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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
३८. मल्लिकाकुसुमकुड्मललेखाहासहारिसुभगस्पृहणीयम् ।
दन्तुरं कुमुदकुन्दकलापस्तूर्यनादमुखरं स ललखे ॥
-त्रिभिविशेषकम् ।
वह गोपुर (प्रवेश-द्वार) नगरी के आनन की तरह नीलरत्न रूपी नयन की युति से मनोरम द्वार के ऊपर तिरछी लगी हुई लकड़ी रूपी विस्तृत ललाट और उस पर शोभित होने वाले रत्नमय तोरण रूपी तिलक से शोभित हो रहा था ।...
उस गोपुर की स्वर्ण-भित्तियाँ कपोल स्थानीय थीं। उसकी छत शोभायुक्त थी, मानो कि वह उसकी सुन्दर नासिका हो। उसमें लगी हुई. खूटियाँ सुन्दर या वक्र भौंहें सी लग रही थीं। वह श्रीविलास के किसलय रूप अधर बिम्ब वाला था।
वह गोपुर मल्लिका-पुष्पों के गुच्छों के हास्य को भी हरण करने वाले सुभगों द्वारा स्पृहणीय था। वह सफेद कमल और कुन्द पुष्पों के समूह से दन्तुर-बाहर निकले हुए सिरों वाला तथा वाद्यों के नाद से मुखरित था । महाराज भरत ने उस नगर-द्वार को पार कर दिया।
३९. सार्वभौम ! भवता स्पृहणीयः , सर्वथैव वृषभध्वंजवंशः।
दैवतावनिरुहेव सुमेरुः , कौस्तुभेन' च हरेरिव वक्षः ॥
चक्रवर्तिन् ! आपको ऋषभ के वंश की सर्वथा स्पृहा करनी ही चाहिए । जैसे कल्पवृक्ष सुमेरु पर्वत की और कौस्तुभमणि विष्णु के वक्षस्थल की स्पृहा करते हैं।
४०. मौक्तिकरिव यशोभिरशोभि , क्ष्मातलं विमलवृत्तगुणाढ्यैः ।
दिक्पुरन्ध्रिहृदयस्थलधार्यहेतुरम्बुधिरिव त्वममीषाम् ॥
जैसे स्वच्छ और गोलाकार आदि गुणों से (अथवा गुण-डोरी से) युक्त मोतियों से भूमि शोभित होती है, उसी प्रकार विमल आचरण और गुण से सम्पन्न तथा दिशा रूपी सुन्दरियों के वक्षस्थल पर धारण करने योग्य यश से आपने पृथ्वी को शोभित किया है । जैसे मोतियों का हेतु (उत्पत्ति-स्थल) समुद्र है, वैसे ही यश के हेतु आप है।
४१. वामदक्षिणकरद्वयमेतत् , स्वर्गरत्नफलदाधिकमह्यम् ।
सर्वदेव हृदयेप्सितवस्तुप्रापणात् तव वदान्यवतंस ! ॥. १. दैवतावनिरुट-कल्पवृक्ष । २. कौस्तुभः—विष्णु के वक्ष-स्थल में स्थित मणि (भुजमध्ये तु कौस्तुभः -अभि० २।१३७) ३. ऊह्यम्--ज्ञातव्यम् ।