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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् जैसे समुद्र का पानी ज्वार के समय चारों दिशाओं में बढ़ता है वैसे ही आपका यश चारों दिशाओं में व्याप्त हो गया है। कोई भी राजा उसके लिए बांध नहीं बन रहा है-प्रतिरोध नहीं कर रहा है और याचक उसमें मछलियों की भांति तैर रहे हैं ।
४७.
देव ! चन्द्रति' यशो भवदीयं , सांप्रतं क्षितिभजामितरेषाम् । तारकन्ति' च यशांसि कृतित्वं , तत्तवैव न हि यत्र कलङ्कः॥
देव ! आपका यश चन्द्रमा के समान प्रदीप्त है और दूसरे राजाओं का यश तारों की भांति टिमटिमा रहा है। जहां आपके यशःचन्द्र में किसी प्रकार को कलंक नहीं है, वहां आपका ही कर्तृत्व है।
४८. त्वामपास्य संकलार्थदहस्तं , योत्र विह्वलतया श्रयतेऽन्यम् । । .
दुर्मतिः स हि सुधाब्धिमपास्ता, शुष्यदम्बुसरसि स्थितिमान् यः॥
आप हाथ के समान समस्त वस्तुओं के दाता हैं। जो व्यक्ति अपनी विह्वलता के कारण आपको छोड़कर किसी दूसरे का आश्रय लेता है वह दुर्मति अमृत के समुद्र को छोड़कर सूखते हुए तालाब का आश्रय लेता है।
४६. को गुणस्तव स येन निबद्धा , राजराज ! चपलापि जयश्रीः ।
नान्यमेव भवतश्च वृणीतेऽतस्त्वदीयसुभगत्वमिहेड्यम् ॥
चक्रवर्तिन् ! आपका वह ऐसा कौनसा गुण है जिससे. बंधकर यह चंचल विजयलक्ष्मी भी आपको छोड़ किसी दूसरे का वरण नहीं करती ? अतः इस विषय में आपकी सुभगता स्तुत्य है।
५०. पश्य पश्य गगनक्षितिचारि , त्वबलं खररुचं पिदधाति ।
इत्यवेत्य गगनान्तविहारी , ख्यातिमेति कथमत्र महस्वी' ?
देखो, देखो, आकाश और भूमि पर चलनेवाली आपकी सेना सूर्य को आच्छादित कर रही है, यह जानकर आकाश के छोर तक विचरण करनेवाला सूर्य इस लोक में ख्याति को कैसे प्राप्त कर सकता है ?
१. चन्द्रति-चन्द्रवदाचरति । २. तारकन्ति–तारावदाचरन्ति । ३. इड्यम्-स्तोतव्यम् । ४. वेक्ष्य-इत्यपि पाठः। ५. महस्वी-सूर्य।