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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् चन्द्रमा का तेज जो समुद्र की फेनों की तरह नितान्त मनोज्ञ था, वह चारों ओर फैल गया । इसीलिए सुंदरियों के चित अत्यधिक मान से व्याप्त हो गए।
१७. प्रसूनबाणान् प्रगुणीचकार , शृङ्गारयोनेर्मधुलोहकारः ।
उत्तेज्य शीतद्युतिबिम्बशाणे , युवद्वयीमानसभेददक्षान् ॥ मधुमास रूपी लोहकार ने चन्द्रमा के बिम्ब रूपी शाण पर तरुण और तरुणियों के मन को भेदने में दक्ष कामदेव के पुष्प-बाणों को उत्तेजित कर उन्हें तीखा बना डाला।
१८. प्रियः सुरा यौवनवृद्धिमत्ता , ज्योत्स्ना सितांशोश्च मधुश्च मासः ।
दुरापमेकैकमिति प्रियालिः, काचित् सखीरित्यनुवेलमाह ॥'. उस सयय किसी नायिका ने अपनी सखियों को समयोचित बात कही-'पति, सरा' यौवन का उभार, चन्द्रमा की चांदनी और चैत्रमास-इन एक-एक का मिलना भी कठिन होता है । (जहां ये सारे एक साथ प्राप्त हों, उसका तो कहना ही क्या ?)
१६. लज्जा युवत्याशयसङ्गिनीह , क्षयं जगाम क्षणदेव किञ्चित् ।
नीता च दूरं सुरतेपि सर्वा , द्वयोः कियत्येकपदे स्थितिहि ?
उस समय युवतियों के आशय की संगिनी लज्जा भी रात्री की भांति कुछ क्षीण हो गई और मैथुन-काल में वह लज्जा पूर्ण रूप से दूर हो गई। क्योंकि दो (स्त्री और लज्जा) एक साथ कितनी देर टिक सकती हैं ?
२०. कादम्बरी पाननितान्ततुष्टा , विहाय वासः कुसुमान्तरीयम् ।
ददौ प्रियाविर्भवदङ्गकान्तिः , पातुः प्रियस्य प्रमदं वसाना ॥
सुरापान से अत्यधिक तुष्ट किसी प्रिया ने वस्त्र छोड़कर फूलों के. अंतरीय को धारण किया। उसने अपने शरीर की कांति को प्रगट कर अपने रक्षक पति को हर्षित कर डाला। २१. वधूमुखस्वादुरसैनिषिक्तः , पुष्पाणि तत्सौरभ वन्त्यमुञ्चत् ।
यो यच्च तच्चौर्यमपास्य सोऽयं , तरुस्तदेको बकुलो रसज्ञः ॥
बकुल ही एक ऐसा रमज्ञ वृक्ष है जो कुछ भी नहीं चुराता, जैसा उसको प्राप्त होता है, वैसा ही लौटा देता है। स्त्रियों के मुख से निकली मदिरा से निषिक्त होकर वह वृक्ष उसी मदिरा की सुगंधी वाले फूलों को बाहर छोड़ता है अर्थात् उससे वैसे ही फूल फूट पड़ते हैं।
१. कादम्बरी—मदिरा (कादम्बरी स्वादुरसा हलिप्रिया-अभि० ३।५६६)