेण, तेन-विलासिना, कापि मानिनी, मुहुरन्वनीयत-क्रोधोपशमनं चक्रे । इतीति किं ? हे प्रिये ? तव सखी साक्षिणी वर्त्तते । इति त्रिभंगोन्वयः । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २५. कोपने० । सखी नायिकां प्रत्याह-हे कोपने ?-कोपवति !, अधुना-इदानीं, — दयितेन-भा, त्वं युक्तमेव, निगद्यसे-कथ्यसे। तत्-तस्माद्धेतोः, त्वं प्रणयिनं दुर्लभं दुर्मदान् न मन्यसे, भृशं-अत्यर्थं, आत्मनः कृते-आत्मोत्सेकाय वा स्वकृते, त्वं गर्वितासि-दृप्ता भवसि । इति त्रिभंगोन्वयः । २६. ईदृशः० । आलि:-सखी, तां-मानवतीं, इति-उच्यमानं, प्रणयकर्कशं प्रेमकठिनं, वच:-वचनं, अन्वशात्-कथयतिस्म, इतीति किं ? हे मानिनि !, त्वया-भवत्या, ईदृशः-एवंविधः, प्रियतमः-भर्ता, न हि प्राप्य एव । अनेनविलासिना, त्वादृक्-भवत्सदृशी, दयिता-वल्लभा, किं दुर्लभैव ? इति त्रिभंगोन्वयः । २७. आगते०। कापि सुभगत्वविता-सौभाग्यमदोन्मत्ता, 'आलिं-सखी आह ।. कस्मिन् सति ? विलासिनि-प्रेयसि, शृण्वति-आकर्णयति सति । हे सखि ! प्रेयसा-प्रणयिना, आगतेन-आयातेन किं, नागतेन किं ? अत्र नाकादित्वं । वा सखिना-मित्रेण, गतेन किं ? यात्वित्यर्थः किं विशिष्टेन प्रेयसा ? इतरस्मिन्-अन्यस्मिन्, वल्लभाजने वा• वस्तुनि, निबद्धं-नियतं, चेतः- . मानसं, येन, असौ, तेन । २८. मुच मा० । प्रियसखी तो नायिकां इत्युवाच। इतीति किं ? हे मानिनि !, .. त्वमधुना-अस्मिन् समये, रुषं मुंच-त्यज । यत्-यस्मात् कारणात्, तवैव विरहः-विप्रयोगः, भविष्यति । पुनः स्मर:-कामः,, व्याज-छलं, आप्य-लब्ध्वा, त्वां निहनिष्यति-मारयिष्यति । इति चतुर्भगोन्वयः। , २६. जीविते । स युवा सरभसं यथा स्यात् तथा मानिनी सस्वजे-आलिंगितवान् । किं विशिष्ट: सः ? प्रीतिकातरमना:-स्नेहभीतचित्तः, किं कृत्वा ? इति तत् मानवत्याः प्रणीतं निशम्य-श्रु त्वा। इतीति किं ? हे सखि !, प्रेयस:वल्लभस्य, सुखदुःखयोः निवेदनं-ज्ञानं, जीविते सति-प्राणेसु सत्सु भवति । ३०. क्लुप्तपु०। कापि कामिनी कान्तं-भर्तारं इति जगौ-कथयतिस्म। किं विशिष्टं कान्तं ? सागसं-सापराधं । किं क्रियमाणं? गले-कण्ठे, तत्क्षणोच्चितसुमस्रजा-तत्कालग्रथितकुसुममालया, बध्यमानं-नियम्यमानं । किं कृत्वा ? लतालयं-लतामंडपं, उपनीय-आनीय । किं विशिष्टं लतालयं ? क्लृप्तपुष्पशयनं-रचितकुसुमशय्यं । ३१. संयतो० । नायिका नायकं प्रत्याह । हे प्रिय ! निबिडं-दृढ, यथा स्यात् तथा त्वं मया अधुना संयतोऽसि-बद्धोसि । पुष्पमालया इति शेषः । भवान् इत; Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग ७) ४६५ लतालयात्, गंतुं—यातुं, अक्षमपदः - असहिष्णुचरणः स्यात् । कः अर्थः ? मया , बद्धस्त्वं पदमात्रमपि गन्तुमक्षमः । तु-पुनः, तत्र- प्रियजने तव मानसं - भवदीयमनः, संगतं - आसक्त । त्वं स्वागसः - निजापराधस्य फलं ध्रुवं - निश्चितं, अवाप्नुहि - लभस्व । इति चतुभंगोन्वयः " ३२. पुष्परे० । दक्षिणः - कलत्रद्वयावर्जको नेता, स्वापराधविफलत्वं - निजापराधवैफल्यं, आचरत्-कृतवान् । किं कृत्वा ? कांचित् मानिनीं एवं अनुनीय - अनुकूलीकृत्य । एवं इति किं ? हे प्रिये ! वां युवयोः मया व्यक्तिरेव - पृथगात्मतैव न विदिता- न ज्ञाता, किं विशिष्टयोः वां ? पुष्परेणुपरिपिंज-रास्ययोः । ३३. प्रेयसि । तत्सखी इति उवाच - वदतिस्म । किं कृत्वा ? योषितः - कांतायाः, प्रेयसि - भर्त्तरि प्रणयविह्वलं - प्रेमविकलं मनः - चित्तं समनुनीय - ज्ञात्वा । हे गजेन्द्रगामिनि !, बहुवल्लभे प्रिये - बहुस्त्रीके नायके, तव का रतिः - को रागः । ३४. ईरिते० । सा कामिनी, सहसं सहासं यथा स्यात् तथा, जगाद - अब्रवीत् । किं विशिष्टा सा ? इतीरिता एवं भणिता । इतीति किं ? हे सखि ? त्वयाभवत्या, उचितं - योग्यं वचः, -वचनं, नोदीरितं न कथितं । हे सखि ! त्वं न किं वेत्सि न जानासि । हि यतः सकलप्रिया सुधा - विश्ववल्लभं अमृतं, भाग्यतः- दैवात्, करगता स्वाद्यते - भुज्यते । इति चतुर्भगोन्वयः । ३५. ज्ञातने० । हे सखि ! अभिमानविधायिता न ज्ञात नै कललनारसः सन् - अवगत बहुस्त्रीस्वादः, कोपमानकलनां-क्रोधाहंकारपरिज्ञानं अवैति - कलयति । हि यतः सलिलस्य मंथने को रसः स्यादिति त्रिभंगोन्वयः । भर्त्तरि अवेत्तरि - अविज्ञातरि भवति । यत् - यस्माद्धेतोः, मानकारिता प्रियः - वल्लभः, ३६. कांचन० । स राजा दयितामुखांबुजं - वल्लभामुखकमलं, चुम्बतिस्म । कि कृत्वा ? कांचन कामिनीं प्रवञ्चय- विप्रतार्य, किं विशिष्टां कांचन कामिनीं ? प्रसवरेणुमुष्टिना - पुष्पपरागमुष्टिना, घूर्णिताक्षकमलां-संभ्रान्तनयनकमलां, हि-यत:, कोविदः - पंडित:, मनीषितं - चित्ताभीप्सितं कुरुते । ३७. एहि एहि० । कापि कामिनी एवमक्षरमयीं - इतिवर्णरूपां सुमस्रजं - पुष्पमालां, वल्लभगले - प्रियकंठे, निचिक्षिपे - समारोपितवती । एवमिति किं ? हे वर ! - नाथ !, त्वं एहि एहि - आगच्छ, आगच्छ त्वं मोहनं - रतं, देहि, त्वं इतरासु - कांतासु, हृदयं–मनः, न विधेहि मा कुरु इति चतुभंगोन्वयः । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३८. कापि कु० । कापि विलासिनी, कुड्मलहता-मुकुलताडिता, सति वल्लभोपरि-. भर्तुरुपरिष्टात्, संभ्रमातू-वेगात्, पपात-पततिस्म । तत्सखीजन:-तस्याः वयस्याभिः, एतदीयं-अस्याः संबंधिनिस्त्रपत्वं-निर्लज्जत्वं, न हि उररीकृतंन स्वीचक्र । इयं मारिता वराकी पतत्येव । ३६. कापि शा० । कापि कामिनी स्वेदबिन्दुसुभगं मुखं दधौ। का कमिव ? पद्मिनी-कमलिनी मकरंदशीकरमिव । किं विशिष्टा ? वासरेश्वरकरोपतापिता-सूर्यकिरणसंतापिता, पुनः किं विशिष्टा ? शाखिशिखरं-कुसुमिततरु शृंगं, समाश्रिता-अधिरूढवती। ४०. पल्लवो० । क्षितिरुहोपि-वृक्षोपि, जारवत्-उपपतिरिक, अकंपत-कंपमासदत् कस्मात् ? अधः-द्रुतले, एतदीयपतिलोकनाद्-एतस्याः संबंधिभर्तुर्दर्शनात्, किं विशिष्ट: क्षितिरुहः ? पल्लवोल्वणकर:-प्रवालरूपप्रकटपाणिः । पुनः किं विशिष्ट: ? प्रसूनदृक्-पुष्पलोचनः । हि-यतः, कामिनी सेविता न सुखाय स्यात् । ४१. पुष्पशा० । काचित् बाला इति पूच्चकार । किं कुर्वती ? मन्मथाढ्यदयितांग संगम-कामव्याप्तभर्तुर्वपुःसंयोग, इच्छंती-वांछंती, च-पुनः, किं कुर्वती ? पुष्पशाखिशिखरावरूढये-कुसुमिततरुशृंगावरोहाय, शक्नुवत्यपि समर्थी भवंत्यपि। इतीति किं ? हे नाथ ! अहमगात्-वृक्षात्, पतितास्मि । धारिता० । सा बाला, दृढं-गाढं यथा स्यात्तथा, प्रियभुजेन धारिता, व्यराजत-शोभतेस्म । का इव ? स्कन्धलग्नलतिकेव-स्कंधासक्तवल्लीव। किं विशिष्टा सा ? नीव्या-स्त्रीकटीवस्त्रबंधनोपकरणे, बद्ध:-कीलितः सिचयावशेषा-वसनप्रान्तो यस्या: सा। पुनः किं विशिष्टा ? ह्रीनिमीलिनयनालज्जासंकुचल्लोचना । कस्मात् ? तत्क्षणात् । ४३. एतदी० । स-विलासी, रतीशितु:-कामस्य, अनुत्तरां-प्रधानां, तुलां-सदृशतां, अवहत्-प्राप्नोतिस्म । केन ? अंसेन-स्कंधेन, किं विशिष्टेन अंसेन ? एतदीयकबर्या:-एतस्याः केशभारेण विराजते इत्येवंशीलः, तेन । किं विशिष्टस्य रतीशितुः ? भर्गेण-ईश्वरेण, भग्नं धनुष्-चाप: यस्य, असौ, तस्य । पुनः कि विशिष्टस्य ? स्कन्धदेशे तरवारि वहति इत्येवंशीलः, असौ, तस्य। . ४४. उच्चिता० । सुदृशां तनु:-स्त्रीणां वपुः, उच्चिताभिनवचंपकस्रजा-उत्खात नवीनगंधफलीपुष्पमालया कृत्वा व्यरोचत-दिदीपे। किं विशिष्टा तनु: ? Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग७) ४६७ पुष्परेणुपरिपाण्डुरा-कुसुमपरागविशदा । कया इव ? विद्युता-तडिता, शारदोदकमुचां-शारदाभ्राणामवलि:-श्रोणिरिव।। ४५. स्वेदलु० । स-भरतः, प्रियानने-वल्लभामुखे, वदनानिलं व्यधत्त-निमिमीतेस्म । किं विशिष्टे प्रियानने ? स्वेदेन लुप्तं-परिमृष्ट, तिलकं यत्र, तत्, तस्मिन् । पुनः किं विशिष्टे प्रियानने ? पुष्पधूल्या-परागेण, परिधूसरा-ईषत्पांडुः, त्विड्-कांतिः, यत्र । उत्प्रेक्षते-मनीषितां धृति-हदयेप्सिततुष्टि, जीवयन्निवप्राणयन्निव । ४६. इत्यमू० । तत्सखी अमू-नायिकां कथयतिस्म। इतीति किं ? हे मानिनि ! तत् त्वदीयसुभगत्वं-भवदीयमेव सौभाग्यं अस्ति । तत् किं यत् रंभयापि कमनीयं-अभिलषणीयं । अनया-भवत्या, ईदृशो वल्लभः किं वशीकृत:-कथं वशीचक्र । इति चतुर्भगोन्वयः । ४७. गोत्रवि० । कापि' कान्ता तं-विलासिनं, गोत्रविस्खलितं एवमभ्यधात् कथयतिस्म । एवमिति किं ? हे प्रिय ! एकपक्षतः प्रणयः-प्रीतिः, तयाकुलंमदन्यया व्याप्तं, हृदयं-मनः, न प्रयाति-न गच्छंति । यन्मानसे-चेतसि भवेत्, तन्मुखेऽतीव स्यात् । ४८. इत्युदी० । सा इत्युदीर्य-कथयित्वा, तदंतिकात्-तस्य पार्वात्, सहसा शीघ्रमेव, निर्जगाम-निर्गता । किं विशिष्टा सा ? पतदश्रु लोचना । पुनः किं • विशिष्टा सा ? धरान्तरं वसुधामध्यं, संप्रवेष्टुं न्यग्मुखी । पुनः किं विशिष्टा? क्वचित्-प्रदेशे, लतांतरं इता-प्राप्ता । ४६. वच्मि । हे देवि ! अहं वच्मि-कथयामि, भवती किं चकार । हि-निश्चितं, प्रियतमे-भर्तरि, रागिणि-रागवति सति क्रधा-कोपेन किं । हे सखि ! त्वं तस्य चेतसः अधिदेवताऽसि । कस्य केव ? जलरुहः-कमलस्य श्री:-लक्ष्मीरिव, अन्यया-अपरया किं ? . ५०. त्ववि० । हे देवि ! त्वद्वियोगविधुर:-भवद्वियोगकातरः सन् स युवा परिजनस्य-परिवारस्य, जीविते-प्राणेषु, संशयं-संदेह, कल्पते-रचयति । तत्तस्माद्धेतोः, तव-भवत्याः, रंगभंग: उचितत्वं-योग्यतां, नांचति-नागच्छति । कस्मिन् सति ? महविधौ-उत्सवविधाने प्रस्तुते-प्रारब्धे सति । ५१. तन्नियो। अथ-अनंतरं सा-इतिवादिनी-एवमभिधात्री, दूति जगौ अवादीत् । इतीति किं ? तस्य-विलासिन, नियोगवशतः-आवशतः, अहं Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबंलिमहाकाव्यम् त्वदंतिक-भवत्याः पावं, संगतास्मि-संप्राप्तास्मि । तत्-तस्माद्धेतोः, मम त्वं गिरं प्रत्युत्तरलक्षणं देहि । किं विशिष्टा सा ? कोपभंग्या-रोषरचनया, परित्तिते ईक्षणे-लोचने, यया, सा। ५२. दूति ! स० । हे दूति ! त्वया वचः सत्यं यथातथं, उदितं-कथितं, अहं अस्य विलासिनः, हृत्-हृदयं, प्रवेष्टु-प्रवेशं कर्तु, न विभुः-न समर्था । यतोऽस्य प्रीतिः-प्रणयः, शतधा-शतप्रकारेण, विभज्यते-वंटीक्रियते । किं विशिष्टं हृत् ? वणिनीशतसमाकुलं-स्त्रीशतसमाकुलं इति त्रिभंगोन्वयः । ५३. का सुधा० । हि-निश्चयेन, मृगदृशां-स्त्रीणां, का सुधा-किममृतं ? प्रीति तत्परमना- स्नेहासक्तचित्तः, वल्लभः-प्रियः, यदि भवेत्, इति कृत्वा सूरयः-' विबुधाः योषितां जीवितं-स्त्रीणामायुः, प्राणनाथकरगामि-भर्तृहस्तगं, वदंति ब्रुवन्ति । इति त्रिभंगोन्वयः । ५४. पूर्वमे० । हे सखि ! विलासिना पूर्वमेव-प्रागेव, मे-मम हृदयं-मनो गृहीतं. जगृहे। अथाह किं करोमि । च-पुनः, मया तन्मनो-नेतुश्चित्तं, नाददे-न गृहीतं । पुनः स युवा विज्ञ एवास्ति । अहं नेदृशी-नवंविधास्मि । इति पंचभंगोन्वयः । ५५. योषिता । हे सखि ! हि-निश्चितं, नायक:-नेता, योषितां मानसात् स्त्रीणां चित्तात्, नावतरेत्-नोत्तरति, किं विशिष्टो नायकः ? प्रीतिपूर्णहृदयःप्रणयांचितमनाः। कस्मात् क इव ? पद्मिनीवनात् , राजहंस इव। किं विशिष्ट: ? शुद्धपक्षयुगलप्रतीतिभाक्-निर्मलपिच्छद्वितयप्रत्ययं भजतीति । नायकपक्षे-पक्षयुगल-मातापित्रोः । सस्यर० । अमी विषया:-पदार्थाः, पुराणतां-जीर्णतां, संश्रयंति । किं विशिष्टा विषयाः ? सस्यरत्नवसनादयः-धान्यमणिवस्त्रप्रमुखाः, कुत्रचित्-कुत्रापि स्थाने, युवद्वयीप्रीतिरीतिनिचयः-युवयुवतियुगलप्रणयस्वभावसमुदयः पुराणतां नाश्रयति । किं विशिष्ट: ? एक एव-अद्वितीयः । पुनः किं विशिष्ट: ? निबिड:-दृढः । ५७. विस्मर० । दयिता:-स्त्रियः, वल्लभं न विस्मरंति, यद्-यस्माद्धेतोः, जीवितात् प्रियः अधिक एव स्यात् । अत्र एवास्मिन् समये, मृगीदृशः-स्त्रियः, जीवितं तृणवत् मन्वते-गणयंति । किं विशिष्टा: मृगीदृशः ? तद्वियोगविधुरा:प्रणयिविरहकातराः । ५८. प्राणना० । हे सखि !, स्त्रियः-नार्यः, प्राणनाथविरहासहा:-भर्तुवियोगाऽक्षमाः, जातवेदसं-वह्निमुपासतेतरां-सुतरां सेवन्ते । अग्नौ प्रविशंति इत्यर्थः । ताभि: Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૨ नारीभिः पत्युः अनुनयः - रोषोपशान्तिः, विधीयते - क्रियते । हि-निश्चितं, साहसस्य का गतिर्भविता - भविष्यति । इति त्रिभंगोन्वयः । पञ्जिका (सर्ग ७) ५६. पादयोः ० । हे सखि ! स - विलासी, मे - मम, पादयोः, निपतिता - निपतिष्यति, अहमपि नानुनयं समाश्रये - न रोषोपशान्ति कुर्वे । अनन्यजः - कामोपि, अधिज्यधनुः - अधिज्यचापः, एतु - आगच्छतु । हि यतो, योषितां - रमणीनां, . धीरता - प्रागल्भ्यं, सहचरी स्यात् । इति चतुभंगोन्वयः । ६०. इत्युदी० । दूतिस्तां नायिकामित्युदीरितवतीं - इत्थं कथितवतीमुवाच । किं विशिष्टां तां ? अस्खलितवाक्परंपरां - स्पष्टवचनरचनां । हे सखि ? त्वया जीवितेन प्राणैः सह विग्रहः - कलहः, आरभ्यते - क्रियते, यद् - यस्माद्धेतोः, प्रियः - भर्त्ता, अवगण्यते-अवज्ञायते । इति त्रिभंगोन्वयः । ६१. कि न वेत्सि० । हे मानिनि ! त्वं किं न वेत्सि - न जानासि ? विधु: - चन्द्रः, अभ्युदेष्यति - उदयं प्राप्स्यति । किं विशिष्टो विधु: ? प्रीतिवल्ल्याः परिवृद्धि: - परिवर्धनं, तस्या मंडपः । पुनः किं विशिष्टः ? मानिनीनां हृदयं मनः, तत्र यो मानसंग्रहग्रन्थिस्तस्य मोक्षणे परिस्फुरंतः - प्रकटीभवंतः, करा:-किरणाः, यस्य, असौ । ६२. प्रेतभूः । हे मानिनि ! त्वं हृदिश्वरे अवशे सति इति वैपरीत्यं - विपर्यय, अवेहि - जानीहि । इतीति किं ? प्रमदकाननं - आरामः, ते-तव, प्रेतभूःश्मशानं, रतिपतेः– कामस्य, कौसुमाः शराः - पौष्पाः बाणाः, अयोमयाःलोहरूपाः, भवति, चन्द्रमास्तरणिः सूर्यः, तापकारित्वात् । ६३. मौनमे० । अथ - अनंतरं, प्रणयिना - भर्त्रा, मानिनी - प्रिया, शिश्लिषे परिरेभे । किं कृत्वा ? तावत् सहसा - तत्कालं, लतांतरादेत्य - आगत्य । किं कृतवती ? अनया - दूत्या, एवं उदीरितात् - भणितात्, मौनं यावदाश्रितवती । किं विशिष्टा अधोमुखी - न्यग्वदना । ६४. सर्वदे० । नायिको नायिकां प्रत्याह । हे भामिनि ! त्वं सर्वदैव सदैव, चतुरानिपुणासि, कस्मिन्ं ? प्रीणने - संतोषणे । ईदृशो वनविहारः - एतादृशी वनक्रीडा, अतिदुर्लभः - अतिदुरापः । क इव ? लय इव यथा गीतिनृत्यवाद्यत्रयी विलासोऽतिदुर्लभः । किं विशिष्टो वनविहारः ? द्रवेण-परिहासेन सह वर्त्तमान इति सद्रवः, लयपक्षे - प्रशस्तरवः । हे प्रिये ! त्वं कोपमानसमय - क्रोधाहंकारावसरं किं न वेत्सि । इति चतुर्भंगोन्वयः । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६५. आददे० । हे प्रिये ! त्वया मे-मम, हृदयं-अन्तःकरणं, एवाददे-जगृहे, तत् हृदयं इतरा-अन्या, वसितुं-आच्छादयितुं, अत्र युवतिविषये न क्षमा-न समर्था स्यात् । वसितुमित्यत्र 'वसिक् आच्छादने' धातु न तु वसन्निवासे । विलासिना अंह अंह इति वादिनी-ब्रुवाणा, सरभसं यथा स्यात् तथा वधूश्चुंबिता-चुचुंबे । इति त्रिभंगोन्वयः । ६६. चन्द्रमा० । महीपतिः-भरतः, चन्द्रमा इव व्यभाद्-दिदीपे। अंगना:-स्त्रियः, चन्द्रिका इव व्यभुः। किं विशिष्टाः ? तं राजानं अनुगच्छंतीति तदनुगाः। तदा-तस्मिन् वनविहारसमये, चित्तभूप्रमदपाथसां पतिः-मानसोत्पन्नहर्षाब्धिः, परस्परं-अन्योन्यं, उल्ललास-उत्कल्लोली बभूवेति त्रिभंगोन्वयः । ६७. पंचव० । स युवा पंचवर्णमयपुष्पभंगियुक्तालवृन्तवरवीजनेन-पंचवर्णाढ्यकुसुम रचनायुतव्यजनविघूननेन चामरादप्यधिकं सुखमन्वभूत-बुभुजे । किं विशिष्टेन? प्रणयिनीनां करैः-हस्तैः, ईर्यते-प्रणुद्यते, तत्, तेन। ६८. सर्वजा० । काचिद् वधूरस्य भरतस्य शिरसि-मौलौ, छत्रं व्यधात् । कि विशिष्टं छत्रं ? सर्वजातिकुसुमश्रियांचितं--व्याप्तं, किं कुर्वती ? राजचिन्हैललित-मनोज्ञं, यदातपत्रं ततोधिकं मुदां भरं-प्रमोदातिशयं, प्रणुदतीप्रेरयंती। ६६. प्रस्थितो० । अथ-अनंतरं, नृपः-भरतः, जलकेलये-जलावगाहाय, केलिपल्वलं क्रीडासरं, प्रस्थितः-प्रयातवान्, ततः-तदनंतरं, . सावरोधवनिताजन:सशुद्धांतस्त्रीलोकः, पयःक्रीडार्थं क्रीडासरः प्रययौ। किं विशिष्टं केलिपल्वलं ? फुल्लपंकजदलाननश्रियं-विकस्वरांभोजपत्रवदनच्छायं, क इव ? राजहंस इव । ७०. पद्मिनी० । किं कुर्वाणं केलिपल्वलं ? भूमिवल्लभं-राजानं, स्पर्द्धमानमिव सदशीभवंतमिव । किं विशिष्टं केलि. ? पद्मिनीनिचयेन-कमलिनीसमूहेन, संचितः-पुष्टीभूतः, उत्सवो यत्र, असौ, तं। राजपक्षे-पद्मिनी प्रथमजातीयनायिका । पुनः किं विशिष्टं केलिपल्वलं ? राजहंसः-सितच्छदैः, विनिषेवितंपर्यपासितं, अंतिक-पावं, यस्य, असौ, तं। भूमिवल्लभपक्षे-राजहंसाःभूपश्रेष्ठाः । पुन: किं विशिष्टं० ? यद् वेगाद् ऊर्मय:-कल्लोला: त एव पाणयः-हस्ताः, तैमिलनोत्सुकं । ७१. आगतो० । आगतोद्गतसरोजिनिचयैः-आयातोत्पन्नपद्मिनीसमूहैः, सर: तटाकः, बभौ-रराज। किं विशिष्टैः ? मेखलारणितमेव-कांचीशब्दितमेव, भृगकूजितं-भ्रमररुतं, येषु, ते तैः, पुनः किं विशिष्ट: ? चक्रा:-चवकाः, Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग७) ४७१ हंसा:-मरालाः, त एव कलनूपुराणि तेषामारवः-शब्दो येषु, ते, तैः । पुनः कि विशिष्ट: ? सरसांतरगतैः-संतो विद्यमाना वा. प्रशस्ता अन्ये रसा शृंगारादय इति सद्सांतरगतैः-प्राप्तैः । कमलिनीपक्षे-नीरमध्यमितैः। ७२. पुण्डरी० । स राजा केलिपल्वलं-क्रीडासरो, व्यलोकत-ददर्श । किं कुर्वाणमिव ? पंडरीकाणि-सितांभोजानि एव नयनानि-लोचनानि तैः लोकमानं-समीक्षमानमिव पुनः किं कुर्वतं ? चक्रसारसविहंगमस्वनैः-चक्रवाकसारसपक्षिनिनादः, आह्वयन्तं-आकारयंतमिव । किं विशिष्ट: पुंडरीकनयनः ? विकासिभि:विकस्वरैः । ७२. योषितां०। योषितां प्रतिकृतिः-स्त्रीणां प्रतिबिम्ब, जलाशये-जलस्थाने, पश्यतां-द्रष्ट्रीणामिति, वितर्क-विचारं, आदधे-चकार । इतीति किं ? सिंधुसोदरे-समुद्रबांधवे तटाके, किमिति वितर्के, श्रिया-लक्ष्म्या, स्वं स्वरूपं बहुधा व्यर्भज्यतेव-विभागीकृतमिव इह-अस्मिन्, अयं हि तटाको लक्ष्म्या पितृव्य सिन्धोः सोदरत्वात् । . ७४. एतद० । तदा-तस्मिन् सावरोधभरतागमसमये, सितच्छदै:-राजहंसः, इति हेतोः नलिनीगण:-कमलिनीसमूहः, हीयतेस्म-तत्यजे। इतीति किं ? इमा नलिन्य एतासां पद्मिनीनां अग्रतः पुरस्तात्, किं स्युः । किं विशिष्टा नलिन्यः ? जडात्मजा-मूर्खदुहितरः ।, पुनः किं विशिष्टा: ? ह्रिया-लज्जया, पंकिला:कर्दमवत्यः वा पापवत्यः, किं विशिष्ट: सितच्छदैः ? शुद्धपक्षयुगल:-पवित्रद्विपक्षैः, मनुष्यागमे हि पक्षिभिः उड्डीयते। . • ७५. सावरो० । सरोवर:-तटाकः, सावरोधनृपतेः समागमात्-सांत:पुरभरतसंगमात्, समतुषत्,-संतुष्टिमभजत् । उत्प्रेक्षते-तरंगपाणिभिः-कल्लोलहस्तैः, उच्छलनिव-उल्ललन्निव, विकासिपद्मिनीकाननैः-विकस्वरनलिनीवनैः, संहसन्निवकृतहास इव । ७६. क्रीडात० । अवनीपतिः-भरतः, वधूभिः सार्द्ध क्रीडातटाकमाजगाहे विलोडयामास । काभिः क इव ? द्विपीभिः-हस्तिनीभिः, इभराजःगजेन्द्र इव । किं विशिष्टोऽवनीपतिः ? हस्तेन-पाणिना, उद्धृतः-उत्पाटितः, अंबुरुहिणीनिचयः-पद्मिनीसमूहः, येन, असौ। हस्तिपक्षे-हस्तः-शुंडा। कि विशिष्टाभिर्वधूभिः ? आवर्तमानशफर्याः समानि लोचनानि यासां ताः, ताभिः । कथं ? समंतात्-सर्वतः । . ७७. काभिश्च० । काभिश्चन वधूभिः लोचनकज्जलौघः कृत्वा श्यामं जलं Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् व्यरचि-चक्र । च-पुनः, स्तनचन्दनः-कुचश्रीखंडः, शुचितरं-अतिविशदं. व्यरचि । इह-अस्मिन् सरोवरे, खरांशुतनयासुरकुल्ययोः-यमुनागंगयोः, किं संगमोऽभूत् । किं विशिष्टे केलिसरोवरे ? एवं-अमुना प्रकारेण, वितर्क: विचारः, यत्र, असो, तस्मिन् । ७८. धम्मिल्ल० । अमूभिः वधूभिः, क्रीडासरो विविधरूपं विचित्रसौन्दर्य, अतानि अक्रियत । कैः ? जलांतपतितैः धम्मिल्लभारकुसुमैः, उत्प्रेक्षते-स्थिततुच्छतारं प्राभातिकांबरमिव-प्रत्यूषसंबंधिगगनमिव । पुनः किं विशिष्टं ? स्तनशैलशृंगैः-पयोधरपर्वतशिखरैः, चूर्णीकृतोमिवलयं । . . ७६. आकाश । अयं-भरतः, एवं प्रोचान-इत्थं ब्रुवाणः, उत्पुलक: उल्लसदरोमांचो बभूव । एवमिति किं ? प्रफुल्लनयनांगसमागमस्यरामांगसंयोगस्य, हा ! शैत्यमभ्यधिकमस्ति । वा-अथवा, किमिति वितर्के, अंबुचयस्य-पानीयनिचयस्य, हा ! शैत्यमभ्यधिकं । किं विशिष्टस्यांबुच्यस्य ? आकाशसंचरसितच्छदवीजितस्य-नभश्चरराजहंसप्रकंपितस्य। . ८०. अद्भिः । किलेति निश्चयेन, अद्भिः-पानीयः, स्त्रीणां दग्द्वन्द्वात् नयनयुगलात्, कज्जलकालिमा-अंजनश्यामता, व्यपासि-दूरीचक्र । परं अधरौष्ठात् पाटलता-रक्तता, न किंचिदपि 'व्यपासि। हि-यतः, नैसर्गिकी-स्वाभाविकी, कमला-श्रीः, क्वचिदपि अनेत्री-अगमनशीला। च-पुनः, अन्यनिजावबोधः-आत्मीयानात्मीयज्ञानमिति व्यरचि। इति चतुर्भगोन्वयः । २१. यावतः । कोके प्रियां-दयितामिति वदति-कथयति सति, भूमिभृता भरतेन, न्यत्ति-निर्वृत्तं । कथंभूते कोके ? दीनवक्त्रे, इतीति किं ? हे कुरंगनयने !, सहस्रकिरणः-सूर्यः, यो गगनावगाही-नभोवर्ती विद्यते । नो:आवयोः, तावन्नहि वियोगः-विरहः स्यात् । अयं सूर्यः चिराद्-वेगाद, अस्तं गंता । इति चतुर्भगोन्वयः । ८२. धम्मिल्ल । तरुण्यः-युवतयः, क्रीडातटाकं अवगाह्य-विलोड्य, तट-तीरं, प्रयाताः-प्रस्थितवत्यः । किं कारयन्त्यः ? धम्मिल्लभारशिथिलालकबिन्दुसेकै:केशपाशश्लथचिकुरशीकरसेचन, शंकरदग्धकाम-शंभुज्वालितस्मरं, उज्जीवयंत्य इव-आश्वासयन्त्यः, किं विशिष्टाः ? सूक्ष्मांशुकेन प्रकटिता: स्पष्टीभूताः, अंगरुचः-शरीरकान्तयः यासां, ताः। ८३. नरप० । नरपतिः-भरतः, इति-अमुना प्रकारेण स्नात्वा क्रीडासरस्तटं आगतः-आयातवान् । तदनु-तदनन्तरं, हरिणीनेत्रा:-स्त्रियः क्रीडासरस्तटं Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग) ४७३ आगताः। किं विशिष्टा हरिणीनेत्राः ? नीराभिषिक्तकचोच्चयाःपानीयाद्रीभूतकेशपाशाः, तु-पुनः, अमू:-नार्यः, प्रणयिहृदयं-वल्लभमानसं, नातिकामंति-नोल्लंघयंति । किं विशिष्टा अमूः ? अनन्यहृदः-तत्परमानसाः, हि-यतः, प्राच्यात् पुण्योदयात्-प्राक्तनाद् धर्मोदयात्, नृणां-मनुष्याणां, सुखं प्रसरतितरां-अतिशयेन प्रथयति । इति चतुर्भगोन्वयः । इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मे, ऽयोध्यातक्षशिलाधिराजचरितश्लोकप्रथा पंजिका। नैपुण्यव्यवसायिपुण्यकुशलस्यास्यारविन्दोद्गता, .. या तस्यामितिकाननैकललनः सर्गोऽभवत् सप्तमः ॥ . इति श्रीमरतंबाहुबलिमहाकाव्ये पंजिकायां वनविहारक्रीडावर्णनो नाम सप्तमः सर्गः । अष्टमः सर्गः-. १. अयाव० । अय-अनन्तरं, सरः-तटाकः, क्षितिराज-भरतं, आरात्-दूरात्, तटोत्सर्पितरंगहस्तै:-तीरविवर्द्धमानकल्लोलपाणिभिः, नमस्यतीव-नमस्करोतीव, किं कुर्वतं ? अवरोधेन समं-अन्तःपुरेण सार्द्ध, प्रयान्तं-व्रजन्तं । केपि सतांमहतां, स्थिति-मर्यादां, अवधीरयन्ति-अवगणयंति ? न लुपंतीत्यर्थः । २. स्नांना० । तीरगतांगनाभिः-तटप्राप्तवधूभिः, पद्माकर:-सरोवरः, मुक्ताभिः मुक्ताफलः, अवकीर्ण:-अवकीर्यतेस्म । केन ? स्नानेन आर्द्रा, अत एव मुक्ताःअस्तबन्धनाः, अलका:-केशाः, तेषां बिन्दवः-शीकराः, तेषां पंक्तिः-श्रोणिः, तस्याः व्याजः-छलं, तेन। किमिति वितर्के, रसावहानां-सरसानां, न हि संभवेत् ? अपितु सर्व संभवेत् । .. ३. सितच्छ० । सितच्छदानां-राजहंसानां, जलस्थलाम्भोरुहिणीविबोधः-कमलिनी प्रथमजातीयनायिकाज्ञानमासीत् । किं कुर्वतां ? अनन्ते-व्योम्नि, चरतां-भ्रमतां, काभिः ? जलस्थपालिस्थितपद्मिनीभिः-नीरवत्तिसरस्तीरवत्तिनलिनीभिः । किं विशिष्टाभिः ? लोलालकालिप्रसराभिः-चलच्चिकुरचंचरीकप्रपंचाभिः । धम्मिल्ल० । सरसीसमीर:-तटाकवायुः, तं-भरतं, मुहुः-असकृत्, सिषेवेसेवितवान् । किं विशिष्ट: सरसीसमीरः ? धम्मिल्लमुक्तालकवल्लरीणां Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वेणीदंडशिथिलीभूतकेशलतानां, नत्यक्रियाकल्पने-नाट्यकर्मकरणे, सूत्रधार:रंगाचार्यः । किं विशिष्टं तं ? सावरोध-सांतःपुरं, पुनः किं विशिष्टं ? तटसंनिविष्ट-तीराश्रितं । ५. न्यमील्य०। अंभोरुहिणीगणेन-पद्मिनीसमूहेन, न्यमील्यत-संचुकुचे। अत्रभावोक्तिः । तीक्ष्णांशुना-रविणाऽपि, अस्तगिरि:-पश्चिमाचलः, निलिल्येशिश्लिषे । च-पुनः, नृपेण-भरतेन, तटाकतीरं अत्याजि-त्यक्तं । किं कृत्वा ? - द्वन्द्वचरस्य-चक्रवाकस्य, दीनं मुखं दृष्ट्वा-विलोक्य, इति त्रिभंगोन्वयः। .. ६. निमीलि०। सरसी-तटाकः, काम-अत्यर्थं, प्रदोषे-यामिनीमुखे, सुष्वाप सुप्ता । किं विशिष्टा सरसी ? निमीलिताम्भोरुहपत्रनेत्रा-संकुचितकमलदल- . . नयना, पुनः किं विशिष्टा ? तमःपटीसंवलितांबुदेहा-ध्वान्तनीलांबरपिहितांबु- . शरीरा। उत्प्रेक्षते-चक्रनाम्नो:-कोकयोः, वियोगदुःखादिव-विरहव्यसनादिव। सुष्वाप-इत्यत्र शयनार्थसामर्थ्यात् कर्मराहित्यं वेदितव्यम्। ७. अस्तं । दिनेन-वासरेण, सन्ध्याचिताहव्यवहे-संध्याचितानले, निजं वपुः- . • स्वं शरीरं, भस्ममयं-राक्षारूपं, वितेने-विदधे । कस्मिन् सति ? भानुमतिसूर्ये, अस्तंगते सति । किं विशिष्टे भानुमति ? स्वे-निजे, प्रभौ-स्वामिनि, ध्वान्तभरैरिव धूमैः प्रसस्र-प्रसृतं । ८. आकाश० । वासरांते-दिनावासने, रजनीश्वरस्य-चन्द्रस्य, आकाशसौधे नभोहर्ये, प्रदीपा इव तारा: प्रादुर्बभूवुः-प्रकटीभवंतिस्म । कि विशिष्ट आकाशसौधे ? महेन्द्रनीलाश्मनिबद्धपीठे। कथं ? दिगन्तान् परितः-सर्वतः दिशोदिशं इत्यर्थः । ६. वियोगि० । तदानीं-तस्मिन् सन्ध्यासमये, वियोगिनीनां विरहिणीनां, विरहानलस्य खद्योतसंघातमिषात्-ज्योतिरंगणसमूहव्याजात्, स्फुटाः स्फुलिंगा इव पुस्फुरु:-दिदीपिरे। किं विशिष्टस्य विरहानलस्य ? निश्वासा . एव धूमावलिः तया धूम्र-मलिनं, धाम-तेजो यस्य, असौ, तस्य । नभस्थ० । नभस्थलं वैडूर्यकस्थालमिव व्यभासीत्-दिदीपे। किं विशिष्टं नभस्थलं ? तारकमौक्तिकाढ्यं-तारामुक्ताफलपूर्णं, पुनः किं विशिष्टं ? विभावरीभीरुशिरोविराजि-रजनीसीमंतिनीमस्तकशोभि । कुत: ? राजागतेचन्द्रागमनात् । कस्मै ? मंगलसंप्रवृत्त्यै-कल्याणसंप्रवर्तनाय । ११. अस्तं प्र०। तमोभरै:-तिमिरातिशयैः, दिगंता:-आशाप्रान्ताः, · व्यानशिरे व्याप्यंत । किं विशिष्टैः तमोभरैः ? व्याहतदृष्टिचारैः-विध्वस्तलोचनसंचारैः । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ कैरिव ? चौरैः - तस्करैरिव यथा दिगन्ता व्याप्यंत । कस्मिन् सति ? किलेति निश्चयेन, चक्रबन्धो-सूर्ये, अस्तं प्रयाते सति - नाशं गते सति राजनि - चन्द्रे, अनुद्यते-अनुद्गते सति, किं विशिष्टे राजनि ? तेजसा - धाम्ना, आढ्ये - परिपूर्ण । पञ्जिका (सर्ग८) १२. आप्लाव ० । त्रियामाक्षणः - शर्वरीसमयः, तमोभिः - ध्वान्तैः, जगद् - विश्वं, आप्लावयामास - निमज्जयांचकार । किं विशिष्टः तमोभिः ? विकाशितालीवनराजिनीलैः - विकस्वरतालवन णिश्यामलैः । कः कैरिव ? संवर्त्तपाथोधिःकल्पान्तसमुद्रः, पयोभिः- जलैर्यथा जगद् आप्लावयति । किं विशिष्टैः पयोभिः ? परितः सर्वतः, प्रवृद्धैः – वृद्धि प्राप्तैः । १३. हंसः प० । हंसः - सूर्यः, चर्माद्रिचूलां - पश्चिमाचलचूलां प्रयातः प्रययौ । — तमिस्रकाकः - तमोवायसः प्रकटीबभूव रथांगाह्वसतां - कोकमहात्मनां यद् वियोग:- विरहः, अभूत् तत् स्थाने - युक्तं । उत्तमानां पापे अधिके सति किं सुखं स्यात् ? इति चतुर्भंगोन्वयः । १४. समत्व० । तमोभरे - तिमिरातिशये, प्रकामं - अत्यर्थं व्याप्नुवति - व्याप्ति प्राप्ते संति, समत्ववैषम्यसतत्त्ववेदः– समताविषमतावक्रताज्ञानं, नासीत् । कस्मिन्निव ? दौर्जन्यभाक् स्वान्त इव - पैशून्यवन्मनसीव । किं विशिष्टे तमोभरें ? दृष्टे:- अक्ष्णोः एकः - अद्वितीयः, निबद्ध: - नियंत्रितः, चारः-संचारः येन, असौं, तस्मिन् ।, दौंजन्यभाक् स्वान्तपक्षे - दृष्टिः - ज्ञानं । पुनः किं विशिष्टे तमोभरे ? असिताभे—श्यामलच्छाये । दौर्जन्यभाक्स्वान्तपक्षे - क्षिप्तशोभे । १५. . विनिस्स० । तदा तस्मिन् सन्ध्यासमये, कैरविर्णीभिः कुमुदिनीभिः, वियोगवह्नः विरहानलस्य, धूमपंक्तिरिव औज्झि - तत्यजे । कस्मात् ? विभावरीकांतक रोपलम्भात्- चन्द्रकरावाप्तेः, पुनः कस्मात् ? विनिस्सरत्चंचलचंचरीकव्याजात्निर्गच्छत्वटुलभ्रमरमिषात् । - १६. कलिन्द० । तदानीं - तस्मिन्नवसरे, तमसा - ध्वान्तेन कृत्वा, भूमितलमेवमासीत्इत्थंभू । उत्प्रेक्षते - कलिन्दकन्यापयसा-यमुनाजलेन, सिक्तमिव । वा- अथवा, किमिति वितर्के, कस्तूरिकावारिभरेण सिक्तं । वा अथवा, किं अञ्जनाम्भोभिःकिं. कज्जलपानीयै: असेचि - अभ्यषिच्यत इति चतुर्भं गोन्वयः । १७. अनेक० । इदानीं - अस्मिन्नवसरे, अनेकवर्णाढ्यमपि एकवर्णं जगदासीत् । कस्मिन् सति ? तमः क्षितीशे - ध्वान्तभूपतौ प्रभुतां प्रपन्ने सति - प्रभुत्वमाप्ते सति । विश्वे - जगति, प्रभूत्वं - ईश्वरत्वं एतादृशं - एवंविधरच रूपमेवास्ति । यादृशो राजा तादृश्यैव रीतिर्भवतीति प्रवृत्तिः । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १८. त्वं पश्चि० । आशा-दिशा, द्विजानां-पक्षिणां, रवै:-शब्दः, इत्याशिषं__ मंगलवचनं, अर्पयन्त्यः-विश्राणयन्त्यः, इवाभवन् । इतीति किं ? हे त्रयीतनो! भानो !, हंत इति खेदे, अधुना-अस्मिन्नवसरे, त्वं पश्चिमाशां-वारुणीं, गतोऽसि-प्राप्तोऽसि । केन ? दैवयोगेन-भाग्यबलेन, च-पुनः, हे सूर्य ! त्वं अभ्युदेता-उदयं प्राप्स्यसि। १६. आराम० । आरामलक्ष्म्या-वनश्रिया, विनिर्मिताभिः-रचिताभिः, औषधिभिः दिदीपे। किं विशिष्टाभिः औषधिभिः ? अस्नेहदीपावलिभिः-अतैलकृतप्रदीपराजिभिः । कथं ? निशान्तर-नक्तमध्ये । कस्मै ? प्रादुर्भवद्ध्वान्तभरापंनुन्यै-' प्रकटीभवत्तमोतिशयोच्छेदाय । क्व ? पदे पदे-स्थाने स्थाने। २०. प्रकल्पि० । क्षितीशः-भरतः, अवरोधेन-शुद्धान्तेन, सह-सम, ततः-तस्माद् वनात्, पटागारवरं जगाम-गच्छतिस्म । किं विशिष्ट: क्षितीशः ? रत्नप्रदीपद्युतिदृश्यमानमार्गः-मणिमयदीपदीधितिविलोक्यमानपथः, पुनः किं विशिष्ट: क्षितीशः ? प्रकल्पिताकल्पविधिः-कृतवेषविधानः, क्व ? प्रदोषे-शायं । २१. शुद्धान्तः । शुद्धान्तवेषस्य वासरे-दिवसे, या शोभा बभूव-आसीत्, सा शोभा रजन्याः समये-रात्रे रवसरेऽधिकत्वमूहे-प्राप्तवती । कस्मात् ?, मणिप्रदीपाभ्यधिकप्रकाशात्-रत्नदीपाधिकोद्योतात् । किं विशिष्टात् ? स्मरसाहचर्यात्कामसखत्वात्। २२. विलासि० । विलासिनीभिः-वधूभिः, युवानः-तरुणाः, ययिरे-प्राप्ताः, यथाऽ लिनीभिः-भ्रमरीभिः, कुमुदप्रदेशाः प्राप्यन्ते । पुनः सौधे-गृहे, निकेतरत्नप्रचयस्य-दीपसमूहस्य, रुचां कलापैः-किरणव्रजः, उद्दिदीपे-उद्दीप्तं, इति त्रिभंगोन्वयः । २३. काचिद् । काचित् कान्ता स्वकान्तमार्ग-स्वभर्तृ पंथानं, मुहुः-असकृत्, ईक्षते स्म-पश्यतिस्म । किं विशिष्टा काचित् ? पुष्पेषुबाणाग्रहतांगयष्टि:-कामशरानघातितदेहयष्टिः, किं कृत्वा ? प्रसूनः-पुष्पैः, स्वाभ्यां कराभ्यां शय्यां विरचय्यरचयित्वा, किं विशिष्टः प्रसूनः ? विवृन्तैः-त्याजितपुष्पबंधनैः, पुनः किं विशिष्ट: प्रसूनैः ? विविधः-विचित्र:। २४. आस्तीर्य० । काचित् कांता कांते-भतरि, अनुपेते-नागते सति, स्वसखीमेव मुवाच । किं कृत्वा ? शय्यां-तल्पं, आस्तीर्य-प्रस्तार्य, दीपं विरचय्य-कृत्वा । एवमिति किं ? हे सखि ! प्रिये-प्रेयसि, स्नेहभरात्-प्रणयातिशयात्, ससंभ्रमंसत्वरं, उपेते-अभ्यागते सति मनो हृष्यति-हर्षमाप्नोति । इति द्विभंगोन्वयः । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग ८) २५. काचित्० । काचिदियं वधुरितिच्छलातु- कपटातु, विजन - विविक्तं, चकार ति । कृत्वा ? आत्मभर्तुः - निजनायकस्य, आगमं - आगमनं, वितर्क्सविचार्य्यं । इतीति किं ? हे प्रियालि ! - प्रियसखि !, त्वं पश्य - विलोकय, अयं - प्रेयान्, उपैति - आगच्छति, वा नैति । पश्चात् सख्यां गतायां प्रियाप्तौभर्त्तुरवापे सति, च-समुच्चये, सा कपाटं ददौ - दत्तवतीति पंचप्रकारोन्वयः । ४७७ २६. ससंभ्रमं । प्रियेण - प्रेयसा, ससंभ्रमं तूर्णं, उपेत्य - आगत्य, रिलष्टा - परिरब्धा सति काचित् कान्ता, कान्तं - दयितमिति, जहास - हसतिस्म । इतीति किं ? हे प्रिय ! या त्वदीये हृदि - मनसि स्थिता सा दयिता तुदति व्यथां प्राप्नोति, अतः अस्माद्धेतोः, त्वं गाढं - अत्यर्थं संश्लेषं - परिष्वंगं, न विधत्से । इति चतुर्भगन्वयः । २७. नखक्षतं । यूना - तरुणेन, काचिद् बाला, व्रजंती - गच्छंती, पटांते - वस्त्रप्रान्ते, विधता - गृहीता । किं कुर्वती ? मां मुंच मुंच इति रुषा - कोपेन, वदंती - जल्पंती, किं कृत्वा ? कान्ते भर्त्तरि, निजं - आत्मीयं, नखक्षतं अवेक्ष्य-दृष्ट्वा । तु-पुनः, परस्याः - अन्यस्या इति संवितर्क्स । २८. कादम्ब० । यूना - तरुणेन, काचिद् व्रजंती - गच्छंती शयनीयात् कथमपि महता कष्टेन, अरक्षि- रक्षिता । कस्माद् ? इति रोषात् - कोपात्, इति प्रतिपद्य - उक्त्वा । या, किं कृत्वा ? तदीयधाम्नि तस्य विलासिनो निलये, निजां - आत्मीयां, छायां- प्रतिबिंबं वीक्ष्य - दृष्ट्वा । किं विशिष्टा काचित् ? कादंबरीस्वादविघूर्णिताक्षी - मदिरापानपरिभ्रान्तनयना, इत्थं पूर्वस्यैव वृत्तस्य पाठान्तरं । ? २६. उपस्थि० । काचिद् बाला पत्ये- दयिताय, चुकोप - कुपितवति । किं कृत्वा ? रसायां- पृथिव्यां, लाक्षारसेनालिखितं पदं वीक्ष्य, किमर्थं ? किंचन कौतुकार्थं - किमपि कुतूहलार्थं । पुनः कस्मै ? प्रिया घे - वल्लभाकोपाय, केन ? प्रथमं - पूर्वं उपस्थितेन - आगतेन । , 1 ३०. पटीमु० । कयाचित् कांतया द्राक् - शीघ्र इति वदन् युवा जगृहे गृहीतः । इतीति किं ? इयं बाला उन्निद्रनेत्रा सखिभिर्न विधेया न कर्त्तव्या । किं क्रियमाणा ? छलेन-कपटेन निद्रामधिगम्यमाना- प्राप्यमाणा किं कृत्वा ? मुखे पटी - सिचयं, उपादाय गृहीत्वा । ३१. पराङ्मु० । नेत्रा - नायकेन, काचन कामिनी सहसा - सद्यः, अचुंबि- चुम्बिता । किं विशिष्टेन नेत्रा ? पृष्ठोपगतेन - पश्चादागतेन । किं कृत्वा ? कराभ्यां नेत्रे Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् निमील्य-आच्छाद्य। किं विशिष्टा काचन ? पराङ्मुखी-परावत्तितानना । किं कुर्वती ? निजांगुलीकुंचिकया-स्वांगुल्यालेखकुचिकया, कांतरूपं-प्रियतमाकारं, आलिखती-चित्रयंती। ३२. काञ्च्याभि० । काचिद् अभिसारिका निशीथे-अर्द्धरात्र, कान्तं-भर्तारं, अभिससार-अभ्यागतवती। किं कृत्वा ? कांच्या-कटिमेखलया, अभिराममनोज्ञं, जघनं विधाय-कृत्वा, पुनः नूपुररम्यनादौ पादौ-चरणौ विधाय । चपुनः, सकंकपत्र-सायकसहितं, स्मरं-कामं, सहायं-सखायं, विधाय। . ३३. निःश्वास० । काचिद् बाला हृदीशितुः-नायकस्य, दृशोः-नयनयोः, उत्सवं आततान-करोतिस्म । किं विशिष्टा काचिन् ? निःश्वासेन हायं यदंशुकं-वसनं, तेन वीक्ष्यमाणं-दृश्यमाणं, वपुः-शरीरं यस्याः सा। पुनः किं विशिष्टा ? समग्रांगपिनद्धभूषा-सर्वावयवपरिहिताभरणा । पुनः किं विशिष्टा ? वासगृहं- ' शयननिलयं, समेता-समागता। ३४. वितन्वती० । सख्या काचिद् वधूरेवमलज्जि-हपिता, एवमिति किं ? हे सखि ! चेद्-यदि, ते-तव, सखा प्रीतिपराङ्मुखो न स्यात् किं तहि-तदा, अनेन भूषाविधिना किं ? किं कुर्वती ? अपूर्वभूषाविधि-निरुपमभूषणरचनां वितन्वतीविदधती। किं कृत्वा ? आत्मदर्श-दर्पणे, स्फुट-स्पष्टं, विलोक्य-दर्श दर्श, इति त्रिभंगोन्वयः। ३५. प्रियालि !० । नायिका सखीमित्याह । हे प्रियालि ! प्रियंसखि ! भामिनीनां स्त्रीणां, यादृक् प्रणयः-स्नेहो भ्राजति न तादृक् भूषाविधिः-भूषणरचना, भ्राजति-शोभते । यः प्रेयान् भूषाविधौ रूपविधौ विचार करोति सोऽत्र लोके प्रिय एव न स्यात्, इति चतुर्भगोन्वयः । . ३६. प्रिये ! त्व०। कश्चित् कामी, इत्वरी-असती, इति-अमुना प्रकारेण, प्राममुदत्-प्रमोदयांचकार । हे प्रिये ! मयाद्य त्वदीया पदवी-त्वन्मार्गः, विशेषात् दृष्टा-लुलोके । कथं न त्वमिता-समागता। ते-तव, सख्यंसौहार्द, अलंघमाना-अव्यतिक्रामती, निद्रापि न इता । इति चतुर्भगोन्वयः। . ३७. इति प्रि० । काचित् कान्ता इतीरयन्ती-एवं वदंती, सागसं-सापराधं, प्रियं प्रणयिनं, जहास-हसतिस्म। इतीति किं ! हे प्रिय ! त्वया हारमपास्यत्यक्त्वा, दयिता-वल्लभा, कथं न श्लिष्टा-आलिंगिता, यद्-यस्मात् कारणात् अरं-अत्यर्थं, हा इति खेदे, ते-तव, हृदयं-वक्षः, मुक्तांकितं-मुक्ताफलचिन्हितमस्तीति । इति त्रिभंगोन्वयः । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ पञ्जिका (सर्ग ८ ) ३८. त्वयाथ० । पुनरपि नायिका नायक किमाह । हे प्रिय ! त्वया अथवा तत्स्मृत-तस्या वल्लभायाः संस्मरणाय, तन्मुक्तादिचिन्हं, न लुप्तं - नापास्तं । मया स्वदृशा-आत्मदृष्ट्या, तवैतत् आगः - भवतोयमपराधः, दृष्टंददर्श । हि यतः, यूनः - तरुणस्य, रतांकितानि - सुरतचिन्हितानि, प्रीणंतिप्रीतिमापादयंति । कस्येव ? भटस्येव । यथा भटस्य - योधस्य, गजाभिघाताः प्रीतीति चतुर्भगोन्वयः । ३९. श्लेषात्० । नेत्रा - नायकेन, इति निगद्य - उक्त्वा, कापि प्रामोदि - प्रसादिता । इतीति किं ? हे वामनेत्र ! अहनि - दिवसे तवैव श्लेषात् ममेदृशं वक्षोहृदयं जातं । त्वत्तः परा - अन्या, मम का वल्लभास्ति । ४०. to य० । काचिन् नायिका कान्तं इति उवाश - वशीचकार, इतीति किं ? तस्मिन् भर्त्तरि मान:- अहंकारः, कथं ? तस्मिन् कस्मिन् ? यदीय नामापि समग्रं अंगं ‘पुलवांकुराढ्यं करोति । यदागमो - यस्यागमनं, स्विन्नं - स्वेदवदंगं करोतीति चतुर्भगोन्वयः । ४१. प्रसून० । नायिकायाः सखीप्रतिवचनं । हे आलि ! - सखि !, मे-मम, प्रियं विना प्रसूनशय्या - पुष्पशयनीयं, नवकंटकाले ररुं तुदा - मर्मप्रहारिणी, भवेत् - स्यात् । अयं विनोदः रोदनसन्निकाशः - विलापसदृशो भवेत्, वासगृहं भयदं - भयदायि भवेत् । 1 ४२. सख्याः पुरः० । केनचन विलासिना, प्रियायां - वल्लभायां मन्तुमत्ता, न्यवारि - न्यषेधि । किं कुर्वन्त्यां ? इति - पूर्वोक्तं स्वैरं यथेष्टं उदीरयन्त्यां - कथयन्त्यां उदीरतायां वा पाठः । स्वचेतसः - निजचित्तात् । केव ? दुवल्लीव - तरुलतेव । कुतः ? आकाशात् । व्योमाश्रित्येत्यर्थः - इति युग्मार्थः । ४४. अपराधसत्ता सख्याः पुरः कस्मात् ? व्योम्न: ४३. विश्वाधि० । अथ - अनन्तरं स विश्वाधिराजः - भरतः कदलीविलासगेहं विवेश - प्रविशतिस्म । किं विशिष्टं कदलीविलासगेहं ? विकीर्णपुष्पंप्रस्तारितकुसुमं पुनः किं० ? लोकत्रयीस्त्र णविशेषितश्रि-त्रलोक्यस्त्रीसमूह विशिष्टलक्ष्मि, ईदृशं मृगेक्षणारत्नं - स्त्रीरत्नं, तेन विभूषितं - शोभितं । रत्नप्र० । पुनः किं वि० ? रत्नप्रदीपप्रहतान्धकारं । पुनः किं वि० ? चन्द्रोदयेन उद्योतितः - उद्दीपितो मध्यदेशो यस्य दंदह्यमानागुरुभिः धूमाणि धूमधामानि - घूमतेजांसि किं० ? पुण्यवतां योग्यं इति युग्मार्थः । तत् । पुनः किं ? तैरंकितं चिन्हितं, पुनः Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४५. तयोवि० । तयोर्दपत्योरत्र-विलासनिलये, विविधाः विलासाः प्रसत्र : प्रसरन्तिस्म। किं विशिष्टाः विलासाः ? प्रसन्नत्वं-प्रसादवत्ता रूपो यः पयोधिःसमुद्रस्तत्र चन्द्राः। कयोरिव ? यथा शृंगारजन्मक्षितिराजरत्योः-कामभूपालरत्योरिव । ४६. अन्योय० । युवद्वयी-युवयुवतीयुगली, तं समयं-अवसरं, सुधामयं सौख्यमयं प्रमोदमयं मनोभूमयं-कामस्वरूपं, विवेद-आज्ञासीत् । पुनः कि विशिष्टं समयं ? एकतानं-एकतया अद्वितीयतया अन्यते-प्रान्यते इति, कस्मात् ? . अन्योन्यसंपर्करसातिरेकात्-परस्परसुरतरसाधिक्यात् । ४७. प्रसन्न । सितरोचि:-चन्द्रः, आसां-कैरविणीनां, प्रसन्नताय-निर्मलताय, ' करेण पीयूषभरं इति ससर्ज-विश्राणयामास। इतीति किं ? जगति-विश्वे, एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण, प्रसन्नता-प्रसादवत्ता, प्रवृत्ता-प्रवृत्तिमासदत् । करविणीषु, कुमुद्वतीषु, मयि प्रभौ सति प्रसन्नता नासीत् । इति त्रिभंगोन्वयः। ४८. शृंगार० । तदानीं-तस्मिन् समये, युवाभिः तरुणैः, शरच्छशांक:-शरदिन्दुः, इति व्यकि-मेने। इतीति किं ? शृङ्गारदध्नः-प्रथमरसगोरसस्य, नवनीतपिंड। किमिति वितर्के, त्रिपुरारिमौले:-ईश्वरशिरसः, मुक्तामणिः स्यात् । वाअथवा, किम् इति वितर्के, खलक्ष्म्या:-गगनकमलायाः, चन्दना:श्रीखंडरसालिप्तः, स्तनः । वा-अथवा, प्रमदस्य-आनंदस्य, क्रीडातटाकः। ४६. किं कन्दुकः० । वा-अथवा, श्रीतनुजस्य-कामस्य, किमु कन्दुकः । एष चन्द्रः किं रते:-कामपल्याः, विलासालयकुम्भः-वासगृहकलशः, किं विशिष्ट एष चन्द्रः ? उत्सवछत्रमिति युग्मार्थः । विलोक्य० । कैश्चित् कामिभिः, अभ्युद्यत्-उदयं गच्छन्, विधुः-चन्द्र:एवमतर्कि-व्यचारि। किं कृत्वा ? सौधसंस्थान् दीपान् विलोक्य-दृष्ट्वा, बलद्विषा-इन्द्रेण, किमेष दीपः चन्द्रलक्षणोऽकारी। कस्मिन् ? स्वचन्द्रशालाशिखराग्रदेशे-शिरोगृहशृंगाग्रभागे। ५१. सिता०। कुमुदुभिः-कैरवैः, विकासलक्ष्यात्-विकचनमिषात्, जहसे हसितं। कस्मिन् सति ? सितद्युतौ-चन्द्रे, दूरमुदित्वरेपि-दूरादुदयं प्राप्तेऽपि, रागी-रागवान्, चित्तविनोदकारी-मनोविनोदकर्ता किं न भवेत् ? किं विशिष्टो . रागी ? विदूरे-दवीयसि स्थाने, वाऽदूरे-समीपे, स्थितवान् ? ५२. इन्दोः क० । च-पुनरर्थे, कुमुद्वती-करविणी, वेगेन प्रमाद-निद्रां, तत्याज___ परिजहार । कुतः ? इन्दोः करस्पर्शनतः-चन्द्रस्य किरणसंपर्कात्, का वामनेत्रा Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग८) ४८१ नारी, निद्रां न जहाति । कस्मिन् सति ? भर्तरि-कान्ते, संनिकृष्ट-संनिधानं, उपस्थिते-समागते सति। ५३. कराः सि० । सितांशो:-चन्द्रस्य, करा:-किरणाः, इलान्तरिक्षे-भूम्याकाशे तथा सितीचक्रुः। किं कुर्वन्तः ? परितः-सर्वतः, स्फुरन्त:-विस्तरयन्तः । के इव ? क्षीराबुराशेः वीचिवारा:-कल्लोलसमूहा इव। यथाऽत्र-लोके, वर्णांतरदृष्टि:-सितेतरवर्णावलोकनं नासीत् । ५४. एतद् । विधु:-चन्द्रः, निशांगनायाः-रजनीरमण्याः, तमिस्रवासः-अंधकारवस्त्रं, सहसा-तत्कालं, चकर्ष-कृषतिस्म। किं कृत्वा ? इति विचार्य-विमृश्य । इतीति किं ? एताः कुमुदिन्यः-करविण्यः, पश्यंतु-विलोकयन्तु । किं विशिष्टा: कुमुदिन्यः ? एतद्वयस्या:-एतस्याः रजन्याः सख्यः । पुनः अंबुजिन्य: कमलिन्यः, सुप्ताः संति । इति त्रिभंगोन्वयः । ... ५५. एवं प्र० । द्विजेन्द्रोंदये-शशांकोदये, एवं प्रविस्तारवति सति भृत्याः-किंकरा:, इति हेतोः प्रबुद्धा:-जागरिताः। इतीति किं ? प्रगे-प्रभाते, बलं-सैन्यं, प्रतिष्ठासु-चिचलिषु विद्यते। तत्-तस्माद्धेतोः, वयं स्वकृत्यं हयगजरथपर्याणादिकं आर्दध्मः-कुर्महे । किं बिशिष्टे द्विजेन्द्रोदये ? अवदातीकृतविश्वविश्वे विशदीकृतसकलवसुधे । इति त्रिभंगोन्वयः । ५६. श्यामा० । तदानीं-तस्मिन् समये, निषादिनोः आधोरणयोः, श्यामार्जुनाभ द्विप्नयो:-सिताऽसितकांतिहस्तिनोः, विवादो बभूव । किं विशिष्टयोः निषादिनोः ? जागृतयो:-नष्टनिद्रयोः। पुनः किं विशिष्टयोः ? समानतुङ्गत्वरदप्रमाण. वणक्यदत्तभ्रमयोः-सदृशोन्नतत्त्वदंतप्रमितिवणकताविश्राणितभ्रान्त्योः । ५७. आधोर०। आधोरणा:-हस्तिपका अपि शशांके उदिते-समुद्गते सति, मालूरफलानि-बिल्वफलानि, आदाय-गृहीत्वा, नागकर्णेषु-हस्तिश्रवणेषु, शंखभ्रमतो बबन्धुः-स्थापयामासुः । किं विशिष्टे शशांके ? क्षुभ्यत्सुधाम्भोधितरंगगौरे। ५८. विचित्र० । विचित्रवर्णा अश्वाः, उडुपोदयात्-चन्द्रोदयात्, द्राक्-शीघ्र, स्फुटमेकवर्णाः बभूवुः । केचित् सादिनः केषांचिदश्वानां चमरान्-चामराणि, अलब्ध्वा न वाप्य, द्रशाखाः-तरुशाखाः, निगालबद्धाः-कंठसंयताः, विदधुःचक्रुः । चामरे चमरोपि च-इति । ५६. केचिद् । अत्यमंदा-अत्युद्यमवन्तः, चन्द्रोदयशून्यं-उल्लोचरहितं, स्यन्दनं-रथं, Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् कृत्वा-विधाय, प्राचीचलन-प्रयाणं कुर्वन्तिस्म, किं कृत्वा ? एवं विचार्यविचिन्त्य, एवमिति किं ? अधुना-अस्मिन्नवसरे रथस्योपरिष्टात् अयं चन्द्रोदयः रोहिणीरमणोदयः, भवताद्-अस्तु । अनेन त्वराधिक्यं प्रतिपादितं । ६०. विचित्र० । पुरतो ये पदातिधुर्या:-पत्तिधौरेयाः, प्रसस्र :-प्रसरन्तिस्म । कि विशिष्टाः पदातिधुर्याः ? विचित्रवेषाः-नानारूपवर्णनेपथ्याः, चन्द्रोदयाद् विशदैकवेषाः। पुनः किं विशिष्टाः ? किं हंसपक्षाः शिरसीति ताः-इति ऊह्याः । पुनः किं विशिष्टा: ? शिरोग्रविन्यस्तमयूरपिच्छा:-मस्तकाग्रभागसंस्थापितशिखंडिबर्हाः, अनेन चन्द्रातपस्योज्ज्वलता प्रतिपादिता। ६१. एवं त० । एवं-अमुना प्रकारेण, तदानीं-तस्मिन्नवसरे, स कोपि चतुरंगसैन्य- . कोलाहल:-चतुर्विधबलकलकलारवः, प्रादुरभूत्-प्रकटीभवतिस्म । स कः? : येन कृत्वा · अग्रतः-पुरस्तात्, मंदरकंदरस्था:-इन्द्रकीलशैलगह्वरनिवासिन्यः, . किन्नर्यः-किन्नरयोषितः, उन्निद्रदृशः-उजागरचक्षुषो बभूवुः । ६२. इदं गृ० । तस्य-भरतस्य, इत्यादि वचोभिः एभिः ध्वजिन्या:-सेनायाः, तुमुलः- : कोलाहलः, ससार-वितस्तार । इतीति किं ? हे चर ! त्वमिदं गृहाण, त्वमिदं विमुंच, त्वं तिष्ठ, त्वं गच्छ, हे चर ! त्वं सद्य उपेहि-आगच्छ, हे चर ! त्वं सज्जय-सज्जीभव। ६३. निःस्वान० । स-ध्वजिनीकोलाहलः, सिन्धोः-समुद्रस्य, तटमुत्ससर्प-प्रासरत्तमां। किं कुर्वाणः ? निःस्वानभम्भानकतूर्यनादैः प्रवर्द्धमानः-वृद्धिमाप्नुवन् । चपुनः। कैः ? अश्वेभहेषारवबृहितैः-हयगजहेषारवजितैः । क इव ? सरितां ओघ इव, यथा सरितां-नदीनां, ओघ:-प्रवाहः, झरैः-निर्भरैः, प्रवर्द्धमानः सिन्धोस्तटं उत्सर्पति । ६४. आणि । दिक्करिभिः-दिग्गजैः, यः-ध्वजिनीतुमुलः, आकणि-श्रूयतेस्म । किं कृत्वा ? स्वकर्णतालैकलोलत्व-निजश्रोत्रपुटचापलं, दूरादपास्य-त्यक्त्वा, तुपुनः, सुरांगनाभिः यः सेनाकोलाहलः इत्यौहि-एवं व्यचारि। इतीति किं ? किमेतद् ब्रह्माण्डभांडं स्फुटतीव-भेदमाप्नोतीव । इति त्रिभंगोन्वयः । ६५. सितांशु० । तेन तुमुलेन-कोलाहलेन, सितांशुवाहा:-शशांकतुरगाः, त्रस्ताः भीताः सन्तः, अस्ताद्रि गुहां निलीनाः-अदृश्यतामापुः, अपि पुनरर्थे, शीतांशुलक्ष्मीः -चन्द्रश्रीः, भियेव राजवक्त्र-भरतवदनं, लिल्ये-लीयतेस्म । हि-निश्चितं, राजवक्त्रं अकुतोभयं-निर्भयमित्यर्थः । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग) ४८३ ६६. इयं ० । इयं वराकी चक्रवाकी प्रियस्य विरहे मुहर्मुहुः-वारं वारं, रोदिति विलपति । चरणायुधोऽपि-ताम्रचूडोऽपि इतीव घनः-सान्द्रः, विरावैः-शब्दः, तीक्ष्णद्युति-सूर्यं, आजुहाव-आकारयामास । ६७. बभूव । निशि-रात्रौ, मानिनीनां कांतानुनयप्रणामः-प्रेयसां प्रसादनप्रणतिभिः, या मानमुक्तिः-अहंकारपरित्यागः न बभूव, ताम्रचूडेन-निशावेदिना, रुतैःशब्दः, सा मानमुक्तिवितेने-चक्र । कथं ? सैन्यकोलाहलमनुलक्ष्यीकृत्य, किं कुर्वद्भिः ? उच्छलभिः-उल्ललद्भिः । ६८. प्रातः प्र० । हे कान्ते !, प्रातरहं प्रयाणाभिमुखोऽस्मि । नौ:-आवयोः, पुनरपि अमूदृक्-एतादृशः, संगः कुतः स्यात् । नेतुः-नायकस्य, उक्त्या या युवती हठं न जहौ-न परितत्याज, सा बाला कुत्कुटोक्त्या-ताम्रचूडगिरा, प्रिय-भर्तारं, आललंबे-आश्रितवती । इति चतुर्भगोन्वयः । ... ६६. जगत्त्र० । अर्कः-सूर्यः, तं तुमुलं द्रष्टुं-विलोकयितुं, प्रथमाद्रिचूलां-पूर्वाचल चूलिकां, अध्यारुरोहेव-आरूढवानिव। किं विशिष्टोर्कः ? रुषा-क्रोधेनेत्येवं ताम्रः-रक्तः । इतीति किं ? येन तुमुलेनाहं अकांडे-अप्रस्तावे, उज्जागरित: उन्निद्राणीकृतः, सोऽयं तुमुलो जगत्त्रये कोऽद्य-संप्रति अस्ति । इति त्रिभंगोन्वयः । ७०. रथांग। धुपतिः-श्रीसूर्यः. करेण रजन्याः तमिस्रवासः-ध्वान्तरूपवस्त्रं, इतीर्ण्ययेवाचकृषे-आकृषसिस्म । इतीति किं ? इयं रात्री अत्यंतदुष्टादोषवती। कस्मात् ? रथांगनाम्नो:-चक्रवाकयोः विरहप्रदानात् । तु-पुनः, अहं मित्रोस्मि । इति त्रिभंगोन्वयः। . ७१. सरोजि० । किलेति सत्ये, वासरान्ते-दिनावसाने, सरोजिनीभिः-कमलिनीभिः, या दशा-व्यवस्था, प्रसह्य-हठात्, अभ्यासि-स्वीचक्रे, प्रगे-प्रभाते, कुमुद्वतीभिः -कैरविणीभिः, सा दशा अभ्यासि । राज्यविपर्ययेण-राज्यव्यत्ययेन, किं वैपरीत्यं न जायेत-नोत्पद्येत ? इति त्रिभंगोन्वयः । ७२. निशावि० । च-समुच्चये, नभस्वान्-वायुः, कामीव-कामुकवत्, मुहुः-पुनः पुनः ननंद-मुमुदे। किं कृत्वा ? निशाविरामोन्मिषदब्जराजीमुखानि-प्रभातविकचदंभोजावलिवदनानि, संचुब्य-आस्वाद्य । किं विशिष्टे वने ? कासारस्तटाक एव वासौको-वासगृहं यत्र तत् तस्मिन् । पुनः किं विशिष्टे वने ? सौरभाट्ये-सुगंधिनि । ७३. इत्युद्यते । ततः तदनन्तरं, भारतराजराजः-भरतचक्रवर्तिभूपालः, च-पुनः, अन्येपि महीभुजा केचित् सुदृशः-नारी:, विहाय-परित्यज्य, केचित् समं Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् , सार्द्धं समादाय - गृहीत्वा प्रभाते प्रचेलुः- प्रयाणं कृतवंतः । कस्मिन् सति ? भानुमति - श्रीसूर्ये, इति - पूर्वोक्तप्रकारेण उद्यते - उदयं प्राप्ते सति । ७४. भरत० । भरत नृपतिसैन्याम्भोनिधिः - चक्रवतिकटकसमुद्रः, एतस्य भरतस्य वा सुषेण सेनाधिपतेः, अग्रे - पुरस्तात्, संचचार-संचरितः । किं विशिष्टो भरतनृपतिसैन्याम्भोनिधि: ? स्फुटतुरगत रंगः - प्रकट हयकल्लोलः पुनः किं विशिष्टः ? तुंगमातंगनक्रः - प्रोन्नत हस्तिजलचरविशेषः पुनः किं विशिष्ट : ? रथवहनविदी - प्रश्रीभरः - स्यंदनरूपयानपात्रविराजिष्णुरमातिरेकः पुनः किं विशिष्टः ?सकलजगतिपीठस्याप्लावने उद्दामः - उत्शृंखला, शक्तिः - पराक्रमो यस्य, • असौ ।. J ७५. शय्यां वि० । अथ - अनन्तरं भरताधिराजः - भरतचक्री, नागाधिपं - हस्तिराजं, . आरुरोह–आरूढवान् । किं कृत्वा ? कुसुमास्तरणोपपन्नां - पुष्पप्रस्तरणाकीणी, शय्यां विहाय - त्यक्त्वा । पुनः किं कृत्वा ? प्रातस्तनं - प्रभातोद्भवं, अशेषविधिसमग्र विधानं, विधाय - कृत्वा । किं विशिष्टं अशेषविधि ? पुण्यस्य उदय: - उद्भवः, यत्र, ईदृशः अर्चनभरः - पूजातिशयः यत्र, असौ, तं । किं विशिष्टं नागाधिपं ? रजतकांतं - रूप्यधवलं । इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मे - sयोध्यातक्षशिलाधिराजचरितश्लोकप्रथा पंजिका । नैपुण्यं व्यवसायिपुण्यकुशलस्यास्यारविन्दोद्गता, या तस्यामिति सैन्यचारचतुरः सर्वोष्टमोऽजायत ।। इति श्रीभरत बाहुबलि महाकाव्ये पञ्जिकायां सैन्यप्रस्थानवर्णनो नाम अष्टमः सर्गः । नवमः सर्गः:--- 1 १. करैरि० । तस्य - भरतस्य, सैन्यैः - कटकैः, साकेतवनानि व्याप्यन्त - व्यानशिरे । कैरिव ? अंशोः -श्रीसूर्यस्य, करैः किरणैः इव यथा वनानि व्याप्यन्ते । किं विशिष्टस्य तस्य ? तेजस्विनः - बलवतः । सूर्यपक्षे - प्रकाशवतः । किं कुर्वद्भिः ? पुरतः - अग्रे, स्फुरद्भिः - प्रकटीभवद्भिः । पुनः किं विशिष्टैः ? कीर्णावनीचक्रनभोन्तरालैः-व्याप्तभूमंडलगगनमध्यैः पुनः किं नितान्ततीव्र :- अत्यन्ततीक्ष्णैः । विशिष्टैः ? २. भूचारि० । भूचारिराजन्यबलातिरेकैः - भूचरभूपालसंबंधिसैन्योद्रेकैः, मही-भूः, ललम्बे – समाश्रिता । कैरिव ? सनयैरिव । यथा न्यायवद्भिः श्रीः - लक्ष्मीः, आलंब्यते । विद्याधरैरिति विमृश्य- विचार्य, विहायः - आकाशमाकलितं । इतीति किं ? अधुना शून्यं नभो मास्तु । इति त्रिभंगोन्वयः । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग ) ४८५ ३. कृतान्त० । अथ - अनन्तरं, कान्तेन-भत्र सह व्रजंती कान्तेति न्यषेधि-निवारिता । इतीति किं ? बहलीशयुद्धं - बाहुबले राहवः, कृतान्तवक्त्रं यमाननमस्ति । तत्र युद्धे सांप्रतं - अधुना मम प्रवेशो वर्त्तते । तत् तस्माद्धेतोः हे प्रिये ! त्वं गेहं गच्छेति चतुर्भंगोन्वयः । ४. प्रेयोव० । कांता - प्रणयिनी, कान्तं भर्त्तारं एवं निजगाद - अब्रवीत् किं कृत्वा ? प्रेयोवचः - भर्तृवचनं, आकर्ण्य - श्रुत्वा । एवमिति किं ? मम गेहं त्वयैव-भवतैव वर्त्तते । तत् तस्माद्धेतोः, हे नाथ ! त्वदीयं संनिधानं - समीपं, छायेव नाहं मुंचामि । किं विशिष्टं प्रेयोवचः ? स्फूर्जथुकल्पं - वज्रनिर्घोषसदृशं इति त्रिभंगोन्वयः । ५. अमङ्गलं ० । कयाचित् कांतया पतदत्र - क्षरन्नेत्रांबु, अंतर् घृतं दध्रे । अस्य यियासतः - प्रयाणं चिकीर्षोः, अमंगलं मास्तु । किं कुर्वत्या ? वियोगवह्नः - विरहानलस्य, निश्वासधूमावलि उद्वहंत्या - धारयन्त्या । किं विशिष्टस्य वि० ? तेन - वाष्पजलेनैव सिक्तस्य - विध्यापितस्य । ६. कयाच० । कयाचन बालया, द्वारि - गृहद्वारदेशे, बाहू - भुजौ, वितत्यविस्तार्य, कांतः- प्रेयान्, न्यवत्ति - न्यषेधि । कयेव ? राजहंस्येव, यथा राजहंस्या पक्षौ वितत्य प्रेयान् निषिध्यते । किं कुर्वत्या ? प्रणयेन स्नेहेन इत्युदीरयंत्याकथयत्या । इतीति किं ? हे प्रिय ! ते-तव, गमाय - प्रस्थानाय, नादिशामि । ७. वियोग० । कोपि भट: - वीरः, स्वसौधात् न्यगाननः - नीचीकृतास्यः सन्, • जगाम - गच्छतिस्म । किं कृत्वा ? कस्याश्चन वध्वा वियोगदीनाक्षं वक्त्रमवेक्ष्य - 'दृष्ट्वा । कस्मै ? तदा एव तस्मिन्नेव समये संगराय - रणाय, किं वि० भटः ? वाष्पाम्बुपूर्णाक्षियुगः - अश्रु जलभरितनयनयुगलः । ८. गन्तैष० । तदानीं - तस्मिन्नवसरे सख्या काचित् रुदती - विलपती, एवं व्यबोधिविज्ञापिता । एवमिति किं ? हे बाले ! भवत्याः - तव, एष दयितः - प्रेयान्, 'गंता - गमिष्यति । तत् तस्माद्धेतोः, हे सखि ! त्वमद्य मुखं दीनं मा कुरु । वीरपत्नी भव । इति चतुभंगोन्वयः । ९. आश्लिष्य ० । काचित् कान्ता, कांतं-पति, दोर्वल्लियुगेन - भुजलतायुग्मेन, आश्लिष्य - आलिंग्य, बभाषे । किं विशिष्टा काचित् ? गलदश्रुनेत्रा - पतत्वाष्पनयना, हे नाथ ! मया बद्धः सन् त्वं कुत एवं गंता - गमिष्यसि । गजेन्द्रोऽपि बद्धः सन् वशत्वमेति - प्राप्नोति । १०. कुन्ताग्र० । कान्तः कांचित् कान्तामुवाच । किं विशिष्टां कांचित् ? इतीरिणीं एवं ब्रुवाणां, इतीति किं ? हे नाथ ! त्वं कुंताग्रधाराः कथं विषहिस्ये - Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् कथं विषोढासि । यतो वृन्तं-पुष्पबन्धनं, ते-तव, अरु तुदं-मर्माभिदमस्ति । तु-पुनः, हे प्रिये !, ते-तवेदं वचोरु तुदं कुंताग्रधारात एव मे-ममास्ति । इति चतुर्भगोन्वयः । ११. मनो म० । हे जीवितेश !-प्राणनाथ !, मदीयं मन:-मम चित्तं, भवता-त्वया, सह-साई, एतं-आगतं । तु-पुनः, इह अस्मिन् गेहे, तन्वा-शरीरेण मुक्तास्मि । कान्तः उवाच । हे प्रिये ! त्वयि सह ममापि हृदयं समेतं, एष साधु व्यतिहार:-.. सम्यग् व्यत्ययोऽजनि । इति पंचभंगोन्वयः ।। १२. पोतन्ति। हृदीश्वरा:-प्रणयिनः, अबलानां-स्त्रीणां, तारुण्यजले-. यौवनांभसि, पोतंति-यानपात्रायन्ते । किं विशिष्टे तारुण्यजले ? कामचलत्तरंगे- . स्मरचरत्कल्लोले । अथ स्त्रीवचनानंतरं भर्तुर्वचनं । हे प्रिये ! यूनां-तरुणानां अत्र-तारुण्यजले, धात्रा-विधिना, सुनेत्राकुचकुंभयुग्मं तरणाय दिष्टं-दत्तं । १३. नवैः प्र० । हे प्रिय ! नवैः प्रसूनैः शय्या परिकल्प्य-निर्माय, मया नक्तं तवैव .. मार्गः आलोकि-ददृशे । अथ भर्तुर्वचनं । हे प्रिये ! मम तावत् प्रसूनशय्यानियम:-पुष्पशयनीयप्रत्याख्यानमस्तु, यावत् ते-तव, संग:-संगमः, न भावीन भविता। १४. श्रृंगार० । हे प्रिय ! मे-मम, त्वया विना शृंगारयोने:-कामस्य, कुसुमानि बाणा लोहमयाः शराः भवंति । भतुर्वचनं । हे प्रिये ! त्वया विना मम मार्गणानां-लोहमयानां कुसुममयानां च बाणानां द्वेधानुभूतिः-द्विविधोनुभवः, भवित्री-भविता। तु-पुनः, अनंगस्य-कामस्य, शरा असह्याः स्यु:सोढुमनर्हाः। १५. आचाम० । हे प्रिय ! अहं मत्पाणिधूतव्यजनानिल:-मदीयकरांदोलितताल वृन्तवायुभिः, ते-तव, स्वेदलवान् आचामयं । किं विशिष्टान् ? रतोत्थान्सुरतसंभवान् । अथ भर्तुर्वचनं । हे बाले ! मम संवेशनं-सुरतं, त्वद्वशंत्वदायत्तं, एवास्ति । कुत:-कस्माद्, मम स्वेदलवाः स्युः ? किं विशिष्टाः स्वेदलवाः ? तस्मात्-सुरतात्,उत्तिष्ठति-उत्पद्यते इति तदुत्थाः। १६. स्वप्नान्तरे० । हे प्रिये ! मया त्वं प्रीतिनिमग्नदृष्टया-प्रणयांचितदशा, स्वप्नान्तरे व्यवलोकनीयः-दृश्यः । भर्तुः प्रतिवचनं । हे प्रिये ! मम निद्रा नोपै ष्यति-नागमिष्यति, त्वया-भवत्या विना । तहि कथं त्वमीक्ष्या-विलोक्या। १७. प्रेयो ज०। हे नाथ ! त्वं मम दूरगायाः मा विस्मारये:-मा विस्मृति Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग९) ४८७ कुर्याः, किं विशिष्टस्त्वं ? प्रेयसी चासौ जयश्रीश्च प्रेयोजयश्रीस्तस्या वरणंपरिणयनं, तत्रोत्सुकः-सोत्कंठः । भर्तुः प्रतिवचनं । हे प्रिये ! बहलीश्वरस्यबाहुबलेः, पुरस्ताद्-अग्रे, मम जयश्रीप्रतिलम्भः कुत एव। मम दूरगाया इत्यत्र षष्ठी। विस्मरणे तु केचित् कमवांगीकुर्वन्ति । तत्पक्षे मम दूरगायाः प्रेयो वस्तु मा विस्मारये-इति योज्यं । १८. . इत्थं वि० । इत्थं-पूर्वोक्तप्रकारेण युवद्वयीनां-तरुणतरुणीयुगलानां, विविधाः प्रलापाः विचेरुः-विचरंतिस्म । किं विशिष्टाः प्रलापाः ? विरहातिदीनाः । हि-यतः, निरंतरे-निर्व्यवधाने, प्रणयातिरेके-स्नेहाधिके सति विप्रयोग:विरहः, हृदालये-मनोगेहे, शल्यति-शल्यवद् भवति-इति द्विभंगोन्वयः । इति श्लोकनवकस्याप्यर्थो दंपतीप्रवृत्तिमयो व्याख्यातः । १९. कान्तयं० । तदानीं-तस्मिन् प्रयाणसमये, कान्तः-भर्तृभिः, प्रबंधाद्-आग्रहात्, दयिता:-वल्लभाः, मुहुः-भूयः, निवार्यन्त-निवारिताः। किं कुर्वत्यः ? सह व्रजन्त्यः-सार्द्धमागच्छन्त्यः । किं विशिष्टः कान्तः ? स्वस्वामिकृत्येषुस्वपतिकार्येषु, अधिकं दत्तं चित्तं-मनो यैस्ते तैः । कैः का इव ? यथा शैलैःपर्वतः, आपतन्त्यः-आगच्छन्त्यः, तटिन्यापो-नदीजलानि निवार्यते । २०. विषीद० । प्रियाल्या-प्रिय सख्या, इति प्रबोध्य-कथयित्वा, काचिद् गृहं निन्ये-प्रापिता। इतीति किं ? हे तन्वि ! त्वं मा विषीद-मा विषादं कुरु । त्वं आलयं गृहं, स्व-निजं, चर-व्रज, त्वं सार्जेनास्र:-सकज्जलवाष्पैः मुखं श्यामं मा कुरु । ते-तव, दयिता-भर्ता, श्वः प्रभाते, समेता-समेष्यतीति, पंचभंगोन्वयः। २१. वियोगतः । सख्या काचिन् मृगाक्षी स्वगृहमनायि-प्रापिता । किं कृत्वा ? तालवृन्तानिल:-व्यजनवायुभिः, चैतन्यं-संज्ञानं, आपय्य-अनाय्य । किं कुर्वती ? विसंस्थुलं-व्याकुलतया चीवराद्यसंभालनशक्तिपूर्वं यथा स्यात् तथा, प्राणपते:-भर्तुः, वियोगतः-विरहात्, पाणिधृतापि-हस्तधारितापि, पतंती भूम्यामिति शेषः । . २२. अमुंच० । काचित् प्रमदा सख्येरितापि-सख्या भणिताऽपि, उत्तरं नार्पयन्-न ददौ । किं विशिष्टा काचित् ? गलद्वाष्पजलाविलाक्षी-पतदश्रुजलम्लानलोचना, किं कुर्वती ? विमोहात्-मौढ्याद् इदं स्थानममुञ्चती-अत्यजंती। पुनः किं कुर्वती ? प्रेयःपदन्यास-प्रियचरणविन्यासं, अनुव्रजन्ती-अनुगच्छंती। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २३. का विप्र० । अथ-अनन्तरं, सख्या काचित्-वधूः, इति-अमुना वाक्येन, दधे धृता, कथमपि रक्षितेत्यर्थः । इतीति किं ? हे मुग्धे !, तव-भवत्या, अद्यअधुना, सकलानुभूति:-सर्वोनुभवः जायते । का विप्रयुक्तिः-को विरहः । चसमुच्चये, प्रणयः-स्नेहः, कीदृक्-किं स्वरूपः । विषण्णता-विषादवत्ता का त्वमियमितीरणेन-एवं भणनेन पुरा मुग्धासीति षड्भंगोन्वयः।। अशोक० । काचिद् वधूलतेव अशोक-कंकेल्लिपादपं, आलंब्य-आश्रित्य; नेत्राश्रु जलैः इतीव सिषेच-सिक्तवती। इतीति किं ? एष प्रवृद्धः अशोक: सेकात्-सेचनतः, दयितागमेन-भर्तुरागत्या, मां अशोकां-शोकरहिता विधास्यते । २५. खिन्नेव० । काचिद् बाला विरहातिभारात् खिन्नेव-खेदवतीव, अतूर्ण एता- . आगता। किं कुर्वती ? पदे पदे गलद्भिः वाष्पजलैः-क्षरभिरश्रृंवारिभिः, मुक्ताफलैरिव . प्रेयपदन्यासरजांसि-प्रियचरणविन्यासधूली:, अवकिरन्तीवर्धापयंती। २६. कान्तस्य० । सख्या काचिदेवं संभाष्य-संबोध्य,' अवालि-वालिता। एवमिति किं ? हे बाले ! त्वमत्र स्थिता किं वितनोषिकिं करोसि ? हिनिश्चितं, त्वया-भवत्या, यातस्य-कृतप्रयाणस्य, कांतस्य-भर्तुः, पदवी-मार्गः, तावदलोकि-ददृशे, यावद् रजो-रेणुः, अंतरा-मध्ये, नाभूदिति चतुभंगोन्वयः । २७. दुरुत्त० । काचिद् बाला इति ईरतिस्म-एवमचीकथत् । इतीति किं ? हे प्रिय !, चेद्-यदि, अंतरा-मध्ये, आशातरी-इच्छानौका, न स्यात् तदा निमज्जने-ब्रुडने, को विघ्नो भवति । हे सखि ! मया भुजाभ्यां-बाहुभ्यां, दयिते-भर्तरि, प्रयाते-प्रयाणं कृतवति सति, अयं विरहांबुराशि:वियोगाब्धिः, दुरुत्तर:-दुरवगाहो वर्तते । २८. जहीहि । आल्या-सख्या, काचिद् वधूरिति संबोध्य-संभाष्य, गृहं नीता प्रापिता । इतीति किं ? हे सखि ! त्वं मौनं जहीहि-त्यज। त्वमात्मकृत्यंस्वकार्य, रचय-कुरु । हे मृगाक्षि !, त्वं सखीजने दृशं देहि, त्वं घस्रकुमुद्दशांवासरकरवावस्थां, दधासि-धारयसि । इति पंचभंगोन्वयः । २६. स्निग्धा० । अत्र-लोके, स्निग्धाभिः-स्नेहवतीभिः, सुलोचनाभिः-स्त्रीभिः एव जीवितनाथपृष्ठे-भर्तुः परोक्षे, संतप्यते-संक्लिश्यते, तिला: स्नेहभाजःतैलाढ्याः, किं न विमाः-न पीड्याः किंतु पीड्या एव । तेषां तिलानां खलः किंचनापि-किमपि, निःस्नेहत्वात् न मद्यः । इति त्रिभंगोन्वयः । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ पञ्जिका (सर्ग ) शतशः - बहुशतसंख्यान्, ३०. अथैक० । अथ - अनन्तरं, सेना मार्गान् - पथश्चकार—कृतवती । किं विशिष्टा सेना ? एकदिक्संमुखसंचरिष्णु:एकाशाभिमुखसंचरणशीला, केव ? स्वर्वाहिनी - गंगा इव शतशो मार्गान् करोति । किं विशिष्टा ? अन्तरुपेतशैलविभेदिनी - अन्तरालायातपर्वतघातिनी । पुनः किं विशिष्टा ? भारतकामचारा - भरतक्षेत्रे कामं - अत्यर्थं चारः - संचारो यस्याः, सेनापक्षे - चक्रवर्तीच्छाचारिणी । शैलविभेदिनी - इत्यत्र भूभृत्विभेदिनीतिपाठोऽवसातव्यः । भूभृन्महीधरे पृथ्वीपालावित्यनेकार्थसंग्रहे । भटैः - वीरैः दिगन्ता 1 ३१. विश्वंभ । तदीयः - भरतसंबंधिभिः, व्यानशिरेव्याप्यंत । किं विशिष्टैः भटैः ? धरित्रीं भुवनं नभः- आकाशं, मातुं - प्रमाणीकर्त्ती, प्रवृत्तैः - प्रसृतैरिव । पुनः किं विशिष्टैः ? विश्वंभराव्योमचरैःभूचरखेचरैः । पुनः किं विशिष्ट : ? स्वकरापितास्त्र :- स्वपाणिन्यस्तशस्त्रः । कथं ? समंततः - सर्वतः । ३२. अस्योद्य० । अस्य- भरतस्य, ध्वजिन्या :- सेनायाः, उद्यदातोद्यरवैःउच्छल वाद्यनिर्घोषैः, नाकलोकात् - सुरालयात्, स्वाहाभुजां संचयः -सदां समूहः, 'दूराद् आहूयत– आकार्यत एव । किं कृत्वा ? इत्युदीर्य - कथयित्वा । इतीति किं ? हे स्वाहाभुजां संचय ! भवदालयान्तः-स्वर्गमध्ये किं कौतुकमस्ति ?. ३३. महोष्ट्र० । ध्वजिन्यां - सेन यां, स कोपि कोलाहलोऽभवत् । येन - कोलाहलेन अटवीश्वापदजातियथैः गिरीणां गुहाः -कंदरा, भयादलीयन्त - आश्रीयन्त । किं' विशिष्टायां ध्वजिन्यां ? महोष्ट्रवामीशतसंकुलायां - महाकरभवे सरस्त्रीशतसंकीर्णायां । ३४. गन्धेभ० । अस्य - भरतस्य चम्वा - सेनया, तद् वनं आबभासे -शुशुभे । कि विशिष्टं वनं ? गन्धेभसिंदूरभरातिरक्तपथिद्रुमं - गंधद्विपसिंदूरातिशयाभ्यधिकाः पथिद्रुमाः - मार्गवृक्षाः यत्र तत् । उत्प्रेक्षते - चरिष्णु सन्ध्याभ्रं - चरणशीलसायंतनमेघं क्षपास्यं - रात्रिमुखमिव । कया ? धूलीनवमेघपंक्त्या - सैन्योत्थर - जोनववारिदया | ३५. दूरंग० । अथ - अनंतरं, सैनिकानां साकेतसौधाग्रशिरोप्यदृश्यं बभूवजायतेस्म । कथं भूतानां सैनिकानां ? दूरंगतानां । किमिव ? स्मरातुराणां कामव्याप्तानां चैतन्यं अतिशुद्ध - अतिनिर्मलं, अदृश्यं भवति । किं विशिष्टानां स्मरातुराणां ? असमाहितानां ध्यानादिसमाधिवर्जितानां । यथा Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३६. दन्ताब० । जनैः-प्रजाभिः, अस्य-भरतस्य, प्रयाणे-प्रयाणसमये, सेना जंगमकोशला-चलायोध्या, अमानि-मेने। कथंभूता? दंताबलः-हस्तिभिः, केलिनगोपपन्ना-क्रीडाशैलसहिता। पुन: किं विशिष्टा ? बृहदुभिः-महभिः, रथैः हर्योपपन्ना-गृहसंयुक्ता । पुनः किं विशिष्टा ? स्फुरद्ध्वजा-विराजमानकेतना। ३७. तुरंग । तुरंगमैः-अश्वैः, खुराप्रैः क्षुण्णं-संपेषितं, रजः-पांशु यावदन्तं आकाशं, उपैति-आगच्छति । किं विशिष्टैः तुरंगमैः ? अग्रसरैः-पुरश्चारिभिः, : पृष्ठचरैः गजैः मदांभोभरैः-दानवारिप्रकर्षैः कृत्वा रजस्तावद् अधोरक्षिन्यग् अपात्यत । क: कैरिव ? भवी-भव्यः, पंकैः-पातकैरिव । भविपक्षे अनन्तं मोक्षं । मदाः जात्यादयः । ३८. पुरस्स० । तुरंगिभिः-सादिभिः, पुरस्सरै:-अग्रस रैः, इति जनानां. पच्छतां प्रश्नविधायिनां, ऊचे-बभाषे । इतीति किं ? भो तुरंगिणः ! बलं-कटकं पृष्ठे वैत्यागच्छति । पृष्टचरैरपीदमेव जनानामूचे । जनानां पुरो-अग्रे, बहुसैन्यमस्ति वा प्राक्-पूर्वतो बहुसैन्यमस्तीति संनिबोधः-ज्ञानं नो बभूव । . इति षड्भगोन्वयः । ३६. कण्डय० । करीन्द्र :-गजराजैः, पथिभूरुहाणां-मार्गवृक्षाणां, त्वक् छल्ली उन्ममंथे-उदच्छेदि । किं कुर्वाणः ? करटं कंडूयमानैः-कंडूयां विदधानः । कैः केव ? चारुदशां-स्त्रीणां, विलासै :-विभ्रमैः धर्मस्थितिः-चारित्रसीमा यथा उन्मथ्यते । किं विशिष्टः ? अधिकप्रौढितया-अधिकप्रपंचतया, प्रपन्नः संयुक्तैः । ४०. विद्याधरैः । विद्याधरैः व्योमपथः-आकाशमार्गः, जगाहे-विलोडयांचक्र, ततः-तदनन्तरं, निधानः वडवामुखं-पातालं जगाहे, भूचारिभिः-भूचरैः, भूमितलं जगाहे । सा चमूरेवं गंगेव त्रिमार्या-मार्गत्रये, बभूव-अजायत । प्रवति । अयननिम्नगापि-मार्गनद्यपि, तस्य-भरतस्य, बलं-कटकं, तस्य कामचारैः-यथेष्टसंचरणैः, सद्य:-तत्कालं, नवोढेव-नवपरिणितवधूरिव, विषीदतिस्म-विषादमाप्नोतिस्म । किं विशिष्टा अयननिम्नगा? रसस्यपानीयस्य, ऊनकत्वं-अल्पीयस्त्वं, तेन पंकैककालुष्यभर:-कर्दमैकमालिन्यातिशयः, तेनातिदीना-अतिकृशा। नवोढापक्षे-रसस्य शृंगाररस्य । तबलकामचारै:तस्य भर्तुः बलस्य-वीर्यस्य अत्यर्थबंधैः चारोबन्धावसर्पयोरित्यनेकार्थसंग्रहे । किं विशिष्टः तबलकामचारैः ? प्रवत्तितैः-प्रसृतः । ४२. नाव्या० । अस्य-भरतस्य, बलैः-सैन्यः कृत्वा नाव्या-नौतरणयोग्या, नदी Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्गह) सुप्रतरा बभूव । गहनं-तरुसंकीर्णं वनं, प्रकाश-प्रकटं, आसीत् । सलिलाशयाः-जलस्थानानि स्थलान्यभूवन् । किं विशिष्टस्य अस्य ? जयोद्यतस्य-वैरिविजयोद्यमवतः । क्रमाद्-अनुक्रमात् । ४३. सुषेण । सुषेणसैन्याधिपतिः-सुषेणनामा सेनानी राजानं समेत्येदं जगाद । हे राजन् ! स्वसैन्यं ललाटंतपसप्तसप्तेः-मध्यान्हीयातभानोः, तापात् विषीदति विषादं कलयति । क इव ? अंडजानां-पक्षिणां, व्रात:-समूह इव । ४४. बन्धूक० । हे राजन् ! त्वं बन्धूकपुष्पाणि-माध्याह्निकतरोः कुसुमानि, विका सवंती--विकस्वराणि, वीक्षस्व-विलोकय । किं विशिष्टानि ? सिन्दूरभरवत् छघि:-कांतिः येषा, तानि, किमिति वितर्के, स्मरवीरमुक्ताः एते बाणा वर्तन्ते । किं विशिष्टाः बाणाः ? वियोगिवक्षस्थलशोणिताक्ताः-विरहिहृदयस्थल रुधिरार्द्राः ।। ४५. तीक्ष्णांशु० । हे राजन् ! त्वं मृगाक्षीरिव लताः-वल्ली:, पश्य-विलोकय, किं कुर्वती: ? प्रेयसि सापराधे-सागसि सति, प्रसूननेत्रः-पुष्परूपनयनैः, मकरंदवाष्पान् विमुंचती:-श्रवंती:, कि क्रियमाणाः ? तीक्ष्णांशुतप्त्या-रवितापेन परितप्यमानाः । : ४६. लोलल्ल । हे राजन् ! आरात्-संनिधौ, त्वयाऽयं पांथजनो विलोक्यतां । कि विशिष्ट: पान्थजनः ? लोलल्लतामण्डपमध्यलीनः-चलवल्लीमंडपांतराश्रितः, उत्प्रेक्षते-निस्त्रिशसूनध्वजबाणघातभीत्या-निःकृपकामशरप्रहारभयेन, भीतः वस्त इव । पुनः किं विशिष्ट: ? परिलग्नतृष्ण:-व्याप्ततृषः । . ४७. अयं प० । हे राजन् ! त्वं उत्थाष्णुरजोभरत्वात्-उड्डीयमानपांसुप्रकर्षात्, त्वमिमं पशूनां समज-गवां समूह, पश्य-विलोकय । अयं पशूनां समजो लग्नतृष्णः सन्-कलितपिपासः सन्, सरस्तटं धावति । कथं ? समंतात्-सर्वतः । क इव ? कामीव । यथा कामी कान्ताधरबिम्बपित्सु:-पिपासुः, धावति । ४८. मद्धि० । हे राजन् ! भवता तत्-तस्माद्धेतोः, अयं जलाशयः नोज्झनीयः-न त्याज्यः। यदयं जलाशयः मरन्दलक्षात्-मकरन्दव्याजात्, सरोजनेत्ररिति रोदितीव । इतीति किं ? ममेषा ऋद्धिः-संपत्, कृतार्था-कृतकृत्याननाऽभवत् । मकरंदे मरंदोऽपि-इति शब्दप्रभेदे । ४६. हस्त्यश्व० । हे राजन् । भाराधिरोपात् चलनक्रमाच्च हस्त्यश्वपृष्ठ्या-गजहय बलीवनि पतंति भूमाविति शेषः । महोक्षवर्गश्च श्रम-खेदं, आबिति Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ किं विशिष्टो महोक्षवर्ग : ? आवहति । पल्वलदर्शनोर्ध्वकृतग्रीवः । भरतबाहुबलि महाकाव्यम् नीराशयोदञ्चितकन्धरः 1 ५०. स्वेदोद० । हे राजन् ! प्रसह्य- हठात् वनं - अरण्यं तवातिथ्यविधि-भवत्प्राघूर्णकत्वविधानं, विधातुं - निर्मातुं, स्वसैनिकानां - स्वभटानां स्वेदोदबिन्दून्परिस्वेदांबुकणान्, नुदति-व्यपनयति, केन कृत्वा ? प्रफुल्ल पद्माकरमारुतेनविकचकमलाकरवायुना, कथं ? अधिभालपट्टे - ललाटपट्टमधिकृत्य । ५१. आयोज० । हे राजन् ! त्वया आयोजनं चतुः क्रोशप्रमाणं भूमिरपि उल्लंघे । सर्वेऽपि चक्रवर्तिनो योजनमात्रमेव चलंतीत्यागमः हे कथमद्यापि सेनानिवेशः - सैन्यावस्थितिः, न क्रियते न विधीयते । महोनिधिःभासां निधानं, भानु: - श्रीसूर्य:, क्षणं-मुहूर्तं किं न विश्राम्यति । किं कृत्वा ? मध्यस्थतां-माध्यान्हिकावस्थां एत्य प्राप्य, पश्य - विलोकय, मध्याह्नसमये भानोरप्यवस्थितिः दृश्यते, कथं न भवतः । इति चतुर्भंगोन्वयः । व्यतीत: - राजन् ! ५२. इतीप्सितं । स नृपाणां प्रथमः भरतः तस्य - बलाधिपस्य सुषेणनाम्नः सेनाधिपते रितीप्सितं सेनानिवेशं स्वीचकार - अंगीकरोतिस्म । हि यतः दिवसेश्वरेणभानुना, अनूरुकृत्यं - अरुणसारथेः कार्यं दिवसाग्रभागे - प्रभाते, अलंघनीयंअनतिक्रम्यं । ५३. सैन्यस्य । तदा तस्मिन् समये, अवतीर्णस्य - उत्तीर्णस्य, सैन्यस्य – कटकस्य, विपिनान्तरे-वनमध्ये, विहंगमानां पक्षिणां संवर्तसंक्षुब्धपयोधिकल्पः - कल्पान्तसंचलितसमुद्रसदृशः, घोषः - कोलाहलोऽभूत् । किं विशिष्टानां विहंगमानां ? वनस्थलीप्रोडुयनोत्सुकानां । 1 ५४. सेनानि० । तस्य - भरतस्य, बहुशः - भूयांसः, सेनानिवेशा: बभूवुः । कथं ? नितान्तं-अत्यर्थं । किं विशिष्टाः सेनानिवेशा: ? पुरीप्रदेशाधिकविभ्रमाढ्याःअयोध्योद्देशाधिकशोभाकलिताः । किं विशिष्टस्य तस्य ? एवं - अमुना प्रकारेण, प्रयातस्य चलितस्य । हि यतः, पुण्यवतां - धन्यानां पुरं नगरं वनं अरण्यं, योग्यमस्ति । ५५. स्वदेश० । स राजा भरतः, चारान् - हेरिकान् प्रजिघाय - प्रेषितवान् । कः कानिव ? वारिवाह: - जलदः, वारिप्रवाहानिव । किं कृत्वा ? स्वदेशसीमान्त - मुपेत्य - आगत्य च - पुनः, पताकिनीशेन - सेनान्या, समं - सार्द्धं, रहो - विजने, मन्त्रयित्वा - आलोच्य | Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ञ्जिका. ( सर्ग ९ ) ४६३ ५६. करोति० । चराणामनुशाशनं किं कथयतीत्याह । नृपेण- भरतेन, इति ज्ञातुं चरा नियुक्ताः - आज्ञापिताः । इतीति किं ? तक्षशिलाक्षितीशः - बाहुबलिः किं करोति । किलेति सत्ये, तस्य- बाहुबलेः, सैन्ये - कटके, के वीरधुर्याः - भटधुरंधराः सन्ति । तस्य - महीशितुः, बलं कीदृशमस्तीति चतुभंगोन्वयः । ५७. श्वः कुत्र० । चक्री सेनानीं किं पुनः प्राह । हे सुषेणसेनाधीश !, श्वः - आगामीवासरे, ध्वजिनीनिवेशः -- कटकाधिवासः, कुत्र - स्थाने, भावी - भविता । कटकैः स्वदेशसीमा उल्ललंघे - व्यतीता । अतः परं अरातिदेशे - शत्रुविषये, मया गम्यं - गन्तव्यं । अरि विना- शत्रुमन्तरेण बलाबलव्यक्तिः - विक्रमाविक्रमस्पष्टता, न स्यादिति चतुर्भंगोन्वयः । 1 ५८. इतीरि० । अथ - अनन्तरं स सुषेणसेनाधिपः, भूपं भरतं, निजगाद - अब्रवीत् । किं विशिष्टः सुषेण सैन्याधिपः ? सदर्पः - सगर्वः पुनः किं विशिष्टः ? इतीरितःपूर्वोक्तप्रकारेण कथितः । महौजसां - महाबलानां साहस श्रीः किंचिन्नसमुदेति ? किन्तु समुदयं प्राप्नोत्येव । कि विशिष्टा साहसश्रीः ? आत्मपराऽविमर्शास्वपरविचाररहिता । ५६. कि काश्य० । हे क्षितीश ! दैन्यवता - कृपणत्वजुषा पंसा, किं काश्यपी - पृथ्वी, उपचर्या - गाह्या । साहसिभिः - साहसिकैः, वसुधा संगृह्यते - आदीयते । हरिः - सिंहः, एकोपि दानार्द्र कपोलभित्तीन् - मदजलाविलकटप्रदेशान् गजान्, हेलया - लीलया, किं न हन्ति, किन्तु अनुघातयत्येव । ६०. एषां भ० । हे राजन् ! एषां वक्षमाणानां भटानां भवन्निदेशः - भवदाज्ञा, महांतरायी - महाविघ्नोस्ति । किं विशिष्टानां भटानां ? समरोत्सुकानां - रणोत्सुकानां । रवेः सूर्यस्य, पुरः - अग्रे तदीयपादाः - सूर्य संबंधिकिरणाः, भूमीभृदा कान्तिनिबद्ध कक्षाः - पर्वताक्रमणप्रह्वीभूताः, किं न सन्ति ? अपि तु सन्त्येव । ६१. तवानु० । हे भरताधिराज ! अयं बाहुबलिः, युगादे: - वृषभध्वजस्य, तनयः - सुतः, तवानुजः-भवल्लघिष्टबान्धवः, तेन ममायमूहः- विचारः, वर्त्तते । चेदु-यदि, मम कः सांयुगीन :- रणे साधुः अयं बाहुबलिः, नाधुनास्ति । ते तव, निदेश:आज्ञा, मम विमर्श: - विचारोस्ति नान्यः । इति पंचभंगोन्वयः । ६२. हठाद्० । हे राजन् ! रिपूणां शत्रूणां पुंसां - पुरुषाणां, सुखाय - शर्मणे भवति हठात् क्रान्ता पुंसां सुखाय भवति । । विशेषात् वसुधा - धरणी, हठात् क्रान्ता, केव ? मृगाक्षी - वधूरिव । यथा वधूः धीरः- धैर्यवान् समरोत्सवे - रणमहे, Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ भरतबाहूब लिमहाकाव्यम् उत्संगं - अंक, एते - आगते, किं कातरत्वं - दीनत्वं विदधाति - करोति ? न करोतीत्यर्थः । पश्य स्व० । हे नरेश ! त्वं स्वसेनां - निजकटकं, पश्य - विलोकय । किं विशिष्टां स्वसेनां ? हरिदुः प्रधर्षां - शक्रदुःसहां, त्वं दोष्णोर्युगे - बाहुयुगले, दृशं दृष्टि, देहि-वितर । स बाहुबलिस्तावद् बली - बलवान् यावत् त्वया न ईये - नागतं । केन ? विरोधिक्षितिभंजनेन-वैरिवसुधाभंगेन । इति चतुभंगोन्वयः । ६४. ममाद्भुतं० । हे सार्वभौम ! - चक्रवत्तिन् !, अतः परं त्वं मम वाक्यं स्वीकुरुसंगृहाण । किं विशिष्टं वाक्यं ? अद्भुतं - आश्चर्यकारि, हे राजन् ! इंतः स्थानात् मया चारवराः - हेरिक पुरुषाः, सेनानिविष्ट्य - सैन्यनिवेशाय, निजबुद्धित:स्वबुद्धेः, ह्यो - गतवासरे, नियुक्ताः - संप्रेषिताः सन्ति । ६५. तैरेत्य० । हे राजन् ! तै:- चरैः, एत्य - आगत्य, अहमेवं विज्ञापितः - विज्ञपयांचक्रे । कथंभूतैस्तैः ? सानन्दमनोभिः - सहर्षचित्तैः । पुनः किं विशिष्ट: . ? प्रियसत्यवाक्यैः - मनोज्ञाऽवितथवचनैः । एवमिति किं ? उत्तरस्यां दिशि एक दावं वनमस्ति । किं विशिष्टं दावं ? चैत्ररथाद्- धनदवनाद्, अनूनं - अधिकं । पुनः किं विशिष्टं वनं ? अदूरगं - इतः स्थानात् समीपगं । ६६. स भूरुहो० । हे राजन् । जगत्त्रयेऽपि त्रैलोक्येऽपि, स भूरुहः - तरुः, नास्ति, योऽस्मिन् कानने-वने, विवृद्धि नागात् न लभतेस्म । कस्मिन् क इव ? सर्वविदि-भगवति, गुणोद्भव इव । यथा गुणोत्पत्तिः सर्वविदि वृद्धि कलयति । किं विशिष्टे कानने ? चारुफलोल्लसच्छ्रीभरभासुरांगे - मनोज्ञफलशोभातिशयप्रदीप्यमानांतिके । सर्ववित्पक्षे - फलं - लाभः, अंगं - शरीरं । फलं हेतुकृतेजातिफले फलैकसस्ययोः । त्रिफलायां च कक्कोले शस्त्राग्रे व्युष्टिलाभयोः - इत्यनेकार्थसंग्रहे । ६७. गीर्वाण० । हे राजन् ! यत्र वने नितांतं - उत्कर्षतः वृक्षाः अनेकधा: - बहुप्रकाराः, विभान्ति - शोभन्ते । किं विशिष्टाः वृक्षाः ? गीर्वाणविद्याधरसुन्दरीणां संकेतलीलानिलयाः-संकेतक्रीडास्पदानि । पुनः किं विशिष्टाः ? प्रसूनचापातपवारणानि - कामछत्राणि । ६८. पुष्पद्र ु० । हे राजन् ! इह-अस्मिन् वने, रोलंबराजिः - भ्रमरश्रेणिः, कलापिनां - मयूराणां, कादम्बिनी भ्रान्ति - मेघमालाभ्रमं, आतनोति - विदधाति । किं विशिष्टा रोलंबराजिः ? जलदालिनीला - घनततिश्यामला, किं कुर्वती ? पुष्पद्रुः शाखा उपरि-कुसुमद्रुमशिखोपरिष्टात्, भ्रमंती - चलंती, किं विशिष्टान कलापिनां ? नृत्यरसोत्सुकानां-नाट्यरागोत्कंठितानां । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्गद) ४६५ ६६. यदीय० । हे राजन् ! शक्रोऽपि-वासवोऽपि, इति शंका हृदये-मनसि, बित्ति धरति, इतीति किं ? इदं किं नंदनोद्यानं ममास्ति ? किं कृत्वा ? दूरात्विप्रकृष्टतः, यदीयसौन्दर्य-यस्य रामणीयकं, उदीक्ष्य-विलोक्य, किं कुर्वाणः ? विमानेन नभ:-गगनं, विगाहमानः । ७०. श्रीमयु० । हे राजन् ! तदन्तरे-तस्य वनस्यांतराले, श्रीमयुगादे:-जगदीश्व रस्य, महान् विहार:-प्रासाद एकोऽस्ति । किं विशिष्टो विहारः ? कलधौतरूप:' स्वर्णाकृतिः । उत्प्रेक्षते-जाम्बूनदाद्रेः-मेरोः, वज्रभिन्न:-पविदारितः। कि शृंगदेश इव ? ७१. महाम० । हे राजन् ! अयं प्रासाद: आरामलक्ष्म्या:-काननकमलायाः, कल्याणताडंक:-स्वर्णकुंडल इवास्ति । किं विशिष्टोऽयं प्रासाद: ? महामणिस्तंभविराजितश्री:-बृहदुत्नस्तंभविभ्राजितशोभः । किं विशिष्टाया आरामलक्ष्म्याः ? तरुराजाः-तरुश्रेष्ठाः, तेषां राजिः-पंक्तिः, तया विराजमानाः-शोभमाना अवयवाः यस्यां, एतादृशी अंगयष्टिर्यस्याः सा तस्याः। ७२. नवीन० । हे राजन् ! विहारभित्तिः काननभूरुहाणां-वनवृक्षाणां, आत्मस्वरूप व्यवलोकनण्य-स्वस्वरूपदर्शनार्थं, मुकुरैकलीलां-दर्पणकविलासं, धत्तेतरांअतिशयेन बित्ति । किं विशिष्टा विहारभित्तिः ? नवीनचामीकरनिर्मलाभा नूतनस्वर्णविशदकांतिः । -७३. जीवो य० । हे राजन् ! अयं प्रासादराज: तथा युगादिबिम्बेन उच्चैः परिभाति यथा पुण्यभरेण-सुकृतातिशयेन, जीव:-आत्मा परिभाति, यथात्मना-जीवेन, देहः परिभाति । यथाब्जेन-कमलेन, तटाकः परिभाति । ७४. मुक्ताव० । हे राजन् ! काननराजलक्ष्म्या मंदाकिनी-गगा, मुक्तावली-हारलता, ___ कंठगतेव भाति । किं कुर्वत्या ? चरिष्णुचन्द्रातपगौरवीचिच्छलाद्-चंचत् कौमुदीश्वेतकल्लोलव्याजात्, शीत कान्ति-चन्द्रं, हसन्त्या इव-स्मयमानाया इव। ७५. डिण्डीर० । हे राजन् ! यत्तीरगता:-यस्या गंगायाः तटमाप्ताः संतो राजहंसा नितान्तं-अत्यर्थं, विभांति-शोभते, उपमीयंते-डिंडीरपिण्डा:-फेनप्रकारा इव । तत्र-तीरदेशे, सेनानिवेश:-सैन्यसंस्थापन, सदोचितः-सर्वदा योग्योस्ति । यथा पुण्यवतः-सुकृतिनः, स्वः-स्वर्गलोकः, युक्तः स्यात् । इति त्रिभंगोन्वयः ।। ७६. इत्थं वचः । राजा-भरतः, तदैव-तस्मिन्नेव समये, अतः-स्वदेशत, सैन्यलोकः सह चचाल-प्रतस्थे। किं कृत्वा ? सैन्यपतेः इत्थं-पूर्वोक्तं वचो Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् निशम्य-श्रुत्वा, किं कर्तुं ? तं आराम-काननं, द्रष्टुं-विलोकयितुं, किं विशिष्टं . तं? प्रासादलक्ष्मीकमनीयताढ्यं-चैत्यशोभाभिरामतापूर्ण । ७७. वनं स० । नृपतिः-भरतः, परभुवं-शत्रुसीमावनिं, प्रतस्थे-चलितवान् । कि कर्तुं ? बलैः-कटकैः, सह-सार्धं, सप्रासादं वनं-सचैत्यं काननं, उपगंतु-उपतुं । किं विशिष्टो नरपतिः ? कृतोद्योग:-संविहितोद्योगः । पुनः किं विशिष्टः ? सागःक्षितिपतिमनःशल्यसदृशः-सापराधभूपालहृदयशल्यतुल्यः । पुनः किं विशिष्ट: ? सैन्येन्द्राग्रसरपरिनुन्नः-सैन्येन्द्राग्रगामिप्रेरितः, · सुधी:-विद्वान्, ' तादृक्कार्ये-तद्विधेऽर्थे, न विमृशति-न विचारयति । किं विशिष्ट: सुधी: ? पुण्योदयरुचि:-धर्माभ्युदयाभिलाषी। इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मेज्योध्यातक्षशिलाधिराजचरितश्लोकप्रथा पंजिका। . . नैपुण्यव्यवसायिपुण्यकुशलस्यास्यारविंदोद्गता, या तस्यामिति संबभूव नवमः सर्गोऽरिसीमांगमः । इति श्रीभरतबाहुबलिमहाकाव्ये पंजिकायां बाहुबलिदेशसीमाप्रयाणो नाम नवमः सर्गः । ---- दशमः सर्गः१. पताकि० । सा श्रीभरतेश्वरस्य पताकिनी-सेना, तक्षशिलाधिपस्य-बाहबले.. सीमांतरमाससाद-प्राप। किं कुर्वाणा ? शंकमाना, मुहुः-असकृत् । केव ? नवोढेव । यथा नवोढा वधूः विलासगेहं-वासगृहं, आसादयति । २. तत्कान। तदीयैः सैन्यः-भरतसंबंधिकटकैः, तत्काननान्ताः-तस्य वनस्य प्रदेशाः, अगम्यंत-प्राप्यंत । किं विशिष्टाः काननान्ताः ? सविभ्रमांकाः--वीनांपक्षिणां, भ्रमः-भ्रान्तिः, तेन सह वर्तमानांकः-उत्संगः स्थानं वा येषां, ते। क: के इव ? कामिनीनां विलासैः प्रतीका:-अवयवाः, यथा गम्यन्ते । किं विशिष्टाः प्रतीकाः ? तारुण्यलावण्यजुषः-यौवनलवणिमभाजः । कथं ? शनै: मन्दं मन्दं । प्रतिपक्षे-सविलसभूषा वा सशोभालक्ष्माणः । ३. रजस्व० । वाहै:-अश्वः, भूमि परिहाय-त्यक्त्वा, नभ:- गगनं, इतीवललंबे शिश्रिये । किं विशिष्टै: वाहैः ? पवनातिपातैः-वायोरतिगामिभिः । इतीति किं ? एताः काननवल्यः-वनलताः, एषां-सैनिकानां, अदृश्या:-अनालोकनीया मा Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका ( सर्ग १०) ४६७ भवन्तु । किं विशिष्टाः काननवल्ल्यः ? रजस्वलाः - रेणुमत्यः, रजस्वलाःपुष्पवत्यः किलेति सत्ये अदर्शना भवन्ति । ४. कदय० । तदानीं - तस्मिन् समये, सा वनराजिः वयसां विरावैः - विहंगमानां विसवैः, गाढं यथा स्यात् तथा चुक्रोश - रुरोद । कथं भूता सा वनराजि: ? तदीयैः - तस्य भरतस्य संबंधिभिः, बलैः - कटकैः, उच्चैः अत्यर्थं, कदर्थितापीडिता । पुनः किं विशिष्टा सा ? हठात्तशाखाकबरी - बलाद् गृहीतदुशाखावेणी । केव ? नवोढकन्येव यथा नववधूः, तदीयैः - तस्य नायकस्य संबंधिभिः, बलैः - ओजोभिः, कदर्थिता सति गाढं क्रोशति । ५. चमूच० । सा वनराजलक्ष्मीः केतककंटकः, युवः - तरुणान् तुतोद - व्यथतेस्म । किं विशिष्टान् यूनः ? चमूचरान् - सैन्यवर्त्तिनः । किं कुर्वतः ? किलेति निश्चयेन, विमर्दात्-संघट्टात्, उपरिष्टात् - उपरितः पततः । किं विशिष्टैः केतक कंटकैः ? अत्यन्तकठोरधारैः - अत्यर्थ कठिनाग्रभागैः । कैरिव ? नखैरिव । ६. फुल्लल्ल० । केचिद् - वीराः, फुल्लल्लतामण्डपमध्यमीये - व्यकचदुवल्लीमंडपांतरे, निषेदुः - निषीदतिस्म । किं विशिष्टाः सैनिकाः ? महीरुहस्कंधनिबद्धवाहाः - द्रुमस्कंध नियंत्रिताश्वाः । किं विशिष्टे फुल्ल० ? निलयाभिरामे - वेश्ममनोज्ञे । के कस्मिन्निव ? सुराः स्वर्गवनांतराले - नंदनवनाभ्यन्तरे यथा निषीदति । ७ श्रान्ताः प्र० । केचिन् महाभुजः- दोष्मंतः सुखेन संविविशुः - निद्रां चक्रुः । केषु ? प्रसूतास्तरणे- पुष्पश्यतीयेषु किं विशिष्टाः महीभुजः ? श्रान्ताःकिंचित् क्लान्ताः । के कस्मिन्निव ? नागाः - गजाः सरस्याः - तटाकस्य, नीरदेशेतटप्रदेशे इव यथा संविशति । किं विशिष्टे तीरदेशे ? महीरुहच्छायनिवारितोष्णे - तरुच्छायनिषिद्धतापे, समासे "बाहुल्यमिति वचनात् । केचित् । अथ - अनन्तरं वासरयौवने - मध्यान्हे, केचिद् वीराः तरुच्छायंद्रुमतलं, उपेत्य - आगत्य, विशश्रमुः - विश्राममापुः किं विशिष्टाः वीराः ? मरुद्भिः- वायुभिः, तनूकृतस्वेदलवाः - अल्पीकृतपरिस्वेदाः । कथं मरुद्भिः ? लतावलीनर्तनसूत्रधारैः - वल्लीव्रजनाटनपाठकैः । ६. मन्दाकि० । केचिद् - वीराः, मंदाकिनीतीरलतालयेषु - गंगाजलासन्नवल्ली मंडपेषु, निलीनाः - अध्युषिताः । किं क्रियमाणाः ? परितप्यमानाः - आतपक्लिश्यमानाः । पुनः किं चकृवांसो ? विहारं - प्रासादं परितः सर्वतः, पटालयान्वस्त्रालयान् वितत्य - विस्तीर्य, केऽपि वीरा निषेदिवांसः - तस्थिवांसः । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १०. विलासि । केचित् तुरगाधिरूढा:-सादिनः, आलेख्यकृताः-चित्रापिता इव, निषेदुः-तस्थुः । किं कुर्वतः ? विलासिनीविभ्रमचारुलीला:-कान्ताकटाक्षमनोज्ञविलासान्, स्मरंतः-स्मृतिमापादयंतः, किं कृत्वा ? सुरशैवलिन्या:-गंगायाः, वीची:-तरंगान्, विलोक्य-दृष्ट्वा । कथं ? द्राक्-शीघ्र । ११. कालागु० । मधुपा:-भ्रमराः, पुष्पद्रुमान् विहाय-त्यक्त्वा, कालागुरुस्कन्ध निबद्धनागकटेषु-कृष्णागुरुतरुस्कंधनियंत्रितगजकपोलेषु, पेतुः-पतंतिस्म । नु इति वितर्के, कोऽपि ससंज्ञचित्त:-सचेतनमानसः, विशिष्टवस्तुप्राप्तौ प्रमाद्ये त्-.. प्रमादं कुर्यात् ? १२. दुर्वांक ० । वाहा:-तुरंगाः, सरितः-नद्याः, तटेषु-तीरेषु, विचेरु:-विहरंतिस्म । किं विशिष्टाः वाहाः ? दुर्वांकुरग्रासनिबद्धकामाः । तदा-तस्मिन् समये, सं . सैन्यलोकोऽपि, समग्रं-समस्तं, स्वस्वार्थचिंताविधि-निजनिजकार्यसंस्मृतिविधानं, आततान-करोतिस्म। १३. अथ क्षि०। अय-अनन्तरं, क्षितीश:-भरतः, नागाद्-गजाद, अवरुरोह उत्तीर्णवान् । किं कृत्वा ? दूरात् भगवन्निवास-जिनप्रासादं, विलोक्यदृष्ट्वा । अमीदृशानां-एवंविधानां पुरुषाणां, उचितक्रियासु-योग्यकर्मसु; कोऽपि किञ्चिन् नैपुण्यं आशंसति-निवेदयति ? किन्तु अमीदृशाः स्वयमेव विदंतीत्यर्थः। १४. ततः सः । ततः-तदनन्तरं, समग्रा अपि भूमिपाला:-राजानः, अस्य-भरतस्य, विधि-विधानं, चक्र:-कृतवंतः। किं विशिष्टाः भूमिपालाः ? यानावरुढा:वाहनोत्तीर्णाः । हि-यतः, अधीश्वराचीर्ण-राज्ञाचरितं कृत्यं सेवापरैः इह अलंघनीयं-नातिक्रमणीयं । किं विशिष्टं कृत्यं ? अशेष-समग्रं। १५. सर्वोत्तः । स राजा भरत: जिनराजवेश्म-प्रासाद, विवेश-प्रविशतिस्म, कि कृत्वा ? सर्वोत्तरासंगविधि विधाय-निर्माय । उत्प्रेक्षते-निवृतेः-सुखस्य, आस्य-मुखमिव । पुनः किं विशिष्टं ? अभिरुच्यं-मनोज्ञं । पुनः किं विशिष्टं ? सुवर्णभास्वत्कमनीयताढ्यं-कनकदीप्यमानसुंदरतापूर्ण, आस्यपक्षे-प्रधानाक्षरं । प्रदक्षि० । धराधिपः-राजा भरत., त्रि:-त्रिवेलं, प्रदक्षिणीकृत्य, युगादेः पंचांगनति-पंचांगप्रणिपातं, चकार । हि-निश्चयेन, तीर्थेशनत्यैव-भगवत्प्रणामेनैव, भूपाः-राजानोपि, नम्रभावं-नमनशीलतां, भजंति-श्रयंति । किं विशिष्टया तीर्थशनत्या ? शुद्धिमत्या-पावित्रशालिन्या, अत्र को भाव ? यश्च श्रद्धया तीर्थेशं प्रणमति, तं राजानोपि प्रणमंतीति रहस्यं । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग १०) ४६६ १७. न चाति० । भरताधिराजः पाणी-हस्ती, संयोज्य-योजयित्वा, इति वक्ष्यमाणः, पदैः-विभक्त्यन्तैः, तीर्थेशं-युगादिदेवं, तुष्टाव-स्तौतिस्म । किं विशिष्टो भरताधिराजः ? न चातिदूरान्तिकसन्निषण्णः-न दविष्ठनेदिष्ठतया स्थितः, जिनावग्रहप्रमाणस्थित्यवासीनः । किं विशिष्ट: ? ताररावः-उच्चस्वरः, किं विशिष्ट: पदैः ? अनेक:-बहुभिः, पुनः किं विशिष्ट: ? प्रतीतैः-प्रतीतिमभिः । १८. भवं ति० । भरतः तीर्थशस्तुतिपदान्येवमाह । हे त्रिविश्वाय॑ पदारविन्द ! त्रैलोक्यपूज्यचरणकमल ! त्वमेव भविन:-भव्यस्य, आधार:-आलंबनमसि । किं चिकीर्षोः ? भवं-संसारं, तितीर्णो:-तरीतुमिच्छोः । त्वमेव तमस:पापात्, त्रिलोकीं पाता-रक्षिता । च-पुनः, भवतः-त्वद्, अन्यो न सृष्टेविधाताकर्ता कश्चिदस्ति । १६. त्वमेव० । हे जिनेन्द्र ! त्वमेव संसारदवाग्निदाहप्रशान्तये-भवदावानलताप प्रशमनाय, वारिदवारिधारासि । त्वमेव अघांबुराशेः-पापपयोधेः, शोषकदक्षत्वविधेः-संशोषणाद् विनीयपांडित्यविधानात्, पीताब्धिः-अगस्त्योऽसि । २०. त्वमेव० । हे लसत्प्रताप !-विलसत्तेजः !, त्वमेव नैयायिकवाकप्रपंच: तार्किकवचन विस्तारैः, प्रमेयोऽसि-प्रमितिविषया.ऽसि । किं विशिष्टः त्वं ? विभुः-सामर्थ्यवान् वा सर्वव्यापी। हे वेदान्तसिद्धान्तमताभितळ !, हि- निश्चितं, शिवसंपद:-महानन्दलक्ष्म्याः , भोक्ता-अनुभविता, त्वमेवासि । २१. त्वमेव० । हे जगदीश !, हे तात !, भवदुःखराशेः-संसारदुःखौघात्, मोक्ता मोक्षयिता, त्वमेवासि । कलिवारिराशि-विवादांभोधिं, त्वमेव तीर्णोऽसि । तमोहरत्वात्-दुरितध्वांतक्षयकारित्वात्, चन्द्रः प्रल्हादकारी त्वमेवासि । तरणिः-सूर्यः, त्वमेवासि । २२. दुरुत्त। हे युगादिदेव !, त्वयैव-भवतैव, कृत्वाऽस्माभिः, भववारिनाथ: संसारांभोधिरयं तार्यः । किं विशिष्टो भववारिनाथः ? कषाया:-क्रोधादयः तद्रूपा मीनाः-मत्स्यादयः, तैः सह वर्तमानः, सः । पुनः किं विशिष्ट: ? मनोभवोल्लोलभरातिभीष्मः-कामकल्लोलातिशयातिदारुणः, केनेव ? वोहित्थकेनेव-यानपात्रेणेव । पुनः किं विशिष्टः ? दुरुत्तरः-दुरवगाहनीयः । २३. स्तुत्वा० । भूपः-भरतः, अमन्दं-अतुलं, आमोद-हर्ष, उवाह-वहतिस्म । किं कृत्वा ? युगादिदेवं स्तुत्वा नत्वा, द्वौ चकारी तुल्यकालं द्योतयतः । कः कमिव ? प्रदोषः-संध्यासमयः, पीयूषधामानं-चंद्र, इव यथा वहति । किं विशिष्टं Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् पीयूषधामानं ? निस्तोकलोकस्पृहणीयभावं-समग्रलोककमनीयस्वरूपं । इदं विशेषणं आमोदस्यापि । तत्र पक्षे, भावोभिप्रायः । २४. करद्व० । नरेशो भरतः तीर्थेशगृहं-चैत्यं, ददर्श-पश्यतिस्म । किं विशिष्टं तीर्येशगृहं ? करद्वयीचालितचामरौघपांचालिकाशाश्वतताण्डवाढ्यं-हस्तद्वयांदोलितचामरपंक्तिशालभांजिनित्यनृत्यपूर्ण । पुनः किं विशिष्टं ? तुलीकृतप्राकचरमाद्रिलक्ष्मि-सदृशीकृतपूर्वाचलपश्चिमाचलकमलं । काभिः ? चन्द्रोपलश्याम- ... मणिप्रभाभिः-चन्द्रकान्तरत्नवैडूर्य रत्नकांतिभिः।। २५. विचित्र० । पुनः किं विशिष्टं तीर्थोशगृहं ? विचित्रचित्रापितचित्तचित्रं विविधालेख्यदत्तमानसाश्चर्य । पुनः किं विशिष्टं ? दीपप्रभाजालहसद्विमानंप्रदीपकान्तिसमूहपराभवदेवगृहं । पुनः किं विशिष्टं ? कल्याणशैलोन्नतजात-: रूपभित्तिद्युतिवातहतब्धकारं-सुमेरूत्तुंगस्वर्णभित्तिकान्तिकलापहतध्वान्तं । .. २६. शृंगाग्र० । पुनः किं विशिष्टं ? शृंगाग्रदेशापितहेमकुंभं-शिखरोपरिभागाधि रोपितस्वर्णकलशं । पुनः किं विशिष्टं ? स्फुरत्पताकापटकिंकिणीजुक्-चलद्ध्वजांबरक्षुद्रघंटिकायुक्त । पुनः किं विशिष्टं ? महामणिस्तंभ्रविनिर्यदंशुचरिष्णु चामीकरतोरणांक-महारत्नस्तंभविनिर्गच्छकिरणचंचत्कनकतोरणलांछन । २७. कल्पनु । पुनः किं विशिष्टं ? कल्पद्रुमच्छायतिरोहितार्करत्नोष्णरश्मि ज्वलनातिरिक्तं-मंदारवृक्षच्छायाछादितस्फटिकाश्मभानुप्रादुर्भूतवन्हिरहितं । पुनः किं विशिष्टं ? क्वचित् प्रदेशे, इन्द्रनीलैः-नीलमणिभिः, दत्तार्ककन्याजलवीचिशंक-समर्पितयमुनावारितरंगसंभ्रमं । किं विशिष्टः इन्द्रनीलः ? भूपीठनद्धेः-भूतलखचितैः ।। २८. चन्द्रोद० । पुनः किं विशिष्टं ? चन्द्रोदयोल्लासितमण्डपश्रि-उल्लोचोद्भासित मंडपविभ्रमं । पुनः किं विशिष्टं ? नेत्रोत्सवारंभिगवाक्षदेश-नयनमहविधायिवातायनप्रदेशं । पुनः किं विशिष्टं ? निर्णिक्तमुक्ताफलक्लप्तजालं विमलमौक्तिकविरचितजालं । इति पंचानामपि वृत्तानां अर्थो व्याख्यातः । २९. धन्यः स०। सार्वभौमः-भरतः, प्रसादकत्तु : प्रशंसां-श्लाघां, क्षोणिभुजां राज्ञां, समक्षं-साक्षात्, विनिर्ममे-कृतवान् । इतीति किं ? येन ईदृक् चैत्यमरचि-कारितं, स धन्यः । अपि-पुनरर्थे, तेन स्वलक्ष्म्याः फलमवापिलेभे । इति चतुभंगोन्वयः। ३०. विहार० । राजा भरत: विहारमध्ये-प्रासादान्तर्, विजहार-विचरतिस्म' किं कुर्वाणः ? रम्याणि-रमणीयानि, पदानि-स्थानानि, विलोकमान Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग१०) ५०६ निधालयन् । पुनः किं विशिष्टो राजा ? वसुन्धराधीशपरिच्छदाढ्य: राजपरिवारसहितः। क इव ? स्व मेदिनीनाथ इव-यथेन्द्रो, अमराद्रीमेरो, विहरति-क्रीडति। ३१. आसेदि० । राजा विद्याधरसाधुधुर्यं विलोक्य निम्नोत्तमकायदेश नमनशीलपूर्वकायभागं यथा स्यात् तथा ननाम-नमतिस्म । किं चक्रिवांसं । मणिहेममय्यां-रत्नस्वर्णरूपायां, वेद्यां-परिष्कृतभूम्यां, आसेदिवांसं-तस्थिवांसं । कस्यां कमिव ? मुक्तेः शिलायां सिद्धमिव । किं विशिष्टं विद्याधरसाधुधुर्यं ? अवेदेषु-सिद्धेषु, अवघृतं-आरोपितं, अवधान-समाधान, येन, असो, तं । सिद्धपक्षे-न वेदेषु पुंस्त्रीनपुंसकेषु समारोपितप्रणिधानं । पुनः कि विशिष्टं ? अन्तर्-मध्ये, महोभर:-तेजोतिशयः, तेन उद्दीपिता-उद्योतिता, दिविभागा:आशांताः येन असौं, तं। ३२. कल्याण । पुनः किं विशिष्टं ? स्थिरं-निश्चलं। कमिव ? सुवर्णाद्रिः सुमेरुशेलमिव । पुनः किं विशिष्टं ? अतितुंग-अत्युच्चताभाजं । किं कुर्वन्तं ? कल्याणगौरं-सुवर्णपीतं, वपुः-शरीरं, उद्वहंतं-दधानं । पुनः किं विशिष्टं ? मंदाकिनीवीचिभरातिगौर – गंगाकल्लोलचयात्युज्वलध्यानद्वयी-धर्मध्यानशुवल ध्यानयुगल्यां प्रापिता चित्तवृत्तिर्येन असौ, तं । ३३. ललाट० । पुनः किं विशिष्टं ? ललाटपट्टोन्नतिमत्त्वसूचिभागश्रियं भालोन्नत्यधिकभाग्यलक्ष्मीकं । पुनः किं विशिष्टं ? भासुरदीप्तिमन्तंदेदीप्यमानकान्तिमनोज्ञं । पुनः किं विशिष्टं ? मुनिस्थिते:-मुमुक्षुमर्यादायाः, दीपं । कः ? आशान्तविसारिभिः-दिगंतप्रसारिभिः. तेजोभिः, अतिदीप्रंअत्यंतभास्करं, द्राक्-शीघ्र। ३४. युवान। पुनः किं विशिष्टं ? युवानं-तरुणं । पुनः किं विशिष्टं ? इन्दीवरपत्रनेत्रं-कुवलयदलनयनं । पुनः किं विशिष्टं ? आजानुबाहुं-जानुविलंबिभुजद्वयं । पुनः किं विशिष्टं ? धृतिकेलिसद्म-संतोषक्रीडागृहं । पुनः किं विशिष्टं ? शृंगारजन्माधिकरूपलक्ष्म्याः-कामाधिकररूपश्रियः, वारां निधिसमुद्रं । पुनः किं विशिष्टं ? वारितवैरिवेगं-दूरीकृतशत्रुप्रवाहं । ३५. तृणीकृ० । पुनः किं विशिष्टं ? तृणीकृतस्त्रैणरसं । पुनः किं विशिष्टं ? शान्तस्य रसस्य-नवमस्य रसस्य, नवराजधानी, इति पंचानामपि वृत्तानामों व्याख्यातः। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३६. नत्वाऽथ० । अथ-अनन्तरं, भूपो भरतः, साधु-मुनि, नत्वा-नमस्कृत्य, पुरोधरोत्संग-मुनेरने धरापीठे यथा स्यात् तथा निषसाद-तिष्ठतिस्म । कि विशिष्टो भूपः ? अनूनभक्तिः-अहीनश्रद्धः, इह-अस्मिन् लोके, संतः-महान्तः, प्रभुत्वाद्-आधिपत्याद्, औचिताधानविचक्षणत्वं-योग्यताकरणचातुर्य, न विस्मरन्ति । ३७. प्रज्ञाव० । चक्री भरतः, तं-मुनि, ऊचे-उक्तवान् । कथं भूतः चक्री ? . प्रज्ञावतां-मतिमतां, प्राग्रहरः श्रेष्ठः । किं कृत्वा ? पुरावलोकात्-पूर्वनिभाल-.. नात्, उपलक्ष्य-ज्ञात्वा। हि-यतः, मनस्विनः-मेधाविनः, दृष्ट-आलोकितं . श्रुतं-आकणितं, वस्तु न विस्मरन्ति । किं विशिष्टाः मनस्विनः ? सर्वविदां तुल्याः-सर्वज्ञकल्पाः। ३८. दृष्टः पु० । हे विद्याधराधीश ! मया त्वं नमेर्महीपतेरनीके-कटके, पुरावलो कितः। कस्मिन् ? विजयार्द्धशैले-वैताढ्यगिरौ, मम भटा:-वीरा, त्वद्भुज-. चंडिमान-भवद्दोदंडचंडतां, संस्मृत्य-स्मृतेविषयतामानीय, अद्यापि शिर: मूनिं, धुनंति-कंपयंति। ३६. असौ त्व० । हे विद्याधरराजर्षे ! त्वदीयौ अंसी विजयप्रशस्तेः स्तंभावभूतां बभूवतुः । क्व ? भरतार्धशैले-वैताढ्ये। किं विशिष्टौ अंसौ ? सर्वत्रसमस्तदेशेषु, विद्याधरराजलक्ष्मीकरेणुकासंयमनाय-विद्याभृत्भूपश्रीद्विरदवधूबंधनाय, सज्जौ। ४०. युवासि० । हे विद्याधरमेदिनीश:-हे खेचरंराज !, त्वं युवासि-तरुणोसि । ते तव, कुतः-कारणात्, वैराग्यरंगः समभूत्-संजातः । हि-यतः, रसाधिराजपारदं, विना कुतः अर्जुनस्य-स्वर्णस्य, सिद्धिर्भविष्यति-भवित्री। किं विशिष्टा सिद्धिः ? अनघा-निर्मला इति त्रिभंगोन्वयः। ४१. विद्याभृ० । विद्याभृतामीश !, अहं ते-तव, किं वदामि-कथयामि । त्वयैव भवतव, स्वजन्मनः फलं, प्रापि-लब्धं । अत्र तारुण्ये मादृशैः,-मत्सदृशैः, हदा-मनसाऽपि, यद् अवाह्य-न वोढं शक्यं । कैरिव ? स्थलैरिव । यथा स्थलैःमरुभिः, अंभः-पानी, न वाह्यते-न धार्यते । केन कृत्वा ? सरसीवरेण-तटाकेन । इति चतुर्भगोन्वयः । ४२. केपीह० । हे मुने ! केपि जनाः, इह-अस्मिन् लोके, असत:-अविद्यमानान् भोगान्, कमंते-वांछंति । केचित् सतोऽपि भोगान्, परिहाय-परित्यज्य, शान्ताः Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग११) शमं प्राप्ताः। तेषां पुरुषाणां मध्ये अपूर्वे सुरराजवंद्याः स्युः । अपूर्वेअप्रथमा, अत्र वृत्ते प्रथमं भोगवांछका उक्ताः, तदन्ये त्यागिनः । कैवल्यवधूःमुक्तिरामाऽपि तानेव-त्यागिनः इच्छेत् । इति चतुर्भगोन्वयः । ४३. धिगस्तु० । हे मुने ! येषां पुरुषाणां वैराग्यलीला लीलावतीभिः स्त्रीभिः, क्षणेन दलिता-दूरीकृता । किं कृत्वा ? मनोजन्मपिशाचसंगात्-कामप्रेतसंगमात्, मनः परिभूय-पराभवं प्राप्य, तदीयं मनो धिगस्तु। किं विशिष्टं मनः ? तृष्णातरलंलिप्साचपलं । ४४. अंगार० । हे मुने ! त्यागी-इन्द्रियादिनिग्रहवान्, केनापि पुंसा नावमाननीय: नावज्ञेयः, अशेषैः । तत्-तस्मात् कारणात्, अत्रभवान् श्लाघनीयः-प्रशस्यः । तत् किं ? त्वं तपसां-धर्माणां, अंगारधानी-हसन्तिका । वधूः स्त्रियः, हित्वात्यक्त्वा, तपस्वित्वं-मुनित्वं, उरीचकर्ष-अंगीकृतवानसि । ४५. तारुण्य० । हे विद्याधरनाग !-खेचरश्रेष्ठः, ममापि हृदये किंचिद् अनिर्वचनीयं इति चित्रं-आश्चर्य न माति । इतीति किं ? इह-अस्मिन् अवस्थांतरे सकला अपि तारुण्यलीला:-समस्ता अपि युवत्वविलासाः, भीरुलताप्रतानः-स्त्रीतंतुवितानैः, नो त्वां रुधंति न वृण्वंति-इति त्रिभंगोन्वयः। ४६. शौर्याब्जि० । हे मुने ! अत्र तारुण्येपि त्वं शौर्याब्जिनीखंडसरोवरः सन् शक्तः-समर्थोसि। कस्मै ? कंदर्पशरापनुन्न्यै-कामबाणापनोदाय, भवान् सर्वत्र-गार्हस्थे यतित्वे, परां विभूषां-उत्कृष्टां शोभां, लभेत-प्राप्नुयात् । कः कामिव ? वासुदेवो लक्ष्मीमिव । . . ४७. त्वच्चित्त० । हे मुने ! शमांशुमाली-शांतरसभानुमान्, त्वच्चित्तवृत्तिप्रथमा द्रिचूलां-भवदीयमनप्रवृत्तिपूर्वाचलचूलिका, उपेत्य-आगत्य, समुदेति-उदयं प्राप्नोति । ततः-तदनंतरं, अस्मदीयं हृदयारविन्दं-अस्मन्मनःकमलं, विलोकनेन-दर्शनेन, विकासितां-विकस्वरतां, एति-प्राप्नोति । ४८. त्वमेव० । हे साधो ! त्वमेव शश्वद्-अनिशं, स्त्रणे-स्त्रीणां समूहे, तृणेनडादी, साम्यं-सादृश्यं, उपषि-लभसे । किं विशिष्टस्त्वं ? समलोष्टरत्न:सदशपाषाणमणिः । तत्-तस्माद्धेतोः, सिद्धिवध्वां-मुक्तिनार्यां, भवतः-तव, अभिलाषः अस्मिन् भवे-जन्मनि, अचिराद्-तत्कालतः, संसिद्धि एष्यतिप्राप्स्यति । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४६. गीर्वाण । हे मुने ! तु-पुनर्, अहं इति तीर्थनेतुः-युगादिदेवरय, गवां प्रपंच वागविस्तरं, पिबामि-अत्यादरेण शृणोमि। इतीति किं ? गीर्वाणनाथाद्इंद्रात्, सार्वभौमात्-चक्रिणोऽपि, जगत्यां-विश्वे, मुनेः-साधोः, अभ्यधिक सुखमस्ति । कस्मात् किमिव ? इंदुबिम्बात्-चन्द्रमंडलात्, पीयूषं अमृतमिव । ५०. इच्छामि। हे मुने ! अहं भवतोपपन्नां-त्वयादृतां, चाँ-गति, इच्छामि वांछामि, मे-मम,कर्माणि नो शिथिलीभवंति-न श्लथीस्युः । तैः कर्मभिरेव । बद्धः-नियंत्रितः सन् जीवोऽत्र दुःखं लभते। क इव। नागराज इव । यथा .' गजेन्द्रः पाशैर्बद्धो दुःखं लभते । इति चतुर्भगोन्वयः । ५१. यतोऽत्र० । हे मुने ! अत्र-संसारे, यतः-यस्मात्, सौख्यं तत एव दुःख स्यात् । यतः-यस्मादत्र संसारे रागः, तत एव तापो भवति । यतः यस्माद्ः अत्र संसारे मैत्री-प्रीतिः, ततः-तस्माद् एव वैरं-विरोधो भवति । ये पुरुषाः तत्संगिनः-रागादिप्रसंगवन्तः, न स्युः त एव धन्या:-कृतपुण्याः स्युः । . . ५२. कोपान । हे लोभमुक्त ! लौल्योज्झित !, काम-अत्यर्थ, त्वया क्षांतिजलेन क्षमांभसा, कोपानल:-क्रोधाग्निः, निर्वापित:-विध्यापित्तः। त्वया मार्दवसिंहनादात्-मृदुताक्ष्वेडातः, मदद्विपः-अहंकारगजः, अदलि-विदारितः तु-पुनः, भवता अदंभपरश्वधेन-निर्मायकुठारेण, शाठ्यतरु:-कापट्यद्रुमः, अदलि। ५३. अस्मादृ०। हे मुने ! संप्रति-अधुना, अस्मादृशाः-अस्मद्सदृशाः, राज्यलीलाकूलंकषाकूलमहीरुहन्ति-राजन्यविलासनदीतीरद्रुमायते, तत्र नदीतटे, चेद्-यदि, वयं भद्रभाज:-जीवितवंतः स्मः, तर्हि वयं तातप्रसादात् शिवगाःमोक्षगामिनः, भवद्वत्-त्वद्वत्, भविष्यामः, इति त्रिभंगोन्वयः । ५४. त्वया त० । हे मुनीश ! त्वया कस्यान्तिके-कस्य पार्वे, . तपस्या-दीक्षा, जगृहे-गृहीता ? तव शान्तहेतु:-नवमरसनिदानं को बभूव ? ते-तव, अत्र प्रदेशे,, कुतो हेतोः आगमः-आगमनं बभूव ? त्वं ममाग्रतः-मत्पुरस्तात्, सर्वसमस्तं, आशंस-कथय, इति चतुर्भगोन्वयः । ५५. एताव० । मुनिः एतावदुक्त्वा-इयत् कथयित्वा, क्षितीशे-भरते, विरते-निवृत्ते सति, वाचा-भारत्या, मुखं सूत्रयतिस्म-योजयति स्म । किं कुर्वत्या ? इति वक्षमाणं निजप्रवृत्तिप्रथिमानं-स्वचरित्रगरिमाणं, उच्चैः-अत्यर्थं, उद्वहन्त्याधारयंत्या। क इव ? इंदुरिव । यथा चन्द्र: त्विषा-कान्त्या, खं-आकाशं, सूत्रयति । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग१०) ५६. पृच्छाप० । हे भरताधिराज !, चेत् त्वं पृच्छापरः-प्रश्नविधानतत्परोसि, तहि त्वं सर्वां-सकलां, मत्प्रवृत्ति-मदीयां वार्ता, शृणु-आकर्णय । हि-यतः, पृच्छापराणां-प्रश्नविधायिनां, पुरतः-अग्रे, प्रणीयमानं-प्रोच्यमानं, वाक्यंवचनं, सुभगत्वं-सौभाग्यं, एति प्राप्नोति, इति त्रिभंगोन्वयः । ५७. भूभत्सु० । हे भूभृत्सुनासीर ! हे राजेन्द्र !, तदानीं-तस्मिन् समये, नमिः भगवत्पौत्रः, एकान्तराज्यं नरकान्तमेव-दुर्गतिनिश्चयमेव, बुबुधे-ज्ञातवान् । किं विशिष्टो नमिः ? सबन्धुः-सविनमिभ्रातृ । पुनः किं विशिष्ट: ? शूरिमवारिराशि:-शौर्यसमुद्रः । किं कृत्वा ? त्वया सम-साई, रणं-युद्धं, विधाय । ५८. मयापि० । हे राजन् ! वयं त्रयोऽपि विरक्ता:-गार्हस्थ्यविरागवंतोऽभवाम बभूविम । किं कृत्वा ? स्वनन्दनेषु-स्वसुतेषु राज्यं प्रतिरोप्य-निधाय, मयापि तन्मार्गः-जमिविनम्योः पंथाः, अयं, व्रतादानलक्षणः, उरीकृतः-स्वीचक्रे । कः केनेव ? तुषारभानु:-चन्द्रः चन्द्रातपेनेव । ५९. त्रयोऽपि० । हे राजन् ! वयं त्रयोऽपि युगादिदेवं-प्रथमजिनं, लीना: अश्लिष्याम। किं कर्तुं ? आकाशपथेन चरणकलीलां-विहारककेलिं, विधातुं-कत्तुं । किं कृत्वा ? राज्यभारसरोवरं परिहाय-त्यक्त्वा । के इव ? हंसा इव । यथा हंसाः आकाशपथेन चरणैकलीलां विधातुं लीयते । ६०. युगादि० । हे राजन् ! एवं-अमुना प्रकारेण, वयं त्रयोऽपि व्रतं-दीक्षा आचराम . अन्वतिष्ठाम। किं विशिष्टा वयं ? युगाक्देिवं द्रुतं-शीघ्र, एत्य-प्राप्य, 'बुद्धाः-पठितशास्त्राः । हि-यतः, जिनेन्द्रपादाः-तीर्थकृच्चरणाः, संसारतापातुरमानवानां-भवतप्तजनानां, अमृतावहाः मोक्षप्रापकाः स्युः । ... ६१. युगादि० । हे राजन् ! वयं त्रयोऽपि अमंद-आलस्यरहितं, आमोदं, अदध्म दध्महे । तु-पुनः, वयं त्रयोऽपि युगादिनेतुश्चरणारविन्दे-वृषभजिनपादांबुजे, अतिष्ठाम-स्थिता आस्म । किं विशिष्टा वयं ? सुनिश्चलाशा:-सुस्थिरकामाः । किं कुर्वाणाः ? म्रमरायमाणा:-षट्पदवदाचरंतः ।। ६२. अधीत्य० । हे राजन् ! वयं त्रयोऽपि श्रीजगदीश्वरेण-देवाधिदेवेन, सम-सार्द्ध, भूमीपीठे व्यहराम-व्यचराम । किं कृत्वा ? चतुर्दशापि पूर्वाणि अधीत्यपठित्वा । पुनः किं कृत्वा ? निःशेषसिद्धान्तरसं निपीय-आस्वाद्य । किं विशिष्टा वयं ? विनीताः-विनयवन्तः । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६३. सर्वत्र० । हे राजन् ! वयं सर्वत्रयोगेषु-मनोवाक्कायनिरोधाख्येषु अयतामहि प्रयत्नं कृतवन्तः । वयं तु पुनः शीलैः-साधुवृत्तः, ईशप्रणीतमार्ग-प्रभुकथिताध्वानं, आचराम-चीर्णवन्तः, वयं द्विधा बाह्याभ्यंतरभेदाभ्यां दुस्तपः आधराम-विरचितवंतः । वयं क्रियासु-आवश्यकीषु, आलस्यं नोपाचराम-नादृतवंतः। इति चतुर्भगोन्वयः । ६४. चामीक० । अथ-अनंतरं, अन्यदा-अन्यस्मिन् दिवसे, देवः-श्रीयुगादिः, लक्ष्मीप्रभोद्यानमलंचकार-विभूषयामास । किं विशिष्टो देवः ? चामीकरांभोजनिवेशितांहिपद्मः-कनककमलस्थापितचरणसरोरुहः । पुनः किं विशिष्ट: ? सपद्मः-सश्रीकः, पुनः किं विशिष्ट: ? गणनातिगानां गुणानां सदनं-गृहं। केषां क इव ? वारां-पानीयानां, अब्धिः-सागर इव। किं कारयन् ? दून् वृक्षान्, प्रणामयन्-प्रणिपातं कारयन् । कानिव ? वैरिचयानिव-शत्रुसमूहानिव। ६५. त्रिछत्र० । पुनः किं विशिष्ट: ? त्रिछत्रराजी-छत्रत्रयशोभी। पुनः किं विशिष्ट: ? समंतात्-सर्वतः, पुरुहूतहस्तविधूतबालव्यजन:-शक्रपाणिद्वयांदोलिचामरः । पुनः . किं कुर्वन् ? भानुविडंबि-सूर्यानुहारि, भामंडलं बिभ्रत्-धरन् । किं विशिष्टं । भामंडलं ? सधर्मचक्र-धर्मचक्रसहचारि । पुनः किं विशिष्टं भामंडलं? निहताघचक्र-हतपापसमूहं। ६६. अथान्य० । पुनः किं विशिष्ट: ? सर्वसुरासुरेन्द्रसंसेव्यमानांह्निः-सकलवैमानिक भुवनपतिनाथशुश्रूषमाणचरणः । किं विशिष्टं उद्यानं ? अनूनलक्ष्मि-अहीनशोभं । क इव ? अंशुमालीव । यथा भानुमाली नभोमध्यं अलंकरोति । इति विशेषकार्थः। ६७. प्रावोच० । हे राजन् ! अन्येधु-अन्यदा, अहमिति प्रावोच-अकथयं। किं कृत्वा ? नाभेयदेवं-युगादिदेवं, प्रणम्य-नत्वा, किं विशिष्ट नाभेयदेवं ? नतविश्वदेवं-प्रणतसकलसुरं। इतीति किं ? हे भगवन् ! भवन्निदेशातत्वदाज्ञातः, तीर्थेषु-शत्रुजयादिषु मदीयः कामोभिलाषोस्ति । केषु के इव ? गुणेषु-शौर्यादिषु, अर्थ इव । विद्यते गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः इति वचनात्। ६८. इतीरि० । हे राजन् ! किलेति सत्ये, युगादिदेवो मामिति जगाद-अचीकथत् । किं कृत्वा ? मे-मम, इति-पूर्वोक्तं ईरितं, विनिशम्य-श्रुत्वा । किं विशिष्टो युगादिदेवः ? लाभालाभादिविज्ञानविशेषदक्षः-प्राप्त्यप्राप्त्यादिपरिज्ञानकुशलः । इतीति किं ? हे वत्स ! त्वं तीर्थे-पुण्यक्षेत्रे, यदृच्छया-स्वेच्छया, चर। ६६. आज्ञां त० । हे राजन् ! जिनवन्दनाय-भगवन्नत्यर्थं, इह-अस्मिन् प्रासादे, अहं आगतोस्मि। किं कृत्वा ? तदीयां-तस्य जिनस्य संबंधिनी आज्ञा Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग १०) ५०७ अधिगम्य - प्राप्य । खलु - निश्चितं वाचंयमानां - यतीनां तीर्थयात्रा मनोज्ञं फलं भवति । इह-अस्मिन् यत्याचारविषये किमन्यदेवारित तीर्थयात्रातः किं भव्यमितरत् । ७०. इदं नवं० । हे राजन् ! चन्द्रयशोभिधेन - सोमयशसा, बाहुबलेः तनूजेन इदं नवं तीर्थमकारि-निर्मापितं, अहं तदीययात्राकृतये - तस्य यात्राविधानाय, आगांसमागमं । किं विशिष्टं तीर्थं ? चन्द्रामलं - शशांकोज्वलं । किं विशिष्टेन चन्द्रयशोभिधेन ? महाबलेन - महौजसा । ७१. युगादि० । हे नरेन्द्र ! अहं पुनः युगादिदेवांह्रिनिषेवणाय - नाभेयजिनचरणसंसेवनार्थं, तत्रैव लक्ष्मीप्रभोद्याने गंतास्मि । चकोरशावः - चंद्रिकाप्रियबालः, शशांकचन्द्रं, विना अन्यत्रकुत्रापि धृतिं - तुष्टि, नोद्वहेत - न प्राप्नुयात् । ७२. इतीर० । भरताधिराजः पुनः मुनीन्द्र - यतिपति, ववंदे - नमस्कृतवान् । कि कुर्वाणः ? इत्येवं भाषमाणः - ब्रुवाणः । इतीति किं ? हे मुनिन्द्र ! श्रीतातपादस्य - प्रथमार्हतः, मदीया नतिर्वाच्या । ७३. अभ्यच्यं० । ततः - तदनन्तरं भूभृत् - भरतभूपालः, स्वं निजं, आवास गृहं, इयाय - गच्छतिस्म । किं कृत्वा ? देवं - तीर्थेशं, अभ्यर्च्य - पूजयित्वा । साधुं प्रणिपत्य - नमस्कृत्य, तदनुं - तदनन्तरं सर्वेपि भूपाः स्वकेषु गेहेषु अवात्सुः - वसंतिस्म । कस्मात् ? नृपतेः - भरतस्य निदेशात् - आज्ञातः । भरतः, ७४. 'अथोत्सु० । अथ - अनन्तरं, अवनिचक्रशक्रः - राजा तत्रोद्याने आस्ततिष्ठतिस्म । किं विशिष्टोऽवनिचक्रशक्रः ? पूर्वनियुक्तचारावलोकनाय - पुराप्रेषितदूतविलोकनार्थं, उत्सुकः -सोत्कंठः । क इव ? पाथोधिरिव । यथा समुद्रः स्वकीय स्थितिक्रमे - आत्मीयमर्यादानुक्रमे, अध्यास्ते । किं विशिष्टः पाथोधिः ? प्लावितभूतलः - आक्रांत वसुधातलः । ७५. अनय० । अथ-अनन्तरं क्षितिपतिः - भरतः, इह-अस्मिन् उद्याने कियन्ति दिनानि - वासरान् अनयत् - गमयतिस्म । कि विशिष्ट: क्षितिपतिः ? स्फारकीत्ति : - महायशाः । किं चिकीर्षुः ? चरवदनसरोजात्- प्रेषितजनमुखकमलात्, बन्धोः - बाहुबलेः, किंवदन्ती : - प्रवृत्ती, बुभुत्सुः - जिज्ञासुः । पुनः किं विशिष्टः ? पीनपुण्योदयाढ्यः - पुष्टधर्माभ्युदयपूर्णः । पुनः किं विशिष्ट : ? कलितललितलक्ष्मीलक्ष्यलावण्यलीलः - ज्ञातमनोज्ञक मलालक्षलवणिमविलासः । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मेऽयोध्यातक्षशिलाधिराजचरितश्लोकप्रथा पंजिका। नैपुण्यव्यवसायिपुण्यकुशलस्यास्यारविंदोद्गता, या तस्यामिति जायतेस्म दशमः सर्गो वनावस्थितिः । इति श्रीभरतबाहुबलिमहाकाव्ये पञ्जिकायां सचैत्योद्यानाभिगमो नाम दशमः सर्गः। एकादशः सर्गः१. अथासौ० । अथ-अनन्तरं, असौ-भरतः, आस्थानमंदिरं तस्थौ-तिष्ठतिस्म । किं विशिष्टोऽसौ ? कल्पिताकल्पः-रचितवेषः । किं विशिष्टं आस्थानमंदिरं ? अनूनश्रीभरोद्दीप्रं-अधिककमलातिशयोद्दीप्रं । क इव ? वासव इव । यथा शक्रो विमानं तिष्ठति। . २. भूपाल० । पुनः किं विशिष्टमास्थानमंदिरं ? भूपालकोटिकोटीरपद्मराग प्रभाभरैः-राजशतसहस्रमुकुटलोहितरत्नतेजोतिशयः, रक्तांशु-शोणितकिरणं, : किमिव ? प्रभातमिव । प्रभाते रक्तांशु-रक्तादित्यं । कि कुर्वत् ? प्रादुर्भवत् प्रगटीभवत्, तमोधकार हरत् । ३. राकामु० । पुनः किं विशिष्टं ? उदंचच्चन्द्रोदयविराजितं-उद्बध्यमानउल्लोचप्रदीपितं । किमिव ? राकामुखमिव-पूर्णमासिप्रदोषमिव । किं विशिष्टं राकामुखं ? उदगच्छद् इंदूदयशोभितं । पुनः किं विशिष्टं ? रत्नमौक्तिकनक्षत्रतारामण्डलमंडितं-वैडूर्यादिमुक्ताफलधिष्ण्यतारकसमूहराजितं । ४. चारुवा० । पुनः किं विशिष्टमास्थानमंदिरं ? चारुवारवधूधूतचामरांशुकरंबितं कमनीयवारांगनांदोलितबालव्यजनद्युतिमिश्रितं। उपमीयते-सुधांभोधेःक्षीरसमुद्रस्य, क्षीरं-पानीयमिव । किं विशिष्ट क्षीरं ? शीतांशुकरचुम्बितं चन्द्रकिरणसंयुक्त। ५. कुन्देन्दु० । पुनः किं विशिष्टं ? कुन्देन्दुविशदच्छत्रप्रभामंडलमंडितं-कुंदचन्द्र निर्मलातपत्रकान्तिसमूहराजितं । पुनः किं विशिष्टं ? अद्भुतं-विस्मयकारि । किमिव ? गंगातीरमिव-सुरसरित्तटमिव । किं विशिष्टं आ० ? विलसद्ाजहंसौघ-क्रीडद्भूपालश्रेष्ठसंदोहं। गंगातीरपक्षे-मिलत्कलहंससंघातं-इति पंचानामपि वृत्तानामन्वयार्थो व्याख्यातः । ६. आस्थानी० । भरतेशस्य-सार्वभौमस्य, आस्थानी-सभा, रेजे-शुशुभे। केव ? सुरप्रभोः-इन्द्रस्य सुधर्मेव। किं विशिष्टा आस्थानी ? विस्फुरद्विबुधा Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग११) विराजत्पंडिता। सुधर्मापक्षे-विराजद्देवा । पुनः किं वि० ? गुरुमंगलधारिणी विशालश्रेयःशालिनी । पक्षे-वाक्पतिवक्रावहा। ७. तु तं रा० । वेत्रपाणि:-द्वास्थः, द्रुतं-शीघ्र, राजानं-भरतं, आनम्यादोऽवदत् । हे राजन् ! त्वत्प्रेषिताश्चाराः द्वारि वारितास्तिष्ठन्ति । किं विशिष्टा:० ? एता:-आगताः। ८. एतान् । स-वेत्रपाणिः, भूपं-भरतं, तान्-हेरिकान्, अनीनयत्-प्रापयतिस्म । किं विशिष्टो वेत्रपाणि. ? राज्ञा-भूपेन, स्वयं-आत्मना, इति ईरित:-एवं भणितः । इतीति किं ? हे वेत्रिन् ! त्वं एतांश्चरान्, अन्हाय-झटिति, प्रवेशयप्रवेशं कारय । कः कानिव ? न्यायः श्रीविलासानिव, यथा नयो लक्ष्मीलीलाः प्रापयति । इति त्रिभंगोन्वयः । ६. तानपृ० । माप:-राजा, तान्-चरान्, इति अपृच्छत्-एवं प्रश्नं चकार । भो हेरिका: ! मे-प्रम, स बान्धवः-बाहुबलिः, निशुः-नमस्चिकीर्षुरस्ति । वाअथवा, किं युद्धश्रद्धापरः-संग्रामाभिलाषतत्परोस्ति, यूयं निर्णीय-निश्चयं विधाय, आख्यत-ब्रूत । इति चतुर्भगोन्वयः ; १०. इत्या० । तेषां-चराणां, मध्ये एकः चरोऽभणत्-अब्रवीत् । किं कृत्वा ? भर्तुः स्वामिनः, इति-पूर्वोक्तं, वचः-वचनं, आकर्ण्य-श्रुत्वा, किमुवाच ? हे राजन् ! त्वं सांप्रतं-अधुना, बन्धुसंबंध-बाहुबलिव्यतिकरं, मन्मुखात् शृणु-आकर्णय । कस्मात् ? निबंधात्-आग्रहात्।। ११. त्वदाज्ञा० । हे भूप !-भरत !, त्वदाज्ञाभ्रमरी तद्देशचंपके- बहलीदेशचंपकद्रुमे, नास्त–नातिष्ठत् । किं विशिष्टा त्वदाज्ञाभ्रमरी ? सुमनोभिरता-देवानां मनोरमा । भ्रमरीपक्षे-सुमनस्सु-पुष्पेषु, अभिरता-आसक्ता । हि-यतः, भाविनी-भवितव्यता, गरीयसी-महत्तरा स्यात् । १२. स्वामिन् । हे स्वामिन् ! चरैः एष-बाहुबलिः, उन्निद्रदर्पदावाग्निः-उत्फुल्ला हंकाररूपवनवन्हिः, चक्रे-कृतः । इतीति किं ? स्वीया-निजः, सीमवधूः बलाद्हठात, परैः-अन्यैः, कदर्थिता-पीडितास्ति । १३. अवाम० । ततः-तदनन्तरं, असौ-बाहुबलिः, तेषां-चराणां, वचोऽवामस्त अवगणयतिस्म। किं विशिष्टोऽसौ ? घूर्णिताक्ष:-निद्राणलोचनः । क इव ? वारण इव । यथा गजः उन्मत्तः सन् अस्थिभुजां-सारमेयानां, रवं स्वैरं-यथेष्टं, अवमन्यते । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५र भरतबाहुबंलिमहाकाव्यम् १४. बहुक० । स-बाहुबलिः, सावज़-सावगणं यथा स्यात् तथा, आत्मभृत्यैः स्वसेवकैः, यात्राभेरी, अदापयत्-दापयामास । किं विशिष्टः सः ? भटैः बहुकृत्व:बहुवेलं, प्रविज्ञप्त:-प्रसभमुक्तः, किं विशिष्टैः भटै: ? शौर्यरसार्णवै:-पराक्रमरस समुद्रैः । १५. तदा दः । तदा-तस्मिन् समये, भंभानादान्-भेरीभांकारात्, दक्षिणदिग्नेता यमः, चकंपे-कंपमासदत्त् । किं विशिष्टो दक्षिणदिग्नेता ? दण्डधारी-यष्टिभृत्, किमिति वितर्के, भूः-मही, सुवर्णाद्रि कंपातू-मेरोश्चलनतः न कंपते-न चलति ? चलत्येव । १६. भम्माया० । वाद्यमानायाः भम्भायाः ध्वनिः कृत्याय-कार्याय, सैनिकान् सज्जी चकार। कस्या इव ? सुघोषाया इव । यथा सुघोषायाः घटाया ध्वनिः त्रिदशान्-देवान्, कृत्याय सज्जीकरोति । १७. पञ्चबा । स रवः-भेरीभांकारः, भटानां शौर्य, जागरयामास-उन्निद्रीचकार । कः किमिव ? पंचबाणः-कामः, औद्धत्यं-उन्मादित्वमिव, पुनः कः किमिव ? वल्लभः-प्रेयान्, आनन्दमिव ।। १८. सारंगा । ततः क्षणात् भंभानादः अमन्दं आनन्दं पुपोष-पुष्टीचकार, भटाना मित्यनुवर्तनीयं । क इव ? अंभोदध्वनिरिव । यथा घननादः सारंगाणां चातकानां, रसधरागमे-प्रावृट्काले प्रीतिं पुष्णाति । १९. अबला० । भीरवोऽपि-भयविह्वलापि, अबला:-स्त्रियः, भठानां अद्भुतं शौर्य मुत्तेजयामासुः-तीक्ष्णीचक्रुः । किं कृत्वा ? स्वभावजं कातरत्वं विहायपरित्यज्य । २०. कान्त । हे कान्त ! स्वस्वामिकृत्याय-निजप्रभुकार्याय, मनागपि त्वं. मा विषीद मा विषादं कुरु । हि-यतः, स्वर्भाणुमुखगं चन्द्रं पश्यतः तारकान् धिगस्तु । २१. नाथ ० । हे नाथ ! त्वं मां चित्ते संस्मृत्य-चिंतयित्वा, निजं मुखं मा वालये: मा पश्चात्कुर्याः । वलमानमुखाः वीराः कदाचन न भवंति । २२. तांबूली। हे कांत ! यथा ते-तव, आस्य-मुखं अधुना तांबूलीरागसंपक्तं नागवल्लीदलरक्तिमारक्तं भावि । तथा त्वं क्षरद्रुधिरधाराक्तं-स्रवत्शोणित शीकराई मुखं तथेति-तद्विधं रणे दर्शये: । २३. त्वद् वि० । हे महावीर !-महाभट !, त्वविक्रान्ति:-भवदीय विक्रमत्वं, अकीत्तिकज्जलैः-अयशोंजनैः, सुधाभित्तिरिव न म्लानीकार्या-न मलिनीकर्तव्या। किं विशिष्टा त्वविक्रान्तिः ? त्रैलोक्येऽपि विदित्वरी-विख्यातिमती। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग ११) ५११ २४. सुमेरु० । हे प्रियतम ! त्वं भुजवैभवैः-बाहुसामर्थ्यः, स्वामिमानसे-पत्युर्मनसि, . सुमेरुरसि । त्वं संग्रामात् तृणीभूय मम मुखं मा दर्शये:-मा दृष्टिविषयीकारयेः । २५. भटानां० । हे प्रिय ! भटाना-सैनिकानां, परवीरास्त्रैः-शत्रुसैनिकायुधैः, जीवितान् मरणं वर-श्रेयोऽस्ति । भीरून्-कातरान् धिगस्तु । किं कुर्वतः ? साक्रोशकश्मलान्-निंदामलिनान् प्राणान्, धरत:-दधानान् । २६. सुरभि । हे प्रिय ! त्वं मामपि यशःकुन्दै:-कीर्तिकुन्दकुसुमैः, सुरभीकुरु । कथंभूतस्त्वं ? सुरभिः-वसन्तः, यतः-यस्माद्धेतोः, सर्वेऽपि मारुहाः-धवखदि रादयः, मलये-मलयगिरौ, चंदनायंति-चंदनीभवंति इत्यर्थः । २७. यशश्च० । हे भटोत्तंस !-वीरावतंस ! रणव्योम्नि-संग्रामरूपनभसि, तव यशश्चन्द्रोदये-कीय॒ल्लोचे, भटिमादिगुणैः-वीरत्वादितन्तुभिः स्फीते-वितती कृते, मूनि मस्तके, परातपः-शत्रूष्मा न स्यात् । २८. उत्संग० । हे प्रिय ! जयश्रीः समरांगणे-रणप्रांगणे, ते-तव, उत्संगसंगिनी. क्रोडवर्तिनी अस्तु । बाढं-अत्यर्थं, तया-जयश्रिया सपल्यापि त्वयि सेा ईर्ष्यावती नाहमस्मि। २६. ज्ञातस्त्वं । हे कान्त ! त्वं सर्वदा-सर्वत्र, रतेऽपि मया करुणापरो ज्ञातः अवसितोसि, तत्-तस्माद्धेतोः, हे वीर ! त्वया वैरिरणक्षणे-प्रत्यनीकसंग्रामावसरे, कृपा न कार्या। .३०. मां विहा० । हे प्रिय ! त्वं प्रमना:-हृष्टमानसः सन् मां विहाय-त्यक्त्वा, रणांगणे यथा यासि-व्रजसि, तथा भवता वीरतां हित्वा गृहे नागम्यं । .३१. कातर । हे प्रिय ! त्वं कातरत्वं-धैर्यराहित्यं, ममाभ्यणे-मम समीपे, मुक्त्वा संयते-संग्रामाय, धाव-वेगेन सर। हि-यतः, पुराविदोपि-पुरातनपंडिता अपि, एवं प्राहु:-कथयंतिस्म । एवमिति किं ? स्त्रीत्वं धैर्यविलोपि-धीरतोच्छेदकं विद्यते । इति त्रिभंगोन्वयः । ३२. युद्ध श० । हे वीर ! इति कीतिस्तवांगे चिरं-बहुकालं, ध्रुवं-नित्यं, स्थास्यति शाश्वतीभविष्यति । इतीति किं ? कोशलाबहलीशयो:-भरतबाहुबल्योः, युद्धेऽयं शस्त्रप्रहारोऽजनि। ३३. त्वं तु । हे वीर ! त्वं अन्यस्याः कांताया: पाणिग्रहे-विवाहविधौ मद्गुणेषु Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् मनः - चित्तं न्यधा - आरोपितवानसि । त्वं जयश्रीवरणे मयि विषये मानसं - चेतः, मा कृथा मा विधेहि । जयश्रीवरणे इत्यत्र निमित्तात् कर्मयोगे सप्तमी । ३४. स्खलति । हे प्रिय ! मम रसा - रसना, तटिनीव - नदीव, स्नेहशैलेन्द्रे स्खलति । त्वया प्राणैरपि - जीवितेनापि यशश्चयं पुष्टीकर्त्तव्यं । हि यतः, यशोधनाःयशस्विनोऽपि प्रशस्याः स्युः । इति त्रिभंगोन्वयः । ३५. त्वं दाक्षि० । हे प्रिय ! त्वं यादृक् दाक्षिण्यपरः - लज्जाशीलोसिं, तादृग् भुवस्तले नान्योऽस्ति, अत्र संग्रामे दाक्षिण्यं नाधेयं न कर्त्तव्यं । हि यतः, अस्थाने–अनास्पदे, अमृतं विषं स्यात् । इति चतुभंगोन्वयः । ३६. वीरसू० । हे वीर ! ते तव, जननी वीरसूरस्तु, पुनः तव पिता वीरोऽस्तु । अहं त्वत्-भवतं एव, सांप्रतं - अधुना, वीरपत्नी भवित्री । इति त्रिभंगोश्वयः । ३७. सत्वरं । हे प्रिय ! त्वं मम स्नेहात् सत्वरं ग्रामतः आगतोऽभूः । त्वया संग्रामात् त्वरा--वेगः, न कार्या । त्वं स्वामिचित्तानुगः - प्रभुमानसानुयायी, भवेः - स्याः । इति त्रिभंगोन्वयः । ३८. मम व० । हे प्रिय ! त्वया निःशंकं - निर्भयं मम वक्षसि - हृदये यथा करजाः–नखाः, पातिताः-अपात्यंत, तथा त्वया मत्तेभकुंभेषु शराः प्रापणीया:नेतव्याः । 1 ३९. रणव्यो० । हे वीर ! परे वीराः अन्ये भटाः, तव पुरः - भवदग्रतः, तारका इव नश्यन्तु - नाशं प्राप्नुवन्तु । कथंभूतस्य तव तेजोनिधेः- बलनिघानस्य, कस्मिन् ? रणव्योम्नि- संगामरूपाकाशे, त्वत्प्रतापो वृद्धिमानस्तु | 1 ४०. भटशौ० । सर्वासां नारीणां मुखभाण्डतः - आननपात्रात् । इति - पूर्वोक्तं वचः निर्ययौ - निरगच्छत् । किं विशिष्टं वचः ? भटशौर्यबृहद्भानुदीपनाय - वीरविक्रमवन्ह्य तेजनाय घृतं । ४१. सुधाम । तदा तस्मिन् समये, सक्षणः - सोवसरः, सुधामय इव - अमृतरूप इव, आनन्दमय इव - प्रमोदरूप इव अभवत् । पुनः किं विशिष्टः ? बलिभिः युद्धाकांक्षिभिः संग्रामाभिलाषिभिः, स क्षणः सोत्सवो मतः । ४२. दोर्दण्ड० । ये वीराः दोर्दण्डचंडिमौद्धत्याद् - भुजदंडतीक्ष्णत्वदुर्दमत्वात्, जगत्त्रयं तृणंति - तृणवदाचरंति । तदा तस्मिन् संग्रामसमये, ते पि वीराः तं - बाहुबलि, प्रययुः प्रापुः । किं विशिष्टास्ते ? यशःक्षीरार्णवाः कीर्त्तिक्षीरसमुद्राः । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग ११) ४३. मन्दरा०। केऽपि भूभृतः- राजानः, तं-बाहुबलिं, ययुः । उपमीयते-प्रत्यर्थि• वाहिनीश्वरमंथने-शत्रुसमुद्रविलोडने, मंदरा-मंदरपर्वता इव । पुनः किं विशिष्टाः ? चंडदोर्दडा:-क्रूरभुजदंडाः एव शाखिनो येषु, ते । ४४. ये भवन्त । हे राजन् ! ये विद्याधराधीशाः, भवन्तं त्वां, अवज्ञाय-अवगण य्य, नृपं-बाहुबलि, श्रिता:-आश्रिताः । तेऽपि विद्याधराधीशाः युधे-संग्रामाय, प्रगुणाः-सज्जा, अभूवन्-भवंतिस्म। ४५. विद्याप० । सः अनिलवेगः विद्याधरः दुःसहो वर्त्तते । स कः ? यस्यासि: खड्गः, गुरुवत्-गुरुरिव, वंद्यः-स्तुत्योऽस्ति । कुतः ? विद्याधरवधूवर्गवैधव्य व्रतदानतः-नभश्चरस्त्रीसमूहपतिराहित्यदीक्षार्पणात् । ४६. बहलो० । हे राजन् ! अनिलवेगेन दोष्मता-भुजदंडशौर्यवता, बहलीनाथ पाथोधिः-बाहुबलिरूपजलधिः सर्वथैव दुरुत्तरः-दुरवगाह्यः, पुनः भीष्म:रौद्रोस्ति । केनेव ? और्वानलेन-वडवाग्निनेव। ४७. पुनर्मा० । हे भारतभूपाल ! पुनः विद्याधरधराधवः रत्नारिनामा, तं बाहुबलि, उपागच्छद्-आजगाम । क इव ? विधुरिव। यथा विधु:-चन्द्रः, दर्श सूर्येन्दुसंगमे, अरुणं-अर्कमुपागच्छति । ४८. अमी वि० । अमी विरा विद्याभृतः-विद्याधराः, बहुशः बहलीशितु:-बाहुबलेः, . अभ्यर्ण-समीपं, तूर्ण-शीघ्र, आजग्मुः आगतवंतः । के कमिव ? प्रवाहा वारिधिमिव । ४६. किराताः । हे राजन् ! किराताः-भिल्लाः, तं-भरतानुजं उपागत्य अनमन् ववन्दिरे । किं विशिष्टाः किराताः ? पातिताः अरातीनां-वैरिणां, दुर्मदाचलाःदुरहंकाराद्रयः, तेषु दोर्द्वमाः-भुजरूपमहीरुहाः, यैः ते। उत्प्रेक्षते-देहाढ्या: मूर्तिमन्तः, उत्साहा इव । ५०. सन्नद्ध० । हे राजन् ! तस्य-बाहुबलेः, लक्षशः सुता ईयु:-आयांतिस्म । किं वि० ? सन्नद्धबद्धसन्नाहाः-सज्जितवर्माणः, पुनः किं विशिष्टाः ? कंठप्रापित कार्मुकाः-ग्रीवार्पितधनुषः । उत्प्रेक्षते-मू" धनुर्वेदा इव ।। - ५१. समासी० । हे राजन् ! तदैव-तस्मिन्नेव समये, ते भटाः अदीना:-धीराः, एनं-बाहुबलि, परिव :-वेष्टयामासुः । किं विशिष्टमेनं ? सभासीनं । पुनः किं विशिष्टं ? दुर्द्धरं-दुःसहं । कमिव ? कीनाशं यममिव । के कमिव ? किरणाः तरणि-भानुमिव। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५२. अथ म० । अथ-अनन्तरं, सुमंत्राख्यो मंत्री तस्य भूपतेः पुरस्तात् बाहुबलेरग्रे, निर्व्याज-निःकपटं यथा स्यात् तथा, इति व्याजहार-बभाषे। किं विशिष्टो मंत्री ? मंत्रवित्-आलोचकः । क इव ? सुरमंत्री-वृहस्पतिरिव । ५३. देव ! त्वं । हे देव !-बाहुबले !, त्वं मद्वचः कर्णगोचरं-श्रवणविषयं, स्वैरं-यथेष्ट, कुरुतात्-विधेहि। हि-यतः, राजभिः-नृपः, कार्यारम्भे, . अमात्या:-मंत्रिणः, हितविदः चिन्त्याः-विचार्याः । ५४. यथा प० । हे स्वामिन् ! यथा बालाया:-कुमार्याः, पयोधरौन्नत्याद् स्तनोत्तुंगत्वात्, यौवनोद्गमः-तारुण्योत्पत्तिः ज्ञायते, तथा मंत्रिभिः । स्वामिबलोद्रेकात्-पौरुषाधिकत्वतः जयो ज्ञायते । ५५. प्रबले । हे स्वामिन् ! "प्रबलेन सह त्वया विरोधिता न विधेया-न कार्या । ... हि-निश्चयेन, पाथोजिनीनेत्रा-सूर्येण, तमांसि-ध्वांतानि, . संक्षिप्यते- . ___ अल्पीक्रियते, त्वं पश्य-विलोकय।। • ५६. आक्राम। हे राजन् ! यो नृपः परक्ष्मां-विरोधिवसुधां, आक्रामति स एव नृपः सबल:-बलवान् । चेद्-यदि, अर्कतूलानि तिष्ठेयुः तर्हि-तदा, मरुतवायुः, किं विभुः-समर्थः स्यात् । इति चतुर्भगोन्वयः । ५७. बलादा० । हे राजन् ! भूपालः बलादाच्छिद्य-आकृष्य, बंधुभ्योपि-भ्रातृ भ्योऽपि, भूः-वसुधा, गृह्यते-आदीयते। विवश्वान्-सूर्यः, ग्रहाणां-चन्द्रादीनां अपि तेजांसि किं न हरते ? अपि तु हरत्येव । ५८. निर्बलो० । हे स्वामिन् ! निर्बलोऽपि-बलरहितोऽपि, पर:-शत्रुः, नृपः सबल: बलवान्, विभाव्यते-ज्ञायते । हि-यतः, पृथिव्यर्थे-वसुधानिमित्तं, क: सबलोऽपिनिर्बलोऽपि सर्वथाऽत्र-सर्वप्रकारेण, युद्धं न करोति ? अपितु करोत्येव। . . ५६. अनम्रा०। हे स्वामिन् ! यदि सर्वेऽपि भूपालाः अनम्राः स्युः, यदि सर्वेपि छत्रिणः छत्रवतः स्युः, तहि-तदा, लोकत्रयीमध्ये चक्रवर्तिनः-सार्वभौमस्य का कीत्तिः भवतीति त्रिभंगोन्वयः । ६०. सांप्रतं० । हे राजन् ! सांप्रतं-अधुना, कौशलास्वामी-भरतः, चमूवृत: कटकसंयुक्तः सन्, त्वामभ्येति-भवंतमभिमुखं आयाति, कः कमिव ? साराति:गरुडः, अनन्तं-शेषनागमिव । पुनः कः कमिव ? पीताब्धि:-अगस्त्यः, सागरमिव । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जिका (सर्ग११) ५१५ ६१. अयं भ० । हे राजन् ! अयं-भरतः, भवत्कुले ज्येष्ठः-वृद्धोऽस्ति। च-पुनः, अयं चक्री भवत्कुले-त्वदन्वयेऽस्ति । हे राजन् ? तत्-तस्माद्धेतोः त्वं एनं भरतं नम-नमस्कुरु । तव काचन त्रपा-लज्जा नास्तीति चतुर्भगोन्वयः। . ६२. एतस्मै० । हे राजन् ! के भूपा एतस्मै-भरताय, न नता:-न नमंतिस्म । कैः भूपैः अस्य-भरतस्य, आज्ञा शिरसा न धृता-नाऽधारी । कैः भूपैः अस्यातंक:शंका, नो दधे-न ध्रियते। हि-यतः, अत्र-लोके, बलिन:-बलवंतः, जयिनःजेतारः भवंतीति चतुभंगोन्वयः । ६३. बलं य०। हे राजन् ! सुरा:-देवा अपि, यदीयं बलं-सैन्यं पराक्रमं च, आलोक्य-दृष्ट्वा, चकपिरे-कंपिताः । तत् अस्य राज्ञः भरतस्य, पुरस्तात्अग्रे, केऽमी मर्त्य कीटाः स्युः ? . ६४. षट्सण्डी०। हे राजन् ! षट्खंडी अस्य-त्वदग्रजस्य, पदांबुजं-चरणकमलं, सेवते-भजते । किं कृत्वा ? किंकरीभूय-सेवकत्वमासाद्य। का कमिव ? रजनी सुधाभानु-चन्द्रमिव सेवते। किं विशिष्टं ? अमंदानन्दकन्दल-प्रचुर- . प्रमोदप्रवालं । ६५. त्वां विना०। हे राजन् !. कोप्यत्र विश्वे-जगति, त्वां-भवंतं, विनाऽस्य ___' सार्वभौमस्य शासनभाजां न्यक्करोति-तिरस्कुरुते। हि-यतः, त्रयीतनो: श्रीसूर्यस्य, राहोरेव पराभूति:-पराभवः, विद्यते, नान्यस्मात् । ६६. द्वात्रिंश । हे राजन् ! अस्य-भरतस्य, द्वात्रिंशन्मेदिनीपालसहस्राणि किंकराः सन्ति। ते आत्मानं अनृणीकर्तु-ऋणरहितं विधातुं, असुभिः-प्राणैरपि रणे ईहते-वांछंति। . . ६७. एनं स० । हे राजन् ! सहस्रशः देवाः एनं भरतं सेवंते। कथं भूताः देवाः ? सदा-निरंतरं, बद्धांजलिपुटा:-संयोजितकरकमलाः । के कमिव ? योगिन ओंकारमिव वर्ण-अक्षरं, सेवन्ते। किं विशिष्टं ओंकारं? सर्वदं-सकलकामितकरं। ६८. सुषेणो० । हे राजन् ! अस्य-भरतस्य, सुषेणनामा सेनानी:-सैन्याधिपोऽस्ति । किं विशिष्ट: सेनानी: ? दुर्जयः-दुःखेन जेतुं शक्यः । पुनः किं विशिष्टः सेनानी: ? अनेकगीर्वाण:-बहुभिः सुरैः, परीत:-संयुक्तः। कैः क इव ? सद्गुणो विनीत इव । ६६. अस्यव० । हे राजन् ! वैरिणः-शत्रवः, अस्यैव सुषेणसेनाधीशस्य, भुज Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ भरतबाहुबलि महाकाव्यम् " माहात्म्यात् — बाहुवैभवादग्रतः नेशुः - अदृश्यतां प्रापुः तेषां वैरिणां चक्रवर्त्त्यागमःभरतागमनं, पुनरुक्तिः-३ :- उक्तस्य पुनर्भाषणमिव अभवत् । ७०. अस्य सू० । हे राजन् ! अस्य भरतस्य, ज्येष्ठसूनुः - बृहत्सुतः सूर्ययशाः स्वभुजौजित्यात्- निजबाहुविक्रमात् शक्रं - वासवमपि, किंकरं - दासं, यन्मन्यते । किं विशिष्टः सूर्ययशाः ? अन्यूनविक्रमः - अहीनपराक्रमः । ७१. अन्येपि० । हे राजन् ! अस्य - भरतस्य बले - सैन्ये, अन्येऽपि बहवो वीरा:भटाः, प्रबलाः– बलगर्विताः, संति । तदंतर् - तेषां वीराणां मध्ये, एकोऽपि पर्वतानपि धत्तु - धारयितुं, सहिष्णुः समर्थः स्यात् । ७२. एक एव० । हे राजन् ! त्वं एक एव ज्येष्ठमार्षभि रोद्धा - निवारयितासि, कि विशिष्टस्त्वं ? महातेजाः - महाबलः, च- पुनः, यस्य - भरतस्य, चक्रदवाचिषः - चक्रदवानलज्वाला, अमून्–सैनिकान् तृणानीव धक्ष्यन्ति - भस्मीकरिष्यति । : ७३. तद् विचार्य० । हे महीपाल ! त्वं तत्-तस्माद्धेतोः, इति विचार्य - विचिन्त्य, आत्महितं कुरुष्व । त्वमिमं भरतं - ज्येष्ठ भ्रातरं ताततुल्यं - पितुः सदृशं नमनमस्कुरु । ७४. इति मन्त्रि० । इति - पूर्वोक्तप्रकारेण, मंत्रिगिरा क्रुद्धः - प्राप्तकोप:, क्षितीश्वरः• बाहुबलिः, यावद् वक्ति तावद् विद्याधराधीशोऽनिलवेगः तं - मंत्रिणं, अभ्यधात्कथयतिस्म । 1 ७५. सचिवो० । अनिलवेगः किमुवाच । हे सचिवोंत्तंस ! - मंत्रिशेखर ! त्वं वदनानिलैः-मुखश्वासवातैः, प्रभोः - बाहुबलेः, निस्त्रिंशं खड्ग, वृथैव कश्मलीकुरुषे - मलिनं विदधासि । किं विशिष्टं निस्त्रिशं ? उद्दीप्र - भास्वरं, कमिव ? आत्मदर्श मिव-दर्पणमिव । ७६. प्रार्थ्यमा० । हे सचिवोत्तंस ! स वीरमनोरथैः - भटाभिलाषः, चिरं - बहुकालं, प्रार्थ्यमानः–याच्यमानः युद्धोत्सवोऽस्ति । कः क इव ? चातकैः पाथोदः - धाराधर इव । यथा बप्पीहैः प्रार्थ्यमानो मेघो भवति । तत्र युद्धोत्सवांभोधरे भवान् वात्यायते - वातूलवदाचरति । ७७. कोऽतिरि० । हे मंत्रिन् ! देवात् - बाहुबलेः, अधिकः को बली - बलवान् विद्यते । चित्ताद्-अंतःकरणाद्, कोऽतिरिक्तगतिः - कोधिकग मनोऽस्ति । ज्वलनात् - वन्हेः कः प्रतापवान् अस्ति । सुराचार्यात् - वृहस्पतेः कः पंडितः अस्तीति चतुभंगोन्वयः । ७८. अमी बा० । हे राजन् बाहुबले: अमी वीराः अनिलवेगाद्याः प्राणैरपि जीविते - नापि, सर्वथा - सर्वप्रकारेण, निजं प्रभुं उपचिकीर्षति - उपकर्तुमिच्छति । हि यतः, अमीदृशां सुभटनां प्राणास्तृणं " ( अतो ग्रे पत्राणि न उपलब्धानि ।) Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CH CECCO