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________________ पञ्चमः सर्गः हे प्रणत-किन्नर ! हे भारतभूमि के इन्द्र ! आपका अनुशासन मानने वाले राजा क्या आपके साथ मन को आनन्दित करने वाले कानन में नहीं जाएंगे? निश्चित ही जाएंगे। ५२. विकचतामरसा तव तत्र किं , गतगभीरिम ! भीरिमजित !। न रतिखेदमपास्तुमलं स्फुरद्घनरसाऽनरसादर ! दीपिका ॥ हे गाम्भीर्य प्राप्त ! हे भयवजित ! हे मनुष्यों को खिन्न न करने वाले नायक ! उस वन की विकसित कमल वाली और जल से हिलोरें लेती हुई दीपिका क्या आपके रतिजनित खेद को दूर करने में समर्थ नहीं है ? ५३. षड़तभरुहसंपदमाश्रिते, समहिता महितां च वियोगिनाम् । फलपलाशसुमाञ्चिनि कामिहद्दितविपल्लवपल्लवराजिनीम् ।। ५४. विधृतवागुरिवागुरिकावलीविगतविप्रियविप्रियभरहे। परभृताः परिमोदयति स्फुटं, स्वरवरा रवरागविवद्धिकाः॥ ५५. विरहिणां ददति प्रतिवासरं , कुसुममार्गणमार्गणपीडनम् । मुदमपीहतदन्यविलासिनां, गलितविप्रियया प्रियया समम् ॥ पटकुटीः परिताड्य निवत्स्यते., नगरतोऽगरतोरुविहङ्गमे । बहिरितो विसरैस्तव योषितां., रुचिरकानन ! काननसत्तमे ॥ -चतुभिः कलापकम्। हे रुचिर कानन ! आपकी रानियाँ नगर से बाहिर श्रेष्ठ कानन में वस्त्र की कुटिया बनाकर उनमें निवास करेंगी। यह वन वृक्षों पर क्रीडा करनेवाले प्रचुर पक्षियों से युक्त, सभी ऋतुषों के योग्य वृक्षों की सम्पदा से सम्पन्न, फले हुए पलाश के कुसुमों से युक्त है । यह वृक्ष-संपदा सभी के लिए हितकर, परन्तु वियोगी युगलों के लिए अहितकर अर्थात् शत्रु के समान है। यह कामी व्यक्तियों के चित्त की विपत्ति के लेश को नष्ट करनेवाले पल्लवों से सुशोभित है। यह वन शिकारियों से रहित है। इसमें अप्रिय घटनाओं से रहित पक्षि-प्रिय वृक्ष हैं। यहां कोयलें राग को बढानेवाले श्रेष्ठ शब्दों से स्फुट बोल रही हैं । यह वन विरही युगलों को प्रतिदिन कामदेव के बाणों से पीडित करता है और अवियोगी युगलों को अपनी निरपराध कान्ताओं के साथ शरद् ऋतु में हर्षित भी करता है। ५७. इति तदुक्तिविधावुररीकृते , महिभृताऽहितावनिबाहना। मुदमवाप्य स कञ्चुकिनायको, विशरणं शरणं निजमाययौ ।। जिसकी भुजा शेषनाग की भांति पृथ्वी को धारण किए हुए है उस महाराज भरत ने
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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