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नवमः सर्गः
१६६ बोली-'मैंने तुम्हें बाँध लिया है। अब तुम कहां जाओगे ? बंधा हुआ हाथी भी वश में हो जाता है।'
१०. कुन्ताग्रधारा विषहिष्यसे त्वं , कथं यतो वृन्तमरंतुदं ते ।
इतीरिणी काञ्चिदुवाच कान्तस्त्विदं वचोरंतुदमेव ते मे ॥
कान्ता ने पति को सम्बोधित कर कहा-'नाथ ! डंठल का प्रहार भी तुमको व्यथित कर देता है तो भला तुम भाले की तीखी नोक के प्रहार को कैसे सहन कर सकोगे ?' यह सुनकर उसने कहा—'प्रिये ! तेरी यह वाणी मुझे भाले से भी अधिक पीड़ित कर रही है।'
११. मनो मदीयं भवता सहैतं , मुक्तास्मि तन्वा त्विह जीवितेश !
उवाच कान्तो हृदयं ममापि , त्वय्येव साधुव्यतिहार एषः ॥
कान्ता ने कहा-'प्राणनाथ ! मेरा मन तुम्हारे साथ ही जा रहा है। मैं इस घर में केवल शरीर के द्वारा ही रह रही हूँ।' तब पति ने कहा-'प्रिये ! मेरा हृदय भी तेरे ही साथ है। यह परिवर्तन (तेरा मन मेरे साथ और मेरा हृदय तेरे साथ) कितना अच्छा है।'
१२. . पोतन्ति तारुण्यजलेऽबलानां , हृदीश्वराः कामचलत्तरङ्ग। - प्रिये ! ऽत्र यूनां तरणाय दिष्टं , धात्रा सुनेत्राकुचकुम्भयुग्मम् ॥
पत्नी बोली:-'पति (हृदयेश्वर) नारियों के तारुण्य जल, जिसमें काम-वासना की चंचल तरगें उछलती हैं, में यानपात्र के समान होते हैं।' पति ने कहा-'प्रिये ! विधाताने युवकों के लिए स्त्रियों के ये स्तन रूपी दो कलश तारुण्यजल को तर जाने के लिए ही बनाए हैं।'
१३. नवैः प्रसूनः परिकल्प्य शय्यां , मार्गो मयालोकि तवैव नक्तम् ।
प्रसूनशय्यानियमोस्तु तावद् , यावन्न सङ्गो मम ते च भावी ॥
पत्नी बोली-'प्रिय ! नए फूलों की शय्या बिछाकर मैं रात भर तुम्हारा ही मार्ग देखती रही।' पति बोला-'प्रिये ! जब तक तेरा पुनः संगम नहीं होगा तब तक मुझे फूलों की शय्या पर सोने का नियम है, व्रत है।'
१४, शृङ्गारयोनेः' कुसुमानि बाणा , विना त्वया लोहमयाः शरा मे।
द्वेधाऽनुभूतिर्मम मार्गणानां , भवित्र्यनङ्गस्य शरास्त्वसह्याः॥ १. शृङ्गारयोने:-कामदेवस्य ।