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षष्ठः सर्गः
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के अधिपति के हाथ का सहारा लेकर नीचे उतरे, जैसे इन्द्र मेरु पर्वत से नीचे उतरता है। ७२. स्वस्ववाहनवरादवतेरे , राजभिस्तदनुनम्रशिरोभिः ।
गां गतैरिव सुरैर्वरभूषाभूषिताङ्गरुचिराजितवेषः ॥
महाराज भरत के पीछे-पीछे प्रणत शिर किए दूसरे राजे भी अपने-अपने वाहनों से नीचे उतरे, जैसे सुन्दर अलंकारों से भूषित शरीरवाले और सुन्दर वेश वाले देवता पृथ्वी पर अपने-अपने यानों से नीचे उतरते हैं।
७३. वेत्रपाणिसुचरीकृतमार्गः , संसदालयमितः क्षितिराजः ।
पञ्चबाण इव यौवनमन्तःपुष्पसंचयशुचिस्मितकान्तम् ।।
महाराज भरत के आगे-आगे द्वारपाल मार्ग दिखाता हुआ चल रहा था। वे धीरे-धीरे संसद-भवन को प्राप्त हुए जैसे कामदेव अन्तःपुष के संचय से पवित्र और स्मित-कान्तः यौवन को प्राप्त करता है।
७४. सौधादपि प्रमुमुदे पटवेश्मनासौ , रत्नौधचित्रितवितानवितानवत्वात ।
यत्र प्रदीपकलिकाः पुनरुक्तभूत्यै , नक्तं दिवेव तपति धुमणौ ज्वलन्ति ॥
महाराज भरत प्रासादों से भी अधिक उन तम्बूत्रों से प्रसन्न हुए। वे तम्बू रत्न समूहों से चित्रित चंदोवों से विस्तृत थे । वहां प्रदीप की कलिकाएं चक्रवर्ती के ऐश्वर्य को पुनरुक्त करती हुई तपते हुए सूर्य की भाँति रात को दिन बनाती हुई जल रही थीं।
७५. यस्यात्रापि हि विश्वविस्मयकरः प्राचीनपुण्योदयो,
जागत्ति प्रथिमानमेति सुषमा तद्दोहदेभ्योधिकम् । मुक्तापङ्कजिनीविसाशनपराः सर्वत्र हंसा यतः, काकाः कश्मलनिम्बभूरुहफलास्वादैकबद्धादराः ॥
महाराज भरत का विश्व को आश्चर्यान्वित करनेवाला प्राचीन पुण्योदय-पूर्वाजित धर्म का परिणाम यहाँ भी जाग रहा है और उनके मनोरथों से भी अधिक सुषमा को प्राप्त हो रहा है । हंस सर्वत्र मोती और कमल-नाल को खाने वाले होते हैं । किन्तु कौवे अपवित्र भोजन और निम्ब वृक्ष के फल (निबोली) का भोजन करने में ही आसक्त होते हैं।
-इति प्रथमसेनानिवेशवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः१. रत्नौघ...'-रत्नौधेन चित्रितानि वितानानि-चन्द्रोदयास्तेषां वितानं-समूहो वा.
विस्तारस्तद्वत्वात् । २. विसं-कमलनाल (मृणालं तन्तुलं विसम्-अभि० ४।२३१ )