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... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४६. किल वधूरधिरोढुमपेक्षते, गजवरं जवरजितगोद्विपम् ।
चलतरं नृप ! कापि तुरङ्गमं , सितवसुं तव सुन्दर ! वाद्भुतम् ॥
हे राजन् ! आपकी कोई कान्ता वेग से रंजित करने वाले ऐरावत हाथी पर बैठना चाहती है । हे सुन्दर ! आपकी कोई कान्ता श्वेत कांति वाले, वेगवान् तथा अद्भुत घोड़े पर बैठना चाहती है।
४७. ददतमूहमिमं सुधियां पराशुगभुजङ्गम! जङ्गमसद्म किम् । .
___ सपदि काचिदलकुरुते रथं , धृतरथाङ्ग ! रथाङ्गमनोरमम् ॥
हे शत्रु रूपी वायु का भक्षण करनेवाले भुजंगम !, हे चक्र को धारण करनेवाले राजन ! आपकी कोई कान्ता 'क्या ये जंगम घर हैं' पंडितों के मन में इस प्रकार का वितर्क पैदा करने वाले तथा रथ के अवयवों से मनोरम रथ में तत्काल बैठ गई।
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४८. मणिविराजितरशिबिकाकृते , नप ! कयाचन याचनमादधे ।
___ स्वयमकारि यदीयमलं त्वयाऽनुनयनं नयनन्दितभूभुजा ॥
हे राजन् ! किसी सुन्दरी ने मणियों से खचित स्वर्ण-शिबिका की याचना की। यह वही सुन्दरी है जिसका पूर्ण-प्रसाधन न्याय-परायण आपं चक्रवर्ती ने स्वयं किया था।
४६. वनभुवो निलयादपि कामिनः , शरदि माधव ! माधवमासि च ।
__किल कृषन्ति मनोविविधैगुमैविबुधवल्लभ ! वल्लभया समम् ।।.
हे माधव ! हे पंडितप्रिय ! शरद्ऋतु में तथा वैशाख मास में कान्ता के साथ रहनेवाले कामी पुरुषों के मन को वनस्थलियां अपने विविध वृक्षों के द्वारा घर से भी अधिक आकर्षित करती हैं।
५०. तव वधूहृदयानि वनान्तरं , शुभरते ! भरतेश्वर ! शासनात् ।
जिगमिषन्ति किमस्ति यदग्रतो, वृषभनन्दन ! नन्दनकाननम् ॥
हे कल्याण रतिवाले ! हे भरतेश्वर ! हे वृषभ नन्दन ! आपकी स्त्रियों के मन आपकी
आज्ञा से वनान्तर जाने के इच्छुक हैं । उन वनान्तरों के समक्ष इन्द्र का नन्दनवन भी कुछ नहीं है।
५१. न भवता सह काननमेष्यते , प्रणतकिन्नर ! किन्नरनायकैः ।
कृतमनोरति भारतमेदिनीशिखरिशासन ! शासनकारिभिः ॥