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नवमः सर्गः .. १६. कान्तर्यवार्यन्त मुहः प्रबन्धात्', सह व्रजन्त्यो दयितास्तदानीम् ।
स्वस्वामिकृत्याधिकदत्तचित्तः , शैलेस्तटिन्याप इवापतन्त्यः॥
सभी सुभट अपने स्वामी के कार्यों के प्रति दत्तचित्त थे। उनकी प्रणाय-वेला में उनकी कान्ताएं साथ चलने का हठ कर रही थीं। उस समय उन सुभटों ने हठ करने वाली अपनी कान्ताओं को बार-बार उसी प्रकार निवारित किया जैसे पर्वत नदियों के आने वाले पानी को निवारित करते हैं।
२०. विषीद मा तन्वि ! चरालयं स्वं , श्यामं मुखं मा कुरु साञ्जनास्त्रे ।
श्वस्ते समेता दयितः प्रियाल्या, निन्ये गहं काचिदिति प्रबोध्य ॥
'सुन्दरी ! तू खेद मत कर ! तू अपने घर जा । कज्जल के कारण काले बने हुए आंसुओं से अपने मुंह को काला मत. बना । प्रातःकाल तेरा पति आ जाएगा'-इस प्रकार कहकर नायिका की प्रिय सखी उसे घर ले गई।
२१. वियोगतः प्राणपतेः पतन्ती , विसंस्थुलं पाणिधृतापि सख्या।
चैतन्यमापय्य च तालवन्तानिलैरनायि स्वगृहं मगाक्षी ॥
अपने प्रिय पति के वियोग से एकं नायिका अपनी सखी द्वारा हाथ का सहारा दिये जाने पर भी व्याकुलता से गिर रही थी। तब ताल के बने पंखे से हवा देकर सखी ने उसे सचेत कर घर पहुँचाया।
२२. • अमुञ्चती स्थानमिदं विमोहात् , प्रेयःपदन्यासमनुवजन्ती ।
काचिद् गलद्वाष्पजलाविलाक्षी , सख्येरिताप्युत्तरमार्पयन्न ।
एक कान्ता की आंखें आंसुरों से पंकिल हो रही थीं। वह अत्यन्त विमूढ होकर अपने स्थान से नहीं हट रही थी। वह अपने पति के चरणों के पीछे-पीछे चल रही थी। उस अवस्था में सखी के द्वारा कुछ कहे जाने पर भी वह उत्तर नहीं दे रही थी।
२३. का विप्रयुक्तिः प्रणयश्च कीदृग , विषण्णता केयमितीरणेन ।
मुग्धे ! पुरा त्वं सकलानुभूतिस्तवाद्य सख्येति दधेऽथ काचित् ॥
एक सखी ने नायिका को यह कहकर सान्त्वना दी कि–'हे सुन्दरी ! आज तुझे इन
१. प्रबन्धात्-आग्रहात् । २. विसंस्थुलं-व्याकुलतया चीवराद्यऽसंभालनशक्तिपूर्व यथा स्यात् तथा ।