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१२६. यदि ते युधि निर्बन्धस्तहि त्वं मत्सुतैः सह । कुरु सांग्रामिकों क्रीडां दन्ती विन्ध्य मैरिव ॥
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'यदि युद्ध करने के लिए तुम्हारा आग्रह है तो तुम मेरे पुत्रों के साथ युद्ध क्रीड़ा करो, जैसे हाथी विन्ध्य पर्वत के वृक्षों के साथ क्रीडा करता है ।'
१२७. पितृव्या ! ऽद्य ममाशंसां, पूरयस्व रणस्य च । इत्यूचानः स कोदण्डं, सटङ्कारमधात्त राम् ॥
'पितृव्य ! आप मेरी रण की इस आशंसा को आज पूरी करें - यह कहते हुए सूर्ययशा ने टंकार करते हुए धनुष्य को धारण किया ।
१२८. अमू लोकत्रयोन्माथमन्दरागौ महाभुजौ । किं कर्त्ताविति स्वैरं सुरा अपि चकम्पिरे ॥
भरतबहुबलिमहाकाव्यम्
महान् भुजाओं के धनी, तीनों लोकों के मन्थन लिए मंदर पर्वत के तुल्य ये दोनों ( बाहुबली और सूर्ययशा ) आज क्या कर देंगे' – यह सोचकर देवता भी प्रकंपित हो उठे ।
१२६. निर्घोषात् कुलिशर वातिभीष्मरूपात्
कोदण्डस्य दिततमः प्रियस्य कण्ठः ।
ताभिस्त्रिदशवधूभिराललम्बे, वाणीभिः सकलविदामिवाशु भव्यः ॥
उन दोनों के धनुष्य से निकले हुए वज्रपात से भी अतिभीषण निर्घोष से भयभीत होकर देवांगनाओं ने अपने प्रियतमों के बिछुड़े हुए कण्ठों का आलंबन ले लिया जैसे सर्वज्ञ की वाणी भव्य प्राणी का आलंबन लेती है ।
१३०. कल्पान्तोद्य किमागतोऽयमधुना किं मेरुणा शीर्यते ? शेषाहिर्वसुधाधुरं परिहरत्यस्मिन् मुहूर्त्ते किमु ? अम्भोधिः स्थितिमुज्जहाति किमुतेत्यज्ञायि युद्धं तयोः, क्ष्वेडाक्षेपकरम्बिकार्मुकरवप्रोत्थापितैः स्वर्गभिः ॥
क्या आज प्रलयकाल आ गया है ? क्या मेरू पर्वत शीर्ण हो रहा है ? क्या अभी इस मुहूर्त में शेषनाग वसुधा की धुरा का परिहार कर रहा है ? क्या समुद्र अपनी मर्यादा को छोड़ रहा है ? — इस प्रकार सिंहनाद के क्षेपण से युक्त धनुष्य के शब्दों से व्याकुल होकर देवताओं ने उन दोनों के युद्ध को जाना ।