________________
भरत बाहुबलि महाकाव्यम्
जब अन्तःपुर के नायक की बात स्वीकार कर ली तब वह प्रसन्न होकर अपने अक्षयगृह की ओर चला गया ।
ܕܙ
५८. इति नृपोऽथ सुषेणमुपादिशत्, बलविरोचन ! रोचनमस्ति चेत् । कलयितुं बहलीशितुराहवं, तव तदाव तदात्वममकान् ॥
तब चक्रवर्ती भरत ने सेनापति सुषेण से कहा - 'हे सेना के सूर्य ! यदि बाहुबली के साथ युद्ध करना रुचिकर है तो तत्काल ही तुम देवताओं को प्रीणित करो ।
५६.
हे अकुत्सित शब्दवाले ! हे वैरियों पर विजय पाने वाले ! यदि तुम महाराज बाहुबली के समक्ष युद्ध में स्थिति करना चाहो तो चारों प्रकार की सेनाओं से अनुल्लंघ्य होकर शोभित हो जाओ ।
६०: वह दूतगिराह्वय सर्वतः, सुगुणमण्डल ! मण्डलनायकान् । तदनु तद्विजयाय समुत्सुकं कृतरमोदय ! मोदय मे मनः ॥
६१.
1
हे सुगुणमण्डल I तुम चारों ओर दूतों को भेजकर सभी मंडल-नायकों को बुलाओ और हे लक्ष्मी को उदित करने वाले ! बाद में तुम बाहुबली पर विजय पाने के लिए समुत्सुक मेरे मन को प्रसन्न करो ।
६२.
तदि चतुभिरलङ्घ्यतमो द्विषत्कृतपराजय ! राजयसे बलैः । युधि धराधवबाहुबलेः पुरो, यदि भवान् कुरुतेऽकुरुते ! स्थितिम् ॥
६३.
६४.
६५.
"
प्रथमतः परितापितविद्विषं, सबलमालवमालवभूपतिम् । वितरणैश्च वसुद्विपवाजिनां मुदितमागधमागधभूभृतम् ॥ अपरमाहववृत्तभरोच्छ्वसच्छ्रवण कुन्तल कुन्तलवासवम् । अहितवारणवारणबुद्धिमद्, हरिसमारवमारवभूधनम् ॥ विततमङ्गलजङ्गलपार्थिवं पृथुललाटललाटविशेषकम् । प्रणतवत्सल कच्छमहीपत, द्विषददक्षिणदक्षिणनायकम् ॥ अकरुणं कलहे कुरुपुङ्गवं, जवनसैन्धवसैन्धवभूमिपम् । गल दरातिकिरात महीश्वरं, मलयभूधरभूधरमादरात् ॥ इति नृपानितरानपि भूरिशः परमुदारमुदारपराक्रमान् । चरगिरा नयतान्नगरीमिमां नरचितां रचितां सुरभूभुजा ॥
,
,,
2
- पञ्चभिः कुलकम् ।
हे सेनापति ! सबसे पहले शत्रुओं को परितापित करनेवाले तथा सेना के ऐश्वर्य से