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________________ २६४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् योद्धाओं के प्रखर प्रहारों से लगी चोट से रक्त बह रहा था। उससे रंजित वस्त्र ऐसे लग रहे थे मानो कि सुभटों की 'जयश्री' के साथ रमण करने की आन्तरिक स्मृति बाहर आ गई हो। ६७. तत्र व्यतिकरे विद्याधरचक्रपरिच्छदः। सिंहकर्णान्वितः सिंहरथोऽविक्षद् द्विषद्बले ॥ उस समय विद्याधरों की सेना का सदस्य सिंहरथ सिंहकर्ण के साथ शत्रुओं की सेना में प्रविष्ट हो गया। ६८. अद्रष्टुमिव तद्वक्त्रं , वैरिभिर्कोमपुष्पवत् । दुर्लभं निर्जितस्तेन , सुषेणः पृष्ठमार्पयत् ॥ सिंहरथ के द्वारा पराजित होकर सेनापति सुषेण पीठ दिखाकर भाग खड़ा हुआ मानो कि वह वैरियों के द्वारा आकाश-कुसुम की भांति दुर्लभ सिंहरथ के मुंह को देखना नहीं चाहता हो। ६९. इतो विद्याधरोत्तंसोऽनिलवेगो महाबलः। चकिचक्र चकारोच्चैयाकुलं विविधायुधैः॥ इधर विद्याधरों के नेता महान् पराक्रमी अनिलवेग ने अपने नाना प्रकार के आयुधों से चक्रवर्ती की सेना को अत्यन्त व्याकुल कर दिया। , ७०. नोरन्ध्रमपि तत्सैन्यं , बभूव निहतं ततः। नैशं तम इव प्रातरभ्रवृन्दमिवाऽनिलात् ॥ . चक्रवर्ती की सेना नीरन्ध्र थी, सघन थी। किन्तु सिंहरथ और अनिलवेग के प्रहारों से वह प्रहत हो गई जैसे प्रातःकाल से रात्रि का अन्धकार और पवन से बादलों का समूह प्रहत हो जाता है। ७१. संवर्तानिलसंकाशक्ष्वेडाक्षोभितशात्रवः । लीलयोल्लालयामास , सोऽत्र शैलानिव द्विपान् ॥ प्रलयकाल के पवन सदृश सिंहनाद से शत्रुओं को क्षुब्ध करने वाले अनिलवेग ने पर्वत जैसे ऊंचे हाथियों को लीला से ऊंचा उछाल डाला। १. नैशं-निशाया इदं नैशम् ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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