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________________ अष्टादशः सर्गः .. ३५३ २२. स नूपुरारावपदाभिघातात् , स्त्रीणामशोकोऽपि समान्यधार्षीत । व्यलोलरोलम्बरुताञ्चितानि , न कारणात् कार्यमुपैति हानिम् ॥ नपरों के शब्द युक्त स्त्रियों के पादाभिघातों से भी अशोक वृक्ष के फूल निकल आए । उन पर चंचल भौरें गुनगुनाहट कर रहे थे। कारण के उपस्थित होने पर कार्य की कोई हानि नहीं होती। २३. पिकस्वरामोदवती च यूनां , जहार चेतो वनराजिरामा । स्मेरप्रसूनस्तबकस्तनाभिरामा मुहुर्मेदुरकान्तिकान्ता ॥ वहां की वनराजि रूपी लक्ष्मी कोयल के मीठे स्वरों से युक्त, आमोद बिखेरने वाली, विकसित पुष्पों के गुच्छे रूपी स्तनों से सुन्दर और कोमल कांति से मनोज्ञ थी। उसने तरुणों के चित्त का बार-बार हरण कर दिया। २४. जना ! रसालस्तरेष सत्यो, यन्मजरीस्वादवशात् स्वरो मे । बभूव कामं सरसः पिकोऽपि , स्वरं न्यगादीदिति पञ्चमोक्त्या ॥ कोयल ने भी यथेष्ट रूप से पंचम स्वर में यह कहा-'लोको ! यह आम्रवृक्ष है। यह सच है कि इस वृक्ष की मंजरियों के स्वाद से ही मेरा स्वर अत्यधिक सरस हुआ है, मीठा हुआ है। २५.. रन्ता स चंकी समयः स सा श्रीः; सर्वत्र ता राजसुताः सहायाः। कि तहि वयं खलु. तत्र देवी , वाग्वादिनी चेत् कुरुते प्रसादम् ॥ . रमण करने वाला वह चक्रवर्ती भरत, वह मधुमास का समय, वनराजि की वह शोभा और सर्वत्र सहायक वे राजपुत्रियां-इतना होने पर यदि वाग्देवी सरस्वती स्वयं वहां कृपा करदे तो फिर कहना ही क्या ? २६. पतिनदीनामिव वाडवेन , जरागमेनेव वयःस्थभावः। मधुनिदाघेन ततस्त्वशोषि , प्रतीवतापाम्युदितक्रमेण ॥ जैसे वाडवाग्नि समुद्र का और बुढापा यौवन का शोषण करता है वैसे ही तीव्र ताप के बढ़ने से ग्रीष्म ऋतु ने मधुमास का क्रमशः शोषण कर दिया। २७. ओजस्वितां सूनधनुर्यथाऽयं , मधौ तथोष्णे स्वयमेव नाऽधात् । बलावहः सर्वत एव पुंसां , संभावनीयः समयो यदेकः ॥ १. यह कविरूढी है कि स्त्रियों के पाद-प्रहार से अशोक वृक्ष पुष्पित हो जाता है। २. पाठान्तरम्-प्रतापतीवाभ्युदितक्रमेण ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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