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भरत बाहुबलि महाकाव्यम्
वे दोनों वीर क्षण में भूमी पर, क्षण में आकाश, क्षण में तिरछी दिशाओं में और क्षण में रथ पर - इस प्रकार वे सर्वगामी योगी की भांति सर्वत्र दिखाई दे रहे थे ।
५५. अतिभ्रान्त सुरस्त्रैणवीक्षितौ समरक्षितौ ।
रेजतुः कल्पवातोद्य द्विमविन्ध्यगिरी इव ॥
उस समय वे दोनों वीर अतिभ्रांत देवांगनाओं से देखे जा रहे थे । रण-स्थल में वे दोनों कल्पान्तकाल की वायु से उखड़े हुए हिमालय और विन्ध्यगिरि जैसे लग रहे थे ।
५६. गीर्वाणाधिष्ठितस्यापि स विद्याधरसत्तमः ।
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बभञ्जोद्दण्डदोःकाण्डकोदण्डं पृतनापतेः ॥
इतने में ही उस विद्याधर शिरोमणी अनिलवेग ने देवताओं द्वारा सेवित सेनापति सुषेण की उद्दंड भुजा में स्थित धनुष्य को तोड़ डाला ।
५७. दण्डेशो भग्नकोदण्डः, फालच्युत हरिर्यथा । क्रोधान्निस्त्रिशमादाय, जिघांसुस्तमऽधावतं ॥
धनुष्य के टूट जाने पर सेनापति सुषेण फालच्युत सिंह की भांति क्रोध से विकराल होकर, हाथ में तलवार ले मारने की इच्छा से अनिलवेग की ओर दौड़ा ।
५८. वीक्ष्य कोपकरालाक्षं, तं दूराद्धन्तुमुद्यतम् । अरौत्सीदन्तरा सिंहरथो रविमिवाम्बुदः ॥
मारने के लिए उद्यत और क्रोध से विकराल आंखों वाले सुषेण को दूर से ही देखकर सिंहरथ ने उसे बीच में ही रोक डाला, जैसे बादल सूर्य को रोक देता है ।
५६. तयोर्युद्धं बभूवोच्चैश्चिरं कुक्कुटयोरिव ।
यत्पश्यन्तः सुरा नेशुर्व्योमतोऽपि ससम्भ्रमम् ॥
उन दोनों का युद्ध कुक्कुटों की भांति अत्यन्त भीषण और चिरकाल तक होता रहा । युद्ध को देखने वाले देवता भी विस्मित होकर आकाश से अदृश्य हो गए ।
६०. कर्मसाक्षी' तयोः कर्म, भीषणं वीक्ष्य तत्क्षणात् । संकोचितकरोsस्ताद्रिगुहां लिल्ये सभीरिव ॥
१. कर्मसाक्षी - सूर्य ( हरिदश्वो जगत्कर्मसाक्षी - अभि० २।१२ ) २. सभी : - भिया सहितः ।