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________________ षष्ठः सर्गः ११९ दानशील मूर्धन्य ! आपके बाएं - दाएं दोनों हाथ सदा मनोवांछित वस्तु देने में स्वर्गरत्न - चिन्तामणि और स्वर्ग फलद - कल्पवृक्ष से भी अधिक फलदायी हैं, ऐसा जानना चाहिए । ४२. ४३. समुद्र नदियों का स्वामी होता हुआ भी जल - जड़ता युक्त है। चांद गौरकांति वाला होता हुआ भी सकलंक है । सूर्य तेज का निधान होता हुआ भी निस्तेज है । देव ! आप इनसे कैसे उपमित हो सकते हैं ? ४४. वाहिनीपतिरयं जलताढ्यो, गौरकान्ति रपि संश्रितदोषः ।। तेजसां निधिरपि क्षतधामा तत्कथञ्चिदुपमेय इह त्वम् ॥ ४५. भारत भूमि के स्वामिन् ! आपकी यह कीर्ति लोक में युगान्त तक स्थायी रहेगी । इसी का अनुसरण कर भविष्य में होनेवाले राजे पृथ्वी की रक्षा करेंगे । , " आयुगान्तमपि कीर्त्तिरियं ते स्थास्नुरत्र भरतावनिशक ! | भाविनोऽपि यदमूमनुसृत्य क्ष्माभृतो वसुमतीमवितारः ॥ ४६. 1 " कीर्ति निर्जरवा' तव राजन् ! विष्टपंत्रितयपावनदक्षा । " राजहंस रचिता धिकहर्षा वाहिनीरमणतीरगमित्री ॥ राजन् ! 'तीनों लोकों को पावन करने में दक्ष, राजहंसों— श्रेष्ठ राजानों द्वारा उल्लसित आपकी कीर्ति रूपी गंगा समुद्र के तीर की ओर जाने वाली है । त्वत्प्रतापदहने त्वदरीणां भस्मसादिह यशांसि भवन्ति । स्वेच्छया टति यशोनवयोगी, भस्मना वपुरनेन विलिप्य ॥ देव ! आपके प्रताप रूपी अग्नि में आपके शत्रुओं के यश भस्मसात् हो जाते हैं । आपका यश रूपी नया योगी, वैरियों के भस्मसात हो जाने पर बनी राख से अपने शरीर को लिप्त कर, इच्छानुसार विचरण करता है । व्यानशे तव यशश्चतुराशा, वाहिनीशितुरिवाम्बु विवृद्धम् । तंत्र सेतवति कोपि न राजा, मार्गणा स्त्वनिमिषन्ति नितान्तम् ॥ १. गौरकान्तिः - चन्द्रमा | २. तेजसां निधि:- सूर्य । ३. निर्जरवहा - गंगा । ४. सेतवति - पालिवदाचरति । ५. मार्गणः– याचक (मार्गणोर्थी याचनक: - अभि० ३।५२ ) ६. अनिमिषन्ति - मीनवदाचरन्ति ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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