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... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् हे युद्ध विशारद ! विजयार्द्ध पर्वत के विमान-विहारी विजयी विद्याधर राजा और जो गुरुतर संग्राम रूपी सागर में पोत की तरह काम देते हैं, वे भी आ जाएं।
६६. इति निगद्य शुभं नतिकारिणामविरतं विरतं नपमानमत ।
पुनरजूहवदेष महीपतीन् , भुजवतो जवतो मनुजैनिजैः ॥
नत रहनेवाले व्यक्तियों का निरन्तर हित करनेवाले महाराजा भरत यह कहकर मौन हो गए। सेनापति सुषेण ने उन्हें प्रणाम किया और अपने आदमियों.को भेजकर उन पराक्रमी राजाओं को शीघ्र ही बुला भेजा।
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५०. सकलराजकमेतमवेत्य स , द्रुततया ततयातरणोत्सवम् । .
नरपतेरभिषेणनमूचिवानशुभहारिणि हारिणि वासरे ॥
सारे राजा वहां एकत्रित हो गए। वे महान् रणोत्सव को प्राप्त हो रहे थे । सेनापति सुषेण महाराज भरत के पास गया और अशुभ का नाश करनेवाले मनोज्ञ दिन में शत्रु पर चढ़ाई करने का निवेदन किया।
७१. क्षितिभुजामुपशल्यनिवेशिनां , न नगरी नगरीणवनाञ्चिता।
किमियमाशु विरच्यत उन्मदैः , क्षितिपकुञ्जर ! कुञ्जरसंचयैः ।।
हे राजश्रेष्ठ ! सीमान्त प्रदेशवासी राजाओं के उन्मत्त हाथियों के समूह से यह नगरी वृक्षों से रहित क्यों नहीं हुई ?
७२.
भरतराज ! समग्रगमक्रमादचरमं चर मङ्गलकारणम् । त्वमुपनन्तुमितान्तरशात्रवं , जिनवरं नवरङ्गकरार्चनैः ॥
हे भरतराज ! आप सभी को साथ लेकर मंगलकारी तथा आन्तरिक शत्रुओं को जीतने वाले प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ की, नए राग को उत्पन्न करने वाली पूजाओं से, वन्दना करने के लिए चलें।
७३. मह जिनाधिपति कुसुमैर्नवैः , सुरतरो ! रतरोगपराङ्गमुखम् ।
___ तदनु ते समराङ्गणसङ्गतं , सुगुणसंश्रय ! संश्रयते जयः ॥
हे सुगुणों के आधार ! हे कल्पवृक्ष ! आप अब्रह्म के रोग से पराङ्गमुख जिनेश्वर देव ऋषभ की नए कुसुमों से पूजा करें। उसके बाद ही समरांगण में गए हुए आपको विजयश्री प्राप्त होगी।