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... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् विजय के लिए उद्यत भरत की सेना के लिए क्रमशः नौका द्वारा तरने योग्य नदी भी सुखपूर्वक ऐसे ही तरने योग्य हो गई, गहन वन भी प्रकाशित हो गए और सभी जलस्थान स्थल की तरह हो गए।
४३. सुषेणसैन्याधिपतिः समेत्य , जगाद राजानमिदं स्वसैन्यम् ।
तापाल्ललाटंतपसप्तसप्तेविषीदति वात इवांडजानाम् ।।
इतने में ही सुषेण सेनापति भरत के पास आकर बोला-'राजन् ! इस चिलचिलाती धूप में हमारी सेना उसी तरह तिलमिला रही है जैसे पक्षियों का समूह मध्याह्न वेला में आतप से तिलमिलाता है ।
४४. बन्धक पुष्पाणि विकासवन्ति , वीक्षस्व सिन्दूरभरच्छवीनि। .
'वियोगिवक्षस्थलशोणिताक्ता , बाणाः किमेते स्मरवीरमुक्ताः॥
'राजन् ! सिन्दूर की अत्यधिक कांति वाले इन विकसित 'दुपहरिया' के लाल फूलों को देखें । क्या ये वीर कामदेव द्वारा छोड़े गए बाण हैं जो कि वियोगियों के वक्षस्थल के खून से सींचे हुए हैं ?'
४५. तीक्ष्णांशुतप्त्या परितप्यमानाः , प्रसूननेत्रर्मकरन्दवाष्पान् ।
विमुञ्चतीः प्रेयसि सापराधे , लता मृगाक्षीरिव पश्य राजन् !॥
'राजन् ! आप इन लताओं को देखें। जैसे प्रिय पति के प्रति अपराध हो जाने पर कान्ताएँ आंसू बहाती हैं, वैसे ही ये लताएं सूर्य के ताप से संतप्त होती हुई अपने पुष्प रूपी नेत्रों से मकरन्द रूपी वाष्प को छोड़ रही हैं।' .
४६. लोलल्लतामण्डपमध्यलीनो , विलोक्यतां पान्थजनोयमारात् ।
निस्त्रिशसूनध्वज'बाणघातभीत्येव भीतः परिलग्नतृष्णः ॥
'राजन् ! प्रकंपित लता वाले इस मंडप में बैठे हुए उस पथिक को निकटता से देखें। वह काम-वासना से अत्यन्त तृषातुर है । ऐसा लग रहा है कि वह क्रूर कामदेव के बाण-प्रहार के भय से भयभीत है।'
१. बन्धूकः-दुपहरिया नामक फूल (बन्धूको बन्धुजीवकः-अभि०, ४।२१५) २. निस्त्रिश:-क्रूर (क्रूरे नृशंसनिस्त्रिशपापा-अभि० ३।४०) . ३. सूनध्वजः-कामदेव (सून--पुष्पं, ध्वजा अस्ति यस्य, सः)