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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
५. अमङ्गलं मास्तु यियासतोऽस्य , पतत् कयाचिद् धृतमश्रमन्तः।
तेनैव सिक्तस्य वियोगवन्हेनिःश्वासधूमावलिमुद्वमन्त्या ॥
पति को रण की ओर जाते देखकर किसी कान्ता की आँखों में आंसू छलकने लगे। उसने उन आंसुओं को यह सोचकर आंखों में ही रोक लिया कि उनके गिरने से, युद्धस्थल की ओर जाने के इच्छुक मेरे प्रिय पति के कहीं अमंगल न हो जाए । उसने अपने उन्हीं प्रांसुओं से वियोग की अग्नि का सेचन किया और वह नि:श्वास रूपी धुएं का वमन करने लगी।
६. कयाचन द्वारि वितत्य बाहू , न्यत्ति पक्षाविव राजहंस्याः। ...
गमाय तेऽहं प्रिय ! नादिशामीत्युदीरयन्त्या प्रणयेन कान्तः ॥ . .
किसी कान्ता ने द्वार पर राजहंसी की फैली हुई पांखों की भांति अपनी बांहें फैलाकर, 'प्रिये ! मैं तुम्हें जाने के लिए आदेश नहीं दे सकती'—यह कहते हुए पति को प्रेमपूर्वक रोक लिया।
७. वियोगदीनाक्षमवेक्ष्य वक्त्रं , तदैव कस्याश्चन सङ्गराय ।
वाष्पाम्बुपूर्णाक्षियुगः स्वसौधान् , न्यगाननः कोपि भटो जगाम ॥
एक सुभट वियोग से उदासीन अपनी प्रिया के चेहरे को देखकर नीचा शिर किए उसी समय युद्ध के लिए अपने घर से चल पड़ा। उसकी, आंखें आँसुओं से भर गई थी।
८. गन्तैष बाले ! दयितो भवत्याः , कुरुष्व तन् मा मुखमद्य दीनम् ।
त्वं वीरपत्नी भव काचिदेवं , व्यबोधि सख्या रुदती तदानीम् ॥
उस समय सखी ने रोती हुई कामिनी को समझाते हुए कहा- 'बाले ! तुम्हारा यह पति रण के लिए जाने ही वाला है। इसलिए आज तुम अपना मुंह दीन मत करो। तुम वीरपत्नी बनो।'
६. आश्लिष्य दोर्वल्लियुगेन काचित् , कान्तं बभाषे गलदश्रुनेत्रा ।
बद्धो मया त्वं कुत एव गन्ता , रुद्धो गजेन्द्रोऽपि वशत्वमेति ॥
कोई कामिनी अपनी दोनों भुजाओं से पति का आलिंगन करते हुए अश्रुपूर्ण नेत्रों से
१. 'उद्वहन्त्या' इत्यपि पाठः। २. वीरपत्नी-(वीरपत्नी वीरभार्या-अभि० ३.१७६)