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नवमः सर्गः
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४७. अयं पशूनां समजः समन्तात् , सरस्तटं घावति लग्नतृष्णः।
कामोव कान्तांधरबिम्बपित्सुः , पश्य त्वमुत्थाष्णुरजोभरत्वात् ॥
'राजन् ! धूली के गुब्बारों के ऊंचे उठने से ज्ञात हो रहा है कि तृषातुर पशुओं का समूह प्यास बुझाने के लिए तालाब के तीर की ओर उसी प्रकार दौड़ रहा है जिस प्रकार एक कामातुर व्यक्ति (काम-वासना को मिटाने) अपनी प्रेयसी के अधरबिम्ब का पान करने के लिए दौड़ता है।'
४८. मद्धिरेषा भरताधिपस्याभवत् कृतार्था न मरन्द लक्षात् ।
सरोजनेत्रः परिरोदितीव , तदुज्झनीयो न जलाशयोयम् ॥
'राजन् ! यह सरोवर कमलनेत्रों से मकरन्द को बहाने के मिष से यह सोचकर रो रहा है कि मेरी यह सारी संपदा भरत-चक्रवर्ती के लिए कृतकृत्य नहीं हुई-प्रयोजनीय नहीं हुई। इसलिए आप सरोवर को न छोड़ें ।'
४६. हस्त्यश्वपृष्ठ्या निपतन्ति राजन् ! , भाराधिरोपाच्चलनक्रमाच्च ।
नीराशयोदञ्चितकन्धरश्च , महोक्षवर्गः श्रममाबित्ति ॥
'राजन् ! भार की अधिकता और प्रवास के कारण ये हाथी, घोड़े और बैल भूमि पर गिर रहे हैं । बड़े-बड़े बैलों का यह समूह जलाशय की खोज में ऊंची ग्रीवा किए हुए खिन्न हो रहा है।'
५०. स्वेदोगबिन्दूनधिमालपट्ट , स्वसैनिकानां नुदति प्रसह्य।
वनं तवातिथ्यविधि विधातुं , प्रफुल्लपद्माकरमारुतेन ॥
'राजन् ! यह अरण्य आपका आतिथ्य करना चाहता है। इसलिए यह आपके सैनिकों के भालपट्ट पर छलकने वाली पसीने की बूंदों का, अपने विकसित कमल वाले सरोवर की ठंडी वायु से, सहसा अपनयन कर रहा है।'
५१. आयोजनं भूमिरपि व्यतीता , सेनानिवेशः क्रियते कथं न।
मध्यस्थतामेत्य महोनिधिः किं , क्षणं न विश्राम्यति पश्य भानुः ?
१. समज:-पशुओं का समूह (समजस्तु पशूनां स्यात्-अभि० ६।५०) २. पित्सुः~-पिपासुः । ३. मरन्द:-फूल का रस (मकरन्दो मरन्दश्च-अभि० ४।१९३) ४. पृष्ठ्यः-बैल (स्थौरी पृष्ठ्यः पृष्ठवाह्यो-अभि० ४।३२६)