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भरतबाहुबलि महाकाव्यम्
पत्नी ने कहा- 'प्रिय ! तुम्हारे बिना कामदेव के फूलों के बाण भी मेरे लिए लोहमय बन जायेंगे ।' यह सुनकर पति ने कहा - ' प्रिये ! तेरे बिना मुझे दो प्रकार की अनुभूति होगी - ( संग्राम में ) लोहमय बाणों की और ( तेरे बिना) कामदेव के कुसुममय बाणों की । लोहमय बाण सहे जा सकते हैं किन्तु कामदेव के कुसुममय बाण असह्य होते हैं ।'
१५.
पत्नी बोली- 'प्रिय ! मेरे हाथों से चालित पंखे की हवा से मैंने मैथुन से उत्थित तुम्हारे पसीने की बूंदों का आचमन किया था ।' पति ने कहा- 'बाले ! मैथुन तो तेरे ही अधीन है । अतः उससे उठने वाले स्वेदबिन्दु अब मेरे शरीर पर कहां से होंगे ? ( क्योंकि आज मैं तुमसे दूर चला जा रहा हूँ ।) '
१६.
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आचामयं स्वेदलवान् रतोत्थान् मत्पाणिधूतव्यजनानिलंस्ते । संवेशनं त्वद्द्वशमेव बाले !, कुतो मम स्वेदकणास्तदुत्थाः ||
१७.
स्वप्नान्तरे त्वं व्यवलोकनीयो, मया प्रिय ! प्रीतिनिमग्नदृष्ट्या । प्रिये ! ममोपैष्यति नैव निद्रा त्वया विना तहि कथं त्वमोक्ष्या ॥
पत्नी ने कहा - 'प्रिय ! मैं स्वप्न में भी तुमको प्रेमभरी दृष्टि से देखूंगी।' पति ने कहा - 'प्रिये ! तेरे बिना मुझे नींद ही नहीं आएगी तो मैं तुझे कैसे देख पाऊंगा ?"
१८.
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प्रेयोजयश्री वरणोत्सुकस्त्वं, विस्मारयेर्मा मम दूरगायाः ।
प्रिये ! पुरस्ताद् बहलीश्वरस्य कुतो जयश्रीप्रतिलम्भ एव ॥
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'हे प्रिय ! तुम अपनी अत्यन्त प्रिया जय रूपी लक्ष्मी का वरण करने के लिए उत्सुक हो गए हो । मैं तुम्हारे से बहुत दूर हूँ, किन्तु मुझे कभी भूल मत जाना ।' पति ने कहा 'प्रिये ! बाहुबली के आगे जयश्री को प्राप्त करने की बात ही कहाँ है ?'
इत्थं विचेविरहातिदीना युवद्वयीनां विविधाः प्रलापाः । निरन्तरे हि प्रणयातिरेके, हृदालये शल्यति विप्रयोगः ॥
इस प्रकार दम्पतियों के विरह से अति दीन बने हुए विविध प्रलाप होने लगे । यह सच है कि जहाँ प्रणय का निरन्तर अतिरेक होता है वहाँ वियोग हृदय में शल्य की भाँति चुभता रहता है ।