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पञ्चदशः सर्गः
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उनके भीषण कर्म (युद्ध) को देखकर सूर्य डरता हुआ तत्क्षण अपनी किरणें समेटकर अस्ताचल की गुफा में जा छुपा ।
६१. अवहार' विधायतौ, सैन्ये शिविरमीयतुः । प्राक्प्रतीचिपयोराशिवेले इव निजं पदम् ॥
दोनों ने युद्ध स्थगन किया । पूर्वीय और पश्चिमी समुद्र की वेला की भांति दोनों पक्षों की सेनाएं अपने-अपने शिविरों में चली गईं ।
६२. पुनः प्रभातमासाद्य, युयुत्सेतेस्म ते बले । वृद्ध द्विगुणोत्साहे, पतदायुधदुर्धरम् ॥
प्रभात होने पर दोनों सेनाओं ने बढ़े हुए दुगुने उत्साह से, आयुधों के प्रहार अत्यन्त दुर्धर युद्ध लड़ा ।
६३. प्रावर्तन्त शराः स्वरं रणे प्रेतपतेरिव ।
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सैनिकान् कवलीकर्तुं सैन्ययोरुभयोरपि ॥
रणभूमी में दोनों ओर की सेनाओं के बाण यमराज के बाणों की भांति सैनिकों को मारने के लिए यथेच्छा से चलने लगे ।.
६४. पत्रिपत्रानिलोद्धूताः पतिताः करिणां कुथाः । नालक्ष्यन्त हयोद्भूतरजः पिहितवर्ष्मणा ॥
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बाणों के पंखों से उठी हुई हवा से कंपित होकर हाथियों के भूल नीचे गिर पड़े । घोड़ों के खुरों से उद्धृत रजःकणों से ढंके हुए शरीर वाले सैनिकों को वे दीख नहीं रहे थे ।
६५.
आगच्छद्भिश्च गच्छद्भिः कङ्कपत्रैविहायसा । चक्रे, ज्योतिरिङ्गण संभ्रमम् ॥
स्वर्णपुंखैरलं
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आकाश-मार्ग से आते हुए (नीचे गिरते हुए) तथा जाते हुए स्वर्ण - पुंखों वाले बाणों ने जुगुनूओं का संभ्रम पैदा कर डाला था ।
६६. दोष्मतां खरसंघातघात रक्ताञ्चितांशुकैः । जयश्रीरामसंस्मारो, बहिर्यात इवान्तरात् ॥
१. अवहारं - स्थगनम् ।
२. कुथ: - हाथियों का झूल (कुथे वर्णः परिस्तोमः - अभि० ३ | ३४४ )
३. ज्योतिरिङ्गणः - खद्योत (खद्योतो ज्योतिरिङ्गणः - अभि० ४। २७९ )