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________________ नवमः सर्गः १७५ सेना के आगे चलने बाले घोड़ों के खुरामों से क्षुण्ण रजे जब आकाश में ऊपर उठती हैं तब घोड़ों के पीछे चलने वाले मदोन्मत्त हाथियों के मद-प्रकर्ष से वे वैसे ही नीचे गिर जाती हैं जैसे भव्य व्यक्ति पार के कारण नीचे गिर जाता है। ३८. पुरस्सरैरेति बल च पृष्ठे , तुरङ्गिभिः' पृष्ठचरैरपीदम् । ऊचे जनानामिति पृच्छतां नो , पुरो बहु प्राग् बहु संनिबोधः ॥ आगे चलनेवाले घुड़सवारों से लोग पूछते तो वे यही कहते कि सेना पीछे आ रही है और पीछे चलने वालों से पूछते तो वे भी यही कहते कि सेना पीछे आ रही है। इस प्रकार प्रश्न करने वाले लोगों को यह ज्ञात नहीं हो पाता था कि सेना आगे अधिक है या पीछे अधिक है। ३६. कण्डूयमानः करटं करीन्द्रस्त्वगुन्ममन्थे पथि भूरुहाणाम् । धर्मस्थितिश्चारुदृशां विलासैरिवाधिकौढितया प्रपन्नः॥ हाथी अपने गण्डस्थल को खुजलाते हुए मार्ग के वृक्षों की छाल उखाड़ रहे थे, जैसे कि स्त्रियों के अत्यन्त प्रपंच से संयुक्त उनके हावभाव धर्मस्थिति का उन्मथन कर देते हैं, उनको उखाड़ देते हैं। . ४०. विद्याधरैर्योसपथो जगाहे , ततो निधानैर्वडवामुखं च । भूचारिभिर्भू मितलं च सैवं, बभूव गङ्ग व चमूस्त्रिमार्याम् ॥ विद्याधरों ने आकाश का, निधानों ने पाताल का और पैदल सेना ने भूमि का अवगाहन किया। इस प्रकार वह सेना गंगा की तरह त्रिपथगा–तीन मार्गगामी हो गई। ४१. प्रवतितस्तबल कामवाविषीदतिस्मायननिम्नगापि । _ 'संघो नवोढेव रसोनकत्वपङ्क ककालुष्यभरातिदीना ॥ भरत की सेना के यथेष्ट और विस्तृत संचरण के कारण तथा पानी की न्यूनता से होने वाली कीचड़ की मलिनता के कारण मार्ग की नदियाँ नई वधू की भाँति तत्काल विषण्ण हो रही थीं। ४२. नाव्या नदी सुप्रतरा बभूव , प्रकाशमासीद् गहनं वनं च । स्थलान्यभूवन् सलिलाशयाश्च , क्रमाद् बलैरस्य जयोद्यतस्य । १. तुरङ्गी-घुड़सवार (सादी च तुरगी च स:-अभि० ३।४२५) २. वडवामुखं--(पातालं वडवामुखम्-अभि० ५।५)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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