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________________ नवमः सर्गः १७३ सखी किसी कान्ता .को यह कहकर घर ले गई कि-'बाले ! तू मौन को छोड़ दे और अपना काम कर। हे मृगाक्षी ! तू अपनी सखियों की ओर देख । तू दिन में मुरझा' जाने वाले श्वेत कमल की अवस्या को क्यों धारण कर रहीहै ?' २६. स्निग्धाभिरेवात्र सुलोचनाभिः , संतप्यते जीवितनाथपृष्ठे । कि स्नेहभाजो न तिला विमर्यास्तेषां खलः केन च नापि मर्यः॥ इस संसार में स्नेहिल स्त्रियाँ पति के चले जाने पर संतप्त होती हैं। क्या स्नेहिल तिल नहीं पीले जाते ? अवश्य पीले जाते हैं । किन्तु तिलों की खल को कोई भी नहीं पोलता। ३०. अर्थकदिक्संमुखसंचरिष्णुश्चकार सेना शतशश्च मार्गान् । स्वर्वाहिनीवान्तरुपेतभूभृद्विभेदिनी' भारतकामचारा ॥ एक दिशा की ओर प्रयाण करने वाली भरत की सेना अब सैकड़ों मार्गों की ओर बढ़ चली। जिस प्रकार गंगा नदी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बहती हुई अपने बीच में आने वाले पर्वतों को तोड़कर आगे बढ़ती जाती है वैसे ही भरत की सेना भी विभिन्न मार्गों से प्रयाण करती हुई मार्गगत राजाओं को जीतती हुई चली जा रही थी। ३१. विश्वंभराव्योमचरर्धरित्री , न पुनर्मातुमिव प्रवृत्तः । भटैस्तदीयः स्वकरापितास्त्रैः , समंततो व्यानशिरे दिगन्ताः॥ उस समय भरत चक्रवर्ती के वीर सुभट अपने हाथों में अस्त्रों को लेकर सभी दिशाओं में व्याप्त हो गए । भूमि पर चलनेवाले सुभट और आकाश में उड़ने वाले विद्याधर इस प्रकार फैल गए मानो कि वे धरती और आकाश को मापने के लिए निकल पड़े हों। १. जीवितनाथपृष्ठे जीवननाथपरोक्षे सति । २. लविभेदिनी-इत्यपि पाठः । ५. श्लेष-सेनापक्षे एकदिक्संमुखसंचरिष्णु:-एकाशाभिमुखसंचरणशीला। अन्तरुपेतभूभृद्विभेदिनी—अन्तरालायातपृथ्वीपालपातिनी । भारतकामचारा–चक्रवर्तीच्छाचारिणी । गंगानदीपनेएकदिक् -एकाशाभिमुखसंचरणशीला । अन्तरुपेत... -अन्तरालायातपवतघातिनी । भारतकामचारा-भरतक्षेत्रे कामं प्रत्यर्थ, चार:--संचारो, यस्याः ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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