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________________ ३५१ अष्टादशः सर्गः . ११. महो मदीयं दिशि दक्षिणस्यां , मन्दं हिमानी ववृधे ततोऽसौ । इतीव भानुर्दिशि चोत्तरस्यां , हिमालयं नाम नगं जगाम ॥ हिम-समूह ने दक्षिण-दिशा में मेरी किरणों को मंद कर डाला है, मानो कि यह सोचता हुआ सूर्य उत्तर-दिशा में हिमालय पर्वत पर चला गया। १२. मुहुर्मुह राजमरालबालरम्भोरुहिण्यङ्कनितान्तसक्तैः। आविष्कृतारावभर विशेषाद् , धात्रीव चैत्र सरसी सिषेवे ॥ उस चैत्र मास में कमलिनियों की गोद में सदा आसक्त रहने वाले तथा शब्दों के द्वारा अपना अस्तित्व बतलाने वाले राजहंसों के शिशु, पृथ्वी की भांति सरोवर में विशेष रूप से बार-बार क्रीडा करने लगे। १३. युवद्वयोचितदरीनिवासिमानग्रहग्रन्थिभिदो विरावाः । पुंस्कोकिलानां प्रसभं प्रसस्र वनस्थली)न्मिषितासु पुष्पैः॥ फूलों से विकसित वनस्थलियों में पुंस्कोकिलों के 'कुहू-कुहू' के शब्द सहसा फैल गए। वे शब्द तरुण-तरुणियों के चित्त रूपी गुहा में निवास करने वाली मानग्रह रूपी ग्रन्थी का भेदन करने वाले थे। १४. इतीन्दुगौरैस्तिलकप्रसूनः, सर्वान् मधुश्रीरहसोदिव' न्। ऋते न कस्यापि भविष्यति श्रीरमूदृशी भृङ्गरुतर्भणन्ती॥ • तिलक वृक्ष के चन्द्रमा की भांति गौर फूलों से मधुमास की शोभा सभी ऋतुओं का उपहास कर रही थी। वह ऋतु भौरों के गुनगुनाहट से मानो यह कह रही हो कि ऐसी शोभा इस ऋतु के बिना किसी की भी नहीं होती। १५. आरादभूवन् प्रविकासभाजि , यस्मिन् प्रसूनानि दृशां प्रियाणि । अयं तरुः कस्त्विति षट्पदस्य , स किंशुकोऽपि भ्रममाततान ॥ दूर से देखने पर जिस वृक्ष के विकसित फूल आंखों को प्रिय लगते थे, उस किंशुक : वृक्ष ने भौरों के मन में भ्रम पैदा कर यह प्रश्न उपस्थित कर दिया कि-'यह कौन सा वृक्ष है ?' पयोधिडिण्डीरनितान्तकान्तं , पीयूषकान्तेविचचार तेजः। तेनैव चेतांसि विलासिनीनां , वितेनिरे मानपराञ्चि कामम् ॥
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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