________________
१२४
भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
६६. एतयोः समरतः किल भावी , नागवाजिरथपत्तिविनाशः। - मत्तयोरिव वनद्विपयोर्द्राक् , पार्श्ववर्तितरुसंततिभङ्गः ॥
इन दोनों के पारस्परिक युद्ध से हाथी, घोड़े, रथ और सैनिकों का विनाश होगा। जैसे जंगल के मदोन्मत्त हाथियों के पारस्परिक कलह से पार्ववर्ती वृक्षों की श्रेणी का ही नाश होता है।
६७. नागरैरिति विकित एष , स्वर्वनात्यधिकविभ्रमभृत्सु।
कोशलापरिसरोपवनेषु , क्षिप्तचक्षुरचलद् बलयुक्तः ॥
पौरजनों ने भरत के प्रति ऐसी वितर्कणाएं की। महाराज भरत अयोध्या के पार्ववर्ती उपवनों में दृष्टिपात करते हुए अपनी सेना के साथ आगे चल पड़े। ये उपवन नन्दनवन से भी अत्यधिक विभ्रमशाली थे।
“६८. पञ्चवर्णमयकेतुपरीतः , पुष्पपल्लवचितैरिव वक्षः।
हेमकुम्भकलिताग्रशिरोभिर्देवधामभिरिवोन्नतिमद्भिः ॥ ६६. पद्मिनीवदनचारुगवाक्षः , पल्वलैरिव विकस्वरपद्मः।
सर्वतो वसनवेश्मभिरुच्चै , राजितान्तरमनोरमलक्ष्मि ॥ ७०. यत्र पूर्वमवरोधवधूभिः , संन्यवासि विविधोत्सवरत्ये। चारुचत्ररथतोऽपि वनं तद् , राजमौलिरिव गन्तुमियेष ।।।
-त्रिभिविशेषकम् ।
जैसे वृक्ष पुष्प और पल्लवों से घिरे रहते हैं वैसे ही उपवन पांच रंगों वाली पताकाओं से घिरे हुए थे । ऊचे मन्दिरों की भांति उन भवनों के शिखर-भाग पर स्वर्ण-कलश चढे हुए थे। छोटे तालाबों में विकसित कमल की भांति उन भवनों के पद्मिनी स्त्री के वदन की तरह सुन्दर गवाक्ष थे। उन उपवनों के चारों ओर बड़े-बड़े पट-कुटीर (तम्बू) थे। उनसे उपवनों का मध्य-भाग मनोरम और शोभायुक्त लग रहा था। जिस उपवन में भरत के अन्तःपुर की वधूओं ने विविध उत्सवों के आनन्द के लिए पहले ही 'निवास किया था, वह उपवन कुबेर के उपवन से भी सुन्दर था और महाराज भरत कुबेर की भांति उसमें प्रवेश करने के इच्छुक हुए।
७१. भारताधिपतिरम्बरवेश्म'द्वार्यऽवातरदिभादतितुङ्गात् ।
मालवक्षितिधवार्पितहस्तः , स्वर्गनाथ इव मेरुगिरीन्द्रात् ॥ .
भारत के अधिपति भरत उस पट-गृह के द्वार पर अपने उन्नत हाथी के पीठ से मालवा
१. अम्बरवेश्म–पटकुटीर (तंबू)।