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________________ अष्टादशः सर्गः ३५७ हो गया। प्रफुल्लित और विकसित होते हुए कमल के समूहों से वह ऋतु मन ही मन हंस रहा हो ऐसा लगने लगा। ४३. समीरणः पद्मपरागपूरसंपृक्तदेहो जललब्धजाड्यः। विशारदः शारद' एव लिल्ये , तीव्रातपक्लान्तिभरापनुत्त्यै ॥ शरद् ऋतु का पद्म-पराग से युक्त पवन जल की संपक्ति के कारण कुछ मन्द हो रहा था। निपुण व्यक्तियों ने तीव्र आतप की क्लान्ति को दूर करने के लिए उस पवन का आसेवन किया। ४४. गवाक्षजालान्तरलब्धमार्गः, करैः सितांशोमिलितानि पश्यन् । चक्रे प्रियास्यानि स ऊहमेनं , किं चन्दनाम्भःपृषतोक्षितानि ? गवाक्षों की जालियों से भीतर आने वाली चन्द्रमा की किरणों से भरत की कान्ताओं के मुख संपृक्त हो गए । यह देखकर चक्रवर्ती भरत ने सोचा-क्या इन कान्ताओं के मुख चन्दन के पानी की बूंदों से सिंचित हैं ?' ४५. स चित्रशालासु मनोरमासु , संक्रान्तरूपातिशयाञ्चितासु । शरत्सुधाधामरुचोज्ज्वलासु, रेमे मृगाक्षीभिरनुत्तरश्रीः॥ अनुत्तर शोभा वाले महाराज भरत अपनी सुन्दरं पत्नियों के साथ मनोरम, रूपातिशय को प्रतिबिम्बित करने वाली तथा शरद् चन्द्रमा की किरणों से उज्ज्वल चित्रशालाओं में क्रीड़ा करने लगे। ४६. शरघवापद रसमिक्षयष्टिविकासमाज्यब्जवनानि चासन् । मरालबालदधिरे प्रमोदाः, किं शारदो नः समयो हि नेग ? शरद् ऋतु में इक्षु में रस भर आया । कमल-वन विकसित हो गए। हंसों के शिशु आनन्दित होने लगे। क्या हमारे लिए भी शरद् ऋतु का यह समय ऐसा ही नहीं हो जाता ? .. ४७. विधुहिमानीमिरधीकृतस्तदुभाम्बभूवे शरदा रुषेव । का नाम नारी सहते सपत्नीपराभवं भ्रष्टपयोधरा'ऽपि ॥ हिमपात ने चन्द्रमा को अपने अधीन कर डाला। किन्तु शरद् ऋतु ने कुपित १. शरदि भवः शारदः समीरणः । २. श्लेष-भ्रष्टपयोधरा-वह शरद् ऋतु जिसमें पयोधर-मेष नहीं रहते। वह स्त्री जिसके पयोधर-स्तन भ्रष्ट हो गए हों, शिथिल हो गए हों।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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