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पञ्चमः सर्गः
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शोभित 'मालव' देश के राजा को और धन, हाथी और घोड़ों का दान देकर मंगलपाठकों को प्रसन्न करने वाले 'मागध' देश के राजा को बुलाओ ।
संग्राम की बात को सुनकर जिनके कानों के केश उठ खड़े होते हैं, उन 'कुन्तल' देश के राजा को तथा शत्रुरूपी हाथियों को निवारण करने में निपुण सिंह के समान सिंहनाद करने वाले 'मरुधर' देश के राजा को बुलाओ ।
जिसके मंगल विस्तीर्ण हैं वैसे 'जंगल' देश के राजा को, विस्तीर्ण लाट देश रूपी ललाट पर तिलक के समान शोभित राजा को, नत होने वाले व्यक्तियों के लिए हितकर 'कच्छ' देश के राजा को और वैरियों के लिए वक्र 'दक्षिण' देश के राजा को बुलाओ ।
संग्राम में निष्करुण 'कुरु' देश के राजा को, शीघ्रगामी घोड़ों के स्वामी 'सिन्धु' देश के राजा को, शत्रुओं का नाश करनेवाले 'किरात' देश के राजा को और 'मलय' देश के राजा को बुलाओ ।
दूत भेजकर आदरपूर्वक इन सब भूपतियों को तथा और भी बहुत सारे उद्भट वीरों को परम प्रमोद से इन्द्र द्वारा रचित, मनुष्यों से संकुल मेरी इस नगरी अयोध्या में बुलाओ ।
६६.
हे सेनाधिप ! अपने सिंहनाद से कायरों को कंपित करनेवाले सुभटों के हाथ में तलवार दो अथवा धन दो। हमारे सुभट विपक्षियों के लिए दुःसह हैं और कोई भी व्यक्ति पराक्रम से उन्हें जीत नहीं सकता । वे बलवत्तर हैं ।
६७.
निजहरिध्वनिकम्पितकातरे, वितर वा तरवारिकरे धनम् । बलप ! पत्तिचयेप्यतिदुःसहे, परबलैरबलैतपराभवैः ॥
६८.
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सतनयास्तनया अपि लक्षशः प्रहरणाहरणाधिकलालसाः । नयनयोर्मम संदधतत्सवं, नरहिता रहिताः किल दूषणैः ॥
हे सेनापते ! मेरे लाखों पुत्र और पौत्र मेरी आंखों में उत्सव उत्पन्न करें । वे शस्त्रों को ग्रहण करने में अत्यन्त आतुर हो रहे हैं । वे लोक-हितकारी तथा दूषणों से रहित हैं ।
समुपयन्तु विमानविहारिणः, सविजया विजयार्द्ध गिरीश्वराः । किमपि ये वहनन्ति दुरुतरे, विदितसङ्गर ! सङ्गरसागरे ॥