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अष्टादशः सर्गः
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पानी से अभिषिक्त था । वे अपनी सुन्दरियों के साथ यथेष्ट क्रीड़ा करने के लिए सरोवर में प्रविष्ट हुए ।
३३. शोषं रसानां किरणैः खरांशुं कुर्वाणमालोक्य घनैः पयोधैः । पयः समादाय नभः सभानु, प्यधीयताऽरण्यमगैरिवाशु ||
'सूर्य अपनी किरणों से रसों का शोषण कर रहा है - यह देखकर बादलों ने समुद्र से पानी लेकर सूर्ययुक्त आकाश को शीघ्र ही ढंक दिया जैसे वृक्ष अरण्य को ढंक देते हैं।
३४.
प्रतापवत्वात्तरणे ! त्वयंनां प्रातप्य धात्रों किमवाप्तमत्र ? तापापनोदं वयमाचरामोऽस्यास्तज्जगर्जुर्जलदा इतीव ॥
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'हे सूर्य ! तुम प्रतापवान् हो इसलिए इस धरती को प्रतप्त करते हो परन्तु इस प्रवृत्ति से तुम्हें क्या मिला ? देखो, हम इस धरती का ताप दूर करते हैं - मानो यह कहते हुए बादल मर्जारव करने लगे ।
३५. विद्युल्लतालिङ्गितवारिदाल, वीक्ष्येति केकाः शिखिनामभूवन् । ! किमद्यापि पथि व्रजन्तो न हि त्वरध्वं निलयाय यूयम् ?
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बिजली का आलिंगन करने वाली बादलों की श्रेणी को देखकर मयूर केका करने लगे । वे केका के व्याज से यह कह रहे थे - 'पथिको ! मार्ग में चलते हुए तुम घर पहुंचने के लिए अब भी शीघ्रता क्यों नहीं कर रहे हो ?”
३६. आपिञ्जरी' नीपतरो रजोभिदिशां विभागा विबभुः गन्धैश्च धाराहत पल्लवानां, सुगन्धिनोऽरण्यभुवः
समंतात् । प्रवेशाः ॥
चारों ओर दिशाओं के विभाग कदम्ब वृक्षों की धूली से पीत रक्त होकर शोभित हो रहे थे । उस अरण्य के भूमी - प्रदेश मेघ की धारा से आहत पल्लवों की गंध से सुगंधित हो रहे थे ।
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३७. भववधूवर्गवियोग दीर्घनिश्वासवातैः पथिका निषिद्धाः ।
यदाननान्तः पतदम्बुधारैः सारङ्गमै रित्थमभूत्तदानीम् ॥
उस समय ऐसा घटित हुआ कि मुंह से गिरती हुई जलधारा वाले चातक पत्नियों के
१. पिञ्जरः -- पीत रक्त (पीतरक्तस्तु पिञ्जरः - अभि० ६ । ३२ )
२. सारङ्गम: - चातक ( सारङ्गो नभोम्बुपः अभि० ४।३६५ )