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पञ्चदशः सर्गः
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समय ही वह सुषेण इन सबके लिए पलायन का निमित्त बना और 'पलायनकलाचार्य' कहलाया। . ४६. विद्रवन्तमिति स्वरं, सैन्यं स्वामिविवजितम् ।
तं निरुध्य जगादेत्यनिलवेगो नभश्चरः ॥
स्वामीहीन सेना को अपनी इच्छानुसार भागते हुए देखकर विद्याधर अनिलवेग ने सुषेण को रोकते हुए यह कहा५०. चकिचक्रपुरोवर्ती , त्वं प्रभोर्मम मादृशाः ।
सन्त्येव गणनातीता , मकरा इव वारिधेः ॥ . 'सुषेण ! तुम चक्रवर्ती भरत की सेना के पुरोवर्ती–सेनापति हो । किन्तु समुद्र में जैसे असंख्य मगरमच्छ रहते हैं, वैसे ही मेरे स्वामी बाहुबली की इस सेना में मेरे जैसे गणनातीत वीर हैं।' ५१. अनेकसमरोत्पन्नाहकारातमेव ते।
ममायमगदङ्कारश्चिकित्सति भुजोऽधुना ॥ 'सुषेण ! अनेक युद्धों में उत्पन्न तुम्हारे इस अहंकार रूपी रोग की चिकित्सा अभी मेरे बाहु रूपी चिकित्सक करेंगे।'
५२. इत्युचानमनूचान , एवं तं मानवानसौ।
सावज्ञं योधयाञ्चके, कुरङ्गमिव केसरी ॥
अनिलवेग के इस प्रकार कहने पर वीरमानी सुषेण बिना कुछ कहे ही अवज्ञापूर्वक वैसे ही युद्ध करने लगा जैसे केसरीसिंह हरिण के साथ युद्ध करता है। ५३. शरासारवितन्वानावकालेऽपि च दुर्दिनम् ।
छादयामासतुर्योम , तो चिरं जलदाविव ॥ उन दोनों वीरों ने अपने बाणों की तेज वर्षा से सारे आकाश को बादलों की भांति ढंक डाला और अकाल में भी मेघ से उत्पन्न अंधकार जैसा सघन अंधकार शीघ्र . ही चारों ओर फैला दिया ।। ५४. क्षणं भूमौ क्षणं व्योम्नि , क्षणं तिर्यक् क्षणं रथे।
सर्वत्र ददृशाते तौ, योगिनाविव सर्वगौ ॥ १. दुर्दिनं-मेधकृत अंधकार (दुर्दिनं मेघजं तमः-अभि० २७६)