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________________ १७२ ... · भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् सबका अनुभव हो रहा है कि विरह क्या होता है ? स्नेह कैसा होता है ? विषण्णता कैसे होती है ? इससे पूर्व तुझे इन सबकी जानकारी नहीं थी।' २४. अशोकमालम्ब्य लतेव काचित् , सिषेच नेत्राश्रुजलरितीव । प्रवृद्ध एष प्रविधास्यते मां , सेकादशोकां दयितागमेन ॥ एक कान्ता ने लता की भांति अशोक वृक्ष का आलंबन लेकर उसे अपने आंसुओं से यह मानकर सींचा कि यह वृक्ष सिंचन से बड़ा होकर पति के आगमन से मुझे भी अ-शोक-शोक रहित कर देगा। २५. खिन्नेव काचिद् विरहातिभारात् , पदे पदे वाष्पजलैर्गलभिः । .. प्रेयःपदन्यासरजांसि मुक्ताफलरिवैतावकिरन्त्य तूर्णम् ॥ एक कान्ता विरह के भार से अत्यन्त खिन्न होकर पग-पग पर मोतियों की भांति आंसू बिखेर रही थी। वह अपने प्रिय पनि के पदन्यात की रजों को इन मोतियों से वर्धापित करती हुई धीरे-धीरे चलने लगी। २६. कान्तस्य यातस्य पदव्यलोकि', त्वया हि यावन्न रजोन्तराभूत् । अथ स्थिता किं वितनोषि बाले !, संभाष्य सख्येवमवालि काचित् ॥ सखी ने किसी कान्ता को यह कहकर घर की ओर मोड़ा कि-'बाले ! तू यहाँ बैठीबैठी क्या कर रही है ? तू प्रयाण करने वाले अपने पति के मार्ग को तब तक देख चुकी है जब तक कि वह मार्ग धूली से ओझल नहीं हो गया था। २७. दुरुत्तरोयं विरहाम्बुराशिर्मया भुजाभ्यां दयिते प्रयाते । आशातरी चेन्न निमज्जने को , विघ्नोन्तरेतीरयतिस्म काचित् । एक कान्ता ने अपनी सखी से कहा-'सखे ! पति के प्रयाण कर जाने पर विरह के इस समुद्र को भुजाओं से पार करना मेरे लिए शक्य नहीं है। यदि आशा रूपी नौका न हो तो बीच में ही डूब मरने में कौनसी बाधा हो सकती है ?' .. जहीहि मौनं रचयात्मकृत्यं , सखीजने देहि दृशं मृगाक्षि !। . दधासि कि घस्रकुमुद्दशां त्वं , संबोध्य नीतेति च काचिदाल्या ॥ १. अवकिरन्ती-वर्धापयन्ती । २. पदवी-मार्ग (पदव्येकपदी पद्या-अभि०, ४।४६)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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