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- भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् चक्रवर्ती भरत अपनी समस्त सुन्दरियों के साथ सभी ऋतुओं के योग्य विलास-नृत्यों से क्रीडा करने लगे, जैसे समुद्र उठती हुई विभ्रम रूपी लहरों वाली नदियों के साथ क्रीडा करता है। ६. राजा ऋतूनामहमस्मि शश्वत् , सेवापरोऽमुष्य भवामि तस्मात् ।
इतीव राजानमिमं जगाम , मधुर्मधुस्यन्दिभिराशु पुष्पैः ॥ ... 'मैं सदा सभी ऋतुओं का राजा हूं, नायक हैं, इसलिए मैं भरत चक्रवर्ती की सेवा करू'—यह सोचकर चैत्र मास मधु बिखरने वाले पुष्पों के साथ शीघ्र ही राजा भरत के पास आ पहुंचा। ७. आमोददायी कुसुमैनवीनविलासिनामेष मधुस्ततोऽहम् । . .
भवामि सौख्याय रथाङ्गनाम्नां , रविविचार्येति शनैश्चचार ॥: . 'यह मधुमास विलासी पुरुषों को नए सुगंधित पुष्पों से आमोद देने वाला है, इसलिए मैं भी चक्रवाकों के लिए सुखकर होऊं'—यह सोचकर सूर्य अत्यन्त धीमे चलने लगा। ८. स्मेरैः प्रसूनः स्मितमादधाना , बालप्रवालैर्दधती च रागम् ।
पुंस्कोकिलमजुरवारवद्भिर्वनस्थलीयं मधुना लिलिङ्ग ॥ उस समय वनस्थली विकसित पुष्पों से हंस रही थी। नए प्रवालों से वह लाल हो रही थी। पुंस्कोकिलों के मीठे शब्दों से वह गुंजायमान थी। मधुमास ने ऐसी वनस्थली का आलिंगन किया। ६. आहासि विस्मेरसरोरुहालीव्याजैः सरोभिर्मगधैरिवास्य ।
मधुव्रतवातगिरा भणद्भिरमूदृशां कीतिकरा न के स्युः ? वहां के तालाब विकसित कमल-पंक्तियों के मिष से हंस रहे थे और भ्रमर-समूहों की वाणी में बोल रहे थे, मानो कि वे भरत के मंगल-पाठक हों। भरत जैसे महान व्यक्तियों का कीतिगान करने वाले कौन नहीं होते ?. १०. इमा नलिन्यस्तुहिनेन होना , वितेनिरे रोषभरादितीव ।
रविहिमानीः स्नपयाम्बभूव , प्रियापराभूतिररंतुदा हि ॥ 'हिमपात ने इन नलिनियों को कांतिहीन बना दिया है'—यह सोचकर सूर्य ने क्रोध से हिम-समूह को पिघाल डाला। क्योंकि प्रिया की पराभूति दुःखदायी होती है ।
१. मधु:-चैत्र मास (चत्रो मधुश्चत्रिकश्च–अभि० २।६७) २. हिमानी-हिमपात (हिमानी तु महद्धिमम्-अभि० ४।१३८)