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________________ १२१ षष्ठः सर्गः ५१. इत्थमथिजन वाक्यपदान्याकर्णयन् क्षितिपतिविलुलोके । शाखिभिः परिवृतानि समन्तात् , काननानि सविधे पुर एव ॥ महाराज भरत ने मंगल-पाठकों के ये वाक्य सुने और नगर के निकट ही चारों ओर वृक्षों से परिवृत काननों को देखा।। ५२. स्वस्वनागहयपत्तिरथाढ्या , उत्तरोत्तररमापितचित्राः। पृष्ठतः क्षितिपतेः पृथिवीशा, अन्वयुः करभरा इव भानोः॥ जैसे सूर्य के पीछे-पीछे किरणों का समूह चलता है वैसे ही महाराज भरत के पीछे-पीछे अपने-अपने हाथी, घोड़े, सैनिक और रथों से युक्त (बत्तीस हजार) राजे चल रहे थे। वे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट ऐश्वर्य के द्वारा दूसरों को आश्चर्यचकित कर रहे थे। ५३. आदिदेवतनयं ध्वजिनीं तां, तारकारि मिव निर्जरसेनाम् । अन्वितां समवलोक्य सतर्क , नागरा इति परस्परमूचुः॥ कात्तिकेय के पीछे-पीछे चलने वाली देवसेना की तरह महाराज भरत के पीछे-पीछे चलनेवाली उस सेना को देखकरन्नगरवासी लोग परस्पर तर्क सहित इस प्रकार कहने लगे :५४. एतयोर्ननु पिता जगदीशः , सर्वसृष्टिकरणकविधाता। कि विरोधतरुरुप्यत आभ्यां, युत्फल श्चरनियोजनसूनः ? 'भरत और बाहुबली के पिता जगत् के स्वामी और सारी सृष्टि के एकमात्र विधाता थे । क्या अब ये दोनों वैर-वृक्ष का वपन कर रहे हैं, जिसका फल है युद्ध और फूल है दूत का संप्रेषण ?' ५५. न प्रभुर्न इह तृप्तिमवापद् , भारतक्षितिपराज्यगृहीत्या। वाडवाग्निरिव दुर्धरतेजाः , सिन्धुराजसलिलाभ्यवहृत्या ॥ हमारे स्वामी भरत भारतवर्ष के राजाओं के राज्य लेकर भी तप्त नहीं हुए, जैसे समुद्र के पानी का भक्षण करके भी दुर्धर तेजवाली वाडवाग्नि तप्त नहीं होती। १. अर्थिजन:-मंगलपाठक । २. उत्तरोत्तर..."-उत्कृष्टोत्कृष्टलक्ष्मीभिरपितं-दत्तं चित्रं-आश्चर्य यः, ते । ३. तारकारि:-कात्तिकेय (तारकारिः शराग्निभू:-अभि० २।१२३) ४. युत्फलः–युत् (युद्ध) एव फलं यस्य, असौ ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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