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पञ्चमः सर्गः
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लिए भी दुर्लभ हैं । ये स्वर्ग को छोड़कर धरती पर आई हुई देवांगनाओं के सदृश हैं ।
४१.
तव वधूभिरनुत्तरदृष्टिभिस्त्रिजगती जगतीश ! चमत्कृता ।
अत इहानघरूपतयेरिताः सुकृतिभिः कृतिभिश्च विशिष्य ताः ॥
हे जगदीश ! मनोज्ञ दृष्टिवाली श्रापकी कान्ताओं ने तीनों जगत् को चमत्कृत कर दिया । इसलिए इस संसार में पुण्यवान् और पंडित व्यक्तियों ने उनके पवित्र रूप विशेषता पूर्वक निरूपण किया है ।
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४२. प्रथितिमान् नलिनीनिचये त्रयोधिपतया पतयालुकरोऽस्तु मा । इति धिया सुदृशोङ्गपिधत्सया, परितः परितः सिचयं न्यधुः ॥
४३.
राजन् ! नलिनी समूह में जो स्वामी के रूप में प्रख्यात है, वह सूर्य हमारे अंगों पर अपने कर (किरणें ) न फैलाए, इस बुद्धि से प्रापकी स्त्रियों ने अपने समूचे शरीर को ढकने की इच्छा से, ऊपर से तथा चारों ओर से, उस पर वस्त्र धारण किया ।
४४.
रतिरधीश ! कयाचिदभीप्स्यते, सरसिजाननया न नयार्णव ! । किमपि पुष्पचये भवता समं, वनतरोर्नतरोपितसौहृद ! ॥
अधीश ! हें न्याय के समुद्र ! हे प्रणत व्यक्तियों से मंत्री रखनेवाले ! क्या कोई कमलमुखी कान्ता आपके साथ वनवृक्ष के फूलों को चुनने में कोई आनन्द नहीं मानती ? अवश्य मानती है ।..
सुभगराज ! कयाचन कान्तया, नगवरो गवरोद्धतनीडजः । न भवता सह रन्तुमपेक्ष्यते, किमलिनीमलिनीकृतकुड्मलैः ?
हे सुभगराज ! आपकी कोई कान्ता भ्रमरी के द्वारा मलिन किए हुए फूलों के गुच्छों से आपके साथ क्रीड़ा करने के लिए क्या अनेक पक्षियों के निवास वृक्षों से युक्त अच्छे पर्वत की बाँछा नहीं करती ? अवश्य करती है ।
४५. त्वदवरोधवधूर्ह तमत्सरव्यसनिदेश ! निदेशत एव ते ।
भटिति वाञ्छति कापि समं त्वया क्रमनमज्जन ! मज्जनमम्भसि ॥
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हे मत्सरी और व्यसनी शत्रुओं के देशों का अपहरण करने वाले ! हे जन- पूजित चरण ! आपके अन्तःपुर की कोई सुन्दरी आपकी आज्ञा से आपके साथ शीघ्र ही पानी में मज्जन करने की इच्छा करती है ।