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________________ षष्ठः सर्गः १२३ रखा था। किन्तु वही महाराज भरत सात्विकता को छोड़कर अपने भाई के साथ युद्ध करने का इच्छुक हो रहा है। फिर वह कैसे सात्विक हो सकता है ? ६१. यो विवेकतरणेरुदयाद्रिः, सोऽधनात्र भविता चरमाद्रिः। मेदिनीगगनचारिचमूभिर्यवृतो व्रजति बन्धुविजित्यै ॥ जो विवेक रूपी सूर्य के लिए उदयाचल था वह आज यहां अस्ताचल हो जाएगा। क्योंकि भरत स्थल और नभ सेना से परिवृत होकर अपने बन्धु बाहुबली पर विजय पाने के लिए जा रहा है। ६२. मण्डपः स यदि नीतिलताया , ज्येष्ठमानमति तहि कथं नो ? मानहानिरधुनास्य न नत्यामुच्छिनत्यविनयं त्वनयाऽयम् ॥ यदि बाहुबलि नीतिलता के मंडप हैं तो वे अपने ज्येष्ठ भाई को नमन क्यों नहीं करते ?' आज भी वे यदि नत होते हैं तो उससे उनकी कोई मान हानि नहीं होती किन्तु इस नीति से वे अपने अविनय का उच्छेद कर सकते हैं। ६३. मानिनां प्रथमता किल तस्य , प्राग गता त्रिजगति प्रथिमानम् । तामपास्य कथमेति स एनं , जीविताच्छतगुणोऽस्त्यभिमानः । । बाहुबली अभिमानियों में प्रथम हैं। उनकी ऐसी प्रसिद्धि तीनों लोकों में पहले ही हो चुकी है। उसको छोड़कर वे भरत के पास कैसे जाएं ? उनका अभिमान जीवन से भी सौ गुणा अधिक है। ६४. एकदेशवसुधाधिपतित्वं , वान्धवस्य सहते न विभुनः । आत्मनो जलगतं प्रतिरूपं , वीक्ष्य कुप्यति न कि मृगराजः ? हमारे स्वामी भरत अपने भाई के एक देश का आधिपत्य भी सहन नहीं करते । क्या सिंह पानी में पड़े हुए अपने प्रतिबिम्ब को देखकर कुपित नहीं होता? ६५. यच्चकार रणचेष्टितमुच्चारतक्षितिधवस्य पुरस्तात् । एक एव बलवान् बहलीशः , सत्त्ववानिति यशोस्य भविष्णु ॥ भारत भूमि के अधिपति महाराज भरत के सम्मुख एक बाहुबली ने ही युद्ध करने की चेष्टा की है, यह महत्त्व को प्राप्त करने के लिए है। इस युद्ध के कारण बाहुबली की इस प्रकार की कीत्ति फैलेगी कि वे बलवान् और सत्त्ववान् हैं ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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