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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् होने वाले वियोग से निकलते हुए दीर्घ निःश्वास-वायु द्वारा पथिकों को जाने से टोक रहे थे।
३८. वियोगिनिःश्वासनितान्तधूमंदिशो दश श्यामलिता इवासन् ।
तडित्स्फुलिङ्गालिरिव स्फुरन्ती , व्यतय॑तेत्यन्तरिहापि कश्चित् ॥ वियोगी व्यक्तियों के निश्वास से निरंतर निकलने वाले धूए से दशों दिशाएं श्यामल सी हो गई। कुछ व्यक्तियों ने उन वियोगी व्यक्तियों के अन्तर में स्फूर्त बिजली की भांति स्फुलिंग श्रेणी की वितर्कणा की।
३९. पयोदकाले करवालकाले , सूर्येन्दुकारानिलये विचेरुः। .
रथाङ्गनाम्नां परितो विरावाः, सुदुःश्रवा वासरयौवनेऽपि ॥
तलवार की भांति नीली आभा वाले तथा सूर्य और चन्द्रमा के लिए कारागृह बने हए मेघकाल में चक्रवाकों के दिन में नहीं सुने जाने वाले शब्द मध्यान्ह काल में भी चारों ओर फैल गये । (उन्होंने घोर अंधकार के कारण यह समझ लिया था कि रात हो गई है।)
४०. सन्मल्लिकामोदसुगन्धिवाटीलुभ्यद्विरेफारवबद्धचेताः ।
व्रजो वधूनामपि पुष्पबाणसेवी व्यतीयाय पयोदकालम् ॥ उस समय मल्लिका के फूलों की सुगंधित वाटिका से प्रसृत होने वाले आमोद में भौरें लुब्ध होकर गुंजारव कर रहे थे । कामवासना से दीप्त स्त्रियां उनके गुंजारव में आसक्त हो रही थीं। इस प्रकार उन्होंने वह वर्षाकाल बिताया।
४१. सौधं सुधाधामकलाकलापश्वेतं सुधालेपमयं विवेश ।
कान्ताभिरेकान्तसुखं स साद्धं , वर्षासु हर्म्यस्थितिरेव धृत्यै ॥
महाराज भरत अपनी पत्नियों के साथ एकान्त सुखमय, चूने से पुते हुए और चन्द्रमा की कलाओं के समूह की भांति श्वेत प्रासाद में प्रविष्ट हुए । वर्षा ऋतु में घर में रहना ही धृति के लिए होता है।
४२. घनात्ययोऽपि ज्वलदुष्णरश्मिः , प्रादुर्बभूवाच्छ'तमान्तरिक्षः।
फुल्लभिरम्भोरुहिणीसमूहैविकासवद्भिविहसन्निवान्तः॥
अब शरद् ऋतु आ गया । उसमें सूर्य की रश्मियां तेज हो गई। आकाश स्वच्छतम
१. घनात्ययः-शरद् ऋतु (शरद् धनात्यय:-अभि० २७२) २. अच्छम्-स्वच्छ, प्रसन्न (अच्छं प्रसन्ने–अभि० ४।१३७)