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________________ ३५४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् मधुमास में कामदेव जैसा ओजस्वी था वैसा वह स्वयं उष्ण काल में नहीं रहा । क्योंकि मनुष्यों को सब ओर से शक्ति देने वाला एक समय ही है। २८. तन्व्यो बभूवुः सरितः समन्तान्नार्यो वियुक्ता इव जीवनेन । ततस्त्रियामाऽपि तनूबभूव , स्ववर्गकाश्यं हि करोति कायम् ॥ चारों ओर नदियां पानी से वैसे ही क्षीण हो गईं जैसे स्त्रियां पति के वियोग में क्षीण हो जाती हैं । उसके बाद रात्रियां भी क्षीण हो गईं, छोटी हो गईं। क्योंकि स्व-वर्ग की कृशता कृशता पैदा करती है। २६. अलब्धमध्या अपि केलिवाप्यः , सुखावगाहा अभवन्निदाघे । . सधुक्तयोथिन्य इवापजाड्ये , लक्ष्मीवतां लक्ष्म्य इवाल्पदैवे ॥ जिनका मध्य प्राप्त न हो ऐसी क्रीडा करने की गहरी वापियां भी ग्रीष्म ऋतु के । कारण सहज तैरने योग्य हो गईं, जैसे विद्वान् व्यक्ति में अर्थपूर्ण उक्तियां और मंदभाग्य में धनी व्यक्तियों की संपदा सहज अवगाहित हो जाती है । ३०. तुषारतां तत्र तुषारभानोः , स्प्रष्टुं रजन्यां जन उत्ससाह । श्रीखण्डसंपृक्तमहन्यभीक्ष्णं , पयश्चयं चालयदीर्घिकाणाम् ॥ रात्री में लोग चन्द्रमा की शीतलता का स्पर्श करने के लिए और दिन में घर की वापियों के चन्दन से संपृक्त पानी का बार-बार स्पर्श 'करने-स्नान करने के लिए उत्साहित हुए। ३१. हाराभिरामस्तनमण्डलीभिः, सूक्ष्मांशुकालोक्यतनुप्रभाभिः । धम्मिल्लभारापितमल्लिकाभिर्वधूभिरुन्मादमुवाह कामः ॥ कामदेव स्त्रियों के साथ उन्मत्त हो रहा था। वे स्त्रियां हारों से सुशोभित स्तनों वाली थीं। सूक्ष्म वस्त्रों के अन्तराल से उनके शरीर की प्रभा छिटक रही थी। उनके जूड़ों में मल्लिका के फूल लगे हुए थे। ३२. सगन्धसाराधिकसारतोयाभिषिक्तदेहः सह कामिनीभिः । __रन्तुं रथाङ्गो सलिलाशयेषु , प्रावर्तत स्वरमजो' द्वितीयः॥ . द्वितीय विधाता चक्रवर्ती भरत का शरीर चंदन से भी अधिक सुगंधित १. अजः--विधाता (परमेष्ठ्यजोऽष्टश्रवणः स्वयम्भूः--अभि० २।१२५)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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