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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
३२. अस्योद्यदातोद्यरवैर्ध्वजिन्या , दूरादिवाहूयत नाकलोकात् । . स्वाहाभुजां सञ्चय इत्युदीर्य , कुतूहलं किं भवदालयान्तः ?
भरत की सेना में वाद्यों का उछलने वाला निर्घोष दूर से मानो देवलोक से देवों के समूह को बुलाकर यह कह रहा हो कि तुम्हारे स्वर्ग में क्या कुतूहल हो रहा है ?
३३. महोष्ट्रवामीशतसङकुलायां , कोलाहलः कोप्प्रभवद् ध्वजिन्याम् ।
येनाटवीश्वापदजातियूथैर्भयादलीयन्त गुहा गिरीणाम् ॥
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भरत की सेना सैंकड़ों बड़े-बड़े ऊंटों और घोड़ियों से संकुल थी। उसके प्रयाण से ऐसा कोलाहल हो रहा था, जिसे सुनकर अटवी के हिंसक पशुओं के समूह भयभीत हो गए और वे सभी पहाड़ों की गुफाओं में जा छिपे ।
३४. गन्धेभसिन्दूरभरातिरक्तपथिमं तद् वनमाबभासे ।।
चम्वास्य धूलीनवमेघपङ्क्त्या , चरिष्णुसन्ध्याभ्रमिव क्षपास्यम् ।
गन्धहस्ती के सिन्दूर-संचय से अधिक रक्त मार्गगामी वृक्षों वाला वह वन भरत की सेना से वैसे शोभित हुआ जैसे सेना से उठे रजकणों की नवमेघ की पंक्ति से संचरणशील संध्याकालीन मेघ वाला रात्रिमुख शोभित होता है।
३५. दूरंगतानामथ सैनिकानां , साकेतसौधाग्रशिरोप्यदृश्यम् ।
बभूव चैतन्यमिवातिशुद्ध, स्मरातुराणामसमाहितानाम् ।
भरत के सैनिक बहुत दूर तक चले गए। उन्हें साकेत नगर के सौध-शिखर अब वैसे ही दीखने बंद हो गए जैसे अत्यन्त निर्मल चैतन्य कामातुर और असमाहित व्यक्तियों को दीखना बन्द हो जाता है।
३६. दन्ताबलः केलिनगोपपन्ना , होपपन्ना च रथैर्बहद्भिः।
अस्य प्रयाणेऽपि जनरमानि , स्फुरद्ध्वजा जङ्गमकोशलेयम् ॥
लोगों ने भरत की सेना के प्रयाण काल में उस सेना को ही फहराती हुई ध्वजारों वाली जंगम अयोध्या मान लिया था। बड़े-बड़े हाथियों के कारण वह सेना क्रीड़ा-पवंतों से उपपन्न-सी दीख रही थी और विशाल रथों के कारण वह प्रासाद वाली लग रही थी।
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तुरङ्गमैरग्रसरैः खुराप्रैः , क्षुण्णं रजो यावदुपैत्यनन्तम् । तावद् गजैः पृष्ठचरैमंदाम्भोभरैरधोरक्षि भवीव पङ्कः॥
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